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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

तत्त्वज्ञानका अनुभव अभी कैसे हो? - (श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज)।

तत्त्वज्ञानका अनुभव अभी कैसे हो? 

 (श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज)। 

[ सत्संग-प्रेमी सज्जनों से सादर नम्र-निवेदन है कि परमात्मतत्त्व का अनुभव करने के लिये यहाँ लिखी बातें ध्यान देकर पढ़ें। 

   जो साधक "तत्त्वज्ञान" चाहते हैं,परमात्मतत्त्व में अपनी स्थिति का अनुभव करना चाहते हैं,  जो सरलता से "भगवत्प्राप्ति" चाहते हैं, 'भगवान् में प्रेम' चाहते हैं,'अपने स्वरूप और 'भगवान् के तत्त्व' को जानना चाहते हैं, अनुभव' चाहते हैं,  "मुक्ति" चाहते हैं, दुःख, शोक, चिन्ता, भय और काम,क्रोध आदि विकारों से छूटना चाहते हैं, उनको श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के यहाँ बताये गये "प्रवचन" 'ध्यान देकर सुनने चाहिये' तथा यह लेख समझ- समझ कर, ध्यान से पढ़ना चाहिये। इससे भगवत्प्राप्ति में बहुत बङी सहायता मिलेगी। ऐसा मेरा विश्वास है ]।

 

19940820_0518_Ahamta Ka Tyag  (bit.ly/3QGp2TZ)

(श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के बीस अगस्त, उन्नीस सौ चौरानवें, प्रातः पाँच बजे, भीनासर (बीकानेर) वाले " प्रवचन" का 'यथावत् लेखन')। 

 

{ 0 मिनिट से } - { रामायण में आया है कि-

जङ चेतनहि ग्रंथि परि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥ २ ॥ 

••• इस प्रकार जड और चेतनमें ग्रन्थि (गाँठ ) पड़ गयी। यद्यपि वह ग्रन्थि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटनेमें कठिनता है ॥ २ ॥         (रामचरितमा• ७।११७)।

 (इस बात को लेकर श्रोता ने प्रश्न किया कि यह झूठी है तो फिर यहाँ छूटने की कठिनता क्यों बताई गई ? इसपर श्रीस्वामीजी महाराज समझाने लगे-) 

श्रीस्वामीजी महाराज- हाँ, तो "मृषा" (झूठी) अगर न हो (1 मिनिट से) तो छूटे कैसे? "छूटत" छूटती वही है जो झूठी होती है, 'नाभावो विद्यते सतः' (गीता २|१६;) - सद्वस्तु का तो अभाव होता नहीं। तो झूठी नहीं हो तो छूटेगी ही नहीं, 'सत् का अभाव (सत्यतत्त्व का नाश) कभी होता ही नहीं'। इस वास्ते ये(यह) झूठी है वास्तव में। अर (और) 'छूटत कठिनई' क्यों है कि स्वयं पकङ रखा है न ये (यह स्वयं ने पकङ रखा है न)। स्वयं छोङे तब छूटती है, दूसरे के छुड़ाने से नहीं छूटती है। कितनी ही कोई मेहनत करे। जबतक ये स्वयं नहीं छोड़ता, तबतक ये छूटेगी नहीं। 

  इसमें क्या बाधा लगती है कि जो छोड़ना चाहता है,वो छोड़ना चाहता है, वो कह, "मैं छोड़ना चाहता हूँ"- ये ही ग्रंथि है। अपणा जो अहंकार है,(2 मिनिट•) वो- [मैं]"छोङना चाहता हूँ" तो ग्रंथि (को) तो पकङे हुए है, छोङेगा कैसे? 'अधिक अधिक उळझाय', छोड़ना चाहता है तो अधिक उळझती है। तो छोङने का अभिमान होता है। तो "अभिमान"- वो [ही] तो ग्रंथि है अर छोङना चाहता है अभिमान करके र - 'मैं छोङदूँ' तो मैं को तो पकङा हुआ है, छोङेगा कैसे?। इस वास्ते बङी कठिण (कठिन) है ये। 

   तो कैसे छूटे? थोड़ा ध्यान दें आपलोग। ये च्यार बातें हैं- 'मैं', 'तूँ', 'यह' और 'वह'। एक 'मैं' 'है',एक 'तूँ' है, एक 'यह' है, एक 'वह' है। बोलने वाला, वो तो कहता है- 'मैं हूँ'(3 मिनिट•) और जिसको कहता है, वो 'तूँ है' और नजदीक है वो 'यह है' और वोऽ जो दूर है वो 'वह है'। ये च्यारूँ (चारों) एक ही चीज़ है- 'मैं अरु मोर तोर तैं माया' (रामचरितमा.३|१५) - 'मैं' 'मेरा' र 'तूँ' 'तेरा', ये माया है। तो च्यार में दो बात रही- 'मैं- मेरा' र 'तूँ- तेरा'। और सन्तों ने कहा कि मैं मेरे की जेवङी गळ बँध्यो संसार। तो इसमें तो 'मैं', 'मेरा'- दो ही रहा। 'मैं', 'मेरा'- दो रहा, 'तूँ', 'तेरा'- च्यार हो गया। 'यह' और 'उसका'('इसका'), 'वह' और 'उसका'- आठ हो गया। ये है सब 'अहम'। एक 'अहम्' ही है ये सब रूप (इन सब रूपों में एक 'अहम्' ही है)। ये सम्पूर्ण संसार है। (4 मिनिट.) इस संसार का खास, मूल क्या है? ये 'मैं- पन' है। ये मिट ज्याय तो संसार मिट ज्यायगा अर नहीं मिटेगा तो संसार नहीं मिटेगा। क्यूँ क (क्योंकि) मूल कारण ये है। भगवान् ने कहा है कि 

भूमिरापोऽनलोवायुःखंमनोबुद्धिरेव च। 

अहंकार इतीयं मे भिन्नाः प्रकृतिरष्टधा।।       (साधक- संजीवनी गीता ७|४)। 

अपरेयम्,- आ (यह) अपरा है। आठ प्रकार की- पृथ्वी,जल,तेज,वायु,आकाश,मन,बुद्धि र अहम्, ये अपरा प्रकृति है। इससे दूजी (दूसरी) प्रकृति है जीवरूप- परा प्रकृति भगवान् की। तो 'एतद्योनीनि' 'सर्वाणि'- सम्पूर्ण में, ये ही कारण है सब का- अपरा र परा प्रकृति का मिलन। और परा र अपरा का ही मिलन- इसको ही 'चिज्जङग्रंथि' कहते हैं। (5 मिनिट•) ये ही 'जङचेतन की ग्रंथि' है। 'अहम्' तो है जङ। 'अहम्'- 'मैं', 'मैं', 'मैं', 'मैं'- ये 'जङ' है। और 'मैं' 'हूँ', 'हूँ'- ये है 'चेतन'। तो "मैं हूँ"- ये एक ग्रंथि है। अब इसको (इसका) "मैं" अलग हो ज्याय, "हूँ" 'है' में मिल ज्याय। "मैं" तो मिल ज्यायगा 'संसार' में अर "हूँ" मिल ज्यायगा 'परमात्मा' में अर छूट ज्यायेगी (छूट जायेगी)। 'परमात्मा' का 'अंश' तो- "हूँ", 'संसार' का 'अंश'- "मैं"। ये दोनों मिली हुई– इसको "जङ-चेतन-ग्रंथि" कहते हैं। तो वास्तव में "मैं" में "हूँ" नहीं है, "हूँ" में "मैं" नहीं है अर "मैं" से ही "हूँ" है र "हूँ" से ही "मैं" है। परन्तु "हूँ" तो 'सत्ता' है। 'सत्ता' में "मैं" नहीं है और "मैं" है वो 'स्वतन्त्र सत्ता' नहीं है। (6 मि.) वो 'मानी हुई', 'पकङी हुई सत्ता' है। तो एक तो 'वास्तविक सत्ता' र एक जो 'मानी हुई सत्ता'- दोनों मिलकर के 'एक' हुआ। इसको ही "जङचेतन की ग्रंथि" कहते हैं। 

   तो ये है तो मृषा; क्यूँकि रात और अँधेरे की गाँठ होती नहीं। अमावस्या और सूर्य का गठबन्धन हो ज्याय- अमावस्या का सूर्य के साथ विवाह करलें; तो कैसे हो ज्यायेगा? सूर्य हो तो अमावस्या की रात रहेगी नहीं, अमावस्या की रात होती (होगी) तो सूर्य नहीं रहेगा। दोनों एक जगह कैसे होंगे? तो ऐसे ही 'मैं' तो है परिच्छिन्न- एकदेशी और माना हुआ र 'हूँ' है सत्ता और सर्वदेशी। तो ये दोनों एक कैसे हो ज्यायेंगे? 'हूँ' है वो तो प्रकाश है,चेतन है और 'मैं' है- ये जड है, प्रकाश्य है। (7) 'प्रकाशक' और 'प्रकाश्य' एक कैसे होंगे? परन्तु पकङा हुआ है ये। अब छोङे तो क्या क मैं छोङता हूँ। तो 'छोङता' [हूँ] तो नाम होगा र 'मैं' [को] पहले पकङेगा; तो छोडेगा कैसे? 

   तो फेर (फिर) छोङने का उपाय क्या है? छोङने का उपाय है कि ' मैं हूँ '- इसमें "मैं" जो "हूँ" है -' मैं हूँ ', ख्याल करें- ये ' मैं हूँ ' का "भान" (ज्ञान) होता है ना ! - 'मैं हूँ', जिस तरह से हमारे को "प्रकाश" में "थम्भा" (खम्भा) दीखता है, ये "प्रकाश्य" है, ऐसे 'अपणे आपमें', 'मैं हूँ' - ऐसा दीखता है न- 'मैं हूँ', अऽर (और) 'मैं हूँ' र 'तूँ है', 'यह है' र 'वह है'- ये च्यारों (इन चारों) का "भान" होता (8) है क नहीं? ठीक तरह से आप विचार करके बोलें क 'मैं हूँ' र 'तूँ है', 'यह है' र 'वह है', ये- च्यारों का 'भान'  होता है कि नहीं होता है? अगर 'भान' नहीं होता, तो 'मैं हूँ', 'यह है', 'वह है', 'तूँ है'- ये कहते कैसे हैं? तो इनका 'ज्ञान' होता है। च्यारों का 'ज्ञान' होता है न? 'मैं हूँ'- इसका ज्ञान है, 'तूँ है'- इसका ज्ञान है, 'यह है'- उसका ज्ञान है, 'वह है' - इसका ज्ञान है। तो च्यारों का ज्ञान है। तो "ज्ञान" के "अन्तर्गत" है च्यारों। एक "प्रकाश"- एक "जाणणापण" ("जाननापन") है "जाणणापण"- "जाणणा"। एक "सत्ता", जाणणेवाळा- चित्त। ए(इस) "जाणणापण" के अन्तर्गत "मैं" और "तूँ" , "यह" और "वह" है। (9) ये ख्याल आया कि नहीं? 

 अब ये जो च्यार दीखता है, तो ये, "जाणणापण" जो है,वो तो है- "सच्चा" र ये है (हैं)- "कच्चे"। तो "जाणणापण" में अपणी "स्थति" मानें कि "जाणणापण" है- ये "सरूप" (स्वरूप) है। उसमें "स्थित" हो ज्याय, जो कि "स्थिति" है उसमें। अर "मैं", "तूँ", "यह", "वह",- नहीं हैऽऽ।, 

   आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् (साधक- संजीवनी गीता ६|२५)कुछ भी चिन्तन न करे। ना "परमात्मा" का, ना "आत्मा" का,  ना "संसार" का - कुछ भी चिन्तन न करे। अर "मैं", "तूँ", "यह", "वह",- है नहीं और जो "प्रकाश" है, वो- हैऽ। वो हमदम रहता है। (10) "मैं", "तूँ" बदलता है- "मैं" जब कहता हूँ तो अपणे को "मैं" मानता हूँ , आप जब मेरे को कहते हो तो "तूँ" होता हूँ, उसमें "मैं" नहीं होता हूँ, "तूँ" हो ज्याता (जाता) है। मैं पास में होता [हूँ] तो "यह" हो ज्याता है और दूर होता हूँ तो "वह" हो ज्याता है। तो "मैं" हरदम नहीं रहा। "मैं" तो एक मेरी दृष्टि में ही रहा। आपकी दृष्टि में "तूँ" है, दूसरे की दृष्टि में "यह" है। चौथे की दृष्टि में "वह" है। तो "मैं", "मैं" तो केऽऽवल 'एक वोट' है- मेरा। अर "तूँ" र "यह" र "वह"- सैकड़ों वोट है इसमें। 

   ख्याल में आया कि नहीं भाई! "मैं" तो एक ही आदमी कहेगा- 'मैं- (हूँ'), दूजा आदमी "मैं" कहेगा उसको? अर "तूँ" तो कई कहेंगे। हरेक कह देगा- 'तूँ है',(11) 'तूँ है', 'तूँ है', 'तूँ है', 'तूँ है' और 'यह है', 'वह है'। 

   तो "यह" "वह" में तो बोट (मत) बहोत (बहुत) मिलते हैं। "मैं" में तो बोट एक ही मिलता है। तो फेर "मैं" नहीं है। अपणा "मैं" है- (यह) "मैं" नहीं है। किन्तु "मैं" का "प्रकाशक" है। वो "प्रकाशक" "तूँ" का र "यह" का र "वह" का- चारों का है। "प्रकाशक" है, "मैं" नहीं है। 

   जैसे येह "थम्भा" है। तो "थम्भा" तो "आणे- जाणे वाला" है और "प्रकाश" "स्थिर रहणा" (रहनेवाला है)- "प्रकाश" के "अन्तर्गत" "मैं" और "यह थम्भा" है। "थम्भा" "एकदेशीय" है, "प्रकाश" "सर्वदेशीय" है। ऐसे "मैं- पन" "एकदेशी" है और "मैं- पण" का "भान" जिसमें होता है वो "प्रकाश" "सर्वदेशी" (12) है। "सर्वदेशी" में "थम्बा" नहीं है, "सर्वदेशी" में "मैं-पन" नहीं है। "एकदेश" में है। तो "एकदेश" छोङकर "सर्वदेश"- नित्य: सर्वगतः स्थाणुः, अचलो अयं सनातनः।। (साधक- संजीवनी गीता २|२४) "नित्य" है, "सर्वगत"(सर्वदेशी) है, "स्थाणु" है, "अचल" है, "सनातन" है। तो जो "ब्यापक" (व्यापक) है, उसके "अन्तर्गत" "मैं-पण" है। इस वास्ते "मैं-पण" की "उपेक्षा" करदे। ' "मैं-पण" को मिटाता हूँ', (यह) नहीं , "मैं- पण" से अपना "ध्यान"- "दृष्टि" हटाले। हमारी "दृष्टि" "है- पण" में है। "है- पण" में "स्थित" हो ज्याय, जो कि "है- पण" में "स्थिति" स्वतः है। "है- पण" में "स्थिति"कोहीज (को ही वास्तव में) "हूँ" कहते हैं। "हूँ" कहते हैं "मैं" की "सत्ता" को लेकर। ' "मैं" की "सत्ता" ' की "उपेक्षा" करे तो "है- पण" ही होगा। (13) और "है- पण" में "मैं- पण" नहीं है। "मैं- पण" में तो "हूँ- पण" है, "हूँ" से "मैं" कहलाता है अर "मैं" से "हूँ" कहलाता है। "मैं" की "दृष्टि" हटाले तो "हूँ- पण" है ही नहीं, "है- पण" ही होगा, एक "है"ऽऽऽ। 

   श्रोता- (साथीणवाले पण्डित जी-) "है" के भीतर तो "हूँ" और "यह" "वह" भी मिट जायेगा। 

प्रश्न- हँऽऽ? (क्या बोले?)। 

उत्तर- है के भीतर में  "हूँ" और "यह" "वह" - सब मिट जायेगा। 

श्रीस्वामीजी महाराज- सब मिट ज्यायगाऽऽ, यही बात है। ये सब "मैं" के ऊपर ही आधारित है। "मैं" से ही "तू" है, "मैं" से ही "यह" है, "मैं" से ही "वह" है। "मैं" नहीं रहा तो [न] "तूँ" रहा, न "वह" रहा, न "यह" रहा, केऽऽऽवल "तत्त्व" रहा। केवल "प्रकाश" रहा,(14) केऽवल "ज्ञान" रहा। "ज्ञाता" कोई नहीं रहा। "ज्ञानमात्र्"। वो "ज्ञानमात्र्" में जो अपणी "स्थिति" है उसको भी सम्भाळ ले, 'संकर सहज रूप सम्हाळा'- शंकर ने "सहज रूप" को "सम्भाळा"। तो "है" ही रहा- लागि समाधि अखंड अपारा।। (रामचरितमा॰१|५८), "समाधि" लाग (लग) गई, "है" में वो "समाधी" हो गई। "है" में "तूँ" है न कोई "मैं" है न कोई "यह" है। ये [बात] है सा। 

श्रोता- (हरिगिरीजी महाराज-) 'सहज रूप सम्भाळा' का आता है 

प्रश्न- हँ जी? (सुनायी नहीं पङा)। 

श्रोता- 'संकर सहज रूप संभाळा' (यह कहा गया, तो शंकर) "रूप" को भूल गये थे क्या?, शंकर भगवान् अपने "स्वरूप" से "च्युत" हो जाते हैं क्या? (जो सम्हाळना पङा)। 

 श्री स्वामीजी महाराज- पूरा सुणा नहीं मैंने। 

अन्यश्रोता- (मनमोहन जी महाराज-) शंकर भगवान् है, [वो] अपने स्वरूप से च्युत होते हैं क्या कभी? 

श्रीस्वामीजी महाराज- ना, "स्वरूप" से "च्युत" नहीं होते, 'मैं- पण' को 'स्वीकार करते हैं'।(15) "च्युत" कोई नहीं होता है। "स्वरूप" से च्युत कोई नहीं हुआ, कभी नहीं हुआ, कभी नहीं होगा, कोई भी। "स्वरूप" से "अलग" थोङे ही होते हैं,  एक "मैं" को पकड़ लेते हैं, तब "अलग" मानते हैं- कर्ताहमिति मन्यते।। (गीता ३|२७) अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते - माना हुआ है। 'अलग- च्युत नहीं होते'। [च्युत] कोई भी नहीं है,अभी अपणे को "च्युत" मानते हैं। "मैं- पन" को पकड़ने से वो "च्युत" होता हुआ दीखता है, "च्युत" हो गया- ऐसा मानते हैं। 

श्रोता- (हरिगिरीजी महाराज-) यह 'मैंपन' तो वहाँ भी है,'शंकर भगवान्' भी "मैं" को स्वीकार करते हैं क्या? 

श्रीस्वामीजी महाराज- "मैं" को भगवान् स्वीकार करते हैं, तभी तो बोलते हैं! तो 

"संकर सहज सरूप सम्हारा।" ...

"लागि समाधि अखंड अपारा।।" (16) 

ऐसे जो च्यार है, बङी सीधी बात बताऊँ, सीधी बात, सरल बात। कह- (उँचे स्वर में- ) "मैं" और "तूँ" और "यह" और "वह"- च्यारों का "भान" होता है क नहीं? यह पहले बताओ, च्यारों का "भान" होता है क नहीं? जैसे "थम्भा" दीखता है, ऐसे भीतर- 'मैं' 'तूँ' 'यह' 'वह' दीखता है क नहीं भीतर? यह बाहर दीखता है 'थम्भा'। 

श्रोता- दीखता है। 

श्रीस्वामीजी महाराज- दीखता है न, तो/जो "दीखता" है, इसकी "दृष्टि" हटादे, इसकी (दृष्टि) हटादे  बस, और "दृष्टि" 'करे नहीं', 'हटादे'। जो च्यारों [का] प्रकाशक है- च्यारों का प्रकाश है, वो "प्रकाश" केवल रह ज्यायगा बऽस, ये मिट गई। सीधी बात है, एकदम ऽऽ सरल, (ऊँचे स्वर में-) एकदम सीधी। (17) बोलो इसमें कोई शंका है? बोलो शंका हो तो। मानो,ये जो,  इतने हैं आदमी, दीखते हैं, थम्बा दीखता है,ये दीखता है ना? तो दीखता है तो "प्रकाश" में दीखता है। ये "प्रकाश" के "अन्तर्गत" हैं सब और "प्रकाश" में कुछ नहीं है,"केवल प्रकाश" में कुछ नहीं है, केवल "प्रकाश" के "अन्तर्गत" दीखते हैं। "अन्तर्गत" की तरफ "दृष्टि" न रखकर के, अर "चुप" हो ज्याय, तो "प्रकाश" ही रहेगा। 'अन्तर्गत दीखने वालों' की तरफ "दृष्टि" न रखकर के ••• [ चुप हो जाय ] और कुछ भी नहीं बस, ...(ये,इनकी तरफ) "दृष्टि" न रखे। 'प्रकाश की तरफ "दृष्टि" रखे'- ये नहीं कहता हूँ में, (18) "प्रकाश" 'स्वतः' रहेगा। "दृष्टि" रखो तो "अहम्" आ ज्यायगा। ये ख्याल आया कि नहीं? 

श्रोता- (हरिगिरी जी महाराज-) "प्रकाश" तो है ही, स्वतः ई(ही) । 

श्रीस्वामीजी महाराज- बेस(बस)। इस वास्ते "ज्ञानी" कोई हुआ ई (ही) नहीं, कोई "ज्ञानी" नहीं हुआ। "ज्ञानी" होता ही नहीं कोई। केवल "ज्ञान" होता है, "ज्ञानी" कोई नहीं हुआ। कभी हुआ नहीं र है नहीं र होगा नहीं, कोई नहीं है "ज्ञानी"। [ ख्याल ] आ गया? [ हाँ ] , बऽस। एकदम सीधी बात है। 

तो "मृषा" तो इस वास्ते कि मिट ज्याती है,ये 'मृषा'- "झूठी" है, 'मृषा' है। "छूटत कठिनई" क्यों क वो कठिन रखने में- छोङना चाहता है। तो छोङना चाहता है,तो छोङना चाहता है वो ग्रंथि में बैठ के ई (बैठकर ही) छोङना चाहता है। तो कठिनता क्यों हुई कि जिसको छोङना चाहता है उसीको ही पकङता है। अर उसको ज्यूँ (ज्यों) छोङता है ज्यूँ (त्यों) ही दृढ़ होता है (19) मैंपण। एकदम। इस वास्ते कठिनता है। अर 'मृषा' है तो वो (उसको) छोङना है ही नहीं। छोङना है ही नहीं हमारे को। 

   हमारे तो बात है कि सम दुखसुखः स्वऽस्थ: ऽऽ  - स्व में स्थित है। जो है ही, स्वतः - स्वस्थः(गीता १४|२४) न किञ्चिदपि चिन्तयेत्। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा (गीता ६|२५) -"एऽऽक" "परिपूर्ण" "सच्चिदानन्दघन" है, ऐसे करके कुछ भी "चिन्तन" न करे। कुछ भी "चिन्तन" करेगा तो "अहम्" आ ही ज्यायगा, छोङने के लिये करेगा तो छूटेगा नहीं और [इस प्रकार ग्रंथि] पकङी गई। इस वास्ते कुछ भी "चिन्तन" न करे। ' "चिन्तन" न करणे का "भाव" 'भी न रखे (कि) ' "चिन्तन" नहीं करूँगा'- यह भी न पकङे, ' "चिन्तन" करूँगा', यह भी न पकङे। ' "चिन्तन" करणा है'- इसको ही(भी) नहीं, (20) अर तो '"चिन्तन" नहीं करणा है' - इसको भी नहीं (दोनों को ही न पकङे)। सीधी बात है। ख्याल आया (कि) नहीं? 

   'न किञ्चिदपि चिन्तयेऽऽत्' , "सऽम", "शाऽऽन्त", "सद् घन", "चिद् घन", "आनन्दघन"।  ' भूमा अचल शाश्वत अमल, सम ठोस है तूँ सर्वदाऽऽ '। ये, "तूँ","यह", "वह","मैं"- ये नहीं है। "है" है। "है" के "अन्तर्गत" न "मैं" है न "तूँ" है, न "यह" है। सीधी सादी आप देखो कि ये इतने "आदमी" देखें हम, तो मनुष्यों की तरफ "दृष्टि" देखने से 'बहुत मनुष्य' है और मनुष्यों की तरफ "दृष्टि" न डालकर के, (21) केऽऽवल "प्रकाश" ही "प्रकाश" देखे, तो "प्रकाश" के "अन्तर्गत" है, मानो "प्रकाश" में कुछ नहीं है। "प्रकाश" में "प्रकाश" ही "प्रकाश" है,कुछ नहीं (है)। ऐसे कहाँ "ग्रंथि" रही,रही नहीं "ग्रंथि"। "ग्रंथि" तो "व्यक्तित्व" पकङे तब हो न! आप शंका करो कोई हो तो , शंका उठती हो तो बताओ। 

अन्य श्रोता- भक्तिमार्ग... (श्रोता की बात ठीक से सुनायी नहीं देनेपर उनकी तरफ से हरिगिरि जी महाराज बोले- कहते हैं कि भक्तिमार्गवाळा- ये प्रकाश क्या है?)।

श्रीस्वामीजी महाराज- भक्तिमार्ग में भगवान् है वो। जो प्रकाश है, वो भगवान् का सरूप है। उसके शरण हो ज्याओ। (22) बऽस। 

उपस्थित अन्य सज्जन- सात तारीख को मैंने आपको एक पत्र दिया था गोरक्षा के बारे में। 

प्रश्न- हँऽजी? (क्या बोले?)। 

उत्तर- सात तारीख को गोरक्षा के बारे में---

श्री स्वामीजी महाराज- (साधुता और विनयपूर्वक, सादर रोकते हुए- अब, अभी नहीं),  पछे छेङो- पछे (बाद में)। बीच में मत छेङो आप। बीच में, अब मत छेङो। और, और बात मत छेङो बिल्कुल कोई। गहरी बात है वो ठीक (है, चलने दो उसको)। 

   (फिर, वापस उसी बात को कहने लगे-) देखो! 'मैं', 'तूँ', 'यह', 'वह',- इनकी तरफ ध्यान देणे से 'मैं' 'तूँ' 'यह' 'वह'- च्यार दीखते हैं। इधर ख्याल न करें तो ['है' ही रहेगा] बऽस। इसमें ख्याल नहीं करणा, 'है' की तरफ ख्याल करणा- ये दोनों छोङदे। (23) अब इसमें शंका क्या है? बोलो, तो मृषा है तभी तो मिटी (है) ग्रंथि। अगर सत्य ह्वै(हो) तो कैसे मिटेगी? प्रकाश में ग्रंथि नहीं है।

श्रोता- (हरिगिरीजी महाराज-) एक दोहे में आता है- एक दोहा ऐसा है- 

है कहूँ तो है नहीं, नहीं कहूँ तो दूर। 

है (और) नहिं के मध्य में ज्यों का त्यों भरपूर।। 

श्री स्वामी जी महाराज- हाँ। यही बात•। 

 श्रोता- (एक श्रोता दूर से बोले-) जैसे हमारा 'है-पणा' नित्यसिद्ध है वैसे सभी पशु पक्षियों का 'है-पणा' भी नित्यसिद्ध है- 

प्रश्न- हँ?( सुनायी नहीं पङा)। 

दूरवाले श्रोता- (पिछला वाक्य पूरा करते हुए-) ऐसा है क्या?)। (24) 

(दूरवाले श्रोता वापस दोहराते हुए कहने लगे-) जैसे हमारा 'है-पणा' नित्यसिद्ध है •••

श्री स्वामी जी महाराज- हमारा है- है ही नहीं।

दूरवाले श्रोता- हमारा 'है-पणा' है, वो नित्यसिद्ध है, हमको कुछ नहीं करणा पङता, हैं ही- हम हैं, ऐसे पशु पक्षियों का 'है-पणा' भी नित्यसिद्ध है क्या?- 

अन्य श्रोता- (दूरवाले श्रोता की बात जब ठीक से सुनायी नहीं पङी, तब एक नजदीकवाले श्रोता उनकी बात बताने लगे-) जैसे हमारा 'है-पणा' नित्यसिद्ध है, वैसे ही पशु पक्षियों का ही (भी) क्या?, "होणापण" सिद्ध है क्या?- 

श्री स्वामी जी महाराज- बिल्कुल सिद्ध है। पशुओं और पक्षियों का, राक्षसों का,देवताओं का,मनुष्यों का,गधे का,कुत्ते का- सब का। सबका एक ... (तरह का सिद्ध है)- सबका। राक्षस,असुर,देवता,ज्ञानी र अज्ञानी र मूढ़ र कसाई अर कुत्ता र गधा- सबका एक समान ('है-पना' नित्यसिद्ध है)।

 

नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण ■

 

(-श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के बीस अगस्त, उन्नीस सौ चौरानवें, प्रातः पाँच बजे, भीनासर (बीकानेर) वाले "प्रवचन" का 'यथावत् लेखन')। 

 

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