सोमवार, 17 मई 2021

स्वप्न में सेठजी ने कहा कि एक परमात्मा ही है- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक 
20040225_0518_Sethji Ki Svapna Ki Baat वाले प्रवचन के अंश का यथावत लेखन)

एक बार स्वीकार करते ही पूरा काम हो जाता है-
20040225_0518_Sethji Ki Svapna Ki Baat
(दिनांक 25-2-2004_0518 बजे, 1 मिनिट से) एक बार, सरल हृदय से, दृढ़तापूर्वक, (यह) स्वीकार कर लें कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् का ही हूँ और किसी का नहीं और भगवान् ही मेरे (अपने) हैं और कोई मेरा नहीं है। पूर्ण हो गया काम। क्योंकि जो बात है, वो सच्ची है। ध्यान नीं (नहीं) दिया,ध्यान देते ही- एक वार सरल हृदय से...[इसमें] कोई अभ्यास की जरुरत नहीं, माळा की जरुरत नहीं, बार-बार याद करने की जरुरत नहीं, एक वार, सच्चे हृदय से, सरलतापूर्वक, दृढ़तापूर्वक- सरलता से दृढ़तापूर्वक (यह) स्वीकार कर लें कि मैं भगवान् का ही हूँ और भगवान् ही केवल मेरे हैं। सब (कुछ) और कोई है नहीं सिवाय भगवान् के- वासुदेवः सर्वम्ऽऽ (गीता ७।१९)। भागवत में आया है- भगवान् का पहला अवतार है (आदिअवतार है)– सर्वम् वासुदेवः••● (यथावत लेखन)। ×××
   (3 मिनट से) ●•• और किसीका मैं था भी नहीं, हूँ भी नहीं। हुआ भी नहीं, होउँगा भी नहीं। अर भगवान् ही मेरे हैं, शरीर- संसार मेरा नहीं है। मेरा था नहीं, मेरा है नहीं, मेरा होगा नहीं, मेरा हो सकता ही नहींऽऽ। एकदम पक्की बात है।  ×××
(4 मिनट से) सिवाय भगवान् के कुछ हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, कुछ हो सकता ही नहीं। भगवान् ही है- वासुदेवः सर्वम्। छोटा,बङा,जलचर, थलचर, नभचर, दूरबीन से दीखे वे ई (वे भी), सऽऽऽब वे ही, एक हीऽऽऽ  (सब भगवान् ही हैं)। (यथावत-लेखन)।
स्वप्नमें श्री सेठजी बोले कि एक परमात्मा ही है
[श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने (दिनांक 25-2- 2004 _0518 बजेवाले  सत्संग में) अपने स्वप्न की बात बतायी कि]
   आज ही, अभी सेठजी ने कहा (परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका ने कहा)। पाँच बत्तीस. (सपने में पाँच बजकर बत्तीस मिनिट पर। प्रवचन से पहले)।
श्रोता- सेठजी ने क्या कहा?
श्री स्वामी जी महाराज- सेठजी ने कहा- आ ज्याओ (आ जाओ)। अपने हम (-सब) बैठे थे। (श्री सेठजी आदि अपन सबलोग एक मकान में बैठे थे)। (श्री सेठजी) उठकरके बाहर, एक दूजे (दूसरे) मकान में गये। दूजे मकान में जाकर (सब को कहा कि-) आ ज्याओ।  मेरे को बैठाया पास में। दूजे बैठ गये यहाँ (कुछ दूरीपर)। (श्री सेठजी ने फिर) दोनों हाथ धरे- यहाँ (मेरे कन्धोंपर और बोले कि-) एक परमात्मा ही है। (यह) लिख लेना (श्री स्वामी जी महाराज ने यह बात श्रोता को लिखने के लिये कहा। श्रोता ने लिखना स्वीकार किया कि- अच्छ्या)। आज, अभी, सपना आया सपना। सेठजी ने कहा आओ, इधर आओ। कई आदमी थे। मैं पास में बैठा था। वे मकान (उस मकान) से उठकर दूसरे मकान में गये। सबको कहा कि- आ ज्याओ। मेरे ऊपर दोनों हाथ धरे- यहाँ (कन्धोंपर और बोले कि) एक परमात्मा ही है। ×××
  एक परमात्मा ही है। शान्त। ×××  चुपचाप। पक्की, अच्छी पक्की बात है- एकदम्म्म।
   (सपनेमें उस समय लगभग साढ़े पाँच (५.३०-३२) बजे थे। कई आदमी थे- पाँच सात जने। मकान परिचित नहीं था। किस स्थानपर और कौन- कौन थे, यह याद नहीं है)।
  भगवान् की बङी भारी कृपा है अलौकिक कृपा है, जबरदस्ती कृपा है जबरदस्ती, माँग नहीं, हमारा कहना नहीं था, माँग नहीं (की) थी।आपे ही (अपने-आप ही) कह, आ जाओ। कृपा है विलक्षण कृपा। जितने सत्संगी है, सबके लिये है (यह)। एक परमात्मा ही है। एक बार, सरल हृदय से, दृढ़तापूर्वक (यह) स्वीकार करलें (कि मैं भगवान् का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं)...  यह मैं पढ़ रहा था। अलौकिक कृपा है भगवान् की। सच्ची बात है एकदम। सप्तर्षि, सप्तर्षि है। राम महाराज। विलक्षण कृपा है विलक्षण। आ ज्याओ, आ ज्याओ कह, सबको ही यह कहा।
[शीतकाल में यह प्रवचन गीताभवन नम्बर तीन, संतनिवास वाले कमरे के भीतर हुए थे। माइक लगा हुआ था।  बाहर, पाण्डाल में बैठे लोग सुन रहे थे। भीतर में भी कई सज्जन श्री स्वामी जी महाराज के पास में बैठे थे। भीतरवाले लोगों की गिनती करते हुए श्री स्वामीजी महाराज बोले - सप्तर्षि, सप्तर्षि है। (ऐसा कुछ अब स्मृति में, याद भी आ रहा है)। श्री स्वामी जी महाराज ने 'राम महाराज'- वाक्य उच्चारण किया। इससे लगता है कि कोई सज्जन बाहर से कमरे में आये हैं और उन्होंनेे प्रणाम किया है। जवाब श्री स्वामी जी महाराज ने 'राम महाराज' बोला है। किसीके प्रणाम करनेपर ऐसे 'राम महाराज' बोला करते थे जिसका रहस्य भी बताया करते कि यह प्रणाम 'राम महाराज' (भगवान्) को किया गया। स्वयं स्वीकार न करके भगवान् को अर्पण कर दिया)।
   ...  सबको ही कहा- आ ज्याओ। (सब आ गये) सच्ची बात है। केवल स्वीकार करलो, मानलो। बात तो इत्ती ही है। सब पूरी हो गई। एकदम, कुछ बाकी नहीं है। बहूनां जन्मनामन्ते ••• स महात्मा सुदुर्लभः।। गीता ७|१९; अनन्यचेताः••• तस्याहं सुलभः गीता ८|१४; अर स महात्मा सुदुर्लभः।। यह सातवें (अध्याय) में (कहा), वो आठवें में। एक परमात्मा ही है। (यह बहुत ऊँची बात है। सब भगवान् ही है- ऐसा माननेवाला महात्मा बहुत दुर्लभ है। भगवान् ने गीता जी के इन श्लोकों में महात्मा को दुर्लभ और अपने को सुलभ बताया है)। एक परमात्मा ही है बस। छोटे हो, बङे हो, शुभ हो, अशुभ हो ••• (अच्छे, बुरे आदि) सऽऽब  वासुदेवः। क्रूर हो, सौम्य हो, भूत, प्रेत, पूतनाग्रह आदि- (सब परमात्मा ही है-) ये चैव सात्त्विका भावा॰ (गीता ७।१२ {-सात्त्विक, राजस और तामसी- सब भाव मेरे से ही पैदा होते हैं; परन्तु मैं उनमें और वे मेरे में नहीं है } ••• मानो मेरी प्राप्ति चाहो, तो मेरे शरण हो जाओ। हूँ मैं- ही- मैं -सब। नारायण नारायण नारायण नारायण।।
{इससे पहले जो श्री सेठजी की एक बात बोले थे। उसको लिखने के लिये मना किया कि यह बात नहीं कहनी है - नहीं लिखनी है}।
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मंगलवार, 4 मई 2021

अनुभवी पुरुष के सत्संग की महिमा - श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

अनुभवी पुरुष के सत्संग की महिमा 

 श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज 
के दिनांक
19940305_0518_Satsang Ki Mahima वाले प्रवचन के अंश का यथावत लेखन-
(2:51)••• तो इसका विवेचन क्या करें,यह तो प्रत्यक्ष है।सत्संगति करने से आदमी की विलक्षणता आती है।यह हमारे कुछ देखणे में आई है।शास्त्रों के अच्छे नामी पण्डित हो,उनमें बातें वे नहीं आती है जो सत्संग करणेवाळे साधकों में आती है।पढ़े-लिखे नहीं है,सत्संग करते हैं।वे जो मार्मिक बातें जितनी कहते हैं इतनी शास्त्र पढ़ा हुआ नहीं कह सकता,केवल पुस्तकें पढ़ा हुआ। शास्त्रों की बात पूछो,ठीक बता देगा।ठीक बता देगा,परन्तु कैसे कल्याण हो,जैसे, जीवन कैसे सुधरे, अपणा व्यवहार कैसे सुधरे,भाव कैसे सुधरे,इण बातों को सत्संगत करणेवाळा पुरुष विशेष समझता है।तो सत्संगति सबसे श्रेष्ठ साधन है।सत्संगीके लिये तो ऐसा कहा है कि "और उपाय नहीं तिरणे का सुन्दर काढ़ी है राम दुहाई। संत समागम करिये भाई।" और ऐसा साधन नहीं है।तो इसका विवेचन क्या करें,जो सत्संग करणेवाळे हैं,उनका अनुभव है। कि कितना प्रकाश मिला है सत्संग के द्वारा।कितनी जानकारी हुई है।कितनी शान्ति मिली है।कितना समाधान हुआ है।कितनी शंकाएँ,बिना पूछे समाहित हो गई है,उनका समाधान हो गया है।तो सत्संग के द्वारा बहोत लाभ होता है।हमें तो सत्संग से भोहोत (बहुत)लाभ हुआ है भाई।हमतो कहते हैं क हम सुणावें तो हमें लाभ होता है अर सुणें तो लाभ होता है।जो अनुभवी पुरुष है,जिन्होंने शास्त्रों में जो बातें लिखी है,उनका अनुभव किया है,अनुष्ठान किया है,उसके अनुसार अपना जीवन बनाया है।उनके संग से बोहोत लाभ होता है।विशेष लाभ होता है।उनकी बाणी में वो अनुभव है।जैसे,बन्दूक होती है,उसमें गोळी भरी न हो,बारूदभरा छूटे तो शब्द तो होता है,पर मार नहीं करती वो।गोळी भरी होती है तो मार करती है,छेद कर देती है।तो बिना अनुभव के बाणी है वो तो खाली बन्दूक है।शब्द तो बङा होता है पर छेद नहीं होता।और अनुभवी पुरुष की बाणी होती है,उसमें वो भरा हुआ है शीशा,जो सुननेवालों के छेद करता है- उनमें विलक्षणता ला देता है।उसके विलक्षण भाव को जाग्रत कर देता है,उद्बुद्ध कर देता है,जाग्रत कर देता है।तो अनुभव में ताकत है।वो बाहर में नहीं है।तो उनका माहात्म्य कितना है,कैसा है,इसको समझावें क्या।मैं तो ऐसा कहता हूँ (कि) एक कमाकर के धनी बनता है और एक गोद चला जाता है।तो कमाकर धनी बनने में जोर पङता है,समय लगता है फिर धनी बनता है अर गोद जाणेवाळे को क्या तो जोर पङा अर क्या समय लगा?कल तो यह कँगला अर आज लखपति।जा बैठा गोद।ऐसे सत्संगति में कमाया हुआ धन मिलता है।बरसों जिसने साधना की है,अध्ययन किया है,बिचार किया है।तो वो मार्जन की हुई बस्तु है- परिमार्जित। तो वो वस्तु सीधी-सीधी मिल ज्याती है एकदम।••• 
 

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

भगवान के दर्शन की बात।(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

भगवान के दर्शन की बात।

(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)। 


एक बालक ने श्रद्धेय  स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज से पूछा कि आपको भगवान के दर्शन हुए हैं क्या?

जवाब देते हुए (तर्क की मुद्रा में) श्री स्वामीजी महाराज बोले कि तुम अपना खजाना बताते हो क्या?

बालक समझ भी नहीं पाया और बोल भी नहीं पाया कि अब क्या कहना चाहिये। फिर किसीने बालक को वहीं रोक दिया।

श्री स्वामीजी महाराज का कहना है कि 'जब लोग अपने लौकिक धन को भी (हरेक को) बताना नहीं चाहते, बताने योग्य नहीं समझते, तो फिर अलौकिक धन, पारमार्थिक खजाना (भगवान् के दर्शन आदि ) क्या बताने योग्य है! अर्थात् हरेक को बताने योग्य नहीं है।'

लोगों को अगर कह दिया जाय कि हाँ मेरे को भगवान के दर्शन हुए हैं तो लोगों के जँचेगी नहीं, उलटे तर्क पैदा होगा। दोषदृष्टि करेंगे। (इससे उनका नुक्सान होगा)।

(लोगों को बताने से विघ्न बाधाएँ भी आती है-)।

सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ने कहा है कि भक्त प्रह्लाद की भक्ति में इतनी बाधाएँ इसलिये आयीं कि उन्होंने भक्ति को (लोगों के सामने) प्रकट कर दिया था। (अगर प्रकट न करते तो इतनी बाधाएँ नहीं आतीं)।

श्री सेठजी ने भी गुप्त रीति से ही साधन किया है और सिद्धि पायी है।

चूरू की हवेली के ऊपर कमरे में उनको चतुर्भुज भगवान विष्णु के दर्शन हुए थे।

श्री स्वामीजी महाराज ने वहाँ पधार कर वो जगह बताई थी कि यहाँ श्री सेठजी को भगवान के दर्शन हुए थे।

श्री सेठजी मुँह पर चद्दर ओढ़े सो रहे थे उस समय भगवान् ने दर्शन दिये। कह, ऊपर चद्दर ओढ़ी होने पर भी भगवान दिखलायी कैसे पड़ रहे हैं?

उन्होंने चद्दर हटा कर देखा तो भगवान वैसे ही दिखाई दिये , जैसे चद्दर के भीतर से (साफ) दीख रहे थे। बीच में चद्दर की आड़ होने पर भी भगवान के दीखने में कोई फर्क नहीं पड़ा।

श्री सेठजी कहते हैं कि ऐसे चाहे बीच में पहाड़ भी आ जाय तो भी भगवान के दीखने में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

यह बात प्रसिद्ध है कि श्री सेठजी ने कई लोगों की मौजूदगी में भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार को भगवान् के दर्शन करवाये थे।

भाईजी से जब कहा गया कि भगवान के चरण पकड़ो। तब उन्होंने चरण पकड़ने के लिये हाथ बढ़ाये , तो वो हाथ श्री सेठजी के चरणों में गये।

(कई लोगों के मन में जिज्ञासा रहती है कि ऐसे ही श्री स्वामीजी महाराज को भी भगवान् के दर्शन हुए थे क्या?

उनके लिये ये बातें काम की है) ।

आज ही एक पुराने सत्संगी सज्जन बोले कि श्री स्वामीजी महाराज ने मेरे सामने बताया है कि श्री सेठजी ने स्वामीजी महाराज से कहा कि आप अपनी भगवत्प्राप्ति (वाली सिद्धि) लोगों में प्रकट न करें तो अच्छा रहेगा ; क्योंकि (अयोग्य) लोग पीछे पड़ जाते हैं कि मेरे को भी करवादो, हमारे को भी भगवान के दर्शन करवादो आदि आदि।

(मेरे को जो भगवान के दर्शन हुए थे उसको) मैंने प्रकट कर दिया था जिसके कारण मेरे को भी मुश्किल का सामना करना पड़ा। अस्तु।

अपने को साधक मानने में हानि नहीं  है , हानि तो सिद्ध मानने में है। अपने को सिद्ध मानने में बहम भी हो सकता है पर साधक मानने में क्या बहम होगा।

जो अपने को साधक मानता है वह उन्नति करता ही चला जाता है (सिद्ध मानकर रुकता नहीं कि अब मेरे को क्या करना है,जो करना था सो तो कर लिया)।

श्री सेठजी ने कहा है (इतने महान होकर भी) श्री स्वामीजी महाराज अपने को साधक ही मानते हैं। (यह इनकी विशेषता है)।

श्री स्वामीजी महाराज बताते हैं कि मैंने श्री सेठजी से प्रार्थना की कि मेरे को सिद्धि का पता न चले अर्थात् मैं चाहता हूँ कि मेरे में (भगवत्प्राप्ति आदि) सिद्धि है,इसका मेरे को पता न चले।■

इस प्रकार पारमार्थिक लाभ गोपनीय रखने में ही फायदा है। ऐसे अधिकारी मिलने दुर्लभ हैं जिनको ऐसी रहस्य की बातें बतायी जायँ।

अधिकारी को तो महापुरुष अत्यन्त गोपनीय रहस्य भी बता देते हैं-

श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।

रामचरितमा.७। ६९(ख)।।

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मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

सत्संग के अनेक लाभ। यहाँ श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज की सत्संग से होनेवाले अनेक प्रकार के लाभ बताये गये हैं और वे लाभ हर कोई ले सकते हैं -डुँगरदास राम

                 ।।श्रीहरिः।। 

 * सत्संग के अनेक लाभ *

(यहाँ "श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज" की सत्संग से होनेवाले अनेक प्रकार के लाभ बताये गये हैं और वे लाभ हर कोई ले सकते हैं)।

● "श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज" की रिकोर्डिंग वाणीवाला "सत्संग" सुनें और "साधक- संजीवनी" आदि पुस्तकों द्वारा उनका "सत्संग" करें। "श्री स्वामीजी महाराज" के "सत्संग" में हर प्रकार के मनुष्यों को अपने- अपने काम की सामग्री मिलती है। इसलिये यह सत्संग सबके काम का है। इसमें बहुत विलक्षणताएँ भरी हुई हैं। इसमें तरह-तरह के लाभ हैं। ●

इसमें अनेक प्रकार की विशेषताएँ हैं। 


जैसे- 


१.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का यह सत्संग गीताज्ञान,  रहस्य युक्त, शास्त्र सम्मत, अनुभव सहित, युक्तियुक्त, सत- असत का विभाग बतानेवाला और तत्काल परमात्मप्राप्ति का अनुभव कराने वाला है। 


२.यह बिना कुछ किये परमात्मा की प्राप्ति करानेवाला, सरलता से भगवत्प्राप्ति करानेवाला, करणसापेक्ष तथा करणनिरपेक्ष साधन बताने वाला और करणरहित साध्य का अनुभव करानेवाला है। 


३.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग आजकल की आवश्यकता युक्त, सामयिक, रुचिकर और तरह-तरह की शंकाओं का समाधान करनेवाला है। 


४.यह संशयछेदक, दुःख मिटानेवाला, राग-द्वेष मिटानेवाला, समता लानेवाला, शोकनाशक, चिन्ता मिटानेवाला और पश्चात्ताप हरनेवाला है। 


५.यह उन्माद, डिप्रेशन, टेंशन मिटानेवाला, स्वास्थ्य ठीक करनेवाला, संसार का मोह मिटानेवाला, संसार की निःसारता बतानेवाला, चेतानेवाला, तीनों तापों का नाश करनेवाला और व्यवहार में परमार्थ की कला सिखानेवाला है। 


६.यह गर्भपात आदि बङे-बङे महापापों से बचानेवाला, मृत्यु से बचानेवाला, आत्महत्या से बचानेवाला, दुर्घटनानाशक, बुराई रहित करनेवाला और संसारमात्र् की असीम सेवा का रहस्य बतानेवाला है। 


७.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग परिवार में प्रेम से रहने की विद्या सिखानेवाला, आपसी मतभेद मिटानेवाला, खटपट मिटानेवाला, लङाई- झगङे का समाधान करनेवाला और सुख शान्ति लानेवाला है। 

८.यह गऊ, ब्राह्मण, हिन्दू और हिन्दु संस्कृति की रक्षा करनेवाला, साधकों को सही रास्ता बतानेवाला, साधू और गृहस्थों को सही मार्ग बतानेवाला और साधुता सिखानेवाला है, सज्जनता सिखानेवाला है। 


९.यह अहंता ममता मिटानेवाला, भय, आशा, तृष्णा, आसक्ति आदि मिटानेवाला, काम क्रोध आदि विकारों से छुङानेवाला और त्याग वैराग्य सिखानेवाला है। 


१०.श्री स्वामी जी महाराज का सत्संग परमात्मा का परमप्रेम प्रदान करनेवाला,भगवान् की लीला समझानेवाला, भक्ति का रहस्य बतानेवाला, भगवान् से अपनापन करानेवाला और परम प्रभुसे नित्य-सम्बन्ध जोङनेवाला है। 


११.यह भगवत्कृपा का रहस्य बतानेवाला, सगुण- निर्गुण, साकार- निराकार का रहस्य समझानेवाला,वासुदेवः सर्वम् ,  समग्ररूप भगवान् का ज्ञान करानेवाला, सबका समन्वय करनेवाला, संसार और परमात्मा का भेद मिटानेवाला है। 


१२.यह तर्कयुक्त (तर्कसहित), तात्त्विक और सत्य परमात्मा का महत्त्व बतानेवाला है।


 १३.यह गुरुज्ञान, तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान तथा कर्म का रहस्य बतानेवाला, अर्थयुक्त, सारगर्भित, सर्वहितकारी, मानवमात्र् का कल्याण करनेवाला, बङा विलक्षण और अत्यन्त प्रभावशाली है। 


१४.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग अपने प्रियजन की मृत्यु का शोक हरनेवाला, सम्पत्तिनाश से होनेवाला दुःख मिटानेवाला, दरिद्रतानाशक और व्यापार की कला सिखानेवाला है। 


१५.यह फिज़ूलखर्च मिटानेवाला, आमदनी बढानेवाला, बरकत करनेवाला, सिखानेवाला, कञ्जूसी मिटानेवाला, सदुपयोग सिखानेवाला, लक्ष्मी लानेवाला और सौभाग्य बढ़ानेवाला है। 


१६.यह मनोमालिन्य मिटानेवाला, सास-बहू में प्रेम बढ़ानेवाला, दाम्पत्य जीवन सुखमय करनेवाला, वंशवृद्धि करनेवाला, बाल बच्चों को मृत्यु से बचानेवाला और बहन बेटी की रक्षा करनेवाला है। 


१७.श्री स्वामी जी महाराज का सत्संग माता- पिता, सास- ससुर आदि की सेवा करवानेवाला, शारीरिक कष्ट मिटानेवाला, जादू-टोना, देवी-देवता, प्रेत-पितर, भूत-पिशाच आदि का भय मिटानेवाला, बहम का दुःख मिटानेवाला और मिथ्या भ्रम का निवारण करनेवाला है। 


१८.यह दोषदृष्टिनाशक, स्वभाव सुधारनेवाला, लोक- परलोक सुधारनेवाला, पापी का भी कल्याण करनेवाला और जीवन्मुक्ति प्रदान करनेवाला है। 


१९.यह भगवान् में प्रेम बढानेवाला, भगवद्धाम की प्राप्ति करानेवाला, नित्यप्राप्त की प्राप्ति करवानेवाला और आनन्द- मङ्गल करनेवाला है। 


२०.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग खान-पान शुद्ध करनेवाला, शुद्ध आचार-विचार सिखानेवाला, नियम व्रत सिखानेवाला, उत्साह बढ़ानेवाला और निराशा का दुःख मिटानेवाला है। 


२१.यह सत्संग असहाय को सहायता देनेवाला, दुःखों से व्यथित की व्यथा मिटानेवाला, भीतर का दुःख मिटानेवाला और हारेहुए को सहारा देनेवाला है। 


२२.यह सत्संग "जिसका कोई नहीं", उसको सहारा देनेवाला, गरीबों को अपनापन देनेवाला, अपनानेवाला, उदारता सिखानेवाला, कुरीति मिटानेवाला और गिरेहुए को ऊपर उठानेवाला है। 


२३.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग सुख की नींद देनेवाला, आपस का मनमुटाव मिटानेवाला, प्रेम करानेवाला, बुराई करनेवाले की भी भलाई करनेवाला, दोष मिटानेवाला, निर्वाह की चिन्ता मिटानेवाला, और आनन्द करनेवाला है। 

 

२४.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग सद्गुण सदाचार लानेवाला, शौचाचार और सदाचार सिखाने वाला है। 

२५. यह चुप-साधन बतानेवाला, अपने स्वरूप से अहंता (मैं-पन,अहंकार) को अलग करके बतानेवाला, अपने अहंरहित स्वरूप का अनुभव करानेवाला और परमात्मतत्त्व में तत्काल स्थिति करानेवाला है। ■

 
● इस प्रकार यह सत्संग और भी अनेक प्रकार से लाभ देनेवाला है, यह तो कुछ दिग्दर्शन है। 

 इसमें और भी कई विलक्षणताएँ भरी हुई है। इससे बङा भारी लाभ होता है। यह भगवान् की बङी कृपा है जो हमलोग उस समय के सत्संग से आज भी वैसा ही लाभ ले सकते हैं। ■


:-- अधिक जानकारी के लिये यह लेख पढ़ें-

"नित्य स्तुति ( प्रार्थना ), गीतापाठ और सत्संग (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इकहत्तर दिनों वाले सत्संग- समुदाय का प्रबन्ध )"  -
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रविवार, 22 नवंबर 2020

नित्य स्तुति ( प्रार्थना ), गीतापाठ और सत्संग (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इकहत्तर दिनों वाले सत्संग- समुदाय का प्रबन्ध )।

।।श्रीहरिः।।

(१) नित्य-स्तुति, प्रार्थना, गीतापाठ और सत्संग

(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इकहत्तर दिनों वाले सत्संग- समुदाय का प्रबन्ध)

    [ कृपया इस जानकारी को पूरा पढ़ें, इसमें श्रीस्वामीजी महाराज के सत्संग की महत्त्वपूर्ण जानकारी लिखी गयी है।

    श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज प्रतिदिन, प्रातः पाँच बजे नित्यस्तुति, प्रार्थना, गीतापाठ आदि के बाद सत्संग करते थे जो बहुत ही बढ़िया और विलक्षण हुआ करता था। वैसा सत्संग आज भी हम सबलोग सुगमता से कर सकें- इसके लिये इकहत्तर दिनों के सत्संग- प्रवचनों के समुदाय का एक प्रबन्ध किया गया है। उसकी जानकारी यहाँ दी जा रही है-]

(२) प्रातः पाँच बजेवाली सत्संग के चार विभाग

    श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के समय में प्रतिदिन पाँच बजते ही गीताजी के कुछ चुने हुए श्लोकों*»  द्वारा नित्य-स्तुति, प्रार्थना शुरु हो जाती थी। उसके बाद गीताजी के लगभग दस श्लोकोंका क्रमशः पाठ और हरि:शरणम् हरि:शरणम्... इस प्रकार कीर्तन होता था। इनके बाद श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग-प्रवचन करते थे, जो प्रायः छः बजेसे पहले ही समाप्त हो जाते थे।

    थोड़े समय में होनेवाला यह सत्संग-प्रोग्राम* बहुत ही बढ़िया होता था। बहुत विलक्षण और प्रभावशाली था। उससे बड़ा लाभ होता था। (इस विषयमें कुछ आगे बताया गया है। )    वो लाभ हम सब आज भी ले सकते हैं, सत्संग कर सकते हैं, सुन सकते हैं और उन्हीं की वाणी के साथ-साथ में प्रार्थना, गीतापाठ आदि भी कर भी सकते हैं।

    'श्रीस्वामीजी महाराज' के समय में जिस प्रकार से सत्संग होता था उस प्रकार से हम आज भी करलें- इस बातको ध्यानमें रखते हुए यह इकहत्तर दिनों के प्रवचनों का सेट ( सत्संग- समुदाय ) तैयार किया गया है। इसमें ये चारों हैं –

1- नित्य-स्तुति (प्रार्थना), 2- गीताजी के दस-दस श्लोकों का क्रमशः पाठ,

3- हरि:शरणम्... वाला संकीर्तन तथा 4- सत्संग-प्रवचन

    ये चारों श्रीस्वामीजी महाराज की वाणी में ही तैयार किये गये हैं। चारों उन्हीकी आवाज़ में है। यह "सत्संग-समुदाय" मोबाइल, टैबलेट आदि में आसानीसे देखा और सुना जा सकता है और दूसरे यन्त्रोंद्वारा भी यह सत्संग किया जा सकता है (मेमोरी कार्ड, पेन ड्राइव, लेपटोप, कम्प्यूटर, सीडी प्लेयर, स्पीकर या टी.वी. आदि के द्वारा भी यह सत्संग सुना जा सकता है)। एक बार चालू कर देनेपर ये चारों अपने-आप सुनायी पड़ेंगे, बार-बार चालू नहीं करने पड़ेंगे।

    यन्त्र के द्वारा इसको एक बार शुरु करदो, बाकी काम अपने- आप हो जायेगा अर्थात् आप पाँच बजे प्रार्थना चालू करदो; तो प्रार्थना होकर आगे गीतापाठ अपने-आप आ जायेगा और  उसके बाद हरि:शरणम् ... वाला संकीर्तन आकर अपने-आप प्रवचन आ जायेगा, सत्संग-प्रवचन शुरु हो जायेगा।

    इस प्रकार नित्य नये-नये सत्संग-प्रवचन आते जायेंगे। इकहत्तर दिन पूरे हो जानेपर इसी प्रकार वापस एक नम्बर से शुरु कर सकते हैं और इस प्रकार उम्रभर सत्संग किया जा सकता है। इनके अलावा श्री स्वामीजी महाराज के कोई दूसरे प्रवचन सुनने हों तो प्रार्थना आदि के बाद सुने हुए प्रवचनों की जगह दूसरे (नये) प्रवचन लगाकर सुन सकते हैं।

(३) ७१ दिनोंवाली सत्संगके प्रत्येक दिन की जानकारी और विषय-सूची

    इनमें सुविधा के लिए प्रत्येक फाइल पर शुरु में फाइल और दिनों की संख्या तथा गीताजीके अध्याय और श्लोकोंकी संख्या लिखी गई है; इसके बाद हरिःशरणम्-संकीर्तन का संकेत और श्रीस्वामीजी महाराज का नाम लिखा गया है। इसके आगे प्रवचन की तारीख और सत्संग के विषय का नाम लिखा गया है।

    इनके अलावा प्रार्थना शुरु होने से पहले, प्रतिदिन गीताजी के अध्याय और श्लोकों की संख्या बोली भी गई है जिससे पता लग जाता है कि आज नित्य स्तुति-प्रार्थना के बाद गीताजी के कौन से दस श्लोकों का पाठ आनेवाला है। उसके बाद दिनों की संख्या और प्रवचन का नाम बोला गया है, सत्संग का विषय बताया गया है; उसके बाद श्रीस्वामीजी महाराज का नाम और प्रत्येक प्रवचन की तारीख बोली गयी है।

() इकहत्तर (71) दिनोंवाले सत्संग प्रवचनोंकी सूची-
(हिन्दी अनुवाद–)

०१. (1) दिनांक १३-६-१९९०_ प्रातः ५ बजकर १८ मिनटपर ( –19900613
_0518_ ) परमात्मा का स्वरूप और महत्त्व_वि.वि.(VV)  [विशेष विवेचन]

०२. (2)19900613_0830_अहंता ममता से रहित स्वरूप

०३. 13-26-06-1988-0518-AM (पूर्वाह्न) (19880626_0518 AM (पूर्वाह्न) सहजावस्था और अनुभव)

०४. 19890820_0830 रामायण पाठ, आरम्भ का दिन

०५. 19900106_0518 कमर कस के तैयार हो जाओ

०६. 19900107_0518 जीते जी मर जाओ, सम्बन्ध तोड़ दो

०७. 19900430_0830_नित्ययोग और उसकी प्राप्ति

०८. 19900503_0830 अचाह, अप्रयत्न, अभिन्नता

०९. 19900508_0830_तीनों शरीरों की संसार से एकता

१०. 19900512_0830_बुद्धि की शुद्धि। उपाय

११. 19900516_0830_जाग्रत- अवस्था कमज़ोर है

१२. 19900531_0830_ आत्मरति कैसे हो?

१३. 19900603_0830 करने में सावधान (और) होने में प्रसन्न

१४. 19900604_0830_संसार नाशवान

१५. 19900617_0518_परमात्मा का साक्षात् अनुभव

१६. 19900620_0518_राग कैसे मिटे?

१७. 19900622_0518_मैं मेरे का त्याग

१८. 19900716_0518_लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ

१९. 19900718_0518_स्फुरणा और संकल्प

२०. 19900726_0518_स्वरूप को देखो विकारों को नहीं_वि.वि.

२१. 19901220_0518_मिले (हुए) का आश्रय महान हानि

२२. 19910726_0518_हम प्रतिक्षण मर रहे हैं

२३. 19910803_0518_उद्देश्य क्या है?_वि.वि.

२४. 19910902_0518_संसार का अभाव तत्त्व का भाव

२५. 19910914_1600_क्यूएनए [प्रश्नोत्तर–] (गीता 18.61 मिक्स)

२६. वृन्दावन– 21 मार्च 1985_05:18 पूर्वाह्न (– तत्काल निहाल, एकदम निहाल करे जैसी बात है)

२७. 19920111_1500_ जी नहीं रहे, मर रहे (हैं)

. 19920123_1500_भय का कारण– विश्वास की कमी

. 19920529_0518_अहम् नाश की आवश्यकता

३०. 19920605_0518_अहम् की निवृत्ति। अच्छाई का अभिमान बुराई की जड़

. 19920729_0518_दृढ़ निश्चय से लाभ

. 19930112_0518 शरीर संसार अनित्य है

. 19930114_0518_विवेक की महत्ता। अहम् का नाश

. 19930221_0518_शरणागति से अहम् का नाश

. 19930615_0518_निर्दोषता का अनुभव

. 19930714_0518_परलोक की चिन्ता करे। स्वभाव सुधार

. 19930715_0518_असाधन का नाश

. 19931011_0518_कृपा को देखो

. 19931021_0518_कामवृत्ति कैसे मिटे?

४०. 19931104_0518_नित्यप्राप्त का अनुभव

४१. 19931107_0518_रुपयों का संग्रह, खर्च और त्याग

. 19940419_0518_शरणागति

. 19940427_0518_मैं साधक। अहम् परिवर्तन की आवश्यकता

. 19940512_1630_ (प्रश्नोत्तर–) जप, ध्यान आदि उपासना। गर्भपात की निवृत्ति

. 19940602_0518_सुखेच्छा का त्याग

. 19940711_0518_चुप साधन_वि.वि.

. 19940712_0518_गीता 02(71)

. 19940729_0518_सावधान रहने की आवश्यकता

. 19940819_0518_स्वरूप अहम् रहित है

५०. 19940820_0518_अहंता का त्याग

. 19940821_0518_प्राप्ति में बाधा– सत्संग का अनादर

. 19940914_0518_साधू को कैसा होना चाहिये?

. 19941216_0518_मैं और मेरे का त्याग_वि.वि.

. 19941224_0115-- संत क्यों होते हैं? और निवृत्ति

. 19950114_0518_अहंता मिटाने का उपाय_वि.वि.

. 19950121_0518_सुखासक्ति को मिटाने का उपाय

. 19950725_0518_बुद्धि की स्थिरता का महत्त्व_वि.वि.

. 19950801_1700_चेतावनी पूर्वक नाम जप के लिये प्रेरणा

. 19950830_0518_अहंता ममता का त्याग

६०. 19950917_0518_सुखी दुखी होना ही बन्धन

. 19960113_0518_अहम् नाश से शीघ्र तत्त्वप्राप्ति

. 19960117_0518_माने हुए सम्बन्ध का त्याग

. 19960207_0518_अहम् रहित स्वरूप का अनुभव

. 19960410_1530_भक्त प्रहलादजी की कथा

. 19960817_0518_सर्वभूतहिते रताः

. 19961209_0518_विलक्षण प्रेम और विलक्षण कृपा_वि.वि.

. 19970105_0900_कर्म करते हुए भगवत्स्मरण

. 19970731_0518_बन्धन हमारा बनाया हुआ है

. 19971111_0518_शास्त्रीय मतभेदों में न उलझें

७०. 19990802_0518_(जो) अपने को जो बुरा लगता है (वो) दूसरों के प्रति न करें

. 19990815_0518_दुख में मौज

(५) साधक-संजीवनी और गीताजी अलग-अलग नहीं है

    कई अनजान लोग साधक-संजीवनी और गीताजीको अलग-अलग मान लेते हैं, उनको समझाने के लिये गीतापाठ की सूचना बोलते समय "गीता" नाम के साथ- साथ "साधक- संजीवनी" का नाम भी बोला गया है। इससे यह दर्शाया गया है कि गीताजी साधक-संजीवनी से अलग नहीं है, साधक- संजीवनी गीताजी से अलग नहीं है। दोनों एक ही हैं, दो नहीं है। जो श्लोक गीताजी में हैं वे- के वे ही श्लोक साधक- संजीवनी में है। गीताजी के श्लोकों को ही साधक- संजीवनी में अच्छी तरह से समझाया गया है।

    इसलिये प्रार्थना के बाद गीताजी के दस- दस श्लोकों का पाठ करने से पहले, उनकी श्लोक संख्या वाली सूचना बोलते समय "गीता साधक- संजीवनी, अमुक अध्याय, श्लोक अमुक से अमुक तक" बोला गया है। इससे गीता साधक-संजीवनीका प्रचार भी होगा और कोई ध्यान लगाकर साधक- संजीवनी पढ़ेंगे तो उनको गीताजी सुगमता से समझमें आ जायेगी। उनको एक नयी दिशा मिलेगी। व्यवहार और परमार्थ की विलक्षण विलक्षण बातें मिलेगी। सत्संग की बातें समझ में आयेगी। और भी बहुत कुछ होगा। सब संशय मिट जायेंगे। सब द्वन्द्व समाप्त हो जायेंगे। परमशान्ति मिल जायेगी।

    इनके सिवाय इस प्रबन्ध में प्रवचनों के नामों वाली "बोली हुई विषयसूची" एक साथ (इकट्ठी) भी जोड़ी गई है (इकहत्तर दिनोंवाली विषयसूची एक फाइल में ही जोड़दी गयी है)। इस सूची में से अपने पसन्द का प्रवचन चुनकर सुनने से बड़ी शान्ति मिलती है, बड़ा लाभ होता है और अच्छा लगता है। अपने मन में पड़ी अनेक शंकाएँ मिट जाती है। नया प्रकाश (ज्ञान) मिल जाता है।

(६) श्लोकों के विभागों की मर्यादा

    यह प्रवचन- समूह ( सत्संग-समुदाय ) इकहत्तर दिनोंका इसलिये बनाया गया कि इतने दिनों में अङ्गन्यास आदि सहित क्रमशः पूरी गीताजी का पाठ हो जाता है।

    ( प्रतिदिन प्रार्थना के बाद गीताजी के करीब दस-दस श्लोकों का क्रमशः पाठ करते-करते इकहत्तर दिनोंमें अङ्गन्यास करन्यास, माहात्म्य और आरती सहित पूरी गीताजी का पाठ हो जाता है। )

    ७०० श्लोकों वाली गीताजी के दस-दस श्लोकों का विभाग करने से ७० दिन होते हैं; परन्तु गीता जी के अङ्गन्यास करन्यास, माहात्म्य, आरती, प्रत्येक अध्यायों की श्लोक संख्या और अध्यायों के आरम्भ तथा समाप्ति की मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए यह काम ७१ दिनों में पूरा किया गया है।

    अध्यायों की मर्यादा रखते हुए दस- दस श्लोकों का विभाग उनके भीतर ही किया गया है। अन्तिम विभाग में श्लोक कम पड़ जाने पर भी उस अध्याय की मर्यादा को लाँघकर अगले अध्याय में दखल नहीं दी गयी है। अध्याय की शुरुआत और समाप्ति का गौरव रखते हुए उस विभाग को छोटा ही रहने दिया है। जहाँ अन्तिम विभाग में कुछ श्लोक अधिक हो गये तो उसी अध्याय के विभागों को बाँट दिया गया है; पर श्लोकों की संख्या दस ही करने का आग्रह रखकर जन मानस में जटिलता पैदा नहीं की गयी है। विभागों को सहज ही रहने दिया है।

    [ श्रीस्वामीजी महाराज के समय में भी (पाँच बजे वाले सत्संग से पहले) गीताजी के दस- दस श्लोकों का पाठ इसी प्रकार से विभाग करके किया जाता रहा है। ]

    जैसे, पहले अध्याय में सैंतालीस श्लोक है। इसके पाँच विभाग किये गये। अन्तिम विभाग में तीन श्लोक कम पड़ गये। कम पड़ जाने पर भी पहले अध्याय के समाप्ति की सीमा (मर्यादा) लाँघकर और दूसरे अध्याय के शुरुआत की मर्यादा तोड़कर तीन श्लोक उसमें से ले- लेने की दखल नहीं दी गयी है। ऐसे ही तीसरे अध्याय में तैंतालीस श्लोक है। उसमें दस- दस श्लोकों के तीन विभाग किये गये। बचे हुए तीन श्लोक उस अध्याय के विभागों को ही बाँट दिये गये अर्थात् ग्यारह- ग्यारह श्लोकों के तीन विभाग बना दिये गये। इस प्रकार सात सौ श्लोक उनहत्तर दिनों में पूरे हुए। फिर एक दिन गीताजी के माहात्म्य और आरती का तथा एक दिन गीता जी के अङ्गन्यास- करन्यास आदि का- इस प्रकार मिलकर- सब इकहत्तर दिन हुए। इनके साथ-साथ प्रवचनों * की संख्या भी इकहत्तर हो गयी।

(७) महापुरुषों की वाणी के साथ-साथ पाठ करने का माहात्म्य

    श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने गीता-पाठ * के आरम्भ में अङ्गन्यास करन्यास आदि का पाठ किया है तथा गीता-पाठ के अन्त में गीता जी के माहात्म्य का पाठ किया है और गीताजी की आरती गायी है। ये इकहत्तर विभाग उसी गीतापाठ के किये गये हैं।

    ये नित्य-स्तुति, गीतापाठ और हरिःशरणम्- संकीर्तन- तीनों उन्हीं की आवाज (स्वर) के साथ-साथ करने चाहिये। ऐसा करने से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूपमें अत्यन्त लाभ होगा। महापुरुषों की वाणी के साथ में पाठ करने का बड़ा महत्त्व है। भगवान् की बड़ी कृपा होती है तभी ऐसा मौका मिलता है। ऐसा मानना चाहिये कि महापुरुषों की आवाज के साथ-साथ हमारी आवाज भी भगवान् तक पहुँच जायेगी। गीतापाठ से होनेवाले लाभ में हम भी हिस्सेदार हो गये। महापुरुषों द्वारा किये हुए गीतापाठ में हम भी शामिल हो गये।– पाँचों सवार दिल्ली से। एक बार दिल्ली से घोड़ोंपर चढ़े हुए राजा के चार सवार जा रहे थे। बीच में से एक गधेवाला भी उनके साथ में हो गया, साथ-साथ में चलने लगा। आगे जानेपर किसी ने पूछा कि सवार कहाँ से आ रहे हैं? तो गधेवाला बोला कि पाँचों सवार दिल्ली से (आ रहे हैं)। अपनी गिनती भी सवारों के साथ में कराली। चारों के साथ पाँचवाँ हो गया।  अब कहाँ तो वह गधेवाला और कहाँ वे घोड़ोंवाले, कहाँ तो वह गधों के पीछे भागनेवाला और कहाँ राजा से अधिकार प्राप्त किये हुए राजपुरुष और सरकारी घोड़ोंवाले? लेकिन गधेवाले की गिनती उनके साथ में हो गई– पाँचों सवार दिल्ली से। ऐसे हमारी भी गिनती गीतापाठ वालों में हो गई। महापुरुषों के द्वारा किये हुए गीतापाठ के साथ-साथ हम भी करने लगे तो हमारी गिनती भी महापुरुषोंमें हो गई। अब कहाँ तो हम और कहाँ महापुरुष?, कहाँ तो संसार के तुच्छ भोग और संग्रह के पीछे भागनेवाले हम और कहाँ भगवान् को प्राप्त कर लेनेवाले, जीवन्मुक्त महापुरुष? लेकिन गिनती हमारी उनके साथ में हो गई। हम भी महापुरुषों के साथ में हो गये। गीतापाठ में शामिल हो गये। महापुरुषों वाले गीतापाठ में हम भी हिस्सेदार हो गये। ऐसे ही हम उनका सत्संग करते हैं, उनकी वाणी सुनते हैं, उनकी पुस्तकें पढ़ते हैं तो हम उनके सत्संगी हो गये, उनके साथी हो गये, संगी साथी हो गये। जब हम महापुरुषों के साथ में हो गये तो हम भी वहीं जायेंगे जहाँ महापुरुष जायेंगे। महापुरुष भगवान् के पास जायेंगे, हम भी भगवान् के पास जायेंगे; क्योंकि हम उनके साथी हैं, उनके साथ-साथ गीतापाठ करनेवाले हैं। उनका सत्संग करनेवाले हैं। भगवान् के वहाँ जानेपर वापस नहीं आना पड़ता, जन्मना-मरना नहीं पड़ता। इसलिये महापुरुषों की वाणी के साथ-साथ गीतापाठ करें। इससे बहुत फायदा होगा।  

(८) सत्संग सुनना जरूरी

    इसके बाद श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजका सत्संग- प्रवचन जरूर सुनना चाहिये। 

    कई जने पाँच बजे प्रार्थना तो कर लेते हैं (और कई जने गीतापाठ भी कर लेते हैं), परन्तु सत्संग नहीं सुनते, सत्संग को महत्त्व नहीं देते। वे प्रार्थना आदि को ही जरूरी समझते हैं, सत्संग को नहीं; किन्तु जरूरी सत्संग ही है। यह समझना चाहिये। श्री स्वामीजी महाराज सबसे अधिक महत्त्व सत्संग को देते थे। इसलिये प्रार्थना आदि के बाद सत्संग जरूर सुनना चाहिये। सत्संग सुनना छोड़ देने वाले तो वैसे ही हैं, जैसे कोई भोजन की तैयारी करके भोजन करना छोड़ दे।

    अर्थात् जैसे कोई भोजन करने की सब तैयारी करके भोजन नहीं करता, तो उसको भोजन का लाभ नहीं मिलता; ऐसे ही कोई प्रार्थना आदि के द्वारा सत्संग सुनने की तैयारी करके सत्संग नहीं सुनता, तो उसको सत्संग का लाभ नहीं मिलता। भोजन तो शरीर की खुराक है और सत्संग स्वयं की खुराक है। भोजन शरीर के लिये जरूरी है और सत्संग स्वयं के लिये जरूरी है। इसलिये सत्संग जरूर सुनना चाहिये, सत्संग के लाभ से वञ्चित नहीं रहना चाहिये।

(९) सत्संग के लिये तैयारी

    ये प्रार्थना आदि सत्संगके लिये ही होते थे, ऐसा समझना चाहिये। लोग जब आकर * बैठ जाते तो पाँच बजते ही * तुरन्त प्रार्थना शुरु हो जाती थी और उसके साथ ही सत्संग-स्थल का दरवाजा भी बन्द हो जाता था, बाहरके (लोग) बाहर और भीतरके भीतर (ही रह जाते थे)।

    फिर लोग प्रार्थना, गीता-पाठ आदि करते, इतनेमें उनका मन शान्त हो जाता था, हलचल मिट जाती थी और उनका मन सत्संग सुनने के लिये तैयार हो जाता था। उस समय उनको सत्संग सुनाया जाता था। (ऐसी अवस्थामें सत्संग सुनने से बड़ा लाभ होता है। सत्संग हृदय में बैठता है।)

    सत्संग सुनते समय भी कोई थोड़ी-सी भी आवाज नहीं करता था। अगर किसी कारण से कोई आवाज हो भी जाती तो बड़ी अटपटी और खटकनेवाली लगती थी।

    पहले नित्य-स्तुति एक कागज के लम्बे पन्ने में छपी हुई होती थीं। प्रार्थना आदि के बाद में लोग उस पन्ने को गोळ-गोळ करके समेट लेते थे। समेटते समय सत्संग में उस पन्ने की आवाज होती थी, तो उस कागजकी आवाज (खड़के) से भी सुनने में विक्षेप होता था, ध्यान उधर चला जाता था। फिर वो प्रार्थना पुस्तकमें छपवायी गयी, जिससे कि आवाज न हो और उसके कारण सत्संग सुनने में विक्षेप न हो। ध्यान सत्संग सुनने में लगा रहे। इस प्रकार सत्संग सुनते समय कागज की आवाज भी सुहाती नहीं थी। इतना ध्यान से सुना जाता था सत्संग। ध्यान देकर सुनने से सत्संग समझ में बहुत बढ़िया आता है। समझ में आने से बात जँच जाती है और हृदय में बिठायी जा सकती है।

    सत्संग सुनते समय मनकी वृत्ति इधर-उधर चली जाती है तो सत्संग ठीक तरह से समझ में नहीं आता। शान्तचित्त से, मन लगाकर सुनने से समझ में आता है और लगता भी बहुत अच्छा है।

(१०) सत्संग की बातों को हृदय में बैठावें, ठहरावें

    इस प्रकार दरवाजा बन्द करके प्रार्थना, गीतापाठ और संकीर्तन आदि करके सत्संग सुनने की तैयारी की जाती थी जिससे कि सत्संग सुनते समय ध्यान इधर-उधर न जाय, कोई विक्षेप न हो और एकाग्रता से सत्संग सुनी जाय, सुननेका प्रवाह टूटे नहीं, सत्संगका प्रवाह अबाध-गति से श्रोताओं के हृदय में आ जाय और वो उसी में भरा रहे।

    सत्संग के बाद *७ भी भजन-कीर्तन आदि कोई दूसरा प्रोग्राम नहीं किया जाता था। दूसरी बातें भी नहीं की जाती थीं।

    (क्योंकि ऐसा करने से हम सत्संग में सुनी हुई कई बातें भूल जाते हैं, याद नहीं रहती, हृदय में ठहर नहीं पाती। इसलिये सत्संग के बाद कुछ देर तक बिल्कुल चुप रहना चाहिये। सुनी हुई बातों को हृदय में ठहरने देना चाहिये। उनको हृदय में बैठाना चाहिये।)

    इस प्रकार शान्तचित्त से, मन लगाकर सत्संग सुनने के लिये दरवाजा बन्द, प्रार्थना, गीतापाठ और संकीर्तन आदि उपयोगी होते थे। इसलिये यह समझना चाहिये कि ये सब सत्संग के लिये किये जाते थे। (ये सब सत्संग सुनने की तैयारियाँ समझनी चाहिये।)

    जिसके लिये इतनी तैयारी की जाती है, ध्यान लगाकर सुनने की कोशिश की जाती है, ऐसा वो श्रीस्वामीजी महाराज का सत्संग छोड़ना नहीं चाहिये, प्रार्थना आदि के बाद सत्संग जरूर सुनना चाहिये। सत्संग तो प्रार्थना आदि सब साधनों का फल है–

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।। (रामचरितमा.बाल.३)।

(११) दूसरे लोगों को भी "सत्संग-लाभ" सुलभ करावें

    इस इकहत्तर दिनों वाले सत्संग- समुदाय में खास बात यह है कि प्रार्थना, गीतापाठ, हरि:शरणम् ( संकीर्तन ) और प्रवचन- ये चारों श्रीस्वामीजी महाराज की ही आवाज (वाणी) में हैं, उन्हीके स्वर में हैं। महापुरुषों की वाणी में बड़ी विलक्षणता होती है, बड़ा प्रभाव होता है। जहाँ महापुरुषों की वाणी चलती है, वहाँ बड़ा आनन्द मङ्गल रहता है। बड़ा लाभ होता है। इसलिये कृपा करके इसके द्वारा वो लाभ स्वयं लें और दूसरों को भी लाभ लेनेके लिये प्रेरित करें।

    अपने घर, मोहल्ले, मन्दिर या सत्संग भवन आदि में प्रातः पाँच बजे इस नित्य- सत्संग की व्यवस्था करनी चाहिये जिससे कि सबलोग सुगमता पूर्वक सत्संग का लाभ ले सकें।

(१२) सत्संग करने का तरीका महापुरुषों वाला ही अपनावें

    'श्रीस्वामीजी महाराज' के समय में पाँच बजे जिस प्रकार से सत्संग होता था आज भी उसी प्रकार से करना चाहिये। प्रकार में परिवर्तन नहीं करना चाहिये। महापुरुषों ने जिस तरीके से सत्संग किया और करवाया था उसी तरीके से करने से बड़ा लाभ होता है, बड़ी शक्ति मिलती है। महापुरुषों द्वारा आचरित इस प्रकार इस सत्संग को कोई भी करेंगे और करवायेंगे तो उनको बड़ा भारी लाभ होगा। यह दुनियाँ की बड़ी भारी सेवा है। किसी को भगवान् की तरफ लगाना परमसेवा है।

    गीताप्रेस के संस्थापक सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका कहते थे कि लाखों मनुष्यों की भौतिक सेवा से एक मनुष्य की परमसेवा ( भगवान् की तरफ लगा देना ) बढ़कर है।

    इस प्रकार हम नित्य सत्संग का लाभ ले सकते हैं और लोगों को भी यह लाभ दिला सकते हैं। प्रातः पाँच बजते ही यन्त्र के द्वारा शुरु करके यह सत्संग अनेक लोगों को सुनाया जा सकता है और इस प्रकार सत्संग करवाया जा सकता है। सत्संग प्रतिदिन करें।

(१३) सत्संगके बाद, ‘आपसमें सत्संग-चर्चा’ करनेसे भारी लाभ

    फिर सत्संग में सुनी हुई बातों की बैठकर आपस में चर्चा करें। एक- दूसरे आपस में सत्संग की बातों का आदान-प्रदान करते हुए ठीक तरह से समझें और समझावें।

    श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि सत्संग के बाद सुनी हुई बातों की बैठकर आपस में चर्चा करने से, समझने से बड़ा लाभ होता है। बुद्धि का विकास होता है।

श्री तुलसीदास जी महाराज भी कहते हैं –

सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई।।  (रामचरित.०१।४१)

    इस प्रकार करने से सत्संग की बातें विशेष समझ में आती है। एक बात पर किसी का ध्यान नहीं गया या याद नहीं रही तो दूसरा याद दिला देता है। जैसे दीपकके नीचे अँधेरा रहता है, पर दो दीपक एक-दूसरेके सामने रख दें तो दोनों दीपकोंके नीचेका अँधेरा दूर हो जाता है।

    साधक- संजीवनी गीता (१०|११ की व्याख्या) में लिखा है कि

    ••• फिर वे आपसमें एक - दूसरेको भगवान् के तत्त्व, रहस्य, गुण, प्रभाव आदि जनाते हैं तो एक विलक्षण सत्संग होता है। जब वे आपसमें भावपूर्वक बातें करते हैं, तब उनके भीतर भगवत्सम्बन्धी विलक्षण-विलक्षण बातें स्वत: आने लगती हैं।

    जैसे दीपकके नीचे अँधेरा रहता है, पर दो दीपक एक-दूसरेके सामने रख दें तो दोनों दीपकोंके नीचेका अँधेरा दूर हो जाता है। ऐसे ही जब दो भगवद्भक्त एक साथ मिलते हैं और आपसमें भगवत्-सम्बन्धी बातें चल पड़ती हैं, तब किसीके मनमें किसी तरहका भगवत्सम्बन्धी विलक्षण भाव पैदा होता है तो वह उसे प्रकट कर देता है तथा दूसरेके मनमें और तरहका भाव पैदा होता है तो वह भी उसे प्रकट कर देता है। इस प्रकार आदान-प्रदान होनेसे उनमें नये-नये भाव प्रकट होते रहते हैं। परन्तु अकेलेमें भगवान् का चिन्तन करनेसे उतने भाव प्रकट नहीं होते। अगर भाव प्रकट हो भी जायँ तो अकेले अपने पास ही रहते हैं, उनका आदान-प्रदान नहीं होता।

    इस प्रकार सत्संग की बातों को अच्छी तरह समझना चाहिये और प्रतिदिन सत्संग करना चाहिये। इस चर्चा को भी अनावश्यक बढ़ावें नहीं; क्योंकि सबेरे-सबेरे लोगों के पास समय कम रहता है। चर्चा में मुख्यता श्री स्वामीजी महाराज की बातों की ही रखें।

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टिप्पणियाँ

(१४) नित्य-स्तुति आदि की जानकारी

    *. नित्य-स्तुति प्रार्थना के चुने हुए उन (उन्नीस) श्लोकों की संख्या गीताजी में इस प्रकार है- (२/७; ८/९; ११/१५-२२, ३६-४४; )

   इस प्रार्थना की शुरुआत से पहले, श्रीगणेश में यह श्लोक बोला जाता था- 

'गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्। 

उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्'

   और समाप्ति के बाद यह श्लोक बोला जाता था–   

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव।। 

(इस प्रकार केवल प्रार्थना के ही इक्कीस श्लोक हो जाते थे। इसके बाद प्रतिदिन गीताजी के लगभग दस श्लोकों का क्रमशः पाठ तथा संकीर्तन और होता था।) 

    गीता जी वाले दस श्लोकों के पाठ में पहले 'वसुदेवसुतं देवं...' नामक श्लोक का पाठ, फिर गीता जी के दस श्लोकों का पाठ और फिर आखिरी– दसवें श्लोक का दुबारा पाठ होता था। इसके बाद, वापस– दुबारा 'वसुदेवसुतं देवं...' वाले श्लोक का पाठ और फिर इस श्लोक के चौथे चरण ( कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ) का दुबारा पाठ होता था। इसके बाद हरिःशरणम् हरिःशरणम्... आदि संकीर्तन होता था।

    ये सब लगभग सत्रह से लेकर बीस मिनिटों में पूरे हो जाते थे। इसके बाद (करीब 0518 बजे से) श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग-प्रवचन करते थे। यह सत्संग पहले बाईस मिनट के आसपास और बाद में लगभग सत्ताईस मिनट होने लगा। यह प्रायः छः बजे से (18 या 13 मिनट) पहले ही समाप्त कर दिया जाता था। 

(१५) सत्संग के अनेक लाभ

    *. श्री स्वामी जी महाराज का पाँच बजेवाला यह सत्संग-प्रोग्राम थोड़े समयमें ही बहुत लाभ देनेवाला था। उनके सत्संग से लोगों को आज भी बहुत लाभ हो रहा है और आगे, भविष्य में भी बहुत लाभ होगा। 

1 ("श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज" की रिकॉर्डिंग वाणीवाला "सत्संग" 1 जरूर सुनें। उनकी रिकॉर्डिंग वाणी2 और "साधक- संजीवनी" आदि पुस्तकों3 के द्वारा "सत्संग" करें।) "श्री स्वामीजी महाराज" के "सत्संग" में हर प्रकार के4 मनुष्यों को अपने- अपने काम की सामग्री मिलती है। इसलिये यह सत्संग सबके काम5 का है। इसमें बहुत विलक्षणताएँ 6 भरी हुई हैं। इसमें तरह-तरह के लाभ7 हैं।

   इसमें अनेक प्रकार की विशेषताएँ हैं। 

   जैसे- 

8    "श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज" का यह सत्संग गीताज्ञान8, रहस्य युक्त9, शास्त्र सम्मत10, अनुभव सहित11, युक्तियुक्त12, सत- असत का विभाग बतानेवाला13 और तत्काल परमात्मप्राप्ति का अनुभव कराने वाला14 है।

15 यह सत्संग बिना कुछ किये परमात्मा की प्राप्ति करानेवाला15, सरलता से भगवत्प्राप्ति करानेवाला16, करणसापेक्ष17 तथा करणनिरपेक्ष साधन18 बताने वाला और करणरहित साध्य19 का अनुभव करानेवाला है।

20 श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग आजकल की आवश्यकता युक्त20, सामयिक21, रुचिकर22 और तरह-तरह की शंकाओं का समाधान करनेवाला 23 है।

24  यह संशयछेदक24, दुःख मिटानेवाला25, राग-26 द्वेष मिटानेवाला27, समता लानेवाला28, शोकनाशक29, चिन्ता मिटानेवाला30 और पश्चात्ताप हरनेवाला31 है।

32    यह उन्माद, डिप्रेशन32 , टेंशन मिटानेवाला33, स्वास्थ्य ठीक करनेवाला34, संसार का मोह मिटानेवाला35, संसार की निःसारता बतानेवाला36, चेतानेवाला37, तीनों तापों का नाश करनेवाला38 और व्यवहार में परमार्थ की कला सिखानेवाला39 है।

40   यह गर्भपात आदि बड़े-बड़े महापापों से बचानेवाला40, मृत्यु से बचानेवाला41, आत्महत्या से बचानेवाला42, दुर्घटनानाशक43, बुराई रहित करनेवाला44 और संसारमात्र् की असीम सेवा का रहस्य बतानेवाला45 है।

46   श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग परिवार में प्रेम से रहने की विद्या सिखानेवाला46, आपसी मतभेद मिटानेवाला47, खटपट मिटानेवाला48, लड़ाई- झगड़े का समाधान करनेवाला49 और सुख शान्ति लानेवाला50 है।

51   यह गऊ51, ब्राह्मण52, हिन्दू53 और हिन्दु संस्कृति की रक्षा करनेवाला54, साधकों को सही रास्ता बतानेवाला55, साधू56 और गृहस्थों को सही मार्ग बतानेवाला57 और साधुता सिखानेवाला है, सज्जनता सिखानेवाला58 है।

59  यह सत्संग अहंता59 ममता मिटानेवाला60, भय61, आशा62, तृष्णा63, आसक्ति64 आदि मिटानेवाला, काम65 क्रोध66 आदि विकारों से छुड़ानेवाला और त्याग67 वैराग्य68 सिखानेवाला है।

69  श्री स्वामी जी महाराज का सत्संग परमात्मा का परमप्रेम प्रदान करनेवाला69, भगवान् की लीला समझानेवाला70, भक्ति का रहस्य बतानेवाला71, भगवान् से अपनापन करानेवाला72 और परम प्रभुसे नित्य-सम्बन्ध जोड़नेवाला73 है।

74  यह भगवत्कृपा का रहस्य बतानेवाला74, सगुण-75 निर्गुण76, साकार-77 निराकार78 का रहस्य समझानेवाला, वासुदेवः सर्वम्79, समग्ररूप भगवान् का ज्ञान करानेवाला80 सबका समन्वय करनेवाला81, संसार और परमात्मा का भेद मिटानेवाला82 है।

83 यह तर्कयुक्त (तर्कसहित)83 तात्त्विक84 और सत्य- परमात्मा का महत्त्व बतानेवाला85 है।

86  यह गुरुज्ञान86, तत्त्वज्ञान87, ब्रह्मज्ञान 88 तथा कर्म का रहस्य बतानेवाला89, अर्थयुक्त90, सारगर्भित91, सर्वहितकारी92, मानवमात्र् का कल्याण करनेवाला93, बड़ा विलक्षण94 और अत्यन्त प्रभावशाली95 है।

96   श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग अपने प्रियजन की मृत्यु का शोक हरनेवाला96, ‘सम्पत्तिनाश से होनेवाला दुःख’ मिटानेवाला97, दरिद्रतानाशक98 और व्यापार की कला सिखानेवाला99 है।

100  यह फिज़ूलखर्च मिटानेवाला100, आमदनी बढ़ानेवाला101, बरकत करनेवाला102, सिखानेवाला103, कञ्जूसी मिटानेवाला104, सदुपयोग सिखानेवाला105, लक्ष्मी लानेवाला106, और सौभाग्य बढ़ानेवाला107 है।

108  यह मनोमालिन्य मिटानेवाला108, सास-बहू में प्रेम बढ़ानेवाला109, दाम्पत्य जीवन सुखमय करनेवाला110, वंशवृद्धि करनेवाला111, बाल बच्चों को मृत्यु से बचानेवाला112 और बहन113 बेटी की रक्षा करनेवाला114 है।

115   श्री स्वामी जी महाराज का सत्संग माता-115 पिता116, सास-117 ससुर आदि की सेवा करवानेवाला118, शारीरिक कष्ट मिटानेवाला119, जादू-टोना120, देवी-देवता121, प्रेत-पितर122, भूत-पिशाच आदि का भय मिटानेवाला123, बहम का दुःख मिटानेवाला124 और मिथ्या भ्रम का निवारण करनेवाला125 है।

126 यह दोषदृष्टिनाशक126, स्वभाव सुधारनेवाला127, लोक-128 परलोक सुधारनेवाला129, पापी का भी कल्याण करनेवाला130 और जीवन्मुक्ति प्रदान करनेवाला131 है।

132  यह भगवान् में प्रेम बढ़ानेवाला132, भगवद्धाम की प्राप्ति करानेवाला133, नित्यप्राप्त की प्राप्ति करवानेवाला134 और आनन्द- मङ्गल करनेवाला135 है।

136    श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग136 खान-पान137 शुद्ध करनेवाला, शुद्ध138 आचार-विचार139 सिखानेवाला140, नियम व्रत141 सिखानेवाला, उत्साह बढ़ानेवाला142 और निराशा का दुःख मिटानेवाला143 है।

144  यह सत्संग असहाय को सहायता देनेवाला144, दुःखों से व्यथित की व्यथा मिटानेवाला145, भीतर का दुःख मिटानेवाला146 और हारेहुए को सहारा देनेवाला147 है।

148  यह सत्संग "जिसका कोई नहीं", उसको सहारा देनेवाला148, गरीबों को अपनापन देनेवाला149, अपनानेवाला150, उदारता सिखानेवाला151 कुरीति मिटानेवाला152 और गिरेहुए को ऊपर उठानेवाला153 है।

154  श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग सुख की नींद देनेवाला154, आपस का मनमुटाव मिटानेवाला155 प्रेम करानेवाला156, बुराई करनेवाले की भी भलाई करनेवाला157, दोष मिटानेवाला158, निर्वाह की चिन्ता मिटानेवाला159, और आनन्द करनेवाला160 है।

161   श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग सद्गुण161 सदाचार लानेवाला162, शौचाचार163 और सदाचार सिखानेवाला164 है।

165   यह चुप-साधन बतानेवाला165, अपने स्वरूप से अहंता (मैं-पन, अहंकार) को अलग करके बतानेवाला166, अपने अहंरहित स्वरूप का अनुभव करानेवाला167 और परमात्मतत्त्व में तत्काल स्थिति करानेवाला168 है।

169   इस प्रकार यह सत्संग और भी अनेक प्रकार से लाभ देनेवाला है169, यह तो कुछ दिग्दर्शन है।

170    इसमें और भी कई विलक्षणताएँ भरी हुई है। इससे बड़ा भारी लाभ होता है।170 यह भगवान् की बड़ी कृपा171 है जो हमलोग उस समय के सत्संग से आज भी वैसा ही लाभ ले सकते हैं।172 और भविष्य में भी लोग लाभ लेते रहेंगे173

(१६) चुने हुए प्रवचन

    *३. इस सत्संग-समुदाय में पसन्द किये गये विशेष प्रवचन जोड़े गये हैं। जो अनेक वर्षोंतक सत्संग सुनते- सुनते पसन्द किये गये थे। 

    प्रवचन सुनते समय जब किसी प्रवचन में कोई विशेष बात समझ में आयी, तब उस प्रवचन को अलग से संग्रह के लिये रख लिया था। ऐसे अनेक प्रवचनों में से ये इकहत्तर प्रवचन चुनकर, इस सत्संग- समुदाय में जोड़े गये हैं। इनमें पाँच बजे के अलावा दूसरे समय के प्रवचन भी हैं। कुछ मिनिटों के अलावा ये प्रवचन भी लगभग आधे घंटे के हैं। 

( इन प्रवचनों के नामों की सूची भी बतायी गयी है। बोली गयी है।)

(१७) "शुद्ध उच्चारण" करके ‘गीता पढ़ना’ सीखनेका उपाय

    *४. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज द्वारा किया गया गीतापाठ अनेक प्रकार से बड़ा उपयोगी है। इसलिये इससे सबको लाभ लेना चाहिये। 

    जिनको ठीक तरह से गीता पढ़ना नहीं आता हो तो उनको चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज द्वारा किये गये गीतापाठ के साथ- साथ गीतापाठ करें। इससे उनको ठीक तरह से गीता पढ़ना आ जायेगा। 

    जिनको गीता पढ़ना तो आता है पर शुद्ध उच्चारण करना नहीं आता, तो उनको चाहिये कि इसके साथ-साथ ध्यान देकर गीतापाठ करें। इससे उनको शुद्ध उच्चारण करना आ जायेगा, वे शुद्ध उच्चारण करके गीता पढ़ना सीख जायेंगे। 

    श्रीस्वामीजी महाराज से कोई पूछता कि मेरे को गीता जी के संस्कृत श्लोक शुद्ध उच्चारण करके पढ़ने नहीं आते, मैं श्लोकों का उच्चारण शुद्ध कैसे करूँतो श्रीस्वामीजी महाराज उनको उपाय बताते कि यहाँ, सुबह चार बजे गीताजी की टैप (कैसेट) लगती है; उसके साथ-साथ गीताजी पढ़ो। 

    ( इस प्रकार संस्कृत श्लोकों का उच्चारण शुद्ध किया जा सकता है। इस गीतापाठ के साथ-साथ गीताजी पढ़कर कोई भी अपना उच्चारण शुद्ध कर सकता है। )

    प्रश्न-  गीताजी के संस्कृत श्लोक आदि पढ़ने में कोई गलती हो जाय तो कोई दोष तो नहीं लगेगा? 

    उत्तर-  नहीं लगेगा; क्योंकि पढ़नेवाले की नीयत (मन का भाव) सही है। ऐसा प्रश्न किसीने श्री स्वामी जी महाराज से किया था। तब वे बोले कि आप गीताजी पढ़ो, भगवान् नीयत देखते हैं अर्थात् भगवान् देखते हैं कि इसकी नीयत गीता पढ़ने की है, पढ़ने में यह जान बूझकर गलती नहीं करता। शुरुआत में ऐसे गलतियाँ हो जाया करती है। भगवान् गलतियों की तरफ नहीं देखते, नीयत की तरफ देखते हैं। नीयत सही होने से गलतियाँ होनेपर भी माफ कर देते हैं। 

    पढ़ते समय बालक से शुरु- शुरु में गलतियाँ होती है; परन्तु पढ़ानेवाले माफ कर देते हैं ( तभी पढ़ना होता है; नहीं तो पढ़ना और पढ़ाना- दोनों मुश्किल हो जाय)। इसलिये अशुद्ध उच्चारण की गलती के डर से गीताजी को छोड़ नहीं देना चाहिये, गीताजी पढ़नी चाहिये। हमारी नीयत गीता पढ़ने की है और ठीक तरह से नहीं पढ़ पा रहे हैं तो भी भगवान् राजी होते हैं। जैसे बालक की तोतली बातों से माता पिता राजी होते हैं, ऐसे भगवान् भी गीता पढ़ने से राजी होते हैं। 

    इसलिये नित्यस्तुति के बाद श्रीस्वामीजी महाराज की वाणी के साथ- साथ गीतापाठ जरूर करना चाहिये। ठीक तरह से पढ़ना न आये तो भी गीताजी पढ़नी चाहिये, पढ़ने की कोशिश करनी चाहिये। कोशिश करने से ठीक तरह से पढ़ना आ जाता है। 

[ अबकी बार इस प्रबन्ध में साफ आवाज वाली गीतापाठ के श्लोक जोड़े हैं। इस गीतापाठ की आवाज सिंगापुर भेजकर साफ करवायी गयी थी। ] 

(१८) ‘अशुद्ध उच्चारण’ होनेपर भी भगवान् की प्रसन्नता, घटना  

    एक बार श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज से किसीने पूछा कि गीताजी के सिर्फ हिन्दी अर्थका पाठ ही करलें क्या? क्योंकि है तो वो गीताजी के संस्कृत श्लोकोंका ही अर्थ।

इसलिए संस्कृत न पढ़कर सिर्फ़ हिन्दी अर्थ का पाठ करलें तो एक ही बात होगी क्या

    जवाब में श्री स्वामीजी महाराज बोले कि-

    नहीं, संस्कृत श्लोकोंका पाठ भी करना चाहिये (क्योंकि ये श्लोक) भगवान् की वाणी है। 

(कई लोग गीताजी इसलिये नहीं पढ़ते कि संस्कृत श्लोकोंका उच्चारण शुद्ध नहीं होगा तो दोष लग जायेगा। हमको ठीकसे संस्कृत तो आती नहीं है और पढ़ते समय अगर अशुद्ध उच्चारण हो गया तो दोष लग जायेगा; पर बात ऐसी नहीं है। कृपया इस रहस्य को ठीकसे समझलें)।

    गीता पढ़ने वालेकी नियत तो शुद्ध पढ़नेकी है; पर पढ़ते समय अगर अशुद्ध उच्चारण हो जाता है तो दोष नहीं लगता; क्योंकि भगवान् नीयत देखते हैं।

    बालक जब पढ़ाई शुरु करता है तो शुरुआत में अशुद्ध बोलता है, अशुद्ध पढ़ता है; पर उसकी नीयत शुद्ध है।

    अगर नीयत शुद्ध है, ईमानदारी से पढ़ना चाहता है तो अध्यापक नाराज नहीं होता; प्रत्युत उसकी नीयत देख कर प्रसन्न हो जाता है। ऐसे भगवान् भी हमारी गीता पढ़नेकी नीयत शुद्ध देखकर प्रसन्न होते हैं।

 [ इसको ठीक तरह से समझनेके लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजका यह प्रवचन सुनें- 19930620_0830_Prapti Ki Sugamta ]

    इस प्रवचनमें श्री स्वामी जी महाराज ने गीता पढ़नेके लिये फरमाया है। (प्रेमपूर्वक गीताजी पढ़ें। अशुद्ध उच्चारण होगा तो दोष लग जायेगा– ऐसे डरें नहीं)। इसके समर्थनमें श्री स्वामीजी महाराजने यह कथा सुनायी है–

    एक भक्त ‘दुर्गा सप्तशती’ का पाठ करते हुए 'नमस्तस्यै' 'नमस्तस्यै' के स्थान पर ‘नमस्तस्मै' 'नमस्तस्मै' का उच्चारण करने लग गया था।

    यह देखकर किन्ही जानकार पण्डितजीने उनको समझाया कि (संस्कृत भाषा के अनुसार 'नमस्तस्मै' तो पुरुष के लिये बोला जाता है और 'नमस्तस्यै' स्त्री के लिये बोला जाता है) दुर्गा स्त्री है (इसलिए तुम यहाँ 'नमस्तस्यै' बोला करो)।

    तब वो 'नमस्तस्यै' बोलनेका प्रयास करने लगा; परन्तु बार बार ('नमस्तस्यै' के स्थान पर) 'नमस्तस्मै' का ही उच्चारण होने लग जाता था (यह उनके लिये एक झंझट हो गया)। रात्रि (स्वप्न) में माताजीने दर्शन दिये और (शुद्ध उच्चारण के लिये कहने वालेकी) छाती पर चढ़कर दुर्गाने धमकाया कि तू मेरेको स्त्री समझता है? मैं न स्त्री हूँ और न पुरुष हूँ। मेरी तो जो उपासना करे, वो मैं हूँ (जो भक्त मेरे जिस स्त्री या पुरुष रूपकी उपासना करता है उसके लिये मैं वही हूँ)।

    उस भक्त का 'नमस्तस्मै' उच्चारण मुझे प्रिय लगता है। तब उन्होंने माताजी से क्षमा माँगी कि माँ! अब ऐसा नहीं करुँगा।

मन्दो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
उभयोश्च फलं तुल्यं भावग्राही जनार्दन:।।

    { कम जानकार 'विष्णाय नमः' (अशुद्ध) कहता है और अधिक जानकार 'विष्णवे नमः' (शुद्ध) कहता है। परन्तु दोनोंका फल बराबर है; क्योंकि भगवान् भाव ग्रहण करनेवाले हैं। }

    इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अशुद्ध बोलो। अपनी समझसे शुद्ध बोलो। अशुद्ध मत बोलो। शुद्ध सीखलो।

    अपनी दृष्टि से बढ़िया से बढ़िया, शुद्ध से शुद्ध उच्चारण करो, गफलत मत रखो, प्रमाद मत करो।

    कह, आवे नहीं तो? (कह, शुद्ध उच्चारण आये नहीं तो? कह,) वो लागू होता ही नहीं (शक्ति से अधिक की जिम्मेवारी ही नहीं है)। बालककी तोतली वाणी माँ बापको जैसी प्यारी लगती है, वैसी पण्डितजीकी शुद्ध उच्चारण वाली (वाणी) प्यारी नहीं लगती। 

   (ऐसे जो गीताजी पढ़ता है तो अशुद्ध बोलनेपर भी भगवान् को वो गीता प्यारी लगती है। प्रेम हो तो शुद्ध बोलनेवालेसे भी अशुद्ध बोलने वाला ज्यादा प्यारा लगता है)।

    इसपर चैतन्य महाप्रभुके समय वाले उस भक्तकी कथा बतायी जो गीताजी ठीकसे पढ़ नहीं पाता था, पर उसको लगता था कि अर्जुन और श्री कृष्ण भगवान् सामने बातचीत कर रहे हैं, आदि।

    {इसलिए प्रेमसे गीताजी पढ़ें। डरें नहीं कि अशुद्ध उच्चारण हो जायेगा तो दोष लग जायेगा, दोष नहीं लगेगा। भगवान् राजी होंगे। आप प्रेमसे जैसी भी गीताजी पढ़ोगे वो भगवान् को प्रिय लगेगी। 

    संस्कृत श्लोक पढ़नेमें कठिनाई होती हो तो धीरे-धीरे पढ़लें। पहले हिन्दी अर्थ पढ़ें और फिर उस अर्थ को ध्यान में रखते हुए उसी श्लोक को पढ़ें और समझें। एक-एक संस्कृत शब्दों का हिन्दी अर्थ पढ़कर समझें। एक-एक शब्दों के अलगसे अर्थ साधक-संजीवनी में लिखे हुए हैं, वहाँ पढ़कर समझ सकते हैं।

    श्लोक का पदच्छेद और अन्वय की सुगमता के लिये पदच्छेद वाली गीता पढ़ सकते हैं।

    गीताजी के श्लोकों का सही उच्चारण सीखनेके लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के द्वारा गाया हुआ गीतापाठ का ओडियो रिकॉर्ड सुनें और उसके साथ-साथ संस्कृत श्लोक पढ़ें।

    वो इस पते पर जाकर प्राप्त कर सकते हैं –

    1.  db.tt/umrsxMnU                    2.  db.tt/L5hJrHtt

    गीताजी का रहस्य समझनेके लिये और गीताजीमें प्रेम होनेके लिये कृपया गीता साधक-संजीवनी का समझ-समझकर अध्ययन करें}।

गीता का शुद्ध उच्चारण करके पढ़नेकी सुगमता। (लिंक–)  Bit.ly/ShuddhUccharan

(१९) गीताजी कण्ठस्थ (याद) करनेका उपाय

    एक सज्जनने पूछा है कि हम गीताजी कण्ठस्थ करना चाहते हैं, गीताजी कण्ठस्थ होनेका उपाय बतायें।

    उत्तरमें निवेदन है कि गीताजी कण्ठस्थ करना हो तो पहले गीता साधक-संजीवनी, गीता तत्त्वविवेचनी, [गीता पदच्छेद अन्वय सहित] आदिसे गीताजीके श्लोकोंका अर्थ समझलें और फिर रटकर कण्ठस्थ करलें।

    श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि छोटी अवस्थामें तो पहले श्लोक रटा जाता है और पीछे उसका अर्थ समझा जाता है तथा बड़ी अवस्थामें पहले अर्थ समझा जाता है और पीछे श्लोक रटा जाता है। (जो श्लोक कण्ठस्थ हो चुके हों, उनकी आवृत्ति रोजाना बिना पुस्तक देखे करते रहें)।

    जो श्लोक दिनमें कण्ठस्थ किये गये हैं, रात्रिमें सोनेसे पहले कठिनता-पूर्वक, बिना देखे उनकी आवृत्ति करलें, सुबह उठते ही वापस आवृत्ति करोगे तो धड़ा-धड़ आ जायेंगे।

    (बिना देखे गीता पाठ न करने से हानि बताते हुए कभी-कभी तर्क सहित और हँसते हुए- से श्रीमहाराजजी बोलते थे कि) अगर कोई यह पूछे कि हम ‘गीताजीका कण्ठस्थपाठ’ भूलना चाहते हैं, कोई उपाय बताओ। तो भूलनेका उपाय यह है कि ‘गीताजीका कण्ठस्थपाठ’ गीताजीको देखकर करते रहो, भूल जाओगे अर्थात् ‘कण्ठस्थ-पाठ’– याद किया हुआ पाठ भी गीताजीको देख-देखकर करोगे तो भूल जाओगे।

    इसलिये जिनको पूरी गीताजी याद (कण्ठस्थ) हो अथवा दो-चार अध्याय ही याद हो, उनको चहिये कि कण्ठस्थ-पाठ पुस्तक देख-देखकर न करें, बिना देखे करें। जहाँ भूल होने की सम्भावना हो या भूल हो गई हो अथवा श्लोक याद न आया हो, तो वहाँ गीता जी में देख लें और फिर उसको याद रखें।

    जो सज्जन गीताजीको याद करना चाहते हैं, उनके लिये श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक– 'गीता-ज्ञान-प्रवेशिका' बड़ी उपयोगी रहेगी। इसमें गीता याद करने की, गीता-अध्ययन सम्बन्धी और भी अनेक बातें बताई गई है।  

    श्री स्वामी जी महाराज की आवाजमें रिकॉर्ड किये हुए दो प्रकारके गीता-पाठ उपलब्ध है। उनके साथ-साथ पाठ करनेसे गीताजी कण्ठस्थ हो जाती है।

    अगर कोई गीताजी सीखना चाहें, तो इन पाठोंके साथ-साथ पढ़कर आसानीसे सीख सकते हैं। गीताजीका शुद्ध उच्चारण कोई सीखना चाहें तो वे भी इनके साथ-साथ पाठ करके सीख सकते हैं। कोई गीताजी पढ़नेकी लय सीखना चाहें, कोई गीताजीकी राग सीखना चाहें, तो वे भी श्री महाराजजीकी इस वाणीके साथ-साथ पाठ करके सीख सकते हैं।

    कोई गीताजी पढ़ते समय उच्चारणमें होनेवाली अपनी भूलें सुधारना चाहें, गलतियाँ सुधारना चाहें, तो वे भी इनके साथ-साथ पाठ करके सुधार सकते हैं। कई लोग श्री स्वामी जी महाराज से पूछते थे कि हम गीता पढ़ना चाहते हैं, हमको शुद्ध गीताजी पढ़ना नहीं आता, क्या करें?

    तब श्री महाराजजी उनसे कहते थे कि सुबह चार बजे यहाँ गीताजीके पाठकी कैसेट लगती है, उसके साथ-साथ गीताजी पढ़ो। (गीताजी शुद्ध पढ़ना आ जायेगा, सही पढ़ना सीख जाओगे)। उन दिनों प्रात: चार बजे श्री स्वामी जी महाराज की आवाजवाले गीतापाठकी कैसेटें ही लगती थीं। (आज भी हम वैसा कर सकते हैं)।

(२०) पाँच श्लोक और उनका पाठ करवानेका कारण

    एक बार श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज एकान्त में अकेले ही विराजमान थे। ऐसा प्रतीत होता था कि किसी विचारमें हैं (विचार कर रहे हैं) मैंने(डुँगरदास राम ने) पूछा कि क्या बात है? तब उत्तरमें चिन्ता और खेद व्यक्त करते हुएसे बोले कि इन लोगों की क्या दशा होगी?

    (ये सत्संग करते हैं, सुनते हैं, पर ग्रहण नहीं कर रहे हैं, कल्याणमें ढ़िलाई कर रहे हैं, बातोंकी इतनी परवाह नहीं कर रहे हैं आदि आदि)।

    फिर बताया कि कमसे कम इनकी दुर्गति न होंइसके लिये क्या किया जाय कि गीताजीके कुछ श्लोकोंका पाठ करवाया जाय।

(श्री स्वामी जी महाराज कभी-कभी एक यह पुराना प्रसंग भी सुनाते थे–)

    एक हेडमास्टरने पूछा कि मनुष्य को कम- से कम क्या कर लेना चाहिये?

    मैंने कहा कि मनुष्य को कर तो लेना चाहिये अपना कल्याण। तत्त्वज्ञान। भगवान् का परम प्रेम प्राप्त कर लेना चाहिये। परन्तु इतना न हो सके तो कम- से कम इतना तो जरूर कर लेना चाहिये कि मनुष्य जन्म से नीचे न गिरे। मनुष्य जन्म से नीचे न चला जाय अर्थात् इसी जन्म में भगवत्प्राप्ति न कर सके तो मरने के बाद वापस मनुष्यजन्म मिल जाय। पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि नीची योनियों में न जाना पड़े– इतना तो कर ही लेना चाहिये।

    (तब उन्होंने पूछा कि) इसका क्या उपाय है (कि वापस मनुष्य जन्म ही मिल जाय)?

तो कह, गीता याद (कण्ठस्थ) करलें। क्योंकि–

गीता पाठ समायुक्तो मृतो मानुषतां व्रजेत्।।१६।।

गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम्।।

                   गीता माहात्म्य [वराह पुराण]

    अर्थात्, गीता-पाठ करनेवाला मनुष्य [अगर मुक्ति होनेसे पहले ही मर जाता है, तो] मरनेपर फिर मनुष्य ही बनता है और फिर गीता का अभ्यास करता हुआ उत्तम मुक्तिको प्राप्त कर लेता है।

    (इसलिये इन लोगों से गीता जी के कुछ श्लोकों का पाठ करवाया जाय) अब गीताजीके कौन-कौनसे श्लोकोंका पाठ करवाना चाहिये? कि अवतार-विषयक (गीता ४|६-१०) श्लोकोंका पाठ बढ़िया रहेगा

    फिर अन्दरसे बाहर, सत्संगमें पधारे तथा लोगोंसे कह कर रोजाना (हमेशा) के लिये इन पाँच श्लोंकों का पाठ (करना) शुरु करवा दिया। (सूक्तिसंख्या ९९३ भी देखें)

    यह पाठ रोजाना सत्संग- प्रवचनसे पहले होता था

    पूरी गीताजी का तो कहना ही क्या, गीताजी के एक अध्याय का भी बड़ा माहात्म्य है। एक श्लोक या आधे श्लोक अथवा चौथाई श्लोक (एक चरण) का भी बड़ा माहात्म्य बताया गया है। फिर ये तो पाँच श्लोक हैं।  सत्संग करनेवालों और न करनेवालों को भी कम-से कम गीता जी के इन पाँच श्लोकों का पाठ तो करना ही चाहिये।

(अधिक जानने के लिये श्री स्वामी जी महाराज का यह प्रवचन सुनें–) 19930714_0518_Parlok Ki Chinta Kare Swabhav Sudhar (परलोक की चिंता करे स्वभाव सुधार)।

    पाँच श्लोक आदिका पाठ उन महापुरुषों की ही आवाजके साथ- साथ करेंगे तो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूपमें बहुत लाभ होगा।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा लोक-कल्याण- हित शुरु करवाये हुए गीताजी (४|६-१०) के पाँच श्लोकोंका पाठ उन्हीकी आवाजमें (इण्टरनेट पर) यहाँसे प्राप्त करें —  db.tt/moa8XQh7  )