शनिवार, 7 जनवरी 2023

सत्संग की यथावत् बातें [श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराजके सत्संग-प्रवचनों की ज्यों- की त्यों लिखी हुई कुछ बातें]

                 ।।श्रीहरिः।। 
         

 सत्संग की यथावत् बातें

[श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज
के सत्संग-प्रवचनों की ज्यों की त्यों लिखी हुई कुछ बातें]  


विषयसूची-
●1 नम्र निवेदन                      
●2 करणनिरपेक्ष साधन स्वयं से होता है-
●3 खास जाननेकी बात- आत्मा और परमात्मा एक है- 
●4 दो प्रकार समाधियाँ - 
●5 साधनकी खास बाधा- 
●6 दो प्रकारके योग-
●7 अहम् से अलग होनेकी युक्ति - 
●8 भक्तियोगकी विलक्षणता -
●9 भगवती माँ ने बालकका काम किया- 
●10 अहम् का अभाव है-
●11 भोग भोगता है और सुखी दुखी होता है, यह अहम् होता है (स्वयं नहीं)- 
●12 सुषुप्ति में अविद्या आप पर कब्जा नहीं करती है, अहंकार पर कब्जा करती है-
●13 अभी, वर्तमान में अहम् से रहित आप नहीं हैं-
●14 विश्राममें परमात्मा में स्थिति हो जाती है- 
●15 पाँच- सात सैकण्ड ही क्रियारहित होनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद— 
●16 चिन्तनसे रहित होणेपर स्वरूप में स्थिति होती है- 
●17 सन्धिकी व्याख्या और उसकी शक्ति- 
●18 सब वृत्तियाँ गोपिकाएँ हैं,विश्राम (है) वो कृष्ण है- 
●19 सतसंगतिसे बङा भारी लाभ होता है, मुफ्त में- 
●20 मरणासन्न व्यक्तिको भगवन्नाम सुनानेका प्रबन्ध करना चाहिये- 
●21 करणनिरपेक्ष साधन स्वयंसे होता है- 
●22 खास जाननेकी बात– आत्मा और परमात्मा एक है-
●23 वास्तविक समाधिमें व्युत्थान नहीं होता- 
●24 आप जिसको सुगमतासे कर सकते हैं, उसी साधनको करो- 
●25 चाहे मन एकाग्र हो या न हो, गीताजीका योग हो गया- समता - 
●26 बुद्धि और अहम् एक है- 
●27 मैं-पनमें अभिमान- 
●28 अहंता (मैं-पन) के साथ घमण्ड- दर्प और अभिमान - 
●29 अपने अहम् रहित स्वरूपका अनुभव - 
●30 खास अनुभव - 
●31 सुषुप्तिमें जाग्रतको समाधि (स्वरूपमें स्थिति) कहते हैं-
●32 समाधिमें अहम् मिटता नहीं है-
●33 समाधिअवस्था और सहजावस्थामें फर्क है- 
●34 "सहजावस्था"में स्थित- "सिद्ध"की दो अवस्था नहीं होती-
●35 सहजावस्था निरन्तर रहती है- 
●36 "सहजावस्था" क्या होती है?-
●37 अपने होनेपनेका अनुभव तो कुत्तेको भी है- 
●38 अपने अहमरहित स्वरूपका अनुभव कैसे हो?
●39 संसारके साथ नित्यवियोगको स्वीकार करलो– बोध हो जायेगा - 

●40 (दुःख मिटाने के मन्त्र-) भविष्यकी चिन्ता मिटानेके लिये
●41 भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालकी चिन्ता मिटानेके लिये
●42 हर समय भगवान् के भरोसे प्रसन्न रहनेके लिये
●43 अन्तःकरणमें अधिक उथल-पुथल होनेपर मनको समझानेके लिये
●44 चिन्ता छोड़ते हुए अपने कर्तव्यसे कभी च्युत न हों। 
●45 इच्छा और आवश्यकता- 
●46 दो प्रकारकी इच्छाएँ- 
●47 सुषुप्तिमें अविद्या आपपर कब्जा नहीं करती- 
●48 अहम् के अभावका अनुभव-
●49 अहम् रहित आप निरन्तर हैं- 
●50 एक मार्मिक बात बताता हूँ, ध्यानदें - 
●51 भगवान् के शरण होना और तत्त्वको समझना- सबसे श्रेष्ठ है -
●52 यज्ञ, दान आदि धर्म और निष्कामकर्मसे भी बङा है परमधर्म (भगवान् में लगना)- 
●53 मैं-पन को बदलदो या मिटादो - परिणाम दोनोंका एक हो जायेगा- 
●54 दीक्षा का तत्त्व क्या है? कि अहंता को बदलना- 
●55 तत्त्वमें कोई क्रिया नहीं है-
●56 करणनिरपेक्ष साधन- 
●57 कुछ भी चिन्तन न करके सो जानेसे परमात्माकी प्राप्ति- 
●58 भक्तियोगकी विलक्षणता-
●59 बिना भूख सत्संग करनेका भी असर होता है-
●60 वास्तविक सत्संगका असर हुए बिना रहता ही नहीं- 
●61 हरेक कथामें मन लगता है तो अभीतक असली सत्संग मिला नहीं है- 
●62 ज्ञानमें अपने स्वरूपका सहारा है और स्वरूप परमात्माका अंश है- 
●63 जङता तो हरदम जा रही है, केवल आप पकङना छोङदें, तो छूट जायेगी- 
●64 भविष्यवाणी— पापोंके कारण अन्न-जल नहीं मिलेगा, मनुष्य मनुष्योंको ही खाने लगेंगे- 
●65 जैसे खम्भा हमारा स्वरूप नहीं है, ऐसे ही यह शरीर हमारा स्वरूप नहीं है- 
●66 करणसापेक्ष, करणनिरपेक्षका मतलब- 
●67 बुद्धिको जाननेवाला अहम् है और अहम् को जाननेवाला स्वरूप है- 
●68 साधक बनकर के गृहस्थका काम करनेसे परमात्माकी प्राप्ति- 
●69 भावशरीरका सम्बन्ध भगवान् के साथ होगा-
●70 तीनशरीर– प्रतीति-शरीर,स्वीकृति-शरीर और भाव-शरीर 
●71 'मैं तो केवल तत्त्वका जिज्ञासु हूँ'– 
●72 साधन आपसे-आप, निरन्तर होगा। नहीं तो सम्प्रदाय आदिमें बँधे रहोगे-
●73 मैं केवल भगवान् का हूँ,दूसरे किसीका भी नहीं- 
●74 देना ही देना- "चेतन" और लेना ही लेना- "जङ"। नई बात सुनाते हैं आपको- 
●75 राधा, सीता, गौरी आदि का स्वरूप- 
●76 अनुकूल परिस्थितिका न मिलना योगीकी एक भोगसामग्री है–
●77 आप अहम् रहित हैं- यह आपका अनुभव है–
●78 कुछ भी न करनेसे परमात्माकी प्राप्ति- 
●79 एक बार स्वीकार करते ही पूरा काम हो जाता है- 
●80 स्वप्नमें श्री सेठजी बोले कि एक परमात्मा ही है– 
●81 नामजपकी विलक्षणता और पतिव्रताका उदाहरण–
●82 व्याख्यान और सत्संगकी बातोंमें फर्क समझें- 
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             १- नम्र निवेदन
[ यहाँ जो लेखन के शुरु और अन्त में बङे बिन्दू (काले वृत्त- ●•• ••●) दिये गये हैं, वो यह दर्शाने के लिये है कि इनके बीचवाले अंशों को यथावत्, ज्यों के त्यों लिखने की कोशिश की गयी है। इनके अलावा श्री स्वामी जी महाराज के भाव भी लिखे गये हैं।
   प्रवचनों के दिनांक और विषय वो ही दिये गये हैं जो श्रीस्वामीजी महाराज की सत्संग- सामग्री के मूलसंग्रह में थे। जहाँ एक ही प्रवचन में से अनेक बातें ली गयी है, वहाँ, उनकी मूलतारीख की प्रतिलिपी शुरुआत में, एक बार दी (लिखी) गयी है, उसके बाद में सुगमता के लिये तारीख अनुक्रम से लिखी गई है।] 
   श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज (दिनांक 19980613_0830_Saadhan Mein Jagriti. वाले प्रवचन की शुरुआत में) कहते हैं कि (मेरे) मन में तो बात आयी है कि भाई! देखो! सबके लिये ही मर्यादा में चलना- ठीक चलना है; परन्तु जो आध्यात्मिक- उन्नति चाहते हैं, सत्संग करते हैं, उनके ऊपर जिम्मेवारी ज्यादा होती है। उनको अपणे- आपपर रोकणा चाहिये- संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।। (गीता ३|४३) - अपणे मनपर, अपणी इन्द्रियों पर, अपणे शरीरपर- इनपर अधिकार रखना चाहिये। साधक होकर के, उच्छ्रंखलता करे नीं (करता है न), वो बुरी होती है। दूसरे लोग क्या समझते हैं र उनकी- खुदकी क्या दशा होगी? अगर वो संयम रख लेता [तो कितना अच्छाहोता।], सत्संग करते हैं तो सत्संग करनेवालों से दूसरे लोग अच्छे व्यवहार की आशा रखते हैं कि ये सत्संग करणेवाळे हैं, ये गीता पढ़नेवाले हैं, आध्यात्मिक मार्ग में चलनेवाले हैं- ऐसा समझकर लोग अच्छाई की आशा रखते हैं। जैसे युधिष्ठिर ने कहा न! कि मेरको लोग धर्मात्मा मानते हैं।
(पृथाबंस मैं हूँ प्रगट नहीं मादरी बंस।)
धरमबिरोधी बातको कहत न महत प्रशंस।।
(महाभारत, यक्ष- युधिष्ठिर संवाद)तो ऐसे उनपर जिम्मेवारी आती है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। ×××
   (7 मिनिट•) ●•• देखो! एक मार्मिक बात है- तत्त्व जो है, वो है ज्यों का त्यों है। परमात्मा है ज्यों का त्यों है। जीवात्मा- स्वयं, है ज्यों का त्यों है। इसमें कुछ फर्क नहीं पङता है। फर्क व्यवहार में ही पङता है। रहन- सहन, चलन- फिरन, खाणा- पीणा, व्यवहार करणा- ये ही तो सुधारणा है! कोई आत्मा का सुधार करणा है? क (अथवा) परमात्मा का सुधार करणा है? और क्या करणा है? वो तो नित्य- तत्त्व है। है ज्यों का ज्यों ही है। परिवर्तन होता है तो (व्यवहार में ही होता है, तत्त्व में नहीं)। संत- महात्मा होते हैं, तत्त्वज्ञ- जीवन्मुक्त होते हैं, उनमें परिवर्तन क्या होता है? कोई शरीर में परिवर्तन होता नहीं, आत्मा में परिवर्तन होता नहीं। आत्मा कोई और जगह हो ज्याय, वो तत्त्व और हो ज्याय - ऐसी बात होती नहीं। और शरीर में कोई न्यारा ही बात - लाँछन लग ज्याय, कोई सींग लग ज्याय– ऐसी कोई बात नहीं होती है। बात क्या होती है? (कि) व्यवहार शुद्ध होता है। व्यवहार उनमें- जो दैवी सम्पत्ति है, आसुरी सम्पत्ति का न होणा, दैवी सम्पत्ति का आणा- ये स्वाभाविक [होते हैं], अन्तःकरण की शुद्धि होती है। निर्मलता होती है। वो ठीक जगह होती है, वो विवेक बढ़ता है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
मज्जन फल पेखिअ तत्काला।
काक होइ पिक बकउ मराला।। 
                     (रामचरिमा.१|३) 
इसमें तत्त्व यह बताया कि उनका व्यवहार और उनका विवेक- ये विलक्षण होता है। मानो वाणी भी शुद्ध हो जाती है और विवेक भी शुद्ध हो जाता है। वाणी का मतलब- दूसरे व्यवहार। लेन- देन, आपस में बर्ताव आदि- इसमें भी उनके फर्क पङता है और विवेक भीतर हो जाय, जो तत्त्व है,उसमें- विवेक में फर्क पङता है।जितनी विवेक में विलक्षणता होगी, उतनी उनकी ऊँची स्थिति हो जायेगी। और ऊँची स्थिति होगी, उसमें विवेक बढ़ेगा। वो विवेक हरेक-काम में काम करेगा। व्यवहार में भी काम करता है और परमार्थ में भी काम करता है। हरेक बात ही- कि कैसे करना चाहिये- कौन सा काम, किस ढंग से करना चाहिये- ऐसे ढंग से उनका व्यवहार बदलता है। तो बदलता है वास्तव में विवेक और व्यवहार। यही तो शुद्ध होते हैं। और क्या शुद्ध होगा? आत्मा का क्या शुद्ध होगा? परमात्मा का क्या शुद्ध होगा? उसमें क्या विचित्रता आवेगी? विचित्रता तो इनमें ही आनी चाहिये ना। ऐसी लोग भी इच्छा रखते हैं और स्वयं भी ऐसा रहे। 
   और सत्संग में लगते ही- आरम्भ में ही यह विचार कर लेना चाहिये कि सुख- आराम इसमें नहीं हैऽऽऽ। एक तो सुख होता और एक लाभ (धन) होता, मानो सत्संग, भजन, साधन करने से एक तो आराम, सुख ज्यादा होता और एक पैसे ज्यादा होते तो बहुऽऽत [लोग] धर्मात्मा बन जाते। तो ये- दो चीजों की कमी आती है। सुख में, आराम में भी कमी आती है और पैसों में भी कमी आती है- अन्यायपूर्वक पैसे भी नहीं कमा सकते। तो ये दो चीज लोग चाहते हैं- भोगेश्वर्यप्रसक्तानाम् (साधक-संजीवनी गीता २|४४)। और बाधा क्या है? (ये ही तो बाधा है!)। एक बाधा मेरे को यह दीखती है कि आपलोग ध्यान कम देते हैं, क्षमा करना भाई!, क्षमा माँग लेता हूँ सबसे। ••• ■ 
  श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के जब हम 'ओडियो रिकोर्डिंग वाले' प्रवचन सुनते हैं तो उनमें कई बातें बहुत बढ़िया लगती है और मन करता है कि बार-बार सुनें। बाद में भी जब कभी दुबारा उस बात को सुनने का मन होता है और प्रवचन सुनना शुरु करते हैं तो उस बात को खोजने में समय लगता है। वो बात अगर अलग से लिखी हुई होती है तो सुगमता से मिल जाती है और सुनकर समझ ली जाती है। लिखी हुई बात को बार-बार पढ़कर उस पर विचार करना भी सुगम हो जाता है।
   फिर विचार आता है कि इस बात को श्रीस्वामीजी महाराज बोले तो ऐसे ही हैं न? बोली हुई और इस लिखी हुई बात में कोई फर्क तो नहीं है? कई बार लिखने में भूल भी हो जाती है और कभी-कभी लिखनेवाला अपनी चतुराई लगाकर वाक्य को बदल भी देता है। लेकिन ऐसे लेखन पर श्रद्धा नहीं बैठती। पता नहीं लगता कि श्रीस्वामीजी महाराज का वास्तव में यहाँ कहने का भाव क्या था।
   कई बार 'लेखन' और 'आडियो रिकार्डिंग' का मिलान करते हैं तो जैसा श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं, वैसा नहीं मिलता, अन्तर (फर्क) आता है। श्रीस्वामीजी महाराज जैसा वाक्य बोले हैं, वैसा लिखा हुआ नहीं मिलता, वाक्य बदला हुआ मिलता है।
   कभी-कभी तो वो लेखक बिना बताये, पूरे अंश या वाक्य को ही छोड़ देता है और आगे बढ़ जाता है।
   तो ऐसे में विश्वास नहीं होता कि यह लेखन यथावत् है या नहीं। इससे वास्तविक बात का पता नहीं लगता, श्रीस्वामीजी महाराज की बात का रहस्य छूट जाता है। वो रहस्य तब समझ में आता है कि जब रिकोर्डिंग वाणी के अनुसार ही "वाक्य" यथावत् लिखा हुआ हो, उसमें एक शब्द और मात्रा आदि का भी हेर- फेर न किया गया हो। 
   उससे भी बढ़िया तब समझ में आता है कि उस रिकोर्डिंग को ही ध्यान से सुना जाय। ऐसे सुनकर समझा जाय तो बात बहुत बढ़िया समझ में आती है। बहुत लाभ होता है। 
   कभी-कभी सुनने की सुविधा न हो तो लिखी हुई बात को पढ़कर भी समझा जा सकता है। परन्तु लिखी हुई बात वैसी- की वैसी ही होनी चाहिये जैसी कि श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं। लिखने में हेर-फेर नहीं होना चाहिये। रिकोर्डिंग वाणी के अनुसार ही, यथावत् लेखन होना चाहिये।
   यथावत् लेखन में जितनी कमी रहेगी, उतनी ही अथवा उससे भी अधिक समझने में कमी रहेगी। बात को यथावत् समझना हो तो लेखन भी यथावत् होना चाहिये। 
  यहाँ कुछ ऐसा ही प्रयास किया जा रहा है। सत्संग की बढ़िया और मार्मिक बातों को "यथावत्" समझने के लिये, प्रवचनों के अंशों को "यथावत्" लिखा जा रहा है।
   किस प्रवचन में, कौन-सी बात, कहाँपर आयी है- इसका सुगमता से पता लग जाय, इसके लिये प्रवचन के मिनिटों की संख्या भी दी जा रही है। 
        थोङे समय में ही अधिक बातें समझ में आ जाय, उधर दृष्टि चली जाय, पढ़ने में सुगमता हो जाय- इसके लिये कुछ बातों के शीर्षक भी दिये जा रहे हैं। 
    भाई बहनों को चाहिये कि इससे स्वयं लाभ लें और दूसरों को भी बतावें। 
२- करणनिरपेक्ष साधन स्वयं से होता है-
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(9 वीं मिनट से आगे-) ●•• तो ये जो बात मैंने कही, ये करणनिरपेक्ष बात बताई। साधन करणनिरपेक्ष होता है, वो स्वयं से होता है, चित्त की वृत्तियों से नहीं होता। चित्त की वृत्तियों को (लेकर, उनके) साथमें साधन किया जाय, वो करणसापेक्ष है। करणनिरपेक्ष कह सकते हैं पण (परन्तु) करणरहित नहीं कह सकते। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
 - खास जाननेकी बात- आत्मा और परमात्मा एक है-
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(21 मिनट से) ●•• जो संसार में है वो परमात्मा है, इस शरीर में है वो आत्मा है। आत्मा र परमात्मा एक है। इसमें फर्क नहीं है। और मैं तू यह र वह, सऽऽब अनात्मा है। ये खास जाणने की बात है।
जबतक अहम् साथ में नहीं लगेगा तबतक आप कोई व्यवहार नहीं कर सकोगे। व्यवहार करोगे तो अहम् साथ में लगेगा। इन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ,मन, बुद्धि, ये सब मिलकर काम करेंगे। और इस काम करणे को आप अपणे मानलें कि मैं कर्ता हूँ तो आपको भोक्ता बणणा पङेगा, सुख दुख भोगणा ही पङेगा। तो [क्योंकि] कर्ता होता है वो ही भोक्ता होता है। तो ये स्वाभाविक नहीं है अस्वाभाविक है। इस वास्ते ये मिट ज्यायगा; क्योंकि ये है नहीं और जो आत्मा है र परमात्मा है, वो है। ये मिटेगा नहीं कभी। इसकी प्राप्ति हो ज्यायगी। जो मिटता है र अस्वाभाविक है, इससे आप विमुख हो ज्यायँ, (इससे आपको) अपणे स्वरूप का बोध हो ज्यायेगा। सीधी, सत्य बात है। तो वो 'है मात्र्' आपका रूप है- है मात्र्। है तत्त्व, उसमें स्थिति  सम्पूर्ण प्राणियों की है। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
४-दो प्रकार समाधियाँ -
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(7 मिनट से) ●•• बङे- बङे ग्रंथों में समाधि और व्युत्थान- दो अवस्था लिखी है; परन्तु वास्तव में जो समाधि है, उसमें व्युत्थान नहीं होता है अर व्युत्थान होता है वो योग की समाधि है, तत्त्वज्ञान की समाधि वो नहीं है- जिससे व्युत्थान होता हो। वो (तत्त्वज्ञान की) समाधि हो गई तो हो गई, हो गई- सदा के लिये हो गई। उसको सहजावस्था कहा है।
उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यान धारणा।
कनिष्ठा शास्त्रचिन्ता च तीर्थयात्राऽधमाऽधमा।। ••●
(वाणीका यथावत् लेखन)।
५- साधनकी खास बाधा-
(दिनांक 30।5।1994_0830, 9 मिनट से) ●•• तो मैं एक बात बताता हूँ- अहंकार दूर नहीं होता, मैं एक बात बताता हूँ- आप जिसको सुगमता से कर सकते हैं, उसी साधन को करो। उसका नतीजा ठेठ पहुँच ज्यायगा। जो होता नहीं, उसको तो करने के लिये हिचकते हैं, जो कर सकते हैं वो करते नहीं है- ये बाधा है, खास। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
६- दो प्रकारके योग-
(दिनांक 30।5।1994_0830, 23 मिनट से) ●•• चित्तवृत्तियों का निरोध हो ज्याय- योग हो ज्यायगा। यह पातञ्जलयोग होगा और गीता (में भगवान्) कहते हैं- समत्वं योग उच्यते(२।४८), एकाग्र हो और न हो- अपने कोई मतलब नहीं, योग हो गया गीता जी का। जैसे कोई कहणा मानें, न मानें- अपणे छोड़ दिया, जै रामजी की, खुशी आवे ज्यूँ करो। ऐसे आप भगवान् के सामने हो ज्याओ- भक्तियोग हो गया। तटस्थ हो ज्याओ- ज्ञानयोग हो ज्यायगा अर संसार के हित में लगा दो- कर्मयोग हो जायेगा। ये बात है। ••●(वाणीका यथावत् लेखन)।
७- अहम् से अलग होनेकी युक्ति -
(दिनांक 30।5।1994_0830, 38 मिनट से) ●•• बङी बात वो है जो अहम् से रहित, आपको अपणे का अनुभव हो ज्याय। कह, वो अनुभव कैसे हो ? वो ऐसे हो, क अहंकार आता जाता है, आप आते जाते नहीं हो, आप निरन्तर रहते हो और अहंकार जाग्रत में, स्वप्न में आता है और सुषुप्ति में जाता है, लीन हो ज्याता है; पण आप आने जाने वाले नहीं हो। आणे जाणे वाले- वे अनित्य होते हैं [और आप नित्य हो। इसलिये आप इनसे अलग हो]••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
{ज्ञान अज्ञान का बाधक होता है, तत्त्व का प्रापक नहीं। अज्ञान का नाश करके (ज्ञान) स्वयं शान्त हो जाता है, स्वरूप रह जाता है। स्वयं भी ज्ञानस्वरूप है। [ज्ञान दो प्रकार के हुए। एक तो स्वरूप का (नित्य) और एक उत्पन्न होनेवाला,नाशवान, अनित्य।] }।
८- भक्तियोगकी विलक्षणता -
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(5 मिनट से) ●•• भक्तियोग एक ऐसी चीज है कि यह केवल (अकेला) भी कल्याण करने वाला है और कर्मयोग के साथ लगा दो, ज्ञानयोग के साथ लगा दो, तो भी कल्याण करने वाला है। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
९- भगवती माँ ने बालकका काम किया-
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(इस प्रवचन में वो कथा आयी है जिसमें माँ भगवती  ने कहा कि बेटा! मैं तेरे को छोटी जगह देखना नहीं चाहती)। 
परमात्मा परम दयालु,सर्वसमर्थ और सर्वज्ञ है,सब कुछ जाननेवाला है। वो सबकी पुकार सुनता है-
हौं बन्दौं जाको सदा (जो) सबकी सुने पुकार।
अज्ज कीट पर्जन्त लौं भयभञ्जन भरतार।।
  सत्संग करनेवाले बहुत से भाई बहनों की मैंने ऐसी बातें सुनी है (जो उन्होंने भगवान् को पुकारा और भगवान् ने उनकी पुकार सुनली तथा उनका काम कर दिया)। वो कहते हैं कि मेरे हृदय में खलबली मची और वो काम हो जाता है (भगवान् उनका वो काम कर देते हैं)। (36 मिनिट•) ●•• किस तरह से करते हैं, इसका कोई ठिकाणा नहीं है। उनके प्रकार को कोई जानते नहीं हैं। वो भगवान् की कृपा करणे का, सहायता करणे का बङा अजब ढ़ंग है। ऐसी केई (कई) घटनाएँ सुणी (है)। एक घटना बताऊँ- ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
   वाराणसी में एक विद्यार्थी पढ़ रहा था। अंग्रेजी, संस्कृत की पढ़ाई कर रहा था। उसकी माँ हो गई बिमार। पिता और भाई आदि कोई कुटुम्बी था नहीं। तो वो व्याकुल हो गया कि माँ! तेरा शरीर नहीं रहेगा तो मेरी कौन रक्षा करेगा? तो माँ ने कहा कि बेटा! अपनी इष्टदेवी भगवती देवी है। उस माँ को याद करो। वो माँ सदा रहनेवाली है। यह माँ (मैं) तो बेटा! सदा रहनेवाली नहीं है। जानेवाली है,मरनेवाली है। वो (भगवती) सदा की माँ है। तेरे कोई काम पङे, तो उस माँ को पुकारना (उस माँ को कहना)। वो सहायता करेगी। वो सबकी माँ है। फिर माँ का शरीर शान्त हो गया। यह पढ़ाई करने लगा। पढ़ते- पढ़ते पैसों की आवश्यकता पङ गई, पैसे पास में नहीं। मेरे काम पङा हुआ है।चाहते हुए भी पुस्तकें ले नहीं सकते। 
      अब वो क्या करे? तो एक ट्यूशन पढ़ाने की जगह खाली थी। तो उस जगह के लिये माँ से प्रार्थना करी कि मेरी माँ ने कहा है कि अब आप ही मेरी माँ हो सदा की। मेरे को वो जगह मिल जाय तो मैं पढ़ा दूँ और उससे कुछ (पैसे) मिल जाय, जिससे मेरा काम चलेगा। प्रार्थना करनेपर भी महाराज! वहाँ तो किसी दूसरे आदमी की नियुक्ति हो गई (वो जगह मिली नहीं)। तो माँ पर आ गया गुस्सा। बालक ही तो ठहरा। तो माँ पर रीस आ गई कि जा तेरी माळा ही नहीं फेरूँगा। सो गया। अब तेरा नाम नहीं लूँगा। तू काम नहीं करती। तो रात्रि में सुपना (स्वप्न) आया। सुपने में माँ बैठी है,सिरपर हाथ फेरती है और कहती है कि बेटा! मैं तेरे को छोटी जगह देखना नहीं चाहती। फिर नींद खुल गई। छोटी और बङी क्या है,मेरे तो खर्चा नहीं चलता है। रोटी और कपङे की मुश्किल हो रही है,पुस्तक कहाँ से खरीदूँ? अब उसने दी परीक्षा। तो परीक्षा में इतने उत्तम नम्बर आये कि जितनी ट्यूशन में वृत्ति मिलती (ट्यूशन वाला काम करने से जितने पैसे मिलते) उतने ही पैसे (बिना कुछ किये ही) मिलने लग गये मासिक।
[पढ़ाई अच्छी करने के कारण व्यवस्था की तरफ से उसको महीने के महीने पैसे दिये जाने लगे।]
ना समय लगाना पङा, ना कहीं नौकर बनना पङा और पढ़ाई भी तेज हो गई और इज्जत भी बढ़ गई और पैसे भी मिल गये। तो भगवान् किस ढंग से, कौन सा काम करते हैं, पता नहीं है। 
        लोग अपनी पुकार असफ़ल होने से अश्रद्धा कर बैठते हैं। अरे क्या ढंग है उसका,वो जानते हैं सब। वैद्य होते हैं,वो दवाई करते हैं; परन्तु वो किस समय में क्या दवाई करेंगे, क्या पता? चलते फिरते आदमी को विरेचन दे देते हैं,जुलाब दे देते हैं। दस्तें लगने लगती है, वो निर्बल हो जाता है, खाट में पङ जाता है। कह, ये क्या ईलाज किया आपने? अरे भाई! ठीक किया है। तेरी कोष्ठशुद्धि करी है, पेट को साफ कर दिया,अब दवाई काम करेगी। इस तरह से भगवान् काम करते हैं-
यस्याहमनुग्रह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः।
भागवत (१०|८८|८) में भगवान् कहते हैं कि जिसपर मैं कृपा करता हूँ उसका धन अपहृत कर लेता हूँ। उसके भाई बन्धुओं में फूट डालकर, उनसे अलग कर देता हूँ। वे दुखपूर्वक जीते हैं। इतनेपर भी वे मेरे को नहीं छोङते तो उसका मैं सबकुछ करता हूँ,उसका दास बन जाता हूँ •••
   {वह धन के लिये प्रयत्न करते हैं तो उसको मैं निष्फल कर देता हूँ। बार बार प्रयास करनेपर भी जब धन नहीं मिलता तो वो धन से विमुख हो जाता है और मेरे प्रेमी भक्तों का आश्रय लेकर उनसे मेलजोल करता है। तब मैं उसपर अपनी अहैतुकी कृपा की वर्षा करता हूँ। मेरी कृपा से उसको परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है आदि। (श्रीमद्भागवत १०|८८)}। ■ 
१०- अहम् का अभाव है-
19920618_0518_Ahamta Ka Nash Kaise Kare (अहमता का नाश कैसे करे)
(10 मिनिट•) ●••
श्री स्वामी जी महाराज-
अहम् आपका स्वरूप नहीं है।
श्रोता- ना। नहीं है।
श्री स्वामी जी महाराज-
स्वरूप नहीं है न!, तो अहम् दृश्य हुआ,
श्रोता- अहम् दृश्य हुआ।
श्री स्वामी जी महाराज-
अहम् की दृष्टि हटा लो तो?, ये मैं-पन की दृष्टि हटालो। जैसे सुषुप्ति में मैं- पन नहीं रहता, आप रहते हो, ऐसे दृश्य– मैं- पन है, उससे दृष्टि हटालो, अभी, जाग्रत अवस्था में, सावधानी से कि ये– मैं- पन दृश्य है, उस मैं- पन को हम न देखें; तो आपकी सत्ता रहती है। देखा जाता है- इसकी परवाह मत करो। 
श्रोता- अच्छा।
श्री स्वामी जी महाराज-
दृश्य का अभाव होता है; क्यों? (क्योंकि) सुषुप्ति में अभाव है, पण (पर) आपका अभाव नहीं है। तो अभी अभाव है- अभी भी अहम् का अभाव है ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
११- भोग भोगता है और सुखी दुखी होता है, यह अहम् होता है (स्वयं नहीं)-
19920529_0518_Aham Nash Ki Avashyakta ●•• मान अपमान का, सुख दुःख का, निन्दा अस्तुति का,अनुकूल- प्रतिकूलता का, भोग भोगता है और सुखी दुखी होता है, यह अहम् होता है। अहम् में अपणी स्थिति होणे से आप स्वयं, सुखी और दुखी होते हैं। राजी और नाराज़ होते हैं। तो वे राजी र नाराजी मैं-पन से होते हैं। मैं- पन को न पकङें तो 'सम दुखसुखः' (गीता १४।२४)सुख दुःख में समता हो ज्यायगी, जैसे सुख है वैसे ही दुःख है, जैसा दुःख है वैसे ही सुख है, जैसा लाभ है वैसी ही हानि है, जैसी हानि है वैसे ही लाभ है, जैसा संयोग है वैसा ही वियोग है, जैसा वियोग है वैसा ही लाभ है- सम हो जायेंगे। और अहंकार रहेगा (जबतक) तबतक सम नहीं होंगे। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
१२- सुषुप्ति में अविद्या आप पर कब्जा नहीं करती है, अहंकार पर कब्जा करती है-
19940819_0518_Swaroop Aham Rahit Hai (स्वरूप अहम रहित है)। 
श्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदासजी महाराज ने उन्नीस अगस्त उन्नीस सौ चौरानवें के पाँच बजे वाले प्रवचन में बताया कि ••• अहम् है- उसमें दो बात खास ध्यान देने की है। एक तो अहम् रहित हम हैं- यह अनुभव हो जाय और दूसरी बात- कि जिससे रहित होने के लिये भगवान् कहते हैं उस अहम् से रहित हम हो सकते हैं– यह विश्वास होना चाहिये। (इन दो बातों पर ध्यान देने से अहम् को मिटाना सुगम हो जाता है। सुषुप्ति में अहम् से रहितपने का अनुभव होता है)।
(दिनांक 19।8।1994_0518, 11 मिनिट•) ●•• जाग्रत और स्वप्न में अहंकार रहता है और गाढ़ नींद में अहंकार नहीं रहता है। वो अहंकार का सम्बन्ध- विच्छेद नहीं होता है, किन्तु अहम् है (वो) अविद्या में लीन हो जाता है। आपके साथ नहीं रहता है। आप अविद्या में लीन नहीं होते हैं। आपका स्वरूप भगवान् का साक्षात् अंश है। इस वास्ते अविद्या आप पर कब्जा नहीं करती, अविद्या अहंकार पर कब्जा करती है; क्योंकि अहंकार (है वो) प्रकृति का कार्य है। इस वास्ते अहंकार पर प्रकृति का अधिकार है।••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
१३- अभी, वर्तमान में अहम् से रहित आप नहीं हैं-
(दिनांक 19।8।1994_0518, 16 मिनिट•) ●•• कुछ पता नहीं था, सुख से सोया था। 'था' क्यों कहते हैं (कि) अभी, वर्तमान में अहम् से रहित आप नहीं हैं। उस समय में अहम् रहित थे आप। सुख से सोया- सुख का अनुभव और सब के अभाव का अनुभव, तो अहम् के अभाव का अनुभव है वो ••●(वाणीका यथावत् लेखन)।
१४- विश्राममें परमात्मा में स्थिति हो जाती है-
19940711_0518_Chup Saadhan_VV  (चुप साधन) 
(1 मिनिट•) ●•• एक विश्राम और एक क्रिया- दो चीज है। हरेक क्रिया करते हैं तो क्रिया में थकावट होती है,खर्च होता है। विश्राम में थकावट दूर होती है, संग्रह होता है। थकावट में बल खर्च होता है। व्यायाम से बल बढता है, परन्तु  वो एक समय (में) वो खर्च होता है। और विश्राम में शान्ति मिलती है, बल बढता है, विवेक काम आता है  और विश्राम की बहोत बङी महिमा है– परमात्मा में स्थिति हो ज्याती है। हम काम करते हैं, (तो) लोगों की प्रायः दृष्टि है क्रिया पर। क्रिया से- कर्म से काम होता है, करणे से होता है काम। है भी,  संसार में करणे से ही होता है, परन्तु परमात्मतत्त्व की प्राप्ति विश्राम में होती है अर उनसे अनुकूल क्रिया होती है। करणे में क्या बात है ! कि जो बिना ज़रूरी क्रिया है, उसका तो त्याग कर दे, जिससे कोई ना स्वारथ होता है ना परमार्थ होता है। मानो, न पैसे पैदा होता है, ना कल्याण होता है। ऐसी क्रियाओं का, जो निरर्थक है, अभी आवश्यक नहीं है, उन क्रियाओं का (तो) त्याग कर दे और आवश्यक काम है उस काम को कर लें। तो आवश्यक काम करने के बाद और निरर्थक क्रियाओं के त्यागने के बाद, विश्राम मिलता है। स्वतः, स्वाभाविक। वो विश्राम है, वो अगर आप अधिक करलें, तो उसमें बङी लाभ की बात है। इसमें ताक़त मिलती है। जैसे, चलते-चलते कोई थक ज्याय, तो थोङा क ठहर ज्याते हैं - सांस (श्वास) मारलो, सास मारलो। आप कहा करे है (आपलोग कहा करते हैं)- थोङा विश्राम करलो। तो फेर चलने की ताक़त आ ज्याती है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)।
१५- पाँच- सात सैकण्ड ही क्रियारहित होनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद—
(दिनांक 11-7-1994_0518, 2 मिनिट•) ●••
ऐसे, क्रिया करते- करते बीच में ठहरना है, (यह) बहोत अच्छा है। आप अगर उचित समझें तो ऐसा करके देखें, थोङी देर, पाँच- सात सैकण्ड ही हो चाहे– कुछ नहीं करना है। ना भीतर से कुछ करना है, ना बाहर की क्रिया। ना कोई मन, बुद्धि की- कोई क्रिया नीं (नहीँ) करणा। यह अगर आ ज्याय थोङी क करणा, तो इससे सिद्धि होती है। आगे (अगाङी) क्रियाओं की ताक़त होती है, ताक़त आती है इससे। और विश्राम मिलता है, थकावट दूर होती है और बहुत बङी बात होती है कि संसार का सम्बन्ध- विच्छेद होता है। प्रकृति है न (प्रकृति), प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोङने से क्रियाशीलता होती है; क्योंकि यह बात मैंने बहोत वार कही है क (कि) प्रकृति क्रिया बिना रहती नहीं। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
१६- चिन्तनसे रहित होनेपर स्वरूप में स्थिति होती है-
(दिनांक 11-7-1994_0518, 11 मिनिट•) ●•• कुछ भी चिन्तन न करे। चिन्तन करणे से प्रकृति का साथ होता है अऽर (और) प्रकृति- चिन्तन से रहित होणेपर स्वरूप में स्थिति होती है। पुरुष और प्रकृति- दो ही ज बताया न। तो क्रिया में प्रकृति की प्रधानता रहती है,निष्क्रिय (निष्क्रियता) में पुरुष की प्रधानता रहती है। तो ऐसी साम्यावस्था होणे से बुद्धि सम होती है। अगर ये थोङी-सी क  होणे लगे तो ये राग,द्वेष,काम, क्रोध- ये स्वतः कम हो ज्यायेंगे,स्वाभाविक। इसके (लिये) मेहनत करनी नहीं पङेगी। मन भी शान्त हो ज्यायेगा। तो बङी बढ़िया अवस्था है ये। समझ लें पहले। नहीं तो भगवान् का ही चिन्तन न करें?- गलती हो ज्यायगी न। भगवान् का चिन्तन करो, जप करो, चिन्तन करो; परन्तु एक ऐसी अवस्था है, जिसमें चिन्तन नहीं होता है। अरे भाई! चलना चलना है, पर घर जाणेपर तो बैठना है, उठे (वहाँ) तो!– घर पहुँच गये तो उस (जगह) से चलणा थोङे ही होगा। घर में तो रहणा होगा न! तो असली घर है वो। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
१७- सन्धिकी व्याख्या और उसकी शक्ति- 
(दिनांक 11-7-1994_0518, 14 मिनिट•) ●•• तो इस विश्राम से शक्ति मिलती है। बोलते हैं तो एक अक्षर के बाद दूजा (दूसरा) अक्षर, ऐसे एक शब्द के (बाद) दूजा (अगाङी) शब्द, एक वाक्य के (बाद) दूजा वाक्य। तो बीच में सन्धि रहती है। बोलते- बोलते भी चुप होता है र फिर बोलता है,चुप होता र है,फिर बोलता है। चलते चलते भी ठहरता है र फिर चलता है, ठहरता है र फिर चलता है। बन्दर भी यूँ यूँ यूँ• चलते हुए जाकर बैठ ज्यायेगा यूँ। फेर (फिर) इयूँ इयूँ चलते हुए, फेर जाकर बैठ ज्यायगा। तो बैठ ज्याणे से शक्ति मिलती है अर इणमें- (इसमें-) चलने में शक्ति खर्च होती है। तो [इस प्रकार)] एक शक्ति- ताकत मिलती है। वो बाहर का लक्ष्य है तो बाहर की शक्ति मिलती है अर भीतर से चुप रहणे से भीतर की शक्ति मिलती है– राग-द्वेष आदि को जीतने की ताक़त मिलती है। वो एक क्षण भी हो ज्याय, तो वो समाधिक्षण है। जैसे अरब रुपयों का एक पैसा भी रुपयों का अंश है। ऐसे थोङा भी विश्राम होता है वो समाधि का अंश है। समाधि में चित्तवृत्तियों का निरोध होता है और इस विश्राम में वृत्तियों का निरोध नहीं होता है,वृत्तियों से सम्बन्ध-विच्छेद होता है। इत्ती (इतनी) विलक्षण बात है ये। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।  
   {श्री स्वामी जी महाराज ने यहाँ (ऊपर)"सन्धि" का अर्थ बङी सुगमता से समझा दिया, जो कई बार सुननेपर भी समझ में नहीं आया था}।  
१८- सब वृत्तियाँ गोपिकाएँ हैं (और) विश्राम (है) वो कृष्ण है- 
 (दिनांक 11-7-1994_0518, 17 मिनिट•) ●•• सब वृत्तियाँ गोपिका है,विश्राम (है) वो कृष्ण है।(हँसते हुए कहने लगे-) वो काळा है, कुछ भी,दीखता कुछ नहीं। काळा अन्धेरा अन्धेरा। कुछ नहीं है। वो कुछ नहीं- [जो कुछ नहीं दीखता] काळा होता है वो। श्यामसुन्दर है वो। तो [सकल वृत्ति है गोपिका॰-]
सब वृत्ति है गोपिका साक्षी कृष्ण सरूप। 
सन्धि में झळकत रहे यह है रास अनूप।। 
यह अनुपम रास है- बढ़िया। सन्धि में। इसका अनुभव करणा है,येह विश्राम करके देखणा है। येह जब हाथ लग ज्यायगा तो इसमें बङी शान्ति मिलेगी। फिर आपको लोभ हो ज्यायगा इसका। फिर ठीक हो ज्यायेगा। तो पहले इसको करके, निष्क्रिय अवस्था को करके देखें। शनैः शनैरुपरमेत् (साधक- संजीवनी गीता ६|२५) - धीरे-धीरे उपराम हो ज्याय। उपरमेत् लिखा है, त्याग नहीं लिखा है। त्याग करणे से त्याग का अभिमानी होता है। क्रियारहित करणा- क्रिया न करणा भी क्रिया ही है। तो क्रिया,न क्रिया- दोनों का साक्षी। भाव र अभाव- दोनों को जाननेवाला,वो है सत। उसका अभाव नहीं होता है। पहले भी सत है पीछे भी सत है••● (वाणीका यथावत लेखन)। 
 यही तत्त्व है। उसमें स्थित रहें। अचानक चुप हो जायँ। 
१९- सतसंगतिसे बङा भारी लाभ होता है, मुफ्त में- 
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक 
19940305_0518_Satsang Ki Mahima (सत्संग की महिमा) वाले प्रवचन के अंश का यथावत लेखन- 
(2:मिनिट•) ●•• तो इसका विवेचन क्या करें,यह तो प्रत्यक्ष है। सत्संगति करणे से आदमी की विलक्षणता आती है (होती है)। यह हमारे कुछ देखणे में आई है। शास्त्रों के अच्छे, नामी पण्डित हो, उनमें बातें वे नहीं आती है जो सत्संग करणेवाळे साधकों में आती है। पढ़े-लिखे नहीं है,सत्संग करते हैं। वे जो मार्मिक बातें जितनी कहते हैं इतनी शास्त्र पढ़ा हुआ नहीं कह सकता,केवल पुस्तकें पढ़ा हुआ (नहीं कह सकता)। शास्त्रों की बात पूछो,ठीक बता देगा।ठीक बता देगा,परन्तु कैसे कल्याण हो,जैसे (जीवन सुधरे), जीवन कैसे सुधरे, अपणा व्यवहार कैसे सुधरे,भाव कैसे सुधरे,इण बातों को सत्संगत करणेवाळा पुरुष विशेष समझता है। तो सत्संगति सबसे श्रेष्ठ साधन है। सत्संगीके लिये तो ऐसा कहा है कि 
 "और उपाय नहीं तिरणे का 'सुन्दर' काढ़ी है राम दुहाई। 
 संत समागम करिये भाई।" 
( जान अजान छुवै पारस को लोह पलट कंचन होइ जाई।। 
नानाविध बनराय कहीजै भिन्न भिन्न सब नाम धराई। 
जाके बास लगै चन्दन की चन्दन होवत बार न लाई।। 
जहाज सरूप बण्यो सत्संगत ता में बैठो सब मिलि आई। 
और उपाय नहीं तिरणे का सुन्दर काढ़ी राम दुहाई।। 
संत समागम करिये भाई। तिरणे का नहिं आन उपाई।।)
और ऐसा साधन नहीं है। तो इसका विवेचन क्या करें,जो सत्संग करणेवाळे हैं,उनका अनुभव है, कि कितना प्रकाश मिला है सत्संग के द्वारा। कितनी जानकारी हुई है। कितनी शान्ति मिली है। कितना समाधान हुआ है। कितनी शंकाएँ, बिना पूछे समाहित हो गई है, उनका समाधान हो गया है। 
   तो सत्संग के द्वारा बहोत लाभ होता है। हमें तो सत्संग से भोहोत (बहुत)लाभ हुआ है भाई। हमतो कहते हैं क हम सुणावें तो हमें लाभ होता है अर सुणें तो लाभ होता है। जो अनुभवी पुरुष है, जिन्होंने शास्त्रों में जो बातें लिखी है, उनका अनुभव किया है, अनुष्ठान किया है, उसके अनुसार अपणा जीवन बनाया है। उनके संग से बोहोत लाभ होता है। विशेष लाभ होता है। उनकी बाणी में वो अनुभव है। जैसे,बन्दूक होती है, उसमें गोळी भरी न हो, बारूद भरा (हो और वो) छूटे तो शब्द तो होता है, पर मार नहीं करती वो। गोळी भरी होती है तो मार करती है, छेद कर देती है। 
   तो बिना अनुभव के बाणी है वो तो खाली बन्दूक है। शब्द तो बङा होता है पण (पर) छेद नहीं होता। और अनुभवी पुरुष की बाणी होती है, उसमें वो भरा हुआ है शीशा (गोली), जो सुननेवालों के छेद करता है- उनमें विलक्षणता ला देता है।उसके विलक्षण भाव को जाग्रत कर देता है, उद्बुद्ध कर देता है- जाग्रत कर देता है। 
   तो वो अनुभव (भीतर) में ताकत है, वो बाहर (शब्द) में नहीं है। तो उनका माहात्म्य कितना है, कैसा है, इसको समझावें क्या। मैं तो ऐसा कहता हूँ (कि) एक कमाकर के धनी बनता है और एक गोद चला जाता है। 
   तो कमाकर धनी बणणे (बनने) में जोर पङता है, समय लगता है, फिर धनी बनता है अर गोद जाणेवाळे को क्या तो जोर पङा अर क्या समय लगा? कल तो है कँगला अर आज लखपति। जा बैठा गोद। ऐसे सत्संगति में कमाया हुआ धन मिलता है। बरसों जिसने साधना की है, अध्ययन किया है, बिचार किया है। 
   तो वो मार्जन की हुई बस्तु है- परिमार्जित। तो वो वस्तु सीधी-सीधी मिल ज्याती है एकदम। साग- रोटी बणावे तो कितनी देर लगे और हमलोग जाते हैं भिक्षा के लिये, रोटी साग मिल ज्याता है चट पा लेते हैं। पर साग बणावे तो कतनी देरी लगे। कितनी बस्तु (वस्तु) चाहिये ••● (वाणीका यथावत लेखन)। (कितना परिश्रम लगे)। 
२०- मरणासन्न व्यक्तिको भगवन्नाम सुनानेका प्रबन्ध करना चाहिये- 
19950801_1700_Chetavini Poorvak Naam Jap Ke Liye Prerna (चेतावनी पूर्वक नामजप के लिये प्रेरणा). 
कैसा ही पापी हो, अन्तकाल में भगवान् का नाम आ जाने से कल्याण हो जाता है। 
(9 मिनिट•) ●•• एक प्रार्थना करता हूँ इस बात को लेकर भाईयों से- सब बहनों और भाईयों से– किसीकी भी मृत्यु होती हो, तो भगवान् का नाम सुणाणा (सुनाना)। बङा भारी पुण्य है- उद्धार हो ज्यायेगा। कैसा ही प्राणी हो, अन्त में भगवान् का नाम सुणादो। तो कोई ज्यादा बिमार हो (तो) उसके पास नाम का (प्रबन्ध करना चाहिये), उसको सुणाणा चाहिये- नाम को सुणाणे का प्रबन्ध करना चाहिये।••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
  कलकत्ते में ऐसे आर्तों के लिये मीटिंग बनाई हुई सभा है (उसका नाम है- "परमसेवा समिति")। कोई ज्यादा बिमार हो तो खबर करदो, गोबिन्दभवन से आदमी चले जाते हैं। (आठों ही पहर नाम सुनाने के लिये) सबने अपने नाम लिखाये हैं कि इस बगत (वक्त) में मैं नाम सुना सकता हूँ। उनको सूचना कर देते हैं (वो आ जाते हैं) और उसके पास में नामजप करते हैं और बिमार की सेवा करते हैं। घरवालों की भी सहायता करते हैं और भगवान् का नाम लेते हैं। और वहाँ कुछ खाते पीते नहीं हैं, लेते नहीं हैं (कुछ भी)। इस तरह आप भी उचित समझें तो अपने शहर में (ऐसा प्रबन्ध करदें)। 
   बहनों माताओं से कहना है कि कोई (भी) हो, उनको (भगवान् का) नाम सुनाओ। आपने अन्त समय में किसी एक को भी भगवान् का नाम सुना दिया, तो उस एक का भी इतना पुण्य है कि आपका मनुष्यजन्म सफल हो जायेगा। एक प्राणी की (हमारी) मुक्ति के लिये मानवजन्म मिला और (हमने) किसी दूसरे की मुक्ति करदी, तो एक जीव की मुक्ति के लिये मिला हुआ मानवजन्म सफल हो गया। (इसमें अपने कल्याण से भी दूसरे के कल्याण का लाभ अधिक बताया, जैसे स्वयं भोजन छोङकर दूसरे को भोजन करा देनेवाले व्यक्ति की महिमा अधिक है, ऐसे दूसरे का कल्याण करनेवाले की महिमा अधिक बतायी)। 
२१- करणनिरपेक्ष साधन स्वयंसे होता है- 
19940702_0830_Aham Rahit Svaroop Ka Anubhav_VV 
(अहमरहित स्वरूप का अनुभव).
(9 मिनिट•) ●•• तो ये जो बात मैंने कही, ये करणनिरपेक्ष बात बताई। साधन करणनिरपेक्ष होता है, वो स्वयं से होता है, चित्त की वृत्तियों से नहीं होता। चित्त की वृत्तियों को साथमें (लेकर) साधन किया जाय, वो करणसापेक्ष है। करणनिरपेक्ष कह सकते हैं पण करणरहित नहीं कह सकते। ••● (वाणीका यथावत् लेखन) 
२२- खास जाननेकी बात– आत्मा और परमात्मा एक है-
19940605_1600_Aham Ka Tyaag_VV (अहमता का त्याग).
(21 मिनिट•) ●•• जो संसार में है वो परमात्मा है, इस शरीर में है वो आत्मा है। आत्मा र परमात्मा एक है। इसमें फर्क नहीं है। और मैं तू यह र वह सऽऽब अनात्मा है। ये खास जाणने की बात है। 
जबतक अहम् साथ में नहीं लगेगा तबतक आप कोई व्यवहार नहीं कर सकोगे। व्यवहार करोगे तो अहम् साथ में लगेगा। इन्द्रियाँ,ज्ञानेन्द्रियाँ,मन,बुद्धि, ये सब मिलकर काम करेंगे। और इस काम करणे को आप अपणे मानलें कि मैं कर्ता हूँ तो आपको भोक्ता बणणा पङेगा, सुख दुख भोगणा ही पङेगा। तो कर्ता होता है वो ही भोक्ता होता है। तो ये स्वाभाविक नहीं है, अस्वाभाविक है। इस वास्ते ये मिट ज्यायगा; क्योंकि ये है नहीं और जो आत्मा है र परमात्मा है, वो है। ये मिटेगा नहीं कभी। इसकी प्राप्ति हो ज्यायगी। जो मिटता है र अस्वाभाविक है, इससे आप विमुख हो ज्यायँ, अपणे स्वरूप का बोध हो ज्यायेगा। सीधी, सत्य बात है। तो वो 'है मात्र्' आपका रूप है- है मात्र्। है तत्त्व, उसमें स्थति सम्पूर्ण प्राणियों की है। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
२३- वास्तविक समाधिमें व्युत्थान नहीं होता- 
19940530_0830_Ahamkar Kaise Mite Saadhan Kaunsa Kare (अहंकार कैसे मिटे?, साधन कौन-सा करें?). 
(7 मिनिट•) ●•• बङे- बङे ग्रंथों में समाधि और व्युत्थान- दो अवस्था लिखी है; परन्तु वास्तव में जो समाधि है, उसमें व्युत्थान नहीं होता है अर व्युत्थान होता है वो योग की समाधि है, तत्त्वज्ञान की समाधि वो नहीं है, जिससे व्युत्थान होता हो। वो समाधि हो गई तो हो गई, हो गई- सदा के लिये हो गई। उसको सहजावस्था कहा है। 
उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यान धारणा।
कनिष्ठा शास्त्रचिन्ता च तीर्थयात्राऽधमाऽधमा।। ( वाणीका यथावत-लेखन)। 
२४- आप जिसको सुगमतासे कर सकते हैं, उसी साधनको करो- 
(दिनांक 30-5-1994_0830, 9 मिनिट•) ●•• तो मैं एक बात बताता हूँ– अहंकार दूर नहीं होता, मैं एक बात बताता हूँ- आप जिसको सुगमता से कर सकते हैं, उसी साधन को करो। उसका नतीजा ठेठ पहुँच ज्यायगा। जो होता नहीं, उसको तो करने के लिये हिचकते हैं, जो कर सकते हैं वो करते नहीं है- ये बाधा है, खास।••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
२५- चाहे मन एकाग्र हो या न हो, गीताजीका योग हो गया- समता - 
(दिनांक 30-5-1994_0830, 23 मिनिट•) ●•• ••• चित्तवृत्तियों का निरोध हो ज्याय, योग हो ज्यायगा। यह पातञ्जलयोग होगा और गीता [में] कहते हैं- "समत्वं योग उच्यते" (२|४८)। एकाग्र हो और न हो, अपने कोई मतलब नहीं, योग हो गया गीता जी का। जैसे कोई कहणा मानें, न मानें। अपणे छोड़ दिया- जै रामजी की, खुशी आवे ज्यूँ करो। ऐसे आप भगवान् के सामने हो ज्याओ, भक्तियोग हो गया। तटस्थ हो ज्याओ, ज्ञानयोग हो ज्यायगा अर संसार के हित में लगा दो, कर्मयोग हो जायेगा। ये बात है।••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
२६- बुद्धि और अहम् एक है- 
19940526_1600_Aham Ka Tyag (अहम् का त्याग).
(5 मिनिट•) ●•• तो सबसे सूक्ष्म हमारे पास अहम् है। बुद्धि कही ज्याय तो सत्रहा तत्त्व जहाँ मानते हैं, वहाँ (चित्त के साथ) मन और (अहंकार के साथ) बुद्धि को एक माना है- बुद्धि और अहम् को एक माना है, चित्त और मन को एक माना है। ऐसे [चार को] दो मानकर के सत्रहा तत्त्व बताये (हैं)। तो बुद्धि और अहम् एक है। और भेद करें, तो अहम् की बुद्धि है, बुद्धि का अहम् नहीं है मानो मेरी बुद्धि - ऐसे कहनेवाला अहम् है। तो अहम् से हम अलग हो ज्यायँ, तो वे, स्थूल, सूक्ष्म, कारण- सब ठीक हो ज्यायेगा (सब शरीरों से अलग हो जायेंगे हम)। एकदम। तो अहम् से हम अलग हैं- यह अनुभव हो ज्याय, केवल बातूनी ज्ञान से काम ठीक नहीं होता (है)। तो अलग जिससे होना है, उससे हम अलग हैं- यह अनुभव हो ज्याय तो बङी सुगमता से हम अलग हो सकते हैं। जैसे मकान से हम अलग हैं। तो मन से येह जानने से, फिर अलग होणा सुगम हो ज्याता है। हम कुर्ता पहनते हैं, कपङा पहनते हैं, उण कपङों से हम अलग हैं। तभी कपङे अलग कर सकते हैं हम। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
२७- मैं-पनमें अभिमान- 
{जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्छा और समाधि- ये पाँच [बुद्धिकी] अवस्थाएँ होती हैं। आप इनको देखनेवाले- द्रष्टा हैं, अवस्थाएँ दृश्य हैं। (देखनेवाला दीखनेवाली वस्तुओं से अलग होता है-) आप अवस्थाओं से अलग हैं}। 
 (दिनांक. 26-5-1994_1600, 13 मिनिट•) 
●•• तो स्वयं आप द्रष्टा हैं। अहंकार के भी द्रष्टा हैं आप। खूब ध्यान दीजिये। बिल्कुल आपके, हमारे अनुभव की बात है यह। अहम् –जो "मैं-पन" है, इस "मैं-पन" में जब संसारी चीजों को हम लेकर के एकता कर लेते हैं, तब हमारे में एक "अभिमान" आता है– मेरे इतना धन है, मेरे इतनी जनता है, मेरी इतनी बात मानते हैं लोग। क्या समझते हो, हम इतनेक हैं (आदमी आदि) - ऐसे। तो मैं इतना बङा आदमी हूँ। मैं धनवान हूँ, मैं बङा बुद्धिमान हूँ। तो धनवान हूँ- जो बैंकों में पङा धन है, उसमें "अहम्" लगा दिया। (वाणीका यथावत-लेखन)। ••• 
२८- अहंता (मैं-पन) के साथ घमण्ड- दर्प और अभिमान - 
(दिनांक. 26-5-1994_1600_15 मिनिट•) ●•• अब उसमें "अभिमान" कर लेते हो। तो इसको "अभिमान" कहते हैं "अभिमान"। तो "अहंता" के साथ बाहर की चीजें मिला लेते हैं तब वो "घमण्ड"- "दर्प" कहलाता है और भीतर की चीज "बुद्धिमानी" आदिक मिला लेते हो तो उसको "अभिमान" कहते हैं और "अभिमान" करणेवाला "अहम्" है, वो "अहंकार" है। "अहंकृति" है वो। जो करणे के साथ सम्बन्ध रखता है वो "अहंकार" है। अब उस "अहंकार" का सम्बन्ध "जाग्रत" में आपके साथ रहता है- मैं (ही) करता हूँ, खाता हूँ, पीता हूँ, सोता हूँ, बैठता हूँ, ऊठता हूँ, जाता हूँ, आता हूँ, लेता हूँ, देता हूँ। तो मैं "कर्ता" हूँ- ऐसा मानता है। तो इसमें "अहंकार" के साथ "सम्बन्ध" है। (वाणीका यथावत-लेखन)।  
२९- अपने अहम् रहित स्वरूपका अनुभव - 
(दिनांक. 26-5-1994_1600_18 मिनिट•) ●•• तो दोनों (जाग्रत और स्वप्न) अवस्था में अहम् रहता है, परन्तु गाढ़ सुषुप्ति में अहम् नहीं रहता है। अहम् से आप अलग हैं, यह अनुभव है सबका। प्राणीमात्र का है, परन्तु मनुष्य का तो बहुत स्पष्टता से है- बहोत साफ। गाढ़ नींद आती है तो उस समय कुछ याद नहीं रहता है- करता हूँ, खाता पीता हूँ क, मैं सोता हूँ क, नींद लेता हूँ क, ये बात नहीं रहती है। जगणे के बाद कहता है कि गाढ़ नींद ऐसी आई जो मेरे को कुछ भी पता नहीं था। पता नहीं था- यह "स्मरण" है, यह "अवस्था" नहीं है अभी। ऐसी अवस्था सुषुप्ति में बीती है, उसकी स्मृति आई है येह‐ क ऐसा सुख से सोया, जो मेरे को कुछ भी याद नहीं था। तो कुछ भी याद नहीं था, तो क्या था क उस समय अहम् नहीं था। अहम् (का) क्या हुआ? कह, अहम् से आपका सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हुआ है। अहम् है वो अज्ञान में लीन होता है,अविद्या में लीन हो ज्याता है। जब नींद आती है गहरी, तो नींद में क्या होता है?– कर्मेन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियों में, ज्ञानेन्द्रियाँ मन में, मन बुद्धि में, बुद्धि अहम् में अर (और) अहम् अविद्या में- ऐसे लीन हो ज्याता है। कुछ भी नहीं जानता- यह अविद्या है, जहाँ ज्ञान नहीं है। तो अविद्या में लीन हो ज्याता है। अविद्या में लीन होणेपर भी, एक सूक्ष्म बात है, विशेष ध्यान दें- आप लीन नहीं होते हैं। मेरे को कुछ भी पता नहीं था- ऐसे आप जागणेपर कहते थे परन्तु ऐसा नहीं कहते कि मैं नींद में नहीं था- ऐसा नहीं कहते हैं। मैं नींद में नहीं था- ऐसा नहीं कहते हैं। नींद में मेरे को कुछ भी पता नहीं था- इससे सिद्ध होता है कि आप तो थे और कल जाग रहा था, वो (उसीने) स्वप्न लिया और सुषुप्ति हुई, आज जाग गया। तो कल जाग्रत था वही मैं हूँ- ऐसे तीनों अवस्था में अपणापन (अपने होनेपन) का भान होता है। जाग्रत और स्वप्न में अहंता के साथ और सुषुप्ति में अहंता से रहित अपणा अनुभव होता है "होणे" का। तो अपणा "होणापन" रहता है; परन्तु "अहंकार" नहीं रहता। तो "अहं" से आप अलग हैं। यह बहुत ही काम की चीज है। जो तत्त्वज्ञान करणा चाहते हैं जीवन्मुक्त होणा चाहते हैं उनके लिये यह बङी काम की चीज है कि गहरी नींद में 'मैं सोया हूँ'- यह ज्ञान नहीं रहता है। जगणे के बाद ज्ञान होता है कि 'मैं ऐसा सुख से सोया था' जो मेरे को 'कुछ भी ज्ञान नहीं था'। तो जगणे के बाद अहम् आता है, तो अहम् से बात कहता है। उस अहम् के बिना बात कह नहीं सकता। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
३०- खास अनुभव - 
( दिनांक .26-5-1994_1600_24 मिनिट•) ••● (सुषुप्ति में) कुछ भी पता नहीं था। तो कुछ भी पता नहीं था,तो आपके "होणे" का तो पता था ही,आप जानते हैं - 'मैं हूँ'। तो आपकी "सत्ता" का अनुभव होता है "अहंता" के बिना। आपके बिना "अहंता" नहीं रह सकती पण "आप" अहंता के बिना रह सकते हैं। येह खास अनुभव है ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
३१- सुषुप्तिमें जाग्रतको समाधि (स्वरूपमें स्थिति) कहते हैं-
 ( दिनांक .26-5-1994_1600_25 मिनिट•) ●•• तो सुषुप्ति- अवस्था में जाग्रत- अवस्था होती है, वो समाधि होती है– सुषुप्ति में, जो अगर जाग्रत है, वो (उसका) नाम है- समाधि, जो स्वरूप में स्थिति होती है और सुषुप्ति में अविद्या में स्थिति होती है। तो अविद्या में स्थिति होणे से अहम् नहीं रहता है••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
३२- समाधिमें अहम् मिटता नहीं है-
[सुषुप्ति में अहम् अविद्या में लीन हो जाता है, परन्तु समाधि में अहम् लीन नहीं होता।]
 चित्त (मन) की वृत्तियाँ होती है– मूढ,क्षिप्त,विक्षिप्त एकाग्रता और निरुद्ध। ये पाँच अवस्था होती है मन की। 
( दिनांक .26-5-1994_1600_26 मिनिट•) ●•• (समाधि में मन की) वृत्तियों का "निरोध" हो ज्याता है। निरोध होणे से "अहम्" मिटता नहीं है, वहाँ अहम् "अविद्या" में लीन नहीं होता है किन्तु उस समय में आपका ज्ञान "जाग्रत" रहता है••● (वाणीका यथावत-लेखन)। (अधिक जानकारी "साधक- संजीवनी" गीता ४|२७ में देखें)। 
३३- समाधिअवस्था और सहजावस्थामें फर्क है-
( दिनांक 26-5-1994_1600_28 मिनिट•) ●•• 'वृत्तियों का निरोध' होणा र 'वृत्तियों से सम्बन्ध-विच्छेद' होणा– ये दो चीज है। वृत्तियों से (सम्बन्ध-) विच्छेद हो ज्याय वो "सहजावस्था" है और वृत्तियों का निरोध हो- उसको (वो) "समाधिअवस्था" है। तो निरोध अवस्था में भी आपका "सम्बन्ध" 'कारण- शरीर' के साथ रहता है••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
३४- "सहजावस्था" में स्थित- "सिद्ध"की दो अवस्था नहीं होती-
कोई मानते हैं कि सिद्धावस्था में दो (अवस्था) होती है- एक समाधिअवस्था और एक व्युत्थानअवस्था; तो यह, योगदर्शन की समाधि है ऐसी, जिससे व्युत्थान होता है और समाधि होती है- दो अवस्था होती है। परन्तु वास्तव में वेदान्ततत्त्व की बात है कि जो अच्छे "सज्जन", जिन्होंने तत्त्व का अनुभव किया है
( दिनांक 26-5-1994_1600_29 मिनिट•) ●•• उनकी दो अवस्था नहीं होती। वो "सहजावस्था" में "स्थित" होते हैं। वो "जाग्रत" में भी उसीमें हैं, "स्वप्न" में भी उसीमें हैं, "सुषुप्ति" में भी उसीमें हैं- वो "सहजावस्था" "निरन्तर" रहती है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
 ३५- सहजावस्था निरन्तर रहती है- 
  ( दिनांक 26-5-1994_1600_29 मिनिट•)
  अब "निरन्तर" "सहजावस्था" रहती है- इसका क्या पता? तो थोङासाक ध्यान दें आप। अपना जो "स्वरूप" था, उसमें 'मेरे को कुछ पता नहीं था'- ये "सरूप" में 'कुछ पता नहीं था'। "पता" कैसे हो, 'प्रकृति का कार्य' कोई था ही नहीं। तो 'प्रकृति का कार्य' तो सब "लीन" हुआ हुआ था। इस वास्ते उसमें 'कुछ नहीं थाऽऽऽ'। पण 'कुछ नहीं था'- इसका "साक्षी" था। नहीं तो कहता कौण है-'कुछ पता नहीं था'। तो वो "सुषुप्ति" में जो "अवस्था" आपकी है, अगर वो अवस्था "जाग्रत" में आपकी हो ज्याय– इसको "सहजावस्था" कहते हैं। यह "सहजसरूप" है। यह सरूप "बणाया" हुआ नहीं है। यह "अभ्याससाध्य" नहीं है। "समाधि" "अभ्यास" है और उससे "सिद्ध" होता है, यह "योगदर्शन" की बात है, 'ऊँचे वेदान्त' की यह बात नहीं है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)।
 ३६- "सहजावस्था" क्या होती है?
( दिनांक 26-5-1994_1600_31 मिनिट•) कह, "सहजावस्था" क्या है भाई? (कि-) उसमें "व्युत्थान" नहीं होता कभी (भी)। (वाणीका यथावत-लेखन)। 
××× आप अपणे को, 'निरन्तर होणा' समझते हैं कि नहीं?– 'मैं हूँ'। आपके "होणे" में क्या "प्रमाण" है? कोई "शास्त्र" प्रमाण है? या "अनुमान" (प्रमाण) है? या "उपमान" है? अपने (होने में) "प्रमाण" की जरुरत नहीं। "प्रमाण" की जरुरत वहाँ होती है जहाँ, जिसका ज्ञान अपणे को नहीं होता है। अपणे आप के "ज्ञान" में प्रमाण की जरुरत नहीं है। ऐसा नहीं कह सकते कि 'मैं हूँ'- शास्त्र में लिखा है ऐसा। ऐसा नहीं कह सकते। यह (बात) "ख्याल" में आ गई न? - 'आप हो'- "मैं हूँ"– यह "होणा" आपका "निरन्तर" रहता है। "जाग्रत" में भी आपका "होणापन" है, "स्वप्न" में भी "होणापन" है, "सुषुप्ति" में भी "होणापन" है,"मूर्छा" में भी आपका "होणापन" है और "समाधि" में भी आपका "होणापन" है। यह "होनापन" "सहज" है, 'स्वतः सिद्ध' है। उसमें आपकी "स्थिति" है, उसको ही "सहजावस्था" कहते हैं। 'स्वतः सिद्ध' उसमें "स्थिति" है। यह "कृत्रिम" नहीं है। स्वतः "सहजावस्था" है। "सहजावस्था" आपकी- सबकी है। वो "स्वतः" है। अब आपने 'संसार की सत्ता' देकर "महत्ता" दे दी, इस वास्ते संसार के साथ "सम्बन्ध" जुङ गया। तो "सहजावस्था" का "अनुभव" नहीं है। "सहजावस्था" "नई" थोङी ही पैदा होगी, वो तो है आपकी। जब "जडता" का 'सम्बन्ध विच्छेद' हो जाय, "अहं" का 'सम्बन्ध विच्छेद' हुआ कि अपने 'स्वरूप का अनुभव' हुआ। वो "अनुभवरूप" है। अनुभव "करणा" नहीं है। तो वहाँ स्थूल, सूक्ष्म, कारण- कोई शरीर नहीं है। एक- चौथा "आतिवाहिक" "शरीर" होता है, वो भी नहीं है। "जिससे" जन्म मरण होता है, उसको (जीवको) "जाणा"(जाना) होता है शरीरों से, वो "आतिवाहिक शरीर" होता है। वो भी शरीर नहीं है वहाँ। "कारण शरीर" भी नहीं है। वो "सहजावस्था" है आपकी, स्वतः। ज्यों आपका "होणापन" "सहज" है, ऐसे उस अवस्था का अनुभव "सहज" है, "स्वतः" है, "स्वाभाविक" है, सबके बीच में- 'मैं हूँ' (सबके भीतर- मैं हूँ)। कुत्ते को भी अनुभव है येह- 
३७- अपने होनेपनेका अनुभव तो कुत्तेको भी है- 
( दिनांक 26-5-1994_1600_38 मिनिट•) ●•• कुत्ता देख कुत्ता घुर्राया, मैं बैठा तूँ क्यों आया? - लङाई करता है। 'मैं हूँ' यहाँ। तो अपणा, होणे का पणे का (अपने "होनेपन" का) "बोध" "कुत्ते" को भी है। यह कोई बङीबात नहीं है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)।  
 ३८- अपने अहमरहित स्वरूपका अनुभव कैसे हो?
(दिनांक 26-5-1994_1600_38 मिनिट•) 
बङी बात वो है जो 'अहम् से रहित' आपको, "अपणे" का "अनुभव" हो ज्याय। कह, वो "अनुभव" कैसे हो? वो ऐसे हो, क "अहंकार" आता जाता है, "आप" आते जाते नहीं हो, आप "निरन्तर" रहते हो और "अहंकार" "जाग्रत" में, "स्वप्न" में आता है और "सुषुप्ति" में जाता है, "लीन" हो ज्याता है; पण "आप" 'आने जाने वाले' नहीं हो। [जो] 'आणे जाणे वाले' [होते हैं] वे "अनित्य" होते हैं ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। [आप नित्य हो] 
३९- संसारके साथ नित्यवियोगको स्वीकार करलो– बोध हो जायेगा - 
( दिनांक 26-5-1994_1600_40 मिनिट•) ●•• तो परमात्मा के साथ "योग" नित्य है और संसार के साथ "वियोग" नित्य है। अब वियोग को आप "स्वीकार" कर लो, "बोध" हो ज्यायगा कि संयोग तो नित्य है नहीं- सच्चीबात है। नित्य तो "वियोग" ही है। तो तीनों शरीर से हमें वियोग है- यह नित्य है। ••●(वाणीका यथावत-लेखन)। 
ऊगे सो ही आँथवे फूल्या सो कुम्हलाय। 
चिणिया देवळ ढह पङे जाया सो मर जाय।। 
(संसार का तो) संयोगकाल में भी वियोग है। आप संसार के "संयोग" को महत्त्व देते हैं ना, इस वास्ते "वियोग" का अनुभव नहीं होता। "ज्ञान" होता है, वो "अज्ञान" का बाधक होता है, "स्वरूप" का "प्रापक" नहीं होता है। "ज्ञान" "अज्ञान" को मिटा देता है तो स्वतः हो जाती है "स्थिति"। 
तो ज्ञान है वो अज्ञान का "बाधक" है और अज्ञान के बाधा होने के बाद में? 'जै रामजी की'- न "ज्ञान" रहता है न "अज्ञान" रहता है। 'है ज्यों' रह जाता है। 'है ज्यों' रहता है, उसको ही "सहजावस्था" कहते हैं - 'उत्तमा सहजावस्था'। 
खोया कहे सो बावरा पाया कहे सो कूर। 
पाया खोया कुछ नहीं ज्यों का त्यों भरपूर।। 
 (दुःख मिटाने के मन्त्र-)
दिनांक - 2-5-1987_0830 बजे। - 
इस प्रवचन में श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने "चिन्ता", "शोक" मिटाने के लिये कई 'सिद्ध मन्त्र' बताये हैं। वो "मन्त्र" श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक ("जीवनोपयोगी कल्याण मार्ग") में भी आये हैं। वो अंश "उपयोगी" जानकार यहाँ 'जस का तस' दिया जा रहा है-  
 ××× 
जब भी मनमें दुःख, शोक, चिन्ता, विषाद और हलचल हो तभी यदि नीचे लिखे सिद्ध मन्त्रोंकी कई बार आवृत्ति कर ली जाय तो ये सभी विकार शीघ्र ही दूर हो सकते हैं। 
४०- भविष्यकी चिन्ता मिटानेके लिये
                 (सिद्ध मन्त्र)
(क) यदभावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा ।
इति चिन्ताविषघ्नोऽयमगदः किं न पीयते ॥ 
अर्थ- जो नहीं होनेवाला है वह होगा नहीं, जो होनेवाला है वह होकर ही रहेगा। चिन्तारूपी विषका शमन
करनेवाली इस ओषधिका पान क्यों न किया जाय !
 (ख) होइहि सोइ जो राम रचि राखा। 
          को करि तर्क बढ़ावै साखा।। 
४१- भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालकी चिन्ता मिटानेके लिये
                  (सिद्ध मन्त्र)
(क) अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। 
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। (गीता २।११) 
अर्थ- तू शोक न करनेयोग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके-से वचनोंको कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।
(ख) होतब होत बड़ो बली ताको अटल बिचार। 
     किंण मानी मानी नहीं होनहार से हार ॥ 
४२- हर समय भगवान् के भरोसे प्रसन्न रहनेके लिये
                   (सिद्ध मन्त्र)
(क) सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । 
   अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥  
                                 (गीता १८।६६)
अर्थ- सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य- कर्मोंको मुझमें त्यागकर (समर्पितकर) तू केवल एक मेरी ही
शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर। 
(ख) चिन्ता दीनदयाल को मो मन सदा अनन्द। 
       जायो सो प्रतिपालिहै रामदास गोविन्द ।।
४३- अन्तःकरणमें अधिक उथल-पुथल होनेपर मनको समझानेके लिये
                (सिद्ध मन्त्र)
(क) मना मनोरथ छोड़ दे तेरा किया न होय। 
       पानी में घी नीपजे तो रूखा खाय न कोय ।।
                   भजन 
(ख) जीव तू मत करना फिकरी, जीव तू मत करना फिकरी।
भाग लिखी सो हुई रहेगी, भली बुरी सगरी ।। टेर ।। 
तप करके हिरनाकुश आयो, वर पायो जबरी ।
लोह लकड़ से मर्यो नहीं, वो मर्यो मौत नखरी ॥१॥
सहस्र पुत्र राजा सगरके, तप कीनो अकरी।
थारी गति ने तू ही जाने, आग मिली ना लकरी ॥२॥
तीन लोक की माता सीता, रावण जाय हरी।
जब लक्ष्मणने लंका घेरी, लंका गइ बिखरी ।।३।।
आठ पहर साहेब को रटना, ना करना जिकरी । 
कहत कबीर सुनो भाई साधो रहना बे-फिकरी ॥ ४ ॥ 
४४- चिन्ता छोड़ते हुए अपने कर्तव्यसे कभी च्युत न हों। 
    श्रीभगवानकी आज्ञा है- 
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। (गीता २।४७)
अर्थ- तेरा कर्म करनेमात्रमें ही अधिकार है, फलमें कभी नहीं; और तू कर्मोंके फलकी वासनावाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न हो।
    इसलिये करनेमें सावधान रहे और जो हो जाय, उसमें प्रसन्न रहे एवं सदा भगवन्नाम जपता रहे। ××× 
("साधन-सुधा-सिन्धु" पृष्ठ ५३१,५३२ से) 
 यह बात मानलो, तो आपको दुख पाना नहीं पङेगा। आप निहाल हो जाओगे। 
४५- इच्छा और आवश्यकता- 
  2-5-1987_0830 
( दिनांक - 2-5-1987_0830 31 मिनिटसे•) ●•• वास्तव में "आवश्यकता" "औरचीज" है, "इच्छा" "औरचीज" है। आवश्यकता होती है वो पूरी होणेवाली होती है। तो वो मिटनेवाली नहीं होती। अर इच्छा होती है वो, वो मिटनेवाली ही होती है पूरी होनेवाली होती ही नहीं- ये दो बात है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। [इन दो बातों को समझलें]। 
४६- दो प्रकारकी इच्छाएँ- 
दो तरह की इच्छायें (बताई)- एक स्वयं को लेकर और एक शरीर आदि को लेकर। मुक्ति की, प्रेम की, परमात्मा की इच्छा स्वयं की और भोजन आदि की इच्छा शरीर की है। 
( दिनांक - 2-5-1987_0830_ 32 मिनिटसे•) ●•• पार्माथिक इच्छा है,वो पूरी ही होती है, मिटती है ही नहीं और संसार की इच्छा मिटती ही है,पूरी होती ही नहीं। ऐसी मार्मिक बात कहता हूँ मैं। (वो, उसको) लिखलो आप, अभी बोलना नहीं है। सांसारिक इच्छा है वो पूरी होती ही नहीं••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
जो पूरी होनेवाली नहीं है,उस (सांसारिक इच्छा) का त्याग करदो, तो पारमार्थिक इच्छा पूरी (परमात्मा की प्राप्ति) हो जायेगी, स्वतः। ■ 
४७- सुषुप्तिमें अविद्या आपपर कब्जा नहीं करती- 
19940819_0518_Swaroop Aham Rahit Hai (स्वरूप अहम रहित है). 
(11 मिनिटसे•) ●•• जाग्रत और स्वप्न में अहंकार रहता है, और गाढ़ नींद में अहंकार नहीं रहता है। वो अहंकार का सम्बन्ध- विच्छेद नहीं होता है, किन्तु अहम् है (वो) अविद्या में लीन हो ज्याता है। आपके साथ नहीं रहता है। आप अविद्या में लीन नहीं होते हैं। आपका स्वरूप भगवान् का साक्षात् अंश है। इस वास्ते अविद्या आप पर कब्जा नहीं करती, अविद्या अहंकार पर कब्जा करती है ; क्योंकि अहंकार (है वो) प्रकृति का कार्य है। इस वास्ते अहंकार पर प्रकृति का अधिकार है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन) 
४८- अहम् के अभावका अनुभव-
( दिनांक 19-8-1994_0518, 16 मिनिटसे•) ●•• कुछ पता नहीं था, सुख से सोया था। 'था' क्यों कहते हैं (कि) अभी वर्तमान में अहम् से रहित आप नहीं हैं। उस समय में अहम् रहित थे आप । सुख से सोया- सुख का अनुभव और सब के अभाव का अनुभव, तो अहम् के अभाव का अनुभव है वो ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
४९- अहम् रहित आप निरन्तर हैं- 
("अहम् से रहित" का निरन्तर अनुभव कैसे हो?)  
   ( दिनांक 19-8-1994_0518,16 मिनिटसे•) ●•• तो आपके अहंकार से कार्य होते हैं कि नहीं?- अभी सब ये। अभी काम करते हो, अहंकार दीखता है कि नहीं? और उस समय (सुषुप्ति) में नहीं रहता है। तो यह सब समय में ही नहीं हो सकता है। किसी समय में भी नहीं हो सकता, वो सब समय में नहीं होता है ऽऽऽ - नियम है (यह) और किसी समय होता है, किसी समय नहीं होता है, तो वो [सब समय में] नहीं ही होता है ••● (वाणीका यथावत-लेखन)■  
५०- एक मार्मिक बात बताता हूँ, ध्यानदें - 
 17-07-1986-0618-AM
 शास्त्र निषिद्ध देखना,सुनना,बोलना, करना और सोचना- इनका त्याग करदो। और निरर्थक बातें हैं, उनको छोङदो। 
 (23 मिनिटसे•) ●•• ये, सबसे पहले त्याग करदो। तो भइया! बहोत जल्दी कल्याण होगा- एक बात। दूजी बात- एक मार्मिक बताता हूँ। उस तरफ भाई- बहनों का ध्यान बहोत कम है। आप कृपा करके ध्यान दें। (वाणीका यथावत-लेखन)। 
 ५१- भगवान् के शरण होना और तत्त्वको समझना- सबसे श्रेष्ठ है -
(दिनांक 17-07-1986-0618; 23 मिनिट•)। अपणे भजन- स्मरण "करके", भगवान् का चिन्तन "करके", दया, क्षमा "करके" जो साधन करते हैं। ये जो "करके" साधन करते हैं (यह दो नम्बरकी बात है), इसकी अपेक्षा 'भगवान् की शरण होणा', 'तत्त्व को समझणा' [यह एक नम्बर की बात है] और ये "करणे" (करने) पर जोर नहीं देणा, "करणे" से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है, इणका (इनका) त्याग करके एक "शरण" होणा, "एक"- परमात्मा में लग ज्याणा अर उसके नाम का "जप" करो, "कीर्तन" करो, भगवान् की "चर्चा" सुणो, भगवान् की बात "कहो"- ये "करणे" की है। और दूजा "करणे" का 'ऊँचा दर्जा' नहीं है। जैसे दान करो, पुण्य करो, तीर्थ करो, ब्रत करो, होम करो, यज्ञ करो। ये सब अच्छी बातें है; परन्तु ये दो नम्बर की बातें हैं। (वाणीका यथावत-लेखन)। 
५२- यज्ञ, दान आदि धर्म और निष्कामकर्मसे भी बङा है परमधर्म(भगवान् में लगना) - 
(दिनांक 17-07-1986-0618; 24 मिनिट•)। 
निष्कामकर्मानुष्ठानं त्यागात्काम्यनिषिद्धयोः। 
 काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना और निष्काम भाव से सबकी सेवा करना है। 
तत्रापि परमो धर्मः जपस्तुत्यादिकं हरेः।। 
 भगवान् के नाम का जप करणा, स्तुति करणा, भगवान् की चर्चा सुणणी, कथा कहणी, कथा सुणणी, भक्तों के, भगवान् के चरित्रों का वर्णन करणा- ये काम "मुख्य" "करणे" का है। 
 और इसमें थाँरे पईसे री जरुरत कोनि (इसमें आपके एक पैसे की भी जरुरत नहीं है)। यज्ञ करो तो, दान करो तो, पुण्य करो तो, उपकार करो तो पईसा है तो जरुरत है। तो जिणके (जिनके) पास पईसा है, उनको यह करणा चाहिये, टैक्स है उन पर। नहीं करते हैं तो गलती है। पैसा रखे अर दान पुण्य नीं करे - 
धनवँत धरमज ना करे अर नरपत करे न न्याव। 
भगति करे नहिं भगतङा अब कीजे कौण उपाव।। 
कीजे कौण उपाय सलाह एक सुणलो म्हारी। 
दो बहती रे पूर नदी जब आवै भारी।।
जाय गङीन्दा खावता धरती टिके न पाँव। 
धनवत धरमज ना करे अर नरपत करे न न्याव।। 
 तो धर्म- दान पुण्य करणा कोई ऊँचे दर्जे की चीज़ नहीं है; पण पईसा राखे है, वाँरे वास्ते (उनके लिये) टैक्स है। नईं (नहीं) करे तो डण्ड होगा। तो डण्ड से बचणे के लिये ये काम "करणे" का है। भाई, पईसा ह्वै तो इयूँ (यूँ) करलूँ, इयूँ करलूँ। कहीं, कुछ नहीं होता। पईसा है, तो वे लगाओ अच्छे काम में। नहीं तो थाँरे फाँसा घालसी, पईसा थाँरा अठैई रहई अर डण्डा थाँरे पङसी, मुफत में, अर पईसा खा ही मादया भाई- दूजा। डण्डा थाँरे पङसी। इण वास्ते ए खर्च करणा है (पैसे हैं, तो वो लगाओ अच्छे काम में। नहीं तो आपके फाँसियाँ डालेंगे, पैसे आपके यहीं रहेंगे और डण्डे पङेंगे आपके, मुफ्त में। और पैसे खायेंगे बीचवाले भाई- दूसरे। डण्डे आपके पङेंगे। इसलिये ये खर्च करने हैं)। 
(पास में पैसे हैं, इसलिये उनको लगाने के लिये दान, पुण्य आदि का काम करना है। अगर पास में पैसे नहीं है तो दान पुण्य आदि करना जरूरी नहीं है, जरूरी है -भगवान् में लगना)। 
 "करणे" रो काम तो- भगवान् रे नाम रो जप करो ("करने" का काम तो यह है कि भगवान् के नाम का जप करो), कीर्तन करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, कथा पढ़ो, भगवान् री कथा पढ़ो, सुणो, भगतों की कथावाँ (कथाएँ) सुणो, पढ़ो। ये पवित्र करणेवाळी चीजें हैं अर मुफत में पवित्र कर देगी, कौङी- पईसा लागे नहीं, परतन्त्रता है नहीं। और फेर निरर्थक और निषिद्ध काम बिल्कुल नहीं करणा है कोई तरह से ई। ये जितना अशुद्ध •• ● (आगेकी रिकोर्डिंग कटी हुई है, मिली नहीं)। 
- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सत्रह जुलाई, उन्नीस सौ छियासी (प्रातः पाँच या 0618 बजे) वाले प्रवचन के अंश का यथावत् लेखन)।  
५३ मैं-पन को बदलदो या मिटादो - परिणाम दोनोंका एक हो जायेगा- 
19951127_0518_Ahamta Parivartan Ki Mahima Savitri Satyavvan Katha (अहंता परिर्वतन की महिमा, सावित्री सत्यवान कथा). 
(3 मिनिटसे•) ●•• तो ऐसी "स्वीकृति" होणेपर वा (होनेपर वह) निरन्तर रहती है- जो हृदय से स्वीकार करले कि 'मैं भगवान् का हूँ'; तो [वह] निरन्तर रहती है। ये जो साधू बणणा (बनना), अथवा विवाह होना [है न]- ये तो नई बात होती है और ये (यह जीव) परमात्मा का है पहले से [ही]। संसार का तो बणा (बना) है। बणी हुई बात भी- 'मैं ब्राह्मण हूँ', तो बणी हुई बात याद रहती है; 'मैं विवाहित हूँ'- ये बणाई हुई बात भी याद रहती है अर पुराणी बात- भगवान् का ये जीव है और भगवान् का मानले; तो ये तो सच्ची बात है (याद रहेगी ही)। तो आप स्वीकार दृढ़ता से करलें; फेर "मैं- पण" भूलेगा नहीं (अर्थात् 'मैं भगवान् का हूँ'- इस मैं-पन की भूल नहीं होगी)। तो "मैं-पण" बदलने पर भी वही होगा जो "मैं-पण" के न होणे से होता है {अर्थात् "मैं-पन" मिटाने से जो परिणाम (फल) होता है वही परिणाम "मैंपन" को बदलने से हो जायेगा}। 
रामायण में ऐसा आया है- कह, 
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। 
मैं सेवक रघुपति पति मोरे।। (३|११)
ये भूलकर के भी अभिमान न मिटे- मैं श्री रघुनाथ जी महाराज का हूँ, मेरे श्री रघुनाथ जी महाराज हैं। तो ये "मैं" बदल दिया। 'मैं संसार का हूँ, संसार मेरा है'- ये नहीं। जैसे कन्या अपणे पिता के घर को अपणा मानती है। विवाह होणेपर [बदल देती है], अपणे पिता के घर को अपणा नहीं मानती; अपणा घर जहाँ विवाह (हुआ) है- वहाँ मानती है। तो ऐसे ही मानलें कि 'हम भगवान् के (हैं)' तो ये 'बदलना है मैं-पण'– सुगम है। इस वास्ते "मैं-पण" न हटे तो कोई परवाह नहीं, बदळदो– कह, हम तो भगवान् के हैं। जैसे, शिष्य होता है तो वो "होता" है र (और) हम, मैं भगवान् का हूँ- येह (यह) "होणा" नहीं [है], भगवान् का था ही। भगवान् कहते हैं- ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। (गीता १५|७) - मेरा ही अंश है। तो भगवान् का ही था; अब भूल मिट गई। अब भगवान् का हूँ'। तो ये भूल मिट गई- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ऽऽ (गीता १८|७३) - "मोह" नष्ट हो गया, "स्मृति" प्राप्त हो गई। तो 'मैं भगवान् का हूँ'। ऐसा होणेपर भूलेंगे नहीं। ["मैंपन"] "मिटे" नहीं तो कोई परवाह नहीं। संसार का "मैंपन" नहीं रहा। तो ये (इस) "मैं- पण" का बङा आदर है। जैसे रामायण में बताया- "मैं सेवक रघुपति पति मोरे" 'अस अभिमान' ये भगवान् का अभिमान है। ये अभिमान "अभिमान" नहीं है, ये "निरभिमान" ही है। भगवान् के साथ सम्बन्ध जुङते ही सब ठीक हो ज्याता है। जैसे काला कोयला है, लकङी है, पत्थर है, ठीकरी है, आग में रख दो- सब चमकणे (चमकने) लग ज्यायगा। कोयला भी चमकेगा, ठीकरी भी चमकेगी, पत्थर भी चमकेगा, लकङी भी चमकेगी। ऐसे भगवान् में अर्पण करणे पर वे सब शुद्ध हो ज्याते हैं। मैं-पन, मेरापन भगवान् के साथ होता है ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
   मैं अरु मोर तोर तैं माया- यह माया है; इसको भगवान् की तरफ लगा देनेसे यह बाँधेगी नहीं- 
मैं मेरे की जेवङी गळ बँधियो संसार। 
दास कबीरा क्यों बँधे जाके राम अधार।। 
तो संसार का "मैं-पन" है, यह तो बाँधनेवाला है; परन्तु भगवान् का "मैं-पना" है, यह खोलनेवाला है (मुक्ति देनेवाला है)। तो "मैं-पन" न मिटे तो कोई परवाह नहीं, "मैं-पन" बदलदो, बदलना सुगम मालुम होता है। (वो बाँधनेवाला नहीं होता)।■ 

५४- दीक्षा का तत्त्व क्या है? कि अहंता को बदलना- 

   (दिनांक- 27-11-1995_0518; 24 मिनिटसे•) ●•• ये जो दीक्षा ली जाती है। उस दीक्षा का तत्त्व यही है- अहंता को बदलना। आज तो चेला बणाते हैं, अपणा चेला बणाते हैं- हमारा चेला बणा, दीक्षा ली- हमारा। सन्तों के ये नहीं थी। तुम भगवान् के हो- ये विश्वास दिलाते (थे)। तुम भगवान् के हो। तो वो मान लेता कि महाराज ने कह दिया- तुम भगवान् के हो। हमारे को भगवान् स्वीकार करे, न करे; पर महाराज ने कह दिया क तुम भगवान् के हो; तो मैं भगवान् का हो गया– विश्वास हो ज्याता है- मैं भगवान् का हूँ। यही हनुमान जी ने कहा बिभीषण को। कह, मेरे को स्वीकार करेंगे "भानुकुलनाथा।।" "करिहहिं कृपा" "मोहि जानि अनाथा" ? अरे ऽऽ "मोहू पर" (रघुबीर कीन्ही कृपा), मैं कैसा कपि, चंचल (आदि) -ऐसा। उसको भी भगवान् ने स्वीकार किया- (ऐसे आपको भी) भगवान् स्वीकार कर लेंगे। ये दीक्षा हो गई– भगवान् स्वीकार कर लेंगे। तो ऐसे अपणे, आप भगवान् के हैं हम (भगवान् के हैं)। सच्ची बात है। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
५५- तत्त्वमें कोई क्रिया नहीं है-
19960113_0518_Aham Nash Se Sheegra Tatva Prapti (अहम् नाश से शीघ्र तत्त्वप्राप्ति).
(2 मिनिटसे•) ●•• 
कर्मयोग के दो विभाग है। सांख्ययोग का एक विभाग है, भक्तियोग का एक विभाग है, कर्मयोग के दो विभाग है। एक करणे का विभाग है जो दूसरों की सेवा करणा। ये करणे में होता है और दूसरा भाग है कर्मयोग का- समता, 'समत्वं योग उच्यते' (गीता २|४८)- समता। वो समता स्वतः प्राप्त होती है। जैसे कर्मयोग से स्वतः समता प्राप्त होती है, ऐसे ज्ञानयोग में भी तत्त्व की प्राप्ति स्वतः होती है। ऐसे भगति से भगवान् की प्राप्ति भी स्वतः होती है, करणे से नहीं। किया जाय तो उस से भी लाभ होता है। कारण उसका है कि हमारा ध्येय परमात्मा है, लक्ष्य परमात्मा है। चाहे सगुण हो र निर्गुण हो, लक्ष्य परमात्मा है। तो करणे से भी लाभ होता है। पर वी री (उस की) प्राप्ति क्रिया से नहीं होती है। अन्त में प्राप्ति "अक्रिय" होणे से होती है। कर्मयोग भी करणा, कर्मयोग है- कर्म है वो। योग होता है वो करणे में नहीं है। वो करणे में नहीं, वो तो स्वतःसिद्ध है- समत्वं योग उच्यते।। तो सम परमात्मा स्वयं है- 'इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।' (गीता ५|१९)- जिन पुरुषों का मन साम्यावस्था में स्थित हो गया, उनलोगों ने यहाँ ही उसको प्राप्त कर लिया; क्योंकि निर्दोषं हि समं ब्रह्म- ब्रह्म निर्दोष और सम है। 'तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।' (गीता ५|१९) - इस वास्ते वे ब्रह्म में स्थित है। इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। - साम्यावस्था में मन स्थित है। तो साम्यावस्था "अक्रिय" अवस्था होती है। साम्यभाव, वो अक्रिय होता है। साम्य-सरूप भी अक्रिय होता है। उसका लक्ष्य करके किया जाय तो पहले क्रिया होती है; पण इसको करणनिरपेक्ष कहते हैं- करणनिरपेक्ष। करणसापेक्ष होता है उसमें क्रिया की मुख्य (मुख्यता) है। करणनिरपेक्ष है, उसमें क्रिया की गौणता है और तत्त्व क्रियारहित है। साधन करणसापेक्ष है, करणनिरपेक्ष है और तत्त्व करणरहित है। करणरहित (ही) नहीं है, सब कारकों से रहित है 
••● (वाणीका यथावत-लेखन) 
 ५६- करणनिरपेक्ष साधन- 
19900613_0518_Prmatma Ka Swaroop Aur Mahtva_VV 
(9 मिनिटसे•) ●•• यह "करणनिरपेक्ष" है। "शरीर बदलनेवाला" और "मैं" "बदलनेवाला नहीं"। शरीर के बदलने की "अवस्था" को "मैं" "जाणता" (जानता) हूँ, मेरे को "शरीर नहीं जानता" है। "ये (यह) ज्ञान" हमारा "करणनिरपेक्ष" है। इण (इस) "करणनिरपेक्ष ज्ञान" में ही, "स्थित रहणा" (रहना) ही "करणनिरपेक्ष साधन" है। उसमें "स्थित रहणा"- 'ज्ञान जो अपणा' है,उसी में 'स्थित रहणा'- ये "करणनिरपेक्ष साधन" है। इसमें शंका हो तो बोलो। ●•• (वाणीका यथावत-लेखन) 
५७- कुछ भी चिन्तन न करके सो जानेसे परमात्माकी प्राप्ति- 
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने (दिनांक  
19900608_0830_Jagrit Mein Sushupti Kaise Ho Chup ... वाले प्रवचन में) बताया कि- 
(31 मिनिटसे•) ●•• शामको कीर्तन करते हो तो,कीर्तन के बाद (में) मैं चुप होता हूँ, उस चुप में आप "निर्विकल्प" हो ज्याओ, परमात्मा में स्थिति बहुत सुगमता से हो ज्यायगी। कीर्तन करते-करते परमात्मा में स्थिति हुई, परमात्मा का चिन्तन हुआ और फेर (फिर) कुछ नहीं चिन्तन करो (कुछ भी चिन्तन मत करो)। वो कीर्तन आपके भीतर बैठ ज्यायगा। एकदम भीतर जम ज्यायगा। तो उससे निर्विकल्पता स्वत: होगी। ऐसे जागते हो जब नींद से, उसके बाद थोड़ी देर चुप रहो। तो आपकी स्थिति परमात्मस्वरूप में हो ज्यायगी। नींद लेते समय - आरम्भ में, बिछौने पर बैठ गये, कुछ देर शाऽ ऽ ऽन्त (शान्त हो जाओ)। कुछ भी चिन्तन न करके सो जाओ। सो•(तो) 'कुछ भी न चिन्तनकर्ता' आपके साथमें कारण शरीर तक पहुँच ज्यायगा। तो उससे परमात्मा की प्राप्ति हो ज्यायगी। इतना सुगम साधन है,बढ़िया साधन है। (वाणीका यथावत् लेखन) ••●। 
   इस प्रवचन में और भी कई बातें बताई गयी है-  
...सब शक्ति अक्रिय तत्त्व से मिलती है। अक्रिय, निर्विकल्प हो जाने से आप में बहुत शक्ति आ जायेगी। काम,क्रोध आदि (मिटाने की ताक़त आ जायेगी)। 
...तो मन लगाना इतना दामी नहीं है,जितना राग-द्वेष हटाना दामी है आदि। 
५८- भक्तियोगकी विलक्षणता-
19900713_0518_Sharnagati Aur Seva.mp3
(5 मिनिटसे•) ●•• भक्तियोग एक ऐसी चीज है कि यह केवल (अकेला) भी कल्याण करने वाला है अर कर्मयोग के साथ लगा दो, ज्ञानयोग के साथ लगा दो तो भी कल्याण करने वाला है ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
 ५९- बिना भूख सत्संग करनेका भी असर होता है-
(दिनांक-) 30-3-1988-0830-AM 
(1 मिनिटसे•) ●•• तो पहले से भूख लगी होती है उसके सत्संग का असर ज्यादे (ज्यादा) होता है,विलक्षण होता है। परन्तु बिना भूख भी सत्संग करता है तो उसपर असर जरूर होता है। इसमें सन्देह नहीं। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
    सत्संग का असर नहीं रहता- यह बात नहीं है। सत्संग का असर जाता नहीं। 
६०- वास्तविक सत्संगका असर हुए बिना रहता ही नहीं- 
(दिनांक- 30-3-1988-0830-AM, 1 मिनिटसे•) ●•• अच्छा सत्संग मिलता कठिण है। सत्संग के नाम से तरह- तरह की कथाएँ होती है। परन्तु वास्तविक सत्संग कम मिलता है। मिलता है तो उसका असर हुए बिना रहता ही नहीं। ऐसी बात है। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
६१- हरेक कथामें मन लगता है तो अभीतक असली सत्संग मिला नहीं है- 
(दिनांक- 30-3-1988-0830-AM, 2 मिनिटसे•) ●•• और तो क्या कहें! हरेक जगह सत्संग वो कर नहीं सकेगा। थोङा- सा - क समझा है और उस विषय में गहरा उतरा है तो उसकी विलक्षण अवस्था होती है। हरेक जगह वो बैठ ज्याय, हरेक उसको अपणी तरफ खैंच ले। यह नहीं होता ।  
  आपने ध्यान दिया (क्या)? मानो सत्संग के संस्कार भीतर में स्थायी रूप से भी रहते हैं, मिटते नहीं है। वास्तविक सत्संग जिनको मिलता है, उनकी वास्तविकता विलक्षण होती है। हरेक कथा में मन नहीं लगेगा। और हरेक कथा में मन लगता है तो अभीतक असली सत्संग मिला नहीं है। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।  
   मेरे सामने कई ऐसे अवसर आये हैं। एक भाई ने कहा था - कोई तीस चालीस वर्षों से भी ऊपर की बात है, मानो दो हजार संमत से पहले की बात है। उस भाई ने कहा कि हमारे को बहुत महात्मा मिले (हैं)। तो मैंने कहा कि तुम्हारे को एक महात्मा भी नहीं मिला है। एक भी मिलता तो दूसरे के पास क्यों जाते?! बहुत कैसे मिल सकते हैं?। बहुत मिले- इसका अर्थ है कि एक भी नहीं मिला। बहुत-से मिलकर (कोई) मुर्दा थोङे ही उठाना है। [जिनको] पारमार्थिक बात लेना है, उन सैंकङों,हजारों, लाखों लोगों के लिये एक महात्मा काफी है, दूसरे में मन लग जाय- यह (उसके) हाथ की बात नहीं है। आप जा सकते हैं कथा में, बैठ सकते हैं, परन्तु वहाँ रस ले लें, आप खिंच जायँ- यह नहीं होगा। अगर होता है तो कोई असली बात आपको मिली नहीं है। 
  देखो! आपकी कन्या बङी हो गई। अब उस बच्ची का पिता बाहर (वर को) ढूँढने जाता है, वर की खोज करता है और फिर आकर अपनी स्त्री से कहता है। तो वो छोरी भी सुनती है। हरेक छोरे की बात सुनेगी; परन्तु कबतक? कि जबतक सगाई तै नहीं हो जाती। जब सगाई तै हो जाती है तो उसी छोरे की बात ज्यादा सुनती है। और छोरों की बात करते रहो, उतने चाव से नहीं सुनती। और उस छोरे की बात छिप छिपकर सुनती है। कोई मेरे को देख न ले- ऐसे छिपकरके सुनती है और उसकी बात अच्छी लगती है। तो ये जो तरह तरह की सत्संग सुनते हैं और चले जाते हैं, उनकी सगाई नहीं हुई है अभीतक। (श्रोतालोगों को हँसी आ गई)। अभी बात चल रही है। कि भाई! कौन सा लङका कैसा है, तो सगाई की बात चल रही है। सगाई हुई नहीं है। 
   अच्छे महात्मा मिल जाते हैं तो उनका सम्बन्ध (सगाई) भगवान् के साथ हो जाता है। फेर वो हरेक जगह अटक जाय, (यह) उसके हाथ की बात नहीं है। बङी सुन्दर सुन्दर कथा होती है, परन्तु वो अटकता नहीं। यह बात है ऐसी ही। आप मानें, न मानें। जानें न जानें। आपके समझ में आवे, न आवे, यह तो बात एक अलग है। परन्तु बात ऐसी है। हमारे ऐसे बीती हुई बात है। 
   ऐसे ही गीता जी की बात है। मेरे गीता की शौक रही है। मैंने तरह तरह की,बहुत टीकाएँ पढ़ी है, परन्तु मन खिंच जाय, ऐसा हरेक जगह नहीं हुआ है। ऐसे ही सत्संग हरेक जगह करे और हरेक जगह मन उसका खिंच जाय, ऐसा नहीं होता है। ऐसा उसी जगह होता है जिसने अपने जीवन का कोई ध्येय नहीं बनाया है। अभी कहा न, सगाई हुई नहीं है अभीतक। सगाई जिसकी हो जाती है, तो वो एक छोरे की बात ही सुनती है,और की सुनती ही नहीं, परवाह ही नहीं करती। ऐसे जिसका साधन चल पङा है वो एक जगह ही सुनेगा। ××× 
  (एक श्रोता ने पूछा कि आपके पास मन लगता है, पर आपसे दूर जाते हैं तब धीरे धीरे वो (असर) कम हो जाता है, ऐसा क्यों होता है? जवाब में श्री स्वामी जी महाराज ने बताया कि) भूख की कमी है। पारमार्थिक बातों की भूख की कमी है, इसलिये ऐसा होता है। भूख हो तो वो रुच जाता है, पच जाता है। फेर जीवन बन जाता है आगे ऐसा। फेर (वो असर) कम नहीं होता। 
   दूजी एक बात और बतावें। आप क्षमा करेंगे, बुरा न मानें। अगर यह बात है कि तुम्हारे (मेरे) सामने वृत्तियाँ ठीक रहती है, मन लगता है और दूर होनेपर धीरे धीरे वो असर कम हो जाता है। तो दुबारा क्षमा माँग लेता हूँ, बुरा न मानें। अगर मेरे सामने वृत्तियाँ ठीक रहती है तो (आप) मेरे से दूर क्यों होते हैं? (कारण, कि) बहोत आवश्यक काम समझते हैं दूसरा। जरूरी काम है। वो जरूरी काम दूजा समझते हो (जबतक) तबतक "सबसे जरूरी सत्संग है"– यह नहीं समझा है। नहीं तो दूर हो जाय, हाथ की बात है? (हाथ की बात नहीं है)। 
  ××× जहाँ लाभ दीखता है, उसको कैसे छोङ देगा वो? (उसको कोई रोक नहीं सकता)। प्रह्लाद और मीराँबाई को कोई रोक नहीं पाया। मेरे को भी रोका है। प्रेम से और धमकाकर के भी (मैं नहीं रुका)। वो हरेक सत्संग में टिक नहीं सकता। प्यासे को पानी मिल जाता है,भूखे को भोजन मिल जाता है तो कैसे कोई रोक देगा? बालक को माँ मिल जाती है तो छोङता है क्या?
६२- ज्ञानमें अपने स्वरूपका सहारा है और स्वरूप परमात्माका अंश है- 
19940419_0518_Sharnagati. 
   जीवमात्र् का स्वभाव है कि किसी न किसीका सहारा लेना। (मूल में यह सहारा परमात्मा का है पर जीव को पता नहीं है)। 
  (9 मिनिटसे•) ●•• तो ये सहारा लेना इसका स्वभाव है। अब वो सहारा अगर परमात्मा का ले ले तो निहाल हो ज्याय। ज्ञान (- मार्ग) में अपने स्वरूप का सहारा है, पण (परन्तु) स्वरूप अंश किसका है, यह पता नहीं है। यह परमात्मा का अंश है। तो परमात्मा का सहारा है, वो अपणे (स्वरूप के) सहारे से ऊँचा है। इस वास्ते ज्ञान से भक्ति ऊँची है, पर यह बात भी समझ में नहीं आती है। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
६३- जङता तो हरदम जा रही है, केवल आप पकङना छोङदें, तो छूट जायेगी- 
05-04-1987_0518 - AM 
  (1 मिनिटसे•)●•• जबतक जङता का सङ्ग बुरा न लगे, तबतक जङता का त्याग नहीं होता और बुरा लगने से त्याग स्वतः होता है, स्वाभाविक।
  देखो ! जङता होती है न, वो चेतन का विषय होती है••● ××× 
   (1 मिनिटसे•) ●•• जङ चेतन ही कह सकता है (कि) यह जङ है, जङ नहीं कह सकता कि यह चेतन है। जङ में यह ताकत नहीं कि चेतन को बता सके और चेतन में जङ को बताने की शक्ति बरोबर है (पूरी और निरन्तर है)। तो आधिपत्य चेतन का है। इसको स्वीकार करले और जङ तो परिवर्तनशील है, बदलता रहता है। 
   इसका त्याग कैसे करें? त्याग तो स्वतः होता है भाई ! इसको रखणा मुश्किल है, पकङणा मुश्किल है। अब बाळकपणा छोङा तो जवानी पकङली, जवानी छोङी तो वृद्धापण पकङ लिया। वो छोङा तो मृत्यु को पकङ लिया। मृत्यु को पकङ लिया फिर जङ में (जङता) को पकङ लिया। तो ये जङता तो हरदम जा रही है, केवल आप पकङणा छोङदें तो जङता तो छूट ज्यायगी, जङता तो रह सकती (ही) नहीं, जङता में ताकत नहीं है रहणे की। आप पकङते हैं, पकङना छोङदो तो छूट ज्यायगी। 
ये मेरी बात समझमें आती है क नहिं?••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
६४- भविष्यवाणी— पापोंके कारण अन्न-जल नहीं मिलेगा, मनुष्य मनुष्योंको ही खाने लगेंगे- 
श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज ने (दिनांक 19951220_1800_QnA (Dhan Parivar Niyojan Misc. वाले प्रवचन में) कहा कि 
(31 मिनिटसे•) ••● (परिवार नियोजन, गर्भपात आदि) महान् पाप कर रहे हो। 
लोग कहते हैं कि अन्न नहीं मिलेगा, ज्यादा (जन-)संख्या बढ़ ज्याय तो अन्न नहीं मिलेगा। मैं कहता हूँ- अन्न नहीं मिलेगा र (और) पाणी नहीं मिलेगा। ये चलती रही ऐसी (पापों की) परम्परा तो पाणी तक नहीं मिलेगा पाणी तक, याद करना, हम तो मर ज्यायेंगे; परन्तु बे• लारे (वो बातें बाद में, पीछेवालों को) सिखा देना, बता देना- पाणी की तंगी आ ज्यायगी, पाणी नहीं मिलेगा। 
   इसका प्रमाण है मेरे पास। क्या है? - [कि] जितने कूवे हैं, उनमें बोरिंग कराते हो। इसका अर्थ क्या हुआ? - पाणी नीचे जा रहा है। बाँध जितने बणे हुए हैं, उनमें मिट्टी भर रही है। ये आज है क (कि) नहीं? तो पापों के कारण से पाणी तो नीचे जा रहा है, बाँध में मिट्टी भर रही है। पीणे (पीने) को क्या मिलेगा? ये (यह) पाप का फल होगा। और अभी तो खाणे लगे हैं पशुओं, जानवरों को और ज्यादा तंगी आ ज्यायगी तो मनुष्यों को मनुष्य खायेंगे- 'मच्छ गळागळ होहि।' जैसे मछली छोटी मछली को खा ज्याती है, ऐसे मनुष्य मनुष्यों को खाणे लग ज्यायेंगे। अभी मांस का र•, अण्डों का प्रचार कर रहे हैं जोर से। इसका नतीजा क्या होगा? - खावेंगे (खायेंगे) मनुष्योंको मनुष्य, आप ही। अऽर (और) बर्षा (वर्षा) कम होगी। क्यों होगी कम? कह, बर्षा होती है अन्न के और घास के लिये। तो घास तो पशुओं को चाहिये, अन्न मनुष्यों को चाहिये। मनुष्य जब पशुओं को खाणे लग ज्याय तो पशु है ही नहीं, घास क्यों पैदा होगा? और मनुष्योंको (मनुष्योंके लिये) अन्न पैदा क्यों होगा? कह, आप पशुओं को खा ही लेते हो। यह दशा होगी अगाङी। शंका करो इसमें, तर्क करो। "देशकी वर्तमान दशा और उसका परिणाम" 'पुस्तक' "मेरी लिखी हुई" पढ़ो, ठण्डे हृदय से, शान्त हृदय से और अगर ये (जनसंख्या) बढ़ाना नहीं [है] तो संयम रखो। शरीर भी ठीक रहेगा। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
६५- जैसे खम्भा हमारा स्वरूप नहीं है, ऐसे ही यह शरीर हमारा स्वरूप नहीं है- 
19970505_0830_Tatva Prapti Ka Sugam Upay Aham Ka Tyag 
मैं हूँ- यह ज्ञान तो सच्चा है। सर्वं ज्ञानमभ्रान्तं प्रकारै तु विपर्ययः का अर्थ बताया। सब ज्ञान अभ्रान्त है- मैं हूँ, इसमें सन्देह नहीं है। भ्रान्तिरहित, शुद्ध ज्ञान है,अध्यासरहित। स्वतः है। अब उसमें, मैं हूँ- यह तो है सच्चा, जहाँ प्रकार मिलाया- कह मैं ब्राह्मण हूँ,क्षत्रिय हूँ,वैश्य हूँ,शूद्र हूँ,पुरुष हूँ,स्त्री हूँ,बीमार हूँ,स्वस्थ हूँ,धनी हूँ,निर्धन हूँ, ये (प्रकार-) न्यारा न्यारा कर देते हैं। इस विषय में अज्ञान है। मैं हूँ- इस "सत्ता" में तो अज्ञान है नहीं। सत्ता के लिये वो सही है। "परमात्मतत्त्व"– जो ज्ञान है वास्तव में, यह इतना प्रबल है सबसे कि यह मिटता नहीं है,कोई दबा सकता नहीं है इसको। बङा ही मजबूत, बङा ही श्रेष्ठ है ऐसा। लोगों में एक कहावत है कि- 
और ज्ञान सब ज्ञानङी ब्रह्मज्ञान सब ज्ञान।
जैसै गोळा तोप का करत जात मैदान।।  
-'गोळा तोप का', मैदान करदे सफा (जैसे तोप का गोला युद्ध में मैदान साफ कर देता है। दूसरी गोलियाँ उसकी बराबरी नहीं कर सकती। वो गोला सबसे बङा है, ऐसे ही यह परमात्मतत्त्वका ज्ञान सबसे बङा है,दूसरे ज्ञान इसकी बराबरी नहीं कर सकते। यह ज्ञान सर्वोपरि है। कोई इसको दबा नहीं सकता।)। 
   जो निरन्तर रहता है,वो तो है आपका स्वरूप और जो बदलता है- मैं स्त्री हूँ,मैं पुरुष हूँ, मैं अच्छा हूँ,मन्दा हूँ, मैं धनी हूँ, निर्धन हूँ आदि, ये आपका स्वरूप नहीं है। इतनी सी बात है, लम्बी चौङी बात नहीं है। ये आपका स्वरूप नहीं है। 
साथ में मिला लेते हैं, यह गलती करते हैं। वो मिलाना बन्द करदे- ठीक हो जायेगा। 
  (15 मिनिट•) ••● अब मिलाणा बन्द कैसे हो? उसका विचार करो। विचार से [बन्द] हो ज्यायेगा। जब "मैं बालक हूँ " इसमें कोई सन्देह नहीं था। आज "मैं बाळक नहीं हूँ" - इसमें कोई सन्देह नहीं है, तो बाळकपणा तो मेरा नहीं हुआ न। मेरी बात [पर] ध्यान दो। जो ज्ञानमार्ग वाळे हैं, उनसे मेरी प्रार्थना है क (कि) 'मैं बाळक हूँ', उस समय 'मैं बाळक हूँ'- इसमें सन्देह था क्या? निस्सन्देह था। आज, 'मैं बाळक नहीं हूँ'। तो वो बाळकपणे का सन्देह (निस्सन्देहपना) तो मिट गया न। वो तो सन्देह ही हुआ, वो तो सच्चा नहीं निकळा अर मैं हूँ -यह बात सच्ची निकली। बोलो- भताओ (बताओ), सच्ची है कि नहीं? जो ज्ञानमार्ग में चलते हैं, उनके लिये बोहोत बढ़िया बात है येह। 'मैं बालक हूँ'- उसमें कोई सन्देह नहीं था। आज कहते हैं- 'मैं बालक नहीं हूँ'; पण 'मैं नहीं हूँ' कहते हो क्या? तो बालक के साथ चिपके रहे हो, जवानी के साथ चिपके, अब बृद्धावस्था से चिपक गये। वो चिपक, चिपको मतिना (मत) बस, ठीक हो ज्यायेगा, आप, आप- अपणे रह ज्याओगे। ये बणता है र (और) बिगङता है- इसको छोङदो। आप 'हूँ- एक'- रह ज्याओ। ये तत्काल होणे (होने) की बात है महाराज! इसमें समय नीं (नहीं) लगता है। इसमें जो यह कह दिया क श्रवण करेंगे, मनन करेंगे र निदिध्यासन करेंगे, ध्यान करेंगे, फेर (फिर) समाधि करेंगे, फिर निर्विकल्प होगी, फिर निर्बीज होगी तब। ये लम्बा रस्ता (रास्ता) है। ये कोई, ये भी ठीक है; परन्तु तत्काल बात है- मैं कहूँ वा (वह) तत्काल, अभी, इसी क्षण- अभी अभी अभी अभी अभी, अभीज। [इसी समय सिद्ध होनेवाली है]।
ये समझो क जैसे ये थम्भा (यह खम्भा) है, जैसे ये वृक्ष है। ये 'वृक्ष मैं नहीं हूँ'- इसमें सन्देह होता है क्या? 'वृक्ष मैं नहीं हूँ'- इसमें सन्देह है? (नहीं है)। तो जो 'इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रम्' (गीता १३।१) भगवान् कहते हैं- 'इदं शरीरं कौन्तेय'। शरीर को "इदं"(यह) कहते हैं- "येह" कहते हैं तो ये अपणा "स्वरूप" कैसे हुआ? जैसे ये "थम्भा" है, ये "वृक्ष" है, मेरा "स्वरूप" नहीं हुआ। तो "शरीर" [को] भी "इदंता" से बोलते हैं तो "शरीर" "मैं" कैसे हुआ? ये ज्ञान की बात है खाऽस। तत्त्वज्ञान की बात है, 'इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रम्' और 'एतद्यो वेत्ति' - इसको जानता है वो "क्षेत्रज्ञ"। तो "वेत्ति"(जाननेवाला) और जिसको "वेत्ति" (जानता है) – [जो] 'वेद्य' (जाननेमें आनावाला- शरीर) है, वो अलग है। जननेवाला अलग है। तो शरीर तो "इदंता" से दीखता है। अपणा "स्वरूप" "इदंता" से थोङे (ही) दीखता है। "मैं" तो "हूँ "। अर "इदंता" से दीखता है, वो बदलता है, आप नहीं बदलते हो। तो आप अपणे "स्वरूप" में स्थित हो निरन्तर। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
६६- करणसापेक्ष, करणनिरपेक्षका मतलब- 
19961109_1500_Aham Hamara Swaroop Nahin 
(19 मिनिटसे•) ••● तो करणनिरपेक्ष का मतलब है स्वयं लगणा अर करणसापेक्ष का अर्थ है है मन बुद्धि लगाणा।  
••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
६७- बुद्धिको जाननेवाला अहम् है और अहम् को जाननेवाला स्वरूप है- 
19960129_0518_Aham Rahit Swaroop 
(5 मिनिट•) ●•• तो चित् नाम ज्ञान का है,बोध का है,समझ का है। वो समझ बुद्धि में होती है, बुद्धि सूँ अगाङी, बुद्धि भी जिससे जाणी जाती है अर बुद्धि जिससे जाणी जाती है, जो बुद्धि का मालिक बणा हुआ है वो मालिक बना हुआ अहम् है और अहम् भी किसी ज्ञान के अन्तर्गत है [वो अपना स्वरूप है]। ये ध्यान दो इती (इतनी ही) बात, बहोत सीधी है ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।     अहम् का आपको ज्ञान होता है कि नहीं? इसका विस्तार से विवेचन किया गया। "अहम्" एक प्रकाश, ज्ञान में दीखता है आदि कई युक्तियाँ बताकर पूछने पर भी जब श्रोता ने हाँ नहीं की (समझा नहीं) तब कर्मयोग के द्वारा "मैं"(अहम्) मिटाने का उपाय बताया। लगता है कि श्रोता ने सत्संग अधिक नहीं सुना है। 
   शरीर को आरामतलब बना दोगे तो यह सेवा नहीं कर सकेगा। निर्वाह के लिये खान-पान आदि दे दो (भोगके लिये नहीं)। 
६८- साधक बनकर के गृहस्थका काम करनेसे परमात्माकी प्राप्ति- 
19950608_0830_Ahamta Parivartan Par Jor_VV 
   (दिनांक 8-6-1995_0830; 2 मिनिटसे•) ●•• साधक बनकर के गृहस्थ रहोगे तो आपको परमात्मा की प्राप्ति होगी और आप गृहस्थ रहकर साधक बनोगे तो गृहस्थ का काम होगा, साधक का जल्दी नहीं होगा- इस विषय (की), इस तरह से मैंने कई वार [बात] कही है। आपको याद होगा कि नहीं (होगा)। मेरे ध्यान में है●•• (वाणीका यथावत् लेखन)।
६९- भावशरीरका सम्बन्ध भगवान् के साथ होगा- 
(दिनांक 8-6-1995_0830; 3 मिनिटसे•) ••● आपका भावशरीर है। तो भाव शरीर होगा (तो) उसका सम्बन्ध भगवान् के साथ होगा, प्रतीत होणेवाले शरीर का सम्बन्ध संसार के साथ होगा ●•• (वाणीका यथावत् लेखन)। 
 (इस विषय का मैंने विवेचन किया था)। 
अपनी अहंता को बदल देना। (मैं साधक हूँ- यह भावशरीर है)। प्रतीत होनेवाला (-यह स्थूल शरीर है)। 
७०- तीनशरीर– प्रतीति-शरीर,स्वीकृति-शरीर और भाव-शरीर
   (दिनांक 8-6-1995_0830; 10 मिनिटसे•) ••● अब दूजे रूप सूँ कहता हूँ- एक आपका प्रतीतिरूप शरीर है, एक आपका स्वीकृतिरूप शरीर है, एक आपका भावशरीर है। अब तीन जाणो- तीन शरीर है। एक शरीर "प्रतीत" हो रहा है- यह है। एक "स्वीकृति" है। जैसे मैं साधू हो गया, अब स्वीकृति हो गई- साधू हो गया। मैं बीमार हो गया, मैं स्वस्थ हो गया। तो ये प्रतीति और स्वीकृति- दोनों आपका स्वरूप नहीं है, नहीं है, नहीं है। है ही नहीं आपका स्वरूप ये। "प्रतीति" होणेवाळा आपका स्वरूप नहीं है। "प्रतीति" एक क्षण भी नहीं टिकती, आप एक क्षण भी कहीं नहीं जाते। इतना विरुद्ध है ••● (वाणीका यथावत् लेखन)।
  (तीन शरीर हुए- प्रतीति- शरीर, स्वीकृति- शरीर और भाव- शरीर। इनमें से प्रतीति-शरीर और स्वीकृति-शरीर तो एक ही हुए, दूसरा हुआ भाव-शरीर)। 
७१- 'मैं तो केवल तत्त्वका जिज्ञासु हूँ'– 
  (दिनांक 8-6-1995_0830; 12 मिनिटसे•) ••● तो आप "तत्त्वज्ञान" चाहते हो तो कृपासिन्धो! मैं जिज्ञासु हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ। मैं ब्राह्मण नहीं हूँ,मैं क्षत्रिय नहीं हूँ, मैं वैश्य नहीं हूँ, मैं स्त्री नहीं हूँ, मैं पुरुष नहीं हूँ, मैं साधू नहीं हूँ, मैं गृहस्थी नहीं हूँ। "मैं" तो केवल "जिज्ञासु" हूँ। 'तत्त्व का जिज्ञासु' हूँ केऽवल केवल। और "मैं" हूँ ही नहीं। मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोईऽ। इसमें "जिज्ञासु" के शिवाय मैं दूसरा कोई हूँ ही नहीं , होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं, कभी हूँगा (होउँगा) ही नहीं, 'केवल जिज्ञासु' हूँ- 'तत्त्व का जिज्ञासु'। देखो- सिद्धि होती है कि नहीं होती है। ऐसे आप भगतिमार्ग में चलते हो तो 'मैं भगवान् का हूँ' केवल, 'भगत हूँ', 'भगवान् का हूँ केवल'। और किसी का नहीं। ना माँ का हूँ, ना बाप का हूँ, ना लुगाई का हूँ, ना बाळकों का हूँ, न किसी जाती का हूँ, न वर्ण का हूँ, नीं आश्रम (का), हूँ ही नहीं। ये 'पक्का विचार' आप करलो- 'मैं तो केवल भगत हूँ'। अब कोई मर ज्याय, कोई जलम (जन्म) ज्याय। मरता है तो मैं हूँ ही नहीं वो। मैं इनका हूँ ही नहीं। इनमें, ये मेरे है नहीं, मैं इनका हूँ ही नहीं। मैं तो केवल भगवान् का भगत हूँ। ऐसे ही कर्मयोग करते हो तो 'मैं तो योगी हूँ' ●•• (वाणीका यथावत् लेखन)। 
७२- साधन आपसे-आप, निरन्तर होगा। नहीं तो सम्प्रदाय आदिमें बँधे रहोगे- 
  (दिनांक 8-6-1995_0830, 15 मिनिटसे•)●•• मैं तो केवल जिज्ञासु हूँ, तत्त्व का जिज्ञासु। देखो- तेजी से, साधन आप- से आप होता है। नीं (नहीं) तो करणे पर भी नहीं होगा, व्यवधान पङता ही रहेगा और मैं जिज्ञासु हूँ तो साधन निरन्तर होगा चौइस घंटे (चौबीसों घंटे) ही। सोवो तो ही साधू होकर सोयेगा,उठे तो ही साधू होकर के (उठेगा)। भोजन करे तो ही साधू होकर के। मैं तो साधक हूँ, केवल साधक हूँ। साधक सामान्य बात है। और साधन में भगति का साधन मिलता है, योग का साधन होता है और ज्ञान का साधन भी होता है। तो साधक के अनुसार अपणे को बणाओ। आप अलग पङे रहोगे र (और) साधन करोगे (तो) नहीं होगा। सब जगह ही यह आफत है। आप अगर परमात्मा की प्राप्ति चाहते (हो), तत्त्वज्ञान चाहते हो तो मैं तो केवल जिज्ञासु हूँ [यह मानो]। फेर (फिर) भटकोगे नहीं महाराज!, जहाँ बात तात्त्विक मिलेगी,वहाँ चिपक जाओगे। अभी तो आपके सम्प्रदाय है और वो है र वो है वे होंगे केई, और फेर वो बात मानोगे नहीं। कह, हमारे आचार्य तो यह कहते हैं, ये आचार्य वो कहते हैं, ये आचार्य वो कहते हैं। ऐसे खटपट करती (करते) रहोगे और समय बीत ज्यायेगा र 'रामनाम सत' बोल ज्यायेगी। हमें उनसे मतलब नहीं है। ना सम्प्रदाय से मतलब है,ना गुरु परम्परा से मतलब है। हमें तो जिज्ञासा है, तत्त्वज्ञान से मतलब है। तो जहाँ (बात) मिलेगी वहाँ (से) ले लोगे। नहीं तो इतने बँधे रहोगे, आप तत्त्वज्ञान ले नहीं सकोगे। अच्छी बात है; पण (परन्तु) अपणे सिद्धान्त की नहीं है (इस प्रकार बँधे रहोगे) ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
७३- मैं केवल भगवान् का हूँ,दूसरे किसीका भी नहीं- 
(दिनांक 8-6-1995_0830, 18 मिनिटसे•) ••● इस वास्ते (इसलिये) सबसे पहले, अपणा भावशरीर- मैं क्या हूँ, क्या करणा चाहता हूँ। मैं केवल तत्त्वज्ञान चाहता हूँ- जिज्ञासुऽ। मैं केवल भगवान् को चाहता हूँ। मीराँबाई ने कहा- 
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई। कोई एक दो-चार बार नहीं कहा है। आप यह 'दूसरो न कोई'- इसको आप छोङ देते हो। मैं भगवान् का हूँ- यह तो मान लेते हो- मेरे तो गिरिधर गोपाल; परन्तु दूसरा न कोई- इसको नहीं छेङते आप। यह कितनी वार कही है मैंने। ●•• (वाणीका यथावत् लेखन)। 
७४- देना ही देना- "चेतन" और लेना ही लेना- "जङ"। नई बात सुनाते हैं आपको- 
19950113_1500_Ahamta Mitane Ka Upay 
( दिनांक 13-1-1995_1500, 1 मिनिटसे आगे) ●•• एक लेणा है और एक देणा है। दो बात याद करलो- एक लेणा है और एक देणा है। देणा है, ये चेतन है अर लेणा है, ये जङ है। ये नई बात सुणाते हैं आपको, समझने के लिये। मानों देणा ही देणा होगा तो चेतन है। अर्थ क्या हुआ? कह प्रकृति और प्रकृति का कार्य- शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण, मन, बुद्धि, अहम् तक, [ये] अगर मेरे लिये है तो जङता है [-यह]। इणसे अपणे लेते हैं तो (यह) लेणा हुआ और ये देणा क्या है क दूजे के- दूजे के लिये (ही) करणा है सभी, [यह] देणा ही देणा है। हमें पदार्थ भी देणा है और क्रिया- कामधन्धा भी देणा है,दूजों की सेवा करणा है। तो पदार्थों से सेवा होती है, शरीर से खट करके ही सेवा होती है। दो तरह सूँ सेवा होती है अर दो जणों की सेवा होती है। एक हमारे बङे बूढ़े हैं- माता- पिता, दादा- दादी ये है, ब्राह्मण है,साधु- संत है,गऊ है आदिक ये है और एक अपाहिज है,अरक्षित है,अङ्गभङ्ग है, (जो) कुछ कर नहीं सकते, वे है। तो एक तो पूजनीय है और एक दया के पात्र है। तो (इन) दोनों की सेवा करणा हमारा काम है। ये, मनुष्य की "मनुष्यता" इसमें है। मैंने बहुत वार कही है क भगवान् को याद करणा र संसार की सेवा करणा, दो अगर काम नहीं है तो मनुष्य नहीं है वो। ये मैंने कहा है, केई वार सुणा ही होगा आपने। मनुष्य के दो ही बात है- एक तो सेवा करणा और एक भगवान् को याद करणा। तो भगवान् को याद करणा है वो सेवा करणा है र सेवा करणा भी भगवान् को याद करणा है- दोनों एक हो जायेंगे , परन्तु अभी दो दीखती है। अब दो, दो एक हो जायेंगे, ये एक विद्या है असल। अब इसको ध्यान से आपलोग सुणें और उसको पकङलें, निहाल हो ज्यायेंगे। ऐसी बात है। तो हम लेते हैं तो क्या लेते हैं? (कि) भोजन लिया, जळ भी लिया, आराम लिया, कपङा लिया, ऐसे आदर लिया, महिमा ली, सत्कार लिया। तो हम जङता में फँस ज्यायेंगे। ये जङता है(- सब)। क्योंक लेणा र देणा जङता का ही होता है, चेतनता का होता ही नहीं। तो लेते हैं, तो हम जङता में फँस ज्यायेंगे और देते हैं तो क्या है? क देते देते, जङता देणे ही देणे में जायेगी, तो हम चिन्मय में स्थित हो ज्यायेंगे। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। (चिन्मय अर्थात् ज्ञानस्वरूप, चेतन, परमात्मा)। 
 (31 मिनिट•) अब कर्मयोगी है,उसमें कर्म र योगी- दो चीज हुए। कर्म तो हुआ संसार का अर योगी हुआ चेतन- जीव। 
××× कर्म छोङ देने से- प्रकृतिका त्याग करो तो केवल प्रकृति में योगी नहीं है और केवल चेतन में योगी नहीं है ××× कर्म गया, अब योगी में से दो चीज हुई- एक योग और एक योगी। तो योगी नहीं रहा। तो क्या रहा? योग रहा। ××× (32 मिनिट•) योग का मतलब- परमात्मा के साथ सम्बन्ध, केवल परमात्मा के साथ सम्बन्ध, शुद्ध (शुद्ध सम्बन्ध, नित्य सम्बन्ध, अटल सम्बन्ध)। ××× 
७५- राधा, सीता, गौरी आदि का स्वरूप- 
 (दिनांक 13-1-1995_1500, 36 मिनिटसे आगे) ●•• तो योगमात्र रहणे से परमात्मा रहे। योग किसके साथ? परमात्मा के साथ। वो योग क्या है क नित्ययोग है वो। परमात्मा के साथ नित्य- सम्बन्ध है केवल। तो नित्ययोग होणे से आपका वर्तमान सदा निर्दोष हैऽऽ- केवल भगवान् का सम्बन्धऽऽ, चेतन का सम्बन्धऽऽ। सम्बन्ध है, उसमें सम्बन्धवाळा तो योगी होगा अर सम्बन्धवाळा चला गया तो केवल योग होगा, केवल भक्ति होगी, केवल ज्ञान होगा, केवल योग होगा। कर्मयोग में योग रहेगा, भक्तियोग में भगति रहेगी, ज्ञानयोग में ज्ञान रहेगा, योगी नहीं रहेगाऽऽ, बस, ये रहेगा, पूर्ण हो गये फिर। अर योगी जबतक है तबतक, जब कर्मयोगी है तो निष्कामभाव का भोगी हुआ और ज्ञानी है तो ज्ञानभाव का योगी (भोगी) हुआ और भगति है तो भगति का भोगी हुआ अर भोगी भोगी मिट ज्यायगा तो भगति रही। तो फिर बन्धन नहीं होगा। सर्वथा मुक्ति यहाँ है। भोगी होणेतक अभिमान है। मैं कर्मयोगी हूँ- तो अभिमान है। मैं ज्ञानयोगी हूँ तो अभिमान है, मैं भगतियोगी हूँ तो अभिमान है। तो भगति रहेगी कोरी (केवल), ज्ञान रहेगा कोरा, योग रहेगा कोरा। तो वो ज्ञान हुआ झको (जो) भगवान् का हुआ। तो भगवान् का स्वभाव है वो- योग। भगवान् का स्वभाव है चेतन। भगवान् का स्वभाव है- योग। मानो सम्बन्ध- भगवान् के साथ। वो भगवान् का तो है स्वभाव और ये जीव का है महाराज! वो विषय, जीव की वास्तव में, क्या कहें उसको? जीव का है स्वरूप, जीव का है ध्येय, जीव की है खास खुराक, जीव की खास है- प्रापणीय वस्तु अर भगवान् का है स्वभाव। वो स्वभाव रहकर के- वो जो स्वभाव रहा, वो स्वभाव है– उसीको राधा कहते हैं, उसको सीता कहते हैं, उसको गौरी कहते हैं और सीताराम, राधेश्याम- उसको कहते हैं। वही ज्ञान में विज्ञान, ज्ञानमार्ग में विज्ञान हो ज्यायेगा, भगतिमार्ग में राधा, सीता हो ज्यायेंगे। वो, नित्य वो योग ही रहेगा। योग किसका? कह, राधे श्याम का योग (मिलन), सीता राम का योग, गौरी शंकर का योग और भक्तभक्ति का र (और भगवान् का) योग- जो शुद्ध भगति और भगवान् का योग। ये योग रहेगा। इसमें योगी नहीं रहेगा, केवल ज्ञान रहेगा, योग रहेगा, ये। ये रहेगा। इसके बाद, योग कहे तो वो दो तरह का होगा। वो परमात्मा की प्राप्ति हो ज्यायेगी। जहाँतक साधन का अभिमान है तबतक पतन की सम्भावना है और साधन का सम्बन्ध ही नहीं रहेगा तो वहाँ भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग- तीनूँ नहीं रहेंगे, केवल योग रहेगा र केवल योग में योगी नहीं रहेगा, तो केवल परमात्मा- चेतन, चिद् घन, आनन्दघन रहेगाऽऽ। ये है आखिरी,आखिरी। बस, यहाँ हो गया, बस सब ठीक हो गया- पूर्णता है। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
७६- अनुकूल परिस्थितिका न मिलना योगीकी एक भोगसामग्री है–
19990815_0518_Dukh Mein Mauj 
(7 मिनट से) ●•• अमुक जगह जाणा है,अमुक जगह काम है- येह थोङे ही है उनमें (विरक्त में)। यह भोगी आदमी के होता है। योगी के अनुकूल परिस्थित न मिलना है, यह एक भोग-सामग्री है। उसमें मस्त• मस्ती,मौज रहती है, मस्त रहते हैं। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
७७- आप अहम् रहित हैं- यह आपका अनुभव है–
19960207_0518_Aham Rahit Swaroop K Anubhav 
(7 मिनट से) ●•• अहम् अपरा है,निकृष्ट है। अहम् है,यह तो मिट्टी की तरह है, एक मिट्टी का ढेला होता है- जड, इस तरह से है अहम्। परन्तु अहम् ने उस व्यापक के साथ एकता मान रखी है, इस वास्ते अहम् सबका मालिक है। अहम् है आपके एकदेश में - अहम्। आप अहम् रहित हैं- यह आपका अनुभव है। आप थोङा ध्यान दें- गाढ़ नींद में अहम् नहीं रहता है, आप रहते हो। मेरे को कुछ भी पता नहीं था, तो पता तब होता है (जब) जिस धातु की वस्तु होती है, उस धातु का (की) अपणे पास कोई चीज हो, तो उसका पता लगता है। जैसे रूप सूर्य का है, सूर्य की आँख है। इस वास्ते रूप का पता आँख से लगता है। तो आँख की, (और) रूप की एक जाती है। ••● (यथावत लेखन)। 
[आपकी और अहम् की जाती एक नहीं है, आप अहम् से अलग हो, अहमरहित हो। गाढ़ नींद में अहम् को ज्ञान (पता) इसलिये नहीं था कि वहाँ, उसकी जाती का कोई नहीं था]। 
७८- कुछ भी न करनेसे परमात्माकी प्राप्ति- 
19950508_1600_Gyan Mein VS  
(6 मिनटसे) ●•• देखो! मेरे तो कभी-कभी आती है मन में और वो कह देता हूँ क साधन जैसा आप चाहो वैसा ही बता दूँगा, जैसा आप चाहो वैसा। और उसमें आप यह कह सकते हो कि हाँ यह साधन मैं कर सकता हूँ अर आप स्वीकार करलें कि हाँ इससे सिद्धि हो सकती है। ऐसे मेरे को उत्साह आता है मन में। जहाँ आप, जिस तरह का कहो। एक दिन, बहोत पुरानी,कलकत्ते की बात है- पुराणे गोबिन्दभवन में। एक दिन मैंने ऐसे कह दिया- आप जैसा चाहो, वैसा साधन बता दूँगा। तो एक सज्जन थे वो-डागाजी। वो, उन्होंनेे पूछे (बोले) कि ऐसा बताओ कि मेरेको कुछ नहीं करना पङे। (मैंने कहा-) बिल्कुल कुछ मत करो, परमात्मा की प्राप्ति हो ज्यायेगी, करणे (करने) से ही  प्रकृति के साथ सम्बन्ध होता है। कुछ नहीं करोगे तो स्वरूप में स्थिति स्वतः हो ज्यायेगी, स्वाभाविक ही। कुछ करोगे तो प्रकृति के साथ सम्बन्ध होगा अर कुछ भी नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मा में ही होगी बिल्कुल सीधी, सरल बात है। ऐसे, जिस तरह का साधन आप चाहो (वैसा बता दूँगा) ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
७९- एक बार स्वीकार करते ही पूरा काम हो जाता है- 
20040225_0518_Sethji Ki Svapna Ki Baat 
(दिनांक 25-2-2004_0518 बजे; 1 मिनिट से) एक बार, सरल हृदय से, दृढ़तापूर्वक, (यह) स्वीकार कर लें कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् का ही हूँ और किसी का नहीं और भगवान् ही मेरे (अपने) हैं और कोई मेरा नहीं है। पूर्ण हो गया काम। क्योंकि जो बात है, वो सच्ची है। ध्यान नीं (नहीं) दिया,ध्यान देते ही- एक वार, सरल हृदय से...[इसमें] कोई अभ्यास की जरुरत नहीं, माळा की जरुरत नहीं, बार-बार याद करने की जरुरत नहीं, एक वार, सच्चे हृदय से, सरलतापूर्वक, दृढ़तापूर्वक- सरलता से दृढ़तापूर्वक (यह) स्वीकार कर लें कि मैं भगवान् का ही हूँ और भगवान् ही केवल मेरे हैं। सब (कुछ) और कोई है नहीं सिवाय भगवान् के- वासुदेवः सर्वम्ऽऽ (गीता ७।१९)। भागवत में आया है- भगवान् का पहला अवतार है (आदिअवतार है)– सर्वम् वासुदेवः।••● (वाणीका यथावत् लेखन)। ××× 
(3 मिनट से) ●•• और किसीका मैं था भी नहीं, हूँ भी नहीं। हुआ भी नहीं, होउँगा भी नहीं। अर भगवान् ही मेरे हैं, शरीर- संसार मेरा नहीं है। मेरा था नहीं, मेरा है नहीं, मेरा होगा नहीं, मेरा हो सकता ही नहींऽऽ। एकदम पक्की बात है। ××× 
(4 मिनट से) सिवाय भगवान् के कुछ हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, कुछ हो सकता ही नहीं। भगवान् ही है- वासुदेवः सर्वम्। छोटा,बङा,जलचर, थलचर, नभचर, दूरबीन से दीखे वे ई (वे भी), सऽऽऽब वे ही, एक हीऽऽऽ  (सब भगवान् ही हैं)। (वाणीका यथावत् लेखन)।
८०- स्वप्नमें श्री सेठजी बोले कि एक परमात्मा ही है–
 [श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने (दिनांक 25-2- 2004 _0518 बजेवाले सत्संग में) अपने स्वप्न की बात बतायी कि] 
   आज ही, अभी सेठजी ने कहा (परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका ने कहा)। पाँच बत्तीस. (सपने में पाँच बजकर बत्तीस मिनिट पर, प्रवचन से पहले)। 
श्रोता- सेठजी ने क्या कहा? 
श्री स्वामी जी महाराज- सेठजी ने कहा- आ ज्याओ (आ जाओ)। अपने हम (-सब) बैठे थे। (श्री सेठजी आदि अपन सबलोग एक मकान में बैठे थे)। (श्री सेठजी) उठकरके बाहर, एक दूजे (दूसरे) मकान में गये। दूजे मकान में जाकर (सब को कहा कि-) आ ज्याओ। [सब आ गये]। मेरे को बैठाया पास में। दूजे बैठ गये यहाँ (कुछ दूरीपर)। (फिर श्री सेठजी ने) दोनों हाथ धरे- यहाँ (मेरे कन्धोंपर और बोले कि-) एक परमात्मा ही है। (यह) लिख लेना (श्री स्वामी जी महाराज ने यह बात श्रोता को लिखने के लिये कहा। श्रोता ने लिखना स्वीकार किया कि- अच्छ्या)। आज, अभी, सपना आया सपना। सेठजी ने कहा आओ, इधर आओ। कई आदमी थे। मैं पास में बैठा था। वे मकान (उस मकान) से उठकर दूसरे मकान में गये। सबको कहा कि- आ ज्याओ। मेरे ऊपर दोनों हाथ धरे- यहाँ (कन्धोंपर और बोले कि) एक परमात्मा ही है। ××× 
  एक परमात्मा ही है। शान्त। ××× चुपचाप। पक्की, अच्छी पक्की बात है- एकदम्म्म। 
   (सपनेमें उस समय लगभग साढ़े पाँच (५.३०-३२) बजे थे। कई आदमी थे- पाँच सात जने। मकान परिचित नहीं था। किस स्थानपर और कौन- कौन थे, यह याद नहीं है)। 
   भगवान् की बङी भारी कृपा है अलौकिक कृपा है, जबरदस्ती कृपा है जबरदस्ती, माँग नहीं, हमारा कहना नहीं था, माँग नहीं (की) थी।आपे ही (अपने-आप ही) कह, आ जाओ। कृपा है विलक्षण कृपा। जितने सत्संगी है, सबके लिये है (यह)। एक परमात्मा ही है। एक बार, सरल हृदय से, दृढ़तापूर्वक (यह) स्वीकार करलें (कि मैं केवल भगवान् का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं)... यह मैं पढ़ रहा था। अलौकिक कृपा है भगवान् की। सच्ची बात है एकदम। सप्तर्षि, सप्तर्षि है। राम महाराज। विलक्षण कृपा है विलक्षण। आ ज्याओ, आ ज्याओ कह, सबको ही यह कहा। 
[शीतकाल में यह प्रवचन गीताभवन नम्बर तीन, संतनिवास वाले कमरे के भीतर हुए थे। माइक लगा हुआ था। बाहर, पाण्डाल में बैठे लोग सुन रहे थे। भीतर में भी कई सज्जन श्री स्वामी जी महाराज के पास में बैठे थे। भीतरवाले लोगों की गिनती करते हुए श्री स्वामीजी महाराज बोले - सप्तर्षि, सप्तर्षि है। (ऐसा कुछ अब स्मृति में, याद भी आ रहा है)। श्री स्वामी जी महाराज ने 'राम महाराज'- वाक्य उच्चारण किया। इससे लगता है कि कोई सज्जन बाहर से कमरे में आये हैं और उन्होंनेे प्रणाम किया है। जवाब श्री स्वामी जी महाराज ने 'राम महाराज' बोला है। किसीके प्रणाम करनेपर ऐसे 'राम महाराज' बोला करते थे। कभी-कभी रामजी महाराज, या रामजी राम राम महाराज भी बोला करते थे जिसका तात्पर्य भी बताया करते कि यह प्रणाम 'राम महाराज' (भगवान्) को किया गया। स्वयं स्वीकार न करके भगवान् को अर्पण कर दिया गया)। 
   ... सबको ही कहा- आ ज्याओ। सच्ची बात है। केवल स्वीकार करलो, मानलो। बात तो इत्ती ही है। सब पूरी हो गई। एकदम, कुछ बाकी नहीं है। बहूनां जन्मनामन्ते ••• स महात्मा सुदुर्लभः।। गीता ७|१९; अनन्यचेताः••• तस्याहं सुलभः गीता ८|१४; अर स महात्मा सुदुर्लभः।। यह सातवें (अध्याय) में (कहा), वो आठवें में। एक परमात्मा ही है। 
(यह बहुत ऊँची बात है। सब भगवान् ही है- ऐसा माननेवाला महात्मा बहुत दुर्लभ है। भगवान् ने गीता जी के इन श्लोकों में महात्मा को दुर्लभ और अपने को सुलभ बताया है)। 
   एक परमात्मा ही है, बस। छोटे हो, बङे हो, शुभ हो, अशुभ हो ••• (अच्छे, बुरे आदि) सऽऽब वासुदेवः। क्रूर हो, सौम्य हो, भूत, प्रेत, पूतनाग्रह आदि- (सब परमात्मा ही है-) ये चैव सात्त्विका भावा॰ (गीता ७।१२ {-सात्त्विक, राजस और तामसी- सब भाव मेरे से ही पैदा होते हैं; परन्तु मैं उनमें और वे मेरे में नहीं है} ••• मानो मेरी प्राप्ति चाहो, तो मेरे शरण हो जाओ। हूँ मैं- ही- मैं -सब। नारायण नारायण नारायण नारायण।। 
{इससे पहले जो श्री सेठजी की एक बात बोले थे। उसको लिखने के लिये मना किया कि यह बात नहीं कहनी है - नहीं लिखनी है}। 
 ●81 नामजपकी विलक्षणता और पतिव्रताका उदाहरण–
19900705_0830_kaliyug nam ki ritu ( कलियुग नाम की ऋतु ) 
 ••• नामजपकी झङी लगादो। नामजप होता ही रहे, ऐसा एक स्वभाव बनालो– स्वभावो भजनं हरेः।  
– संत-महात्माओंके विषय में लिखा है कि भगवान् का भजन करना उनका स्वभाव होता है– स्वाभाविक भजन होता है स्वाभाविक; क्योंकि उनको महत्त्व दिया है उन्होंनेे। जिसको महत्त्व दोगे, वो चीज आ जायगी अपने में, आपसे आप। तो भगवन्नाम का अभ्यास विशेषता से कर लेना चाहिये भाइयोंको, बहनोंको। नामजप (धन) का खजाना बढाते चलो। तो भगवन्नामजप करे और उद्धार का उद्देश्य रखें कि अपना कल्याण करना है। 
     भाइयों! बहनों! मौका है यह। बार-बार नहिं पाइये मनुषजनमकी मौज। मनुष्य जन्म की मौज नहीं मिलती। मनुष्यजनममें भी मेरा कल्याण हो- यह इच्छा कम होती है। ऐसी एक इच्छा हो जाय और फिर सत्संग मिल जाय तो फिर कहना ही क्या है? फेर तो बहोत बढ़िया हो जाय। संत समागम दुर्लभ भाई। भजन होगा और सत्संग होगा- उसका जीवन बदलेगा, उसका स्वभाव बदलेगा। तो वो स्वभाव जबतक न बदले, तबतक भाई! सत्संग से सन्तोष नहीं करना चाहिये। 
(20 मिनिट से) ●•• हर समय नामका जप होता रहे, नाम का जप एक साधन विलक्षण है। यह है तो क्रियात्मक, क्रियारूप है, परन्तु इससे भाव जाग्रत हो ज्याता है। भाव की जो महिमा है, बोध की जो महिमा है, वो महिमा क्रिया की नहीं है, क्रिया करने की एक प्रवृत्ति स्थूल शरीर की प्रधानता में है। तो इसकी महिमा इतनी नहीं है; परन्तु नाम की महिमा है,वो क्रिया से विलक्षण है। इसकी महिमा भगवान् के साथ सम्बन्ध जोङने की है न, तो प्रभु के साथ सम्बन्ध जुङ गया, इस वास्ते इसका (इससे) जल्दी कल्याण होता है विशेषता से, सुगमता से कल्याण होता है। तो हे प्रभु, हे प्रभु- नाम का जप करता रहे और भीतर से, प्रभु से प्रार्थना करता रहे कि हे नाथ! मैं भूलूँ नहीं, हे प्रभो! ऐसी कृपा (हो)– मैं भूलूँ नहीं, ऐसी कृपा होणी चाहिये, मेरे भूल न हो ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
   तो जैसे अभिमान सम्पूर्ण अवगुणों की खान है, ऐसे ही भगवान् की स्मृति है- सम्पूर्ण आफतों (विपत्तियों) का नाश करनावाली है– हरिस्मृतिः सर्वविपद्विमोक्षणम्। (श्रीमद्भा॰ ८|१०|५५)। तो नामजपके साथ स्मृति रहे भगवान् की। तो उसके लिये प्रार्थना करे भगवान् से कि मैं भूलूँ नहीं। (साधन में सन्तोष न करनेवाले एक सजग, सेवा करनेवाले राजाकी कथा सुनायी– एक गरीब विधवा बहनके बच्चेको खिलोना देनेवाली सेवा करनेसे राजाका भजन में मन लग गया)। तो ये जो दूसरेका हित करनेकी बात है ना, इससे अन्तःकरण शुद्ध होता है, निर्मल होता है और क्रूर हृदय हो और दूसरोंको दुःख देता है, वो भजन करे तो भी जल्दी शान्ति नहीं मिलती है; क्योंकि हृदय में क्रूरता भरी है। परन्तु सत्संग करनेसे, जप करने से वो हृदय की क्रूरता मिटकर नम्रता आ जाती है, सरलता आ जाती है। उससे बहुत ज्यादा लाभ होता है। 
   एक मेरेको बात याद आ गई कि धनीघरानेकी जो बहनें हैं, उनको चाहिये कि गरीबघरकी बहनका आदर विशेषतासे करे। अपनी जातीमें, न्याती में वो कोई कम नहीं है; परन्तु उसके पास पैसे नहीं है। उनके वेषभूषा वैसी नहीं है जैसी धनीआदमियोंके घरोंकी स्त्रियोंकी होती है। उनके शृंगार की सामग्री वैसी नहीं है। न्यातीमें, जातीमें, बिरादरीमें वो कम नहीं है, बरोबर है। परन्तु उनके जरा शृंगार करनेकी सामग्री नहीं है। तो कई-कई धनीघरानेकी स्त्रियाँ अभिमान में आकर ऐसी स्त्रियोंका तिरस्कार कर देती है। अपमान कर देती है और बगतपर कहती है कि तुम हमारे यहाँ मत आओ, हमारे साथ मत आओ। अब वो ऐसी शृंगारकी सामग्री गरीबघरानेकी स्त्री कहाँसे लावे। तो वो अपने पासमें बैठनेमें भी अपनी बेइज्जती समझती है, तिरस्कार कर देती है। ऐसे कभी नहीं करना चाहिये- 
तुलसी हाय गरीब की हरिसे सही न ज्याय। 
मुए बकरकी खालसे लोह भसम हो ज्याय।।  
गरीब की जो हाय है, उसका अपमान करनेसे जो उसको दुःख होता है, वो (भगवान् से सहा नहीं जाता) हाय भगवान् से नहीं सही जाती। उसकी हाय ऐसी होती है। ये बङे-बङे धनी आदमी है, उनके भी महान दुःख आवेगा, सन्ताप आवेगा, फेर रोवेगी। तो ऐसे गरीबोंका अपमान नहीं करे। 
   तो एक दूजी कहानी और याद आ गई भाई। एक धनीघराने की स्त्री थी, वो सत्संग में लग गई। वो सेवा किया करती। एक बहुत वृद्ध संत थे, उनकी वो सेवा किया करती। तो सेवा करने से उसके अभिमान आ गया कि मैं कितनी सेवा करती हूँ। कैसी-कैसी वस्तुएँ महाराज के अर्पण कर देती हूँ, भोजन करा देती हूँ, कपङे धो देती हूँ, ला देती हूँ। ऐसे अभिमान आ गया। तो महाराज थे,वो बङे दयालु संत थे। उनके मनमें आया कि यह सेवा करती है तो अच्छी बात है, परन्तु अभिमान आ गया इसके। तो उन्होंनेे एक दिन बात कही कि यह जो अमुक (स्त्री) आती है न [उनसे आप मिलो]। (वो स्त्री और उसके पति चना, मकई, जवार आदि भूनकर बिक्री करते और उससे अपनी जीविका चलाते थे)। वो स्त्री पतिव्रता– पतिकी बङी तत्परता से सेवा करती थी। तो महाराज ने कह दिया कि तुम उनके साथ मिलो, वो जो स्त्री आती है न सत्संग में अपने, उनसे जाकर के मिलो- देखो तो सही। तो एक दिन वो अचानक उसके घरपर गई। तो वो रसोई बना रही थी, उसके पास बैठी। [उसने पूछा कि] कैसे आ गई। तो उसने कहा कि महाराज की आज्ञा हो गयी और आपके पास आयी हूँ देखने के लिये। तो वो बोली कि क्या आज्ञा है?, क्या सेवा करूँ आपकी? [वो बोली] कि मैं तो यह पूछती हूँ कि तेने साग बना भी रखा है और दूसरे अमनियाँ (साग के टुकङे) करके, छीलकर के, साग की तैयारी कर रखी है। तो साग बना दिया तो यह तैयारी क्यों कर रखी है और यह है तो साग बनाया क्यों? दूसरा, इसमें क्या है? कह, इसमें गर्मजल है। [और] इसमें? कह, ठण्डा जल है। तो ये दो जल क्यों किये ? रोटियाँ भी कुछ बना रखी है और कुछ रोटी बनानी है,आटा साना हुआ पङा है, उसकी रोटी बनानी है। तो [इस प्रकार] वो पूछती गयी अलग-अलग। तो वो मुस्करायी और कहती गयी कि हमारे ये बात है। कह, नहीं, बताओ, क्या बात है? और एक विलक्षण बात देखी कि इतने- इतने पत्थर पङे हैं पासमें, इतने डण्डे पङे हैं। ये सब देखा। ये क्यों रखा है? तो बेचारी को बताने में संकोच होता था, परन्तु ज्यादा पूछती है और वो देखती है कि महाराज की कृपापात्र है ये, महाराज की सेवा करती है। महाराज पर भक्ति उसकी भी थी और धनी स्त्री की भी थी, गरीब स्त्रीकी तो थी ही। तो महाराज की बात याद करके वो बोली कि वे (पतिदेव) जब आयेंगे [और कहेंगे कि] ठण्डा जल लाओ तो ठण्डा जल दे दूँगी और कह, गर्मजल लाओ। तो अभी किया हुआ नहीं होगा तो [गर्म करने में] देरी लगती है न! तो गर्मजल भी मैंने [पहले से ही कर] रखा है, गर्मजल अर्पण कर दूँगी। कहते हैं बस, परोसो, रोटी परोसो हमारे को। तो साग और रोटी बनायी हुई परोस दूँगी और कहते हैं कि नहीं, रसोई बनाओ। तो बनाऊँ तो क्या बनाऊँगी? जो [अमनियाँ किया हुआ] साग पङा है वो बना दूँगी और रोटी बना दूँगी [आटा सानकर रखा हुआ तैयार है ही]। 
  इस तरह वे(उसने) सामग्री बताई कि मैंने तैयार करके रखी है, वे कहे जैसे ही उनको दे दूँगी। इतने पर भी वे रुष्ट हो जायँ और मारपीट करना चाहें, तो पत्थर भी रखे हैं कि ये, इनसे मारो। और कह, पत्थरों से नहीं, हम तो डण्डे से मारेंगे। तो डण्डा तैयार करके रखा है। और [हाथों से, पैरों से मारना चाहें तो] हाथ और लात है ही उनके पास। उनको लानेकी जरुरत नहीं। तो इस वास्ते सब सामग्री मैंने [तैयार] कर रखी है। (38 मिनिट से) ●•• उसके महाराज! बङा असर पङा– मैं संत- महात्मा समझकर के सेवा करती हूँ और ये (यह) पति की सेवा करती है। वो तो एक घरके मालिक है। अब उसकी सेवा करने में इतनी सावधानी नहीं [रखी जाती, जितनी संत-महात्माओंकी सेवामें रखी जाती है]। संत- महात्माओं की सेवा समझकरके मैं इतनी सावधान नहीं हूँ जितनी ये अपने घरके पतिकी सेवा करने में सावधान है। स्वभाव सुधर गया- उस धनीकी स्त्री के लिये अभिमान दूर हो गया कि तू समझती है कि मैं सेवा करती हूँ। क्या सेवा करती हो! ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। सेवा तो (भाई!) यह बात है, (कि) उनके मनकी बात कैसे पूरी हो। इस तरह से सेवा होती है। तो ऐसे दूसरोंकी सेवा करनेके लिये लग ज्याय तो बङा अच्छा काम रहे। 
   किस तरह से सेवा करे? [कि] घरमें ही करे, बाहर भी करे, गरीबोंकी करे। भूखे- भिखारी कोई आ ज्याय– साधू क, ब्राह्मण, भिक्षुक आ ज्याय, उनकी भी करे। सबको सुख पहुँचावे। वो अन्नपूर्णा माँ है जो सबको देती है। 
'अपने सुधार करना है- यह याद रखें सदा'। अभी मौका है सत्संग का। तो सुधार करे तो बहोत सहायता है। बहुत अच्छी- अच्छी बातें मिल जायेगी बगत- बगतपर। और भीतर में चाहना होगी तो बिना पूछे बातें मिल जायेगी और बगतपर ऐसा अनुभव होगा और होता है ऐसा– मानों मेरे लिये ही कह रहे हैं। ऐसा समाधान होता है- स्वाभाविक। 
●82  व्याख्यान और सत्संगकी बातोंमें फर्क समझें- 
20040121_0518_Bhagwan Apne Hai 
(11 मिनिट से) नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण, राम राम ●•• अबकले (अबकी बार) इस यात्रा में मैं यहाँ (ऋषिकेश) आया, तो यहाँ रहणे का विचार किया। इसमें एक बात कही थी आपको याद होगा- कि अब मैं "व्याख्यान" दूँगा नहीं। कही थी कि नहीं कही (थी)? [कही थी]। मैं वो बात बताऊँगा जिससे जीव का कल्याण हो ज्याय। व्याख्यान बहोत दिया। सफेद बाळ हूग्या (हो गये) व्याख्यान देते- देते। अब व्याख्यान ही नहीं, "सत्संग की बात" कहूँगा। तो आप ख्याल नहीं करते हैं। आप अभीतक ख्याल सब नहीं करते हैं। केईएक (कई एक) करते हैं। सब नहीं करते, केईएक करते हैं हऽर(और) केईएक करते हैं, उनकी अवस्था अच्छी हुई है। इमें (इसमें) सन्देह नहीं है। उनके फर्क पङा है। मैं जानता हूँ कइयों को, सबको जाणता नहीं, सबका मेरेको पता नहीं। मेरे से बात करते हैं, उनको मैं जाणता हूँ। तो जीव का कल्याण कैसे हो? यह {विचारनेका (विषय) है [दूसरा] विचारनेका नहीं है}। जीव का कल्याण कैसे हो? तो उद्धार कैसे हो? इस विषय में गहरा उतरता है- गहरा उतरना चहिये। गहरा है– दो बात, मैं गहरी मानता हूँ- दो बात। एक पदार्थ है र एक इन्द्रियाँ [इन्द्रियों से होनावाली क्रियाएँ]। एक पदार्थ – सब आ गये। शरीर र दूजा सब, सब पदार्थ में आग्या (आ गये)। पदार्थ और एक क्रिया। ए दो चीज है। तो दो चीज प्रकृति की है। पदार्थ- ये प्रकृति के हैं, क्रिया भी प्रकृति की है। आत्मा में क्रिया नहीं है, उसमें पदार्थ नहीं है। इसमें शंका है तो बोलो- इसमें शंका हो तो आप बोलो। किसीके ही (भी) हो, खुल्ली बात है। "पदार्थ" और "क्रिया"- दो चीज है। पदार्थों में "पराश्रय" है। "पर" है ये-"पर", "अपणी" नहीं है- दूसरी है। दूसरे का आश्रय है- पदार्थ का र दूसरे का आश्रय है और क्रिया का आश्रय है- "परिश्रम"। क्रिया में परिश्रम होता ही है। आप इते बैठे हो बताओ- कोई (भी) क्रिया बिना परिश्रम के होती है क्या? अऽर परिश्रम जितना होगा [उतनी] थकावट होगी ही, थकावट होगी ही। तो ये प्रकृति है। ये आत्मा नहीं है। आत्मा [में थकावट कभी होती ही नहीं]- आत्मा (में) थकावट नहीं होती- कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः।। (साधक- संजीवनी गीता ४|२०) - किंचित् मात्र भी करणा-कर्ता नहीं है।••● (वाणीका यथावत-लेखन)। तो कर्ता भोक्ता आत्मा में नहीं है- कर्ताभोक्तापन आत्मा में नहीं है। कर्ता-भोक्ता को मिटाना नहीं है, किन्तु स्वीकार ही नहीं करना है। मिटाना तो, हो तो मिटावे!(कर्तापन हो तो मिटावे!) कर्तापना है नहीं। (साधक- संजीवनी गीता ४|२०;१३|३१;३|२७;५|८;) तो कर्तापन माना हुआ है। कर्ता है नहीं। कर्तृत्व, भोक्तृत्व- दोनों आत्मा में नहीं है। इस वास्ते कर्ता भोक्ता [हूँ-यह] स्वीकार न करे। 
   तो आत्मा शुद्ध है। सबकी आत्मा शुद्ध है। कसाई से कसाई, हिंसक से हिंसक- आत्मा शुद्ध है उसका। आत्मा शुद्ध है एकदम। (साधक- संजीवनी गीता ४|२०;१३|३१,३२,३३,)। आत्मा स्वयं कर्ता नहीं है, न भोक्ता है। कर्ताभोक्ता से रहित है। ऐसा स्वतः है। आ बात बहुत वार कही है और फिर कहता हूँ कि आत्मज्ञान है, तत्त्वज्ञान है, मुक्ति है- ये है। आप मुक्त हो, आप सब मुक्त हो। आपने नाशवान को अपणा मान लिया- यह गलती हुई है। शरीर को अपणा मान लिया- यह गलती हुई है। यह गलती मिटादो तो ठीक हो जायेगा- सब। सब ठीक हो ज्यायगा, एकदम। शरीर तो नाशवान है। आप (स्वयं) अविनाशी है। आप चौरासी लाख योनि धारण करी है। क्या आपके साथ शरीर रहा? देवता का शरीर रहा क, भूत-प्रेत का रहा क, मनुष्य का रहा क, नाग, सर्प, बिच्छू का रहा क, जङ का रहा क, स्थावर का रहा क, वृक्ष का रहा क- कोई शरीर साथ में रहा? और परमात्मा सदा साथ में- परमात्मा सदा साथ में है। तो आप मुक्त हो, सबके-सब मुक्त हो। सबके- सब आप मुक्त हो- इसमें सन्देह नहीं किंचित् मात्र भी। सबके सब आप मुक्त हैं एकदम। जीवन्मुक्त हैं, सब मुक्त हैं। आप शरीर में नहीं हैं, आप शरीर में नहीं हैं। आप शरीर में मानते हैं। ये मानते हैं- येही जन्म मरण का कारण है- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनि जन्मसु।। (साधक- संजीवनी गीता १३|२१;१४|१८;) शास्त्र में लिखा है कि पुरुष असंग है। आपने [किया] गुणों का संग। गुणों के संग से तीन गतियाँ होती है- ऊर्ध्वगति र मध्यगति र अधोगति। अगर गुणोंका संग न करे- आपके जन्म मरण है ही नहीं।  
  [21 मिनिट से] ●•• अबके मेरे विचार ही ऐसा हुआ है कि अपणे जन्म मरण से रहित होणा है- व्याख्यान देणा नहीं है। व्याख्यान हो ज्याता है। कहता हूँ, बोलता हूँ- व्याख्यान हो ज्याता है; (परन्तु) व्याख्यान देता नहीं हूँ। एक ही आँक, एक ही एक बात ज्यादे कहता हूँ। सुणते हो न आप। बार-बार वही कही- एक ही एक बातें हैं, नई नहीं। पहले व्याख्यान तरह-तरह का कहता था। अब तो एक ही एक बात को [ज्यादा] कहता हूँ। अरे एक ही बात समझलो- निहाल हो ज्याओगे। सबको ज्ञान हो ज्यायेगा। सब आप, मुक्त हैं आप। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। 
   क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है, पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होता है। तो ये आत्मा में नहीं है। आत्मा न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, न आरम्भ होता है, न समाप्ति होती है। वो नित्य निरन्तर रहनेवाला है। वो नित्य निरन्तर रहणेवाळे की तरफ ख्याल कराणा मेरा काम है। 
   [आजकल कई लोगोंको ऐसा भ्रम हो गया कि श्री स्वामी जी महाराज के आखिरी दिनोंवाले प्रवचन (व्याख्यान) ही लाभदायक है, पहलेवाले इतने नहीं; क्योंकि उन्होंनेे कहा था कि अब व्याख्यान नहीं दूँगा, सत्संग की बात बताऊँगा। इसलिये वो पुराने(पहलेवाले) प्रवचन नहीं सुनते; परन्तु यह ठीक नहीं है। उनको यह समझना चाहिये कि श्री स्वामी जी महाराज का ऐसा कहने का आशय क्या है? उनको यह भी समझना चाहिये कि व्याख्यान और सत्संग की बात, कल्याण की बात में फर्क क्या है? पहलेवाले और आखिरीवाले व्याख्यानों में फर्क क्या है? बिना समझे पहलेवाले प्रवचनों से वञ्चित रहना ठीक नहीं है। पहलेवाले प्रवचन बहुत बढ़िया और लाभदायक है, कल्याण करनेवाले हैं तथा उनकी आवाज भी साफ है। सुनकर देखें तो सही। जिन्होंने सुना है,उनको बहुत बढ़िया लगे हैं। इसलिये पहलेवाले व्याख्यान भी सुनने चाहिये। इस प्रवचन की बातोंपर विचार करके समझना चाहिये। जैसे "व्याख्यान" और सत्संग की बात" 'निहाल करनेवाली' कल्याण करनेवाली, " आदि]। 

गुरुवार, 24 नवंबर 2022

अपनेको कृपापात्र या अनुयायी लिखवाना अनुचित है

               ।।श्रीहरिः।। 

अपनेको कृपापात्र या अनुयायी लिखवाना अनुचित है

   आज मेरे सामने एक भागवत कथा का पेंपलेट (पन्ना) आया है, जिसमें लिखा हुआ है कि श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज के अनुयायी के श्रीमुख से (भागवत कथा)। 
    यह काम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के सिद्धान्तों के खिलाफ है। ऐसा नहीं करना चाहिये। अपने को श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज का अनुयायी लिखवाना उनकी विचारों के विपरीत है। इसके लिये श्री स्वामी जी महाराज ने साफ मना किया है।
   उनके "मेरे विचार" के पन्द्रहवें सिद्धान्त (विचार) में भी लिखा है कि 
१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये। जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है। उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है। —श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। 
   इसके पहले सिद्धान्त में श्री स्वामी जी महाराज ने लोगों से अपील की है कि कोई ऐसा करता हो तो उसको रोकें- 
१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय । ■ 
  (इससे यह भी समझना चाहिये कि इसको देखकर जो लोग इस काम को रोकते नहीं, उपेक्षा करते हैं या सहन करते हैं, वे भी उचित नहीं कर रहे हैं)
     ये "मेरे विचार" वाले सिद्धान्त श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक "एक संतकी वसीयत" के पृष्ठ संख्या १२ व १३ में भी छपे हुए हैं। 
   एक बार श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के साथ में रहनेवाले एक साधू को सूरत (गुजरात) वालों ने भागवत कथा के लिये बुलवाया और उनके प्रोग्रामवाले पेंपलेट (पन्ने) में (कथाकार को कृपापात्र बताते हुए) श्री स्वामी जी महाराज का नाम छपवा दिया। वो पेंपलेट जब श्री स्वामी जी महाराज के सामने पहुँचा तो उसको देखकर श्री स्वामी जी महाराज जी ने इस काम का भयंकर विरोध किया। फिर वहाँ के (सूरतवाले) लोगों ने वो पेंपलेट बन्द करवा दिया। उस पन्ने को लोगों में बाँटा नहीं। उनको पश्चात्ताप करना पङा। 
   इसलिये ये पेंपलेट भी बन्द होने चाहिये। कथाकार को भी समझाना चाहिये कि आइन्दा ऐसा न करें।  

जय श्रीराम 

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   ऐसे ही एकबार श्री स्वामी जी महाराज के साथ में रहनेवाले किसी सज्जनने अपने (जोधपुरवाले) सत्संग- प्रोग्रामके पत्रक (पैम्पलेट) में लिखवा दिया कि यह आयोजन श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के विशेष अनुग्रहसे हो रहा है। 

   यह बात जब श्री स्वामी जी महाराजके पास पहुँची, तब (दिनांक २८|११|२००२_१५३० बजे- 20021128_1530_QnA वाले प्रवचन में) श्री स्वामी जी महाराजने जोरसे मना किया कि यह मेरा नाम लिखना नहीं चाहिये। कभी नहीं लिखना चाहिये मेरा नाम। इससे मैं राजी नहीं हूँ। बुरा लगता है। मेरेको अच्छा नहीं लगता। भरी सभामें श्री स्वामी जी महाराज बोले कि आप सबको कहता हूँ– कोई भी ऐसा करे तो उसको ना करदो कि नहीं, यह स्वामीजीके कामका नहीं है। मेरेसे बिना पूछे फटकार दो उसको। अनुचित लिखनेवाले अखबारवालोंको मना करना चाहिये। सबको अधिकार है ना करनेका। 

   मैं इतने वर्षोंसे फिरता हूँ; परन्तु सेठजीने कभी मेरेको ओळभा (उपालम्भ) नहीं दिया। मैं सेठजीको श्रेष्ठ मानता हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं है। लेकिन कभी सेठजीने ओळबा नहीं दिया कि आपने ऐसा कैसे लिख दिया। नाम तो कहता सेठजीका ही, आज भी कहता हूँ। सेठजीका कहता हूँ, भाईजीका कहता हूँ [परन्तु कभी ऐसे दुरुपयोग नहीं किया]। कितने वर्ष घूमा हूँ, कभी ओळभा नहीं दिया (सेठजीने)। मैंने ऐसा काम किया ही नहीं, ओळबा क्यों देते कि यह ठीक नहीं किया है। ■ 
[इस प्रकार हमलोगों को इन बातों को समझना चाहिये और कोई महापुरुषों के सिद्धान्त के विपरीत काम करे, तो यथासाध्य रोकने की चेष्टा करनी चाहिये। ] 

शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

पेज और उसकी सत्संग-सामग्री पराये हाथों में चली गई। 

                  ।।श्रीहरिः।।

पेज और उसकी सत्संग-सामग्री पराये हाथों में चली गई।      
             
          
फेसबुक के एक पेज ('सत्संग-संतवणी - परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज' नामक पेज) को किसी ने अपने कब्जे में ले लिया है और अब वो उसपर, उसके स्टेटस पर अश्लील, गन्दी फोटो आदि डाल रहा है, गलत विज्ञापन दे रहा है। यह कार्य पेज की भावनाओं के बिल्कुल विपरीत है, गलत है। 
यह एक प्रकारका अपराध है। अपराध पापसे भी भयंकर होता है। पाप तो फल भोग लेनेपर मिट जाता है, परन्तु अपराध नहीं मिटता है। अपराध तो तभी मिटता है जब [जिसका अपराध किया है] वो स्वयं माफ करदे। और रामायण (रामचरिमा.२|२१८) में लिखा है कि 

सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।। 

जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।। 
                          ■ 
श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक "तित देखूँ तित तूँ" में भी लिखा है– 
जिस तरह भक्तिमें कपट, छल आदि बाधक होते हैं,
उसी तरह भागवत अपराध भी बाधक होता है। भगवान् अपने प्रति किया गया अपराध तो सह सकते हैं, पर अपने भक्तके प्रति किया गया अपराध नहीं सह सकते। देवताओंने
मन्थरामें मतिभ्रम पैदा करके भगवान् रामको सिंहासनपर नहीं बैठने दिया तो इसको भगवान् ने अपराध नहीं माना। परन्तु जब देवताओंने भरतजीको भगवान् रामसे न मिलने देनेका
विचार किया, तब देवगुरु बृहस्पतिने उनको सावधान करते हुए कहा- 
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहि न काऊ ।।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई ॥
लोकहुँ बेद विदित इतिहासा । यह महिमा जानहि दुरबासा ।। 
(मानस, अयोध्या० २१८ | २-३)। 
(साधन-सुधा-सिन्धु पृष्ठ ४३८ से)। 
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ऐसे चित्र देखने हैं या नहीं देखने हैं- ये अब देखनेवाले लोगों के हाथ में है। अगर नहीं देखने हैं तो इनको बन्द करवाने की रिपोर्ट करें और दूसरों से भी करवायें। 
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निवेदक -डुँगरदास राम 
23 सितम्बर 2022 _4:22 

http://dungrdasram.blogspot.com/2022/09/blog-post.html 
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            ।।जय श्रीराम।। 

हे मेरे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं *

बुधवार, 20 जुलाई 2022

चतुर्दश मन्त्र-(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

 
            ।।श्रीहरि।।

 
चतुर्दश मन्त्र-
(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराज)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा प्रकट किया हुआ चतुर्दश मन्त्र- 
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।। 
{राम(१) राम(२) राम(३) राम(४) राम(५) राम(६) राम(७)। राम(८) राम(९) राम(१०) राम(११) राम(१२) राम(१३) राम(१४) }।। 
संकीर्तनमें मन कैसे लगे? 
इसके लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने यह  अटकऴ (युक्ति) बतायी है कि भगवानके गुण और लीलायुक्त नाम जोड़-जोड़कर इस चतुर्दश मन्त्रका कीर्तन करें। जैसे- 
राम राम राम राम राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।। 
आप ही हो एक(१) प्रभु राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
राम राम राम राम राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
सदा(२) ही हो आप प्रभु राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
राम राम राम राम राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
सर्वसमर्थ(३) प्रभु राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
राम राम राम राम राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
परम सर्वज्ञ(४) प्रभु राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
राम राम राम राम राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
सर्वसुहृद(५) प्रभु राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
राम राम राम राम राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
सभीके(६) हो आप प्रभु राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
राम राम राम राम राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
सर्व व्यापक(७) प्रभु राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
राम राम राम राम राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
परम दयालु (८)प्रभु राम राम राम। 
राम राम राम राम राम राम राम।। 
राम राम राम राम राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।। 
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श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा (भगवानमें श्रद्धा विश्वास होनेके लिये) बताये गये भगवानके सात*  प्रभावशाली विशेष नाम- 
जब साधक यह स्वीकार करता है कि परमात्मा अद्वितीय है, सदा है, सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है, सर्वसुहृद है, सभीका है और सब जगह है, तब उसकी परमात्मापर स्वत: श्रद्धा जाग्रत हो जाती है। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित 'कल्याणके तीन सुगम मार्ग'नामक पुस्तक (पृष्ठ संख्या ३०) से।  

(ऊपर वाला चतुर्दस नाम-संकीर्तन भी इन्ही नामों के साथ कराया गया है। इसलिये यह विशेष प्रभावशाली है)। 

{जैसे, षोडस- मन्त्र (हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।) में सोलह बार भगवान् का नाम आने के कारण वो षोडस-मन्त्र कहलाता है। ऐसे इस चतुर्दस-मन्त्र (राम राम राम राम राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।) में चौदह बार भगवान् का नाम आने के कारण यह चतुर्दश-मन्त्र कहा गया है}। 
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*जिन दिनोंमें यह पुस्तक लिखी जा रही थी,उन दिनोंमें आठ नाम बताना चाह रहे थे; लेकिन सात ही लिखा पाये। आठवाँ नाम शायद यह था-'परम दयालु' ; क्योंकि कई बार सत्संग-प्रवचनोंमें भी यह नाम लिया करते थे कि सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ और परम दयालु परमात्माके रहते हुए (उनके राज्य में)  कोई किसीको दु:ख दे सकता है? अर्थात् नहीं दे सकता। (इसलिये यहाँ यह आठवाँ नाम भी जोङ दिया गया है)।
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पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज का साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें http://dungrdasram.blogspot.com/

चतुर्दश मन्त्र-
(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराज)।
संकीर्तनमें मन कैसे लगे?
इसके लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने यह  अटकऴ (युक्ति) बतायी है कि भगवानके गुण और लीलायुक्त नाम जोड़-जोड़कर इस चतुर्दश मन्त्रका कीर्तन करें। जैसे-
राम राम राम राम राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
आप ही हो एक(१) प्रभु राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
सदा(२) ही हो आप प्रभु राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
सर्वसमर्थ(३) प्रभु राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
परम सर्वज्ञ(४) प्रभु राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
सर्वसुहृद(५) प्रभु राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
सभीके(६) हो आप प्रभु राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
सर्व व्यापक(७) प्रभु राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
परम दयालु (८)प्रभु राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
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श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा (भगवानमें श्रद्धा विश्वास होनेके लिये) बताये गये भगवानके सात*  प्रभावशाली विशेष नाम-
जब साधक यह स्वीकार करता है कि परमात्मा अद्वितीय है, सदा है, सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है, सर्वसुहृद है, सभीका है और सब जगह है, तब उसकी परमात्मापर स्वत: श्रद्धा जाग्रत हो जाती है। 
'कल्याणके तीन सुगम मार्ग' नामक पुस्तक (पृष्ठ ३०) से।  
(ऊपर वाला चतुर्दस नाम-संकीर्तन भी इन्ही नामों के साथ कराया गया है। इसलिये यह विशेष प्रभावशाली है)। 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

भगवान से मिलन और आनन्द

          ।।श्रीहरिः।।

भगवान् का मिलन और आनन्द-

( जैसे, एक हमारा कोई अत्यन्त प्यारा मित्र हमारे साथ में रहता हो और हम उन्हें पहचानते नहीं हों। पास में रहनेपर भी हम उससे दूर हैं और वो हमारे से दूर है। मिलनेपर भी आनन्द नहीं आता। किसी कारण से अगर हम उसे पहचान लें, तो कितना आनन्द होगा? अपना प्यारा मित्र मिल जायेगा। ऐसे अगर हम भगवान् को पहचान लें, तो कितना आनन्द हो। भगवान् हमारे साथ में ही हैं। हम पहचानते नहीं।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि सब रूपों में भगवान् ही हैं। भगवान् ही संसार के रूप में बने हैं। भगवान् के मनमें आयी कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तो एक ही अनेक हो गये। भगवान् ही संसार बन गये। भगवान् ने संसार बनाया तो संसार को बनाने के लिये मसाला कोई दूसरी जगह से थोङे ही मँगवाया,कोई बिल्टी थोङे ही मँगवाई थी, (आप ही संसार का मसाला बने और आप ही संसार को बनानेवाले बने। इसलिये सबकुछ भगवान् ही हैं। राग-द्वेष के कारण हमारे को भगवान्  भगवान् नहीं दीखते, संसार दीखता है, कोई भला दीखता है, कोई बुरा दीखता है। राग-द्वेष न हो तो भगवान् ही भगवान् दीखेंगे।

इसलिये हमारे को मनुष्य आदि जो भी कुछ दीखते हैं, वे सब भगवान् ही हैं। पशु,पक्षी,वृक्ष, लता, भला,बुरा, गऊ, गधा,चाण्डाल आदि- सभी भगवान् हैं। उनको प्रणाम करें)।

••• क्योंकि भगवान् है। भगवान् के रूप है, अनेक रूप है।
मन्दिर होते हैं, केई तरह के होते हैं मन्दिर। मन्दिर के बनावट सब बराबर थोङी ही होती है। तो ये कोई दो पगों से चलते हैं मनुष्य,  पशु चार पगों से चलते हैं। तो दो थम्बो का मन्दिर है, वो चार थम्बों का मन्दिर है। इसमें ठाकुर जी विराजमान है। ऐसे देखे तो सब जगह भगवान् ही भगवान् दीखे। तो निहाल हो जायेगा।
अरे एक जगह, एक मित्र मिलता है,आणन्द आता है अर सब जगह अपणे इष्टदेव दीखे तो कितना आणन्द होगा उसको? कितनी मौज होगी और अपणे हाथ की बात। इसमें कोई पराधीन नहीं है। इसमें दूसरे के सहारे की जरुरत नहीं है। सत्संग, सत शास्त्र के द्वारा मदद मिलती है; परन्तु इसमें स्वतन्त्र है आदमी। देखणा (देखना) चाहे तो दीख जायेगा। ••• (हमारे प्यारे मित्र, भगवान् मिल जायेंगे,दीख जायेंगे)।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक 19931119_0518 वाले प्रवचन के अंश का यथावत लेखन।)


••• 
भगवान् हैं उनको प्राप्त हुए महात्मा हैं,उनका अनुभव और निर्णय है कि सबकुछ भगवान् ही है- वासुदेवः सर्वम्॰ (गीता ७|१९)। यह उनका अनुभव है, उनका निर्णय है,वो ही सत्य है। अपने को सब वासुदेव ही दीखने लग जाय,  साक्षात् ये परमात्मा ही है, चाहे वह मनुष्य हो, पशु, पक्षी, वृक्ष आदिक हो, चाहे दिवार, पहाङ, समुद्र, नदियाँ हो, अपने को दीखेंगे परमात्मा, सब परमात्मा ही है। तब वो सही, ठीक होवे। ऐसा समझ में न आवे, न दीखे, तो वो आदर करना चाहिये (विश्वास करना चाहिये) भगवान् के और महापुरुषों के वचनों पर। और वास्तव में हमारे को नहीं दीखता, परन्तु  है तो ये ही। ये धारणा है। अनुभव न हो तो भी ऐसी धारणा पक्की रहे कि बात सच्ची वही है। मनुष्य के अभिमान होता है। अभिमानी तो अपने स्वभाव को, अपने अनुभव को विशेष महत्त्व देता है कि परमात्मा है ही नहीं, है तो हमारे को दीखे। हमारे को नहीं दीखते तो परमात्मा है ही नहीं। यह अभिमान की आवाज है। अपने को ज्यादा जानकार मानता है कि मैं समझदार हूँ, जानकार हूँ, हमारे जानने में नहीं आती, वो चीज कैसे है,है ही नहीं। तो उसकी समझ ऊँची बढ़ेगी नहीं, वहीं अटक जायेगा वह। अभिमान जहाँ आया, वहीं उसका पतन हो जाता है, उत्थान नहीं होता।

इसलिये भगवान् के लिये कहा कि ••• अभिमान द्वेषीत्वात् दैन्यं प्रियत्वाच्च। नारद भक्तिसूत्र में आता है कि भगवान् अभिमान से द्वेष रखते हैं। द्वेष का मतलब उससे कोई बैर है, ऐसा नहीं, मानो भगवान् को वो सुहाता नहीं। संसृति मूल सूलप्रद नाना।
सकल सोकदायक अभिमाना।।

अभिमान सब अनर्थों का मूल है। इस वास्ते अनर्थ किसी में हो, अभिमान हो, तो भगवान् को अच्छा नहीं लगेगा,
कारण? कि भगवान् प्राणीमात्र् के परम सुहृद है और जिससे प्राणियों का अहित होता है,वो बात भगवान् को सुहाती नहीं। इससे प्राणियों का अहित हो जायेगा, इस वास्ते उसके साथ द्वेष है, मानो उसको मिटाना चाहते हैं। तो अभिमानी आदमी कहता है कि भगवान् है तो हमारे को दीखे और हमारे को नहीं दीखता है तो भगवान् है ही नहीं। तो यह अभिमान की आवाज है। शास्त्र कहते हैं, संत कहते हैं,भगवान् कहते हैं, भगवत्प्राप्त पुरुष कहते हैं। सही बात वही है। समझ में नहीं आया,हमारे को नहीं दीखता, तो हम समझ नहीं पाये हैं- ऐसा समझने वाला अगाङी बढ़ता ही चला जायेगा; क्योंकि उसने अपनी रुकावट नहीं की,अपना रास्ता खुल्ला कर दिया कि मैं नहीं जानता हूँ,परन्तु परमात्मा नहीं है,यह (बात) नहीं है। वो तो है ही। हमारी जानकारी तो बहुत थोङी है। बहुत जानना बाकी पङा है। हरेक विद्या में हम जावें तो विद्या में अधूरे ही अधूरे हैं, हम जानने में बहुत अधूरे हैं,और जानो,और जानो।

तो सीखी हुई,सुनी हुई, समझी हुई बातों में पूर्णता हमारी नहीं है। जो हमारी बुद्धि में आ ही नहीं सकता, उस विषय में पहले निर्णय कर लेना,यह गलती होती है। भगवान् साकार ही है, निराकार नहीं है,वो निराकार ही है,वो साकार हो ही नहीं सकता है- आदिक ये धारणा है,ये गलत है। ये अभिमान की धारणा है। परमात्मा के विषय में यह कह सकते हैं कि मेरी समझ में यहाँ तक आया है,वे साकार है। अथवा, मेरी समझ में साकार नहीं आता, मेरी समझ में निराकार ही आता है। तो मैं यहाँ तक जानता हूँ। यह बात ठीक है,सरलता की है; परन्तु निराकार है, वो साकार हो ही नहीं सकता। वो ऐसा है। तो भगवान् को एक तरह से असमर्थ समझता है। जैसे अपने को असमर्थ समझे,ऐसे भगवान् भी असमर्थ है। उसमें सामर्थ्य है ही नहीं साकार होने की। तो यह नहीं। तो वासुदेवः सर्वम् ,यह भगवान् ने बहुत विशेष तरह से, बहुत आदर देकर बात कही है। ऐसा महात्मा दुर्लभ है। तो उन महात्माओं का अनुभव है,उसका हम आदर करें। आदर क्या है? कि उसकी धारणा करे कि है तो ऐसा ही,अनुभव नहीं हुआ तो हमारे को नहीं हुआ है,परन्तु है तो यही बात। 

तो ऐसी मान्यता से फिर अनुभव हो जाता है। पहले धारणा करे- है तो परमात्मा ही। हम देख नहीं पाते हैं, हम संसार देख पाते हैं। तो संसार की धारणा मनुष्य ने की है। भगवान् के, महात्माओं के संसार की धारणा नहीं है। (साधक- संजीवनी गीता ७|४-६;)। तो जीव की धारणा में है संसार।  तो ये बात अपने को मान लेनी कि वास्तव में बात यह है। हमको मान लेना चाहिये।

जीव अगर जगत को धारण न करे तो जगत है ही नहीं, परमात्मा ही है। तो जगत की धारणा, अपनी धारणा है यह। ना भगवान् की है,ना महात्माओं की है। तो अपनी धारणा है,उसका सुधार करना है। तो मान लेना पहले कि सबकुछ भगवान् ही है। (फिर भगवान् दीखने लग जायेंगे।)
(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के
19931120_0518 वाले प्रवचन से।)