क्या गुरुका नाम लेना वर्जित है?कह लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
क्या गुरुका नाम लेना वर्जित है?कह लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

क्या गुरुका नाम लेना वर्जित है?

                          ।।श्रीहरि:।।

क्या गुरुका नाम लेना वर्जित है?

प्रश्न-

आप श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके नामका उच्चारण क्यों करते हो? (गुरुका नाम लेना तो वर्जित है)
और महाराजजीके नामके पहले 'परम' शब्द भी क्यों जोड़ते हो ?

उत्तर-

भाव भक्ति और अपने सन्तोषके लिये।

भक्त और भगवानका नाम लेनेसे वाणी पवित्र हो  जाती है।आनन्द मंगल हो जाते हैं।

इसलिये महापुरुषोंका नाम तो लेना चाहिये।

हाँ,नामका दुरुपयो न करें।

अधिक जाननेके लिये यह लेख पढें- 

( महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें -  http://dungrdasram.blogspot.com/2014/01/blog-post_17.html )

परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज कई बार बताते थे कि-

आत्मनाम गुरोर्नाम
नामातिकृपणस्य च।
श्रेयष्कामो न गृह्णीयात्
ज्येष्ठापत्यकलत्रयौ:।।

अर्थात् अपनी भलाई (कल्याण) चाहनेवालेको अपना और गुरुके नामका उच्चारण नहीं करना चहिये तथा अत्यन्त कृपण (कञ्जूस)का,बड़े पुत्रका और पत्निका नाम भी नहीं लेना चाहिये।

यह बात सही है।

एक बार परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने यह बात सत्संग-प्रवचनमें लोगोंसे कही।

सत्संगके बादमें मैंने पूछा कि अगर कोई गुरुजीका नाम पूछे और बताना आवश्यक हो तो कैसे बतावें?

तब श्रीमहाराजजीने बताया कि गुरुजीके नामके पहले आदरसूचक विशेषण (जैसे 1008,आदरणीय,प्रात:स्मरणीय, पूज्य आदि या और कोई) जोड़कर नाम लेलें-नाम बतादें।

(इस प्रकार गुरुजीका नाम भी लिया जा सकता है) ।

महाराजजी किसीके गुरु नहीं बनते थे।कोई आपको मनसे गुरु मानलें, तो आपकी मनाही भी नहीं थी,परन्तु आप गुरु-शिष्यका सम्बन्ध नहीं जोड़ते थे और न ही इसका समर्थन करते थे।

आजके जमानेमें तो वो इसका कड़ा विरोध करते थे,निषेध करते थे।

गुरु बनाकर कोई गुरुकी बात नहीं मानें तो वो नरकोंमें जाता है।

महाराजजीने बताया कि उसको नरकोंमें जानेसे भगवान भी नहीं रोक सकते।

जिन संत महापुरुषोंपर श्रध्दा है,उनको गुरु बनाये बिना ही कोई उनकी बात मानता है तो कल्याण हो जाता है और नहीं मान सके तो लाभसे वंचित रहता है,(परन्तु नरकोंमें नहीं जाना पड़ता)।

कई जने आपको मनसे गुरु मानते हैं। वैसे भी संत-महात्मा तो स्वत: ही गुरु हैं।

महाराजजी अपने नामके साथमें आदर सूचक ज्यादा विशेषण लगाकर लिखवानेमें संकोच करते थे।

एक बार परम श्रध्देय स्वामीजी श्री…लिखा जाता हुआ देखकर 'परम' शब्द हटवाकर संशोधन करवाया।

फिर आपसे पूछा गया कि कुछ जोड़े बिना तो कैसे लिखा जाय? (पता नहीं लोगोंके भी यह बात जँचेगी या नहीं) तब श्रीमहाराजजीने बताया कि श्रध्देय… लगाकर लिखदो।

महाराजजीकी पुस्तकों पर तो 'स्वामी रामसुखदास' ही लिखवाया हुआ है।यह तो महापुरुषोंकी महान कृपा है जो इतनी(श्रध्देय जोड़नेकी) छूट देदी।

श्रीमहाराजजीके नामके साथ 'परम' शब्द पहलेसे ही जुड़ता आया है और इस घटनाके बादमें भी जुड़ता रहा है।कभी किसीको मना किया हो , ऐसा देखने-सुननेमें नहीं आया।

जैसे आपकी फोटो लेने,चरण छूने आदिके लिये सख्त मनाही थी,ऐसी 'परम' शब्दके लिये मनाही नहीं थी।

इस प्रकार सत्संगी,सज्जन लोग आपके नामके पहले 'परम' शब्द लगाते आये हैं और लगाते जा रहे हैं। 'भगवानका प्रचार करना' खुद भगवानका काम नहीं,भक्तोंका काम है।

ऐसे महारुरुषोंके नामके साथ परम, श्रध्देय…आदि जितने भी विशेषण जोड़े जायँ, कम है, अति अल्प है।फिर भी भावुकजन विशेषण आदिके द्वारा प्रयास करते हैं।

जैसे-

छं० निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।

दो०
रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ।।९२ क ।।

सो०
भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।।९२ ख ।।

(रामचरितमानस ७/९२) ।

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------

पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/