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बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

१-४ महापुरुषों के सत्संग बातें- (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई सत्संग की कुछ बातें-)।

।।श्रीहरिः।।


 महापुरुषों के सत्संग की बातें 


(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के सत्संग की अपने जीवन में धारण करने योग्य कुछ बातें )।


संग्रहकर्ता और लेखक - 

संत डुँगरदास राम 


 "नम्र-निवेदन" 


"श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज" कहते हैं कि संत - महात्माओं को याद करने से हृदय शुद्ध, निर्मल हो जाता है। 

यथा- 


जो संत ईश्वर भक्त जीवनमुक्त पहले हो गये।

उनकी कथायें गा सदा मन शुद्ध करनेके लिये।।


इस प्रकार और भी अनेक लाभ हैं। इतने लाभ हैं कि कोई कह नहीं सकता। इसलिये संत- महात्माओं की कुछ बातें यहाँ लिखी जा रही है। संत-महात्माओं के विषय में बातें यथार्थ (सही-सही) होनी चाहिये। अपने मन से ही गढ़कर या तथ्यहीन बातें नहीं कहनी चाहिये।


(आज कल 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के विषयमें भी कई लोग 'बनावटी-बातें', मनगढ़न्त बातें करने लग गये हैं। जो बातें हुई ही नहीं, जो बातें कल्पित हैं, झूठी है, जिसका कोई प्रमाण ही नहीं है - ऐसी सुनी-सुनायी बातें भी लोग बिना विचार किये कहने लग गये, बिना सबूत की बातें करने लग गये हैं। जो कि सर्वथा अनुचित है।


ऐसी बातें न तो महापुरुषोंको पसन्द है और न ही कोई सच्चे आदमी को पसंद है। महापुरुष तो सत्य, यथार्थ और प्रमाणित बातें करते हैं और कहते हैं तथा लाभ भी सच्ची बातों से ही होता है। इसलिये उन्ही महापुरुषोंके श्रीमुखसे सुनी हुई कुछ सही-सही बातोंके भाव यहाँ लिखे जा रहे हैं-)


इसमें लेखन आदि की जो गलतियाँ रह गयी हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं और जो अच्छाइयाँ हैं, वो उन महापुरुषों की हैं। सज्जन लोग गलतियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाइयों की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।


विनीत- डुँगरदास राम ।

दीपावली, संवत २०७४ 


(१)-संत श्री जियारामजी महाराज –


हमारे देश(राजस्थान) में जीयारामजी महाराज एक बड़े भजनानन्दी संत हो गये हैं। करणूँ (नागौर) में आपकी बहन रहती थीं। बहनके स्नेहके कारण आप करणूँ जाया आया करते और भजन करते थे।


जंगलमें, बाहर अरणों(अरणीके वृक्षों)में चले जाते और कई दिनोंतक बिना भोजन किये ही आप भजन करते रहते। वहाँ दूसरे लोग भी आ जाते थे। कभी उनको लगता कि मेरे कारण यहाँ किसीको तकलीफ होती है, तो वो (उस जगह को छोड़कर) कहीं दूसरी जगह जाकर भजन करने लगते थे।


आपके सिर पर एक खड्डा (चोटका निशान) था। उसका कारण पूछने पर आपने बताया कि (यह युद्ध में लगी हुई चोटका निशान है-) त्रेतायुगमें जब श्रीरामचन्द्रजी और रावणका युद्ध हुआ था, उस समय मैं भी उनके साथमें था। कोई प्रसिद्ध वानर नहीं, एक साधारण वानर था। (राक्षसों से युद्ध करते समय) राक्षसोंने यह चोट लगा दी थी (जो इस जन्ममें भी उसकी पहचान बनी हुई है)।


(संत श्री दादूजी महाराजने भी ऐसी बात कही है कि-)


दादू तो आदू भया आज कालका नाहिं।

रामचन्द्र लंका चढ्या दादू था दल माहिं।।


संत श्री जियारामजी महाराजकी कथन की हुई वाणी भी मिलती है।


(२)-माताजीकी संतोंमें श्रद्धा भक्ति –


श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी माताजी पर आप (जियारामजी महाराज) की बहुत दया थी; क्योंकि बचपनमें ही उनकी माँका शरीर शान्त हो गया था। जब वो बड़ी हो गयी, विवाह हो गया और ससुराल (माडपुरा, जिला - नागौर) गयी तो घूँघट में भी राम राम राम राम राम राम राम करती रहती थी।


लोगोंको यह राम राम करना एक आश्चर्य सहित नयी और अच्छी बात लगती थी कि यह बहू तो जोरदार आयी, जो ससुरालमें भी राम राम करती है, भजन करती है।


आपको संतोंकी वाणी बहुत आती थी, बहुत संतोंकी वाणी याद थी। अच्छे-अच्छे जानकार संत-महात्माओंको भी संकोच और भय था कि माँजी कुछ पूछ लेंगे और जवाब नहीं आया तो? (क्या होगा?)

आप संतोंमें श्रद्धाभाव रखती थी, सेवा करती थी। घरमें संतोंके लिये शुद्ध, अपरस जल अलगसे रखती थी। पवित्र बर्तनमें जल {शुद्ध कपड़ेसे छान कर} भरती थी और उस बर्तनके मुँह पर कपड़ा बाँध कर, ऊपर गोबर मिट्टीसे लीप कर, अबोट रखती थी। उसमेंसे जल दूसरे कामके लिये नहीं निकालती थी और न दूसरोंको ही ऐसा करने देती थी।


जब कोई संत-महात्मा पधारते तो उनसे कहती कि महाराज! उस बर्तनमें जल आपलोगों (संत-महात्माओं) के लिये ही है, हमलोगोंने नहीं छुआ है। संत-महात्मा पधारते तब आप (और सखियाँ) भजन गाया करतीं थी। आप भगवद्भजन, भक्तिसे ही मानव जीवनकी सफलता मानतीं थीं। इस प्रकार आप पर महापुरुषों और भगवानकी बड़ी कृपा थी।


एक बार आपके बालकका शरीर शान्त हो गया था (आपके बालक होते थे पर ज्यादा जीते नहीं थे, शान्त हो जाते थे)।


उन दिनों पूज्य श्री जियारामजी महाराज पधार गये। उस समय आपको कहा गया कि भजन गाओ, हरियश गाओ, तो आपने गाया नहीं। तब किसीने पूज्य श्री महाराजजीसे कह दिया कि ये भजन नहीं गा रही है, तब कोई दूसरी सखी बोली कि ये कैसे गावे, इनका तो लड़का चला हुआ है (लड़का शान्त हो गया है)। तब श्री जियारामजी महाराजने कहा कि रामजी और देंगे अर्थात् भगवान् बालक फिरसे (दूसरा) और देंगे आप तो भजन गाओ। तब श्री महाराजजीके कहने से आपने भजन गाया।


भगवत्कृपा से जब आपके बालक हुआ तो लाकर श्री महाराजजीके अर्पण कर दिया। तब श्री जियारामजी महाराज बोले कि इस बालकको तो आप रखो और अबकी बार बालक हो तब दे देना। तब उस('आनन्द' नामक) बालकको माताजीने अपने पास रखा।


इसके बाद विक्रम संवत १९५८ में जियारामजी महाराजका शरीर शान्त हो गया। (भेळू, जिला - बीकानेर में आपका समाधिस्थल है)।


दो वर्षोंके बाद (विक्रम संवत १९६० में) भगवानकी कृपा से माताजीके दूसरा बालक हुआ, जिनका जन्मका नाम था सुखदेव। इन्हीका नाम आगे चल कर हुआ 'स्वामी रामसुखदास'।


ये वही महापुरुष हैं, जिनको लोग कहते हैं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'। जिन्होनें गीताजी पर 'साधक-संजीवनी' नामक अद्वितीय टीका लिखीं और गीता-दर्पण, गीता-माधुर्य, गीता-ज्ञान-प्रवेशिका, गीता-प्रबोधनी, साधन-सुधा-सिन्धु, गृहस्थमें कैसे रहें?, मानसमें नाम-वन्दना आदि आदि अनेक ग्रंथोंकी रचना की तथा अपनी सरल भाषामें प्रवचन करते हुए भगवत्प्राप्तिके सरल, श्रेष्ठ और तत्काल भगवत्प्राप्ति करानेवाले अनेक साधन बताये। नये-नये साधनोंका आविष्कार किया। पुराने साधनों को भी सरल रीतिसे समझाया।


यहाँ 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' की अठहत्तर (७८) पुस्तकों (प्रकाशक – गीताप्रेस, गोरखपुर) की सूची दी जा रही है।


(जैसे-)


१. गीता – साधक - संजीवनी

२. गीता - प्रबोधनी

३. गीता - दर्पण

४. गीता - ज्ञान प्रवेशिका

५. गीता - माधुर्य

६. साधन - सुधा - सिन्धु

७. जीवनका कर्तव्य

८. भगवत्तत्व

९. एकै साधै सब सधै

१०. जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग

११. सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन

१२. जीवन का सत्य

१३. कल्याणकारी प्रवचन

१४. तात्त्विक प्रवचन

१५. भगवान से अपनापन

१६. कल्याणकारी प्रवचन (भाग 2)

१७. शरणागति

१८. भगवन्नाम

१९. जीवनोपयोगी प्रवचन

२०. सुन्दर समाज का निर्माण

२१. मानसमें नाम-वन्दना

२२. सत्संगकी विलक्षणता

२३. साधकों के प्रति

२४. भगवत्प्राप्ति सहज है

२५. अच्छे बनो

२६. भगवत्प्राप्तिकी सुगमता

२७. वास्तविक सुख

२८. स्वाधिन कैसे बनें?

२९. कर्म रहस्य

३०. गृहस्थमें कैसे रहें?

३१. सत्संगका प्रसाद

३२. महापापसे बचो

३३. सच्चा गुरु कौन?

३४. आवश्यक शिक्षा(सन्तानका कर्तव्य एवं आहार-शुद्धि)

३५. मूर्तिपूजा एवं नाम-जपकी महिमा

३६. दुर्गतिसे बचो

३७. सच्चा आश्रय

३८. सहज साधना

३९. नित्ययोगकी प्राप्ति

४०. हम ईश्वर को क्यों मानें?

४१. नित्य-स्तुति और प्रार्थना

४२. वासुदेव: सर्वम्

४३. साधन और साध्य

४४. कल्याण पथ

४५. मातृशक्तिका घोर अपमान

४६. जिन खोजा तिन पाइया

४७. किसान और गाय

४८. तत्त्वज्ञान कैसे हो?

४९. भगवान् और उनकी भक्ति

५०. जित देखूँ तित तू

५१. देशकी वर्तमान दशा और उसका परिणाम

५२. सब जग ईश्वररुप है

५३. आवश्यक चेतावनी

५४. मनुष्यका कर्तव्य

५५. अमरताकी ओर

५६. सार-संग्रह एवं सत्संगके अमृत-कण

५७. अमृत बिन्दु

५८. सत्संग-मुक्ताहार

५९. सत्य की खोज

६०. क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?

६१. आदर्श कहानियाँ

६२. प्रेरक कहानियाँ

६३. प्रश्नोत्तरमणिमाला

६४. शिखा (चोटी)- धारण की आवश्यकता

६५. मेरे तो गिरधर गोपाल

६६. कल्याणके तीन सुगम मार्ग

६७. सत्यकी स्वीकृति से कल्याण

६८. तू- ही- तू

६९. एक नयी बात

७०. संसार का असर कैसे छूटे?

७१. मानवमात्रके कल्याणके लिए

७२. परमपिता से प्रार्थना

७३. साधनके दो प्रधान सूत्र

७४. ज्ञानके दीप जले

७५. सत्संगके फूल

७६. सागर के मोती

७७. सन्त-समागम

७८. एक सन्तकी वसीयत  (आदि आदि)


(इस प्रकार आपने सारे जगतका हित किया। दुनियाँ सदा-सदाके लिये आपकी ऋणी रहेंगी)।


('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' की) 


(३)-बालक अवस्था की बातें–


बचपनमें ही आपकी विलक्षणता दिखायी देती थी-

आपने बताया कि मैं जब बैठता था तो जलछानना (जल छाननेका पवित्र कपड़ा) खींचकर, बिछाकर बैठता था। लोग कहते कि [पिछले जन्मके] कोई महात्मा आये हैं अर्थात् पिछले जन्ममें ये कोई संत-महात्मा थे (सो पुन: आ गये)। 


लोग कहते कि सुखु! तू क्यों आया है?

तो मैं उत्तर देता कि भजन करानेके लिये आया हूँ। मेरेको यह भी पता नहीं था कि भजन करना अलग होता है और भजन करवाना अलग होता है।


(आज कल लोग कहते हैं कि ये अमुकके अवतार थे, ये अमुक महात्मा थे आदि आदि; लेकिन आपने इन बातोंको स्वीकार नहीं किया है, ये लोगोंकी कल्पनाएँ हैं)।


माताजीकी जियारामजी महाराजके प्रति बड़ी श्रद्धा भक्ति थी। जिस देश-गाँवमें महाराज विराजते थे, उधरकी जब हवा आती तो झटपट, उसी समय बड़े आदरसे अपना घूँघट उठाकर वो हवा लेने लगती कि बापजी महाराजकी तरफसे हवा आ रही है।


जब वृद्ध हो गयीं और पेटमें जलोदर रोग हो गया, तो जियारामजी महाराजकी समाधि पर जाकर पेट पर वहाँ की रज लगाली कि हे जियारामजी बापजी! मेरी बिमारी ठीक करदो। इससे उनकी बिमारी मिट गयी, जलोदर रोग ठीक हो गया।


जब मुझे संतोको दे दिया था और मैं वहाँ रहता था, तब माताजी आते और बैठ कर आदर से मेरेको नमस्कार करते कि राम राम संताँ! । मैं मटूलेकी तरह बैठा रहता।

जब माताजीने सुना कि मैं पढ़ाई कर रहा हूँ, तो वो बोले कि पढ़ाई करके कौनसी हुण्डी कमानी है, मैंने तो भजन करनेके लिये साधू बनाया है।


जब मैं बहुत छोटा था, तब माता पिता खेतमें काम करनेके लिये जाते। साथमें जल ले जाते और मेरेको भी(गोदीमें उठाकर) ले जाते। खेत गाँवसे काफी दूर था, तो वो बोले कि तेरेको ले जावें या जलको ले जावें? तो मैंने कहा कि जलको ले जाओ, मैं यहीं (घर पर) रह जाऊँगा। मैंने यह नहीं कहा कि मैं तो साथमें चलूँगा, यहाँ नहीं रहूँगा (भले ही जलको मत ले जाओ, मेरेको ले चलो आदि आदि)। मैं घर पर रह जाता। वो पड़ौसिनको मेरी देख भाल तथा भोजनके लिये कह कर चले जाते। जब मुझे भूख लगती, तब वो रोटी बना कर मुझे भोजन करा देती। 


रातमें अकेलेको जब मुझे डर लगता, तो माँ की औढ़नीमें प्रविष्ट हो जाता, माँ की औढ़नी औढ़ लेता। (माँ की औढ़नी औढ़नेसे मेरा डर मिट जाता)।


जब मैं चार वर्षका था, तभी माताजीने मुझे (मेरेको) संतोंको दे दिया। (अपनी जन्मभूमि, गाँव माडपुरा-जिला नागौर से) जब ऊँट पर बिठाकर संत मुझे ले जाने लगे तो माँ के आँखों में आँसू आ गये और मेरे भी आँखों में आँसू आ गये; पर मैंने यह नहीं कहा कि मैं जाऊँगा नहीं। (माताजी का शुभ नाम था श्री श्री कुनणाँबाईजी।)


संत श्री सदारामजी महाराज और उनकी धर्म पत्नि श्री हरियाँबाईजी, जो दोनों ही साधू बन गये थे {इन्हीको माताजीने अपना दूसरा बालक (- सुखदेव) दिया था}।


[ संत श्रीसदारामजी महाराज का गाँव करणूं (जिला- नागौर) था। इनका विवाह गाँव चाडी (जिला- जोधपुर) में श्रीहरियाँबाईजी के साथ में हुआ था। संत श्रीसदारामजी महाराज की बहन श्री श्रीकुनणाँबाईजी का विवाह गाँव माडपुरा (जिला- नागौर) में श्री श्रीरुघारामजी के साथ में हुआ था। ये (संत श्री सदारामजी महाराज) अपने गाँव करणूं से चाखू (जिला- जोधपुर) आ गये। संत श्रीकन्हीरामजी महाराज भी गाँव चाडी (जिला- जोधपुर) से चाखू आ गये। संत श्रीकन्हीरामजी महाराज ने संत श्रीसदारामजी महाराज से सुखदेव को शिष्यरूप में ले लिया ]।


कोई माताजीसे कुशल पूछते कि माजी! सुखी हो न? तो माताजी कहती कि सुख तो संतोंको दे दिया। वो फिर पूछते कि तब आपके क्या रहा? तो माताजी बोलतीं कि हमारे तो आनन्द है।


सुख तो संतोंको दे दिया अर्थात् 'सुखदेव बेटा' (मैं) तो संतोंको दे दिया गया। अब हमारे तो आनन्द है अर्थात् हमारे पास तो 'आनन्द बेटा' (बड़ा बेटा) रहा है।

श्री कुनणाँबाईजी और श्री हरियाँबाईजी-दोनों सम्बन्धमें नणद भौजाई थीं। नणद-भौजाईके आपसमें बड़ा प्रेम था। (श्री हरियाँबाईजीने बड़े प्यारसे आपका पालन-पोषण किया)।


[इस प्रकार आपके गुरु हुए संत श्री श्री कन्हीरामजी महाराज (दासौड़ी, जिला- बीकानेर)।


श्री श्री कन्हीरामजी महाराज श्री लाखारामजी महाराजके शिष्य हैं, 

लाखारामजी महाराज श्री अनारामजी महाराजके शिष्य हैं और

अनारामजी महाराज श्री रघुनाथदासजी महाराजके शिष्य हैं और

पूज्यपाद श्री १०८ श्री रघुनाथदासजी महाराज सिंहस्थल पीठ, रामस्नेही सम्प्रदायके आचार्य हैं और

रामस्नेही सम्प्रदायकी मूल आचार्या हैं जगज्जननी श्री सीताजी। श्रीसीताजी जगत की माता भी हैं और जगत की गुरु भी हैं। जीवों को यही भगवान् का प्रेम (रामस्नेह) सिखाती हैं और यही सबको प्रेम प्रदान करती हैं ]।


(४)-परमधामकी प्राप्ति -


आपके दीक्षा गुरु 'श्री श्री कन्हीरामजी महाराज'(दासौड़ी, जिला-बीकानेर) विक्रम संमत १९८६ मिगसर बदी तीज, मंगलवार को ब्रह्मलीन हुए।


चाखू (जोधपुर) में उनकी समाधि पर श्री महाराजजीने इस दोहेकी रचना करके शिलालेख लगवाया है, जो आज (विक्रम संमत २०७१ में) भी मौजूद है। उस शिलालेख पर अंकित 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' द्वारा रचित दोहा इस प्रकार है-

संवत नवससि षडवसु बद मिगसर कुज तीज।

कन्हीराम तनु त्यागकर भये आपु निर्बीज।।


'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' विक्रम संवत २०६२, आषाढ़ बदी (कृष्ण पक्षवाली) एकादशी की रात्रि,  द्वादशी रविवार (एकादशीकी रात्रि और द्वादशीकी सुबह) ब्राह्ममूहूर्त में, करीब ३।। (साढे तीन) बजे के बाद में, गंगातट पर ब्रह्मलीन हुए।


अन्तिम समयमें आपके पास संतलोग भगवन्नामका कीर्तन कर रहे थे। अन्तिम समयमें जब आपको गंगाजल दिया गया, तो अन्तिम साँसें रोककर और प्राणान्त - कष्टकी बेपरवाही करके आपने गंगाजलका आदरपूर्वक घूँट लिया तथा पेटमें ले जानेके लिये कण्ठ द्वारा निगला भी।


फिर उन्हीं क्षणोंमें आपने शरीर त्यागकर भगवद्धाम प्राप्त किया। (गीता साधक-संजीवनी ८/ ५, ६ और २५ वें श्लोकोंकी व्याख्या के अनुसार भगवद्धाम को प्राप्त हुए)।

तदनुसार यह दोहा लिखा गया- 


संवत नभ चख षड नयन रवि आषाढ़ बद भाण। 

स्वामि रामसुखदासजी तनु तजि भए निर्वाण।।


आपके विद्यागुरु थे संत श्री श्री दिगम्बरानन्दजी महाराज (निमाज, जिला – पाली)। इन्हीसे आपने संस्कृत आदि विद्याएँ पढ़ीं।


(५)-गुरु-चरणोंका प्रभाव –


आसाबासीके चरन आसाबासी जाय ।

आशाबाशी मिलत है आशाबाशी नाँय ।।

इस दोहेकी रचना करके श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने इस दोहेमें (रहस्ययुक्त) अपने विद्यागुरु श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजका नाम लिखा है और उनका प्रभाव बताया है ।


शब्दार्थ-

आसा (दिग, दिसाएँ)। बासी (वास, वस्त्र, अम्बर)। आसाबासी (बसी हुई आशा)। आशाबाशी (आ-यह, शाबाशी-प्रशंसायुक्त वाह वाही)। आशाबाशी (बाशी आशा अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं रहती, तुरन्त मिटती है, बाकी नहीं रहती)।


१-भावार्थ-

श्री श्री गुरु दिगम्बरानन्दजी महाराजके चरण-शरणके प्रभावसे मनके भीतर बैठी हुई आशा (जिसके कारण परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो पा रही है, वो) निकलकर चली जाती है (और जब मनमें कोई भी आशा, कामना नहीं रहती, तब परमात्माकी प्राप्ति उसी क्षण हो जाती है - गीता २/५५ ; ६/१८)। बासी अर्थात् देर नहीं लगती (देर लगनेसे पड़ी-पड़ी वस्तु बासी हो जाती है, परन्तु गुरु चरणोंके प्रभावसे इस कामके होनेमें देरी नहीं लगती। जो परमात्माकी प्राप्ति कर लेता है, वास्तवमें वही वाह-वाहका पात्र होता है, वही शाबाशीके लायक है)।


उसीको यह शाबाशी मिलती है(कि वाहवा, जिस आशाके कारण अनन्त जीव, अनन्त कालसे, अनन्त योनियोंमें और अनन्त बार जन्मते-मरते रहते हैं - गीता १३/२१, स्वयं आशा मिटा नहीं पाते; वो न तो गुरु-चरण-शरण ग्रहण करते हैं और न आशा मिटा पाते हैं। कोई एक ही ऐसी हिम्मत करते हैं कि इस प्रकार दुर्जय आशाको मिटाकर परमात्मा की प्राप्ति कर लेते हैं और आपने भी वही किया - शाबाश)।


२-भावार्थ-

विद्यागुरु १००८ श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजके चरणोंकी शरण ले-लेनेसे से मनमें बसी हुई आशा चली जाती है और यह शाबाशी मिलती (कि वाह वा आप आशारहित हो गये –

चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह ।

जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह ।।

जो बादशाहोंका भी बादशाह है, वो आप हो गये, शाबाश)।


आशा बाशी नहीं रहती, अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं हो जाती, गुरुचरण कमलोंके प्रभावसे तुरन्त मिटती है, बाकी नहीं रहती, दु:खोंकी कारण इस आशाके मिट जानेसे फिर आनन्द रहता है-


ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह ।

सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ।।


विद्यागुरु श्री दिग्(आशा)+अम्बर(बासी, वास, कपड़ा) +आनन्द-दिगम्बरानन्दजी महाराज। 


(शिष्य श्री) साधू रामसुखदासजी महाराज-


रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत ।

दास होइ जपु रात दिन साधु सभा सौभंत ।।


राम(२) नाम संसारमें सुख(३)दाई कह संत ।

दास(४) होइ जपु रात दिन साधु(१)सभा सौभन्त ।।


खुलासा-

(इस दोहेकी रचना स्वयं श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने की है।


इसमें श्री महाराजजी ने परोक्षमें अपना नाम- (१)साधू (२)राम (३)सुख (४)दास लिखा है - साधू रामसुखदास।


('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का) 


(६)-विद्याध्ययन -


आप('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज') के कहनेके भाव हैं कि-


गीताजीसे परिचय हमारे पहलेसे ही है। विक्रम संमत १९७२ में गुरुजनोंने सबसे पहले गीताजीका श्लोक ही सिखाया। गुरुजनोंने परीक्षाके लिये कि इस बालकको संस्कृत विद्या पढ़ावें, (तो) इसकी बुद्धि कैसीक है, इसलिये पहले गीताजी का यह श्लोक कण्ठस्थ करवाया-


न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक:।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

(गीता १५/६)


उस समय मेरेको यह पता नहीं था कि यह श्लोक किस ग्रंथका और कहाँका है। पीछे पता लगा कि यह गीताजीका श्लोक है।


विक्रम संवत १९८४ में(ध्यान देने पर) मेरेको गीताजी कण्ठस्थ मिली। कण्ठस्थ करनी नहीं पड़ी, कण्ठस्थ मिली, पाठ करते-करते कण्ठस्थ हो गई थी, थोड़ीसी भूलें थीं, उनको ठीक कर लिया गया।


जब मैं पढ़ता था, तभी मैंने गुरुजीसे कह दिया कि महाराज! मेरेको तो गीता पढ़ादो, व्याकरणमें मन नहीं लगता है।


गुरुजी बोले कि अरे यार! अभी (व्याकरण) पढ़ले। तू खुद (गीता) पढ़ लेगा। 


उन्होने कहा कि मैंने बूढ़े-बूढ़े संतोंको देखा है कि वेदान्तके ग्रंथ पढ़ते-पढ़ते जब 'तत्त्वानुसंधान' पढ़ते हैं तो उसमें संस्कृतकी पंक्तियाँ मिलती है। वो समझमें नहीं आती। तब (संस्कृत समझनेके लिये) व्याकरण पढ़ना शुरु करते हैं (और वो वृद्धावस्था में कठिन होता है। तू अभी व्याकरण पढ़ लेगा तो तेरे वो कठिनता नहीं आयेगी) तथा किस विषयमें किस आचार्यने क्या कहा है और किस आचार्यका क्या मत है आदि आदि सन्देह नहीं रहेंगे, स्वयं देख लेगा, पढ़ लेगा, समझ लेगा। जब महाराजने कह दिया, तब पढ़ाई की। (नहीं तो पढ़नेकी इच्छा नहीं थी)।


हमारे (श्री) गुरुजी मेरेको शुकदेव कहते थे। मेरे (श्री) गुरुजीका भाव था कि मैं बहुत बड़ा, श्रेष्ठ बनूँ। बड़े बड़े संत समाजमें कोई बात अटकी हो और उसका निर्णय न हो पा रहा हो, तो वहाँ उस निर्णयको मेरा शुकदेव करे, वहाँ निर्णय करनेवाला मेरा शुकदेव हो अर्थात् उस बातको सुलझानेवाला मैं होऊँ, मैं ऐसा योग्य बनूँ। शुकदेव इस प्रकार संत-मण्डलियोंमें सुशोभित हों।


उन्होनें कहा कि तू चाहे तो तेरेको मण्डलेश्वर (संतोंकी मण्डलियोंका मालिक) बनादूँ। (या तू और कुछ बनना चाहे तो वो बनादूँ)। तू मण्डलेश्वर बनजा। (फिर तू जहाँ जायेगा, वहाँ आगे जाकर) मैं तुम्हारा प्रचार करूँगा (कि ऐसे ऐसे ये बड़े भारी संत आये हैं)। मेरेको प्रचार करना बहुत आता है। मैंने (नम्रतापूर्वक) कहा कि महाराज! मेरा मन नहीं करता। तब वो बोले- अरे यार, तो फिर तू विरक्त बनजा। मैंने कहा- हाँ, यह ठीक है।


लोगोंने मेरेसे कहा कि तुम आयुर्वेद पढ़लो (वैद्य बन जाओ)। आजकल साधूको कोई पूछता नहीं है (बिना कमाईके जीवन निर्वाह कैसे होगा?)।


मैंने (श्री) गुरुजीको यह बात बताई। (श्री) गुरुजी बोले कि तेरा मन क्या करता है?-तेरा मन किसमें करता है? अर्थात् वैद्य बननेके लिये तेरा मन करता है क्या? मैंने कहा कि महाराज! मेरा मन तो नहीं करता। सुबह-सुबह कौन टट्टी पेशाब देखे। तब वो बोले कि अच्छा! तेरी मर्जी अर्थात् तुम्हारी मर्जी हो तो आयुर्वेद पढ़ो और मर्जी नहीं है तो मत पढ़ो। (मेरी मर्जी तो थी नहीं, लोगोंके कहनेसे पूछ लिया था, नहीं तो) अगर गुरुजी कह देते तो आयुर्वेद ही पढ़ता मैं तो। (लेकिन उन्होनें छूट देदी, तब वैद्यगी नहीं पढ़ी)।


[जीवननिर्वाहके लिये भी साधूको नौकरी नहीं करनी चाहिये और न ही कोई धन्धा अपनाना चाहिये, भगवानने सब प्रबन्ध पहलेसे ही कर रखा है-


प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर।

तुलसी चिन्ता क्यों करे भजले श्री रघुबीर।।] ।


एक बार मैंने गीताजीमें एक नया अर्थ निकाला। हमारे साथी कहने लगे कि गीताजीकी किसी टीकाओंमें ऐसा अर्थ किसी टीकाकारने लिखा नहीं है। मैंने कहा कि लिखा तो नहीं है, पर ऐसा अर्थ बनता है कि नहीं? कह, बनता तो है, लेकिन (किसी टीकामें लिखा हुआ होता तब प्रमाणित माना जाता)।


ऐसे करते-करते हमलोग गुरुजीके पास आ गये और यह बात उनसे पूछी कि सही है या नहीं? तब गुरुजीने बताया कि यह अर्थ सही है, ऐसा अर्थ बनता है। तब हमारे साथी बोले कि बनता तो है, पर ऐसा अर्थ कहीं लिखा नहीं है। तब गुरुजी बोले कि अब लिखलो, लिखा हुआ हो जायेगा। (अर्थ तो यह सही है, जो शुकदेवने किया है)।


गुरुजीके पढ़ा देनेके बाद हमलोग बैठकर आपसमें चर्चा करते कि आज क्या पढ़ाया, (अमुक सूत्रका क्या भाव है, अमुककी संगति कैसे और कहाँ लगेगी, अमुकका क्या अर्थ बताया, अमुक सूत्रके लिये कौनसी बात बतायी थी आदि आदि। एकको याद न होती तो दूसरा बता देता, उसको भी याद नहीं आती तो तीसरा बता देता, पर) जब किसीको भी याद नहीं आती तब गुरुजीके पास जाते पूछनेके लिये। वहाँ जानेपर गुरुजी पूछते कि कैसे आये हो? तो हमलोग कहते कि एक बात पूछनी है। गुरुजी कहते कि बोलो। बोलो कहते ही, पूछनेसे पहले ही वो बात समझमें आ जाती, याद आ जाती।


कभी-कभी तो उनके पासमें जाते और बिना बोले ही समाधान हो जाता। वापस जाते देखकर पूछते कि कैसे आये थे? तो हमलोग कहते कि एक बात पूछनेके लिये आये थे। कह, पूछा नहीं? कह, उसका तो यहाँ आते ही, पूछनेसे पहले ही समाधान हो गया।


जिस बातको हम कई जने मिलकर भी याद नहीं कर पाते, समझ नहीं पाते, वही बात उनके सामने जाते ही याद आ जाती है, समझमें आ जाती है, तब मेरे पर असर पड़ा कि इन (ज्ञानीजनों) के पास-पासमें एक ज्ञानका घेरा रहता है (जो उस घेरेके अन्दर जाते ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है)।


पढ़ाई ऐसी (समझ-समझकर) करनी चाहिये कि वो हम दूसरोंको भी पढ़ा सकें। जो बात मेरी समझमें आ जाती, वो मैं दूसरोंको भी समझा देता था। एक प्रकारसे समझमें नहीं आती तो दूसरे प्रकारसे समझा देता। उससे भी नहीं आती तो तीसरे, चौथे ढंगसे समझा देता। गुरुजी कहते थे कि यह शुकदेव (समझानेके लिये) जिसके पीछे पड़ जाता है, उसको समझाकर ही छोड़ता है, समझा ही देता है।


मैंने गीता पाठशाला खोल रखी थी, उसमें मैं गीता पढ़ाता था। संस्कृत विद्या भी पढ़ाता था।


'लघुसिद्धान्तकौमुदी' पढ़नेके बादमें 'सिद्धान्तकौमुदी' मैं अपने आप पढ़ गया, अपने आप उसकी संगतियाँ लगालीं।


श्रीमद्भागवतकी कथा सबसे पहले मैंने विक्रम संमत १९७९ में की थी। मैं रामायण आदिकी कथा भी करता था। गाना बजाना भी मैंने खूब किये हैं। (मैंने अकेले) हारमोनियम आदि पर भजन गाते हुए रात भर जागरण किये हैं। मैंने वेदान्त की पढ़ाई की है और आचार्य तककी परीक्षा दी है। मेरी रुचि तो भजन साधन करनेमें थी। पढ़ाई तो गुरुजनोंके कहनेसे करली। कहना मानना मेरा स्वभाव था।


हमारे गुरुजी कहते थे कि हमारे पास विद्यार्थी टिकता नहीं है और अगर टिक जाय, तो विद्वान बन जाता है; क्योंकि सुबह चार बजेसे लेकर रात्रि दस बजे तक वो पढ़ाईमें ही लगाये रखते थे। बीचमें कोई आधे घंटेका विश्राम होता था।


वो कहते थे कि [आपसमें पढ़ाईके अलावा दूसरी] बातें मत करो, सो जाओ भलेही, पर बातें मत करो; क्योंकि सो जानेसे (नींद ले लेनेसे) ताजगी आयेगी (और बातें करोगे तो भीतर कूड़ा-कचरा भरेगा, समय नष्ट होगा, शिथिलता आयेगी)।

[पढ़ाईमें ही लगे रहनेके कारण हमारे] सोनेकी मनमें ही रही। जब रविवार का दिन आता, तब हमलोग बिस्तर लगा लेते पहले दिन ही, कि कल सोयेंगे।


बड़ी तंगीसे पढ़ाई की है कि कपड़े भी फट गये तो दूसरे लायेंगे कहाँसे।


उन दिनों चार रुपयोंमें कल्याण आता था। मैं और (मेरे सहपाठी संत श्री) चिमनरामजी-दोनों मिलकर कल्याणके ग्राहक बने। हमने (कल्याण वालोंसे) प्रार्थना की कि हम विद्यार्थी हैं(हमारे लिये रियायत की जाय, पैसोंकी तंगी है)। तो हमारे लिये तीन रुपयोंमें कल्याण आता था, एक रुपयेकी छूट की गई।


मैं पढ़ता था, उन दिनोंमें जीवनरामजी हर्ष(ब्राह्मण) ने एक प्रेस बनाया था- हर्षप्रेस। मेरे मनमें आया कि (मेरा वश चले तो) मैं भी एक प्रेस खोलूँ- गीताप्रेस।

उस समय गीताप्रेसका नामोनिशान भी नहीं था।

(विक्रम संमत १९८० में 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' ने गीताप्रेस खोला)।


मेरे श्री सेठजीसे परिचय नहीं था। श्री सेठजीको तो मैं एक कल्याणमें लेख लिखनेवाले-लेखक समझता था। इनके लेख पढ़ कर मेरे पर बड़ा असर पड़ा कि ऐसे लेख विद्याके जोरसे तो नहीं लिखे जा सकते हैं, लिखनेवाले कोई अनुभवी हैं, ये लेख अनुभवसे लिखे गये हैं। इनसे मिलना चाहिये।


उस समय मैंने एक न कहनेवाली बात कहदी जो लोगोंको बुरी लगती है। मैंने कहा कि गीताके जितने गहरे भाव (सेठजी श्री जयदयाल) गोयन्दकाजी समझते हैं, इतने गहरे भाव समझनेवाले गीताजीके टीकाकारोंमें मेरेको कोई नहीं दीखता है। इतना ही नहीं, ज्ञानयोग कर्मयोग आदिके गहरे भावोंके विवेचन करनेवाले भी बहुत कम हैं।(श्री सेठजीके समान दूसरा कोई दीखता नहीं है)।

मधुसूदनाचार्यजी महाराजकी लिखी हुई गीताजीकी टीका 'गूढ़ार्थ-दीपिका' मेरेको बड़ी प्रिय लगी। मैं उसको अपने पासमें रखता था। विद्वत्तामें तो वो इतने बड़े लगे कि उनके समान कोई दीखता नहीं, पर गीताजीके गहरे भावोंको जितने (सेठजी श्री जयदयाल) गोयन्दकाजी समझते हैं, उतने ये (मधुसूदनाचार्यजी) भी नहीं समझते। उस समय मैं मिला दोनोंसे ही नहीं था। न तो श्री सेठजीसे मिला था और न उनसे। उनसे तो मिलता ही कैसे, वो तो पहले ही हो गये थे।


एक और बात बता दें। मेरे मनमें आया कि गीताप्रेस खोला है, पर गीताजी मैं सुनाऊँ तब पता चले कि गीताजी क्या होती है। (अपनेको गीताका जानकार समझता था)।


(७)-कुछ सिद्धान्त – 


आगे सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दकासे मिलनका वर्णन किया जायेगा जिसका काफी वर्णन तारीख एक अप्रैल उन्नीस सौ इकरानवें (दि.19910401/900 - goo.gl/ub5Pjy) के दिन नौ बजेके प्रवचनमें स्वयं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' ने गीताप्रेस, गोरखपुरमें किया है। 


आपके सिद्धान्तों ('मेरे विचार') में लिखा है कि- 


१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय । 


२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक तत्त्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा । 


३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं । 


४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ । 


५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी ही) साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी । गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ । 


६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने, जय-जयकार करने, माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ । 


७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ । 


८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ । 


९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ । 


१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्त्व देता हूँ । 


११. रुपये और स्त्री -- इन दो के स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है । 


१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दुकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है । 


१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं । 


१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ । 


१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है । 


[ ऐसे (मेरे विचार) ''एक संतकी वसीयत'' (प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२, १३) में भी छपे हुए हैं।]


(८)-'परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' और 'श्रद्धेय स्वामीजी

श्रीरामसुखदासजी महाराज' का मिलन -


अब परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका(चूरू) और 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के मिलनका वर्णन किया जायेगा, जिसका काफी वर्णन तारीख एक अप्रैल उन्नीस सौ इकरानवें (दि.19910401/900 – goo.gl/ub5Pjy) के दिन नौ बजेके प्रवचनमें स्वयं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' ने गीताप्रेस, गोरखपुरमें किया है और दि. 19951205/830 (goo.gl/cLtjIi) बजेके सत्संगमें भी किया है।


(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के कहनेके भाव है कि)


मेरे मनमें रही कि उनसे कैसे मिलें? पैसा मैं पासमें रखता नहीं, न लेता हूँ (किसीके देने पर भी पैसा मैं लेता नहीं), टिकटके लिये भी किसीसे कहता नहीं [कि मुझे श्री सेठ(श्रेष्ठ)जीकी सत्संगमें जाना है, टिकट बनवादो]। पैदल चलकर जाऊँ तो वहाँ पहुँच नहीं पाऊँ; क्योंकि मैं पहुँचूँ उससे तो पहले ही वो प्रोग्राम पूरा करके आगे चलदे। वो गाड़ीसे चलते हैं, मैं पैदल, कैसे पहुँचता।


फिर गम्भीरचन्दजी दुजारी (मेरे सहपाठी चिमनरामजीके मित्र) बोले कि वार्षिकोत्सव पर श्री सेठजी ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम चूरू आनेवाले हैं, आपको मैं ले जाऊँगा, चलो। मैंने उनसे कहा नहीं था (कि मुझे वहाँ जाना है, ले चलो, टिकट दे दो आदि) वो अपने मनसे ही बोले। तब मौका समझकर कर मैं और चिमनरामजी चूरू आये।


श्री सेठजी उस समय चूरू पहुँचे नहीं थे। कोई पंचायतीके कारण देरी हो गई थी, आये नहीं थे। मैं वहीं रहने लगा। गाँवमेंसे भिक्षा ले आना, पा लेना और वहीं रहना। मौन रखता था। दो-चार दिन वहीं रहा।


फिर सुबहकी गाड़ीसे श्री सेठजी आये।(किसीने उनको बताया कि ऐसे-ऐसे यहाँ संत आये हैं तो श्री) सेठजी खुद आये हमारी कुटिया पर, तो मैं भी गया उनके सामने। उस समय थोड़ी देर मौन रखता था मैं। बोलता नहीं था। तो श्री सेठजी मिले बड़े प्रेमसे।


श्री सेठजीने कहा कि हमतो आपलोगोंके (सन्तों के) सेवक हैं। मेरे मनमें आया कि सेवा लेनेके लिये ही आये हैं, सेवा करो, सेवा लेंगे। हमारी सेवा और तरहकी है। मनमें भाव ही आये थे, बोला नहीं था। बड़े प्रेमसे मिले। फिर वहाँ ठहरे (और सत्संग करने लग गये)। यह घटना विक्रम संवत १९८९-९१ की है। हमारी पोल भी बतादें- 

श्री सेठजीने सत्संग करवाया। मैंने सुना। तो कोई नयी बात मालुम नहीं दी। ये गीताजीका अर्थ करेंगे शायद, तो अर्थ तो मैं बढ़िया करदूँ इनसे। वो (गीताजीके) पदोंका अर्थ करते, उनका(और किसीका)अर्थ करते; तो मनमें आती कि क्यों तकलीफ देखते हैं। मेरे मनमें अभिमान था कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ। मैंने विद्यार्थियोंको संस्कृत व्याकरण आदि पढ़ाया है। पढ़ाता हुआ ही आया था पाठशाला छोड़कर। यह अभिमान एक बड़ा भारी रोग है। 


श्री सेठजी बात करते, तो बातें तो उनकी मेरेको अच्छी लगती; परन्तु श्लोकोंका अर्थ करते, ये करते, तो मेरे बैठती नहीं थी बात।


पढ़ना-पढ़ाना कर लिया, गाना-बजाना कर लिया। लोगोंको सिखा दिया। लोगोंको सुना दिया। (व्याख्यान) सुनाता था। सुनने-सुनानेसे अरुचि हो गई। अब तो भाई! साधनमें लगना है अच्छी तरहसे- यह मनमें थी। तो दृष्टि पसार कर देखा तो गोयन्दकाजीके समान कोई नहीं दीखा मेरेको। दीखा किससे? कि लेखोंसे।

गीताके विषयमें ये लेख लिखते थे, वो लेख देते थे कल्याणमें। केवल इनके लेख देखकर इतने जोरोंसे जँच गई कि मैंने न कहनेवाली बात भी कहदी। मैंने कहा कि गीताजीके गहरे अर्थको जितना गोयन्दकाजी जानते हैं, उतना टीकाकारोंमें कोई नहीं दीखता है हमें। (इसका वर्णन ऊपर आ चुका है)।


(९)- सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'को भगवद्दर्शन -


'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' भारतके राजस्थान राज्यके चूरू शहरमें रहनेवाले थे। इनके पिताका नाम खूबचन्दजी गोयन्दका था और माताजीका नाम था श्री शिवाबाईजी ।


चूरूवाली हवेलीमें एक बार ये चद्दर ओढ़कर लेटे हुए थे। नींद आयी हुई नहीं थी। उस समय इनको भगवान् विष्णुके दर्शन हुए। (इन्होनें सोचा कि सिर पर चद्दर ओढ़ी हुई है, फिर भी दीख कैसे रहा है?) इन्होने चद्दर हटाकर देखा, तो भी भगवान् वैसे ही दिखायी दे रहे हैं। भगवान् और आँखोंके बीचमें चद्दर थी। फिर भी भगवान् दीख रहे थे। चद्दरकी आड़ (औट) से भगवानके दीखनेमें कोई फर्क नहीं आया।


श्री सेठजीने बताया कि ऐसे अगर बीचमें पहाड़ भी आ जाय, तो भी भगवानके दीखनेको वो रोक नहीं सकेगा। उसकी आड़में भगवानका दीखना बन्द नहीं होगा। (फिर चद्दर ओढ़े-ओढ़े ही दर्शन होते रहे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है)।


जब इनको भगवानने दर्शन दिये, तब इनको प्रेरणा हुई कि निष्काम भावका प्रचार किया जाय (और इन्होनें अपना सम्पूर्ण जीवन निष्कामभावपूर्वक परहितमें लगा दिया)। 


आज गीताप्रेसको कौन नहीं जानता। उस गीताप्रेसकी स्थापना करनेवाले ये ही थे। ये ही गीताप्रेसके उत्पादक, जन्मदाता, संरक्षक, संचालक आदि सबकुछ थे। इन्होने ही चूरूमें ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम और कलकत्तामें गोबिन्दभवन बनवाया। आपने ही ऋषिकेश गंगातट पर गीताभवन बनवाया और सत्संगका प्रचार किया। आपने ही अद्वितीय गीताजीका प्रचार किया। (गीताजी पर 'तत्वविवेचनी' नामक टीका लिखवाई और अनेक ग्रंथोंकी रचना की)।


(आपकी ही कृपासे 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' जैसे महापुरुष सुलभ हुए। आपके द्वारा जगतका बड़ा भारी हित हुआ है। दुनियाँ सदा आपकी ऋणी रहेंगी)।

ये गुप्तरीतिसे भजन करते थे। ऐसे इनकी निष्ठा थी कि मेरे भगवानकी तरफ चलनेको कोई जान न जाय, किसीको पता न लगे- इस रीतिसे भजन करते थे।


एक प्रसंग चला था। उसमें ऐसी बात चली थी कि प्रह्लादजी को बहुत कष्ट हुआ, बड़ी-बड़ी त्रास उनको मिली। ऐसी बात चलते-चलतेमें श्री सेठजीने कहा था कि प्रह्लादजीने अपनेको प्रकट कर दिया। इस वास्ते विघ्न आये। और वे (श्री सेठजी) कहते थे कि प्रकट नहीं होना चाहिये। गुप्तरीति से भजन होना चाहिये।


मनुष्य अपने साधारण धनको भी गुप्त रखते हैं, तो क्या भजन-स्मरण जैसी पूँजी (भी) कोई साधारण है, जो लोगोंमें प्रकट हो जाय! यह तो गुप्तरीति से ही भजन करना चाहिये। ऐसा उनका ध्येय था, इसी तरहसे लोग कहते थे।


'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के 19951205_830 (goo.gl/cLtjIi) बजेवाले सत्संग-प्रवचनसे।


ऐसी उनकी बड़ी, ऊँची अवस्था हो गई थी। सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार- इस विषयमें मेरी समझमें उनकी अच्छी, बढ़िया जानकारी थी।


(१०)- श्री मंगलनाथजी महाराजसे 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' को प्रेरणा -


श्री सेठजीके जीवन पर मंगलनाथजी महाराजका बड़ा असर पड़ा। ऐसा उन्होने स्वयं कहा है। वो संस्कृतके बड़े विद्वान भी थे और संत भी थे। उनके संतत्वकी छाप गोयन्दकाजी पर पड़ी (प्रभाव पड़ा) और विद्वत्ताकी छाप हमारे विद्यागुरुजी पर पड़ी। वो कहते थे कि बहुत बड़ा निर्णय मंगलनाथजी महाराज करते थे। वो साधूवेषमें थे।


वो चूरू आये थे, तो उनकी मुद्रा, उदासीनता, तटस्थता और विरक्ति बड़ी विलक्षण थी। सेठजीने कहा कि (वो देखकर) मेरेपर असर पड़ा। वो(श्री सेठजी उनको) भावसे गुरु मानते थे, शिष्य-गुरुकी दीक्षा आदि नहीं (ली थी, उनसे दीक्षा नहीं ली थी, उनको मनसे गुरु मानते थे)। (श्री सेठजी कहते हैं कि) उनसे मेरे जीवनपर असर पड़ा। इस तरहसे श्री सेठजी बड़े विचित्र थे।

{मुद्रा –

मुख, हाथ, गर्दन, आदि की कोई विशेष भाव सूचक स्थिति को मुद्रा कहते हैं। (बृहत हिन्दी कोश से)}।


(११)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'के मित्र हनुमानदासजी गोयन्दका -


कुटम्बमें इनके एक मित्र थे। उनका नाम था हनुमानदासजी गोयन्दका। ये हनुमान प्रसादजी पोद्दार (कल्याण सम्पादक)-ये नहीं, दूसरे थे - हनुमानदासजी (हनुमानबख्सजी) 'गोयन्दका'। (वो तो 'पोद्दार' थे और ये 'गोयन्दका' थे अर्थात् ये हनुमानदासजी दूसरे थे)। इनके (हनुमानदासजी और श्री सेठजी के) बालकपनमें बड़ी, घनिष्ठ मित्रता थी। कभी दोनों इस माँके पास रहते, कभी दोनों उस माँके पास रहते-ऐसे मित्रता थी।

वो लग गये थे व्यापारमें, कलकत्तामें और ये(श्री सेठजी) लग गये अपने (साधनमें)।

साधनकी बात उनको (हनुमानदासजीको) भी नहीं बताई। उनसे भी गुप्त रहते थे और ये इतने थे कि इनके पिताजी पर भी असर था कि यह जैदा(जयदयाल) काम करेगा तो पक्का आदमी है, वो छोड़ेगा नहीं।

जब इनको खूब अनुभव हो गया, बहुत विशेषतासे (अनुभव हो गया)। तब विचार किया कि ये बातें मेरे साथ ही चली जायेगी, दूसरोंको पता ही नहीं लगेगा; तो क्या करें? कैसे करें भाई? 

फिर विचार किया कि मेरी बात सुनेगा कौन? लोग तो कहेंगे- पागल है। इस वास्ते पागलकी बात कौन सुनता है। तो भाई! हनुमान सुनेगा मेरी बात।

ये थे चूरूमें और वो थे कलकत्तामें। वे खेमकाजी (आत्मारामजी) के यहाँ मुनीम थे। ऐसी बात आयी मनमें तो इन्होनें उनको पत्र लिखा कि तुम आओ। तुमको खास बात कहनी है। मेरी बात किसीको कहनेका विचार था नहीं; पर अब विचार किया कि किसीको कहदूँ। वो मैं तेरेको कहूँगा। तुम आओ। मैं तुम्हारेसे बात करूँगा। तुम्हारे समान और कोई मेरा प्यारा है नहीं जिससे कि मैं अपनी बात कहूँ। तब वो आये।

उस समय चूरूमें रेल नहीं हुई थी(चूरूमें रेल्वे लाइन बनी ही नहीं थी)। ऊँटों पर ही आये थे। सामने गये और मिले।

(उन्होने पूछा कि) क्या बात है? तो फिर उनके सामने बातें कहीं। (कि) मैं तेरेको कहता हूँ, तू भी इसमें लगजा। भगवानमें लगजा, अच्छी बात है।

बातें (ये) बताई कि देख! परमात्मतत्त्वका अनुभव आदमीको हो सकता है और तूँ और मैं बात कर रहे हैं, इस तरहसे भगवानसे भी बात हो सकती है। ऐसा हो सकता है। तो उनके बड़ा असर पड़ा कि ऐसा हो सकता है!? कह, हाँ। तो लगजा भजनमें। तू जप कर। भगवन्नामका जप कर। जपकी बात इनके विशेषतासे थी। भगवन्नामका रामरामरामरामरामरामरामराम राम… यह जप भीतरसे करते थे, श्वाससे।

अभी, वृद्धावस्था तक भी, देखा है- (श्री सेठजी) कोई काम करते, बोलते, बात करते, तो बोलनेके बादमें स्वत: जप शुरु हो जाता श्वाससे। वो निगाह रखते(उस जपका दूसरे कोई ध्यान रखते) तो दूसरोंको मालुम हो जाता। रामरामरामरामराम रामरामरामराम-ऐसे। तो ऐसे भीतरसे जप होता था (उनके)। तो वो जप करना शुरु किया (हनुमानदासजीने)।

जप करते-करते उनको कुछ वैराग्य हुआ, तो कह, मेरे मनमें आती है कि यहाँ बड़ा झंझट है, चलो साधू हो जावें।

तो सेठजीने कहा- देख! साधू तो हो जावें; परन्तु तेरे तो बच्चा होनेवाला है, (तू) विवाह करेगा और तेरे बालक होगा, तो तेरेको पीछा(वापस) आना पड़ेगा और मेरेको तू ले जायेगा तो मैं पीछे लौटकर आऊँगा नहीं। तो तेरा-मेरा सत्संग नहीं होगा। तो कहा-अच्छा, नहीं चलेंगे(साधू होनेके लिये-साधू नहीं बनेंगे)।

ऐसी कई-कई बातें इनके आपसमें हुई थी। मैंने बहुत-सी बातें तो हनुमानदासजीसे सुनी है।


(१२)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' द्वारा सत्संगका विस्तार -


इसके बाद वो भी भजनमें लग गये। ये फिर काम करते थे चक्रधरपुरमें। फिर बाँकुड़ा (बंगाल) आ गये।


श्री सेठजीने जो बातें बतायी थी हनुमानदासजीको, वो कुछ प्रसिद्ध हो गई थी। इसलिये कलकत्तामें सत्संग किया करते। ये भी दुकानदार, वो भी दुकानदार, समय मिलता नहीं, इसलिये कह, कल रविवार है (छुट्टी है), तो शनिवारको ही लोग खड़्गपुर आ जाते। बाँकुडासे वो आ जाते, कलकत्तासे ये चले जाते और रात भर सत्संग होता। सत्संग करके रविवार शामको ही वापस चले जाते। इस तरह सत्संग चला।


सत्संग चलते-चलते कुछ प्रचार हुआ। लोग भी जानने लगे। प्रचार करनेकी इनके धुन थी भीतर। अब लोगोंमें प्रसिद्धि हो गई। धर्मशाला नामक गाँवमें दुकान की थी, तो वहाँकी विचित्र बात मैंने सुनी- 


जितने दुकानदार थे, सेठजी उनके सामने ताश(पत्ते) खेलते और बाजीगरकी तरह कळा दिखाते। लोग इकठ्टे हो जाते तब सत्संग सुनाते। ऐसे ही सत्संगके लिये तो इकठ्टे होते नहीं लोग; तो ऐसे चमत्कार दिखाकर सत्संग सुनाते। ऐसी कई-कई बातें है। तो जब सत्संग शुरु हो गया तो कलकत्तेमें भी शुरु हो गया। सत्संग होने लगा। (ऐसे) कई वर्ष बीत गये।


(१३)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'द्वारा "कल्याण"(-पत्र) शुरु -


फिर वो चूरूसे जा रहे थे कलकत्ताकी तरफ; तो बीचमें बातें हुई। तो घनश्यामदासजी बिड़लाने इनको सूझ दी कि तुम सत्संग करते हो, (उन बातोंका) पत्र निकालो, तो कईयोंको लाभ हो जाय। तो जयदयालजीने कहा कि पत्र निकालना, करना आता नहीं। तो हनुमान प्रसादजी पोद्दारने कहा कि सम्पादन तो मैं कर दूँगा। तो श्री सेठजीने कहा कि लेख मैं लिखा दूँगा। तो ठीक है। कल्याण शुरु हुआ। तो कल्याण खूब चला और लोगोंने बहुत अपनाया और बहुत लाभ हुआ। वो कल्याण चलता आ रहा है आज तक। पहले बम्बईसे शुरु हुआ और फिर गीताप्रेसमें आ गया।


(१४)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' द्वारा गीताप्रेस खोला जाना -


गीताप्रेस कैसे हुआ?

'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' गीताजीके भाव कहने लगे। गहरा विवेचन करने लगे। तो कह, गीताजीकी टीका लिखो। तो गीताजीकी टीका लिखी गई- साधारण भाषा टीका। वो गोयन्दकाजीकी लिखी हुई है। उस पर लेखकका नाम नहीं है। वो छपाने लगे कलकत्ताके वणिकप्रेस में। छपनेके लिये मशीनपर फर्मा चढ़ गया, (छपने लगा), उस समय अशुद्धि देखकर कि भाई! मशीन बन्द करो, शुद्ध करेंगे। (मशीन बन्द करके शुद्धि की गई)।


ऐसे (बार-बार मशीन बन्द करवाकर शुद्ध करनेसे) वणिकप्रेस वाले तंग आ गये कि बीचमें बन्द करनेसे, ऐसे कैसे काम चलेगा? मशीन खोटी (विलम्बित) हो जाती है हमारी। ऐसी दिक्कत आयी छपानेमें।


तब विचार किया कि अपना प्रेस खोलो। अपना ही प्रेस, जिसमें अपनी गीता छाप दें। तब गीताप्रेस खोला।

{विक्रम संवत १९८० में यह गीताप्रेस गोरखपुर (उत्तर-प्रदेश) में खोला गया}।


(१५)-'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' से सम्बन्ध-


(पहली बार मिलने के बाद)

फिर हम (चूरूसे) गीताप्रेस गोरखपुर आये। वहाँ कई दिन रहे। सत्संग हुआ। फिर ऋषिकेशमें सत्संग हुआ और इस प्रकार श्री सेठजी और हमारे जल्दी ही भायला (मित्रता, अपनापन) हो गया, कोई पूर्व(जन्म)के संस्कार होंगे(जिसके कारण जल्दी ही प्रेम हो गया)।


श्री सेठजीको मैं श्रेष्ठ मानता था। लोग पहले उनको आपजी-आपजी(नामसे) कहते थे। मैं उनको श्रेष्ठ कहता था। फिर लोग भी श्रेष्ठ-श्रेष्ठ कहते-कहते सेठजी कहने लग गये।


एक बार सेठजी बोले कि स्वामीजीने हमको सेठ(रुपयोंवाला) बना दिया। मैंने कहा कि मैं रुपयोंके कारण सेठ नहीं कहता हूँ, रुपयेवाले तो और भी कई बैठे हैं, (जिनके पास रुपये सेठजीसे भी ज्यादा है)। मेरा सेठ कहनेका मतलब है- श्रेष्ठ।


(१६)- भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार -


सेठजीको तो मैं ऊँचा मानता था, श्रेष्ठ मानता था और भाईजी तो हमारे भाईकी तरह (बराबरके) लगते थे। साथमें रहते, विनोद करते थे ऐसे ही।


भाईजीका बड़ा कोमल भाव था। भाईजीका 'प्रेमका बर्ताव' विचित्र था- दूसरेका दुःख सह नहीं सकते थे (दूसरेका दुःख देखकर बेचैन हो जाते थे)। बड़े अच्छे विभूति थे। हमारा बड़ा प्रेम रहा, बड़ा स्नेह रहा, बड़ी कृपा रखते थे।


 ये श्री सेठजीके मौसेरे (माँकी बहन-मौसीके बेटा)भाई थे। पहले इनके(आपसमें) परिचय नहीं था। इनके परिचय हुआ शिमलापाल जेलके समय।


भाईजी पहले काँग्रेसमें थे और काँग्रेसमें भी गर्मदलमें थे। बड़ी करड़ी-करड़ी बातें थीं उनकी (गर्मदलके नियम बड़े कठोर होते थे)। भाईजी जब बंगालके शिमलापाल कैदमें थे, तब श्री सेठजीको पता लगा कि हनुमान जेलमें है। पीछे इनकी(भाईजीकी) माताजी थी, घरमें उनकी स्त्री(पत्नि) थी। उनका प्रबन्ध श्री सेठजीने किया। उस प्रबन्धका असर पड़ा भाईजी पर और वो इनके(श्री सेठजीके) शिष्य ही बन गये, अनुयायी ही बन गये।


(१७)- 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का साधन-सत्संग -


श्री सेठजीने मेरेसे कहा कि व्याख्यान(सत्संग) सुनाओ। तो मैंने कहा कि सेठजी! इन सबसे धापकर (तृप्त होकर) आया हूँ। अब तो साधन करना है। कथायें करली, भेंट-पूजा कराली, रुपये रखकर देख लिये, बधावणा करवा लिये, चेला-चेली कर लिये, गाना-बजाना कर लिया, पेटी (हारमोनियम) सीखली, तबला, दुकड़ा बजाने सीख लिये। अकेले भजन गा-गाकर रातभर जागरण कर लिये, व्याख्यान सुना दिये आदि आदि सब कर लिये। इन सबको छोड़ दिया। इन सबसे अरुचि हो गई।


श्री सेठजीने कहा कि सुनाओ। तो मैंने कहा कि सेठजी! इन सबसे धापकर आया हूँ, अब सुनानेका मन नहीं है, अबतो साधन करना है। श्री सेठजीने कहा कि यही(सत्संग सुनाना ही) साधन है। कह, यह साधन है! 

तो सुनानेमें ऐसा लगा कि एक-एक दिनमें कई-कई घंटे(छ:छ:, आठ-आठ घंटोंसे ज्यादा) सत्संग सुनाता।


श्री सेठजीने कहा कि सुनाओ, सुनाओ; तो इतना भाव भर दिया कि सुनाता ही सुनाता हूँ, उनका शरीर जानेके बाद भी। अभी तक सुनाता हूँ, यह वेग उन्हींका भरा हुआ है।


लोगोंने प्रेरणा की कि स्वामीजीको कलकत्ता भेजो, यहाँ सत्संग करानेवाला कोई नहीं है। तो वे कलकत्ता ले गये। फिर वहाँ कई महीनों(सात-सात, आठ-आठ महीनों) तक सत्संग सुनाता था। लोग सुनते थे। सुबह आठ बजेसे दस, शामको आठ बजेसे दस और कभी-कभी दुपहरमें दो से चार बजे। ऐसे सत्संग करते थे। भिक्षा माँग कर पा लेना और सत्संग सुनाना। ऐसे कई वर्ष बीत गये। [पहले पुराने गोबिन्दभवनमें सत्संग होता था, फिर बादमें यह नया गोबिन्दभवन कार्यालय बनाया गया]।

ऋषिकेशमें सत्संग पहले गंगाके इस पार काली कमलीवाली धर्मशालामें होता था, फिर बादमें उस पार होने लग गया। यह गीताभवन बादमें मेरे सामने बना है।


गीताजीकी टीका "तत्त्वविवेचनी" (लेखक-'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका') हमारे सामने लिखी गई है।


श्री सेठजीने कहा कि स्वामीजी! गीताजीका प्रचार करो। मैं बोला कि कैसे करें? तो बोले कि म्हे कराँ ज्यूँ करो- जैसे हम करते हैं ऐसे करो अर्थात् जैसे हम व्याख्यान देकर करते हैं, गीताजीकी टीका लिखकर करते हैं, ऐसे आप भी व्याख्यान देकर करो और गीताजी पर टीका लिखकर करो। (इस प्रकार उनकी आज्ञासे हमने भी गीताजी पर टीका लिखी- "साधक-संजीवनी")।


(१८)- सत्संग से बहुत ज्यादा लाभ -

('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज')

यह बात जरूर है कि संतोंसे लाभ बहुत होता है। संत-महात्माओंसे बहुत लाभ होता है।


मैं कहता हूँ कि (कोई) साधन करे एकान्तमें खूब तत्परतासे, उससे भी लाभ होता है; पर सत्संगसे लाभ बहुत ज्यादा होता है।


साधन करके अच्छी, ऊँची स्थिति प्राप्त करना कमाकर धनी बनना है और सत्संगमें गोद चला जाय( गोद चले जाना है)। साधारण आदमी लखपतिकी गोद चला जाय तो लखपति हो जाता है, उसको क्या जोर आया। कमाया हुआ धन मिलता है।


इस तरह सत्संगमें मार्मिक बातें बिना सोचे-समझे(मिलती है), बिना मेहनत किये बातें मिलती है।

कोई उद्धार चाहे तो मेरी दृष्टिमें सत्संग सबसे ऊँचा(साधन) है।


भजनसे, जप- कीर्तनसे, सबसे लाभ होता है, पर सत्संगसे बहुत ज्यादा लाभ होता है। विशेष परिवर्तन होता है। बड़ी शान्ति मिलती है। भीतरकी, हृदयकी गाँठें खुल जाती है एकदम साफ-साफ दीखने लगता है। तो सत्संगसे (बहुत)ज्यादा लाभ होता है।


सत्संग सुनानेका सेठजीको बहुत शौक था, वो सुनाते ही रहते, सुनाते ही (रहते)।


सगुण का ध्यान कराते तो तीन घंटा (सुनाते), सगुण का ध्यान कराने में, मानसिक-पूजा करानेमें तीन घंटा।


निर्गुण-निराकार का (ध्यान) कराते तीन घंटा(सुनाते)। बस, आँख मीचकर बैठ जाते। अब कौन बैठा है, कौन ऊठ गया है, कौन नींद ले रहा है, कौन (जाग रहा है)। परवाह नहीं, वो तो कहते ही चले जाते थे। बड़ा विचित्र उनका स्वभाव था। बड़ा लाभ हुआ, हमें तो बहुत लाभ हुआ भाई। अभी(भी) हो रहा है। गीता पढ़ रहा हूँ, गीतामें भाव और आ रहे हैं, नये-नये भाव पैदा हो रहे हैं, अर्थ पैदा हो रहे हैं। बड़ा विचित्र ग्रंथ है भगवद् गीता।


साधारण पढ़ा हुआ आदमी भी लाभ ले लेता है बड़ेसे (बहुत पढ़े हुए बड़े आदमीसे भी ज्यादा लाभ साधारण पढ़ा हुआ आदमी गीतासे ले लेता है)। गीता और रामायण- ये दो ग्रंथ बहुत विचित्र है। इनमें बहुत विचित्रता भरी है।


'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' द्वारा दिये गये दि. 19951205/830 बजेके सत्संग-प्रवचनका अंश। ( goo.gl/cLtjIi )।


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सत्संग-संतवाणी. 

श्रध्देय स्वामीजी श्री 

रामसुखदासजी महाराजका 

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