अन्तिम प्रवचन-( श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)। लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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रविवार, 27 जुलाई 2014

अन्तिम- प्रवचन– श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। (दोनों प्रवचनोंका यथावत् लेखन)

              ।।श्रीहरि:।। 

अन्तिम- प्रवचन (–श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।  
 (दिनांक २९ जून २००५, दुपहर ४ बजे और ३० जून २००५, सुबह ११ बजेवाले– दोनों प्रवचनोंका यथावत् लेखन)। 

  { प्रसंग-  

 श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजसे अन्तिम दिनोंमें यह प्रार्थना की गयी कि आपके शरीरकी अशक्त अवस्थाके कारण प्रतिदिन सत्संग-सभामें जाना कठिन पड़ता है। इसलिये आप विश्राम करावें। जब हमलोगोंको आवश्यकता मालुम पड़ेगी, तब आपको सभामें ले चलेंगे और कभी आपके मनमें सत्संगियोंको कोई बात कहनेकी आ जाय, तो कृपया हमें बता देना, हमलोग आपको सभामें ले जायेंगे। 
उस समय ऐसा लगा कि श्री स्वामीजी महाराज ने यह प्रार्थना स्वीकार करली। 
   इस प्रकार जब भी परिस्थिति अनुकूल दिखायी देती, तब समय- समय पर आपको सभामें ले जाया जाता था। 
   एक दिन (परम धाम गमन से तीन दिन पहले– २९ जून २००५ को) श्री स्वामीजी महाराजने अपनी तरफसे (अपने मनसे) फरमाया कि आज चलो अर्थात् आज सभामें चलो। सुनकर तुरन्त तैयारी की गयी।
पहियोंवाली कुर्सी पर आपको  विराजमान करवा कर सभामें ले जाया गया और जो बातें आपके मनमें आयीं, वो सुनादी गयीं तथा वापस अपने निवास स्थान पर पधार गये। 
   इस प्रकार यह समझ में आया कि जो आवश्यक और अन्तिम बात सत्संगियोंको कहनी थी, वो उस (पहले) दिन कह दीं। पहले दिन अपनी मर्जी से पधारे थे और दूसरे दिन दूसरोंकी मर्जीसे। दूसरे दिन (उन पहले दिन वाली बातों पर) प्रश्नोत्तर हुए तथा अपनी बात भी कही }।   
 
 प्रवचन नं० १ ( 20050629_1530 )। आषाढ़ कृष्ण ८, विक्रम संमत २०६२, सायं ४ बजे– २९ जून २००५। 

  कुछ भी न करनेसे परमात्मामकी प्राप्ति 
 (–श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज)। 

            ■□मंगलाचरण□■
[ पहले मंगलाचरण किया और उसके बाद में श्री स्वामी जी महाराज बोले -  ] 
  (0 मिनिट से) ●•• एक बात बहुत श्रेष्ठ (है ), बहुत श्रेष्ठ बात, है बड़ी सुगम, बड़ी सरल। एक बात है, वो कठिण है– कोई इच्छा, किसी तरह की इच्छा मत रखो। किसी तरह की (1 मिनिट.) कोई भी इच्छा मत रखो। ना परमात्मा की, ना आत्मा की, ना संसार की, ना आपनी (अपनी) मुक्ति की, कल्याण की इच्छा, कुछ इच्छा, कुछ इच्छा मत रखो और चुप हो ज्यावो(जाओ), बस। पूर्ण प्राप्त। कुछ भी इच्छा न रख कर के चुप– शाऽऽऽऽऽन्त !!।
क्योंकि परमात्मा सब जगह, शाऽऽऽन्तरूप से परिपूर्ण है। स्वतः, स्वाभाविक। सब ओर, सब जगह; परिपूर्ण [है])। कुछ भी न करे, कोई इच्छा नहीं, कोई डर नहीं, किसी तरह की कोई कामना नहीं। (2 मिनिट.) चुप हूग्या(हो गये)। बऽस। एकदम परमात्मा की प्राप्ति हू ज्याय (हो जाय)। तत्त्वज्ञान है वो पूर्ण। कोई इच्छा [नहीं]। क्योंकि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती। यह सब का अनुभव है। सबका यह अनुभव है क (कि) कोई इच्छा पूरी होती है, कोई इच्छा पूरी नहीं होती। यह कायदा (है)।
पूरी हूणी(होनी) चहिये क नईं(नहीं) हुई [आदि] किं– कुछ नहीं करणा अर पूरी न होणेपर भी कुछ नहीं करना। कुछ भी चाहना नहीं, कुछ चाहना नहीं र(और) चुप। एकदम परमात्मा की प्राप्ति। (3 मिनिट.) ख्याल में आयी? कोई इच्छा नहीं, कहीं चाहना नहीं। परमात्मा में स्थिति हो गई पूरी आपकी। आपसे आप– स्वतः। स्थिति है। है, पहले से है। वह अनुभव हो ज्यायगा। कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं, कुछ करणा नहीं, कहीं जाणा नहीं, कहीं आणा (-जाणा) नहीं, कुछ अभ्यास नहीं ॰(–कुछ नहीं)। इतनी ज (इतनी- सी ही) बात है, इतनी बात में पूरी– पूरी हो गई। अब (4 मिनिट.) शंका हो तो बोलो। 
    कोई इच्छा मत रखो। परमात्मा की प्राप्ति हो ज्यायगी। परमात्मा की प्राप्ति, एकदम। क्योंकि परमात्मा सब जगह परिपूर्ण (है), समान रीति से, ठोस है—  
भूमा अचल [शाश्वत अमल] सम ठोस है तूँ सर्वदा। ठोस है ठोस। "है"। कुछ भी इच्छा मत करो। एकदम परमात्मा की प्राप्ति। एकदम। बोलो! शंका हो तो बोलो। कोई इच्छा (नहीं)। अपणी इच्छा से ही संसार में हैं। अपणी इच्छा छोड़ी॰...(सबसे सुखी)। (5 मिनिट.) पूर्ण है स्थिति, स्वतः, स्वाभाविक। और जो काम हो, उसमें तटस्थ रहो, ना राग करो, ना द्वेष करो– 
तुलसी ममता रामसों समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख दास भये भव पार।
                                       (दोहावली 94) 
   एक भगवान है!! कोई इच्छा (नहीं), किसी तरह की इच्छा। कोई संसार की क, परमात्मा की क, आत्मा की क, किसीकी क, मुक्ति की क, कल्याण की क, प्रेम की क– कुछ इच्छा (नहीं)। बऽस– चुप। पूर्ण है प्राप्ति। (6 मि.) क्यों(कि) परमात्मा है। कारण हैऽऽ (कि) एक करणा (करना, क्रिया) र एक आश्रय– एक क्रिया र एक पदार्थ। एक क्रिया है, एक पदार्थ है। ये प्रकृति है। क्रिया और पदार्थ – ये छूट ज्याय। कुछ नहीं करणा, चुप रहे। अर(और) भगवान के, भगवान के शरण हो गये– परमात्मा के आश्रय। कुछ नहीं– करणा कुछ नहीं। (7) परमात्मा में हैं– यह चिन्तन नहीं, इसमें स्थिति आपकी है। है। है स्वतः, चिन्तन नहीं। है एकदम परिपूर्ण। परमात्मा में ही स्थिति है। (8) एकदम। एकदम। परमात्मा सब- शान्त है। "है" "है" वह "है" उस "है" में स्थित हो ज्याओ(जाओ)। "है" में स्थिति, स्वभाविक, स्वभाविक है, "है" में स्थिति, सबकी स्वाभाविक— कुछ भी इच्छा और एक ये आश्रय–दो छोङने से। (9) पद आता है क नीं (नहीं!)– एक बाळक, एक बाळक खो गया। एक माँ का बाळक खो गया। सुणाओ, वोऽऽ, वो पद सुणो। श्रोता– (बजरंगलालजी सोनी) हाँ। 
श्री स्वामी जी महाराज– बालक खो गया, व्याकुल हो गयी अर जागर देख्या (जगकर देखा) तो वहीं सोता है, साथ में ही। 
श्रोता– (बजरंगलालजी सोनी) ऊँऽऽ, ठीक है, हाँ हाँ (– सुनाते हैं)।
   [–वो पद सुनानेके लिये बजरँगलालजी शायद अब पुस्तक में ढूँढते हुए बोल रहे हैं ]।
श्री स्वामी जी महाराज – बहोत (बहुत) बढ़िया पद है भाई। कबीरजी महाराज का है॰... । (वाणीका यथावत-लेखन)। 
   [जो हुकम– कह कर पद गाना शुरु कर दिया गया]। 
   [सुनाया गया पद—] 
परम प्रभु अपने ही महुँ पायो। 
जुग जुग केरी मेटी कलपना सतगुरु भेद बतायो।।टेर।। 
ज्यों निज कण्ठ मणि भूषण को जानत ताहि गमायो। 
आन किसी ने देखि बतायो मन को भरम मिटायो।।१।। 
ज्यों तिरिया सपनें सुत खोयो जानत जिय अकुलायो। 
जागत ताहि पलँग पर पायो कहुँ ना गयो नहिं आयो।।२।। 
मिरगन पास बसे कस्तूरी ढूँढ़त बन बन धायो।  
निज नाभी की गंध न जानत हारि थक्यो सकुचायो।।३।। 
कहत 'कबीर' भई गति सोई ज्यों गूँगो गुड़ खायो। 
ताको स्वाद कहे कहु कैसो मन ही मन मुसकायो।।४।। ●
   ["श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज" "कबीर जी महाराज" के इस भजनका भाव अपने प्रवचनों में कई बार बोलते थे और कई बार यह भजन गाया भी जाता था। यह भजन इतना लोकप्रिय और रहस्यमय है कि इस के अनेक पाठभेद और रूप हो गये। लोगों ने शब्द आदि बदलकर इसके अनेक रूप बना दिये, जिससे यह समझना कठिन हो गया कि "कबीर जी महाराज" का वास्तविक–"मूल पद" कौन सा है? लोगों की सुविधा के लिये वो "मूल पद" नीचे लिखा जा रहा है। यह भजन श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक ("तत्त्वज्ञान कैसे हो?") में लिखा हुआ है। पुस्तक के लेख का नाम है- "सबसे सुगम परमात्मप्राप्ति"। श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक "साधन-सुधा-सिन्धु" (पृष्ठ १५०) में भी यह पद आया है। ] 
                   [मूल पद- ] 
अपन पौ आपहि में पायो। 
शब्द-हि-शब्द भयो उजियारा, सतगुरु भेद बतायो॥ टेर।। 
जैसे सुन्दरी सुत लै सूती, स्वप्ने गयो हिराई। 
जाग परी पलंग पर पायो, न कछु गयो न आई॥१।। 
जैसे कुँवरी कंठ मणि हीरा, आभूषण बिसरायो। 
संग सखी मिलि भेद बतायो, जीव को भरम मिटायो॥२।। 
जैसे मृग नाभी कस्तूरी, ढूँढत बन बन धायो। 
नासा स्वाद भयो जब वाके, उलटि निरन्तर आयो॥३।। 
कहा कहूँ वा सुख की महिमा, ज्यों गूंगे गुड़ खायो। 
कहै कबीर सुनो भाई साधो, ज्यों-का-त्यों ठहरायो॥४।।  
                     ●•• 
श्री स्वामी जी महाराज– [जहाँ आप हो] वहीं चुप हो ज्याओ। वहाँ परमात्मा पूरे हैं। जहाँ आप हो वहाँ ही चुप हो ज्याओ। वहाँ परमात्मा पूरे हैं पूरे, पूरे परमात्मा। जहाँ आप हैं, वहाँ ही चुप हो ज्याओ, पूरे परमात्मा। ख्याल में आया? कीर्तन सुणा[दे थोङा]। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। ■ 
[सुनाया गया कीर्तन–
हरेराम हरेराम राम राम हरे हरे। 
हरेकृष्ण हरेकृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। 
हरेराम हरेराम राम राम हरे हरे। 
हरेकृष्ण हरेकृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। 
×                    ×                     × 
सियावर रामचन्द्र की जय, मोर मुकुट बंशीवालेकी जय। श्री गंगा मैयाकी जय। 
                 ■●■  
प्रवचन नं०२ ( 20050630_1100_QnA )। आषाढ़ कृष्णा नवमी, विक्रम संवत २०६२। दिनांक ३०|६|२००५, सुबह ११ बजे, गीताभवन ऋषिकेश)।
इच्छा-त्यागसे परमात्मामें स्थिति
(–श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज)। 
   { आज श्री स्वामी जी महाराज सभा में आकर विराजमान हुए। कल की बातों के अनुसार एक सज्जन (जुगलजी धानुका) ने प्रश्न पुछवाया। प्रश्नकर्त्ता की उस बात को बिचौलिया (डुँगरदास राम) अब श्रीस्वामीजी महाराज को सुना रहा है- } 
प्रश्न- (0 मिनिट से)●•• [एक सज्जन पूछ रहे हैं कि] - कोई चाहना नहीं रखना, (यह) आपने कल बताया था। तो इच्छा छोड़ने में और चुप रहने में, इनमें– दोनों में, ज्यादा कौन फायदा करता है?। 
   [ अभी बिचौलिये और उसकी बातों की तरफ श्रीस्वामीजी महाराज की रुचि नहीं है। इसलिये वे अपनी तरफ से, अपनी बात कह रहे हैं- ]
   (१) मैं भगवान का हूँ, (२) भगवान मेरे हैं। (३) मैं और किसी का नहीं हूँ (४) और कोई मेरा नहीं है। 
प्रश्न – चुप साधन में और इच्छा रहित होने में कोई फर्क है? चुप साधन करना और इच्छा रहित होना ... । 
  [ श्री स्वामी जी महाराज प्रश्नकर्त्ता के एक ही शब्द (इच्छा) को लेकर पुनः अपनी बात आगे बढाते हुए कह रहे हैं- ] 
श्री स्वामी जी महाराज– एक इच्छा ही, एक ही हो इच्छा। 
प्रश्न- दोनों बातें एक ही है? (1 मिनिट•) 
श्रीस्वामीजी महाराज– एक ही है, एक ही है– कुछ भी नीं चाहिये। ना भोगों री (की), ना मोक्ष री –कुछ भी इच्छा नी॔ करणा (नहीं करना)। और सब करो। कुछ भी इच्छा न करणी– कुछ भी इच्छा नीं करणा। ना प्रेम की र, ना भक्ति की, ना मुक्ति की, ना और कोई, संसार की, ए रे(इस के) बादमें कोई नहीं– इच्छा कोई करणी ईं(ही) नीं(नहीं)। 
बिचौलिया – इच्छा नहीं करणी पर काम, कोई काम करणा हो तो?
श्रीस्वामीजी महाराज – काम करो।
बिचौलिया – काम भले ही करो।
श्रीस्वामीजी महाराज – काम करो, उत्साह से, आठ पोहर (पहर) करो। (2 मिनिट•) इण बातने समझो मुको (इस बात को समझो‐ मैं कहूँ)। ठीक समझो (इसको)– कोई इच्छा नहीं। अङचन आवे जो बताओ! बाधा आवे जो बताओ! (जो बाधा आती हो, वो बताओ)। 
बिचौलिया – आप (प्रश्नकर्त्ता) कह रहे हैं (कि) काम तो करो और कुछ इच्छा मत रखो। तो इच्छा का मतलब उसका फल नहीं चाहना? 
श्री स्वामी जी महाराज– [अस्वीकार करते हुए॰(इयूँ ना – ऐसे  नहीं)] दूसरोंका दुख दूर करणो– दूसरों का दुःख दूर करणा, आई जैसी सेवा करणी (जैसी आपके सामने सेवा आई हो,  जैसी आपको करनी आई, वो सेवा करना)। (और) चाहना कोई नहीं करणी। 
प्रश्न – और (3 मिनिट•)  चाहना से मतलब क्या? उसके, उस कर्म का फल नहीं चाहना? सेवा का फल नहीं चाहना- यही चाहना छोड़ना है क्या? चाहना नहीं रखने का क्या तात्पर्य है? 
श्रीस्वामीजी महाराज– चाहना, कोई चाहना नहीं॰ (हो)– इयूँ मिले, मिल ज्याय, मुक्ति हो ज्याय,  कल्याण हो ज्याय, उद्धार हो ज्याय क, नहीं हो ज्याय– कुछ नहीं।  
बिचौलिया – सेवा, सेवा करते रहें और चाहना नहीं रखे, कि हम को बदले में कुछ मिले। 
श्रीस्वामीजी महाराज – सेवा कर दो, वो नीं करे (सेवा न करो) तो चुप रह ज्याओ। ऐकान्त में रहो, चुप रहो। बोलो। 
बिचौलिया – कोई कहीं नौकरी करता है, तो वो नौकरी करे।
श्रीस्वामीजी महाराज – हाँ। 
बिचौलिया – और फल की चाहना नहीं करे।
श्रीस्वामीजी महाराज – हाँ, चाहना नहीं करे।
   [श्री स्वामीजी महाराज के स्वर से ऐसा लगता है कि नौकरी, तनखाह आदि दूसरी बातोंके विस्तार में उनकी रुचि नहीं है ]।  
बिचौलिया – और तनखा भले ही लेवो। [जवाब में श्री स्वामी जी महाराज कुछ नहीं बोले]  (4 मिनिट•) वो तनखा तो भले ही लेवोऽऽ। 
श्रीस्वामीजी महाराज – लेवो भले ही। इच्छा नहीं राखणी। —
बिचौलिया – इच्छा नहीं रखनी। 
प्रश्न – कह, इसका तात्पर्य– सब प्रकार से, भीतर से खाली होना ही है?। 
श्रीस्वामीजी महाराज–  हाँ, जहाँ है... देखो! सार बात– जहाँ आप है, वहाँ परमात्मा है। आप मानो क नीं? (मानते हो कि नहीं? ); क्योंकि कुछ नहीं करोगे, कोई इच्छा नहीं, तो परमात्मा में ही स्थिति हो गई या (यह)। और कहाँ (होगी?॰)। आप जहाँ है, वहीं चुप हो ज्याओ। कुछ नहीं चाहो॰ ...  (5 मिनिट•) परमात्मा में स्थिति हो गयी। (हम हैं) तो वहाँ परमात्मा पूर्ण है। जहाँ आप है, वहाँ पूर्णपरमात्मा पूर्ण है। कोई इच्छा नहीं। हर(और) बाधा नहीं है। एक इच्छामात्र छोङदो। ना भुक्ति (भोग) की इच्छा रखो, (ना) मुक्ति की क, दर्शनों की क,  परिवार की क, कल्याण की क –कुछ भी॰ (इच्छा मत रखो)। कोई इच्छा नहीं रखोगे अर॰ [चुप हो जाओगे तो] वहाँ स्थिति परमात्मा में ही होगी; क्योंकि परमात्मा में इच्छा है नहीं। सब परमात्मा ही है (6 मि•), इ‌च्छा किसकी करे? अर (और) परमात्मा हमारे (हैं), ओर (दूसरे) किसकी इच्छा करें? समझ में आई कि नीं आई– पतो (पता) नहीं। 
समझ में नीं आई तो बोलदो। क्या, क्या समझ में नईं(नहीं) आयी। 
   [ श्रोताओंकी तरफसे जवाब न आनेपर उनसे बिचौलिया बोला कि बात समझ में आ गई क्या? इनको बातें करते देखकर और जवाब न पाकर श्री स्वामी जी महाराज [जो भी सुन सकते हों, उनके लिये] बोले–] 
  ... काच सूँ, अठे सुणीजे क नीं सुणीजे, काच सूँ?(यहाँ सुनायी पङता है कि नहीं सुनायी पङता, काँच के कारण?) [अन्दर आकर सुना सकते हैं] अठे खाली है ही। 
    [जहाँ तख्त के ऊपर श्रीस्वामीजी महाराज विराजमान हैं, उसके चारोंओर (कमरेकी तरह) पारदर्शी शीशे(काँच) लगे हुए हैं जो ठण्डीके दिनोंमें, ठण्डसे रक्षाके लिये लगाये थे। वे अभी भी मौजूद हैं। ऐसा लगता है कि बीचमें काँच होनेके कारण श्री स्वामी जी महाराज ने कहा कि प्रश्नकर्ताकी बात यहाँ सुनायी पङती है कि नहीं? अगर नहीं सुनाई पङती है तो यहाँ आकर सुना सकते हैं। यहाँपर जगह खाली है ही। बिचौलिये ने भी समर्थन किया कि कुछ कहना हो तो [कह सकते हैं]। जवाब में कोई बोला नहीं। थोङी देर बाद में श्री स्वामी जी महाराज उसी विषय को वापस कहने लग गये–] 
आप बताओ स्थिति कहाँ होगी आपकी? (7 मिनिट•)  परमात्मा में ही है “स्थिति”। संसार की इच्छा है, इस वास्ते संसार में है (स्थिति)। कोई तरह की इच्छा नहीं है (तो) परमात्मा में स्थिति (है)। मनन करो, फिर शंका ह्वे तो बताओ– पाछे(वापस) बोलो। 
बिचौलिया – [ये कहते हैं] कि इसका तात्पर्य मैं यह समझा हूँ कि होनेपन में स्थित रहे और कोई काम सामने आवे तो कर दे। 
स्वामीजी महाराज – [काम नहीं–सेवा। (8 मिनिट•) 
बिचौलिया – सेवा आवे तो कर दे और उदासीनता से रहे, हँऽऽ? (यही बात है न?)। 
   [ श्रीस्वामीजी महाराज जी ने इस बालवचन को टाल दिया और वापस उसी विषय को कहने लगे- ] 
श्रीस्वामीजी महाराज – आप की स्थिति परमात्मा में ही है। है ही परमात्मा में। इच्छा छोड़ दो, स्थिति हो ज्यायेगी। इच्छा से ही संसार में है (स्थिति), इच्छा छोड़ दी, परमात्मा॰ (में स्थिति हो गई)– सब की। मूर्ख से मूर्ख र अणजान से अनजान, जानकार से ( ... जानकार)– सबकी। ठीक है? (9 मिनिट•) [... हाँ]। सुणाओ (भजन आदि)। कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं– भुक्ति की, मुक्ति की। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)।  
   [ इसके बाद श्रीबजरँगलालजी ने भजन गाया – 'हरिका नाम जपाने वाले तुमको लाखों प्रणाम'।।०।।  यह भजन उन्होंने नया बनाया था और श्रीस्वामीजी महाराज के सामने पहली बार ही सुनाया था। यह 'पहली बार सुनाना' 'अन्तिम बार सुनाना' भी हो गया। ]  
   ('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के अन्तिम प्रवचन करने के बाद में उनको सुनाया गया भजन— ) 
हरि का नाम जपानेवाले, हरि का नाम जपानेवाले, गीता पाठ पढ़ानेवाले, गीता रहस्य बतानेवाले, जग की चाह छुटानेवाले, प्रभु से सम्बन्ध जुड़ानेवाले, प्रभुकी याद दिलानेवाले, 
तुमको लाऽऽखों परनाम– तुमको लाखों प्रणाम॥टेक॥ 
जग में महापुरुष नहिं होते, सिसक सिसक कर सब ही रोते, आँसू पौंछनेवाले, सबका आँसू पौंछनेवाले, सबकी पीड़ा हरनेवाले, सबकी जलन मिटानेवाले, सबको गले लगानेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥१॥ 
जनम मरण के दुख से सारे, भटक रहे हैं लोग बिचारे, पथ दरशानेवाले, प्रभु का पथ दरशानेवाले, प्रभु का मार्ग दिखानेवाले, सत का संग करानेवाले, हरि के सनमुख करनेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥२॥ 
ऊँच नीच जो भी नर नारी, अमरलोक के सब अधिकारी, संशय हरनेवाले, सबका संशय हरनेवाले, सबका भरम मिटानेवाले, सबकी चिन्ता हरनेवाले, सबको आशिष देनेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥३॥ 
हम तो मूरख नहीं समझते, संतन का आदर नहिं करते, नित समझानेवाले, हमको नित समझानेवाले, हमसे नहिं उकतानेवाले, हमपर क्रोध न करनेवाले, हमपर किरपा करनेवाले, सब पर किरपा करनेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥४॥ 
अब तो भवसागर से तारो, शरण पड़े हम बेगि उबारो, पार लगानेवाले, हमको पार लगानेवाले, हमको पवित्र करनेवाले, हमपर करुणा करनेवाले, हमको अपना कहनेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥५॥ 
तुमको लाखों प्रणाम ॰ 
   [भजन समाप्त हो जाने पर श्रीस्वामीजी महाराज (बिना कुछ कहे ही) अपने निवास स्थान की ओर चल दिये। ऐसा लग रहा था कि अपनी महिमा वाला यह भजन सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज राजी नहीं हुए।  
रामायण में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महाराज सन्तों के लक्षणों में भी ऐसी बात बताते हैं -
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।।
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती। 
              (रामचरितमा.३|४६|१,२;)। ] 
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  श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के द्वारा दिया गया, यहाँ पहला अन्तिम प्रवचन, दिनांक,२९ जून, सन २००५ को, सायं, लगभग ४ बजे का है और दूसरा आखिरी प्रवचन दिनांक ३० जून, सन २००५, सुबह ११ बजे का है। 
  मूल प्रवचनों में किसी ने काँट छाँट करदी है, कई अंश नष्ट कर दिये हैं और मूल प्रवचन का मिलना भी कठिन हो गया है। महापुरुषों की वाणी के किसी भी अंश को काटना नहीं चाहिये। यह अपराध है।  
 इन दोनों प्रवचनों की रिकोर्डिंग को सुन- सुनकर, उन के अनुसार ही, यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है। कुछ कटे हुए अंश दूसरे खण्डित प्रवचन में मिल गये। वहाँ से लेकर यहाँ दे दिये गये। जिज्ञासुओं के लिये यह बङे काम की वस्तु है। साधक को चाहिये कि इन दोनों सत्संग- प्रवचनों को पढ़कर और सुनकर  मनन करें तथा लाभ उठावें। 
  इसमें लेखन आदि की जो गलतियाँ रह गयी हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं और जो अच्छाइयाँ हैं, वो उन महापुरुषों की हैं। सज्जन लोग गलतियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाइयों की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।
                 निवेदक- डुँगरदास राम  
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   (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजकी गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित ‘एक सन्तकी वसीयत’ नामक पुस्तक, पृष्ठ १४ व १५ में इन दोनों प्रवचनों के भाव संक्षेप में लिखेे हुए हैं, पूरे नहीं। वो वहीं देखें)।  
                      ■●■
अंतिम प्रवचन (१,२; कुछ खण्डित )- goo.gl/ufSn5W 
अन्तिम प्रवचन– १ (२९ जून २००५) का पता (ठिकाना)– डाउनलोड करनेके लिये (लिंक–)  goo.gl/gTyBxF (खण्डित)।  अथवा सुननेके लिये– goo.gl/yR5SLd
अन्तिम प्रवचन– २ (३० जून २००५) का पता– (?) डाउनलोड करनेके लिये (लिंक–) goo.gl/QS68Wj अथवा सुननेके लिये– goo.gl/wt7YNR  
पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज का साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/ 

http://dungrdasram.blogspot.com/2014/07/blog-post_27.html?m=1