एक बार श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज विराजमान हो रहे थे|ऐसा प्रतीत होता था कि किसी विचारमें हैं(विचार मग्न हैं)|
मैंने(डुँगरदासने) पूछा कि क्या बात है?
तब उत्तरमें चिन्ता और खेद व्यक्त करते हुएसे बोले कि इन लोगों की क्या दशा होगी?
(ये सत्संग करते हैं,सुनते हैं,पर ग्रहण नहीं कर रहे हैं,कल्याणमें ढिलाई कर रहे हैं,बातोंकी इतनी परवाह नहीं कर रहे हैं आदि आदि)|
फिर बताया कि कमसे कम इनकी दुर्गति न हों,इसके लिये क्या करना चाहिये कि गीताजीके कुछ श्लोकोंका पाठ करवाना चाहिये-
गीता पाठ समायुक्तो मृतो मानुषतां वृजेत्|
गीताभ्यासःपुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम्||
(गीता महात्म्य)
अर्थात् ,गीता-पाठ करनेवाला [अगर मुक्ति होनेसे पहले ही मर जाता है,तो ] मरनेपर फिर मनुष्य ही बनता है और फिर गीता अभ्यास करता हुआ उत्तम मुक्तिको प्राप्त कर लेता है|
अब गीताजीके कौन-कौनसे श्लोकोंका पाठ करना चाहिये?
कि अवतार-विषयक(गीता ४/६-१०) श्लोकोंका पाठ बढिया रहेगा|
फिर अन्दरसे बाहर सत्संगमें पधारे तथा लोगोंसे कह कर रोजाना(हमेशा)के लिये इन पाँच श्लोंकों (गीता४/६-१०) का पाठ शुरु करवा दिया||
यह पाठ रोजाना सत्संग-प्रवचनसे पहले होता था|
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके बताये हुए और लोक-कल्याण हित नित्य-पाठके लिये शुरु करवाये हुए-
गीताजीके नित्य-पठनीय पाँच श्लोक
(गीता ४/६-१०)-
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् |
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतनामीश्वरो$पि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया||
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्||
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन||
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः |
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ||
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् |
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||
और फिर भगवन्नाम संकीर्तन|
तत्पश्चात श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका संत्संग ||
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी आवाजमें इन पाँच श्लोंकोका पाठ यहाँ(इस पते)से प्राप्त करें-
https://db.tt/moa8XQh7