गुरुवार, 5 जनवरी 2017

गीताजी का अवतार किसलिये हुआ? (- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                     ॥श्रीहरिः॥

गीताजी का अवतार किसलिये हुआ?

(- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) ।

■♧  गीता का खास लक्ष्य  ♧■

गीता किसी वादको लेकर नहीं चली है अर्थात् द्वैत,अद्वैत,विशिष्टाद्वैत,द्वैताद्वैत,विशुध्दाद्वैत,अचिन्त्यभेदाभेद आदि किसी भी वाद को ,किसी एक सम्प्रदाय के किसी एक सिध्दान्त को लेकर नहीं चली है। गीता का मुख्य लक्ष्य यह है कि मनुष्य किसी भी वाद,मत,सिध्दान्तको माननेवाला क्यों न हो,उसका प्रत्येक परिस्थितिमें कल्याण हो जाय,वह किसी भी परिस्थितिमें परमात्मा से वंचित न रहे;क्योंकि जीवमात्रका मनुष्ययोनिमें जन्म केवल अपने कल्याणके लिये ही हुआ है। संसार में ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है,जिसमें मनुष्यका कल्याण न हो सकता हो। कारण की परमात्मतत्त्व  प्रत्येक परिस्थितिमें समानरूप से विद्यमान है । अत: साधक के सामने कोई भी और कैसी भी परिस्थिति आये,उसका केवल सदुपयोग करना है। सदुपयोग करने का अर्थ है - दु:खदायी परिस्थिति आनेपर सुखकी इच्छाका त्याग करना; और सुखदायी परिस्थिति आने पर सुखभोग का तथा  ' वह बनी रहे ' ऐसी इच्छाका त्याग करना और उसको दूसरों की सेवामें लगाना । इस प्रकार सदुपयोग करनेसे मनुष्य दु:खदायी और सुखदायी - दोनों परिस्थितियोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है।

       सृष्टिसे पूर्व परमात्मामें  'मैं एक ही अनेक रूपों में हो जाऊँ ' ऐसा संकल्प हुआ | इस संकल्पसे एक ही परमात्मा  प्रेमवृध्दि की लीला के लिये, प्रेमका आदान-प्रदान करने के लिये स्वयं ही श्रीकृष्ण और श्रीजी (श्रीराधा)- इन दो रूपों में प्रकट हो गये | उन दोनोंने परस्पर लीला करने के लिये एक खेल रचा । उस खेल के लिये प्रभु के संकल्प से अनन्त जीवों की ( जो कि अनादिकाल से थे ) और खेलके पदार्थों -(शरीरादि-) की सृष्टि हुई । खेल तभी होता है, जब दोनों तरफके खिलाड़ी स्वतन्त्र हों । इसलिये भगवान् ने जीवों को स्वतन्त्रता प्रदान की । उस खेलमें श्रीजीका तो केवल  भगवान् की तरफ ही आकर्षण रहा, खेल में उनसे भूल नहीं हुई । अत: श्रीजी और भगवान् में प्रेमवृध्दिकी लीला हुई । परन्तु दूसरे जितने जीव थे, उन सबनें भूलसे संयोगजन्य सुखके लिये खेल के पदार्थों-(उत्पत्ति-विनाशशील प्रकृतिजन्य पदार्थों - ) के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया,जिससे वे जन्म-मरणके चक्कर में पड़ गये ।

            खेलके पदार्थ केवल खेलके लिये ही होते हैं, किसीके व्यक्तिगत नहीं होते।  परन्तु वे जीव खेल खेलना तो भूल गये और मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके खेल के पदार्थों को अर्थात् शरीरादिको व्यक्तिगत मानने लग गये । इसलिये वे उन पदार्थोंमें फँस गये और भगवान् से सर्वथा विमुख हो गये । अब अगर वे जीव शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंसे विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जायँ, तो वे जन्म-मरणरूप महान् दु:खसे सदाके लिये छूट जायँ । अत: जीव संसार से विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जायँ और भगवान् के साथ अपने नित्य योग-( नित्य सम्बन्ध -) को पहचान लें -इसीके लिये भगवद्गीता का अवतार हुआ है।

"साधक-संजीवनी (लेखक-
श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)" ,
"प्राक्कथन" ("गीता का खास लक्ष्य"
नामक  विभाग) से।

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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें।

                        ॥श्रीहरि:॥

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें।

××× ने बताया कि दि. 7-6-2001 के 4 बजे वाले प्रवचन में संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने की गर्ज की गयी है,सो उनका यह कहना गलत है।

क्योंकि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का यह 20010607_1600_Sab Kuch Bhagwan Ka Bhagwan Hi Hai_VV

प्रवचन मैंने सुना है।इस पूरे प्रवचन में कहीं भी संत श्री शरणानन्दजी महाराज का नाम नहीं लिया गया है।
(और दिनांक 19911215_0518_Jaane Hue Asat Ka Tyag वाला प्रवचन भी सुना है।इसमेंभी नाम नहीं लिया गया है)।

इसमें न तो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने के लिये गर्ज की गयी है और न अपनी बात मनवाने के लिये।

और ये गर्ज की बातें भी तब कही गयी है कि जब कोई व्यक्ति बीच में उठ गया।

इस में यह दृष्टि नहीं है कि तुम संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मानो।

इस प्रवचन में जो तीन बातें बतायी गयी है,उसकी तरफ ध्यान न देकर कोई बीच में ही उठ गया तब सुनने की प्रार्थना की गयी और फटकार भी लगायी गई है।

तीन प्रकार की धारणा वाली बातें इस प्रकार कही गयी- 
1-
सब कुछ भगवान का है
2-
सब कुछ भगवान ही हैं और
3-
इससे आगे वाली बात का वर्णन नहीं होता।
इनको स्वीकार कर लेने का बहुत बड़ा माहात्म्य भी बाताया। 

यहाँ परम श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का कहना है कि मेरे मनमें जो अच्छी बातें हैं, मार्मिक बातें हैं,वो कहता हूँ मैं  और (आप लोग) सुनते ही नहीं। उठकर चल देते हैं; शर्म नहीं आती।

यहाँ  सुन लेने का तात्पर्य है, श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने तात्पर्य नहीं है। अगर होता तो उनका नाम लेकर साफ-साफ भी कह सकते थे।

इतना होते हुए भी  ××× का आग्रह अगर अनुचित ढंग से प्रचार करने का हो गया है तो इसका परिणाम भी समय बतायेगा।

इससे पहले वाला लेख यहाँ देखें-

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें। http://dungrdasram.blogspot.in/2016/12/blog-post.html?m=1

और यह भी देखें-

संतों के प्रति मनगढन्त बातें न फैलाएं।
http://dungrdasram.blogspot.in/2017/07/blog-post.html?m=1

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें।

                     ॥श्रीहरिः॥

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें।

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी  महाराज के नाम के सहारे संत श्रीशरणानन्दजी महाराज का अनुचित ढंग से प्रचार न करें)। 

[आज कल कुछ ऐसे लोग देखने में आते हैं जो लोभ के कारण संतों की वाणी का भी दुरुपयोग कर देते हैं।

(और कई ऐसे लोग भी देखने में आते हैं कि उस दुरुपयोग को देखकर भी कुछ प्रतिकार नहीं करते,असत का प्रचार होने देते हैं और सहते रहते हैं)।

जो लोग वास्तविकता से परिचित नहीं है वो ही ऐसी बातें कहते हैं और सुनते हैं तथा बिना जाने प्रचार भी कर देते हैं। उन लोगों से कहना है कि कृपया यह लेख पढ़ें-]

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी की कभी-कभी बड़ी प्रशंसा कर देते थे।

उन बातों को लेकर कई जने संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी का प्रचार करते हुए यह दिखाने लग गये कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज (जो कि इतने महान हो गये हैं वो) इनकी वाणी से ही हुए हैं(उनको तत्त्वज्ञान इनकी वाणी से ही हुआ है)। जबकि वास्तविक बात यह नहीं है।

(और इस प्रकार की कई ऐसी-ऐसी बातें भी लिखने और पढ़ने लग गये कि जो बड़ी अनुचित है तथा झूठी है। वो बातें यहाँ लिखना उचित नहीं लगता)।

यह बात प्रसिद्ध है कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज शुरु में ही गीताप्रेस के संस्थापक  सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के पास आये और जब तक उनका शरीर रहा तब तक उनके साथ ही रहे और वहीं उनको वो लाभ प्राप्त हुआ जिस लाभ की प्राप्ति होनेके बाद कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।

संत श्री शरणानन्दजी महाराज का तो परिचय ही बहुत देरी से हुआ था।

(संत श्री शरणानन्दजी महाराज भी सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका को 'पिताजी' कहते थे)।

ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज को जो प्राप्ति हुई, जो लाभ हुआ वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी से हुआ।

जो लोग वास्तविकता से परिचित नहीं है वो ही ऐसी बातें कहते हैं और सुनते हैं तथा बिना जाने प्रचार भी कर देते हैं। उन लोगों से कहना है कि कृपया वास्तविक बात को समझें

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज किसी व्यक्ति के अनुयायी नहीं थे,वो तत्त्व के अनुयायी थे। यह बात " "मेरे विचार"(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)" नामक लेख के तीसरे सिद्धान्त में उन्होंने स्वयं लिखवायी है

यथा-

★-: मेरे विचार :-★

( श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक त्तत्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा त्तत्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग...

http://dungrdasram.blogspot.in/2014/07/blog-post_0.html?m=1
...

×××
आप जिस ढंग से श्री स्वामीजी महाराज का नाम लेकर लिखते हो,उससे ऐसा लगता है कि श्री स्वामीजी महाराज को जो प्राप्ति हुई है वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की पुस्तकों से ही हुई है और वे उनसे ही सीखे हैं,उनके अनुयायी हैं, आदि; परन्तु ऐसी बात है नहीं।

यह उन महापुरुषों की महानता है कि वे अपनी बातकी प्रशंसा न करके दूसरों को आदर देते हैं और उनकी प्रशंसा कर देते हैं। संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बुद्धि की प्रशंसा कर देते हैं।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज तो गीता,रामायण भागवत आदि की भी बड़ी प्रशंसा करते हैं और इनसे लाभ होने की बात भी कहते हैं।

इसी प्रकार संत श्री तुलसीदासजी महाराज, कबीरदासजी महाराज, सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका और मीराँबाई आदि संतों की भी वे प्रशंसा करते हैं और उनसे लाभ होने की बात बताते हैं।

फिर सिर्फ एक संत श्री शरणानन्दजी महाराज की प्रशंसा की बातों को लेकर ही उनके अनुयायी या उनसे ही लाभ लेने वाले बाताना कहाँ तक उचित है?।

उचित की तो बात ही क्या यह अनुचित है और इससे कई लोगों को आपत्ति है।

इस प्रकार का प्रचार तो स्वयं संत श्रीशरणानन्दजी महाराज को भी पसन्द नहीं  होता जिसमें अपनी वाणी के प्रचार के लोभ से श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज को एक साधारण आदमी की तरह उनसे लाभ लेने वाला बताया गया हो।

कृपया इस प्रकार संतों के अपराध से बचें। ऐसा न हो कि आप लाभ के भरोसे अपनी हानि करलें।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के सत्संग प्रेमियों को आपका ऐसा लिखना अखरता है। अतः उनके तकलीफ के कारण आप न बनें। 

इसका अर्थ यह नहीं है कि हम संत श्रीशरणानन्दजी महाराज की वाणी का प्रचार नहीं चाहते।

हमने तो खुद उनकी पुस्तकें लोगों को दी है ; परन्तु आप जिस प्रकार उनकी वाणी-प्रचार के लोभ से श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का दर्जा घटाते हो,यह हमें स्वीकार नहीं है और लोगों को भी यह बुरा लगता है।

हम आपके हित की सलाह देते हैं कि अब आइन्दा ऐसा न करें।

कृपया यह भी पढ़ें-

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें। http://dungrdasram.blogspot.in/2016/12/blog-post_16.html?m=1 

महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें - http://dungrdasram.blogspot.in/2014/01/blog-post_17.html?m=1

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

लेखक का नाम हटाना या बदलना अपराध है(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लेखों और बातों से उनका नाम हटाना अपराध है तथा उनका नाम दूसरों की बातों में जोड़ना भी अपराध है)।

                         ॥श्रीहरि:॥

लेखक का नाम हटाना या बदलना अपराध है।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लेखों और बातों से उनका नाम हटाना अपराध है तथा उनका नाम दूसरों की बातों में जोड़ना भी अपराध है)।

आजकल कई लोग श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के नाम की आड़ में दूसरों की बातें लिख देते हैं और

कई-कई तो अपने मन से, अपनी समझ की (मन  गढन्त) बात लिख कर उस पर नाम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का लिख देते हैं कि यह बात उनकी है।

सज्जनों! यह बड़ा भारी अपराध है और झूठ है।

इस प्रकार झूठी बातें लिखने से उन बातों पर से लोगों का विश्वास हट जाता है और ऐसी झूठी बातों के कारण कभी- कभी सच्ची बातों पर भी विश्वास नहीं होता।

इससे सत्य बात के भी आड़ लग जाती है और उस पर लोगों का विश्वास नहीं रहता ( जो लोगों के कल्याण की सामग्री में बड़ा भारी नुकसान है)। 

अब यह पता कैसे चले कि यह बात वास्तव में श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की ही है या किसी ने अपने मन से गढ़ कर लिख दी और उस पर नाम श्री स्वामीजी महाराज का लिख दिया।

सन्देह हो जाने पर उस पर विश्वास कैसे किया जायेगा?  विश्वास तो तभी होगा न जब कि उस पर कोई  पुस्तक के लेख या प्रवचन की तारीख का प्रमाण लिखा हुआ हो। 

विश्वास करने लायक बात वही है जो किसी पुस्तक के लेख या तारीख सहित प्रवचन से लेकर लिखी गयी हो, अथवा स्वयं उनके श्रीमुख से सुनी गयी हो।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के जिन लेखों और बातों में किसी पुस्तक या प्रवचन आदि का प्रमाण लिखा हुआ नहीं हो, तो वो हमें स्वीकार नहीं है)। 

जिस बात या लेख में लेखक का नाम दिया गया हो,कृपया उसको हटावें नहीं और उस लेखक की जगह दूसरे लेखक का नाम भी न देवें। लेखक का नाम हटाना अपराध है।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लेखों और बातों से उनका नाम हटाना अपराध है और दूसरों की बातों में या अपनी बातों में उनका नाम जोड़ना भी अपराध है, जो कि पाप से भी भयंकर है।

(ऐसे ही कई लोग उनके रिकोर्डिंग प्रवचन में से उस प्रवचन की तारीख और श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज का नाम हटा देते हैं।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की रिकोर्डिंग वाणी में से उस प्रवचन की तारीख हटाना उनका वचन भंग करना है; क्योंकि यह प्रवचन के साथ तारीख रिकोर्ड करके जोड़ने वाली व्यवस्था श्री स्वामीजी महाराज ने ही करवायी थी जिससे कि अगर ऊपर तारीख लिखने में भूल भी हो जाय तो भीतर (रिकोर्डिंग के साथ तारीख जुड़ी होने से) सही तारीख का पता लग जाय। 

(मेरे (डुँगरदास राम के) सामने की बात है कि श्री महाराज जी से पूछा गया कि प्रवचन की कैसेटों पर लिखी हुई तारीख कभी-कभी साफ नहीं दीखती है। मिट भी जाती है। लिखने में भी भूल से दूसरी तारीख लिख दी जाती है। ऐसे में सही तारीख का पता कैसे लगे? इसके लिये क्या करें?

तब श्री महाराज जी बोले कि प्रवचन के साथ ही (भीतर में) रिकोर्ड करदो। (तब विशेषता से ऐसा किया जाने लगा, ध्यान रखा जाने लगा )।

ऐसे ही श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के उस प्रवचन में से उनका नाम भी नहीं हटाना चाहिये)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि एक तो होता है पाप और एक होता है अपराध।

अपराध पाप से भी भयंकर होता है। पाप तो उसका फल भुगतने से मिट जाता है; परन्तु अपराध नहीं मिटता।

अपराध तो तभी मिटता है कि जब वो (जिसका अपराध किया गया है वो) स्वयं माफ करदे।

अधिक जानने के लिये कृपया नीचे दिये गये पते वाला यह लेख पढ़ें -

संत-वाणी यथावत् रहने दें,संशोधन न करें|('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की वाणी और लेख यथावत्  रहने दें,संशोधन न करें)।
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शनिवार, 12 नवंबर 2016

"बात पते की" होनी चाहिये-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की बातों के साथ प्रमाण लिखा हुआ होना चाहिये।

                     ॥श्रीहरिः॥

"बात पते की " होनी चाहिये-

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की बातों के साथ प्रमाण लिखा हुआ होना चाहिये)।

आजकल कई लोग श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के नाम की आड़ में दूसरों की बातें लिख देते हैं और

कई-कई तो अपने मन से, अपनी समझ की बात लिख कर उस पर नाम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का दे देते हैं कि यह बात उनकी है।

सज्जनों! यह बड़ा भारी अपराध है, झूठ है।

इससे सत्य बात के भी आड़ लग जाती है और उस पर लोगों का विश्वास नहीं रहता ( जो कि लोगों के कल्याण की सामग्री में बड़ा भारी नुकसान है)। 

विश्वास करने लायक बात वही है जो किसी पुस्तक या प्रवचन से लेकर लिखी गयी हो, अथवा स्वयं उनके श्रीमुख से सुनी गयी हो।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के जिन लेखों और बातों में किसी पुस्तक या प्रवचन आदि का प्रमाण लिखा हुआ नहीं हो, तो वो हमें स्वीकार नहीं है)। 

जिस बात या लेख में लेखक का नाम दिया गया हो,कृपया उसको हटावें नहीं और उस लेखक की जगह दूसरे लेखक का नाम भी न देवें। लेखक का नाम हटाना अपराध है।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लेखों और बातों से उनका नाम हटाना अपराध है और दूसरों की बातों पर या अपनी बातों पर उनका नाम जोड़ना (कि यह बात उनकी है) भी अपराध है, जो कि पाप से भी भयंकर है।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि एक तो होता है पाप और एक होता है अपराध।

अपराध पाप से भी भयंकर होता है। पाप तो उसका फल भुगतने से मिट जाता है; परन्तु अपराध नहीं मिटता।

अपराध तो तभी मिटता है कि जब वो (जिसका अपराध किया है वो) स्वयं माफ करदे।

अधिक जानने के लिये कृपया नीचे दिये गये पते वाला यह लेख पढ़ें -

संत-वाणी यथावत रहने दें,संशोधन न करें|('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' की वाणी और लेख यथावत रहने दें,संशोधन न करें)।
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सोमवार, 7 नवंबर 2016

महापुरुषों के मुख से भगवान विचित्र बातें बोलाते हैं-(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                     ॥श्रीहरिः॥


महापुरुषों के मुख से भगवान विचित्र बातें बोलाते हैं-

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

तारीख 19940118_0900_Bhagwaan  Aur Bhakt Ki Vaani Ki Vilakshanta. नाम वाले प्रवचन में श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने बताया
कि उनके मुखसे भगवान विचित्र बातें कहला देते हैं। अथवा,यों कहो कि उनके श्रीमुखसे भगवान बोल जाते हैं।

उनके यह अभिमान नहीं है कि ये विलक्षण बातें मैं बता रहा हूँ।

कृपया उस प्रवचन का कुछ अंश पढ़ें-

...तो आपलोग अपने को पात्र समझें यह तो भाई! आप तो आप समझें।

मैं तो अपने को इतना पात्र समझता नहीं हूँ । मैं अपनी योग्यता ऐसी नहीं समझता हूँ ।

भगवान की कृपा से वो शक्ति आती है। मैंने कई वार (बार) ऐसी बातें देखी है। केवल मैं कोरी मान्यता से कहता हूँ - ऐसी बात नहीं है।

हमने, कभी-कभी की बात है (कि) विचार किया कि आज बढ़िया बातें कहूँगा। (और वो समय पर नहीं आयीं)  नहीं आती है बढ़िया बातें। आतीं (ही) नहीं , जोर लगाते हैं।

और देखते हैं भाई ! कि क्या कहें! अब क्या बोलें? ऐसा कहते हैं तो विचित्र बातें आतीं है (जिससे) मेरे को आश्चर्य आता है और भाई बहन , सुनने वाले आश्चर्य चकित होते हैं।

तो वहाँ अपनी शक्ति नहीं है, अपनी विद्वत्ता नहीं है। अपनी विद्वत्ता (मानने से) तो अभिमान होगा।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के

"19940118_0900_Bhagwaan Aur Bhakt Ki Vaani Ki Vilakshanta". नामक प्रवचन का अंश, यथावत॥

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शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

साधक-संजीवनी सप्ताह। लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। पन्ना २ (पृष्ठ २ और ३)।

॥श्रीहरिः॥


गीता साधक-संजीवनी सप्ताह 

(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) 

प्रिय भक्तजनों ! 

परम पिता परमेश्वर के मड़्गलमय विधान एवं सन्त-महात्माओं की असीम अनुकम्पा से संत श्रीडूँगरदासजी महाराज का ग्राम मण्डावरा, जिला सीकर (राजस्थान,भारत) में "गीता साधक-संजीवनी सप्ताह" (४ से ५ बजे) का आयोजन होने जा रहा है। 

अत: इस आयोजन में सपरिवार एवं इष्ट मित्रों सहित पधार कर सत्संग का लाभ उठावें।

------------नित्य कार्यक्रम ---------------

नित्य-स्तुति व सत्संग-प्रवचन 

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की वाणी द्वारा)  :- 

प्रात:५.०० बजे से लगभग ६.०० बजे।

गीता साधक-संजीवनी 

(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)  

सत्संग समय :-

 दोपहर ३.०० बजे से लगभग ५.०० बजे।

विशेष-

 1. कार्यक्रम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की सूचना सत्संग के समय दे दी जायेगी।

2. बाहर से पधारने वाले सत्संगियों के लिये आवास एवं भोजन की यथासाध्य व्यवस्था रहेगी।

-: अनुरोध :-  

कृपया (इस के आगे वाले दूसरे पन्ने पर) श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लिखे "मेरे विचार" अवश्य पढ़ें तथा दूसरों को भी पढावें। 

-

★-: मेरे विचार :-★

( श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक त्तत्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा त्तत्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी) ही साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी । गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ ।

६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने,जय-जयकार करने,माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ ।

७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ ।

८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ ।

९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।

१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्व देता हूँ ।

११. रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।

१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है ।

१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ ।

१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।

----श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

ये (मेरे विचार) ''एक संतकी वसीयत'' (प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२,१३ ) में भी छपे हुए  हैं।
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इस "मेरे विचार" वाले पन्ने को अलग करके (काटकर) जीवन भर अपने पास रख सकते हैं। 

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पता-
सत्संग-संतवाणी. 
श्रध्देय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराजका
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