गुरुवार, 9 मई 2019

बिना प्रयत्न और बिना इच्छा के भी तत्त्वज्ञान(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।


।।श्रीहरिः।


तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥ ११॥


उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप- (होनेपन-)में रहनेवाला मैं (उनके) अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

तेषाम्=उन भक्तोंपरअनुकम्पार्थम्=कृपा करनेके लियेएव=हीआत्मभावस्थ:=उनके स्वरूप- (होनेपन-)में रहनेवालाअहम्=मैं (उनके)अज्ञानजम्=अज्ञानजन्यतम:=अन्धकारकोभास्वता=देदीप्यमानज्ञानदीपेन=ज्ञानरूप दीपकके द्वारानाशयामि=नष्ट कर देता हूँ।

— 'तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:’—उन भक्तोंके हृदयमें कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं होती। इतना ही नहीं, उनके भीतर मुझे छोड़कर मुक्तितककी भी इच्छा नहीं होती१। अभिप्राय है कि वे न तो सांसारिक चीजें चाहते हैं और न पारमार्थिक चीजें (मुक्ति, तत्त्वबोध आदि) ही चाहते हैं। वे तो केवल प्रेमसे मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेमपूर्वक भजन करनेको देखकर मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा बन जाय, वे मेरेसे कुछ ले लें। परन्तु वे मेरेसे कुछ लेते नहीं तो द्रवित हृदय होनेके कारण केवल उनपर कृपा करनेके लिये कृपा-परवश होकर मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको दूर कर देता हूँ। मेरे द्रवित हृदय होनेका कारण यह है कि मेरे भक्तोंमें किसी प्रकारकी किंचिन्मात्र भी कमी न रहे।
 'आत्मभावस्थ:’—मनुष्य अपना जो होनापन मानते हैं कि 'मैं हूँ’ तो यह होनापन प्राय: प्रकृति-(शरीर-) के साथ सम्बन्ध जोड़कर ही मानते हैं अर्थात् तादात्म्यके कारण शरीरके बदलनेमें अपना बदलना मानते हैं, जैसे—मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बलवान् हूँ, मैं निर्बल हूँ इत्यादि। परन्तु इन विशेषणोंको छोड़कर तत्त्वकी दृष्टिसे इन प्राणियोंका अपना जो होनापन है, वह प्रकृतिसे रहित है। इसी होनेपनमें सदा रहनेवाले प्रभुके लिये यहाँ 'आत्मभावस्थ:’ पद आया है।
 'भास्वता ज्ञानदीपेन नाशयामि’—प्रकाशमान ज्ञानदीपकके द्वारा उन प्राणियोंके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ। तात्पर्य है कि जिस अज्ञानके कारण 'मैं कौन हूँ और मेरा स्वरूप क्या है?’ ऐसा जो अनजानपना रहता है, उस अज्ञानका मैं नाश कर देता हूँ अर्थात् तत्त्वबोध करा देता हूँ। जिस तत्त्वबोधकी महिमा शास्त्रोंमें गायी गयी है, उसके लिये उनको श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि साधन नहीं करने पड़ते, कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, प्रत्युत मैं स्वयं उनको तत्त्वबोध करा देता हूँ। 

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( कई टिप्पणियाँ छूट गई) 


विशेष बात
 भक्त जब अनन्यभावसे केवल भगवान्में लगे रहते हैं, तब सांसारिक सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना—यह 'समता’ भी भगवान् देते हैं और जिसके समान पवित्र कोई नहीं है, वह 'तत्त्वबोध’ (स्वरूपज्ञान) भी भगवान् स्वयं देते हैं। भगवान्के स्वयं देनेका तात्पर्य है कि भक्तोंको इनके लिये इच्छा और प्रयत्न नहीं करना पड़ता; प्रत्युत भगवत्कृपासे उनमें समता स्वत: आ जाती है। उनको तत्त्वबोध स्वत: हो जाता है। कारण कि जहाँ भक्तिरूपी माँ होगी, वहाँ उसके वैराग्य और ज्ञानरूपी बेटे रहेंगे ही। इसलिये भक्तिके आनेपर समता—संसारसे वैराग्य और अपने स्वरूपका बोध—ये दोनों स्वत: आ जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि जो साधनजन्य पूर्णता होती है, उसकी अपेक्षा भगवान्द्वारा की हुई पूर्णता बहुत विलक्षण होती है। इसमें अपूर्णताकी गंध भी नहीं रहती।
 जैसे भगवान् अनन्यभावसे भजन करनेवाले भक्तोंका योगक्षेम वहन करते हैं (गीता—नवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक), ऐसे ही जो केवल भगवान्के ही परायण हैं, ऐसे प्रेमी भक्तोंको (उनके न चाहनेपर भी और उनके लिये कुछ भी बाकी न रहनेपर भी) भगवान् समता और तत्त्वबोध देते हैं। यह सब देनेपर भी भगवान् उन भक्तोंके ऋणी ही बने रहते हैं। भागवतमें भगवान्ने गोपियोंके लिये कहा है कि 'मेरे साथ सर्वथा निर्दोष (अनिन्द्य) सम्बन्ध जोडऩेवाली गोपियोंका मेरेपर जो एहसान है, ऋण है, उसको मैं देवताओंके समान लम्बी आयु पाकर भी नहीं चुका सकता। कारण कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, त्यागी आदि भी घरकी जिस अपनापनरूपी बेडिय़ोंको सुगमतासे नहीं तोड़ पाते, उनको उन्होंने तोड़ डाला है’।२
भक्त भगवान्के भजनमें इतने तल्लीन रहते हैं कि उनको यह पता ही नहीं रहता कि हमारेमें समता आयी है, हमें स्वरूपका बोध हुआ है। अगर कभी पता लग भी जाता है तो वे आश्चर्य करते हैं कि ये समता और बोध कहाँसे आये! वे 'अपनेमें कोई विशेषता न दीखे’ इसके लिये भगवान्से प्रार्थना करते हैं कि 'हे नाथ! आप समता, बोध ही नहीं, दुनियाके उद्धारका अधिकार भी दे दें, तो भी मेरेको कुछ मालूम नहीं होना चाहिये कि मेरेमें यह विशेषता है। मैं केवल आपके भजन-चिन्तनमें ही लगा रहूँ।’ 

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गीता साधक- संजीवनी (लेखक- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) 10/11 की व्याख्या । 

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

सत्संग की बातों के अंश-(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सत्संग की बातों के अंश) 

।।श्रीहरि:।।

सत्संग की बातों के अंश। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग की बातों के अंश 


(जीवन में काम आनेवाली और काम में लेने के लिये आवश्यक बातें- ) 
•••
सबसे पहले तो हमारा यह उद्देश्य हो कि हमें अपना उद्धार करना है। •••
हमारे सामने ये चीजें आती हैं- 
काम- धन्धा, समय, व्यक्ति, वस्तु आदि- आदि । •••  

मान लें वह काम आप हाथ-मुँह धोनेका कर रहे हैं। तो उसमें अनुभव यह होना चाहिये कि यह भगवान् का काम है। ••• 

हम हाथ धोनेके समय यह समझें कि भगवान् की अनन्त सृष्टिमें यह भी उनका एक छोटा-सा क्षुद्र अंश है। ••• 

(अधिक जानकारी के लिए मूल प्रवचन,  पुस्तक आदि देखें) 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज  
की पुस्तक  
"साधन रहस्य" (एकै साधै सब सधै) के 'सबका कल्याण कैसे हो? ' लेख से ।
••• 

सबसे पहले साधकको दृढ़ताके साथ यह मानना चाहिये कि ‘शरीर मैं हूँ और यह मेरा है’ यह बिलकुल झूठी बात है। हमारी समझमें नहीं आये, बोध नहीं हो, तो कोई बात नहीं। पर शरीर ‘मैं नहीं हूँ’ और ‘मेरा नहीं है, नहीं है, नहीं है’—ऐसा पक्का विचार किया जाय, जोर लगाकर। जोर लगानेपर अनुभव नहीं होगा, तब वह व्याकुलता, बेचैनी पैदा हो जायगी, जिससे चट बोध हो जायगा।
शरीर मैं नहीं हूँ—इस बातमें बुद्धि भले ही मत ठहरे, आप ठहर जाओ ! बुद्धि ठहरना या नहीं ठहरना कोई बड़ी बात नहीं है। यह मैं नहीं हूँ—यह खास बात है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ ‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह इतना जल्दी लाभदायक नहीं है, जितना ‘यह मैं नहीं हूँ’ यह लाभदायक है। दोनों तरहकी उपासनाएँ हैं; परंतु ‘यह मैं नहीं हूँ’ इससे चट बोध होगा। लेकिन खूब विचार करके पहले यह तो निर्णय कर लो कि शरीर ‘मैं’ और ‘मेरा’ कभी नहीं हो सकता। ऐसा पक्का, जोरदार विचार करनेपर अनुभव नहीं होनेसे दु:ख होगा। उस दु:खमें एकदम शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी ताकत है। वह दु:ख जितना तीव्र होगा, उतना ही जल्दी काम हो जायगा। 

" तात्त्विक- प्रवचन " के
'मैं शरीर नहीं हूँ ' लेख से। 

•••तो इच्छा करने से वस्तुएँ थोङे ही मिलेंगी । वस्तुएँ तो काम करने से मिलेंगी । इसलिये वस्तुओं की इच्छा न करके काम करने की इच्छा करो। ••• 

इस विषय में मैं चार बातें कहा करता हूँ -- 

(1)अपना सब समय अच्छे- से- अच्छे, ऊँचे- से ऊँचे काम में लगाओ। निकम्मे मत रहो, निरर्थक समय बरबाद मत करो •••
(1) जिस किसी काम को करो, सुचारुरूप से करो, जिससे आपके मन में सन्तोष हो और दूसरे भी कहें कि बहुत अच्छा काम करता है। •••
(3) इस बात का ध्यान रखो कि आप के पास दूसरे का हक न आ जाय। आपका हक दूसरे के पास भले ही चला जाय, पर दूसरे का हक आपके पास बिल्कुल न आये।
(4) अपने व्यक्तिगत जीवन के लिये कम- से कम खर्चा करो। ••• 

चिन्ता करना और चीज है, विचार करना और चीज है । 'काम किस रीति से करें, किस रीति से कुटुम्ब का पालन करें, किस रीति से व्यापार करें; किस तरह से सबके साथ व्यवहार करें ' ऐसा शान्त- चित्त से विचार करो । विचार करने से बुद्धि विकसित होगी। परन्तु चिन्ता करोगे कि 'हाय , क्या करें ! इतने कुटुम्ब का पालन कैसे करें । पैदा है नहीं, क्या करें ! ' तो बुद्धि और नष्ट हो जायगी, काम करने में भी बाधा लगेगी, फायदा कोई नहीं होगा । ••• 

"कल्याणकारी- प्रवचन " के
'इच्छा के त्याग और कर्तव्य- पालन से लाभ' से । 


••• 
दूजी बात, एक मार्मिक बताता हूँ । उस तरफ भाई बहनों का ध्यान बहोत कम है । आप कृपा करके ध्यान दें । अपणे भजन- स्मरण करके भगवान् का चिन्तन करके, दया, क्षमा करके जो साधन करते हैं । ये जो करके साधन करते हैं , इसकी अपेक्षा भगवान् की शरण होणा , तत्त्व को समझणा और ये करणे पर जोर नहीं देणा, करणे से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है, इणका त्याग करके एक शरण होणा, एक परमात्मा में लग ज्याणा अर उसके नाम का जप करो, कीर्तन करो , भगवान् की चर्चा सुणो, भगवान् की बात कहो- ये करणे की है। और दूजा करणे का ऊँचा दर्जा नहीं है । जैसे दान करो, पुण्य करो, तीर्थ करो, ब्रत करो, होम करो, यज्ञ करो। ये सब अच्छी बातें है; परन्तु ये दो नम्बर की बातें हैं । 

निष्कामकर्मानुष्ठानं त्यागात्काम्यनिषिद्धयोः। 

काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना और निष्काम भाव से सबकी सेवा करना है। 

तत्रापि परमो धर्मः जपस्तुत्यादिकं हरेः।। 

भगवान् के नाम का जप करणा, स्तुति करणा, भगवान् की चर्चा सुणणी, कथा कहणी, कथा सुणणी, भक्तों के, भगवान् के चरित्रों का वर्णन करणा- ये काम मुख्य करणे का है।
और इसमें थाँरे पईसे री जरुरत कोनि । यज्ञ करो तो , दान करो तो , पुण्य करो तो, उपकार करो तो पईसा री जरुरत है । तो जिणके पास पईसा है, उनको यह करणा चाहिये, टैक्स है उन पर। नहीं करते हैं तो गलती है । पैसा रखे अर दान पुण्य नीं करे - 

धनवँत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।
भगति करे नहिं भगतङा अब कीजै कौण उपाव।।
कीजै कौण उपाय सलाह एक सुणलो म्हारी।
दो बहती रे पूर नदी जब आवै भारी।।
जाय गङीन्दा खावता धरती टिकै न पाँव।
धनवत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।। 

तो धर्म, दान, पुण्य करणा कोई ऊँचे दर्जे की चीज़ नहीं है; पण पईसा राखे है, वाँरे वास्ते टैक्स है । नीं करे तो डण्ड होगा । तो डण्ड से बचणे के लिये ये काम करणे का है । भाई, पईसा ह्वै तो इयूँ करलूँ, इयूँ करलूँ । कहीं कुछ नहीं होता । पईसा है तो वे लगाओ अच्छे काम में । नहीं तो थाँरे फाँसा घालसी , पईसा थाँरा अठैई रहई अर डण्डा थाँरे पङसी, मुफत में, अर पईसा खा ही मादया भाई- दूजा । डण्डा थाँरे पङसी। इण वास्ते ए खर्च करणा है ।
करणे रो काम तो भगवान् रे नाम रो जप करो, कीर्तन करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, कथा पढ़ो , भगवान् री कथा पढ़ो, सुणो, भगतों की कथावाँ सुणो, पढ़ो । ये पवित्र करणे वाळी चीजें हैं और मुफत में पवित्र कर देगी, कौङी- पईसा लागे नहीं, परतन्त्रता है नहीं । और फेर निरर्थक और निषिद्ध काम बिल्कुल नहीं करणा है कोई तरह से ई । ये जितना अशुद्ध •••
(आगे की रिकोर्डिंग कट गई)। 

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सतरह जुलाई, उन्नीस सौ छियासी, प्रातः पाँच बजे वाले प्रवचन के अंश का यथावत् लेखन)।
http://dungrdasram.blogspot.com/2019/04/blog-post.html

सोमवार, 14 जनवरी 2019

परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका की विलक्षणता।( --श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन) । 

                           ।।श्रीहरिः। ।

परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका की विलक्षणता।

( -श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के  दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन) । 

 ( 0 मिनिट से) नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण । 

देखो! आप मानें, न मानें और न मानें तो मेरा कोई आग्रह नहीं, अर मानें तो लाभ की बात है, और नईं (नहीं) मानें तो ई (भी) < > म्हाँरे (हमारे) कोई, नरक चले जाओगे उस समय - आ (यह) बात नहीं (है)।

श्री गोयन्दकाजी को, सेठजी गोयन्दकाजी, जो रहा - जयदयालजी गोयन्दका। उनको मैं तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुष मानता हूँ। और ये मैं (मैंने) माना है। अर(और), उनकी लेखिनी पढ़ी है, उनके साथमें रहा हूँ, उनके आचरण देखे हैं। और देखणे से वो बात दृढ़ होती है। दूजों (दूसरों) के दूर से सुण्णे (सुनने) पर श्रद्धा बैठती है, पास में रहणे पर वैसी श्रद्धा नहीं रहती। तो ऐसी मेरे भी कुछ- कुछ हुई है बातें; परन्तु मैं, फिर भी उनको समझता हूँ तो वैसे हमें (1 मिनिट.) इतिहास में महापुरुष नहीं दीखते हैं उनके समान। इतना विलक्षण मानता हूँ उनको। बहुत विचित्र पुरुष थे वो।

एक महात्मा होते हैं, एक भगवान् होते हैं। तो महात्मा होते हैं, जो संत होते हैं, उनकी [ जीवनी -] इतिहास आप देखलो, जगह- जगह जितना प्रमाण (है) वो देखलो, कोई प्रमाण मिले तो मेरे को बता देना, एक बात कहता हूँ–

पारमार्थिक साधन में लगणे पर मनुष्य की चाल बदलती है, बेश (वेश) बदलता है, रहन- सहन बदलता है, ये बदलता ही है, नहीं बदला हो तो मने बतादो, उदाहरण बतादो फिर। इता बैठा हो थे ई( इतने बैठे हो आप भी), जाणकार हो, कोई एक- दो बतायो (- बता देना)।

सेठजी रे वाही(वही) तो धोती है र(और) वाइ(वही) पगड़ी है र वाइ अँगरखी है, अर वेइ(वे ही) जूता है र, वो जूता तो चमड़े रा म्हें देख्या ई कोनीं (चमङेके मैंने देखे ही नहीं), कपड़े रा(का) है, और वाइ कामळ है देशी बण्योड़ी(बुनी हुई), अर वाइ बोली है, - मोटर ने मटर कहता(कहते थे), (2 मिनिट.) मटर।

(श्रोताओं को हँसी आ गई - हँहहहहहअ.)।

इतनी ऊँची स्थिति होने पर रहन- सहन, वेशभूषा में कोई फर्क नहीं, है ज्यूँ रा ज्यूँ(है ज्यों-के-त्यों), हर ये कहता म्हेंतो(और यह कहते थे कि मैं तो), एक बणिये को(बनियेका) बेटा हूँ मैं– म्हे तो बाणिया हाँ(हम तो बनिये हैं)। आ बात ही(यह बात थी)। और विवेचन करणे में इतनी विलक्षणता ही(थी) कि जो गहरा उतरता, वे(उस) बात में, जो बड़ा चकरा जाय आदमी।

अपणे साधुओं में, श्री चौकसरामजी महाराज बहोत बुद्धिमान हा(थे) । तो वे भी उठे आया हा(वहाँ आये थे)। रामधनजी - म्हारे गुरु भाई, वे भी हा(थे)।

तो आया जणाँ(आये तब) तो आ बात कही मेरे वास्ते, क ए(ये) स्वामीजी तो पढ़्या लिख्या(पढ़े-लिखे) है, सेठजी तो, पढ़्या लिख्या तो है ई नईं। पढ्या लिख्या दीखता ई कोनी। तो आँरो (स्वामीजी रो) व्याख्यान चौखो। ऐतो(ये तो) आप (श्रीसेठजी) मारवाड़ी- मिश्रित बोले है(बोलते हैं)।

बे(वे) चौकसरामजी महाराज कहणे लग्या(कहने लगे) कह, मैं(मैंने) एक बात अठे(यहाँ) (3 मिनिट.) देखी जिठी (-जिसी) कठेई नीं(वैसी कहीं नहीं) देखी। चौकसरामजी महाराज केयौ रामधनजी नें, वाँ म्हने केयौ (चौकसराम महाराजने रामधनजीको कहा, उन्होंने मेरेसे कहा)—

जो तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, पारमार्थिक विशेष हो जायेगा, वो व्यवहार में इतना चतुर नहीं होगा। और व्यवहार में बहुत सावधान होगा, वो पारमार्थिक- ऊँचा नहीं होगा।

सेठजी से कोई ( - सी भी ) बात पूछलो भले ही थे, ब्याह सावे की पूछलो, सगाई सम्बन्ध री पूछलो, पारमार्थिक पूछलो, ज्ञानयोग पूछलो, ध्यानयोग पूछलो, कर्मयोग पूछलो, भक्तियोग पूछलो, अष्टांगयोग पूछलो। सब बातों की बारीक- बारीक, पुर्जा- पुर्जा बता देंगे। येह(यह), एक बात मैं एक जगह ई देखी। चौकसरामजी महाराज [ने] कही अन्तमें। 

सब बातों का चौधारो (चारों और से धार वाला, सब प्रकार से कुशल) आदमी नीं हुया करे है (नहीं हुआ करते हैं), एक- एक विषय में हुया करे (है)। बड़े- बड़े वकीलों से लड़ायाँ (लङाइयाँ) नहीं सुळझी है, वा (उन सबको) सेठजी [ने] सुळझायी (सुलझाया) है, अर वहाँ सब का फैसला लिखा है। मेरे सामने, पाँच- सात, (4 मिनिट.) दस– ऐसे फैसला किया है वहाँ। सत्संग छोड़ देता, अबार (अभी) फैसला कराँ (करते हैं) कह,। अर करोड़पति, लखपति आदमी र, अड़ जाय एक कुर्छी पर – चमचो मैं लेएऊँ(लूँगा), वो कहते - मैं लेएऊँ। अर नीं तो आदमी मर ज्याय(जाय) - आपसमें ऐसी लड़ाई। जके में, सगळाँ ने सळ्चा (सरचा) दिया (ऐसे में, सबको यथायोग्य देकर सन्तुष्ट कर दिये), राजी कर दिया दोनूँ [पक्षोंको]। ऐसा फैसला कर देता। वकालत, जज भी जाणें कोनीं जिता जाणता (हा। जजभी नहीं जानते, उतना जानते थे)।

तो व्यवहार में भी इतना विलक्षण, और परमात्मा में ईं, परमार्थ- रीति में बहुत विलक्षण– ऐसी मेरी धारणा रही। 

नहीं तो आप भी विचार करो– तो साधू होकर गृहस्थी के पास क्यों गया मैं ? पण कोई साधू ऐसा मिला नहीं मेरे को। मिलता तो मैं नहीं जाता वहाँ। ऐसे विलक्षण थे।

मेरी दृष्टिमें, उनकी चाल शाल, विचार, भले ई वेशभूषा तो अवतार की [थी]। (5 मिनिट.) अवतार यूँ(ऐसे) - कह, रामजी क्या कहते हैं, रामजी का परिचय –

कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए।। 

(रामचरितमा. ४।२।१)। 

— पूछे कि तुम कौण हो? तो उन्होंने परिचय क्या दियो? – कोशलपति, दशरथजी का बेटा हाँ(हैं), और पिताजी ने वनवास दिया, वनवास में आया हाँ, अर राम र लिछमण म्हारो भाई है, म्हे भाई- भाई हाँ। म्हारी लुगाई लोग लेग्या जो, जोवता फिराँ हाँ (हमारी पत्निको जो लोग ले गये, उनको खोजते फिर रहे हैं)।

इमें (इसमें) काँई अवतार है र काँई महात्मापणों है? सीधी सादी बात है क नीं? गृहस्थियों जैसी बात ह्वे, जैसी- जैसी साफ कह दी। इहाँ हरी निसिचर बैदेही। खोजत हम, फिरहिं बिप्र तेही - ब्राह्मण रा देवता ! म्हे तो बेने जोवता फिराँ हाँ। आ बात की - अपणो परिचय ओ दियो। कठेई यूँ कोनी– म्हें महात्मा हूँ क, म्हें भगवान् हूँ क, संत हूँ क, कठे ई को दियो नीं (कहीं भी नहीं दिया)। इयूँ(ऐसे) ही सेठजी के परिचय वो ही । वेशभूषा में ईं वो ही परिचय। आप एक महात्मा बताओ ऐसा। (6 मि.) 

जैसे श्रीजी महाराज ने कहा है-

त्यागी शोभा जगत में करता है सब कोय ।
हरिया गृहस्थी संत का भेदी बिरळा होय ।। 

आ बाणीमें आवे। कितनी विचित्र बात है। सहजावस्था की बात पूछी, वो सहजावस्था की बात जितनी श्रीजी महाराज रे– श्रीहरिरामदासजी महाराज की बाणी में जितनी आती है, इतनी म्हें बाणी दूजी देखी नहीं है, जिके में आ बात आयी ह्वै(हो)।, जितने- जितने आचार्य हुए हैं, उन आचार्यों की देखी, श्रीजी महाराज की, हरदेवदासजी महाराज, नारायणदासजी महाराज हुए, रामदासजी महाराज हुए, दयालजी महाराज की बाणी बहुत विचित्र। बे(उस) में भी आवे, थोड़ो आवे (घणाँ कोनि)। इनके खास बात है।

हरिया जैमलदास गुरु राम निरंजन देव ।
काया देवल देह रो
सहज हमारी सेव ।।

( 'सहज' शब्द पर ताळी ठौक कर, उसको विशेष जताया )

हद करदी नीं ! हमारी सेवा सहज है -

सहजाँ मारग सहजका सहज किया बिश्राम।
हरिया जीव र सीव का एक नाम एक
(7) ठाम ।। 

सहज तन मन कर सहज पूजा। सहज सा देव नहीं और दूजा।।

हद ई करदी है। ऐसी साफ बाणी, हरेक संत की मिले नीं है। ऐसी बात सेठाँ की है। विचित्र बात है उनकी, ज्यादा नहीं कहूँ मैं, उदाहरण थाँ पूछ्यो जको उदाहरण कहणे रे वास्ते आ भूमिका बाँधी है।

गोरखपुर में हम लोग ठहरे हुए थे, सेठजी जिसमें रहते, उसके ऊपर मकान में। सुबह चार बजे सत्संग होता था। उसमें, प्रेस में से भी भाई आ ज्याते, हम लोग भी आ ज्याते, गाँव में, घर में - घराँ में से लोग आ ज्याते। तात्त्विक- बातें होती थी सुबह के समय में। बड़ी बिचित्र- विचित्र बाताँ होती थी। सुणते थे हम।

तो वहाँ एक, गुप्तानन्दजी नाम कर एक संत थे। वो ठहरे हुए थे प्रेसमें। (8)  गुप्तानन्दजी महाराज थे, ऐसे साधू भी बहोत कम देखणे में आते हैं। इतने बे (वे) बिरक्त थे। हाथ का कता, हाथ का बणा ही कपड़ा पहनते। टेका (टाँका) लेता तो भी, मील रा, सुई रो डोरो भी लेता कोनी और सोता, जणाँ आपरो कपड़ो ई बिछावता कोनी। यूँ ई, छत पर यूँ ई सो जाता। भिक्षा में जाता, जको मिळ ज्याय ज्यूँ ले लेता। वाँ रे गुरुजी हा, वाँ री बात भी ऐसी मैंने सुणी र मैंने दर्शन किये हैं। कोई कहता महाराज! निमन्त्रण है। कह, ठीक है। खीचड़ी बणाणा, नमक भी मत डालणा (बी म्हें-उसमें))। और कुछ नहीं। और नेतो नीं लेता, जणाँ निमक डालदो भले ही। खीचड़ी ले लेता, रोटी ले लेता। घी क, दूध क, दही क, कुछ नहीं। और गुप्तानन्दजी महाराज री बात, जो भिक्षा माँगता, जो केवल रोटी ले लेता और बे खा लेता। दस्ताँ लगणे लग गई। (9) जणाँ म्हें कहयो महाराज! आप छाछ ले लिया करो, घराँ में से छाछ ले लो। ज्यादा आग्रह किया। तो मेरे पर बहोत कृपा रखते थे, मेरी बात मानते थे। तो वाँने स्वीकार कर लिया। मैंने बहनों माताओं से कह दिया भई! आवे तो इनको छाछ घाल देना। एक हाँडी देदी छोटी। छाछ लेई - ईमें काँईं बात, छाछ लेलो। 

   दो, तीन, चार दिन हुआ होगा- याद नहीं, कितना दिन। एक दिन आ र कह - स्वामीजी! देखो, आपका कहणा मैंने कर लिया, अब नहीं लूँगा। मुको क्या हुयो? कह, किसी माई ने दही डाल दिया उसमें। इस वास्ते अब नहीं लूँगा मैं। आ बात है। ओ वाँ रे, गुप्तानन्दजी रो परिचय दियो थाँने। 

   वे उतर्योड़ा हा प्रेसमें। तो वे केवै क प्रेसमें रहता है ताळा। तो पहले मैं शौच- स्नान करिआऊँ, गंगाजी जायआऊँ (श्री स्वामीजी महाराज कहीं- कहीं पर दूसरी नदी को भी आदर से गंगाजी कह देते थे) - नदी पास में बेवै ई है, नदी में (10) नहाइयाऊँ, त्यार हू ज्याऊँ चार बजे से पहले। तो मैं ताळो खोलाऊँ जको साधु रो धर्म क्या है? दरबान ने कह सकाँ (हाँ)? - थे ताळो खोलो। अथवा तो कह सको - मत खोलो? आपाँने कहणो क्या है? साधू रो धर्म क्या है? कर्त्तव्य बताओ- साधू को ओ कर्त्तव्य है ।  देरी सूँ ईं आता बिचारा, चार बज्याँ, आता जणाँ ही आता। खोलता दरवाजो जणाँ आ ज्याता। तो मेरे, पीछे शौच- स्नान में देरी हो ज्याय। तो आपाँने कहणो धर्म है क नीं दरबान ने?

   म्हें पूछ्यो भाई म्हें क्यों उत्तर दूँ , जब सेठजी बैठा है तो आनें ईं पूछलाँ। जैसे कोई बताणे वाळो ह्वै तो आपाँ क्यों कूद र पड़ाँ बीचमें?        सेठजी ने पूछ्यो सेठजी! आ दशा है। अब क्या कराँ। म्हारे संत पूछे है। सत्संग उठग्यो, उठते हैं, कोई- कोई जा रया है, कोई बैठा है, यूँ हो रहा है, बे वख्त मैंने प्रश्न किया। ऐसे ये पूछे है, तो आपाँने– म्हाँने क्या करणो चइये – साधू रो धर्म क्या है? दरवज्जे ऊपर है, तो आनें कहणो – तू आडो खोलदे भाई। (11) ओ कहणो ठीक है क नीं है?

वाँ बात मेरी सुणली। शुकदेवजी! शुकदेवजी!! – जा रया था, आओ। क्या बात है? कह, तीन बजे आडो खोल दिया करो, ताळो खोल दिया करो। ये बात हूगी। चलाग्या। 

   अब वे गुप्तानन्दजी रे खळबळी मचगी क म्हेंतो एक मेरे वास्ते कहूँ, रोजीनाँ ड्यूटी लगा दिया आनें तो – रोजीनाँ ही ड्यूटी लगा दी। बात ठीक नहीं हुई। भिक्षारो टाइम हो गयो म्हारे। सेठजी! आपसे मेरे बात करणी है। कह, अच्छा। 

   भिक्षा कर र, भोजन करके आया (हूँ), मैंने कहा – आप मनें ये बताओ, उनके तो एक अपणे लिये ही दरवज्जा खोलाणे का सँकोच, अर आपने सदा के लिये ड्यूटी लगादी खोलणे की। तो उनके भारी लगी। इण वास्ते ये क्या उत्तर दिया आपने? 

   समझ में कठे आयी? ज्यूँ, या नहीं समझ में आयी न!  मैंने पूछा। पूछा तब महाराज! उत्तर दिया– बङा ही सन्तोषजनक— (12) 

   कहते हैं क साधू का कर्त्तव्य पीछे बतावें, जब हम अपणा कर्त्तव्य पालन करें। हम तो कर्त्तव्य पालन करें ईं नीं र साधू का कर्त्तव्य बतावें, हमारा अधिकार नहीं है बतानेका। 

   तो उनको क्यों कहणा पड़े- क दरवज्जा खोल दो। हमारा कर्त्तव्य है कि साधू को कोई अङचन (है) दरवाजा खोल दो। तो क्या कर्त्तव्य? कर्त्तव्य हमने पालन किया। 

   इससे ये ई बताया क तुम मत कहो। इतरा वर्षों से मैं साथ में रहता हूँ, मेरे अकल(बुद्धि) में नहीं आयी बात – आ सेठजी कैसे करदी। 

   तो आदमी रे आचरण समझमें थोड़े ई आवे सभी, कौणसो आदमी, किस वक्त में, कौणसा काम करता है? 

   म्हनें केयो– बताओ बीती हुई घटना। ऐसी मेरी बीती हुई है घटनाएँ। मैंने देखी है, पूछी है। हमारे समझमें नीं आयी थी भई! हर कहणें से समझमें आ ई गी चट सी। आप बताओ, आपके शंका रही हो तो। 

   गुप्तानन्दजी बिचारे के खळबळी हुई क रोजीनाँ ही स ड्यूटी लगाादी इनकी तो। (13) मेरे भी समझमें नीं आयी वा। भिक्षा फिरा, किया, जितनी बात, चिन्तन वो– बात क्या हुई भाई? सेठजी ने ऐसे कैसे कर दिया? या बात ही सा। 

   दूजो कोई कर्त्तव्य पूछे, थारो कर्त्तव्य ओ है - यूँ बता दे चट सूँ। [और म्हने] बतायो ई कोनीं, सीधो हुक्म ही दियो। 

   इस वास्ते मनुष्य की लीला भी समझमें नहीं आती है, किस समय में, कौणसा काम, कैसे करते हैं? ऐसे भगवान् कृष्ण की लीला, कैसे समझमें आवे?

( --श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के  दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन ) । 

यह प्रवचन इस ठिकाने (- पते) से प्राप्त किया जा सकता है- 
bit.ly/sethji10041981

http://dungrdasram.blogspot.com/2019/01/10041981.html

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

विश्राम में परमात्मा में स्थिति(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                      ।।श्रीहरिः। ।

विश्राम में परमात्मा में स्थिति ।
(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने
( "19940711_0518_Chup Saadhan_VV " नाम वाले) इस प्रवचन में कहा कि

एक विश्राम और एक क्रिया- दो चीज है। हरेक क्रिया करते हैं तो क्रिया में थकावट होती है,खर्च होता है। विश्राम में थकावट दूर होती है, संग्रह होता है। थकावट में बल खर्च होता है। व्यायाम से बल बढता है, परन्तु वो एक समय वो खर्च होता है। और विश्राम में शान्ति मिलती है, बल बढता है, विवेक काम आता है और विश्राम की बहोत बङी महिमा है, परमात्मा में स्थिति हो जाती है। 

हम काम करते हैं, (तो) लोगों की प्रायः दृष्टि है क्रिया पर। क्रिया से, कर्म से काम होता है, करणे से होता है काम। है भी संसार में करणे से ही होता है, ॰परन्तु परमात्मतत्त्व की प्राप्ति विश्राम में होती है अर उनसे अनुकूल क्रिया होती है। करणे में क्या बात है ! कि जो बिना ज़रूरी क्रिया है, उसका तो त्याग कर दे, जिससे कोई ना स्वारथ होता है ना परमार्थ होता है। मानो, न पैसे पैदा होता है, ना कल्याण होता है। ऐसी क्रियाओं का, जो निरर्थक है, अभी आवश्यक नहीं है, उन क्रियाओं का (तो) त्याग कर दे और आवश्यक काम है उस काम को कर लें। तो आवश्यक काम करने के बाद और निरर्थक क्रियाओं के त्यागने के बाद, विश्राम मिलता है। स्वतः, स्वाभाविक। 

वो विश्राम है, वो अगर आप अधिक करलें, तो उसमें बङी लाभ की बात है। इसमें ताक़त मिलती है। जैसे, चलते-चलते कोई थक जाय, तो थोङा क ठहर जाते हैं - सांस (श्वास) मारलो, सास मारलो। आप(लोग) कहा करे है -थोङा विश्राम करलो। तो फेर चलने की ताक़त आ जाती है। ऐसे, क्रिया करते- करते बीच में ठहरना है, (यह) बहोत अच्छा है। आप अगर उचित समझें तो ऐसा करके देखें, थोङी देर, पाँच- सात सैकण्ड ही हो चाहे। कुछ नहीं करना है, ना भीतर से कुछ करना है, ना बाहर की क्रिया। ना कोई मन, बुद्धि की क्रिया। (क्रिया) नीं (नहीँ) करणा। यह अगर आ जाय थोङी क करना, तो इससे सिद्धि होती है। आगे (अगाङी) क्रियाओं की ताक़त होती है, ताक़त आती है इससे। और विश्राम मिलता है, थकावट दूर होती है और बहुत बङी बात होती है कि संसार का सम्बन्ध- विच्छेद होता है। (यथावत् लेखन)। 

इसमें आगे और भी बढ़िया बातें बताई गई है। जानने के लिये पूरा प्रवचन सुनें। 

राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।

http://dungrdasram.blogspot.com/2018/12/blog-post.html

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

(निवेदन 1,2-)'सत्संग-स्वामीरामसुखदासजीम' वाले समूहके सदस्योंसे नम्र निवेदन-

'सत्संग-स्वामीरामसुखदासजीम' वाले समूहके सदस्योंसे नम्र निवेदन-

१-

कई सत्संगियोंका भाव था और मेरे पास विस्तृत निवेदन भी आया है कि एक ऐसा समूह (ग्रुप) हो कि जिसमें केवल सत्संग-सम्बन्धी चर्चा हों।उसमें  'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की बातें,संस्मरण,अनुभव और ज्ञान आदि हों। इसलिये यह समूह ('सत्संग-स्वामीरामसुखदासजीम') बनाया गया है।

इस समूहका उद्देश्य है कि इसमें सिर्फ 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'के सत्संगकी ही बातें हों।इस सत्संगके अलावा किसीको और कोई बात बतानी हो तो कृपया "ज्ञानचर्चा" नाम वाले दूसरे समूहमें भेजें। इस समूहमें 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की सत्संग-सम्बन्धी बातोंके अलावा दूसरी बातें न भेजें। 

सत्संग सामग्री भेजनेवालोंसे प्रार्थना है कि जो भी कुछ भेजें,वो प्रमाणिक हों,सत्य हों। जिस पुस्तकमेंसे जो बात लिखी गई हों,कृपया उस पुस्तकका नाम और लेख का नाम लिखें।  पृष्ठ संख्या साथ में लिखना और भी बढ़िया है।  सत्संग-प्रवचन आदिमें से भी जो बात लिखी हों तो कृपया वो भी (तारीख आदि) बतावें। अगर याद न हो या कोई दूसरी असुविधा हो तो कृपया स्पष्ट करके जतादें। 

जिन बातों का पता ठिकाना न हों,  वो बातें यहाँ न भेजें।  

इस प्रकार सत्य-सत्य बातोंकी ही चर्चा हों। सत्यका संग ही सत्संग है।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की सत्संग के अलावा अन्य कोई भी सामग्री न भेजें,  चाहे वो कितनी ही बढ़िया हो। 

यहाँ पर किसी भी प्रकार की प्रचार सामग्री न भेजें ।

कथा आदि की सूचना भी इस ग्रुप में न भेजें। 

इन बातों पर ध्यान न देने वालों के नम्बर यहाँ से हटाये जा सकते हैं।
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इस समूहका नामहै-

"सत्संग-('परम श्रद्धेय)स्वामी(जी श्री)रामसुखदासजी म(हाराज'का सत्संग)"।

यह(वाटस्ऐप) पूरा नाम पकड़ता नहीं है; इसलिये संक्षिप्त नाम यह लिखना पड़ा-

सत्संग-स्वामीरामसुखदासजीम।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

२-

जैसे श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की पुस्तकोंमें उनके ही लेख होते हैं,दूसरों के नहीं।इसी प्रकार इस समूहमें भी उनके ही सत्संगकी बातें होनी चाहिये,दूसरोंकी नहीं।

दूसरोंके लेख चाहे  कितने ही अच्छे हों,पर स्वामीजी महाराज की पुस्तक में नहीं दिये जाते और अगर दे दिये जायँ तो फिर सत्यता नहीं रहेगी (कि यह पुस्तक श्री स्वामीजी महाराज की है)।

ऊपर नाम तो हो श्रीस्वामीजी महाराज का और भीतर सामग्री हो दूसरी,तो वहाँ सत्यता नहीं है,झूठ है और जहाँ झूठ-कपट हो, तो वहाँ धोखा होता है,वहाँ विश्वास नहीं रहता।

विश्वास वहाँ होता है, जहाँ झूठ-कपट न हो,जैसा ऊपर लिखा हो,वैसा ही भीतर मौजूद हो।यही सत्यता है।सत्यताको पसन्द करना,सत्यमें प्रेम करना ही सत्संग है।

इस (मो.नं. 9414722389 वाले) समूहका उद्देश्य ही यह है कि इसमें सिर्फ श्रीस्वामीजी महाराजके सत्संगकी बातें हों।

मेरी सब सज्जनों से विनम्र प्रार्थना है कि इस समूहको इसके नामके अनुसार ही रहनें दें।किसी भी प्रकारकी दूसरी सामग्री न भेजें।

विनीत- डुँगरदास राम

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

[ पाँच खण्डों में ] गीता "साधक-संजीवनी" (लेखक- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) पीछे की विषयानुक्रमणिका आदि सहित।

                      ।।श्रीहरिः। ।
       
[ पाँच खण्डों में ]
गीता "साधक-संजीवनी "
(लेखक-
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)
पीछे की विषयानुक्रमणिका आदि सहित। 
 
कई लोगों के मन में आती है कि गीता "साधक-संजीवनी" कलेवर में बहुत बङी और वजनदार है। अगर यह अलग-अलग खण्डों में विभक्त होती तो पढ़ने में और लाने- ले जाने में भी सुगमता हो जाती। 

उसके लिये एक सुझाव दिया जाता है कि इसी (ओरिजिनल-मूल) गीता "साधक-संजीवनी" (प्रकाशक- गीताप्रेस गोरखपुर) के अलग-अलग विभाग करके (बाजार में) पाँचों पर ज़िल्द बँन्धवा लें और गीता "साधक-संजीवनी" के मुखपृष्ठ आदि पर जो एक सचित्र कवर चढ़ाया हुआ है, उसकी चार फोटो काॅपी और करवा लें। इस प्रकार ये पाँच कवर हो गये। 

अब इन पाँचों कवरों को गीता "साधक-संजीवनी" के उन विभाग किये गये पाँचों खण्डों पर चढालें।  (तो) इस प्रकार अपने मन की बात पूरी हो सकती है,  मनचाही हो सकती है।  

इसमें गीता "साधक-संजीवनी" के उन्ही (असली) पन्नों का विभाग किया है। पृष्ठ आदि में भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया है। अगर अन्य प्रकार से छपवा कर विभाग करते तो भूलें और गलतियाँ होने की सम्भावना थी ;  परन्तु यह तो जैसे पहले थी, वैसे ही है। सिर्फ विभाग अलग-अलग हुए हैं,पन्ने वही हैं। पन्नों की सुरक्षा के लिए अलग-अलग जिल्दें बन्धवायी और उन पर कवर चढाये गये हैं।  

   [ पहले यह टीका गीताप्रेस गोरखपुर से  दस खण्डों में अन्य प्रकार से छपी थी, फिर कुछ संशोधन आदि करके सम्पूर्ण टीका एक ज़िल्द में ही छपवा दी गयी, जो मूल, ग्रंथाकार रूप में (वहीं से) उपलब्ध है ]। 

सम्पूर्ण गीता "साधक-संजीवनी" को एक जिल्द में छपवाते समय ही श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के ऐसी व्यवस्था ध्यान में आ गयी थी।
इसलिये उन्होंने (छपवाते समय) गीता "साधक-संजीवनी" के प्रत्येक अध्याय की शुरूआत में और उस अध्याय की समाप्ति पर यह ध्यान रखा कि इनकी अलग-अलग जिल्दें बन्धवाई जाय तो भी उसमें सम्पूर्ण पृष्ठ आ जाय।   न तो इस अध्याय का आखिरी पृष्ठ आगे वाले अध्याय में  रखना पङे और न आगे वाले अध्याय का पहला पृष्ठ इस अध्याय में रखना पङे। 

जैसे, गीता "साधक-संजीवनी" का आठवाँ अध्याय ६२१ वें पृष्ठ पर समाप्त होता है। अब नवाँ अध्याय उससे आगवाले (६२२ वें) पृष्ठ से छपवाना शुरू किया जा सकता था; परन्तु ऐसा न करके उस पृष्ठ को खाली रखा। (उस खाली जगह को भगवान् का रेखाचित्र देकर भर दिया) और इससे भी आगे वाले (६२३ वें) पृष्ठ पर नवें अध्याय की शुरूआत की। 

ऐसी व्यवस्था कर देने से इस अध्याय की जिल्द अलग से बान्धने पर भी इस अध्याय के सम्पूर्ण पृष्ठ इसी खण्ड में रहेंगे और आगे वाले अध्याय के भी सम्पूर्ण पृष्ठ उसी में रहेंगे। 

अगर ऐसी व्यवस्था न की गयी होती तो यह सुविधा नहीं मिलती। यह उन महापुरुषों की महान् कृपा है। 

इस प्रकार अठारहों ही अध्यायों को अलग-अलग अठारह जिल्दों में बनवाया जा सकता है और उनके सम्पूर्ण पृष्ठ उसी खण्ड में आ सकते हैं। 
इसी प्रकार उन्होंने गीता "साधक-संजीवनी" के प्रत्येक पृष्ठ के कौने में  अध्याय और श्लोक संख्या भी लिखवादी, जिससे कहीं से भी तथा कोई भी पृष्ठ खोला जाय तो पता लग जाय कि कौन से अध्याय के कौन से श्लोक की व्याख्या चल रही है। हरेक टीका में ऐसी सुविधा नहीं मिलती। 
इसके अलावा उन्होंने गीता जी के उद्धरण वाले श्लोकों की संख्याओं को भी अक्षरों में लिखवा कर छपवाया। जिससे श्लोक संख्या के अंकों में भूल न हों। जहाँ गीता के श्लोक न देकर केवल संख्या का उद्धरण दिया गया था, वहाँ (दुबारा छपने पर) भूल होने की सम्भावना थी। अब संख्या की जगह अक्षरों में लिखवा दिया (कि अमुक अध्याय के अमुक श्लोक में यह बात आयी है) तो भूल होने की सम्भावना नहीं रही।
जहाँ श्लोकांश के साथ श्लोक संख्या लिखी है, वहाँ अगर अंकों में भूल हुई तो वो श्लोकों के अंशों से पकङी जायगी। 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज ने गीता "साधक-संजीवनी" की शुद्धता और सरलता पर बहुत ध्यान रखा है। साधकों की सुविधाओं का भी विशेष खयाल रखा है तथा सबके हित का भी बहुत ध्यान रखा है। 

यहाँ, यह गीता "साधक-संजीवनी" पाँच खण्डों में विभक्त करके उनकी अलग-अलग बाइण्डिंग बाँन्धनी है।
हर खण्ड पर गीता "साधक-संजीवनी" के मुखपृष्ठ आदि वाली फोटो सहित कवर लगाना है। 

पाँचों खण्ड नीचे लिखे गये अध्यायों के अनुसार विभक्त किये जायँ-
[१- गीता साधक-संजीवनी 1-3]
(स्वामी रामसुखदास)
[२- गीता साधक-संजीवनी 4-7]
(स्वामी रामसुखदास)
[३- गीता साधक-संजीवनी 8-11]
(स्वामी रामसुखदास)
[४- गीता साधक-संजीवनी 12-16]
(स्वामी रामसुखदास)
[५- गीता साधक-संजीवनी 17-18]
(स्वामी रामसुखदास) 

(प्रत्येक खण्ड की जिल्द के ऊपर या अन्दर, पहले पन्ने पर नाम भी  क्रमशः  इस प्रकार लिख सकते हैं ) 

ये नाम अथवा खण्डों की संख्या आङी साइड में भी लिख सकते हैं जिससे बिना उठाये ही पता चल जाय कि कौन सा खण्ड किस खण्ड के नीचे है।
----------------------------------------------
कृपया इन बातों का ध्यान रखें और काम पूरा हो जाने पर जाँच भी करलें- 

1- गीता "साधक-संजीवनी" की वही प्रति हो कि जिसके पीछे 'विषयानुक्रमणिका' आदि दी गयी हो। 

2- प्रत्येक खण्ड के ऊपर और आङी साइज में नाम क्रमशः सही-सही हो। 

3- प्रत्येक खण्ड के ऊपर गीता "साधक-संजीवनी" के मुखपृष्ठ आदि वाले चित्र सहित कवर हो। 

4- ज़िल्द सही ढंग से बाँन्धी गई हो। कोई भी पृष्ठ छूटे नहीं हो और इधर ऊधर न हुए हों तथा मुङे नहीं हो, एक-दूसरे के चिपके नहीं हो, आदि बातों का ध्यान रखा गया हो। (इस प्रकार सब जाँचलें)।  
  http://dungrdasram.blogspot.com/2018/08/blog-post.html?m=1






गुरुवार, 19 जुलाई 2018

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के अन्तिम प्रवचनों का यथावत् लेखन

अन्तिम प्रवचन-

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

[ प्रसंग-

 श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजसे अन्तिम दिनोंमें यह प्रार्थना की गयी कि आपके शरीरकी अशक्त अवस्थाके कारण प्रतिदिन सत्संग-सभामें जाना कठिन पड़ता है। इसलिये आप विश्राम करावें। जब हमलोगोंको आवश्यकता मालुम पड़ेगी, तब आपको हमलोग सभामें ले चलेंगे और कभी आपके मनमें सत्संगियोंको कोई बात कहनेकी आ जाय, तो कृपया हमें बता देना, हमलोग आपको सभामें ले जायेंगे।
उस समय ऐसा लगा कि श्री स्वामीजी महाराज ने यह प्रार्थना स्वीकार करली।

इस प्रकार जब भी परिस्थिति अनुकूल दिखायी देती, तब समय- समय पर आपको सभामें ले जाया जाता था।

एक दिन (परम धाम गमन से तीन दिन पहले २९ जून २००५ को, )
श्रद्धेय श्री स्वामीजी महाराजने अपनी तरफसे (अपने मनसे) फरमाया कि आज चलो अर्थात् आज सभामें चलें। सुनकर
तुरन्त तैयारी की गयी।
पहियोंवाली कुर्सी पर आपको  विराजमान करवा कर सभामें ले जाया गया और जो बातें आपके मनमें आयीं, वो सुनादी गयीं तथा वापस अपने निवास स्थान पर पधार गये।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे और प्रवचन हुए।

इस प्रकार यह समझ में आया कि जो अन्तिम बात सत्संगियोंको कहनी थी, वो उस (पहले) दिन कह दीं।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे थे परन्तु दूसरों की मर्जी से पधारे थे। अपनी मर्जीसे तो जो आवश्यक लगा, वो पहले दिन कह चूके। दूसरे दिन (उन पहले दिन वाली बातों पर)प्रश्नोत्तर हुए तथा अपनी बात भी कही ]।


श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के 
अन्तिम प्रवचनों का यथावत् लेखन 

  

 (प्रवचन नं० १- ) 


            ■□मंगलाचरण□■

( पहले मंगलाचरण किया और उसके बाद में श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज बोले -  ) 


एक बात बहुत श्रेष्ठ (है ), बहुत श्रेष्ठ बात, है बड़ी सुगम, बड़ी सरल । एक बात है, वो कठिन है- कोई इच्छा, किसी तरह की इच्छा मत रखो । किसी तरह की कोई भी इच्छा मत रखो। ना परमात्मा की, ना आत्मा की, ना संसार की, ना आपनी (अपनी) मुक्ति की , कल्याण की इच्छा , कुछ इच्छा, कुछ इच्छा मत रखो और चुप हो जाओ, बस। पूर्ण प्राप्त।  कुछ भी इच्छा न रख कर के चुप, शाऽऽऽऽऽन्त !! ।

क्योंकि परमात्मा सब जगह, शाऽऽऽन्त रूप से परिपूर्ण है । स्वतः, स्वाभाविक। सब ओर, सब जगह ; परिपूर्ण [है])। कुछ भी न चाहे, कोई इच्छा नहीं, कोई डर नहीं, किसी तरह की कोई कामना न रहे। चुप हो जाय, (बऽऽस) । एकदम परमात्मा की प्राप्ति हो जाय। तत्त्वज्ञान है वो पूर्ण। कोई इच्छा (न रखें )। क्योंकि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती। यह सब का अनुभव है । सबका यह अनुभव है क (कि) कोई इच्छा पूरी होती है, कोई इच्छा पूरी नहीं होती । यह कायदा (है) ।
पूरी ( ...  होनी चाहिये कि नहीं?  , इसके लिये  ) कुछ नहीं करना, अर (और) पूरी न होने पर भी कुछ नहीं करना।  कुछ भी चाहना नहीं, कुछ चाहना नहीं और चुप।  एकदम परमात्मा की प्राप्ति । ख्याल में आयी ? कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं। परमात्मा में स्थिति हो गई पूरी आपकी। आपसे आप स्वतः, स्थिति है। है, पहले से है। वह अनुभव हो जाएगा । कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना (जाना) नहीं, कुछ अभ्यास नहीं । ...(कुछ करना नहीं)। इतनी ज (इतनी- सी) बात है, इतनी बात में पूरी, पूरी हो गई ।  


 अब शंका हो तो बोलो । कोई इच्छा मत रखो। परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी। परमात्मा की प्राप्ति, एकदम।  क्योंकि परमात्मा सब जगह परिपूर्ण (है) , समान रीति से, ठोस है । भूमा अचल [शाश्वत अमल] सम ठोस है तू सर्वदा। ठोस है ठोस । "है" । कुछ भी इच्छा मत करो।  एकदम परमात्मा की प्राप्ति । एकदम । बोलो ! शंका हो तो बोलो। कोई इच्छा (नहीं)। अपनी इच्छा से ही संसार में हैं । अपनी इच्छा छोड़ी,...(और उसमें स्थिति हुई)। पूर्ण है स्थिति, स्वतः , स्वाभाविक। और जो काम हो, उसमें तटस्थ रहो, ना राग करो, ना द्वेष करो ।

तुलसी ममता रामसों समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख दास भये भव पार।
(दोहावली 94)

एक भगवान है!! कोई इच्छा (नहीं), किसी तरह की इच्छा।  कोई संसार की क, परमात्मा की क, आत्मा की क ...(किसी की) क, मुक्ति की क , 
कल्याण की क , प्रेम की क , कुछ इच्छा (नहीं) ।... (बऽऽस)। पूर्ण है प्राप्ति । क्यों(कि) परमात्मा है ।

कारण हैऽऽ (कि) एक करणा (करना,क्रिया) और एक आश्रय। एक क्रिया अर (और) एक पदार्थ । एक क्रिया है, एक पदार्थ है। ये प्रकृति है।  क्रिया और पदार्थ - ये छूट जाय। कुछ नहीं करना, चुप रहना। अर (और एक) भगवान के, भगवान के शरण हो गये ( ... उस परमात्मा के) आश्रय । कुछ नहीं। करना कुछ नहीं । परमात्मा में ही स्थित ... ( स्थित रहना) नहीं, उसमें स्थिति आपकी है। है। है स्थिति , एकदम।

है एकदम परिपूर्ण । 

परमात्मा में ही स्थिति है। एकदम। 
परमात्मा सब (...जगह , सम, ) शान्त है। "है" "है" वह "है" उस "है" में स्थिति हो जाय।

"है" में स्थिति, स्वभाविक, स्वभाविक है। "है" में स्थिति, सबकी स्वाभाविक। 
कुछ भी इच्छा (और एक उनका- क्रिया और पदार्थों का
•••) आश्रय
- दो छोङने से --- ("है", परमात्मा में स्थिति हो जायेगी, जो कि पहले से ही है । अनुभव नहीं था।अब अनुभव हो गया।)। 
पद आता है न! 
एक बालक, एक बालक खो गया। एक माँ का बालक खो गया। सुणाओ , वोऽऽ, वो पद सुणाओ। ( भजन गाने वाले बजरंगजी बोले- हाँ ) , बालक खो गया, व्याकुल हो गयी अर (और) जागर देख्या (जगकर देखा) तो , वहीं सोता है, साथ में ही। (हाँ, ठीक है, हाँ हाँ - सुनाते हैं ) बहोत (बहुत) बढ़िया पद है। कबीरजी महाराज का है... (वो पद)। (जो हुकम, कह कर , पद शुरु कर दिया गया - परम प्रभु अपने ही में पायो।••• - कबीरजी महाराज)। 


(प्रवचन नं०२)

संवत २०६२, आषाढ़, कृष्णा नवमी। 
दिनांक ३०|६|२००५, ११ बजे, गीताभवन, ऋषिकेश । 

[ आज श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज सभा में आकर विराजमान हुए। कल की बातों के अनुसार किसी ने श्रीस्वामीजी महाराज से प्रश्न पुछवाया। प्रश्नकर्त्ता की उस बात को बिचौलिया अब श्रीस्वामीजी महाराज को सुना रहा है- ] 

प्रश्न-
(एक सज्जन पूछ रहे हैं कि) - कोई चाहना नहीं रखना, (यह) आपने कल बताया था। तो इच्छा छोड़ने में और चुप रहने में, इनमें- दोनों में ज्यादा कौन फायदा करता है ?। 

[ अभी बिचौलिये और उसकी बातों की तरफ श्रीस्वामीजी महाराज की रुचि नहीं है। इसलिये वे अपनी तरफ से, अपनी बात कह रहे हैं- ] 

(१) मैं भगवान का हूँ , (२) भगवान मेरे हैं। (३) मैं और किसी का नहीं हूँ और (४) कोई मेरा नहीं है। 

प्रश्न - चुप साधन में और इच्छा रहित होने में कोई फर्क है ? चुप साधन करना और इच्छा रहित होना ... । 

[प्रश्नकर्त्ता की बात का जवाब न देकर श्री स्वामीजी महाराज उसके एक ही शब्द (इच्छा) को लेकर पुनः अपनी बात आगे बढाते हुए कह रहे हैं- ] 

एक इच्छा ही, एक ही इच्छा (हो केवल भगवान् की) । 

प्रश्न- 
(चुप-साधन और इच्छा-रहित होना- ) दोनों बातें एक ही है ? 

[ श्रीस्वामीजी महाराज उक्त प्रश्न का जवाब देकर चलते विषय में व्यवधान नहीं कर रहे हैं। प्रश्नकर्त्ता के एक ही अंश ( एक ही है?) को लेकर बोलते हैं- ] 
श्रीस्वामीजी महाराज- 
एक ही है, एक ही है ।

[ अब श्रीस्वामीजी महाराज वापस अपने विषय को आगे बढाते हुए कह रहे हैं- ] 

कुछ भी इच्छा न रखे। ना भोगों री (की) ,ना मोक्ष री (की) , कुछ भी इच्छा न रखना। (... और सब करते रहो, पर ) कुछ भी इच्छा नहीं रखना , कुछ भी इच्छा नहीं करना। ना प्रेम की, ना भक्ति की , ना मुक्ति की, ना और कोई, संसार की, (…और) । इच्छा कोई करनी ही नहीं । 

बिचौलिया - 
इच्छा नहीं करनी पर काम, कोई काम करना हो तो ? 
श्रीस्वामीजी महाराज - 
काम करो ।
बिचौलिया - 
काम भले ही करो ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
काम करो, उत्साह से, आठ पोहर (पहर) करो। 

इण बातने (इस बात को) समझो खूब। ठीक समझो (इसको)। कोई इच्छा नहीं। अङचन आवे जो बताओ! बाधा आवे जो बताओ ! (जो बाधा आवे, वो बताओ)। 

बिचौलिया - 
आप (प्रश्नकर्त्ता) कह रहे हैं (कि) काम तो करो और कुछ इच्छा मत रखो। तो इच्छा का मतलब [ यहाँ बीच में ही अस्वीकार करते हुए श्रीस्वामीजी महाराज बोले-] (-- नहीं नहीं ! ) । दूसरों का दुख दूर करणो (करना) । उसका फल नहीं चाहना ? (यहाँ तक प्रश्नकर्त्ता का बाकी रहा हुआ वाक्य पूरा हुआ)। 

[ अब यहाँ श्री स्वामीजी महाराज दुबारा स्पष्ट बोलते हैं कि- ] 

दूसरों का दुःख दूर करना । आये हुए की सेवा करणी (करनी)। कुछ चाहना ( मत रखो ) । 

प्रश्न - 
और चाहना से मतलब क्या? उसके, उस कर्म का फल नहीं चाहना? सेवा का फल नहीं चाहना- यही चाहना छोड़ना है क्या ? चाहना नहीं रखने का क्या तात्पर्य है? । 

श्रीस्वामीजी महाराज - 
चाहना, कोई चाहना (नहीं रखना ), माने यूँ मिले, मिल जाय, मुक्ति हो जाय, कल्याण हो जाय , उद्धार हो जाय क, न हो जाय -(ऐसा) कुछ नहीं (हो)। 

बिचौलिया - 
सेवा, सेवा करते रहें और चाहना नहीं रखे, कि हम को बदले में कुछ मिले । 


श्रीस्वामीजी महाराज - 
सेवा कर दो, बदले में (... कुछ नहीं चाहना ) चुप रहो । ऐकान्त में रहो, चुप रहो। 

बिचौलिया - 
कोई कहीं नौकरी करता है, तो वो नौकरी करे ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
हाँ ।
बिचौलिया - 
और फल की चाहना नहीं करे। 
श्रीस्वामीजी महाराज - 
हाँ चाहना नहीं करे । 

(यहाँ भी श्री स्वामीजी महाराज बिचौलिये की बात के एक अंश (चाहना नहीं करे) को लेकर ही बोल रहे हैं। विषय को सुगम रखते हुए, नौकरी, तनखाह आदि दूसरी बातें इस प्रसंग में वे ज्यादा नहीं ला रहे हैं )। 

बिचौलिया - 
और तनखा भले ही लेवो । तनखा तो भले ही लेवोऽऽ ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
लेवो भले ही। (यहाँ भी उस विषय को अलग ही रख रहे हैं और जो विषय चल रहा है, उसके अनुसार ही कह रहे हैं-) इच्छा नहीं राखणी (रखनी) ।

बिचौलिया - 
इच्छा नहीं रखनी । 

प्रश्न - 
कह, इसका तात्पर्य सब प्रकार से, भीतर से खाली होना ही है? । 

श्रीस्वामीजी महाराज- 
हूँ (हाँ) , जहाँ है ( जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा हैं), देखो! सार बात- जहाँ आप है, वहाँ परमात्मा है । आप मानो क नहीं? (मानते हो कि नहीं? ); क्योंकि कुछ नहीं करोगे, कोई इच्छा नहीं, तो परमात्मा में ही स्थिति हो गई या (यह) । और कहाँ (होगी? - कहाँ होगी?) आप जहाँ है, वहीं चुप हो जाओ । कुछ नहीं चाहो, परमात्मा में स्थिति हो गयी । आप (वहाँ हैं) तो वहाँ परमात्मा पूर्ण है। जहाँ आप है, वहाँ पूर्ण परमात्मा पूर्ण है । कोई इच्छा नहीं (तो कोई) बाधा नहीं । एक इच्छा मात्र सब (बाधा है। इसलिये कुछ भी इच्छा मत रखो)। ना भुक्ति (भोग) की इच्छा रखो, (ना) मुक्ति की , दर्शनों की , ( ...र की) , कल्याण की क, कुछ भी (इच्छा मत रखो) ! कोई इच्छा नहीं रखोगे अर (और चुप हो जाओगे तो) वहाँ स्थिति परमात्मा में ही होगी; क्योंकि परमात्मा में इच्छा है नहीं। सब परमात्मा ही है । इ‌च्छा किसकी करे? अर (और) परमात्मा हमारे (हैं), ओर (दूसरे) किसकी इच्छा करें ? समझ में आई कि नहीं, पतो (पता) नहीं । 

बिचौलिया - 
(समझ में) आयी । 

स्वामीजी महाराज - 
समझ में नहीं आई तो बोलो । क्या, क्या समझ में नहीं आयी ... 

[ अब बिचौलिये के द्वारा प्रश्नकर्त्ता आदि से कहा जा रहा है कि बात समझ में आ गई क्या? कुछ कहना हो तो बोल दें ]। 

श्रीस्वामीजी महाराज बोले कि क्या, क्या (समझ में नहीं आया?) 

[ तख्त के ऊपर, जहाँ श्रीस्वामीजी महाराज विराजमान थे, वहाँ श्रोताओं की बातें सुनायी नहीं पङ रही थी। उस समय श्रीस्वामीजी महाराज बोले कि - ] 

अठे सुणीजे (या) नहीं सुणीजे ... (श्रोताओं की बात हमारे यहाँ सुनायी पङे या न पङे, इससे क्या? यह बात तो ऐसे है ही, स्थिति तो यहाँ- परमात्मा में ) है ही। 

आप बताओ स्थिति कहाँ होगी आपकी ? परमात्मा में ही है “स्थिति”। संसार की इच्छा है, इस वास्ते संसार में है (स्थिति)। कोई तरह की इच्छा नहीं है (तो) परमात्मा में स्थिति (है) । मनन करो, फिर शंका हो तो बताओ, (...बोलो) बोलो । 


बिचौलिया - 
(ये कहते हैं) कि इसका तात्पर्य मैं यह समझा हूँ कि होनेपन में स्थित रहे और कोई काम सामने आवे तो कर दे। 

स्वामीजी महाराज - 
(काम नहीं,) सेवा । 

बिचौलिया - 
सेवा आवे तो कर दे और उदासीनता से रहे, हँऽऽ? (यही बात है क्या?)। 

[ श्रीस्वामीजी महाराज जी ने इस बाल वचन को टाल दिया और वापस उसी विषय को कहने लगे- ] 

श्रीस्वामीजी महाराज - 
आप की स्थिति परमात्मा में ही है । है ही परमात्मा में। इच्छा छोड़ दो , स्थिति हो जायेगी। 

इच्छा से ही संसार में है (स्थिति), इच्छा छोड़ दी (परमात्मा में स्थिति हो गई ) सब की। मूर्ख से मूर्ख (और) अनजान से अनजान , जानकार से ( ... जानकार- कोई भी हो,उसकी परमात्मा में स्थिति) हो गई। ठीक है? । (... हाँ) सुणाओ (भजन आदि)। 

कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं, भुक्ति की, मुक्ति की (किसी प्रकार की, कोई भी इच्छा नहीं है, तो सबकी स्थिति परमात्मा में ही है)। 

[ फिर श्रीबजरँगलालजी ने भजन गाया - 
'हरिका नाम जपाने वाले तुमको लाखों प्रणाम' ।। ० ।।  


यह भजन उन्होंने नया बनाया था और श्रीस्वामीजी महाराज के सामने पहली बार ही सुनाया था तथा यह पहली बार सुनाना ही अन्तिम बार हो गया।  


भजन समाप्त हो जाने पर श्रीस्वामीजी महाराज (बिना कुछ कहे) अपने निवास स्थान की ओर चल दिये। ऐसा लग रहा था कि अपनी महिमा वाला यह भजन सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज राजी नहीं हुए ।  


रामायण में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महाराज सन्तों के लक्षणों में भी ऐसी बात बताते हैं -
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। 
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।। 
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। 
सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती।। 

(रामचरितमा.३|४६|१,२;)। ]



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  श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के द्वारा दिया गया, यहाँ यह पहला अन्तिम प्रवचन, दिनांक,२९ जून, सन २००५ को, सायं, लगभग ४ बजे का है और दूसरा आखिरी प्रवचन दिनांक ३० जून, सन २००५, सुबह ११ बजे का है।


 मूल प्रवचनों की रिकॉर्डिंं में किसीने  काँट छाँट  करदी है, कई अंश नष्ट कर दिये हैं  और मूल प्रवचन का मिलना भी कठिन हो गया है।  महापुरुषों की वाणी के किसी भी अंश को काटना नहीं चाहिये।  यह अपराध है। 


 इन दोनों प्रवचनों की रिकोर्डिंग को सुन- सुनकर, उन के अनुसार ही, यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है। जिज्ञासुओं के लिये यह बङे काम की वस्तु है। साधक को चाहिये कि  इन दोनों सत्संग- प्रवचनों को पढ़कर और सुनकर  मनन करें तथा  लाभ उठावें।


 इसमें लेखन आदि की जो गलतियाँ रह गयी हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं और जो अच्छाइयाँ हैं, वे उन महापुरुषों की हैं। सज्जन लोग गलतियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाइयों की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।

                 निवेदक- डुँगरदास राम 

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(श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजकी
गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित
‘एक सन्तकी वसीयत’
नामक पुस्तक, पृष्ठ १४,१५ में इन दोनों प्रवचनों के भाव संक्षेप में  लिखेे हुए हैं, पूरे नहीं )। 

वे भी यहाँ दिये जा रहे हैं-


अन्तिम प्रवचन-

(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, विक्रम सम्वत-२०६२, तदनुसार ३ जुलाई, २००५ को परमधाम पधारनेके पूर्व दिनांक २९-३० जून, २००५ को गीताभवन, स्वर्गाश्रम(हृषीकेश)में दिये गये अन्तिम प्रवचन) ।


[पहले दिन -]


एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम, बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरहकी कोई इच्छा मत रखो । न परमात्माकी, न आत्माकी, न संसारकी, न मुक्तिकी, न कल्याणकी, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब जगह शान्तरूपसे परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न रहे, किसी तरहकी कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्माकी प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता हो जाय !

यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओंका पूरा करना हमारे वशकी बात नहीं है, पर इच्छाओंका त्याग कर देना हमारे वशकी बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मामें होगी । आपको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जायगा । कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतनेमें ही पूरी बात हो गयी ! इच्छा करनेसे ही हम संसारमें बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मामें स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।

प्रत्येक कार्यमें तटस्थ रहो । न राग करो, न द्वेष करो ।

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥
(दोहावली ९४)

एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है । क्रिया और पदार्थ दोनोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करके एक भगवान्‌के आश्रित हो जायँ । भगवान्‌के शरण हो जायँ, बस । उसमें आपकी स्थिति स्वतः है । ‘भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे परमात्मामें आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्नमें एक स्त्रीका बालक खो गया । वह बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथमें ही सोया है‒ तात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!
‒२९ जून २००५, सायं लगभग ४ बजे

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[दूसरे दिन-]


श्रोता‒
कल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनोंमें कौन ज्यादा फायदा करता है ?

स्वामीजी‒
मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं, मैं और किसीका नहीं हूँ, और कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छारहित होना और चुप होना‒दोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, (न) भोगोंकी, न मोक्षकी, न प्रेमकी, न भक्तिकी, न अन्य किसीकी ।

श्रोता‒
इच्छा नहीं करनी है, पर कोई काम करना हो तो ?

स्वामीजी‒
काम उत्साहसे करो, आठों पहर करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बातको ठीक तरहसे समझो । दूसरोंकी सेवा करो, उनका दुःख दूर करो, पर बदलेमें कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत रखो ।

सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मामें ही होगी । जब सब परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किसकी करें ? संसारकी इच्छा है, इसलिये हम संसारमें हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मामें हैं ।

‒ ३० जून २००५, दिनमें लगभग ११ बजे ‒

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अंतिम प्रवचन (१,२; कुछ खण्डित )- goo.gl/ufSn5W



अन्तिम प्रवचन १ (२९ जून २००५) का पता (ठिकाना) (खण्डित)
-(लिंक) डाउनलोड करनेके लिये goo.gl/gTyBxF अथवा सुननेके लिये goo.gl/yR5SLd

अन्तिम प्रवचन २ (३० जून २००५) का पता (ठिकाना) (?)
-(लिंक) डाउनलोड करनेके लिये goo.gl/QS68Wj अथवा सुननेके लिये goo.gl/wt7YNR 


पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/


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