सोमवार, 3 अप्रैल 2023

श्री स्वामीजी महाराज की यथावत् वाणी [श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराजके ज्यों के त्यों लिखेहुए प्रवचन]

                  ।।श्रीहरिः।। 

         श्री स्वामीजी महाराज 
                      की
               यथावत् वाणी 
 [श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराजके ज्यों के त्यों लिखेहुए प्रवचन]
               नम्र निवेदन
   श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक 13 जून 1990, प्रातः पाँच बजे और साढ़े आठ बजेवाला प्रवचन मेरे को बहुत बढ़िया लगा। इनके सिवाय दिनांक 20 अगस्त 1994_0518 (पाँच बजे) वाला प्रवचन भी मेरे को बहुत बढ़िया लगा। मन में आया कि इन प्रवचनों को तो ज्यों के त्यों लिखना चाहिये। इसलिये ये प्रवचन पूरे और यथावत(ज्यों के त्यों) लिखे गये। इनके अलावा श्रीस्वामीजी महाराज के जिन- जिन प्रवचनों में मेरे को विशेष और नयी बातें मिली तथा आवश्यक लगी, उनको भी यथावत् लिखा गया है और इस पुस्तक में 
जोङा गया है। इसी प्रकार कुछ प्रवचन और भी लिखे गये। 
    मैंने इनमें यथावत्- रूप से, सत्य- सत्य और ईमानदारी पूर्वक लिखनेकी कोशिश की है। परमात्मतत्त्व का अनुभव चाहने वाले और महापुरुषों की वाणी को यथावत समझने की इच्छा रखनेवालों के लिये ज्यों का त्यों लिखा हुआ प्रवचन बहुत उपयोगी रहता है। यह (यथावत्- लेखन) रिकोर्ड किये हुए प्रवचन और लिखे हुए प्रवचन– दोनों की पूर्ति करता है। इससे यथार्थता समझने में बहुत बङी सहायता मिलती है; क्योंकि इसमें जैसे- जैसे श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं, वैसे के वैसे ही लिखा गया है, कुछ काँट- छाँट नहीं की गयी है, न वाक्य और शब्द बदले गये हैं तथा न कोई आवश्यक अंश हटाया गया है। जहाँ खुलासा करना आवश्यक लगा, वहाँ वो कोष्ठक में लिख दिया। महापुरुषोंकी "मूलवाणी" और उनके भावों की रक्षा की गयी है। 
   "श्री स्वामी जी महाराज की यथावत वाणी" नामक पुस्तक जो पहले छपी थी, उसके यथावत-लेखनवाले प्रवचन इसमें सम्मिलित कर लिये गये हैं। उनमें कुछ संशोधन करके उनको अधिक उपयोगी बनाया गया है। 
   सत्संग प्रवचन करते समय जैसे- जैसे श्री स्वामीजी महाराज बोले हैं , वैसा का वैसा ही लिखने की कोशिश की गयी है अर्थात् इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो वाणी वो महापुरुष बोले हैं, उसको वैसे के वैसे ही लिखा जाय। अपनी होशियारी न लगाई जाय। उनके द्वारा बोले गये शब्द और वाक्य आदि बदलें नहीं और उस वाणी के कोई वाक्य और शब्द आदि छूटे भी नहीं। जैसे वो बोले हैं वैसे- के- वैसे ही लिखे जायँ। 
   महापुरुषों द्वारा बोली गयी प्रामाणिक, आप्तवाणी को लिखने में ईमानदारी पूर्वक सत्यता का ध्यान रखना चाहिये। जैसे- जैसे वो बोले हैं, वैसे के वैसे ही लिखना चाहिये। कुछ फेर- बदल नहीं करना चाहिये। इस लेखन में ऐसा ही प्रयास किया गया है। इससे यह वाणी अत्यन्त विश्वसनीय और उपयोगी हो गयी है तथा समझने में और भी सुगम हो गयी है।
  इसमें प्रवचनके प्रत्येक मिनिटवाली सामग्री की संख्या भी लिखी है। इससे यह प्रामाणिकता के साथ- साथ एक क्रान्तिकारी पुस्तक हो गई है। श्री स्वामी जी महाराज के प्रवचनों को ज्यों के त्यों लिखकर बनायी हुई, इस तरह की यह पहली पुस्तक समझनी चाहिये। 
   जहाँ मारवाड़ी भाषा आदि के कुछ कठिन शब्द और वाक्य आदि आये हैं, उनके भाव और अर्थ कोष्ठक (ब्रैकेट) में दिये गये हैं। कहीं- कहीं विषय को सरल बनाने के लिये भी कोष्ठक का उपयोग किया गया है। 
  श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के समय में रिकोर्ड किये गये उनके प्रवचन लिखे जाते थे। वो इसलिये कि उनको पुस्तकों में छपवाया जाय। वर्तमान में सब न भी छपे तो भविष्य में छापे जायँ। ऐसी अनेक वर्षों की हस्तलिखित प्रवचनों की कोपियाँ पङी हुई है। वो अभी क्रियान्वित नहीं हो पा रही है। रिकोर्डिंग वाणी को लिखनेवाले सज्जनों में से किसीने श्री स्वामी जी महाराज से कहा कि महाराजजी! आपका हर एक प्रवचन लिखना जरूरी है क्या? पहले लिखे हुए प्रवचनों के बहुत से रजिस्टर पङे हैं, वो छापे नहीं जा रहे हैं। उनकी पुस्तकें नहीं बन रही है। इसलिये लिखने का उत्साह कम हो जाता है। तब श्री स्वामी जी महाराज ने कहा कि प्रतिदिन प्रातः पाँच बजेवाली सत्संग के तो हरेक प्रवचन लिख लिया करो और दिनवाले प्रवचनों में जो विशेष लगे, उनको लिख लिया करो। इससे यह समझ में आया कि श्री स्वामी जी महाराज ने लोगोंकी परेशानी और अभाव देखकर, संकोच के कारण ऐसा कहा है। महापुरुषोंके तो हरेक प्रवचन लिखने योग्य हैं। 
   इस प्रकार रिकोर्डिंग की कैसेटों द्वारा अनेक प्रवचन लिखे गये और बहुतसे लिखने बाकी रह गये। कई प्रवचनों के लेख पुस्तक रूप में छपे हैं; लेकिन वो यथावत् नहीं रहे। जैसे, उनमें संशोधन के नामपर जगह-जगह वाणी को बदला गया है। वाक्यों की भाषा बदली गई है। बीच-बीच में वाणी के अंश काटकर छोङ भी दिये हैं। कई प्रवचन तो लेखक ने पूरे ही अपने ढंग से लिखे हैं और छोटे कर दिये हैं तथा सारांशरूप में लिखे हैं। इस प्रकार रिकोर्डिंग वाणी के लेखोंमें यथावत्ताकी कमी रही– ऐसा लगता है। लेखन में असलियत न रहनेसे उसका प्रभाव कम हो जा जाता है। पढनेवालेपर महापुरुषोंकी वाणीका जैसा असर पङना चाहिये, वैसा नहीं पङता। यथावत् लेख बनाकर तैयार करने में बहुत परिश्रम करना पङता है। अगर कोई परिश्रम करके श्री स्वामी जी महाराज की वाणी को यथावत् छपवावे तो स्वयं को और दुनियाँ को बङा भारी लाभ हो। 
   श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के जब हम 'ओडियो रिकोर्डिंग वाले' प्रवचन सुनते हैं तो उनमें कई बातें बहुत बढ़िया लगती है और मन करता है कि बार-बार सुनें। बाद में भी जब कभी दुबारा उस बात को सुनने का मन होता है और प्रवचन सुनना शुरु करते हैं तो उस बात को खोजने में समय लगता है। वो बात अगर अलग से लिखी हुई होती है तो सुगमता से मिल जाती है और सुनकर भी समझ ली जाती है। लिखी हुई बात को बार-बार पढ़कर उस पर विचार करना भी सुगम हो जाता है।
   कभी-कभी विचार आता है कि इस बात को श्रीस्वामीजी महाराज बोले तो ऐसे ही हैं न? बोली हुई और इस लिखी हुई बात में कोई फर्क तो नहीं है? कई बार लिखने में भूल भी हो जाती है और कभी-कभी लिखनेवाला अपनी चतुराई लगाकर वाक्य को बदल भी देता है। लेकिन ऐसे लेखन पर श्रद्धा नहीं बैठती। पता नहीं लगता कि श्रीस्वामीजी महाराज का वास्तव में यहाँ कहने का भाव क्या था।
   कई बार 'लेखन' और 'आडियो रिकार्डिंग' का मिलान करते हैं तो जैसा श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं, वैसा नहीं मिलता, अन्तर (फर्क) मिलता है। श्रीस्वामीजी महाराज जैसा वाक्य बोले हैं, वैसा लिखा हुआ नहीं मिलता, वाक्य बदला हुआ मिलता है।
   कभी-कभी तो वो लेखक बिना बताये, पूरे अंश या वाक्य को ही छोड़ देता है और आगे बढ़ जाता है।
   तो ऐसे में विश्वास नहीं होता कि यह लेखन यथावत् है या नहीं। इससे वास्तविक बात का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। श्रीस्वामीजी महाराज की बात का रहस्य छूट जाता है। वो रहस्य तब समझ में आता है कि जब रिकोर्डिंग वाणी के अनुसार ही– ज्यों का त्यों "वाक्य" लिखा हुआ हो, उसमें एक शब्द और मात्रा आदि का भी फर्क न किया गया हो। 
   उससे भी बढ़िया तब समझ में आता है कि उस रिकोर्डिंग को ही ध्यान से सुना जाय। ऐसे सुनकर समझा जाय तो बात बहुत बढ़िया समझ में आती है। बहुत लाभ होता है। 
   कभी-कभी सुनने की सुविधा न हो तो लिखी हुई बात को पढ़कर भी समझा जा सकता है। परन्तु लिखी हुई बात वैसी- की वैसी ही होनी चाहिये जैसी कि श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं। लिखने में बदलाव नहीं होना चाहिये। रिकोर्डिंग वाणी के अनुसार ही, यथावत् लेखन होना चाहिये।
   यथावत् लेखन में जितनी कमी रहेगी, उतनी ही अथवा उससे भी अधिक समझने में कमी रहेगी। बात को यथावत् समझना हो तो लेखन भी यथावत् होना चाहिये। 
  इस पुस्तक में कुछ ऐसा ही प्रयास किया गया है। 
  सत्संग की बढ़िया और मार्मिक बातों को "यथावत्" समझने के लिये, प्रवचनों के अंशों को अलग से भी "यथावत्" लिखा गया है।
   किस प्रवचन में, कौन-सी बात, कहाँपर आयी है- इसका सुगमता से पता लग जाय, इसके लिये प्रवचन के मिनिटों की संख्या भी दी गई है। 
   थोङे समय में ही अधिक बातें समझ में आ जाय, सुगमता से उधर दृष्टि चली जाय, पढ़ने और समझने में सुगमता हो जाय- इसके लिये उन बातों के शीर्षक भी दिये हैं। 
   इसलिये यथावत्- लेखन प्रवचनों को और यथावत्- लेखन अंशों को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिये। 
   सभी सत्संगी सज्जनों से नम्र निवेदन है कि ऐसे महापुरुषों के प्रवचनों को इसी प्रकार ईमानदारी पूर्वक यथावत् लिखकर या लिखवाकर और भी पुस्तकें छपवावें और दुनियाँ का भला करें। इससे अपना भी बङा भारी भला होगा। वास्तविक हित होगा।  
   जब भगवान् की बङी भारी कृपा होती है तब महापुरुषों की हू-ब-हू, ज्योंकी त्यों, यथावत वाणी मिलती है। इससे बङा भारी लाभ होता है ।
    भाई बहनों को चाहिये कि इससे स्वयं लाभ लें और दूसरों को भी बतावें। यथावत-लेखन यद्यपि मेहनत का काम है। ऐसा परिश्रम करनेकी हिम्मत हरेक नहीं करता और करता है तो बहुत बङा लाभ होता है। 
    यह पुस्तक भी कई सज्जनों की मेहनत से तैयार हुई है। जैसे, मेघसिंह जी चौहान (गाँव नेणाऊ, जिला नागौर ने अन्तिम प्रवचन लिखकर मेरेको श्री स्वामी जी महाराज की वाणीको यथावत लिखनेकी प्रेरणा की [इन्होंने ही "गीतासेवा" ऐप्प बनवानेका कार्य किया और श्री सेठजी, भाईजी और श्री स्वामी जी महाराजकी पुस्तकें तथा ओडियो रिकोर्डिंग वाणीको ऑनलाइन उपलब्ध करवाया है।)। गजेन्द्र सिंह राणावत (काँणोली, भीलवाङा) ने यन्त्र के द्वारा सँवारकर इसको पुस्तक रूप में तैयार किया, उनकी बहन प्रियाकुँअर राणावत द्वारा लिखे हुए (दिनांक १७|०७|१९९७_प्रातः ५ बजे सीकरवाले) प्रवचन से इसमें सहायता मिली, महावीर सिंह राठौङ (दीपपुरा, कुचामन) ने (दिनांक १३|६|१९९०_ प्रातः ५ और ८:३० बजेवाले प्रवचन के) लेखन की सहायता की और गुलाब सिंह जी शेखावत (खोरी,सीकर) ने प्रेरणा और कोशिश करके इस पुस्तक को छपवाया। इसी प्रकार मेरे बङेभ्राता खुमानसिंह राठौङ (चावण्डिया, नागौर) आदि तथा और भी ज्ञात- अज्ञात, कई सज्जनों और माता- बहनों की सद्भावना इस पुस्तक में है। जो महापुरुषों की वाणी को दुनियाँ तक पहुँचाने में सहायक हुए, वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं और अब,आगे वे सज्जन भी धन्यवाद के पात्र होंगे जो स्वयं पढेंगे तथा महापुरुषों की इस वाणी को जन-जन तक पहुँचायेंगे। 
    इस पुस्तक में जो अच्छाई है, वो उन महापुरुषों की है और जो त्रुटियाँ है, वो मेरी व्यक्तिगत हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाई की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।
निवेदक-
डुँगरदास राम 
  चैत्र शुक्ला १२ सोमवार, संमत २०८०। भीलवाङा (राजस्थान)। 
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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

बुराई रहित होना- बङी भारी सेवा (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

 

।।श्रीहरि:।।

 बुराई रहित होनाबङी भारी सेवा।

19970717_0518_Buraai ka tyag (बुराई का त्याग)

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)

{दिनांक १७|०७|१९९७_प्रातः बजे, सीकर चातुर्मास वाले प्रवचन का यथावत् लेखन-}


(••• 0 मिनिट से) नारायण नारायण नारायण नारायण

राम राम राम राम (1 मिनिटसे) राम राम  राम राम राम

नारायण नारायण

   संसार की सेवा करो, चाहे अपणे (अपने) को जान लो, अथवा भगवान के हो ज्याओ, ये तीन बात है खास। उसमें संसार की सेवा करणे में हमलोगों ने प्रायः यह समझ रखा है कि उनको सुख पहुँचाना,उनसे, शरीर से सेवा करणा,उनको चीज बस्तु (वस्तु) देणा,ऐसे सेवा हो गई, परन्तु ये संतों की बात मैंने एक पढ़ी है,वो सेवा भोत (बहुत) सोरी सेवा है- सुगम सेवा है,अर (2 मिनिटसे) भोत बड़ी सेवा है,खास बड़ी सेवा हैकिसी को भी बुरा समझना,कैसा ही वो हमारा अहित करणेवाला हो, कैसा ही बुरा आचरण करनेवाला हो, किसीसे, कैसा ही विपरीत चलनेवाला हो, तो "वो बुरा है"- ऐसा नहीं समझना, "बुरा है" ऐसा नहीं समझना,क्यों? (क्योंकि) सर्वथा कोई बुरा हो सकता ही नहीं,आंशिक बुराई भलाई रहती है, सर्वथा बुरा कोई हो नहीं सकता क्योंकि मूल में साक्षात परमात्मा का अंश है,[वो] बुरा है नहीं। वो सबके लिए बुरा नहीं हुआ तब अपणे लिए बुरा थोड़े ही होता है। अपणे लिये बुरा होता है?— अपणे, माँ के लिये, पिता के लिये,अपणे स्त्री, पुत्र के लिये, अपणे सम्बन्धियों के लिये। सबके लिये बुरा हो नहीं सकता। (3 मिनिटसे) सब समय में बुरा हो नहीं सकता, सब देश,सब काल में, सब वस्तुओं में, सम्पूर्ण परिस्थितियों में बुरा नहीं हो सकता, तो "वो बुरा है" ये मानना गळत है।

   सज्जनों! बड़ी मार्मिक बात है, बढ़िया बात है, खूब विचार करो, ना दूसरे किसी को बुरा समझना, अपणे में भी बुरा हूँ, "मैं बुरा हूँ"- ये मानणा (मानना) अपणा (स्वरूप) भी बुरा हो नहीं सकता, अपणे में भी परमात्मा का अंश है। अपणे ('अपन सबलोगों का स्वरूप' भी) बुरा नहीं हो सकता अपणे को बुरा समझना भी बड़ा भारी दोष है। अपणे (अपने) साथ अपणा अन्याय करना है,अपणे साथ अपनी घात करना हैअपणे को भी बुरा समझना। अपने में बुराई ज्याती है, (4 मिनिटसे) अपने बुरे हैं नहीं,[बुराई] जाती है, तो उसमें सावधान रहना है। पण (पर) अपने को बुरा नहीं समझना है। कहते हैं [कि] हमने तो सुना है-

पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः।

(त्राहि मां पापिनं घोरं सर्वपापहरो हरिः।।)

भगवान के सामने जाकर कहता है कि महाराज! मैं पापी हूँ, पापात्मा हूँ, पाप से ही पैदा हुआ हूँऐसा। तो ये जो भगवान् के सामने कहना है इसका तात्पर्य है कि मेरे में ये दोष आये हैं। वे आपकी कृपा से नष्ट हो ज्याये। जैसे कोई आग में चीज रखता है तो आग जला देती है सबको ही, ऐसे भगवान के सामने कहणा है, वो पापी होणा (होना) नहीं है, किन्तु निष्पाप होणे के लिये कहता है। "मैं पापी हूँ" इस बात के लिये नहीं कहता है- मैं पापी हूँ। बात [यह है कि] महाराज! ये पाप मेरा मिट ज्याय। जैसे प्रकाश के सामने (5 मिनिटसे) कोई अँधेरा रखे तो अँधेरा टिकेगा नहीं, प्रकाश हो ज्यायगा, तो अपणे में कुछ भी कोई बुराई- खराबी आई है, भगवान के सामने जाते ही सब मिट ज्यायगी। उसको (उसका) वास्तव में शुद्ध होणे का तात्पर्य है, अपणे को "पापी मानणा" - तात्पर्य बिलकुल नहीं है। तो मैं दोषी हूँ, मैं बुरा हूँ, मैं खराब हूँ, ऐसा कायम नहीं करणा। बुराई गई, तो अब सावधान रहणा है। अब नहीं आणी चाहिये। कोई भी कसूर हो ज्याय, अब नहीं करणा चाहिये।

   जैसे बालक कोई गलती करता है, माँ धमकाती है, माँ माँ अब नहीं करूँगा [गलती अब] नहीं करूँगा। तो फेर (फिर) माँ नहीं मारती। मानो आगन्तुक होती है [बुराई], खूब गहरी रीति से आप हम विचार करें, बुराई सदा ही रहती नहीं, सदा रह सकती नहीं। सबके लिये रह सकती नहीं, सब समय में रह (6 मि॰) सकती नहीं, सब समय में, सब समय में कैसे रहती है बुराई, रह ही नहीं सकती। मूल में परमात्मा ही परमात्मा है, तो बुराई है नहीं, तो हमारे (में) बुराई नहीं है। ना कोई और बुरा है, मैं बुरा हूँ, बुराई है ही नहीं। दूजे को बुरा समझना और अपणे को भी बुरा समझणा। अपणे को बुरा समझने के समान अपणे साथ में अन्याय कोई है ही नहीं। ऐसे दूसरों को बुरा समझना है, दूसरों के साथ भी बड़ा भारी घातक काम करणा है। इस वास्ते अपणे को (भी) बुरा समझेएक बात। और बुरा चाहें भी नहीं, किसी का भी बुरा नहीं [चाहें] –

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुखभाग्भवेत्।।

किसी को बुरा समझे। तो बुरा समझे नहीं (7) और बुरा चाहे नहीं कि किसी का बुरा हो ज्याय, किसी का अच्छा हो ज्याय [आदि] किसी का बुरा चाहणा- ये भोत बड़ी भारी पाप की बात है। किसी का भी बुरा नहीं चाहणा चाहिये और किसी की बुराई करणा नीं (नहीं) चाहिये। ये तीन बात है। और बुराई बोलेंगे नहीं, बुराई सुणेंगे नहीं- पाँच हो ज्याय तो भोत बढ़िया। तीन, तीन ही काफी है। किसी को बुरा मानें, किसी का बुरा चाहें और किसी का बुरा करें, अगर ये ब्रत(व्रत) ले लिया जाये, नियम कर लिया जाय तो बड़ी भारी उन्नति हो ज्यायेगी, बड़ी साधना सिद्ध हो ज्यायेगी और इसमें ऐसी बात है (कि) किसी को बुरा समझणे से, किसी का बुरा चाहणे से, किसी का बुरा करणे से कोई खर्च हो ज्याय, ये खर्च नहीं होगा कुछ भी। पैसा खर्च होगा नहीं। इसमें परिश्रम भी करना नहीं पड़ेगा। (8)

   तो किसी का (किसीको) बुरा है- ये नहीं कायम करणा है, बुरा चाहणा, बुरा करणा है। अब क्या बात रही? कह, हमारी नियत बुरी नहीं है किसी के प्रति। तो ये बुराईपणे का सम्बन्ध ही अपणे छोड़ देणा है। जहाँ बुराई का सम्बन्ध छोड़ा, स्वतः ही भलाई है- स्वाभाविक ही। ये जो खराबी है वो आती है और भलाई तो सब, स्वतः - परमात्मा है (बुराई तो आती जाती है, भलाई आती जाती नहीं है, वो तो स्वतः है और वो परमात्मस्वरूप है, भलाई हरदम रहती है) तो अब इतनी ही बात रह गई, अब इसको सुरक्षित रखणा है। तो आज से मैं किसी को बुरा नहीं समझूँगा अब बात क्या बाकी रही? एक बात बाकी रही। ये बुराई ज्याय- ये कायम रहे, सदा ही, भलाई कायम रहे, ये सदा (9) मौजूद रहे। भाई-बहन कहते हैं कि सत्संग में रहते हैं तब तो हमारे को ये ठीक रहती है फेर वैसी वृत्ति नहीं रहती। तो ये बुरा किसी को (भी) मानूँ, किसी का बुरा चाहूँ, किसी का बुरा करूँ- ये बात हमारी, हरदम कायम कैसे रहे? तो कायम रहणे का उपाय है [यह] पक्का विचार कर लिया अभी (अब) मैं अपने को [और] दूजे- किसी को बुरा नहीं मानूँगा। बुरा करूँगा नहीं, किसी का बुरा नीं (नहीं) चाहूँगा। बुराई करूँगा ही नहीं। बुराई के साथ सम्बन्ध ही छोड़ दिया हमने। तो अपणे को बुरा समझना, दूसरे को। ये बात याद रखो। अपने को, दूसरे को, बुरा नहीं समझूँगा- ये एक बात याद करलो। तो बुरा चाहणा और बुरा करणा [- ये दो] आपसे आप मिट ज्यायेगा। ना मैं बुरा हूँ ये समझे, (10) ना दूजा बुरा है ये [समझे। ये] समझे। ये कायम रखें, तो ये तीनों बातें ज्यायगी आप से आप ही। इसकी रक्षा रखणा है।

    इसमें एक बड़ी भारी विचित्र बात है। वो क्या है कि सबका भला होता है इसमें। सभी- सब का भला हो ज्याता है- बुराई छोड़ देणे से। अहिंसा प्रतिष्ठियां तत्सन्निधौ वैरत्यागः (योगदर्शन २।३५) जिसके ये अहिंसा है, इसकी प्रतिष्ठा हो ज्यायगी तो उसके पास में दूजे आदमी बैर नहीं करेंगे। इतना भलापणा होगा [कि] उसके पास में बैर छूट ज्यायगा। जैसे सिंघ बकरी साथ चरे, हरिण और सिंघ साथ में रहणे लग ज्याय। इतना प्रभाव पड़ेगा। सर्वथा, ये हमारे में प्रतिष्ठित हो ज्यायपक्की हो ज्याय अपणे में। पहली- पुराणी रही है, उसका संस्कार भी सर्वथा मिट ज्याय। कोई बुरा है अर किसी का बुरा चाहूँ (11) [ये नहीं रहे] अर किसी का बुरा नहीं करूँगा- ये दृढ़ होणे के बाद, पक्की होणे के बाद आपके पास में रहते हुए (आपके पासमें रहनेसे ही), दूसरे आदमी आपस में लड़ेंगे नहीं, दूसरे जन्तु लड़ेंगे नहीं। दूसरों को शान्ति हो ज्यायगी और संसार की बड़ी भारी सेवा हो ज्यायगी। सेवा करणे से सेवा होती है सीमित और बुराई करणे से, किसी को दुख देणे से, किसी का अनिष्ट करणे से सेवा होती है असली (असीम) असली चीज है ये। अभी-अभी चातुर्मास ब्रत है, उसमें ये ब्रत ले लिया जाय कि भई! अभी इस चातुर्मास में हमने ये बात सीख ली। कभी कोई मन में बुरी ज्याय तो राम राम राम राम राम कर देणा,अर माफी माँग लेणा मन ही मन से। और भगवान को याद करो- हे नाथ! हे नाथ!! भूल गए, भूल गए, नाथ! भूल गए, भूल हो गई।  क्षमा करो नाथ! हमारे को। ऐसे माँग लेणा भगवान से। वो बुराई टिकेगी नहीं, वो ठहरेगी नहीं। (12)  

   तो बुराई मूल में है नहीं, बुराई आगन्तुक होती है। इस वास्ते हम किसी को बुरा नहीं समझेंगे, किसी का बुरा नहीं चाहेंगे, किसी का बुरा करेंगे नहीं। चाहेंगे नहीं, बुरा करेंगे भी नहीं। वो भलाई स्वतः हो गई, स्वतः जो चीज होती है , वो नित्य होती है, की हुई चीज है वो अनित्य होती है, की हुई चीज बणावटी (बनावटी) होती है अर स्वतः होती वो असली होती है। हम भगवान का भजन करते हैं, ये बणावटी है और स्वतः भगवान की याद आती है हमारे, बिना भगवान के हम रेह (रह) ही नहीं सकते, स्वतः आई याद है, वो असली भजन होता है। भगवान का भजन करते हैं (और) संसार की बात याद आती है, याद आती है वो असली होती है अर करते हैं वो नकली होती है। तो बुराई नहीं करेंगे तो भलाई भीतर से स्वतः पैदा होगी, स्वाभाविक होगी अर स्वाभाविक ही होगी, नित्य होगी। (13) वो सदा के लिये होगी अर सबके लिये हो ज्यायगी, नित्य हो जायगी। बुराई छोडणे (छोङने) से [भलाई] स्वतः ही हो ज्यायगी। जैसे घर में झाड़ू देणे से मकान साफ हो ज्याता है। साफ कूड़ा करकट निकाल दो, उसमें खराबी- खराबी निकाल दो, फिर साफ करणा नहीं पड़ता। वो खराब निकाल दो, खराब कूड़ा करकट निकालने पर तो सफा साफ हो ज्यासी (जायेगा), सफाई हो ज्यायगी, साफ हो ज्यायगा। तो सब जगह परमात्मतत्त्व स्वतः परिपूर्ण है। बुराई छोड़णे से भलाई आप से आप होती है।

   भलाई करणे में उद्योग करणा पड़ता है, खर्च करणा पड़ता है, परिश्रम करणा पड़ता है और बुराई करणे में कोई खर्च नहीं करणा पड़ता अर कोई उद्योग करणा नहीं पड़ता- कोई परिश्रम करणा नहीं पड़ता। कुछ, उसको जोर आता ही नहीं। इस ब्रत में, इस नियम में, इस बगत (समय) अपणे ये बात एक कर लें। कहीं कोई बुराई हो ज्याय (14) तो हाथ जोड़कर माफी माँग ले,भई! मेरी ये भूल हो गई, मेरी गलती हो गई माफ करणा ,राम राम राम राम, वो चली ज्यायगी- भगवान् को याद करते ही चली ज्यायगी। माफी माँगते ही सब दोष दूर हो ज्यायेंगे एकदम। माफी माँगणे का भी अर्थ यही है कि मैंने गलती करदी,अब गलती नहीं करूँगा। नहीं करूँगा, माफी माँगली [और] फेर गलती करे तो माफी कहाँ माँगी। अपने बुराई नहीं करणा है बुरा चाहणा है बुरा मानणा है।

   सज्जनों! सदा के लिये फिर आप मस्त हो ज्याओगे और आपके द्वारा संसारमात्र की सेवा होगी। करणे से तो थोड़ी [होगी], सैकडों, हजारों, लाखों, करोड़ों, अरबों रुपया लगाणे पर भी भलाई होती है सीमित (थोङी) और किसी का बुरा करणे से भलाई होती है असीम, स्वाभाविक। किसी को बुरा समझेंगे तो बुराई सदा के लिए [मिट जाती है-] बुराई का खाता ही (15) अपणे से मिट ज्याता है। तो ये भलाई असीम होती है, नित्य होती है, निर्विकार होती है, सदा। तो ये सिद्धान्त है अर बड़ा सुगम है अर बड़ा व्यापक है अर बड़ा ठोस है अर बड़ी सच्ची बात है। [इससे] कल्याण हो ज्यायेगा, उद्धार हो ज्यायेगा और अपणा कल्याण होता है तो एक बात दूजी और भी है, पण ये बात है, इसमें, इसमें सब पेट में ज्याती है (इस एक बात में सब बातें जाती है) इतनी विलक्षण बात है।

    बुरा करणे से क्या होता है भलाई के साथ हमारा सम्बन्ध हो ज्याता है। भलाई करणे से भलाई की हुई होती है अर की हुई आदि और अन्त वाली होती है। भलाई के साथ सम्बन्ध होता है वो निरन्तर नीं रहता, भलाई करते हैं इतना (इतने समय) भलाई रहेगी, ( उस दूजे समय में नहीं रहता अर्थात भलाई के समय तो भलाई के साथ सम्बन्ध रहता है, पर दूसरे समय में नहीं रहता) अर बुराई नहीं करूँगा तो भलाई का सम्बन्ध नित्य होता (16) है हमारे साथ। इस वास्ते इसकी महिमा ज्यादे(ज्यादा) है। किसी को बुरा नहीं मानूँगा बुरा चाहूँगा नहीं, बुराई  करूँगा नहीं तो भलाई का सम्बन्ध आपके साथ निरन्तर हो ज्यायेगा अर भलाई करणे से निरन्तर सम्बन्ध नहीं होता है। भलाई करे, उतना सम्बन्ध रेहता है जितना खर्च करो तो उतना सम्बन्ध रेहता है, जितना 'सेवा करो' उतना सम्बन्ध रहता है अर बुराई करणे से निरन्तर भलाई रहती है। वो सीम नहीं- असीम होती है और भलाई कर देना, ये बड़ी बात नहीं है क्यूँ आप देखो, आपके द्वारा भलाई होती ही नहींऐसा है ही नहीं। कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं कि उसके द्वारा कुछ भलाई नीं होती हो और कुछ बुराई होती हो। ऐसा कोई है ही नहीं। कुछ कुछ भलाई तो करते ही हैं। अपणे स्त्री बच्चों के साथ करते हैं माता-पिता के साथ करते हैं, भाई-भोजाई के साथ करते हैं, (17) मित्रों के साथ करते हैं, अपणी जाती के साथ करते हैं, बिरादरी के साथ अच्छापणा करते ही हैं, अच्छापणा तो होता ही रहता है, पण बुराई रहित होणा- ये, भोत (बहुत) कम आदमी मिलेगा ऐसा। भलाई करदे, बुराई करदे, भली-बुराई– 'भलाई- बुराई करणेवाला' तो दुनियाँ मिलेगी। ये, द्वन्द्व है ये तो। पर बुराई करणा ही नहीं है [-इसमें ] ना खर्चा करणा पड़ता है, ना उद्योग करणा पड़ रहा है, ना परिश्रम करणा पड़ता, कुछ- कोई विद्या सीखणी पड़ती, नीयत अपणी साफ कर देणी है बस। अर अपणी नीयत साफ हुई (कि) आप साफ हुए। निर्मल- भले हो ज्यायेंगे। इतनी सुगम बात है अर इतनी बड़ी बात है, इतनी दामी बात है। और संसारमात्र की सेवा है। इस नियम पर पक्का रहणा है और भगवान की कृपा का भरोसा रखो। हमारा काम होगा भगवान की कृपा से। और [जो] कृपा का भरोसा रखता है वो कभी फेल नहीं होता। अपणे उद्योग से (18) तो गङबङी हो ज्याती है अपणे बल के कारण; परन्तु भगवान की कृपा के भरोसे से सदा के लिये ठीक हो ज्यायेंगे।

   तो ये तीन बात, पक्की अपणे जीवन में, आज से ही धारण कर लेणा। कभी भूल गये, राम राम राम राम राम राम करके भगवान से माफी माँग लेणामहाराज भूल हो गई, गलती हो गई, अब गलती नहीं करूँगा। ये, सावधान हो ज्यावें अपणे। तो हमारे [में] से  बुराई निकल गई तो बुराई दुनियाँमात्र में मिटगी (मिट गई) "आप भला, तो जग भला" "मन चंगा, तो कठोती गंगा" - कहावताँ है (कहावतें हैं) अपणे में भलापणा स्वयं कायम होगा- बुराई रहित होणे से अर भलाई करणे से सीमित भलाई होती है। ये असीम भलाई (है) किसी का बुरा नहीं करूँगा, किसी को बुरा नहीं समझूँगा, (19) किसी के भी बुराई नहीं सोचूँगा। मन में बुरा सोचना है ना [-यह] भोत, बड़ी भारी बुराई है। करणा बुराई है ही, बुरा मानणा भी बुराई है; पण बुरा सोचना भी भोत बड़ी बुराई है। इस वास्ते बुराई रहित होणा है। तो स्वतः भलाई ज्यायगी आपसे ही (अपने-आप ही) मौज हो ज्यायेगी- आणँद हो ज्यायेगा। ये सत्संग करते हैं- ये सिद्ध हो ज्यायेगी, निर्मलता स्वतः ज्यायगी। इस बात पर पक्के- कायम रहें। कायम रहने के लिये क्या है बस, बुरा नीं, भीतर से बुरा नीं समझूँगा किसी को ही (किसी को भी) अपणे को दूजे को- किसी को बुरा ही नीं समझूँगा बस- ये ही रह ज्यायेगा। बुरा समझने से ना बुराई करेगा, ना बुरा सोचेगा- सब "नहीं" नहीं हो ज्यायगा। बुराई बोलेगा (20) बुराई सुणेगा (और) ही सोचेगा- बुराई के साथ सम्बन्ध ही छूट गया।

तो ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशी।। जो सहज सुखराशी है सहज ही अमल है शुद्ध है, चेतन है- ये स्वतः स्वरूप रह ज्यायगा है जैसा का जैसा। (रामचरिमा.\११७)  - ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशी।

{ श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक १७|०७|१९९७_प्रातः बजे, सीकर चातुर्मास वाले प्रवचन का यथावत् लेखन-}