मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

गीता ग्रंथका सार (श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित- गीता "साधक-संजीवनी" पर आधारित)।

                      ||श्रीहरि:||

◆गीता-सार◆

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित गीता "साधक-संजीवनी" ग्रंथ पर आधारित)।

अध्याय
१. सांसारिक मोहके कारण ही मनुष्य 'मै क्या करूँ और क्या नहीं करूँ'---इस दुविधामें फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अतः मोह या सुखासक्तिके वशीभूत नहीं होना चाहिए ।

२. शरीर नाशवान है और उसे जाननेवाला शरीरी अविनाशी है ---इस विवेकको महत्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करना ---इन दोनोंमेसे किसी भी एक उपायको काममें लानेसे चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।

३. निष्कामभावपूर्वक केवल दुसरोके हितके लिये अपने कर्तव्यका  तत्परतासे पालन करनेमात्रसे कल्याण हो जाता है।

४. कर्मबन्धनसे छूटनेके दो उपाय है--कर्मो के तत्त्व को जानकर निःस्वार्थभावसे कर्म करना और तत्त्वज्ञानका अनुभव करना।

५. मनुष्यको अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितियोंके आने पर सुखी -दुःखी नही होना चाहिये; क्योंकि इनसे सुखी-दुःखी होनेवाला मनुष्य संसारसे ऊँचा उठकर परम् आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता।

६.  किसी भी साधनसे अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये। समता आये बिना मनुष्य सर्वथा निर्विकार नहीं हो सकता ।

७. सबकुछ भगवान् ही हैं---ऐसा स्वीकार कर लेना सर्वश्रेष्ठ साधन है।

८. अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार ही जीवकी गति होती है। अतः मनुष्यको हरदम भगवान् का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये, जिससे अन्तकालमें भगवान् की स्मृति बनी रहे ।

९. सभी मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, वेश आदिके क्यों न हों।

१०. संसारमें जहाँ भी विलक्षणता, विशेषता, सुन्दरता, महत्ता, विद्वत्ता, बलवत्ता आदि दीखे, उसको भगवान् का ही मानकर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिये।

११.  इस जगत् को भगवानका ही स्वरूप मानकर प्रत्येक मनुष्य भगवान के विराटरूपके दर्शन कर सकता है।

१२. जो भक्त शरीर -इन्द्रियाँ - मन  बुद्धि-सहित अपने-आपको भगवान के अर्पण कर देता है, वह भगवान को प्रिय होता है।

१३. संसारमें एक परमात्मतत्त्व ही जाननेयोग्य है। उसको जाननेपर अमरताकी प्राप्ति हो जाती है।

१४. संसार - बन्धनसे छूटनेके लिये सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंसे अतीत होना जरूरी है।  अनन्य भक्तिसे मनुष्य इन तीनो गुणोंसे अतीत हो जाता है।

१५.  इस संसार का मूल आधार और अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही हैं---ऐसा मानकर अनन्यभावसे उनका भजन करना चाहिये।

१६.  दुर्गुण- दुराचारोंसे ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाता है  और दुःख पाता है। अतः जन्म - मरणके चक्रसे छूटनेके लिये दुर्गुण- दुराचारोंका त्याग करना आवश्यक है।

१७.  मनुष्य श्रद्धापूर्वक जो भी शुभ कार्य करे, उसको भगवान का स्मरण करके, उनके नामका उच्चारण करके ही आरम्भ करना चाहिये ।

१८.  सब  ग्रन्थोका सार वेद हैं, वेदोंका सार उपनिषद् हैं, उपनिषदोंका सार गीता है और गीताका सार भगवान् की शरणागति है। जो अनन्यभावसे भगवान की शरण हो जाता है, उसे भगवान सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं ।

-- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की पुस्तक- "सार-संग्रह" से।

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गुरुवार, 5 जनवरी 2017

गीताजी का अवतार किसलिये हुआ? (- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                     ॥श्रीहरिः॥

गीताजी का अवतार किसलिये हुआ?

(- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) ।

■♧  गीता का खास लक्ष्य  ♧■

गीता किसी वादको लेकर नहीं चली है अर्थात् द्वैत,अद्वैत,विशिष्टाद्वैत,द्वैताद्वैत,विशुध्दाद्वैत,अचिन्त्यभेदाभेद आदि किसी भी वाद को ,किसी एक सम्प्रदाय के किसी एक सिध्दान्त को लेकर नहीं चली है। गीता का मुख्य लक्ष्य यह है कि मनुष्य किसी भी वाद,मत,सिध्दान्तको माननेवाला क्यों न हो,उसका प्रत्येक परिस्थितिमें कल्याण हो जाय,वह किसी भी परिस्थितिमें परमात्मा से वंचित न रहे;क्योंकि जीवमात्रका मनुष्ययोनिमें जन्म केवल अपने कल्याणके लिये ही हुआ है। संसार में ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है,जिसमें मनुष्यका कल्याण न हो सकता हो। कारण की परमात्मतत्त्व  प्रत्येक परिस्थितिमें समानरूप से विद्यमान है । अत: साधक के सामने कोई भी और कैसी भी परिस्थिति आये,उसका केवल सदुपयोग करना है। सदुपयोग करने का अर्थ है - दु:खदायी परिस्थिति आनेपर सुखकी इच्छाका त्याग करना; और सुखदायी परिस्थिति आने पर सुखभोग का तथा  ' वह बनी रहे ' ऐसी इच्छाका त्याग करना और उसको दूसरों की सेवामें लगाना । इस प्रकार सदुपयोग करनेसे मनुष्य दु:खदायी और सुखदायी - दोनों परिस्थितियोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है।

       सृष्टिसे पूर्व परमात्मामें  'मैं एक ही अनेक रूपों में हो जाऊँ ' ऐसा संकल्प हुआ | इस संकल्पसे एक ही परमात्मा  प्रेमवृध्दि की लीला के लिये, प्रेमका आदान-प्रदान करने के लिये स्वयं ही श्रीकृष्ण और श्रीजी (श्रीराधा)- इन दो रूपों में प्रकट हो गये | उन दोनोंने परस्पर लीला करने के लिये एक खेल रचा । उस खेल के लिये प्रभु के संकल्प से अनन्त जीवों की ( जो कि अनादिकाल से थे ) और खेलके पदार्थों -(शरीरादि-) की सृष्टि हुई । खेल तभी होता है, जब दोनों तरफके खिलाड़ी स्वतन्त्र हों । इसलिये भगवान् ने जीवों को स्वतन्त्रता प्रदान की । उस खेलमें श्रीजीका तो केवल  भगवान् की तरफ ही आकर्षण रहा, खेल में उनसे भूल नहीं हुई । अत: श्रीजी और भगवान् में प्रेमवृध्दिकी लीला हुई । परन्तु दूसरे जितने जीव थे, उन सबनें भूलसे संयोगजन्य सुखके लिये खेल के पदार्थों-(उत्पत्ति-विनाशशील प्रकृतिजन्य पदार्थों - ) के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया,जिससे वे जन्म-मरणके चक्कर में पड़ गये ।

            खेलके पदार्थ केवल खेलके लिये ही होते हैं, किसीके व्यक्तिगत नहीं होते।  परन्तु वे जीव खेल खेलना तो भूल गये और मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके खेल के पदार्थों को अर्थात् शरीरादिको व्यक्तिगत मानने लग गये । इसलिये वे उन पदार्थोंमें फँस गये और भगवान् से सर्वथा विमुख हो गये । अब अगर वे जीव शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंसे विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जायँ, तो वे जन्म-मरणरूप महान् दु:खसे सदाके लिये छूट जायँ । अत: जीव संसार से विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जायँ और भगवान् के साथ अपने नित्य योग-( नित्य सम्बन्ध -) को पहचान लें -इसीके लिये भगवद्गीता का अवतार हुआ है।

"साधक-संजीवनी (लेखक-
श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)" ,
"प्राक्कथन" ("गीता का खास लक्ष्य"
नामक  विभाग) से।

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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें।

                        ॥श्रीहरि:॥

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें।

××× ने बताया कि दि. 7-6-2001 के 4 बजे वाले प्रवचन में संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने की गर्ज की गयी है,सो उनका यह कहना गलत है।

क्योंकि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का यह 20010607_1600_Sab Kuch Bhagwan Ka Bhagwan Hi Hai_VV

प्रवचन मैंने सुना है।इस पूरे प्रवचन में कहीं भी संत श्री शरणानन्दजी महाराज का नाम नहीं लिया गया है।
(और दिनांक 19911215_0518_Jaane Hue Asat Ka Tyag वाला प्रवचन भी सुना है।इसमेंभी नाम नहीं लिया गया है)।

इसमें न तो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने के लिये गर्ज की गयी है और न अपनी बात मनवाने के लिये।

और ये गर्ज की बातें भी तब कही गयी है कि जब कोई व्यक्ति बीच में उठ गया।

इस में यह दृष्टि नहीं है कि तुम संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मानो।

इस प्रवचन में जो तीन बातें बतायी गयी है,उसकी तरफ ध्यान न देकर कोई बीच में ही उठ गया तब सुनने की प्रार्थना की गयी और फटकार भी लगायी गई है।

तीन प्रकार की धारणा वाली बातें इस प्रकार कही गयी- 
1-
सब कुछ भगवान का है
2-
सब कुछ भगवान ही हैं और
3-
इससे आगे वाली बात का वर्णन नहीं होता।
इनको स्वीकार कर लेने का बहुत बड़ा माहात्म्य भी बाताया। 

यहाँ परम श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का कहना है कि मेरे मनमें जो अच्छी बातें हैं, मार्मिक बातें हैं,वो कहता हूँ मैं  और (आप लोग) सुनते ही नहीं। उठकर चल देते हैं; शर्म नहीं आती।

यहाँ  सुन लेने का तात्पर्य है, श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने तात्पर्य नहीं है। अगर होता तो उनका नाम लेकर साफ-साफ भी कह सकते थे।

इतना होते हुए भी  ××× का आग्रह अगर अनुचित ढंग से प्रचार करने का हो गया है तो इसका परिणाम भी समय बतायेगा।

इससे पहले वाला लेख यहाँ देखें-

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें। http://dungrdasram.blogspot.in/2016/12/blog-post.html?m=1

और यह भी देखें-

संतों के प्रति मनगढन्त बातें न फैलाएं।
http://dungrdasram.blogspot.in/2017/07/blog-post.html?m=1

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें।

                     ॥श्रीहरिः॥

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें।

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी  महाराज के नाम के सहारे संत श्रीशरणानन्दजी महाराज का अनुचित ढंग से प्रचार न करें)। 

[आज कल कुछ ऐसे लोग देखने में आते हैं जो लोभ के कारण संतों की वाणी का भी दुरुपयोग कर देते हैं।

(और कई ऐसे लोग भी देखने में आते हैं कि उस दुरुपयोग को देखकर भी कुछ प्रतिकार नहीं करते,असत का प्रचार होने देते हैं और सहते रहते हैं)।

जो लोग वास्तविकता से परिचित नहीं है वो ही ऐसी बातें कहते हैं और सुनते हैं तथा बिना जाने प्रचार भी कर देते हैं। उन लोगों से कहना है कि कृपया यह लेख पढ़ें-]

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी की कभी-कभी बड़ी प्रशंसा कर देते थे।

उन बातों को लेकर कई जने संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी का प्रचार करते हुए यह दिखाने लग गये कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज (जो कि इतने महान हो गये हैं वो) इनकी वाणी से ही हुए हैं(उनको तत्त्वज्ञान इनकी वाणी से ही हुआ है)। जबकि वास्तविक बात यह नहीं है।

(और इस प्रकार की कई ऐसी-ऐसी बातें भी लिखने और पढ़ने लग गये कि जो बड़ी अनुचित है तथा झूठी है। वो बातें यहाँ लिखना उचित नहीं लगता)।

यह बात प्रसिद्ध है कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज शुरु में ही गीताप्रेस के संस्थापक  सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के पास आये और जब तक उनका शरीर रहा तब तक उनके साथ ही रहे और वहीं उनको वो लाभ प्राप्त हुआ जिस लाभ की प्राप्ति होनेके बाद कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।

संत श्री शरणानन्दजी महाराज का तो परिचय ही बहुत देरी से हुआ था।

(संत श्री शरणानन्दजी महाराज भी सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका को 'पिताजी' कहते थे)।

ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज को जो प्राप्ति हुई, जो लाभ हुआ वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी से हुआ।

जो लोग वास्तविकता से परिचित नहीं है वो ही ऐसी बातें कहते हैं और सुनते हैं तथा बिना जाने प्रचार भी कर देते हैं। उन लोगों से कहना है कि कृपया वास्तविक बात को समझें

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज किसी व्यक्ति के अनुयायी नहीं थे,वो तत्त्व के अनुयायी थे। यह बात " "मेरे विचार"(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)" नामक लेख के तीसरे सिद्धान्त में उन्होंने स्वयं लिखवायी है

यथा-

★-: मेरे विचार :-★

( श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक त्तत्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा त्तत्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग...

http://dungrdasram.blogspot.in/2014/07/blog-post_0.html?m=1
...

×××
आप जिस ढंग से श्री स्वामीजी महाराज का नाम लेकर लिखते हो,उससे ऐसा लगता है कि श्री स्वामीजी महाराज को जो प्राप्ति हुई है वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की पुस्तकों से ही हुई है और वे उनसे ही सीखे हैं,उनके अनुयायी हैं, आदि; परन्तु ऐसी बात है नहीं।

यह उन महापुरुषों की महानता है कि वे अपनी बातकी प्रशंसा न करके दूसरों को आदर देते हैं और उनकी प्रशंसा कर देते हैं। संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बुद्धि की प्रशंसा कर देते हैं।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज तो गीता,रामायण भागवत आदि की भी बड़ी प्रशंसा करते हैं और इनसे लाभ होने की बात भी कहते हैं।

इसी प्रकार संत श्री तुलसीदासजी महाराज, कबीरदासजी महाराज, सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका और मीराँबाई आदि संतों की भी वे प्रशंसा करते हैं और उनसे लाभ होने की बात बताते हैं।

फिर सिर्फ एक संत श्री शरणानन्दजी महाराज की प्रशंसा की बातों को लेकर ही उनके अनुयायी या उनसे ही लाभ लेने वाले बाताना कहाँ तक उचित है?।

उचित की तो बात ही क्या यह अनुचित है और इससे कई लोगों को आपत्ति है।

इस प्रकार का प्रचार तो स्वयं संत श्रीशरणानन्दजी महाराज को भी पसन्द नहीं  होता जिसमें अपनी वाणी के प्रचार के लोभ से श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज को एक साधारण आदमी की तरह उनसे लाभ लेने वाला बताया गया हो।

कृपया इस प्रकार संतों के अपराध से बचें। ऐसा न हो कि आप लाभ के भरोसे अपनी हानि करलें।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के सत्संग प्रेमियों को आपका ऐसा लिखना अखरता है। अतः उनके तकलीफ के कारण आप न बनें। 

इसका अर्थ यह नहीं है कि हम संत श्रीशरणानन्दजी महाराज की वाणी का प्रचार नहीं चाहते।

हमने तो खुद उनकी पुस्तकें लोगों को दी है ; परन्तु आप जिस प्रकार उनकी वाणी-प्रचार के लोभ से श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का दर्जा घटाते हो,यह हमें स्वीकार नहीं है और लोगों को भी यह बुरा लगता है।

हम आपके हित की सलाह देते हैं कि अब आइन्दा ऐसा न करें।

कृपया यह भी पढ़ें-

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें। http://dungrdasram.blogspot.in/2016/12/blog-post_16.html?m=1 

महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें - http://dungrdasram.blogspot.in/2014/01/blog-post_17.html?m=1