श्री स्वामीजी महाराज
की
यथावत् वाणी
[श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराजके ज्यों के त्यों लिखेहुए प्रवचन]
नम्र निवेदन
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक 13 जून 1990, प्रातः पाँच बजे और साढ़े आठ बजेवाला प्रवचन मेरे को बहुत बढ़िया लगा। इनके सिवाय दिनांक 20 अगस्त 1994_0518 (पाँच बजे) वाला प्रवचन भी मेरे को बहुत बढ़िया लगा। मन में आया कि इन प्रवचनों को तो ज्यों के त्यों लिखना चाहिये। इसलिये ये प्रवचन पूरे और यथावत(ज्यों के त्यों) लिखे गये। इनके अलावा श्रीस्वामीजी महाराज के जिन- जिन प्रवचनों में मेरे को विशेष और नयी बातें मिली तथा आवश्यक लगी, उनको भी यथावत् लिखा गया है और इस पुस्तक में
जोङा गया है। इसी प्रकार कुछ प्रवचन और भी लिखे गये।
मैंने इनमें यथावत्- रूप से, सत्य- सत्य और ईमानदारी पूर्वक लिखनेकी कोशिश की है। परमात्मतत्त्व का अनुभव चाहने वाले और महापुरुषों की वाणी को यथावत समझने की इच्छा रखनेवालों के लिये ज्यों का त्यों लिखा हुआ प्रवचन बहुत उपयोगी रहता है। यह (यथावत्- लेखन) रिकोर्ड किये हुए प्रवचन और लिखे हुए प्रवचन– दोनों की पूर्ति करता है। इससे यथार्थता समझने में बहुत बङी सहायता मिलती है; क्योंकि इसमें जैसे- जैसे श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं, वैसे के वैसे ही लिखा गया है, कुछ काँट- छाँट नहीं की गयी है, न वाक्य और शब्द बदले गये हैं तथा न कोई आवश्यक अंश हटाया गया है। जहाँ खुलासा करना आवश्यक लगा, वहाँ वो कोष्ठक में लिख दिया। महापुरुषोंकी "मूलवाणी" और उनके भावों की रक्षा की गयी है।
"श्री स्वामी जी महाराज की यथावत वाणी" नामक पुस्तक जो पहले छपी थी, उसके यथावत-लेखनवाले प्रवचन इसमें सम्मिलित कर लिये गये हैं। उनमें कुछ संशोधन करके उनको अधिक उपयोगी बनाया गया है।
सत्संग प्रवचन करते समय जैसे- जैसे श्री स्वामीजी महाराज बोले हैं , वैसा का वैसा ही लिखने की कोशिश की गयी है अर्थात् इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो वाणी वो महापुरुष बोले हैं, उसको वैसे के वैसे ही लिखा जाय। अपनी होशियारी न लगाई जाय। उनके द्वारा बोले गये शब्द और वाक्य आदि बदलें नहीं और उस वाणी के कोई वाक्य और शब्द आदि छूटे भी नहीं। जैसे वो बोले हैं वैसे- के- वैसे ही लिखे जायँ।
महापुरुषों द्वारा बोली गयी प्रामाणिक, आप्तवाणी को लिखने में ईमानदारी पूर्वक सत्यता का ध्यान रखना चाहिये। जैसे- जैसे वो बोले हैं, वैसे के वैसे ही लिखना चाहिये। कुछ फेर- बदल नहीं करना चाहिये। इस लेखन में ऐसा ही प्रयास किया गया है। इससे यह वाणी अत्यन्त विश्वसनीय और उपयोगी हो गयी है तथा समझने में और भी सुगम हो गयी है।
इसमें प्रवचनके प्रत्येक मिनिटवाली सामग्री की संख्या भी लिखी है। इससे यह प्रामाणिकता के साथ- साथ एक क्रान्तिकारी पुस्तक हो गई है। श्री स्वामी जी महाराज के प्रवचनों को ज्यों के त्यों लिखकर बनायी हुई, इस तरह की यह पहली पुस्तक समझनी चाहिये।
जहाँ मारवाड़ी भाषा आदि के कुछ कठिन शब्द और वाक्य आदि आये हैं, उनके भाव और अर्थ कोष्ठक (ब्रैकेट) में दिये गये हैं। कहीं- कहीं विषय को सरल बनाने के लिये भी कोष्ठक का उपयोग किया गया है।
श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के समय में रिकोर्ड किये गये उनके प्रवचन लिखे जाते थे। वो इसलिये कि उनको पुस्तकों में छपवाया जाय। वर्तमान में सब न भी छपे तो भविष्य में छापे जायँ। ऐसी अनेक वर्षों की हस्तलिखित प्रवचनों की कोपियाँ पङी हुई है। वो अभी क्रियान्वित नहीं हो पा रही है। रिकोर्डिंग वाणी को लिखनेवाले सज्जनों में से किसीने श्री स्वामी जी महाराज से कहा कि महाराजजी! आपका हर एक प्रवचन लिखना जरूरी है क्या? पहले लिखे हुए प्रवचनों के बहुत से रजिस्टर पङे हैं, वो छापे नहीं जा रहे हैं। उनकी पुस्तकें नहीं बन रही है। इसलिये लिखने का उत्साह कम हो जाता है। तब श्री स्वामी जी महाराज ने कहा कि प्रतिदिन प्रातः पाँच बजेवाली सत्संग के तो हरेक प्रवचन लिख लिया करो और दिनवाले प्रवचनों में जो विशेष लगे, उनको लिख लिया करो। इससे यह समझ में आया कि श्री स्वामी जी महाराज ने लोगोंकी परेशानी और अभाव देखकर, संकोच के कारण ऐसा कहा है। महापुरुषोंके तो हरेक प्रवचन लिखने योग्य हैं।
इस प्रकार रिकोर्डिंग की कैसेटों द्वारा अनेक प्रवचन लिखे गये और बहुतसे लिखने बाकी रह गये। कई प्रवचनों के लेख पुस्तक रूप में छपे हैं; लेकिन वो यथावत् नहीं रहे। जैसे, उनमें संशोधन के नामपर जगह-जगह वाणी को बदला गया है। वाक्यों की भाषा बदली गई है। बीच-बीच में वाणी के अंश काटकर छोङ भी दिये हैं। कई प्रवचन तो लेखक ने पूरे ही अपने ढंग से लिखे हैं और छोटे कर दिये हैं तथा सारांशरूप में लिखे हैं। इस प्रकार रिकोर्डिंग वाणी के लेखोंमें यथावत्ताकी कमी रही– ऐसा लगता है। लेखन में असलियत न रहनेसे उसका प्रभाव कम हो जा जाता है। पढनेवालेपर महापुरुषोंकी वाणीका जैसा असर पङना चाहिये, वैसा नहीं पङता। यथावत् लेख बनाकर तैयार करने में बहुत परिश्रम करना पङता है। अगर कोई परिश्रम करके श्री स्वामी जी महाराज की वाणी को यथावत् छपवावे तो स्वयं को और दुनियाँ को बङा भारी लाभ हो।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के जब हम 'ओडियो रिकोर्डिंग वाले' प्रवचन सुनते हैं तो उनमें कई बातें बहुत बढ़िया लगती है और मन करता है कि बार-बार सुनें। बाद में भी जब कभी दुबारा उस बात को सुनने का मन होता है और प्रवचन सुनना शुरु करते हैं तो उस बात को खोजने में समय लगता है। वो बात अगर अलग से लिखी हुई होती है तो सुगमता से मिल जाती है और सुनकर भी समझ ली जाती है। लिखी हुई बात को बार-बार पढ़कर उस पर विचार करना भी सुगम हो जाता है।
कभी-कभी विचार आता है कि इस बात को श्रीस्वामीजी महाराज बोले तो ऐसे ही हैं न? बोली हुई और इस लिखी हुई बात में कोई फर्क तो नहीं है? कई बार लिखने में भूल भी हो जाती है और कभी-कभी लिखनेवाला अपनी चतुराई लगाकर वाक्य को बदल भी देता है। लेकिन ऐसे लेखन पर श्रद्धा नहीं बैठती। पता नहीं लगता कि श्रीस्वामीजी महाराज का वास्तव में यहाँ कहने का भाव क्या था।
कई बार 'लेखन' और 'आडियो रिकार्डिंग' का मिलान करते हैं तो जैसा श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं, वैसा नहीं मिलता, अन्तर (फर्क) मिलता है। श्रीस्वामीजी महाराज जैसा वाक्य बोले हैं, वैसा लिखा हुआ नहीं मिलता, वाक्य बदला हुआ मिलता है।
कभी-कभी तो वो लेखक बिना बताये, पूरे अंश या वाक्य को ही छोड़ देता है और आगे बढ़ जाता है।
तो ऐसे में विश्वास नहीं होता कि यह लेखन यथावत् है या नहीं। इससे वास्तविक बात का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। श्रीस्वामीजी महाराज की बात का रहस्य छूट जाता है। वो रहस्य तब समझ में आता है कि जब रिकोर्डिंग वाणी के अनुसार ही– ज्यों का त्यों "वाक्य" लिखा हुआ हो, उसमें एक शब्द और मात्रा आदि का भी फर्क न किया गया हो।
उससे भी बढ़िया तब समझ में आता है कि उस रिकोर्डिंग को ही ध्यान से सुना जाय। ऐसे सुनकर समझा जाय तो बात बहुत बढ़िया समझ में आती है। बहुत लाभ होता है।
कभी-कभी सुनने की सुविधा न हो तो लिखी हुई बात को पढ़कर भी समझा जा सकता है। परन्तु लिखी हुई बात वैसी- की वैसी ही होनी चाहिये जैसी कि श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं। लिखने में बदलाव नहीं होना चाहिये। रिकोर्डिंग वाणी के अनुसार ही, यथावत् लेखन होना चाहिये।
यथावत् लेखन में जितनी कमी रहेगी, उतनी ही अथवा उससे भी अधिक समझने में कमी रहेगी। बात को यथावत् समझना हो तो लेखन भी यथावत् होना चाहिये।
इस पुस्तक में कुछ ऐसा ही प्रयास किया गया है।
सत्संग की बढ़िया और मार्मिक बातों को "यथावत्" समझने के लिये, प्रवचनों के अंशों को अलग से भी "यथावत्" लिखा गया है।
किस प्रवचन में, कौन-सी बात, कहाँपर आयी है- इसका सुगमता से पता लग जाय, इसके लिये प्रवचन के मिनिटों की संख्या भी दी गई है।
थोङे समय में ही अधिक बातें समझ में आ जाय, सुगमता से उधर दृष्टि चली जाय, पढ़ने और समझने में सुगमता हो जाय- इसके लिये उन बातों के शीर्षक भी दिये हैं।
इसलिये यथावत्- लेखन प्रवचनों को और यथावत्- लेखन अंशों को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिये।
सभी सत्संगी सज्जनों से नम्र निवेदन है कि ऐसे महापुरुषों के प्रवचनों को इसी प्रकार ईमानदारी पूर्वक यथावत् लिखकर या लिखवाकर और भी पुस्तकें छपवावें और दुनियाँ का भला करें। इससे अपना भी बङा भारी भला होगा। वास्तविक हित होगा।
जब भगवान् की बङी भारी कृपा होती है तब महापुरुषों की हू-ब-हू, ज्योंकी त्यों, यथावत वाणी मिलती है। इससे बङा भारी लाभ होता है ।
भाई बहनों को चाहिये कि इससे स्वयं लाभ लें और दूसरों को भी बतावें। यथावत-लेखन यद्यपि मेहनत का काम है। ऐसा परिश्रम करनेकी हिम्मत हरेक नहीं करता और करता है तो बहुत बङा लाभ होता है।
यह पुस्तक भी कई सज्जनों की मेहनत से तैयार हुई है। जैसे, मेघसिंह जी चौहान (गाँव नेणाऊ, जिला नागौर ने अन्तिम प्रवचन लिखकर मेरेको श्री स्वामी जी महाराज की वाणीको यथावत लिखनेकी प्रेरणा की [इन्होंने ही "गीतासेवा" ऐप्प बनवानेका कार्य किया और श्री सेठजी, भाईजी और श्री स्वामी जी महाराजकी पुस्तकें तथा ओडियो रिकोर्डिंग वाणीको ऑनलाइन उपलब्ध करवाया है।)। गजेन्द्र सिंह राणावत (काँणोली, भीलवाङा) ने यन्त्र के द्वारा सँवारकर इसको पुस्तक रूप में तैयार किया, उनकी बहन प्रियाकुँअर राणावत द्वारा लिखे हुए (दिनांक १७|०७|१९९७_प्रातः ५ बजे सीकरवाले) प्रवचन से इसमें सहायता मिली, महावीर सिंह राठौङ (दीपपुरा, कुचामन) ने (दिनांक १३|६|१९९०_ प्रातः ५ और ८:३० बजेवाले प्रवचन के) लेखन की सहायता की और गुलाब सिंह जी शेखावत (खोरी,सीकर) ने प्रेरणा और कोशिश करके इस पुस्तक को छपवाया। इसी प्रकार मेरे बङेभ्राता खुमानसिंह राठौङ (चावण्डिया, नागौर) आदि तथा और भी ज्ञात- अज्ञात, कई सज्जनों और माता- बहनों की सद्भावना इस पुस्तक में है। जो महापुरुषों की वाणी को दुनियाँ तक पहुँचाने में सहायक हुए, वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं और अब,आगे वे सज्जन भी धन्यवाद के पात्र होंगे जो स्वयं पढेंगे तथा महापुरुषों की इस वाणी को जन-जन तक पहुँचायेंगे।
इस पुस्तक में जो अच्छाई है, वो उन महापुरुषों की है और जो त्रुटियाँ है, वो मेरी व्यक्तिगत हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाई की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।
निवेदक-
डुँगरदास राम
चैत्र शुक्ला १२ सोमवार, संमत २०८०। भीलवाङा (राजस्थान)।
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