सूक्ति-
१४४-
वृन्दावनकी गूदड़ी दैन लगै लख दोय।
रज्जब कौडी नाँ बटी जब रज डारी धोय।।
शब्दार्थ-
रज (वृन्दावनकी धूलि , ब्रजरज) |
कथा-
एक राजाने देखा कि एक बाबाजी वृन्दावनसे आये हैं और उनके पास ब्रजरजसे सनी हुई गूदड़ी है | राजाने सोचा कि गूदड़ी खरीदलें | बाबाजीके ना करनेपर ज्यादा रुपये देनेके लिये कहा ; फिर भी इन्कार करते गये और राजा मौल बढाते गये | अन्तमें दौ लाख रुपये देनेके लिये तैयार हो गये | बाबाजीने सोचा कि गूदड़ी धूलसे भरी है ; अगर इसको धो लेंगे तो कीमत ज्यादा मिलेगी | बाबाजीने गूदड़ी धोकर राजासे कहा कि अब कितने रुपयोंमें खरीदेंगे ? राजाने खरीदनेसे इनकार कर दिया कि मैं तो ब्रजरजके कारण ही खरीद रहा था ; वो नहीं है तो चाहे गूदड़ी कितनी ही बढिया और धुली हुई है तो क्या हुआ ? |
महिमा तो ब्रजरजकी है -
वृन्दावनकी गूदड़ी दैन लगै लख दोय।
रज्जब कौडी नाँ बटी जब रज डारी धोय।।
७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html