क्रोध कैसे मिटे?
इसके लिये श्रध्देय स्वामीजी रामसुखदासजी महाराजका यह
(19960204/1500 बजेका) प्रवचन सुनें।
सीताराम
इस जगतमें अगर संत-महात्मा नहीं होते, तो मैं समझता हूँ कि बिलकुल अन्धेरा रहता अन्धेरा(अज्ञान)। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजीमहाराज की वाणी (06- "Bhakt aur Bhagwan-1" नामक प्रवचन) से...
क्रोध कैसे मिटे?
इसके लिये श्रध्देय स्वामीजी रामसुखदासजी महाराजका यह
(19960204/1500 बजेका) प्रवचन सुनें।
सीताराम
।।श्रीहरि।।
चतुर्दश मन्त्र-
(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराज)।
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा प्रकट किया हुआ चतुर्दश मन्त्र-
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
{राम(१) राम(२) राम(३) राम(४) राम(५) राम(६) राम(७) ।
राम(८) राम(९) राम(१०) राम(११) राम(१२) राम(१३) राम(१४) }।।
संकीर्तनमें मन कैसे लगे?
इसके लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने यह अटकऴ (युक्ति) बतायी है कि भगवानके गुण और लीलायुक्त नाम जोड़-जोड़कर इस चतुर्दश मन्त्रका कीर्तन करें।
जैसे -
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
आप ही हो एक(१) प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सदा(२) ही हो आप प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सर्वसमर्थ(३) प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
परम सर्वज्ञ(४) प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सर्वसुहृद(५) प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सभीके(६) हो आप प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सर्व व्यापक(७) प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
परम दयालु प्रभु(८) राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
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श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा (भगवानमें श्रद्धा विश्वास होनेके लिये) बताये गये भगवानके सात* प्रभावशाली विशेष नाम---
(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि)
जब साधक यह स्वीकार करता है कि परमात्मा अद्वितीय है, सदा है, सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है, सर्वसुहृद है, सभीका है और सब जगह है, तब उसकी परमात्मापर स्वत: श्रद्धा जाग्रत हो जाती है।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित 'कल्याणके तीन सुगम मार्ग'नामक पुस्तक (पृष्ठ संख्या ३०) से।
(ऊपर वाला चतुर्दस नाम-संकीर्तन भी इन्ही नामों के साथ कराया गया है। इसलिये यह विशेष प्रभावशाली है)।
{जैसे, षोडस- मन्त्र
(हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।)
में सोलह बार भगवान् का नाम आने के कारण वो षोडस-मन्त्र कहलाता है। ऐसे इस चतुर्दस- मन्त्र (राम राम राम राम राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।) में चौदह बार भगवान् का नाम आने के कारण यह चतुर्दश-मन्त्र कहा गया है}।
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*जिन दिनोंमें यह पुस्तक लिखी जा रही थी,उन दिनोंमें आठ नाम बताना चाह रहे थे; लेकिन सात ही लिखा पाये। आठवाँ नाम शायद यह था-'परम दयालु' ; क्योंकि कई बार सत्संग-प्रवचनोंमें भी यह नाम लिया करते थे कि सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ और परम दयालु परमात्माके रहते हुए (उनके राज्य में) कोई किसीको दु:ख दे सकता है? अर्थात् नहीं दे सकता। (इसलिये यहाँ यह आठवाँ नाम भी जोङ दिया गया है)।
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पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज का साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें http://dungrdasram.blogspot.com/
चतुर्दश मन्त्र-
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराज
द्वारा प्रकट किया हुआ चतुर्दश मन्त्र-
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
{ राम(१) राम(२) राम(३) राम(४) राम(५) राम(६) राम(७) ।
राम(८) राम(९) राम(१०) राम(११) राम(१२) राम(१३) राम(१४) ।। }
संकीर्तनमें मन कैसे लगे?
इसके लिये श्री महाराजजीने यह तरकीब (अटकऴ) बतायी है कि भगवानके गुण और लीलायुक्त नाम जोड़-जोड़कर इस चतुर्दश मन्त्रका कीर्तन करें।
जैसे -
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
आप ही हो एक प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सदा ही हो आप प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सर्वसमर्थ प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
परम सर्वज्ञ प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सर्वसुहृद प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सभीके हो आप प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
सर्व व्यापक प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
परम दयालु प्रभु राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।
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श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा (भगवानमें श्रध्दा विश्वास होनेके लिये) बताये गये भगवानके सात* प्रभावशाली विशेष नाम---
जब साधक यह स्वीकार करता है कि परमात्मा अद्वितीय है, सदा है, सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है, सर्वसुहृद है, सभीका है और सब जगह है, तब उसकी परमात्मापर स्वत: श्रध्दा जाग्रत हो जाती है।
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित 'कल्याणके तीन सुगम मार्ग'नामक पुस्तक (पृष्ठ संख्या ३०) से।
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पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/
सन्तोंने निन्दा, चुगलीको बडा़ भारी पाप बताया है-
परम धरम श्रुति बिदित अहिंसा।
पर निन्दा सम अघ न गरीसा।।
(रामचरितमा.७/१२१)।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना।
धरम कि दया सरिस हरिजाना।।
(रामचरितमा.७/११२) ।
कौन कुकर्म किये नहिं मैंने जौ गये भूलि सो लिये उधारे।
ऐसी खेप भरी रचि पचिकै चकित भये लखिकै बनिजारे।।
कुकर्म (पाप) उधार कैसे लिये जाते हैं?
इसका उत्तर श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि जो पाप हमने किया नहीं; दूसरेने किया है।परन्तु अगर हम उनकी निन्दा करते हैं , तो यह पाप उधारा लेना हो गया।
अब हमको भी वही दण्ड मिलेगा जो पाप करनेवालेको मिलता है।
(प्रश्न -
चुगली किसको कहते हैं?
उत्तर-)
किसीके दोषको दूसरेके आगे प्रकट करके दूसरोंमें उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता (चुगली) है।
(साधक-संजीवनीके १६/२ की व्याख्या)।
उसमें अपैशुनम् की व्याख्या पढें।
सीताराम
।।श्री हरि:।।
@आवश्यक चेतावनी@
साधन-सुधा-सिन्धु।
लेखक-
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराज।
(पृष्ठ संख्या ९९६ से)।
--ध्यानपूर्वक पढ़ें तथा विचार करें
१. परिवार-नियोजन कार्यक्रमसे जीवन-निर्वाहके साधनोंमें तो वृद्धि नहीं हुई है, पर ऐसी अनेक बुराईयों की वृद्धि अवश्य हुई है, जिनसे समाज का घोर पतन हुआ है |
२. जीवन-निर्वाहके साधनों में कमी (बेरोजगारी, निर्धनता आदि) होने के कारण जन संख्याकी वृद्धि नहीं है, प्रत्युत अपने सुखभोगकी इच्छाओंकी वृद्धि है | भोगे च्छाकी वृद्धि होनेसे मनुष्य आरामतलब, आलसी और अकर्मण्य हो जाता है, जिससे वह जीवन-निर्वाहके साधनोंका उपभोग(खर्चा) तो अधिक करता है, पर उत्पादन कम करता है |
३. परिवार-नियोजनका कारण है कि मनुष्यका न तो 'ईश्वर' पर विश्वास है कि ईश्वर सबका पालन करनेवाला है, न अपने 'भाग्य' पर विश्वास है कि हरेक व्यक्ति अपने भाग्यके अनुसार पाता है और न अपने 'पुरुषार्थ' पर विश्वास है कि मैं पुरुषार्थसे कमाकर परिवारका पालन-पोषण कर सकता हूँ ।
४. सरकारका कर्तव्य अपने देशमें जन्म लेनेवाले प्रत्येक नागरिक के जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध करना है, न कि उसके जन्मपर ही रोक लगा देना । जन्मपर ही रोक लगाना वास्तवमें अपनी पराजय (प्रबन्ध करनेमें असमर्थता) स्वीकार करना है ।
५. जनताकी आवश्कताओंके अनुसार जीवन-निर्वाहके साधनोंमें वृद्धि न करके जनसंख्याको कम करना वैसे ही है, जैसे शरीरपर कोई कपड़ा ठीक न आये तो कपड़ेका आकार ठीक करनेकी अपेक्षा शरीरको ही काटकर छोटा करना ! अथवा भोजनालयमें ज्यादा आदमी आने लगें तो ज्यादा भोजन न बनाकर आदमियोंको ही मारना शुरू कर देना ।
६. मनुष्योंको पैदा होनेसे रोककर अधिक अन्न पैदा करनेकी चेष्टा वैसे ही है जैसे बच्चेको गर्भमें न आने देकर माँका दूध अधिक पैदा करनेकी चेष्टा करना !
७. जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं, वहाँ वर्षा अधिक होती है, फिर मनुष्य अधिक होंगे तो क्या अन्न अधिक नहीं होगा? प्रत्यक्ष बात है कि पहले जनसंख्या कम थी तो अनाज विदेशोंसे मँगाना पड़ता था; परन्तु अब जनसंख्या बढ़ गयी तो अनाज, फल आदि वस्तुएँ विदेशोंमें भेजी जाती है ।
८. आवश्यकता ही आविष्कारकी जननी है । यदि जनसंख्या बढ़ेगी तो उसके पालन-पोषणके साधन भी बढ़ेंगे, अन्नकी पैदावार भी बढ़ेगी, वस्तुओंका उत्पादन भी बढ़ेगा, उद्योग भी बढ़ेगा । फिर जनसंख्या-वृद्धि की चिन्ता क्यों?
९. मनुष्यके पास केवल पेट ही नहीं होता, प्रत्युत दो हाथ, दो पैर और एक मस्तिष्क भी होता है, जिनसे वह केवल अपना ही नहीं, प्रत्युत कई प्राणियोंका भरण-पोषण कर सकता है । फिर जनसंख्या-वृद्धि की चिन्ता क्यों ?
१०. उत्पादनको तो बढ़ाना चाहते हैं, पर उत्पादक-शक्ति (जनसंख्या) का ह्रास कर रहे हैं - यह कैसी बुद्धिमानी है ।
११. एक-दो सन्तान होगी तो घरका काम ही पूरा नहीं होगा, फिर समाजका काम कौन करेगा ? खेती कौन करेगा ? सेनामें कौन भरती होगा ? सच्चा मार्ग बताने वाला साधु कौन बनेगा ? बूढ़े माँ-बापकी सेवा कौन करेगा ?
१२. जन्मपर तो नियन्त्रण, पर मौतपर कोई नियन्त्रण नहीं - यह कैसी बुद्धिमानी ? जो मृत्यु पर नियन्त्रण नहीं रख सकता, उसको जन्मपर भी नियन्त्रण रखनेका कोई अधिकार नहीं है। अगर वह ऐसा करेगा तो इसका परिणाम नाश-ही-नाश होगा ।
१३.जन्म-मरणका कार्य (जनसंख्याका नियन्त्रण) मनुष्यके हाथमें नहीं है, प्रत्युत सृष्टिकी रचना करनेवाले ईश्वर और प्रकृतिके हाथमें है । ईश्वर और प्रकृतिके विधानसे जनसंख्याका नियन्त्रण अनादिकालसे स्वतः-स्वाभाविक होता आया है । अगर मनुष्य उनके विधानमें हस्तक्षेप करेगा तो इसका परिणाम बड़ा भयंकर होगा ।
१४. कुत्ते, बिल्ली, सूअर आदिके एक-एक बारमें कई बच्चे होते हैं और वे सन्तति-निरोध भी नहीं करते, फिर भी उनसे सब सड़कें, गलियाँ भरी हुई नहीं दीखतीं । उनकी संख्याका नियन्त्रण जिस शक्ति के द्वारा होता है, उसीके द्वारा मनुष्योंकी संख्याका भी नियन्त्रण होता है । इसकी जिम्मेवारी मनुष्योंपर है ही नहीं ।
१५. गर्भ-स्थापन कर सकनेके सिवाय कोई पुरुषत्व नहीं है और गर्भधारण कर सकनेके सिवाय कोई स्त्रीत्व नहीं है । अगर पुरुषमें पुरुषत्व न रहे और स्त्रीमें स्त्रीत्व न रहे तो वे मात्र भोगी जीव ही रहे ; न मनुष्य रहे, न मनुष्यता रही !
१६. जिसका मरना निश्चित है, उसके भरोसे सन्तति-निरोध करा लेना कितनी बेसमझीकी बात है । अभी एक-दो सन्तान है, वह अगर मर जाय तो क्या दशा होगी ?
१७. मनुष्योंमें हिन्दु जाति सर्वश्रेष्ठ है । इसमें बड़े विलक्षण-विलक्षण ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा, दार्शनिक, वैज्ञानिक, विचारक पैदा होते आये हैं । जब इस जातिके मनुष्योंको जन्म ही नहीं लेने देंगे तो फिर ऐसे श्रेष्ठ, विलक्षण पुरुष कैसे और कहाँ पैदा होंगे ?
१८. वर्तमान वोट-प्रणालीका जनसंख्याके साथ सीधा सम्बन्ध है । अतः जिस जातिकी संख्या अधिक होती है, वही जाति बलवान् होकर (वोटके बलपर) देशपर राज्य करती है । जो जाति परिवार-नियोजनको अपनाती है, वह परिणाममें अपने अस्तित्वको ही नष्ट कर देती है । वर्तमानमें परिवार-नियोजन और धर्मान्तरणके द्वारा हिन्दुओंकी संख्या तेजीसे कम हो रही है । फिर किसका राज्य होगा और क्या दशा क्या होगी ? जरा सोचो !
१९. संतति-निरोधके कृत्रिम उपायोंके प्रचार-प्रसारसे समाजमें प्रत्यक्षरूपसे व्यभिचार, भोगपरायणता आदि दोषोंकी वृद्धि हो रही है, कन्याएँ और विधवाएँ भी गर्भवती हो रही है, लोगों में चरित्र, शील, संयम, लज्जा, ब्रह्मचर्य आदि गुणोंका ह्रास हो रहा है, जिससे देशका सब दृष्टियोंसे घोर पतन हो रहा है ।
२०. संतति-निरोधके द्वारा नारीके मातृरूपको नष्ट करके उसको केवल भोग्या बनाया जा रहा है । भोग्या स्त्री तो वेश्या होती है । यह नारी-जातिका कितना महान् अपमान है ।
२१. संतति-निरोधके मूलमें केवल सुखभोगकी इच्छा विद्यमान है । अपनी सन्तान इसलिये नहीं सुहाती कि वह हमारे सुखभोगमें बाधक है, फिर अपने माँ-बाप, भाई-बहन कैसे सुहायेंगे ?
२२. अगर सन्तानकी इच्छा न हो तो संयम रखना चाहिये । संयम रखनेसे स्वास्थ्य ठीक रहता है, उम्र बढ़ती है, शारीरिक-पारमार्थिक सब तरहकी उन्नति होती है । हल तो चलाये, पर बीज डाले ही नहीं - यह कैसी बुद्धिमानी है ?
२३. संतति-निरोधकी भावनासे मनुष्य इतना क्रूर, निर्दय, हिंसक हो जाता है कि गर्भमें स्थित अपनी सन्तानकी भी हत्या (भ्रूणहत्या या ग्रभपात) करनेमें हिचकता नहीं, जो कि ब्रह्महत्यासे भी दुगुना पाप है ।
२४. गर्भपातके समान दूसरा कोई भयंकर पाप है ही नही । संसारका कोई भी श्रेष्ठ धर्म इस महान पापको समर्थन नहीं देता और न दे ही सकता है । कारण कि यह काम मनुष्यताके विरुद्ध है । क्रूर और हिंसक पशु भी ऐसा काम नहीं करते ।
२५. गर्भमें स्थित शिशु अपने बचावके लिये कोई उपाय नहीं कर सकता, प्रतीकार भी नहीं कर सकता, अपनी रक्षाके लिये पुकार भी नहीं कर सकता, चिल्ला भी नहीं सकता, उसका कोई अपराध, कसूर भी नहीं है । ऐसी अवस्थामें उस निर्बल, असहाय, निरपराध, निर्दोष, मूक शिशुकी हत्या कर देना कितना महान पाप है !
२६. एक कहावत है कि अपने द्वारा लगाया हुआ विषवृक्ष भी काटा नहीं जाता । जिस गर्भको स्त्री-पुरुष मिलकर पैदा करते हैं, उसकी अपने ही द्वारा हत्या कर देना कितनी कृतघ्नता है ! कसूर (असंयम) तो खुद करते हैं, पर हत्या बेकसूर गर्भकी करते हैं, यह कितना बड़ा अन्याय है ।
२७. गर्भमें आया जीव जन्म लेकर न जाने कितने अच्छे लौकिक तथा पारमार्थिक कार्य करता, समाज तथा देशकी सेवा करता, अनेक लोगोंकी सहायता करता, सन्त-महात्मा बनकर अनेक लोगोंको सन्मार्गमें लगाता, अनेक तरहके आविष्कार करता आदि-आदि । परन्तु जन्म लेनेसे पहले ही उसकी हत्या कर देना कितना महान पाप है, अपराध है ।
२८. जीवमात्रको जीनेका अधिकार है । उसको गर्भमें ही नष्ट करके उसके अधिकारको छीनना महान् पाप है ।
२९. जब मनुष्यकी हत्याको बहुत बड़ा पाप मानते हैं और अपराधी मनुष्यको भी फाँसीकी सजा न देकर आजीवन कारावासकी सजा देते हैं, तो फिर यह गर्भपात क्या है ? क्या यह निरपराध मनुष्यकी हत्या नहीं है ?
३०. गर्भमें आये जीवको अनेक जन्मोंका ज्ञान होता है, इसलिये भागवतमें उसको 'ऋषि' (ज्ञानी) नामसे कहा गया है । अतः गर्भपात करनेसे एक ऋषिकी हत्या होती है । इससे बढ़कर और पाप क्या होगा ?
३१. लोग गर्भ-परीक्षण करवाते हैं और गर्भमें कन्या हो तो गर्भपात करा देते हैं, क्या यह नारी-जातिको समान अधिकार देना है ? क्या यह नारी-जातिका सम्मान करना है ?
३२. संसारी लोगोंकी दृष्टिमें जो सबसे बड़ा सुख है, जिस सुखके बिना भोगी मनुष्य नहीं रह सकता, जिस सुखका वह त्याग नहीं कर सकता, उस सुखको देनेवाले गर्भकी हत्या कर देना कितना महान् पाप है । यह पापकी, कृतघ्नताकी, दुष्टताकी, नृशंसताकी, क्रूरताकी, अमानुषताकी, अन्यायकी आखिरी हद है ! अर्थात् इससे बढ़कर अपराध कोई हो नहीं सकता ।
३३. मनुष्यशरीरको बड़ा दुर्लभ बताया गया है । मनुष्यशरीरमें आकर जीव अपना और दूसरोंका भी कल्याण कर सकता है । परन्तु उस जीवको ऐसा दुर्लभ मौका न मिलने देना, संतति-निरोध करके उसको जन्म ही न लेने देना अथवा जन्म लेनेसे पहले ही गर्भपात करके उसकी हत्या कर देना कितना महान् पाप है ।
३४. जो माता-पिता अपने बच्चेका स्नेहपूर्वक पालन और रक्षा करनेवाले होते हैं, वे ही अपने गर्भस्थ बच्चेकी हत्या कर देंगे तो किससे रक्षाकी आशा की जायगी ?
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उपर्युक्त बातोंको विस्तारसे समझनेके लिये गीताप्रेस, गोरखपुरसे प्रकाशित ये दो पुस्तकें अवश्य पढ़ें -
(१) महापापसे बचो
(२) देशकी वर्मान दशा तथा उसका परिणाम।
……………………………………………………
(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित 'साधन-सुधा-सिन्धु' नामक ग्रंथ की पृष्ठ संख्या ९९६-998 से)।
एक खेती करनेवाली जाटनी थी । वो एक साहूकार (सेठ) के यहाँ काम करती थी ।
एक बार उसने देखा कि सेठके यहाँ सँत आये हैं। उनका बड़ा आदर किया गया है। गायका गौबर-गौमूत्र जलमें डालकर और उस पतले-पतले लेपसे मसौता (पौंछा लगानेवाला कपड़ा आदि) लेकर सारा आँगन लीपा गया है।सत्कार, पूजा आदि करके बड़े आदरसे भोजन परौसा गया है और घरवाले हवा कर रहे हैं। यह देखकर जाटनीने पूछा कि आपलोग ये सब क्या कर रहे हैं? तो घरवाले बोले कि हम अपने जीवका भला कर रहे हैं, संतोंकी सेवा करनेसे, संतोंका संग करनेसे-सत्संग करनेसे अपना(जीवात्माका) कल्याण होता है, मुक्ति होती है।
संत-महात्मा भी गीतीजीके पन्द्रहवें अध्यायका पाठ कर रहे हैं-
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
*अथ पञ्चदशोऽध्यायः*
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥१५- १॥
आदि पाठ पूरा करके (ब्रह्मार्पणम्…पत्रं पुष्पं फलं तोयम्…गीता(४/२४;९/२६;) आदि बोलकर भगवानके भोग लगा रहे हैं और प्रसाद पा रहे हैं)
प्रसाद पाकर 'जटाकटाह0'(श्री शिव ताण़्डवस्तोत्रम्) आदि बोलकर, (आचमन आदि करके) संत-महात्मा वापस पधार गये। वो जाटनी भी अपने घर आ गई।
एक दिन शीतकालमें उसके घरपर भी संत पधारे। तब उसने भी गौबर-गौमूत्रसे गाढा-गाढा आँगन लीपा (जिससे ठण्डी भी बढ गयी और संतोंको शीत लगने लग गई)।
बाकी काम करके जाटनी संतोंके हवा करने लगी (जिससे संतोंको ठण्ड ज्यादा लगने लग गई)। संत बोले कि हमको ठण्डी लग रही है, ठण्डसे मर रहे हैं-शीयाँ मराँ हाँ । तो जाटनी बोली कि आप चाहे मरौ या ठरौ , पर हमारे जीवका तो भला करो(कल्याण करो)-थे मरौ र ठरौ, पण म्हारे जीवरो तो भलो करो ।
-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के
दि.19931026/3.00 बजेके सत्संग-प्रवचनके आधार पर ।