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मंगलवार, 11 जून 2024

१.अपनी फोटोका निषेध क्यों है?(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज अपनी फोटोका निषेध करते थे)।

                       ।।:श्रीहरि:।।

अपनी फोटोका निषेध क्यों है?

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज अपनी फोटोका निषेध करते थे)। 

(९) अपनी फोटोका निषेध

    आजकल कई लोग श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज का नाम लिखा हुआ एक चित्र (चुपचाप) एक-दूसरेको मोबाइल आदि पर भेजने लग गये हैं। इसमें वे चश्मा लगाये हुए, दाहिने हाथके द्वारा पीछे सहारा लिये हुए और अपने एक (दाहिने) पैर पर दूसरा (बायाँ) पैर रखे हुए तथा घुटनेपर बायाँ हाथ धरे हुए दिखायी दे रहे हैं। उस चित्रके नीचे किसीने नाम लिख दिया कि ये 'रामसुखदास जी महाराज' हैं। लेकिन यह अनुचित है। श्री स्वामी जी महाराज अपने चित्र के लिये मना करते थे।

    ऐसे ही सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका भी अपने चित्र-प्रचार के लिए मना करते थे। श्री सेठ जी ने एक प्रसिद्ध संत से कहा कि आप लोगोंको अपनी फोटो देते हो, इसमें आपका भला है या लोगोंका? सुनकर उनको चुप होना पड़ा, जवाब नहीं आया।

    कहते हैं कि एक बार किसी ने श्री सेठ जी से निवेदन किया कि हम आपका फोटो खींचना चाहते हैं। सुनकर श्री सेठ जी बोले कि पहले मेरे सिरपर जूती बाँध दो और फिर (सिरपर बँधी हुई जूती समेत फोटो) खींच लो। ऐसा जवाब सुनकर फोटो के लिये कहने वाले समझ गये कि इनको अपनी फोटो बिल्कुल पसन्द नहीं है। कोई फोटो लेता है तो इनको कितना बुरा लगता है।

    एक बार श्री स्वामी जी महाराज से किसीने पूछा कि लोगोंको आप अपना फोटो क्यों नहीं देते हैं? कई संत तो अपनी फोटो भक्तोंको देते हैं (और वे दर्शन, पूजन आदि करते हैं) आप भी अगर अपनी फोटो लोगोंको दें, तो लोगोंको लाभ हो जाय। जवाब में श्री स्वामी जी महाराज बोले कि हमलोग अगर अपनी फोटो देने लग जायेंगे तो भगवान् की फोटो बन्द हो जायेगी। (यह काम भगवद्विरोधी है)।

    एक बार किसीने श्री स्वामी जी महाराज को उनके गुरुजी– श्री कन्नीरामजी महाराजकी फोटो दिखायी। वो फोटो श्री स्वामी जी महाराज के बालक– अवस्था के समय की है। उसमें वे अपने गुरुजीके पास खड़े हैं, हाथ जोड़े हुए हैं। उस चित्रको देखकर महाराजजीने निषेध नहीं किया। इस घटनासे कई लोग उस चित्रके चित्रको अपने पासमें रखने लग गये और दूसरोंको भी देने लग गये (कि इस चित्रके लिये श्री स्वामी जी महाराजकी मनाही नहीं है)। उस चित्रके लिये श्री स्वामी जी महाराज ने शायद इसलिये मना नहीं किया कि वो फोटो गुरुजीकी है। इस चित्रके लिये श्री स्वामी जी महाराज ने न तो हाँ कहा और न ना कहा। इसलिये इस चित्रका दर्शन कोई किसीको करवाता है अथवा कोई करने को कहता है तो घाटे-नफेकी जिम्मेदारी स्वयं– उन्हीपर है।

एक दृष्टि से तो यह भी चित्र का प्रचार और उसके लिये प्रोत्साहन ही है। लोगों के मन में श्री स्वामी जी महाराज का चित्र देखने और दिखाने की ही आयेगी, जो कि उचित नहीं है। 

इसलिये अपना भला चाहनेवालों को श्री स्वामीजी महाराज का चित्र न तो अपने पास में रखना चाहिये और न दूसरों को रखने की प्रेरणा देनी चाहिये। दूसरा कोई ऐसा करे तो उसको भी मना करना चाहिये, समझाना चाहिये। 

    कई लोगोंके मनमें रहती है कि हमने श्री स्वामीजी महाराजके दर्शन नहीं किये। अब अगर उनका चित्र भी मिल जाय तो दर्शन करलें। ऐसे लोगोंके लिये तो सत्संगियोंके भी मनमें आ जाती है कि इनको चित्रके ही दर्शन करवादें। इनकी बड़ी लगन है। लेकिन यह उचित नहीं है। अगर उचित और आवश्यक होता तो श्री स्वामीजी महाराज ऐसे लोगोंके लिये व्यवस्था कर देते। चित्र-दर्शनके लिये व्यवस्था करना और करवाना तो दूर, ऐसा करनेवालोंको भी उन्होंने मना कर दिया।। इसलिये यह चित्र-दर्शन करवाना भी उचित नहीं है। अगर उचित या आवश्यक होता तो श्री स्वामी जी महाराज मना क्यों करते? क्या उस समय ऐसे भाववालों की चाहना नहीं थी?

    हमने तो सुना है कि जोधपुरमें किसी सत्संगी ने श्री स्वामी जी महाराज के कई चित्र बनवाकर कई लोगेंको दे दिये। तब श्री स्वामी जी महाराज ने लोगोंसे वे फोटो वापस मँगवाये और उन सब चित्रों को जलाया गया। इसका वर्णन 'विलक्षण संत-विलक्षण वाणी' नामक पुस्तकमें भी है। इसमें श्री स्वामी जी महाराज द्वारा अपनी फोटो-प्रचारके खिलाफ लिखाये गये पत्र भी दिये गये हैं और क्यों महाराजजी वृन्दावनसे जोधपुर पधारे तथा लोगोंको क्या-क्या कहा-इसका भी वर्णन है।

    इस पुस्तकमें 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का जोधपुरमें किये गये 'चित्र-प्रचारका दुख' भी बताया गया है। उसमें यह भी बताया गया है कि यह चित्र- प्रचार नरकोंमें जाने का रास्ता है। श्री स्वामी जी महाराज ने अपनी वसीयतमें भी चित्रका निषेध किया है। निषेध काम को करने से वंश नष्ट हो गया– यह आगेवाले प्रसंग में देखें–

(१०) निषेध (वर्जित) कामको करने से भारी नुकसान, घटना

    श्री स्वामी जी महाराज बताते हैं कि महापुरुषोंके कहनेके अनुसार जो नहीं करता है, तो (आज्ञा न माननेसे) वो उस लाभसे वञ्चित रहता है (दण्डका भागी नहीं होता) परन्तु जिसके लिये महापुरुषोंने निषेध किया है, मना किया है, उस आज्ञाको कोई नहीं मानता है तो उसको दण्ड होता है।

    श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज की पुरानी वसीयत (22 जनवरी 1980_8:30 बजे) की ओडियो रिकॉर्डिंग है। उसमें श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि– (23 मिनट से) ... वही बात आपलोगों से कहता हूँ क आप भी उन संत- महात्माओं की आज्ञा के अनुसार जीवन बनावें, तो इससे लाभ जरूर होगा– इसमें मेरे सन्देह नहीं है। मैंने कई बातें सुणी है, जैसे– शाहपुरा के मुरलीराम जी महाराज थे। हरिपुर में जो थाम्बा है। उन्होंने ऐसा कह दिया कि मेरे पीछे स्मारक और (आदि) मत बणाणा। तो वहाँ के गृहस्थों ने जो कि अग्रवाल थे। उन्होंने चबूतरा बनाया। तो उनका बंश नष्ट हो गया। येह बात मैंने सुणी है, कहाँतक सच्ची है– परमात्मा जानें। . (प्रश्न–) ठीक है? (श्रोता–) ठीक (है)। श्री स्वामी जी महाराज– ये संत– शाहपुरा के कहते हैं कि ठीक है (सही बात है)। (प्रवचनके अंशका यथावत-लेखन).

    (25 मिनट से) मेरे साथ ऐसा अन्याय किया है लोगों ने– छिपकर के चित्र उतारा है, बड़ा अपराध मानता हूँ (यह)। एक पाप होता है, एक अपराध होता है। पाप का डण्ड भोगणे से पाप शान्त हो जाता है, पण (परन्तु) अपराध शान्त नहीं होता। अपराध तो जिसका किया जाय, वो ही अगर क्षमा करे तो हो ज्याता है, नहीं तो बड़ा बज्रपाप होता है, डण्ड होता है। अपराध होता है वो। तो ऐसे मेरे साथ में अन्याय किया है लोगों ने। और उसका अनुमोदन किया है छिप- छिपकर के बहनों और भाइयों ने। तो (वो) बड़ा दोष मानता हूँ। वो ठीक नहीं है। अर (और) मेरे साथ ऐसा अन्याय करणा नीं (नहीं) चाहिये। उससे लाभ के बदले हानि की सम्भावना है। (प्रवचनके अंशका यथावत-लेखन).

    भक्त का अपराध भगवान् भी नहीं सहते। श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक ‘जित देखूँ तित तू’ में लिखा है कि–

    जिस तरह भक्तिमें कपट, छल आदि बाधक होते हैं, उसी तरह भागवत – अपराध भी बाधक होता है। भगवान् अपने प्रति किया गया अपराध तो सह सकते हैं, पर अपने भक्तके प्रति किया गया अपराध नहीं सह सकते। देवताओंने मन्थरामें मतिभ्रम पैदा करके भगवान् रामको सिंहासनपर नहीं बैठने दिया तो इसको भगवान् ने अपराध नहीं माना । परन्तु जब देवताओंने भरतजीको भगवान् रामसे न मिलने देनेका विचार किया, तब देवगुरु बृहस्पतिने उनको सावधान करते हुए कहा-

सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥ 

जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।

लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।

(मानस, अयोध्या० २१८ २-३ )

    शंकरजी भगवान् रामके ‘स्वामी’ भी हैं, ‘दास’ भी हैं और ‘सखा’ भी हैं—‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ (मानस, बाल० १५ । २) । इसलिये शंकरजीसे द्रोह करनेवालेके लिये भगवान् राम कहते हैं—

सिव द्रोही मम भगत कहावा । सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥

संकर बिमुख भगति चह मोरी । सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥

संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास ।

ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ॥ (मानस, लंका० २।४, २)

    अतः साधकको इस भागवत अपराधसे बचना चाहिये।(‘जित देखूँ तित तू’, पृष्ठ २३,२४;)।

महापुरुषों ने चित्र के लिये मना किया है । इसलिये उनके चित्र का प्रचार न करें ।

    इस प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज ने जिस वस्तु को पूजा अथवा स्मृतिरूप में रखने के लिये मना किया है, वो न रखें। किसी वस्तु, स्थान, कमरा, स्टेज आदि को इस प्रकार महत्त्व न दें जिससे लोगों को स्मृतिरूप में रखने आदि की प्रेरणा मिले। दूसरे लोग ऐसी भूल करे तो उनको भी प्रेम से समझाने की कोशिश करें। 

('महापुरुषोंकी बातें और कहावतें' नामक पुस्तक से)

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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