सोमवार, 9 जुलाई 2018

जानने योग्य जानकारी (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में)।

                      ।।श्री हरिः। ।

  जानने योग्य जानकारी
(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में)। 

 
प्रश्न-  क्या आप श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में कुछ बता सकते हैं?

उत्तर-  हाँ, बता सकते हैं।

प्रश्न- तो बताइये, वे कहाँ के थे और क्या करते थे? तथा उनके सिद्धान्त कैसे थे?। सही- सही बताना।

उत्तर-  जी, हाँ । सही-सही बातें ही बतायी जायेगी; क्योंकि हमको यह जानकारी उन (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) के द्वारा ही मिली है।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने अपने रहने के लिये कहीं भी कोई स्थान नहीं बनवाया। आप गाँव गाँव और शहर आदि में जा- जाकर कर लोगों को सत्संग सुनाया करते थे और भिक्षान्न से ही अपना शरीर निर्वाह करते थे।  जहाँ भी रहते थे,उस स्थान को भी अपना नहीं मानते थे।

जानकारी के लिए प्रस्तुत है उनके ही विचार- 

  " मेरे विचार " 

( श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)  ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसाकरनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक तत्त्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी) ही साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी । गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ ।

६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने,जय-जयकार करने,माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ ।

७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ ।

८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ ।

९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।

१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्त्व देता हूँ ।

११. रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।

१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है ।

१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ ।

१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

ऐसे (मेरे विचार) एक संतकी वसीयत(प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२,१३ ) में भी छपे हुए  हैं।  

इस प्रकार आप एक महान् विलक्षण महापुरुष थे। आप कौन थे? इस विषय में तो स्वयं आप ही जानते हैं , दूसरे नहीं। दूसरे लोग तो अटकलें लगाकर अपनी बुद्धि का परिचय देते हैं।

आपने श्री मद् भगवद् गीता पर एक अद्वितीय हिन्दी टीका लिखी है। जिसका कोई अगर मन लगाकर ठीक तरह से अध्ययन करे, तो परमात्मतत्त्व का बोध हो सकता है। गीताजी का रहस्य समझ में आ सकता है। घर परिवार और संसार में रहने की विद्या आ सकती है। सब दुख,चिन्ता, भय आदि सदा- सदा के लिये मिट सकते हैं और आनन्द हो सकता है।

इसी प्रकार उनकी "गीता-दर्पण", "गीता-माधुर्य", "साधन-सुधा-सिन्धु," "गृहस्थ में कैसे रहें?" आदि करीब सत्तर अस्सी से भी अधिक पुस्तकें छपी हुई है और उनके सत्संग, प्रवचनों की की हुई लगातार सोलह वर्षों (1990 से 2005 तक ) की ओडियो रिकोर्डिंग है तथा उससे पहले के सत्संग प्रवचनों की भी काफी रिकोर्डिंग है।

गीताप्रेस के संस्थापक सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका और आपने पुस्तकों तथा सत्संग प्रवचनों के द्वारा दुनियाँ का बङा भारी उपकार किया है । दुनियाँ सदा-सदा के लिये आपकी ऋणी रहेंगी।

( आप दोनों महापुरुषों के प्रथम मिलन का वर्णन तारीख एक अप्रैल उन्नीस सौ इकरानवें (दि.19910401/900 ) के दिन नौ बजेके प्रवचनमें स्वयं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' ने गीताप्रेस, गोरखपुरमें किया है और दि. 19951205/830 बजेके सत्संगमें भी किया है।

तथा

"महापुरुषों के सत्संग की बातें " नामक पुस्तक में भी आप दोनों महापुरुषों के मिलन का वर्णन है)।

आपका कहना है कि परमात्मा की प्राप्ति कठिन नहीं है। परमात्मा की प्राप्ति बङी सुगमता से हो सकती है और बहुत जल्दी, तत्काल हो सकती है। मनुष्य मात्र परमात्मप्राप्ति का जन्मजात अधिकारी है, चाहे कोई कैसा ही क्यों न हो। कम से- कम समय में और मूर्ख से मूर्ख मनुष्य को तथा पापी से पापी मनुष्य को भी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।

जो मनुष्य जहाँ और जिस परिस्थिति में है, वह उसी परिस्थिति में और वहीं परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है, कल्याण कर सकता है, मुक्ति पा सकता है। (परिस्थिति आदि बदलने की जरूरत नहीं है)-

... वास्तविक बोध करण- निरपेक्ष (अपने- आप से) ही होता है। 

(गीता "साधक-संजीवनी" २|२९;)।

(भगवत्प्राप्ति के लिये न तो कहीं जाने की जरूरत है और न वेष बदल कर साधू बनने की जरूरत है )।

जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की प्रवृत्ति (उत्पत्ति) होती है (और) जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्यमात्र सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

(गीता "साधक-संजीवनी" १८|४६;)

(सिद्धि अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है) ।

मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।

(गीता "साधक-संजीवनी" १८|५६;)।     यदि परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत हो जाय, तो अभी ही परमात्मा का अनुभव हो जाय।  

(गीता "साधक-संजीवनी" ३|२०;)।

ऐसी अनेक बातें आपने अपने गीता साधक-संजीवनी आदि ग्रंथों में और अपने सत्संग प्रवचनों में बताई है; जो बङी सरल, श्रेष्ठ और शीघ्र भगवत्प्राप्ति करवाने वाली हैं। हमारे को चाहिये कि शीघ्र ही उनसे लाभ ले लें।

आपने भगवत्प्राप्ति के ऐसे नये- नये अनेक साधनों का आविष्कार किया है।

प्रश्न-  (भगवत्प्राप्ति के लिये जब कहीं जाने की और साधू बनने की भी जरुरत नहीं है) तब श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज साधू क्यों बने?

उत्तर-  ऐसा प्रश्न एक व्यक्ति ने श्री स्वामी जी महाराज से भी किया था कि आप साधू क्यों बने?

जवाब में श्री स्वामी जी महाराज बोले कि मैं साधू नहीं बना। (मेरी माँ ने साधू बना दिया। आपका माताजी के प्रति बङा आदर भाव था)।

प्रश्न-  माताजी ने आपको साधू क्यों बनाया?

उत्तर- आपकी माताजी बङी श्रेष्ठ और भगवान् का भजन करने वाली थी। आप भगवान् के भजन से ही मानव जीवन की सफ़लता मानती थी। आप राम नाम जपती थी। आपको बहुत भजन कण्ठस्थ थे। अनेक संतों की वाणी आती (याद) थी । आप संत- महात्माओं में बङी श्रद्धा भक्ति रखती थी। संत- महात्माओं पर भी असर था कि ये माताजी बङे जानकार हैं। माताजी का गाँव था माडपुरा (जिला नागौर; राजस्थान)।

आपके यहाँ जब कोई संत-महात्मा पधारते, तब आप और सखियाँ भजन (हरियश) गाया करती थी।

एक बार की बात है कि आपके यहाँ संत श्री जियारामजी महाराज पधारे । सखियों ने आप (माताजी) से भजन गाने के लिये कहा। आपने गाया नहीं। तब किसी ने महाराज से कह दिया कि ये भजन नहीं गा रही है। किसी ने कहा कि ये गावे कैसे ! इनके तो लङका चला हुआ है (शान्त हो गया है। आपके बालक जन्मते थे और शान्त हो जाते थे,ज्यादा जीते नहीं थे) । तब श्री जियाराम जी महाराज ने कहा कि रामजी और देंगे (लङका) । आप तो भजन गाओ। तब आपने भजन गाया।

भगवत्कृपा से जब आपके लङका हुआ तो लाकर जियारामजी महाराज को सौंप दिया। महाराज ने कहा कि यह बालक तो आप रखो। अबकी बार बालक होवे तब दे देना। तब उस बालक को माताजी ने अपने पास में रख लिया।

उसके बाद (संवत १९५८ में) जियारामजी महाराज परम धाम पधार गये (शरीर छोङ दिया)। फिर दो वर्षों के बाद (संवत १९६० में) माताजी के जब दूसरा बालक हुआ और वो चार वर्ष का हो गया, तब उसको माताजी ने जियारामजी महाराज के बाद वाले संतों को दे दिया, साधू बना दिया। संतों ने इनको अपना शिष्य बना लिया। बालक के जन्म का नाम था सुखदेव। फिर इनका नाम हुआ - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

गुरुजनों के प्रति आपका बङा आदर भाव था। उनके कहने से आपने संस्कृत आदि विद्याएँ पढीं और आचार्य तक की परीक्षा भी दी।

आपकी रुचि तो बचपन से ही भगवद् भजन करने की थी। आपको भगवान् की बातें अच्छी लगती थी। गीता पढ़ना अच्छा लगता था। बारह वर्ष की अवस्था में ही आपका गीता जी से सम्बन्ध हो गया था। बाद में ध्यान देने पर आपको गीता जी कण्ठस्थ मिली, कण्ठस्थ करनी नहीं पङी। पाठ करते- करते गीता जी याद हो गई थी।

आपने गीता- पाठशाला खोल रखी थी और आप लोगों को गीता पढाते थे। कभी-कभी आपके मन में गीता जी के नये- नये ऐसे भाव आते कि जो किसी भी गीता की टीका में देखने को नहीं मिलते। इस प्रकार और भी कई बातें हैं।  (परन्तु यहाँ संक्षेप में कही जा रही है)। 

किसीके देने पर भी आप न रुपये लेते थे और न रुपये अपने पास में रखते थे। रुपयों को छूते भी नहीं थे। किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर भी आप किसी से कुछ माँगते नहीं थे। कष्ट उठा लेते थे पर कहते नहीं थे। आप बङा संकोच रखते थे।

आप अपनी मान बङाई नहीं करवाते थे। मान दूसरों को देते थे। आप स्वार्थ, अभिमान, कञ्चन, कामिनी आदि के त्यागी थे। आप पुष्पमाला आदि का सत्कार स्वीकार नहीं करते थे। आप वर्षा में भी अपने ऊपर छाता नहीं लगाने देते थे। आप न रुई के बिछोनों पर बैठते थे और न सोते थे। खाट पर भी न बैठते थे और न सोते थे। बुनी हुई कुर्सी पर भी आप नहीं बैठते थे।

कहीं पर भी आसन बिछाने से पहले आप उस जगह को कोमलता पूर्वक आसन की ही हवा आदि से झाङकर, वहाँ से सूक्ष्म जीव जन्तुओं को हटाकर बिछाते थे। बिना आसन के बैठते समय भी आप जीव जन्तुओं बचा कर बैठते थे।

चलते समय भी आप ध्यान रखते थे कि कहीं कोई जीव जन्तु पैर के नीचे दब कर मर न जाय। आपका बङा कोमल शील स्वभाव था। आपके हृदय में हमेशा परहित बसा रहता था जो दूसरों को भी दिखायी देता था।

आप हमेशा जल छान कर ही काम में लेते थे। छने हुए जल को भी चार या छः घंटों के बाद वापस छानते थे; क्योंकि चातुर्मास में चार घंटों के बाद और अन्य समय में छः घंटों के बाद में (छाने हुए जल में भी) जीव पैदा हो जाते हैं। जल में  जीव बहुत छोटे होते हैं, दीखते नहीं। इसलिये आप गाढ़े कपङे को डबल करके जल को छानते थे और सावधानी पूर्वक जीवाणूं करके उन जीवों को जल में छोङते थे। इस प्रकार आप छाने हुए जल को काम में लेते थे । खान, पान, शौच, स्नान आदि सब में आप जल छानकर ही काम में लेते थे।

अपने निर्वाह के लिये कमसे- कम आवश्यकता रखते थे। आवश्यकता वाली वस्तुएँ भी सीमित ही रखते थे।  परिस्थिति को अपने अनुसार न बना कर खुद को परिस्थिति के अनुसार बना लेते थे। किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे।

आपने मिलने वाले जिज्ञासुओं को हमेशा छूट दे रखी थी कि आपके कोई साधन-सम्बन्धी बात पूछनी हो तो मेरे को नींद में से जगाकर भी पूछ सकते हो। लोगों के लिये आप अनेक कष्ट सहते थे, फिर भी उनको जनाते नहीं थे।

आप न चेला चेली बनाते थे और न भेंट पूजा स्वीकार करते थे। आप न तो किसी से चरण छुआते थे और न किसी को चरण छूने देते थे। चलते समय पृथ्वी पर जहाँ आपके चरण टिकते , वहाँ की भी चरणरज नहीं लेने देते थे। कभी कोई स्त्री भूल से भी चरण छू लेती तो आप भोजन करना छोङ देते थे। उपवास रख कर उसका प्रायश्चित्त करते थे। आप न तो स्त्री को छूते थे और न स्त्री को छूने देते थे। रास्ते में चलते समय भी ध्यान रखते थे कि उनका स्पर्श न हों। आपके कमरे में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था।

स्त्री जाती के प्रति आपका बङा आदर भाव था। आप स्त्रियों पर बङी दया रखते थे। लोगों को समझाते थे कि छोटी बच्ची भी मातृशक्ति है। माता का दर्जा पिता से सौ गुना अधिक है।

आप गर्भपात करवाने का भयंकर विरोध करते थे। जिस घर में एक स्त्री ने भी गर्भपात करवा लिया हो, तो आप उस घर का अन्न नहीं लेते थे और जल भी नहीं लेते थे।

शास्त्र में गर्भपात को ब्रह्महत्या से भी दुगुना महापाप बताया गया है। आप परिवार- नियोजन, दहेज- प्रथा और विधवा- विवाह आदि का विरोध करते थे। विवाह से पहले वर- वधू के मिलन को पाप मानते थे और इसका निषेध करते थे।

आप गुरु बनाने का भी निषेध करते थे। आपने गौहत्या रोकने की बङी कोशिश की थी। गौरक्षा के लिये आपकी हमेशा कोशिश रही। गाय के सूई लगाकर दुहने को आप बङा पाप मानते थे और इसका  निषेध करते थे।

आप कूङे- कचरे के आग लगाने का प्रबल विरोध करते थे। इस आग में असंख्य जीव- जन्तु जिन्दा ही जल जाते हैं, जो बङा भारी पाप है।

आप न तो अपना चित्र खिंचवाते थे और न किसी को चित्र खींचने देते थे। कोई चित्र खींच लेता तो उसका कङा विरोध करते थे। खींची हुई फोटो को नष्ट करवा देते थे। आप मनुष्य की फोटो को महत्त्व न देकर भगवान् की फोटो को महत्त्व देते थे और रखने की सलाह देते थे।

आप सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व देते थे। सत्संग तो मानो आपका जीवन ही था। आप बताते थे कि सत्संग से जितना लाभ होता है उतना एकान्त में रहकर साधन करने से भी नहीं होता।

वर्षों तक एकान्त में रहकर साधन करने से भी जो लाभ नहीं होता है, वो लाभ एक बार के सत्संग से हो जाता है ।

सत्संग करे और (फिर उसके अनुसार) साधन करे। साधन करे और सत्संग करे। इस प्रकार करने से (जल्दी ही) बहुत बङा लाभ होता है।

सत्संग सब की जननी है। सत्संग से जितना लाभ होता है, उस लाभ को कोई कह नहीं सकता।

अन्य साधन करके जो उन्नति की जाती है, वो तो कमाकर धनी बनना है और सत्संग करना है,यह गोद चले जाना है। (किसी धनवान की) गोद जानेवाले को क्या प्रयास करना पङा? कल कँगला और आज धनी। ऐसे सत्संग करने वाले को कमाया हुआ धन मिलता है (अनुभव मिलता है, बिना साधन किये,मुफ्त में सर्वोपरि लाभ मिलता है)।

आप जहाँ भी विराजते थे वहाँ नित्य- सत्संग होता था। प्रातः पाँच बजे वाली सत्संग तो यात्रा में भी चलती रहती थी। कभी- कभी यात्रा के कारण गाङी में चल रहे होते और प्रातः पाँच बजे वाली प्रार्थना सत्संग का समय हो जाता तो गाङी में ही प्रार्थना, गीता-पाठ और सत्संग कर लिया जाता था।

दिन में भी कई बार सत्संग होता रहता था। सत्संग के बिना ख़ाली दिन आपको पसन्द नहीं था। इस प्रकार बहुत बढ़िया सत्संग चलता रहा। ...

अन्त में संवत २०६२, आषाढ़ के कृष्णपक्ष वाली एकादशी की रात्रि में, साढ़े तीन बजे के बाद, गीताभवन ऋषिकेश, गंगातट पर शरीर छोङकर आप परमधाम को पधार गये।

अधिक जानने के लिए " महापुरुषों के सत्संग की बातें " नामक पुस्तक पढें।  वो पुस्तक छपी हुई भी मिलती है तथा "सत्संग संतवाणी" नाम वाले ब्लॉग से नि:शुल्क डाउनलोड भी की जा सकती हैं।  

प्रश्न-  क्या उनकी चिता भस्म को गंगाजी समेट कर ले गई?

उत्तर-  जी हाँ, उनकी अन्तिम क्रिया गंगाजी के किनारे की गई थी। दाहक्रिया के बाद दूसरे तीसरे दिन ही गंगाजी इतनी बढ़ी कि वहाँ के चिताभस्म आदि सब अवशेष बहाकर अपने साथ में ले गई। वहाँ की धरती ही बदल गई। मानो गंगाजी भी ऐसे अवसर को पाना चाहती थी। (महापुरुषों के स्नान से गंगाजी भी पवित्र हो जाती है) ।

महापुरुषों के वहाँ से प्रस्थान कर जाने पर प्रकृति ने भी अपने नियम बदल दिये। दो वर्षों तक आम के पेङों के आम के फल लगने बन्द हो गये। (ये घटनाएँ अनेक लोगों ने अपनी आँखों से देखी है)। हर साल उन पेङों के इतने आम्रफल लगते थे कि बिक्री आदि के लिये आम ठेके पर दिये जाते थे; परन्तु अबकी बार वैसे लगे ही नहीं। मानो महापुरुषों के वियोग का दुख पेङ- पौधे भी नहीं सह सके। गोस्वामी जी श्री तुलसीदास जी महाराज ने ठीक ही कहा है-

बंदउँ संत असज्जन चरना।  दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।।  बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं।  मिलत एक दुख दारुन देहीं।।  

(रामचरितमानस १|५|३,४:)।

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रविवार, 27 मई 2018

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के अन्तिम प्रवचन का यथावत् लेखन 

                         ।।श्रीहरिः। ।
[श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के 
अन्तिम प्रवचन का यथावत् लेखन 
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजसे अन्तिम दिनोंमें यह प्रार्थना की गयी कि आपके शरीरकी अशक्त अवस्थाके कारण प्रतिदिन सत्संग-सभामें जाना कठिन पड़ता है।इसलिये आप विश्राम करावें।जब हमलोगोंको आवश्यकता मालुम पड़ेगी तब आपको हमलोग सभामें ले चलेंगे और कभी आपके मनमें सत्संगियोंको कोई बात कहनेकी आ जाय तो कृपया हमें बता देना,हमलोग आपको सभामें ले जायेंगे।
उस समय ऐसा लगा कि श्री महाराजजी ने यह प्रार्थना स्वीकार करली।
इस प्रकार जब भी परिस्थिति अनुकूल दिखायी देती तब समय-समय पर आपको सभामें ले जाया जाता था।
एक दिन (परम धाम गमन से तीन दिन पहले २९ जून २००५ को)
श्रद्धेय श्री स्वामीजी महाराजने अपनी तरफसे (अपने मनसे) फरमाया कि आज चलो अर्थात् आज सभामें चलें। सुनकर
तुरन्त तैयारी की गयी।
पहियोंवाली कुर्सी पर आपको  विराजमान करवा कर सभामें ले जाया गया और जो बातें आपके मनमें आयीं,वो सुनादी गयीं तथा वापस अपने निवास स्थान पर पधार गये।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे और प्रवचन हुए।
इस प्रकार यह समझ में आया  कि जो अन्तिम बात सत्संगियोंको कहनी थी,वो उस (पहले) दिन कह दीं।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे थे परन्तु दूसरों की मर्जी से पधारे थे।अपनी मर्जीसे तो जो आवश्यक लगा, वो पहले दिन कह चूके। दूसरे दिन (उन पहले दिन वाली बातों पर)प्रश्नोत्तर हुए]।
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के 
अन्तिम प्रवचन का यथावत् लेखन 
१-
              ■□मंगलाचरण□■
के बाद-
एक बात बहुत श्रेष्ठ (है )बहुत श्रेष्ठ बात, है बड़ी सुगम, बड़ी सरल । एक बात है। वो कठिन है- कोई इच्छा, किसी तरह की इच्छा मत रखो । किसी तरह की कोई भी इच्छा मत रखो। ना परमात्मा की, ना आत्मा की, ना संसार की, ना आपनी (अपनी) मुक्ति की , कल्याण की इच्छा , कुछ इच्छा, कुछ इच्छा मत रखो और चुप हो जाओ,बस। पूर्ण प्राप्त ! कुछ भी इच्छा न रख कर के चुप, शाऽऽऽऽऽन्त !! ।
क्योंकि परमात्मा सब जगह, शाऽऽऽन्त रूप से परिपूर्ण है । स्वतः, स्वाभाविक। सब ओर, सब जगह ; परिपूर्ण [है])। कुछ भी न चाहे, कोई इच्छा नहीं, कोई डर नहीं, किसी तरह की कामना न रहे। चुप हो जाय, (बऽऽस) । एकदम परमात्मा की प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान है वो पूर्ण। कोई इच्छा (न रखें )। क्योंकि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती। यह सब का अनुभव है । सबका यह अनुभव है क (कि) कोई इच्छा पूरी होती है, कोई इच्छा पूरी नहीं होती । यह कायदा (है) ।
पूरी...(होने पर भी) कुछ नहीं करना,अर (और) पूरी न होने पर भी कुछ नहीं करना
कुछ इच्छा नहिं रखनी, कुछ चाहना नहीं एकदम । एकदम परमात्मा की प्राप्ति । ख्याल में आयी ? कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं। परमात्मा में स्थिति हो गई पूरी आपकी। आपसे आप स्वतः, स्थिति है। है, पहले से है। वह अनुभव हो जाएगा । कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना (जाना) नहीं, कुछ अभ्यास नहीं । ...(कुछ करना नहीं)। इतनी ज(इतनी सी) बात है, इतनी बात में पूरी, पूरी हो गई । अब शंका हो तो बोलो । कोई इच्छा मत रखो। परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी; परमात्मा की प्राप्ति,एकदम। क्योंकि परमात्मा सब जगह परिपूर्ण (है) , समान रीति से, ठोस है । भूमा अचल [शाश्वत अमल] सम ठोस है तू सर्वदा। ठोस है ठोस । "है" । कुछ इच्छा मत करो, एकदम, परमात्मा की प्राप्ति । एकदम । बोलो ! शंका हो तो बोलो। कोई इच्छा (नहीं)। अपनी इच्छा से ही संसार में हैं । अपनी इच्छा छोड़ी,...(और उसमें स्थिति हुई)। पूर्ण है स्थिति, स्वतः , स्वाभाविक। और जो काम हो, उसमें तटस्थ रहो, ना राग करो, ना द्वेष करो ।
तुलसी ममता रामसों समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख दास भये भव पार।
(दोहावली 94)
एक भगवान है!! कोई इच्छा (नहीं), किसी तरह की इच्छा , कोई संसार की क, परमात्मा की क, आत्मा की क ...(किसी की) क, मुक्ति की क , 
कल्याण की क , प्रेम की क , कुछ इच्छा (नहीं) ।... (बऽऽस)। पूर्ण है प्राप्ति । क्यों(कि) परमात्मा है ।
कारण हैऽऽ (कि) एक करणा (करना,क्रिया) और एक आश्रय। एक क्रिया अर (और) एक पदार्थ । एक क्रिया है, एक पदार्थ है। ये प्रकृति है। क्रिया और पदार्थ - ये छूट जाय। कुछ नहीं करना, चुप रहना। अर (और एक) भगवान के, भगवान के शरण हो गये ... (परमात्मा के) आश्रय । कुछ नहीं। करना कुछ नहीं । परमात्मा में ही स्थित ... ( स्थित करना) नहीं, उसमें स्थिति आपकी है। है। है स्थिति , एकदम।
है एकदम परिपूर्ण ,
परमात्मा में ही स्थिति है। एकदम। 
परमात्मा सब ...(जगह) शान्त है। "है" "है" वह "है" उस "है" में स्थिति हो जाय।
"है" में स्थिति, स्वभाविक, स्वभाविक है। "है" में स्थिति, सबकी स्वाभाविक। 
कुछ भी इच्छा (और एक उनका- क्रिया और पदार्थों का
•••) आश्रय
- दो छोङने से --- ("है", परमात्मा में स्थिति हो जायेगी, जो कि पहले से ही है । अनुभव नहीं था।अब अनुभव हो गया।)। 
पद आता है न ! 
एक बालक, एक बालक खो गया। एक माँ का बालक खो गया। सुणाओ , वोऽऽ, वो पद सुणाओ। ( भजन गाने वाले बजरंगजी बोले- हाँ ) , बालक खो गया, व्याकुल हो गयी अर (और) जागर देख्या(जगकर देखा) तो , वहीं सोता है, साथ में ही। (हाँ, ठीक है, हाँ हाँ - सुनाते हैं ) बहोत (बहुत) बढ़िया पद है। कबीरजी महाराज का है... (वो पद)। (जो हुकम, कह कर , पद शुरु कर दिया गया - परम प्रभु अपने ही में पायो।••• - कबीरजी महाराज)।
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श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के द्वारा दिया गया यहाँ यह अन्तिम प्रवचन दिनांक,२९ जून २००५ को सायं लगभग ४ बजे का है। इसकी रिकोर्डिंग को सुन-सुनकर उस के अनुसार ही, यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है।  
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अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढें-
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बुधवार, 23 मई 2018

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचनोंकी हस्तलिखित सामग्री ।

                            ।।श्रीहरिः। ।

  श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचनोंकी हस्तलिखित सामग्री ।


श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के बहुत वर्षों के सत्संग- प्रवचनों वाले हाथ से लिखे हुए (अप्रकाशित) रजिस्टर पङे हुए हैं । वो श्री महाराज जी के रिकोर्ड किये हुए सत्संग- प्रवचनों को टेप के द्वारा सुन-सुन कर उन प्रवचनों के अनुसार लिखे गये हैं ।

श्री महाराज जी कभी-कभी लोगों को लिखने के लिये कह भी देते थे।

कभी-कभी तो ऐसा अवसर आता कि लिखने वाले उपस्थित न रहने के कारण सब प्रवचन लिखने में कठिनता होती; तो लिखवाने वालों के पूछने पर श्री महाराज जी  कह देते कि सिर्फ प्रातः पाँच बजे वाले प्रवचन ही (रोजना के) लिख लो (पर लिखो अवश्य)।

एक बार तो प्रवचन लिखने वाले एक सज्जन श्री महाराज जी से बोले कि बहुत वर्षों के लिखे हुए ढेर सारे हस्तलिखित रजिस्टर पहले के भी पङे हुए हैं। वे भी पूरे पुस्तक रूप में छपवाये नहीं जा रहे हैं। यह देखकर लिखने का उत्साह नहीं हो रहा है। इसलिये मनमें आती है कि रोजाना के सब प्रवचन लिखना बन्द कर दें और कभी-कभी कोई विशेष प्रवचन हों तो उन-उन को ही लिख लें।

ऐसा कहने पर भी श्री महाराज जी ने लिखने का काम बन्द नहीं करने दिया और लिखवाते रहे। (शायद इसलिये कि आगे जब कभी ऐसा अवसर आये तो ये प्रवचन पुस्तक रूप में छपवाये जा सके। सामग्री उपलब्ध रहेगी तभी तो छपवा सकेंगे और यदि सामग्री ही नहीं होगी तो क्या छपवायेंगे)।

जबकि बिना मन के किसी से ऐसा करवाना उनको पसन्द नहीं था, महाराज जी के लिये यह बङे संकोच की बात थी। फिर भी लोकहित के लिये वो यह सत्संग प्रवचन लिखवाने का काम करवाते रहे।

महापुरुषों ने कृपा करके जो सामग्री तैयार करवायी थी, वो सामग्री अभी तो उपलब्ध है । उनकी कोई फोटो काॅपी भी करवायी हुई नहीं है। मूल रूप में ही पङी है। अगर पाँच- दस प्रवचनों की सामग्री भी क्षतिग्रस्त हो गई तो दुबारा प्राप्त कर लेना हाथ की बात नहीं है ; क्योंकि उनकी कोई प्रतिलिपि नहीं है।

भविष्य में न जाने कैसा समय आये और यह पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाने वाला काम हो पाये या न हो पाये।

यह सामग्री ऐसे ही पङी न रह जाय। पङी- पङी सामग्री बेकार भी हो जाती है तथा पुरानी होकर नष्ट भी हो जाती है।

उनको पुस्तक या पत्रिका आदि के रूप में क्रमशः छपवाकर लोगों तक पहुँचाया जाय तो दुनियाँ की बङी भारी सेवा होगी। बङा भारी काम हो जायेगा।

यह भगवान् और महापुरुषों की भी बङी सेवा है। इस सामग्री के कुछ लेख तो पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए थे ; लेकिन बहुत सारी सामग्री अभी-भी अप्रकाशित ही पङी है।

कई लोगों को तो इस सामग्री का पता भी नहीं है। कुछ लोगों को पता है पर वो भी मूकदर्शक-से ही बने हुए हैं। काम कुछ नहीं हो पा रहा है।

(वो लिखी हुई सामग्री पहले बीकानेर आदि में थी। अब वो गीताप्रेस गोरखपुर में है। लेकिन वहाँ भी उनका कोई काम होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। सुना है कि (उनका महत्त्व न समझने के कारण ) वहाँ भी भाररूप में ही पङी है । उस सामग्री के कारण जगह रुकी हुई लगती है)। 

इसलिये हमलोगों को चाहिये कि प्रयास करके, पुस्तक आदि छपवा कर के वो सामग्री लोगों तक पहुँचायें।

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शनिवार, 12 मई 2018

"राम कथा में सत्संग" - https://drive.google.com/folderview?id=0B1hTIYwow9O-VUFxZ1pzMnlKUVE

यह "राम कथा में सत्संग" का लिंक है।
इस में राम कथा गान (डुँगरदास राम आदि के द्वारा) और श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का सत्संग है।
इस में वो सत्संग है जो श्री स्वामी जी महाराज  राम कथा के बाद में सुनाते थे।

"राम कथा में सत्संग" - https://drive.google.com/folderview?id=0B1hTIYwow9O-VUFxZ1pzMnlKUVE

मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

नित्य-सत्संग का उपाय (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का सत्संग)

                               ।।श्रीहरि:।।

नित्य-सत्संग का उपाय- 

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का सत्संग, इकहत्तर दिनों वाली नित्य स्तुति, गीतापाठ,हरिःशरणम् और प्रवचन- शृंखला आदि,चारों श्रीस्वामीजी महाराज की आवाज़ में)।

जिनको रोजाना श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का प्रातः पाँच बजे वाला सत्संग चाहिये उनके लिये यह इकहत्तर दिनों वाला सेट भेजा जा रहा है। इसको अपने मोबाइल में सेव करलें। इसके द्वारा उम्रभर नित्य सत्संग किया जा सकता है। 

जो नित्य नया प्रवचन सुनना चाहते हों उनको चाहिये कि इसमें प्रवचन की जगह अपने मन पसन्द का प्रवचन लगाकर सुनलें और इस प्रकार नित्य सत्संग का आनन्द लेते रहें। 

इस (नित्य स्तुति आदि) को एक बार शुरु कर देने पर नित्य स्तुति के बाद अपने आप गीता जी के दस-दस श्लोकों का (रोजाना)  क्रमशः पाठ आ जायेगा, हरि:शरणम् हरि: शरणम्  आदि कीर्तन आ जायेगा तथा सत्संग शुरु हो जायेगा।

इसमें विलक्षणता यह है कि ये सब श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की ही आवाज़ में है इसलिये यह अत्यन्त लाभकारी है।

वो यहाँ से (इस पते पर जाकर) प्राप्त करें- 


(३) नित्य स्तुति ( प्रार्थना ), गीतापाठ और सत्संग (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इकहत्तर दिनों वाले सत्संग- समुदाय का प्रबन्ध ) ।।
अबकी बार वाले सत्संग-प्रबन्ध में साफ़ आवाज़ वाला गीतापाठ, नये चुने हुए प्रवचन, उनके विषय और सूची, तथा अधिक जानकारी आदि और कुछ अधिक विशेषताएँ जोङी गई है। जिससे यह अधिक उपयोगी, रुचिकर और सुगम हो गया है। 

यह इस पते पर निःशुल्क उपलब्ध है- ( bit.ly/PRARTHANA_GEETAPATH


(१) (१)नित्य-स्तुति गीता-पाठ सत्संग- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज(७१ दिनोंकी)।
https://drive.google.com/folderview?id=1VjtgaKp9T4jAIDpy4eMsdy1C9cq38xVh

(२)इकहत्तर (71) दिनों का सत्संग समूह -
01.@NITYA-STUTI,GITA,SATSANG -S.S.S.RAMSUKHDASJI MAHARAJ@ (हरिशरणम् साफ आवाज वाली)  https://drive.google.com/folderview?id=0B0caSyar5jaDYWFUS2NiNWtvQkk 

सत्संग के और पते,ठिकाने-

 4- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

                            की
                      सत्संग-सामग्री
               ( 16 GB मेमोरी-कार्ड में ) - ]

(4-) bit.ly/1satsang और bit.ly/1casett 


(5-)
एक ही फाइल में सम्पूर्ण गीतापाठ ( विष्णुसहस्रनामसहित)
इस पते पर उपलब्ध है- bit.ly/SampoornaGitapathSRAMSUKHDASJIM, तथा यहाँ लगभग सवादो घंटे में सम्पूर्ण गीतापाठ ( द्रुतगति में ) भी उपलब्ध है। 

(6-) 

 नित्य स्तुति ( प्रार्थना ), गीतापाठ और सत्संग (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इकहत्तर दिनों वाले सत्संग- समुदाय का प्रबन्ध )-bit.ly/PRARTHANA_GEETAPATH



(1-) http://db.tt/v4XtLpAr

(2-) http://www.swamiramsukhdasji.org 

(3-) http://goo.gl/28CUxw 

 
अधिक जानने के लिए कृपया यह लेख पढें-

१.नित्य-स्तुति, गीता और सत्संग (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इकहत्तर दिनों वाला सत्संग-प्रवचनों का सेट) ।।

http://dungrdasram.blogspot.com/2014/12/blog-post_8.html 

प्रवचनों की तारीख और नाम हटाना अपराध है

                    ।। श्रीहरि:।।

प्रवचनों की तारीख और नाम हटाना अपराध है ।

आजकल श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के सत्संग- प्रवचनों पर ध्यान देना चाहिए कि उनमें से तारीख और श्री महाराज जी का नाम तो नहीं हटा दिया गया है?।
...

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इन प्रवचनों में से तारीख हटा दी गयी है और श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का नाम भी इन प्रवचनों में से हटा दिया गया है। यह किसी ने महान अपराध किया है; क्योंकि प्रवचनों के अन्दर तारीख रिकोर्ड करने की व्यवस्था स्वयं श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने करवायी है।
मेरे (डुँगरदास राम के) सामने की बात है कि महाराज जी से पूछा गया कि प्रवचन की कैसेटों पर लिखी हुई तारीख कभी-कभी साफ नहीं दीखती। मिट भी जाती है। लिखने में भी भूल से दूसरी तारीख लिख दी जाती है। ऐसे में सही तारीख का पता कैसे लगे? इसके लिये क्या करें?
तब श्री महाराज जी बोले कि प्रवचन के साथ ही (भीतर) में रिकोर्ड करदो (अगर ऊपर, तारीख लिखने में भूल हो जायेगी तो भीतरवाली रिकोर्ड सुनकर पकङी जायेगी,सही तारीखका पता लग जायेगा)। तब से ऐसा किया जाने लगा। इन प्रवचनों की भीतर से तारीख हटा कर किसी ने महाराज जी की वो व्यवस्था भंग की है। जो इसको आगे बढ़ाते हैं। एक प्रकार से वो भी इस अपराध में सामिल है।

इसलिए आज से ही ऐसे प्रवचन इस ग्रुप में न भेजें।
यह ऐसे हमें स्वीकार नहीं है।
आप जो रोजाना श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के नाम से पाँच बजे वाली सत्संग ग्रुपों में भेजते हो, भीतर से तारीख हटा देने के कारण हम उसका बहिष्कार करते हैं।  सच्चे सत्संगियों को भी हमारी यही सलाह है। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के प्रवचनों साथ तारीख रहना आवश्यक है और उपयोगी भी है। जैसे, श्री स्वामीजी महाराज की कोई बात हमको बढ़िया लगी और हम उस बात को ठीक से समझने के लिये मूल प्रवचन सुनना चाहते हैं तो उस तारीख के अनुसार खोजकर वो प्रवचन सुन लेंगे,समझ लेंगे। अब अगर उस प्रवचन की तारीख ही हटा दी गयी,तो कैसे खोजेंगे और क्या सुनेंगे? कैसे समझेंगे? 


 इसलिये प्रवचनों के ऊपर लिखी गयी तारीख और भीतर रिकोर्ड की गयी तारीख- दोनों रहनें दें,हटावें नहीं। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का नाम भी उनके प्रवचनों में से हटावें नहीं, रहनें दें। दूसरों को भी यह बात समझावें। 

अधिक जानने के लिए कृपया यह लेख पढें-

लेखक का नाम हटाना या बदलना अपराध है(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लेखों और बातों से उनका नाम हटाना अपराध है तथा उनका नाम दूसरों की बातों में जोड़ना भी अपराध है)।
http://dungrdasram.blogspot.in/2016/11/blog-post_17.html?m=1 

    *नित्य-सत्संग का उपाय-*

(जिनको रोजाना श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का प्रातः पाँच बजे वाला सत्संग चाहिये उनके लिये यह इकहत्तर दिनों वाला सेट भेजा जा रहा है। इसको अपने मोबाइल में सेव करलें। इसके द्वारा उम्रभर नित्य सत्संग किया जा सकता है। 

जो नित्य नया प्रवचन सुनना चाहते हों उनको चाहिये कि इसमें प्रवचन की जगह अपने मन पसन्द का प्रवचन लगाकर सुनलें और इस प्रकार नित्य सत्संग का आनन्द लेते रहें। 

इस (नित्य स्तुति आदि) को एक बार शुरु कर देने पर नित्य स्तुति के बाद अपने आप गीता जी के दस-दस श्लोकों का (रोजाना)  क्रमशः पाठ आ जायेगा, हरि:शरणम् हरि: शरणम्  आदि कीर्तन आ जायेगा तथा सत्संग शुरु हो जायेगा।

इसमें विलक्षणता यह है कि ये सब श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की ही आवाज़ में है जो अत्यन्त लाभकारी है।
 
अधिक जानने के लिए कृपया यह लेख पढें- 

नित्य-स्तुति (प्रार्थना) गीतापाठ और सत्संग- 

 http://dungrdasram.blogspot.com/2020/11/blog-post.html 

१.नित्य-स्तुति, गीता और सत्संग (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इकहत्तर दिनों वाला सत्संग-प्रवचनों का सेट) ।।  

http://dungrdasram.blogspot.in/2014/12/blog-post_8.html?m=1 )।