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गुरुवार, 27 अगस्त 2015

जन्मदिनपर उत्सव मनाना उचित है या अनुचित?

                        ।।श्रीहरि:।।

जन्मदिनपर उत्सव मनाना उचित है या अनुचित?

किसीने पूछा है कि जन्मदिन मनाना गलत है क्या?

उत्तरमें निवेदन है कि नहीं।
यह अपनी-अपनी मर्जी है।

जन्मदिन मनाना उचित है या अनुचित-इसपर थोड़ासा विचार करलें।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी  महाराज इधर ख्याल करवाते हुए कहते हैं कि लोग जन्मदिनपर खुशी मनाते हैं (कि इतने वर्ष आ गये,इतने वर्ष जी गये) अरे खुशी काहेकी? इतने वर्ष आ गये नहीं,चले गये,इतने वर्ष जी गये नहीं,इतने वर्ष मर गये।

यह खुशीका दिन नहीं है,यह तो रोनेका दिन है।

(हम इतने वर्ष मर गये और अभी तक असली काम(भगवत्प्राप्ति) बना नहीं,यह जानकर रोना आना चाहिये)।

इस प्रकार हमको हौस आना चाहिये।

हमको चेतानेके लिये ऐसा कहते हैं,जन्मदिन मनानेकी मनाहीका उध्देश्य नहीं है।

अगर कोई केवल  जन्मदिन मनाना छोड़दे और चेत नहीं करे तो कोई बड़ी बात थोड़े ही है!इसी प्रकार  कोई जन्मदिन मनाता है और चेत कर लेता है तो कोई मामूली(छोटी) बात थोड़े ही है।

इसलिये जरूरी बात तो है चेत करना,न कि जन्मदिन मनाना-न मनाना।

जन्मदिन मनाना या न मनाना कोई खास बात नहीं है।खास बात है हौस(चेत) होना।

वास्तवमें तो जन्मदिन मनाना चाहिये भगवानका।

जिस दिन भगवानका जन्म(अवतार) होता है,उस दिन आनन्द मंगल हो जाते हैं।लोग उस दिन उत्सव मनाते हैं।

मनुष्यके जन्मदिनका कोई महत्त्व नहीं है अगर वो भगवद्भक्ति करके  मरणदिनसे मुक्त नहीं हो गया हो तो।

जो भगवद्भक्ति करके भगवानको प्राप्त कर लेते हैं, जन्म-मरणसे छूट जाते हैं,वे महात्मा हो जाते हैं।उनके

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया कि महात्मा जिसदिन शरीर छोड़ते हैं तो उनका निर्वाणदिवस(शरीरका मरणदिन)  मनाया जाता है कि आजके दिन वो भगवानसे मिले (आजके दिन परमात्माको प्राप्त हुए)।

शरीर छोड़नेपर महात्मा विभु हो जाते हैं अर्थात् सर्वव्यापक हो जाते हैं।जैसे भगवान सर्वव्यापक हैं,ऐसे ही महात्मा भी सर्वव्यापक हो जाते हैं।सर्वव्यापी(विभु) भगवानमें मिलकर महात्माभी सर्वव्यापी हो जाते हैं।

महात्माओंकी समाधीपर भगवानके चरणचिह्न और शंख,चक्र आदिके निशान होते हैं।जिसका अर्थ है कि वो (शंख चक्र गदा और पद्म धारण करनेवाले) भगवानके चरणोंमें मिल गये।

(संत-महात्माओंका भगवानसे अलग अपना अस्तित्व (स्थान,चरणचिह्न आदि) नहीं होता)।

महात्मा जिस दिन शरीर छोड़कर भगवानसे मिले,वो दिन आनन्दका दिन हो जाता है।उस दिन लोग उत्सव मनाते हैं।

जो महात्मा उत्सव मनवाना आदि चाहते नहीं हों तो उनके निर्वाण-दिवसपर उत्सव आदि नहीं करने चाहिये।

(श्री स्वामीजी महाराजके लिये भी ऐसी ही बात समझनी चाहिये)।

एक बारकी बात है कि श्री स्वामीजी महाराज गीताभवन (ऋषिकेश) में विराजमान थे। उस समय एक सज्जन कोई विशेष-सामग्री लाये।

उनसे पूछा गया कि यह सामग्री क्यों लाये हो?तब वो सज्जन संकोचपूर्वक धीरेसे बोले कि आज महाराजजीका जन्मदिन है,इसलिये लाये हैं।

यह देखकर श्री महाराजजीने पूछ लिया कि क्या बात है? तब बात बतादी गयी कि आज आपका जन्मदिन है। यह सामग्री आपके जन्मदिनपर लाये हैं।

सुनकर श्री महाराजजी झुँझलाते हुएसे और अरुचि जताते हुए बोले कि क्यों करते हैं ऐसा?(यह नयी रीति क्यों शुरु करते हैं!)।

ज्यादा जोरसे तो श्री महाराजजी इसलिये नहीं बोले कि कहीं वो अपना अपमान समझकर दुखी न हो जायँ(वो सज्जन प्रतिष्ठित और श्रध्दावाले थे)।

वो सज्जन समझगये कि श्री स्वामीजी महाराजको जन्मदिनपर ऐसा कुछ विशेष करके महत्त्व देना पसन्द नहीं है।

वो सज्जन कुछ भी नहीं बोल पाये और चुपचाप चले गये।

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज जन्म-दिवसपर तो उत्सवको महत्त्व देते ही नहीं थे,निर्वाण-दिवसपर भी उत्सवको महत्त्व नहीं देते थे।

अगर महत्त्व देते तो सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दकाके निर्वाण-दिवसपर उत्सव क्यों नहीं मनवाते?।

इस प्रकार इन बातोंसे हमलोगोंको भी शिक्षा लेनी चाहिये और हौसमें आना चाहिये।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/