॥श्रीहरिः॥
भगवान के दर्शन की बात।
(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।
एक बालक ने श्रध्देश्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज से पूछा कि आपको भगवान के दर्शन हुए हैं क्या?
जवाब देते हुए तर्क की मुद्रा में श्री स्वामीजी महाराज बोले कि तुम अपना खजाना बताते हो क्या?
बालक समझ भी नहीं पाया और बोल भी नहीं पाया कि अब क्या कहना चाहिये। फिर किसीने बालक को वहीं रोक दिया।
श्री स्वामीजी महाराज का कहना है कि 'जब लोग अपने लौकिक धन को भी (हरेक को) बताना नहीं चाहते, बताने योग्य नहीं समझते, तो फिर अलौकिक धन, पारमार्थिक खजाना (भगवान् के दर्शन आदि ) बताने योग्य है! अर्थात् हरेक को बताने योग्य नहीं है।'
लोगों को अगर कह दिया जाय कि हाँ मेरे को भगवान के दर्शन हुए हैं तो लोगों के जँचेगी नहीं, उलटे तर्क पैदा होगा। दोषदृष्टि करेंगे। (इससे उनका नुक्सान होगा)।
(लोगों को बताने से विघ्न बाधाएँ भी आती है-)।
सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ने कहा है कि भक्त प्रह्लाद की भक्ति में इतनी बाधाएँ इसलिये आयीं कि उन्होंने भक्ति को (लोगों के सामने) प्रकट कर दिया था। (अगर प्रकट न करते तो इतनी बाधाएँ नहीं आतीं)।
श्री सेठजी ने भी गुप्त रीति से ही साधन किया है और सिद्धि पायी है।
चूरू की हवेली के ऊपर कमरे में उनको चतुर्भुज भगवान विष्णु के दर्शन हुए थे।
श्री स्वामीजी महाराज ने वहाँ पधार कर वो जगह बताई थी कि यहाँ श्री सेठजी को भगवान के दर्शन हुए थे।
श्री सेठजी मुँह पर चद्दर ओढ़े सो रहे थे उस समय भगवान् ने दर्शन दिये। कह, ऊपर चद्दर ओढ़ी होने पर भी भगवान दिखलायी कैसे पड़ रहे हैं?
उन्होंने चद्दर हटा कर देखा तो भगवान वैसे ही दिखाई दिये , जैसे चद्दर के भीतर से (साफ) दीख रहे थे। बीच में चद्दर की आड़ होने पर भी भगवान के दीखने में कोई फर्क नहीं पड़ा।
श्री सेठजी कहते हैं कि ऐसे चाहे बीच में पहाड़ भी आ जाय तो भी भगवान के दीखने में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
यह बात प्रसिद्ध है कि श्री सेठजी ने कई लोगों की मौजूदगी में भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार को भगवान् के दर्शन करवाये थे।
भाईजी से जब कहा गया कि भगवान के चरण पकड़ो। तब उन्होंने चरण पकड़ने के लिये हाथ बढ़ाये , तो वो हाथ श्री सेठजी के चरणों में गये।
(कई लोगों के मन में जिज्ञासा रहती है कि ऐसे ही श्री स्वामीजी महाराज को भी भगवान् के दर्शन हुए थे क्या?
उनके लिये ये बातें काम की है) ।
आज ही एक पुराने सत्संगी सज्जन बोले कि श्री स्वामीजी महाराज ने मेरे सामने बताया है कि श्री सेठजी ने स्वामीजी महाराज से कहा कि आप अपनी भगवत्प्राप्ति (वाली सिद्धि) लोगों में प्रकट न करें तो अच्छा रहेगा ; क्योंकि (अयोग्य) लोग पीछे पड़ जाते हैं कि मेरे को भी करवादो, हमारे को भी भगवान के दर्शन करवादो आदि आदि।
(मेरे को जो भगवान के दर्शन हुए थे उसको) मैंने प्रकट कर दिया था जिसके कारण मेरे को भी मुश्किल का सामना करना पड़ा। अस्तु।
अपने को साधक मानने में हानि नहीं है , हानि तो सिद्ध मानने में है। अपने को सिद्ध मानने में बहम भी हो सकता है पर साधक मानने में क्या बहम होगा।
जो अपने को साधक मानता है वह उन्नति करता ही चला जाता है (सिद्ध मानकर रुकता नहीं कि अब मेरे को क्या करना है,जो करना था सो तो कर लिया)।
श्री सेठजी ने कहा है (इतने महान होकर भी) स्वामीजी अपने को साधक ही मानते हैं। (यह इनकी विशेषता है)।
इस प्रकार पारमार्थिक लाभ गोपनीय रखने में ही फायदा है। ऐसे अधिकारी मिलने दुर्लभ हैं जिनको ऐसी रहस्य की बातें बतायी जायँ।
अधिकारी को तो महापुरुष अत्यन्त गोपनीय रहस्य भी बता देते हैं-
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।
रामचरितमा.७। ६९(ख)।।
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