शनिवार, 16 अप्रैल 2016

६०१-७०१ ÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।

                          ।।श्रीहरि।।

                 ÷सूक्ति-प्रकाश÷

              -:@सातवाँ शतक (सूक्ति ६०१-७०१)@:- 

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री  रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |

उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |

इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |

इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -  

सूक्ति-
६०१-

कुटी क्रोध (अरू) हँसी मुकुर बाल तिया मद फाग |
होत सयाने बावरे आठ ठौर चित्त लाग ।।

शब्दार्थ-

कुटी (घर)।मुकुर (दर्पण)।बाल (बालक,बच्चा)।तिया (तिरिया,स्त्री)।मद (मद्य,मदिरा)।

भावार्थ-

इन आठ ठौरों(जगहौं)मेंसे एक ठौर भी अगर किसीका मन लग जाता है तो समझदार भी बावले (बेसमझ,मूर्ख) हो जाते हैं।

सूक्ति-
६०२-

धौळो धौळो (सब) दूध ही है ।

सूक्ति-
६०३-

छाळी दूध तो देवै , पण मींगण्याँ रळार देवै ।

सूक्ति-
६०४-

अणहूत भाटेसूँईं काठी ।

शब्दार्थ-

अणहूत (अभाव)।

सूक्ति-
६०५-

पुन्नरी पाळ हरी है ।

सूक्ति-
६०६-

बिद्या कण्ठै , अर धन अण्टै ।

सूक्ति-
६०७-

भाग नहीं भैरून्दे जोगो टीले जोगी टाट ।

कथा-

एक बार किसी व्यक्ति पर रीझ कर दरबार (राजा) इनाममें एक गाँव देने लगे। उस व्यक्तिसे पूछा कि बता कौनसा गाँव लेगा- भैरूँदा या टीलगढ? तो वो बोला टीलगढ।
उसने टीलगढको गढ(बड़ा,कीमती) समझकर माँग लिया था, लेकिन भैरूँदेके सामने टीलगढ बहुत छौटा था।भैरुँदा बहुत बड़ा,कीमती शहर था।जानकारोंको तो उम्मीद थी कि यह भैरुँदा ही माँगेगा और यही माँगना चाहिये था,लेकिन उसने जब भैरूँदेको छौड़कर टीलगढ माँगा, तो कहा गया कि यह भैरूँदेके योग्य भाग्यवाला नहीं है,यह टाट तो टीलेके योग्य ही है-
भाग नहीं भैरून्दे जोगो टीले जोगी टाट ।

सूक्ति-
६०८-

आँ राताँरा तो एही झाँझरका है ।

सूक्ति-
६०९-

जठै देखे भरी परात , बठै नाचे सारी रात ।

सूक्ति-
६१०-

जग में बैरी को नहीं सब सैणाँरो साथ ।
केवल कूबा यूँ कहै चरणाँ घालूँ हाथ ||

सूक्ति-
६११-

कबीरो बिगड़्यो राम दुहाई ,
थे मत बिगड़ो म्हारा भाई ।

सूक्ति-
६१२-

खेल खतम, पैसा हजम ।

सूक्ति-
६१३-

भेड़ माथै ऊन कुण छोडै (है) ।

सूक्ति-
६१४-

कौडियैरो टको ठाकुरजीरे काम कौनि आवे ।

सूक्ति-
६१५-

भौळो सैण दुश्मणरी गर्ज साजै ।

सूक्ति-
६१६-

माँ मारे है , पण मारण कौनि देवै ।

सूक्ति-
६१७-

माँग्या मिले माल ,
ज्याँरे काँई कमीरे लाल ।

सूक्ति-
६१८-

माँग्यौड़ी तो मौत भी कौनि मिले ।

सूक्ति-
६१९-

रोयाँ राज थौड़ो ही मिले है ।

सूक्ति-
६२०-

माँग्या मिले नहिं कोयला  अणमाँग्या पकवान ।

सूक्ति-
६२१-

घी तो आडाँ हाथाँ ( ही घालीजै )।

सूक्ति-
६२२-

जारे राँडरा काचा ।

सूक्ति-
६२३-

माई बाई भाइली , भाग पसाड़ली ।

सूक्ति-
६२४-

घाले जितौई मीठो , ह्नावै जितौई पुन्न ।

सूक्ति-
६२५-

पापीरो धन परलै जाय ,
कीड़ी सँचै तीतर खाय ।

सूक्ति-
६२६-

धन धणीयाँरो ((है) ,
गेवाळियैरे हाथ में तो गैडियो है ।

सूक्ति-
६२७-

गायाँ ऊछरगी , अर पौटा पड़िया है ।

सूक्ति-
६२८-

आतो छाछ ढुलणवाळी ही है ।

सूक्ति-
६२९-

सब गुड़ गोबर हूग्यो ।

सूक्ति-
६३०-

एक आँख , झकीमेंई फूलो ।

सूक्ति-
६३१-

मूण्डे आडौ सौ मणरो ताळो है ।

सूक्ति-
६३२-

इण मूण्डैनें र आ खीर !।

सूक्ति-
६३३-

काँई मियाँ मरग्या ,
अर काँई रोजा घटग्या ।

सूक्ति-
६३४-

सती श्राप देवै नहीं ,
अर कुसती रो लागे नहीं ।

सूक्ति-
६४५-

हींग लगे नहिं फिटकरी रंग झखाझख आय ।

सूक्ति-
६३६-

कलबल-कलबल हाका हूकी बात सुणीथे राते |
भूतप्रेत संग लै आयौ चौंसठ जोगण साथै ।|
(बनौं तो भभूति वाळोये …
आछो बर पायो… गौराँ.)

सूक्ति-
६३७-

अपने रामसे लगि रहिये |
जो कोई बादी बाद चलावै दोय बात बाँकी सहिये ।

सूक्ति-
६३८-

गंगा गये गंगादास ,
जमुना गये जमुनादास ।

सूक्ति-
६३९-

बाँदी सो तो बादशाह की ओरन की सरदार ।

सूक्ति-
६४०-

पाँचाँरी लकड़ी , अर एक रो भारो ।

सूक्ति-
६४१-

जावताँरा टामा है ।

सूक्ति-
६४२-

आँधेरो तन्दूरो बाबो रामदेव बजावै।

सूक्ति-
६४३-

आँटा टूँटा गहुँआँरा रोटा है ।

सूक्ति-
६४४-

छाती माथै मूँग दळे है ।

सूक्ति-
६४५-

पैंडो भलौ न कोसको, बेटी भली न एक।
लैणो भलो न बाप को साहिब राखे टेक।।

शब्दार्थ-

लैणो (ऋण,कर्ज)।

सूक्ति-
६४६-

अकल जरक चढ़ी है ।

सहायता-

जरक (लक्कड़बग्घा)।

सूक्ति-
६४७-

एक घर तो डाकणई (भी) टाळे है ।

सूक्ति-
६४८-

करो राधाने याद ।

सूक्ति-
६४९-

रहसी रामजी रो नाम ।

सूक्ति-
६५०-

कह बाबाजी नमो नारायण !
कह आज धामो थारे ही ।

सहायता-

धामो (धाम,घर,निवास स्थान।आज तुम्हारे यहाँ ही रहेंगे)।

सूक्ति-
६५१-

आपरी रोटी आडा ही खीरा देवै ।

सूक्ति-
६५२-

कटकी कठेई , पड़ी कठेई ।

सूक्ति-
६५३-

पटकी पड़े थारे ऊपर ।

शब्दार्थ-

पटकी (बिजली,आकाशीय विद्युत)।

सूक्ति-
६५४-

बेळाँ देख नहिं बिणजे, सो तो बाणियोई गिंवार ।

सूक्ति-
६५५-

मणभर गेहूँ में उनचाळीस सेर काँकरा है ।

सूक्ति-
६५६-

आपतो दूधरा धौयौड़ा है ? ।

सूक्ति-
६५७-

आपरी माँने डाकण कुण कहवै ? ।

सूक्ति-
६५८-

भौगना फूटा है सावणरे महीनें गधेरा फूटै ज्यूँ ।

सूक्ति-
६५९-

पारकी पूणीसूँ कातणो सीखणो है ।

सूक्ति-
६६०-

भाई मरियो झको सौच कौनि  पण भाभीरो बट निकळग्यो ।

सूक्ति-
६६१-

मेह , अर मौत रामजीरे सारे है ।

सूक्ति-
६६२-

रोयाँ बिना माँ भी बोबो कौनि देवै ।

सूक्ति-
६६३-

अड़ँग बड़ँग स्वाहा ।

सूक्ति-
६६४-

भुट चिपग्यो ।

सूक्ति-
६६५-

सुण लेणा सीधेरी सोय,
लेणा एक न देणा दोय ।

सूक्ति-
६६६-

आ तो राबड़ी रोटी है ।

सूक्ति-
६६७-

(कह,)डोकरी ! पुष्कर देख्यो (काँई) ?
कह, खिणायो कुण हो ? ।

सूक्ति-
६६८-

औड़ खन्देड़े नीचे नहिं आवे ।

सूक्ति-
६६९-

असलीरी औलाद खून बिना खिजरै नहीं |
बावै बादौ बाद रोड दुलाताँ राजिया ||

शब्दार्थ-

रोड (औछा,निकृष्ट,छौटा,खौटा;नकली)।

सूक्ति-
६७०-

कहयाँ कुम्हार गधे कौनि चढ़े ।

सूक्ति-
६७१-

बहू उघाड़ी फिरे तो सुसरैरी फूटगी काँई ? ।

सूक्ति-
६७२-

(फलाणौ) काँई दूबळी सुवासणी है ? ।

सूक्ति-
६७३-

(भगवान) लाददे, लदवायदे, लादणवाळा साथ दे ।

सूक्ति-
६७४-

बिरखारा पग हरिया ।

सूक्ति-
६७५-

राबड़ी कहवै म्हनेई(भी) दाँता सूँ खावौ ।

सूक्ति-
६७६-

डोवौ कहवै म्हने भी ब्यावमें बरतो ।

सूक्ति-
६७७-

बाना पूज नफा लै भाई !
उनका औगुण उनके माहीं ।

सूक्ति-
६७८-

साँगेरे चाइजै गावड़ी,
घणमौली अर सुवावड़ी ।

सूक्ति-
६७९-

होका थैँसूँ हेत इतरो जै हरसूँ हुवै ।
तौ पूगावै ठेठ (नहिं तो) आदैटेसूँ आगो करै ।।

सूक्ति-
६८०-

आम खावणा है क पेड़ गिणणा है !।

सूक्ति-
६८१-

एक मेह , एक मेह, करताँ तो माईत ही मरग्या ।

सूक्ति-
६८२-

सब धापा तो सौवे है ,
अर भूखा ऊठे है ।

सूक्ति-
६८३-

बहनरे भाई , अर सासूरे जँवाई ।

सूक्ति-
६८४-

तप्यै  तवै रोटी पकाले ।

सूक्ति-
६८५-

दूध पीवै जैड़ी बात है ।

सूक्ति-
६८६-

क्यूँ पतळैमें पत्थर नाँखे है !।

सूक्ति-
६८७-

टाँटियैरो छत्तो है ।

सूक्ति-
६८८-

भाँगणो भाखर , अर काढणो ऊन्दरो ।

सूक्ति-
६८९-

धूड़ बिना धड़ौ नहीं, कूड़ बिना बौपार नहीं ।

सूक्ति-
६९०-

तौलीजे सोनो , अर लै दौड़ै ईंट ।

सूक्ति-
६९१-

काँई भींजी सूखे है ।

सूक्ति-
६९२-

कह , शुभराज !
(भाँड़का जवाब-)
कह , शुभराज सूँ घर भरियो है ।

सूक्ति-
६९३-

भोजन में अगाड़ी ,
(अर) फौजमें पिछाड़ी ।

सूक्ति-
६९४-

सौरो जिमायौड़ौ ,
अर दौरो कूटयौड़ौ भूलै कोनि ।

सूक्ति-
६९५-

फूल सारूँ पाँखड़ी ।

सूक्ति-
६९६-

मरे टार कै कूदे खाई ।

शब्दार्थ-

टार (घौड़ा)।

सूक्ति-
६९७-

खावे जितौई मीठौ ,
अगले भौ किण दीठौ ।

सूक्ति-
६९८-

आँधो अर अणजाण बरोबर हुवै है ।

सूक्ति-
६९९-

आपसूँ बळवान जम ।

सूक्ति-
७००-

राबड़ली थापर रौष कबिजन कदै न बीसरे ।
छौड़ी थी सौ कोस आय मिली तूँ आगरै ।।

कथा-

एक चारण (बारहठ) आगरे (शहर) चले गये।वहाँ किसीने उनके लिये राबड़ी बनवायी कि इनके वहाँ राबड़ी खायी जाती है,इसलिये इनको अच्छी लगेगी; लेकिन ये चारण भाई राबड़ीसे उकताये हुए थे।अब वही राबड़ी परौसी हुई देखकर वो बोले कि हे राबड़ी! तुम्हारे पर जो गुस्सा है,उसको कविलोग कभी नहीं भूलते।तेरेको सौ कोस दूर छौड़ी थी और तू अगाड़ी आकर आगरैमें (भी) मिल गई!

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

छ:प्रकारके नौकर

                      ।।श्रीहरि।।

छःप्रकारके नौकर-

काम करनेवाले (नौकर अथवा सेवक) छः प्रकारके होते हैं -

पीर तीर चकरी पथर और फकीर अमीर |
जोय-जोय राखो पुरुष ये गुण देखि सरीर ||

१)पीर -इसे कोई काम कहें तो यह उस बातको काट देता है,

२)तीर -इसे कोई काम कहें तो तीरकी तरह भाग जाता है,फिर लौटकर नहीं आता,

३)चकरी-यहचक्रकी तरह चट काम करता है,फिर लौटकर आता है,फिर काम करता है|यह उत्तम नौकर होताहै,

४)पथर-यह पत्थरकी तरह पड़ा रहता है,कोई काम नहीं करता,

५)फकीर-यह मनमें आये तो काम करता है अथवा नहीं करता,

६)अमीर-इसे कोई काम कहें तो खुद न करके दूसरेको कह देता है|

(इसलिये मनुष्यको सेवकमें ये गुण देखकर रखना चाहिये)|

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी पुस्तक "अनन्तकी ओर"

(से इसका यह अर्थ लिखा गया).

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उध्देश्यकी दृढता

                       ।।श्रीहरि।।

उध्देश्यकी दृढता- 

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्षमीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्|
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ||

(भर्तृहरिनीतिशतक)

'नीति-निपुण लोग निन्दा करें अथवा स्तुति(प्रशंसा),लक्षमी रहे अथवा जहाँ चाहे चली जाय और मृत्यु आज ही हो जाय अथवा युगान्तरमें,अपने उध्देश्यपर दृढ रहनेवाले धीर पुरुष न्यायपथसे एक पग भी पीछे नहीं हटते|'

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सत्संग-प्रवचनसे

तीन प्रकारके मनुष्य-(उत्तम,मध्यम और नीच)।

                       ।।श्रीहरि।।

तीन प्रकारके मनुष्य-(उत्तम,मध्यम और नीच)।

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः|
विघ्नैःपुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति||
(मुद्राराक्षस २/१७)

'नीच मनुष्य विघ्नोंके डरसे कार्यका आरम्भ ही नहीं करते हैं|मध्यम श्रेणीके मनुष्य कार्यका आरम्भ तो कर देते हैं,पर विघ्न आनेपर उसे छोड़ देते हैं|परन्तु उत्तम गुणोंवाले  मनुष्य बार-बार विघ्न आनेपर भी अपना (प्ररम्भ किया हुआ) कार्य छोड़ते नहीं|'

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सत्संग-प्रवचनसे

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( निरन्तर साधन कैसे हो?- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                         ।।श्रीहरि।।

 
( निरन्तर साधन कैसे हो?-

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

विवाहिता स्त्रीकी तरह,भगवानके रहकर शुभ काम करो तो हर काम भगवानका काम(साधन) हो जायेगा,निरन्तर साधन होगा

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसखदासजी महाराजके दि.१९९४०५०७/५.१८/बजेके प्रवचनसे )-

जैसे स्त्री,विवाहित होने पर, वो पतिकी बनी रहने पर ही काम करती है सब पतिका काम करती है…घरका काम करती है,पतिकी रहते हुए ही करती है सब पतिकी होकर के ही(करती है) ;ऐसा नहीं भाई ! कि कुँआरी बन गयी;पीहर जाय तो कुँवारी बन गयी-ऐसा नहीं(हो जाता).पीहरमें रहती है(तो) पतिकी होकर(रहती है),ससुरालमें रहती है (तो)पतिकी होकर,कहीं जावे मुसाफिरिमें तो पतिकी होकर के ही(पतिकी रहती हुई ही जाती है) .

ऐसे भगवानके साथ सम्बन्ध अपना जोड़ लिया-भगवान मेरे हैं और मैं भगवानका हूँ-मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, जो कुछ करे भगवानके लिये करे बस,

कितनी मस्तीकी,कितनी आनन्द की, कितनी शान्तिकी, कितनी  सुखकी, कितनी कीमती बात है !

तो सब समय हमारा सार्थक हो जाय|
मनुष्य जीवनका समय परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है और इसमें जो करते हैं वो साधन-सामग्री है,सभी साधन-सामग्री है|

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके ७-५-१९९४;५:१८ बजेके प्रवचनका अंश)|

(जैसे स्त्री जो कुछ करती है वो सब काम पतिका(उनके घरका) ही होता है,वो कभी(एक क्षण भी) कुँआँरी नहीं हो जाती;ऐसे हम भी भगवानके ही रहते हुए ही जो कुछ शुभ काम करें,तो वो सब काम भगवानके हो जायेंगे,हमारा हर काम(खाना-पीना,सोना-जागना,चलना-फिरना,रसोई बनाना,साफ-सफाई करना,व्यापार करना,शौच-स्नान,भजन-ध्यान,सत्संग आदि सब काम) साधन हो जायेगा और हम एक क्षण भी बिना भगवानके, पराये (कुँआरेकी तरह) नहीं होंगे,हरदम भगवानके ही रहेंगे;हमारा साधन निरन्तर होगा)|

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( निरन्तर साधन कैसे हो?- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                         ।।श्रीहरि।।

  ( निरन्तर साधन कैसे हो?-

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

विवाहिता स्त्रीकी तरह,भगवानके रहकर शुभ काम करो तो हर काम भगवानका काम(साधन) हो जायेगा,निरन्तर साधन होगा

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसखदासजी महाराजके दि.१९९४०५०७/५.१८/बजेके प्रवचनसे )-

जैसे स्त्री,विवाहित होने पर, वो पतिकी बनी रहने पर ही काम करती है सब पतिका काम करती है…घरका काम करती है,पतिकी रहते हुए ही करती है सब पतिकी होकर के ही(करती है) ;ऐसा नहीं भाई ! कि कुँआरी बन गयी;पीहर जाय तो कुँवारी बन गयी-ऐसा नहीं(हो जाता).पीहरमें रहती है(तो) पतिकी होकर(रहती है),ससुरालमें रहती है (तो)पतिकी होकर,कहीं जावे मुसाफिरिमें तो पतिकी होकर के ही(पतिकी रहती हुई ही जाती है) .

ऐसे भगवानके साथ सम्बन्ध अपना जोड़ लिया-भगवान मेरे हैं और मैं भगवानका हूँ-मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, जो कुछ करे भगवानके लिये करे बस,

कितनी मस्तीकी,कितनी आनन्द की, कितनी शान्तिकी, कितनी  सुखकी, कितनी कीमती बात है !

तो सब समय हमारा सार्थक हो जाय|
मनुष्य जीवनका समय परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है और इसमें जो करते हैं वो साधन-सामग्री है,सभी साधन-सामग्री है|

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके ७-५-१९९४;५:१८ बजेके प्रवचनका अंश)|

(जैसे स्त्री जो कुछ करती है वो सब काम पतिका(उनके घरका) ही होता है,वो कभी(एक क्षण भी) कुँआँरी नहीं हो जाती;ऐसे हम भी भगवानके ही रहते हुए ही जो कुछ शुभ काम करें,तो वो सब काम भगवानके हो जायेंगे,हमारा हर काम(खाना-पीना,सोना-जागना,चलना-फिरना,रसोई बनाना,साफ-सफाई करना,व्यापार करना,शौच-स्नान,भजन-ध्यान,सत्संग आदि सब काम) साधन हो जायेगा और हम एक क्षण भी बिना भगवानके, पराये (कुँआरेकी तरह) नहीं होंगे,हरदम भगवानके ही रहेंगे;हमारा साधन निरन्तर होगा)|

स्मार्त और वैष्णव किसको कहते हैं?

                      ।।श्रीहरि।।

स्मार्त और वैष्णव किसको कहते हैं?

एक सज्जन पूछते हैं कि स्मार्त और वैष्णव किसको कहते हैं?

उत्तरमें निवेदन है कि-

स्मार्त एकादशी,स्मार्त जन्माष्टमी आदि वो होती है जो स्मार्त अर्थात् स्मृति आदि धर्म ग्रंथोंको माननेवालोंके अनुसार हो और वैष्णव एकादशी,वैष्णव जन्माष्टमी आदि वो होती है जो वैष्णव अर्थात् विष्णु भगवान और उनके भक्तोंको,संतोंको माननेवालोंके अनुसार हो।

( यह स्मार्त और वैष्णववाली बात श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई है)।

रमश्रद्धेय  सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज वैष्णव एकादशी,वैष्णव जन्माष्टमी आदि मानते और करते थे।

एकादशी आदि व्रतोंके माननेमें दो धर्म है-एक वैदिक धर्म और एक वैष्णव धर्म।

(एक एकादशी स्मार्तोंकी होती है और एक एकादशी वैष्णवोंकी होती है।स्मार्त वे होते हैं) जो वेद और स्मृतियोंको खास मानते हैं,वे भगवानको खास नहीं मानते।वेदोंमें,स्मृतियोंमें भगवानका नाम आता है इसलिये वे भगवाको मानते हैं (परन्तु खास वेदोंको मानते हैं) और वैष्णव वे होते हैं जो भगवानको खास मानते हैं,वे वेदोंको,पुराणोंको इतना खास नहीं मानते जितना भगवानको खास मानते हैं।

( वैष्णव और स्मार्तका रहस्य समझनेके लिये परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका यह प्रवचन 19990809/1630 सुनें)।

(पता:-
https://docs.google.com/file/d/0B3xCgsI4fuUPTENQejk2dFE2RWs/edit?usp=docslist_api)।

वेदमत,पुराणमत आदिके समान एक संत मत भी होता है,जिसको वेदोंसे भी बढकर माना गया है।

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका ।
भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू ।
सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥

ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें ।
द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ॥

कलि केवल मल मूल मलीना ।
पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥

नाम कामतरु काल कराला ।
सुमिरत समन सकल जग जाला ॥

राम नाम कलि अभिमत दाता ।
हित परलोक लोक पितु माता ॥

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू ।
राम नाम अवलंबन एकू ॥

कालनेमि कलि कपट निधानू ।
नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥

दोहा

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।

जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥२७॥

(रामचरितमा.१/२७)।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/