शनिवार, 2 अगस्त 2014

३०१-४०१÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

        
                                               ||श्री हरिः||          

                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                     -:@ चौथा शतक (सूक्ति ३०१-४०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |
उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |
इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |
इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -  

सूक्ति-
३०१-

पहले जैसो मन करले भाया |
रज्जब रस्सा मूंजका पाया , न पाया ||

घटना-

एक बार संत रज्जबजी महाराज कहींसे आ रहे थे | मार्गमें एक मुञ्जका रस्सा पड़ा था जो किसी गाड़ीवानकी गाड़ीसे गिर गया होगा | रज्जबजी महाराजने सोचा कि इसको उठाकर लै चलें ; गाड़ीवाला मिल गया तो उसको दे-देंगे ; नहीं तो कपड़े ही फैलायेंगे (सुखायेंगे) | इस प्रकार रस्सा उठाकर कन्धे पर रख लिया और भजन करते हुए चलने लगे | भजनकी मस्तीमें रस्सा खिसकते-खिसकते नीचे गिर गया | बादमें पता लगा कि रस्सा तो गिर गया | रस्सेका गिरना मनको अच्छा नहीं लगा | तब वो बोले कि हे भाई ! रस्सा मिलनेसे पहले जैसा मन था , वैसा करले | यह समझले कि मूंजके रस्सेका  मिलना न मिलना ही था | पहले रस्सा था नहीं , आखिरमें रस्सा रहा नहीं | बीचमें आया और बीचमें ही चला गया ; इसमें तुम्हारा क्या गया ? |
(यह युक्ति कोई सब जगह लगालें , तो कितनी मौज हो जाय ) |

सूक्ति-
३०२-

सत मत छोड़ो हे नराँ सत छोड़्याँ पत जाय |
सतकी बाँधी लिच्छमी फेर मिलेगी आय ||

सूक्ति-
३०३-

कह, पढाई कितनीक करी ?
कह, घर खोवै जितनी |

सहायता-

जैसे कोई कपटसे किसीका घर अपने नाम कराले और उसको कहे कि हस्ताक्षर(दस्तखत) करदो और अगर वो दस्तखत  कर देता है तो अपना घर खो देता है | उसको पढना तो आता नहीं कि इसमें क्या लिखा है? क्योंकि उसने पढाई इतनी ही की है कि अपना नाम लिख सके(दस्तखत कर सके) | हस्ताक्षर(दस्तखत) कर देनेसे वो घर उसका हो जाता है और यह अपना घर खो बैठता है |

सूक्ति-
३०४-

सगळा बैठर सोवै (है) |

सूक्ति-
३०५-

छोटै कवै ज्यादा जीमणो (ह्वै) |

सूक्ति-
३०६-

बेमातानें सांसो पड़ियो |
जणाँ मिनखरूपमें ढाँडो घड़ियो | |
लगावती तो ही सींग अर पूँछ |
पण लगादी दाढी और मूँछ ||

सहायता-

बेमाता (विधाता,ब्रह्माजी) | सांसो (संशय-सन्देह,भूल) |

सूक्ति-
३०७-

पेट मोटो करोसा |

भावार्थ-

किसीका कोई नुक्सान हो जाता है तब उसको सहन करनेके लिये या माफ करनेके लिये कहा जाता है कि पेट बड़ा करो-पेट मोटो करोसा |

सूक्ति-
३०८-

सौरो जिमायौड़ो ,
अर दौरो कूट्यौड़ो भूलै कौनि |

सूक्ति-
३०९-

काँई काँटाँमें हाथ जावै है ? |

सूक्ति-
३१०-

भिणिया पण गुणिया कौनि |

भावार्थ-

पढा है, सीखा है; पर अनुभव नहीं किया है , ठीकसे विचार करके समझा नहीं है |

सूक्ति-
३११-

देखै न कुत्तो भुसै |

सूक्ति-
३१२-

रोयाँ राज कौनि मिलै |

सूक्ति-
३१३-

आज्या घट्टीवाळे घरमें ! |

सूक्ति-
३१४-

घोड़ा गणगौरनेंई नहीं दौड़सी तो कद दौड़सी ? |

सूक्ति-
३१५-

नर नानाणैं जाय (है) |

जैसे-

माँ पर पूत पिता पर घौड़ा |
बहुत नहीं तो थौड़ा थौड़ा ||

सूक्ति-
३१६-

पूत कपूत हू ज्यावै ,
पण माईत कुमाईत कौनि हुवै |

सूक्ति-
४१७-

घणाँई ऊँचा नीचा लिया ,
( पण बात मानी कौनि ) |

सूक्ति-
३१८-

मियाँ बीबी राजी ,
तौ क्या करेगा पाजी |

सूक्ति-
३२०-

काँखमें कटारी , अर चौरनें घूताँसूँ मारै |

सूक्ति-
३२१-

कमाऊ पूत बहाळा लागै |

शब्दार्थ-

बहाळा(प्यारा,बाळा,बाला ) |

सूक्ति-
३२२-

कह , धोळा आग्या (बड़ा-बूढा है ) |
कह ,टल्डाँरे घणाँही है (धौळा केश तो ) |

शब्दार्थ-

टल्डा (भेड़ें ) |

सूक्ति-
३२३-

जीवती माखी कियाँ गिटीजै ? |

सूक्ति-
३२४-

बाह्मण कह छूटै , अर बैल बह छूटै |

सूक्ति-
३२५-

राधमें छुरी चलावणो (ह्मारेसूँ नहीं हुवै ) |

सहायता-

राध (मवाद,जब घाव पक जाता है,तो उसमें रस्सी-मवाद भर जाती है , उस समय बड़ी पीड़ा होती है और उसमें कोई छुरी चलाता है तो यह बड़ी निर्दयता कहलाती है , भले आदमीसे ऐसा नहीं हो सकता,वो ऐसा नहीं कर सकता |

सूक्ति-
३२६-

घाटो अकलरो है |

सूक्ति-
३२७-

बड़ो टाबर आपरै घरैही आछो |

सूक्ति-
३२८-

कह , धूड़ बाउँ थारे लारै |
कह , हूँ काँई चीणी मौलासूँ ? ||

सूक्ति-
३२९-

ए लोहरा चिणा है |

सूक्ति-
३३०-

गुड़ गोबर हू ज्यासी |

सूक्ति-
३३१-

काँजररी कुत्ती कठै ब्यावै ? |

सूक्ति-
३३२-

चाटतोई लोई काढै है |

सूक्ति-
३३३-

मूँडैसूँ खायोड़ौ फुण्णाँसूँ निकळसी |

शब्दार्थ-

फुण्णासूँ ( नाकसे ) |

सूक्ति- ३३४-

ऐतो लेणिया देणिया है |

सूक्ति-
३३५-

कपूत बेटो खाँदमें काम आवै |

शब्दार्थ-

खाँदमें (काँधमें,मर जाने पर अर्थी उठानेके लिये कँधा देनेमें) |

सूक्ति-
३३६-

हर डावा हर जीवणा हर ही रूपारेळ |
राम भरोसै रामदास ठूँठाँ माहीं ठेल ||

शब्दार्थ-

रूपारेळ (एक कबरी चिड़िया, सकुनचिड़ी) |

सूक्ति-
३३७-

पान सड़ै घोड़ो अड़ै बिद्या बीसर जाय |
रोटी बळै अंगारमें कहो चेला किण भाय ||

(कह, गुरुजी ! उथली कौनि ) |

भावार्थ-

बिना उथलै पान सड़ जाता है, बिना उथलैे (बिना आवृत्ति किये ) विद्या विस्मृत हो जाती है और बिना उथलै अंगार पर रखी हुई रोटी जल जाती है ) |

सूक्ति-
३३८-

डीगो बड़ डगमगै मऊ माळवै जाय |
लिखिया खत झूठा पड़ै कहो चेला किण भाय ||

(कह, गुरुजी ! शाखा कौनि ) |

शब्दार्थ-

मऊ (माँ) | बिना शाखा (डालियों) के ऊँचा (लम्बा) बड़(वटवृक्ष) डगमगाता है , बिना शाखा (औलाद,बेटा पौता)के माँ को अकाल पड़ने पर मालवै जाना पड़ता है , बिना शाख (गवाह)के लिखा हुआ खत झूठा पड़ जाता है |

सूक्ति-
३३९-

जिनके पाँव न फटी बिवाई |
सो क्या जानै पीर पराई ||

सूक्ति-
३४०-

कह , पेट लियो थारो कठौतो ह्वै ज्यूँ |
कह, म्हारे तो अन्न इणमें ही पचै है,
काँई कराँ थारो घणो चौखो है तो ? ||

सूक्ति-
३४१-

कह , राण्डाँ रोवौ क्यूँ हो ये ?
कह , माँटीड़ा मरग्या |

कह ,म्हे हाँ नी ?
कह , मिनख कठै ?

सूक्ति-
३४२-

राज जाज्यो , पण रीत मत जाज्यो |

सूक्ति-
३४३-

हाकम चल्यो जाय (है), पण हुकम नहीं जावै (हुकम रह ज्यावै) |

सूक्ति-
३४४-

लाम्बी पहरा देस्यूँ !

भावार्थ-

लम्बी पहना दूँगा अर्थात् विधवा कर दूँगा |
(यहाँ कोई अभिमान और गुस्सेमें बोल रहा है ) |

सूक्ति-
३४५-

ठीकरी घड़ैनें फौड़े |

सूक्ति-
३४६-

माठो बळद तो बुचकारो ही चावै (है) |

सूक्ति-
३४७-

भूखाँरे भूखा पाँवणा बे माँगे , अर ए दै नहीं |
धायाँरे धाया पाँवणा ए देवै अर बे लै नहीं ||

सूक्ति-
३४८-

कही थी छानी कानमें मानी नहिं महाराज |
बानी पड़ी विवेकमें याँरे कारण आज ||

शब्दार्थ-

बानी (राख) |

सूक्ति-
३४९-

रुपयो स्वादनैं , कै बादनैं |

शब्दार्थ-

बादनैं (वाद विवादके लिये , लड़ाई-झगड़ेके लिये) |

सूक्ति-
३५०-

पाका पान तो झड़ण वाळा ही हुवै है |

सूक्ति-
३५१-

गरज थकाँ मन और है गरज मिटै मन और |
संतदास मनकी प्रकृति रहत न एकण ठौर ||

सूक्ति-
३५२-

खीच गळेरो , अर घी तळैरो (चौखो ह्वै है ) |

सूक्ति-
३५३-

कह , ओ तो बचन हैटोई कौनि पड़ण देवै |

शब्दार्थ-

हैटो (नीचो) |

सूक्ति-
३५४-

बाँट कर खाणा , अर बैंकुण्ठाँमें जाणा |

सूक्ति-
३५५-

अणहूत भाड़ै इण्डियोई रूंख |

शब्दार्थ-

अणहूत (अभाव) | भाड़ै (बदलेमें) |

सूक्ति-
३५६-

अणहूत (-अभाव ) भाटेसूँभी काठी |

सूक्ति-
३५७-

[औ संसार तो ]
काजीजीरी कुत्ती है |

घटना-

एक काजीजी थे | उनके एक कुतिया थीं | एक दिन वो मर गयी तो लोग बैठनेके लिये आये कि आपकी कुतिया मर गयी और जब काजीजी मर गये ,तो कोई नहीं आया | जब काजीजी थे , उनके पासमें अधिकार था , तब स्वार्थ सधनेकी आशासे कुतियाकी मौतके लिये भी शौक जताया,सहानुभूति दिखायी और अब काजीजी मर गये तो स्वार्थ सधनेकी आशा नहीं रही | अब आनेसे क्या फायदा? ऐसे ही संसारके स्वार्थी लोग हैं | पासमें कुछ होता है , तब तक तो मतलब रखते हैं और जब पासमें कुछ नहीं होता तब कोई मतलब नहीं रखते |

सूक्ति-
३५८-

बूरयौड़ो मतीरो है |

सूक्ति-
३५९-

गूदड़ीके लाल |

सूक्ति-
३६०-

शंख , अर खीर भरियौड़ो |

सूक्ति-
३६१-

घी तो अँधेरेमें भी छानो कौनि रेवै |

सूक्ति-
३६२-

माजनों खोयो है (गमायो है ) |

सूक्ति-
३६३-

भागते चौररा झींटा |

शब्दार्थ-

झींटा (बाल,केश,जटा) |

सूक्ति-
३६४-

गोहरी मौत आवै जणा थौरीरी खाल खड़खड़ावै |

शब्दार्थ-

थौरी (भील) |

सूक्ति-
३६५-

किया किया हरिजीरा देखो |
अर पीछे तुम कर लेणा लेखो ||

सूक्ति-
३६६-

घुरियो तो घमंड , अर फरियो तो फतै |

सूक्ति-
३६७-

गाजररी पूंगी है ,
बाजी जितै (तो) बजाई , नहीं तो तौड़ खाई |

सूक्ति-
३६८-

जोगीवाळा जटा है |

सूक्ति-
३६९-

पनघट ऊपर पनघटै पनघट वाको नाम |
कह कवि पन कैसे रहै जहाँ पनहारिनको धाम ||

शब्दार्थ-

पन (प्रण,प्रतिज्ञा) |

सूक्ति-
३७०-

मरै टार (-घोड़ा) या लाँघे खाई |

सूक्ति-
३७१-

पौर मरी सासू , अर ऐस आया आँसू |

शब्दार्थ-

पौर (गई साल) | ऐस (इस साल-वर्ष) |

सूक्ति-
३७२-

चिड़ियाँसूँ खेत छानो थौड़ोही है |

सूक्ति-
३७३-

मँगताँसूँ गळी छानी थौड़ेही है |

सूक्ति-
३७४-

(माँ-बेटा,भक्त-भगवन्त आदिका सम्बन्ध)
काँई धौयाँ ऊतरै है ?

सूक्ति-
३७५-

कंथो एक , अर दिसावराँ घणी |

शब्दार्थ-

दिसावर (देश-विदेश) | कंथ (कन्त,पति) |

सूक्ति-
३७६-

हूँई राणी तूँई राणी ,
कुण घाले चूल्हैमें छाणी |

सूक्ति-
३७७-

पहले आवै उणरे गौरी गाय ब्यावै |

सूक्ति-
३७८-

ऊँखळमें सिर दियो है तो धमकेसूँ काँई डरणो |

सूक्ति-
३७९-

भौगना फूटा है सावणरे महीनें गधेरा फूटे ज्यूँ |

शब्दार्थ-

भौगना (मष्तिष्क,दिमागका तिरस्कार सूचक नाम) |

सूक्ति-
३८०-

केई पड़े केई तीसळै केइयक लंघे पार |
किण किण अवगुण ना किया वय चढन्ती बार ||

शब्दार्थ-

तीसळै (फिसल गये) | वय (अवस्था) |

सूक्ति-
३८१-

रातै जम्बुक बोलियो पिया जो मानी रीस |
जे कौवेरो कहयो करूँ (तो) नौ तेरह बाईस ||

शब्दार्थ-

जम्बुक (सियार,स्याळ) | घटना शायद ऐसे है कि एक स्त्री पशु-पक्षियोंकी बोली (भाषा) समझती थीं | एक बार रातमें सियार बोला | उसकी बोली समझकर वो बाहर गई और नौ मुहरें आदि लै आयीं; परन्तु रातमें बाहर निकल जानेसे पतिने गुस्सा कर लिया | दूसरे दिन कौएकी बोली समझ कर वो कहती है कि अगर इसका कहना मानूँ तो तेरह मुहरें और मिल जाय | इस प्रकार नौ और तेरह - बाईस मुहरें हो जाय ) |

सूक्ति-
३८२-

भूवारे मिस दैणो ,
अर भतीजैरे मिस लैणो |

सूक्ति-
३८३-

साँची कहवै जणाँ माँ भी माथैमें देवेै |

सहायता-

एक विधवाको काजल,टीकी आदिसे शृंगार करते देख कर उसके बेटेने कहा कि माँ ! विधवा तो काजल आदि नहीं लगाया करती है ; फिर आप क्यों लगा रही हो? यह सच्ची बात सुन कर माँ ने बालकके सिरमें मारी (थप्पड़ लगायी) |

तीतर पंखी बादळी विधवा काजळ रेख |
बा(आ) बरसै बा घर करै इणमें मीन न मेख ||

सूक्ति-
३८४-

खरचरो भाग मोटो है |

सूक्ति-
३८५-

थारो मन है तो म्हारो काँई धन है
[जो खर्च हो जाय] |

सूक्ति-
३८६-

खार समँद बिच अमरित बेरी |

शब्दार्थ-

अमरित (अमृत) | बेरी (छौटा कुआँ,कुईं,बेरी ) |

सूक्ति-
३८७-

लंकामें बिभीषणरो घर |

सूक्ति-
३८८-

कोरो हिरणाँ लारे दौड़ै है |

सूक्ति-
३८९-

अन्धेरो ढौवे है |

सूक्ति-
३९०-

ऊछळ पाँती छौटेरी |

सूक्ति-
३९१-

गोतरी गाळ तो भेंसनेंई भारी |

सूक्ति-
३९२-

उदळतीनें दायजो कुण देवै |

भावार्थ-

ऊदळती (माता पिताकी बिना मर्जीके जब कन्या अपनी मर्जीसे जल्दीमें किसीके साथ जाती है,शादी करती है ,तब उसको दहेज थौड़े ही दिया जाता है ! क्योंकि ऊदळतीको दहेज कौन दे ! ) |

सूक्ति-
३९३-

घाततेरो (-घालतेरो) घी लूखो |

सूक्ति-
३९४-

घणी भेळी करके काँई राबड़ी राधस्याँ |

सूक्ति-
३९५-

कोई गावै होळीरा कोई गावै दिवाळीरा |

सूक्ति-
३९६-

तुम जो निशिदिन देतहौ द्वार द्वार सब अयन |
साधू पूछे सेठसे नीचे किसविध नयन ||

सूक्ति-
३९७-

देनेवाला और है पूरत है दिन रैन |
लोग नाम मेरो धरै यातें नीचे नैन ||

सूक्ति-
३९८-

गृहस्थ तो टके बिना टकैरो ,
अर साधू टकेसूँ टकैरो |

सूक्ति-
३९९-

सूधी (या सोरी) बैठी डूमणी घरमें घाल्यो घौड़ो |

सूक्ति-
४००-

छाछ तो छाँई माँईं ,
अर राबड़ी फिळै ताँईं |
घाट पाँवडा साठ ,
अर, रोटीरी ऊमर मोटी ||

सूक्ति-
४०१-

भीखमेंसूँ भीख देवै , तीन लोक जीत लेवै |

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

गुरु कैसा हो?-"साधक-संजीवनी"(लेखक-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) १३।७ से।

                         ॥श्रीहरि:॥

(गुरु कैसा हो?)

साधकको शुरुमें ही सोच-समझकर आचार्य,
संत-महापुरुषके पास जाना चाहिये।

आचार्य (गुरु) कैसा हो ?

इस सम्बन्धमें ये बातें ध्यानमें रखनी चाहिये ----

(१) अपनी दृष्टिमें जो वास्तविक बोधवान्, तत्त्वज्ञ दीखते हों ।

(२) जो कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि साधनोंको ठीक-ठीक जाननेवाले हों ।

(३) जिनके संगसे, वचनोंसे हमारे हृदयमें रहनेवाली शंकाएँ बिना पूछे ही स्वतः दूर हो जाती हों ।

(४) जिनके पास रहनेसे प्रसन्नता, शान्तिका अनुभव होता हो ।

(५) जो हमारे साथ केवल हमारे हितके लिये ही सम्बन्ध रखते हुए दीखते हों ।

(६) जो हमारेसे किसी भी वस्तुकी किञ्चिन्मात्र भी आशा न रखते हों ।

(७) जिनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ केवल साधाकोंके हितके लिये ही होती हों ।

(८) जिनके पासमें रहनेसे लक्ष्यकी तरफ हमारी लगन स्वतः बढ़ती हो ।

(९) जिनके संग, दर्शन, भाषण, स्मरण आदिसे हमारे दुर्गुण-दुराचार दूर होकर स्वतः सद्गुण-सदाचाररूप दैवी सम्पति आती हो ।

(१०) जिनके सिवाय और किसीमें वैसी अलौकिकता, विलक्षणता न दीखती हो।

ऐसे आचार्य,संतके पास रहना चाहिये और केवल अपने उध्दारके लिये ही उनसे सम्बन्ध रखना चाहिये।वे क्या करते हैं,क्या नहीं करते? वे ऐसी क्रिया क्यों करते हैं? वे कब किसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं? आदिमें अपनी बुध्दि नहीं लगानी चाहिये अर्थात् उनकी क्रियाओंमें तर्क नहीं लगाना चाहिये।साधकको तो उनके अधीन होकर रहना चाहिये,उनकी आज्ञा,रुखके अनुसार मात्र क्रियाएँ करनी चाहिये और श्रध्दाभावपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिये।अगर वे महापुरुष न चाहते हों तो उनसे गुरु-शिष्यका व्यावहारिक सम्बन्ध भी जोड़नेकी आवश्यकता नहीं है।हाँ,उनको हृदयसे गुरु मानकर उनपर श्रध्दा रखनेमें कोई आपत्ति नहीं है।

अगर ऐसे महापुरुष न मिलें तो साधकको चाहिये कि वह केवल परमात्माके परायण होकर उनके ध्यान,चिन्तन आदिमें लग जाय…

"साधक-संजीवनी"

(लेखक-
परम श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजीमहाराज)

तेरहवें अध्यायके सातवें श्लोककी टीका(पृष्ठ ८७२) से।
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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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सोमवार, 28 जुलाई 2014

पता-(अन्तिम प्रवचनका)।

[श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजसे अन्तिम दिनोंमें यह प्रार्थना की गयी कि आपके शरीरकी अशक्त अवस्थाके कारण प्रतिदिन सत्संग-सभामें जाना कठिन पड़ता है।इसलिये आप विश्राम करावें।जब हमलोगोंको आवश्यकता मालुम पड़ेगी तब आपको हमलोग सभामें लै चलेंगे और कभी आपके मनमें सत्संगियोंको कोई बात कहनेकी आ जाय तो कृपया हमें बता देना,हमलोग आपको सभामें लै जायेंगे।
ऐसा लगा कि श्री महाराजजीने यह प्रार्थना स्वीकार करली।

इस प्रकार जब भी परिस्थिति अनुकूल दिखायी देती तब समय-समय पर आपको सभामें लै जाया जाता था।

एक दिन (परम धामगमनसे तीन दिन पहले २९ जून २००५ को)
श्रध्देय श्री स्वामीजी महाराजने अपनी तरफसे (अपने मनसे) फरमाया कि आज चलो अर्थात् आज सभामें चलें।सुनकर
तुरन्त तैयारी की गयी।
पहियोंवाली कुर्सी पर आपको  विराजमान करा कर सभामें लै जाया गया और जो बातें आपके मनमें आयीं,वो सुनादी गयीं तथा वापस अपने निवास स्थान पर पधार गये।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे और प्रवचन हुए।

इस प्रकार यह समझमें आया  कि जो अन्तिम बात सत्संगियोंको कहनी थी,वो उस दिन कहदीं।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे थे परन्तु दूसरोंकी मर्जीसे पधारे थे।अपनी मर्जीसे तो जो आवश्यक लगा, वो पहले दिन कह चूके।दूसरे दिन (उन बातों पर) प्रश्नोत्तर हुए।

वो दौनों दिनोंवाले प्रवचनोंके भाव यहाँ लिखे जा रहे हैं-]

अन्तिम प्रवचन-

(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, विक्रम सम्वत-२०६२, तदनुसार ३ जुलाई, २००५ को परमधाम पधारनेके पूर्व दिनांक २९-३० जून, २००५ को गीताभवन, स्वर्गाश्रम(हृषीकेश)में दिये गये अन्तिम प्रवचन) ।

[पहले दिन-]

एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम, बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरहकी कोई इच्छा मत रखो । न परमात्माकी, न आत्माकी, न संसारकी, न मुक्तिकी, न कल्याणकी, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब जगह शान्तरूपसे परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न रहे, किसी तरहकी कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्माकी प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता हो जाय !

यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओंका पूरा करना हमारे वशकी बात नहीं है, पर इच्छाओंका त्याग कर देना हमारे वशकी बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मामें होगी । आपको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जायगा । कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतनेमें ही पूरी बात हो गयी ! इच्छा करनेसे ही हम संसारमें बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मामें स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।

प्रत्येक कार्यमें तटस्थ रहो । न राग करो, न द्वेष करो ।

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥
(दोहावली ९४)

एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है । क्रिया और पदार्थ दोनोंसे संबंध-विच्छेद करके एक भगवान्‌के आश्रित हो जायँ । भगवान्‌के शरण हो जायँ, बस । उसमें आपकी स्थिति स्वतः है । ‘भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे परमात्मामें आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्नमें एक स्त्रीका बालक खो गया । वह बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथमें ही सोया है‒ तात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!
‒२९ जून २००५, सायं लगभग ४ बजे

  +    ****       ****       ****     ×

[दूसरे दिन-]

श्रोता‒
कल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनोंमें कौन ज्यादा फायदा करता है ?

स्वामीजी‒
मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं, मैं और किसीका नहीं हूँ, और कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छारहित होना और चुप होना‒दोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, (न) भोगोंकी, न मोक्षकी, न प्रेमकी, न भक्तिकी, न अन्य किसीकी ।

श्रोता‒
इच्छा नहीं करनी है, पर कोई काम करना हो तो ?

स्वामीजी‒
काम उत्साहसे करो, आठों पहर करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बातको ठीक तरहसे समझो । दूसरोंकी सेवा करो, उनका दुःख दूर करो, पर बदलेमें कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत रखो ।

सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मामें ही होगी । जब सब परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किसकी करें ? संसारकी इच्छा है, इसलिये हम संसारमें हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मामें हैं ।

‒ ३० जून २००५, दिनमें लगभग ११ बजे ‒

(श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजकी
गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित
‘एक सन्तकी वसीयत’
नामक पुस्तक,पृष्ठ १४,१५ से)।

पता-सत्संग-संतवाणी. श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

रविवार, 27 जुलाई 2014

अन्तिम- प्रवचन– श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। (दोनों प्रवचनोंका यथावत् लेखन)

              ।।श्रीहरि:।। 

अन्तिम- प्रवचन (–श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।  
 (दिनांक २९ जून २००५, दुपहर ४ बजे और ३० जून २००५, सुबह ११ बजेवाले– दोनों प्रवचनोंका यथावत् लेखन)। 

  { प्रसंग-  

 श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजसे अन्तिम दिनोंमें यह प्रार्थना की गयी कि आपके शरीरकी अशक्त अवस्थाके कारण प्रतिदिन सत्संग-सभामें जाना कठिन पड़ता है। इसलिये आप विश्राम करावें। जब हमलोगोंको आवश्यकता मालुम पड़ेगी, तब आपको सभामें ले चलेंगे और कभी आपके मनमें सत्संगियोंको कोई बात कहनेकी आ जाय, तो कृपया हमें बता देना, हमलोग आपको सभामें ले जायेंगे। 
उस समय ऐसा लगा कि श्री स्वामीजी महाराज ने यह प्रार्थना स्वीकार करली। 
   इस प्रकार जब भी परिस्थिति अनुकूल दिखायी देती, तब समय- समय पर आपको सभामें ले जाया जाता था। 
   एक दिन (परम धाम गमन से तीन दिन पहले– २९ जून २००५ को) श्री स्वामीजी महाराजने अपनी तरफसे (अपने मनसे) फरमाया कि आज चलो अर्थात् आज सभामें चलो। सुनकर तुरन्त तैयारी की गयी।
पहियोंवाली कुर्सी पर आपको  विराजमान करवा कर सभामें ले जाया गया और जो बातें आपके मनमें आयीं, वो सुनादी गयीं तथा वापस अपने निवास स्थान पर पधार गये। 
   इस प्रकार यह समझ में आया कि जो आवश्यक और अन्तिम बात सत्संगियोंको कहनी थी, वो उस (पहले) दिन कह दीं। पहले दिन अपनी मर्जी से पधारे थे और दूसरे दिन दूसरोंकी मर्जीसे। दूसरे दिन (उन पहले दिन वाली बातों पर) प्रश्नोत्तर हुए तथा अपनी बात भी कही }।   
 
 प्रवचन नं० १ ( 20050629_1530 )। आषाढ़ कृष्ण ८, विक्रम संमत २०६२, सायं ४ बजे– २९ जून २००५। 

  कुछ भी न करनेसे परमात्मामकी प्राप्ति 
 (–श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज)। 

            ■□मंगलाचरण□■
[ पहले मंगलाचरण किया और उसके बाद में श्री स्वामी जी महाराज बोले -  ] 
  (0 मिनिट से) ●•• एक बात बहुत श्रेष्ठ (है ), बहुत श्रेष्ठ बात, है बड़ी सुगम, बड़ी सरल। एक बात है, वो कठिण है– कोई इच्छा, किसी तरह की इच्छा मत रखो। किसी तरह की (1 मिनिट.) कोई भी इच्छा मत रखो। ना परमात्मा की, ना आत्मा की, ना संसार की, ना आपनी (अपनी) मुक्ति की, कल्याण की इच्छा, कुछ इच्छा, कुछ इच्छा मत रखो और चुप हो ज्यावो(जाओ), बस। पूर्ण प्राप्त। कुछ भी इच्छा न रख कर के चुप– शाऽऽऽऽऽन्त !!।
क्योंकि परमात्मा सब जगह, शाऽऽऽन्तरूप से परिपूर्ण है। स्वतः, स्वाभाविक। सब ओर, सब जगह; परिपूर्ण [है])। कुछ भी न करे, कोई इच्छा नहीं, कोई डर नहीं, किसी तरह की कोई कामना नहीं। (2 मिनिट.) चुप हूग्या(हो गये)। बऽस। एकदम परमात्मा की प्राप्ति हू ज्याय (हो जाय)। तत्त्वज्ञान है वो पूर्ण। कोई इच्छा [नहीं]। क्योंकि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती। यह सब का अनुभव है। सबका यह अनुभव है क (कि) कोई इच्छा पूरी होती है, कोई इच्छा पूरी नहीं होती। यह कायदा (है)।
पूरी हूणी(होनी) चहिये क नईं(नहीं) हुई [आदि] किं– कुछ नहीं करणा अर पूरी न होणेपर भी कुछ नहीं करना। कुछ भी चाहना नहीं, कुछ चाहना नहीं र(और) चुप। एकदम परमात्मा की प्राप्ति। (3 मिनिट.) ख्याल में आयी? कोई इच्छा नहीं, कहीं चाहना नहीं। परमात्मा में स्थिति हो गई पूरी आपकी। आपसे आप– स्वतः। स्थिति है। है, पहले से है। वह अनुभव हो ज्यायगा। कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं, कुछ करणा नहीं, कहीं जाणा नहीं, कहीं आणा (-जाणा) नहीं, कुछ अभ्यास नहीं ॰(–कुछ नहीं)। इतनी ज (इतनी- सी ही) बात है, इतनी बात में पूरी– पूरी हो गई। अब (4 मिनिट.) शंका हो तो बोलो। 
    कोई इच्छा मत रखो। परमात्मा की प्राप्ति हो ज्यायगी। परमात्मा की प्राप्ति, एकदम। क्योंकि परमात्मा सब जगह परिपूर्ण (है), समान रीति से, ठोस है—  
भूमा अचल [शाश्वत अमल] सम ठोस है तूँ सर्वदा। ठोस है ठोस। "है"। कुछ भी इच्छा मत करो। एकदम परमात्मा की प्राप्ति। एकदम। बोलो! शंका हो तो बोलो। कोई इच्छा (नहीं)। अपणी इच्छा से ही संसार में हैं। अपणी इच्छा छोड़ी॰...(सबसे सुखी)। (5 मिनिट.) पूर्ण है स्थिति, स्वतः, स्वाभाविक। और जो काम हो, उसमें तटस्थ रहो, ना राग करो, ना द्वेष करो– 
तुलसी ममता रामसों समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख दास भये भव पार।
                                       (दोहावली 94) 
   एक भगवान है!! कोई इच्छा (नहीं), किसी तरह की इच्छा। कोई संसार की क, परमात्मा की क, आत्मा की क, किसीकी क, मुक्ति की क, कल्याण की क, प्रेम की क– कुछ इच्छा (नहीं)। बऽस– चुप। पूर्ण है प्राप्ति। (6 मि.) क्यों(कि) परमात्मा है। कारण हैऽऽ (कि) एक करणा (करना, क्रिया) र एक आश्रय– एक क्रिया र एक पदार्थ। एक क्रिया है, एक पदार्थ है। ये प्रकृति है। क्रिया और पदार्थ – ये छूट ज्याय। कुछ नहीं करणा, चुप रहे। अर(और) भगवान के, भगवान के शरण हो गये– परमात्मा के आश्रय। कुछ नहीं– करणा कुछ नहीं। (7) परमात्मा में हैं– यह चिन्तन नहीं, इसमें स्थिति आपकी है। है। है स्वतः, चिन्तन नहीं। है एकदम परिपूर्ण। परमात्मा में ही स्थिति है। (8) एकदम। एकदम। परमात्मा सब- शान्त है। "है" "है" वह "है" उस "है" में स्थित हो ज्याओ(जाओ)। "है" में स्थिति, स्वभाविक, स्वभाविक है, "है" में स्थिति, सबकी स्वाभाविक— कुछ भी इच्छा और एक ये आश्रय–दो छोङने से। (9) पद आता है क नीं (नहीं!)– एक बाळक, एक बाळक खो गया। एक माँ का बाळक खो गया। सुणाओ, वोऽऽ, वो पद सुणो। श्रोता– (बजरंगलालजी सोनी) हाँ। 
श्री स्वामी जी महाराज– बालक खो गया, व्याकुल हो गयी अर जागर देख्या (जगकर देखा) तो वहीं सोता है, साथ में ही। 
श्रोता– (बजरंगलालजी सोनी) ऊँऽऽ, ठीक है, हाँ हाँ (– सुनाते हैं)।
   [–वो पद सुनानेके लिये बजरँगलालजी शायद अब पुस्तक में ढूँढते हुए बोल रहे हैं ]।
श्री स्वामी जी महाराज – बहोत (बहुत) बढ़िया पद है भाई। कबीरजी महाराज का है॰... । (वाणीका यथावत-लेखन)। 
   [जो हुकम– कह कर पद गाना शुरु कर दिया गया]। 
   [सुनाया गया पद—] 
परम प्रभु अपने ही महुँ पायो। 
जुग जुग केरी मेटी कलपना सतगुरु भेद बतायो।।टेर।। 
ज्यों निज कण्ठ मणि भूषण को जानत ताहि गमायो। 
आन किसी ने देखि बतायो मन को भरम मिटायो।।१।। 
ज्यों तिरिया सपनें सुत खोयो जानत जिय अकुलायो। 
जागत ताहि पलँग पर पायो कहुँ ना गयो नहिं आयो।।२।। 
मिरगन पास बसे कस्तूरी ढूँढ़त बन बन धायो।  
निज नाभी की गंध न जानत हारि थक्यो सकुचायो।।३।। 
कहत 'कबीर' भई गति सोई ज्यों गूँगो गुड़ खायो। 
ताको स्वाद कहे कहु कैसो मन ही मन मुसकायो।।४।। ●
   ["श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज" "कबीर जी महाराज" के इस भजनका भाव अपने प्रवचनों में कई बार बोलते थे और कई बार यह भजन गाया भी जाता था। यह भजन इतना लोकप्रिय और रहस्यमय है कि इस के अनेक पाठभेद और रूप हो गये। लोगों ने शब्द आदि बदलकर इसके अनेक रूप बना दिये, जिससे यह समझना कठिन हो गया कि "कबीर जी महाराज" का वास्तविक–"मूल पद" कौन सा है? लोगों की सुविधा के लिये वो "मूल पद" नीचे लिखा जा रहा है। यह भजन श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक ("तत्त्वज्ञान कैसे हो?") में लिखा हुआ है। पुस्तक के लेख का नाम है- "सबसे सुगम परमात्मप्राप्ति"। श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक "साधन-सुधा-सिन्धु" (पृष्ठ १५०) में भी यह पद आया है। ] 
                   [मूल पद- ] 
अपन पौ आपहि में पायो। 
शब्द-हि-शब्द भयो उजियारा, सतगुरु भेद बतायो॥ टेर।। 
जैसे सुन्दरी सुत लै सूती, स्वप्ने गयो हिराई। 
जाग परी पलंग पर पायो, न कछु गयो न आई॥१।। 
जैसे कुँवरी कंठ मणि हीरा, आभूषण बिसरायो। 
संग सखी मिलि भेद बतायो, जीव को भरम मिटायो॥२।। 
जैसे मृग नाभी कस्तूरी, ढूँढत बन बन धायो। 
नासा स्वाद भयो जब वाके, उलटि निरन्तर आयो॥३।। 
कहा कहूँ वा सुख की महिमा, ज्यों गूंगे गुड़ खायो। 
कहै कबीर सुनो भाई साधो, ज्यों-का-त्यों ठहरायो॥४।।  
                     ●•• 
श्री स्वामी जी महाराज– [जहाँ आप हो] वहीं चुप हो ज्याओ। वहाँ परमात्मा पूरे हैं। जहाँ आप हो वहाँ ही चुप हो ज्याओ। वहाँ परमात्मा पूरे हैं पूरे, पूरे परमात्मा। जहाँ आप हैं, वहाँ ही चुप हो ज्याओ, पूरे परमात्मा। ख्याल में आया? कीर्तन सुणा[दे थोङा]। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)। ■ 
[सुनाया गया कीर्तन–
हरेराम हरेराम राम राम हरे हरे। 
हरेकृष्ण हरेकृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। 
हरेराम हरेराम राम राम हरे हरे। 
हरेकृष्ण हरेकृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। 
×                    ×                     × 
सियावर रामचन्द्र की जय, मोर मुकुट बंशीवालेकी जय। श्री गंगा मैयाकी जय। 
                 ■●■  
प्रवचन नं०२ ( 20050630_1100_QnA )। आषाढ़ कृष्णा नवमी, विक्रम संवत २०६२। दिनांक ३०|६|२००५, सुबह ११ बजे, गीताभवन ऋषिकेश)।
इच्छा-त्यागसे परमात्मामें स्थिति
(–श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज)। 
   { आज श्री स्वामी जी महाराज सभा में आकर विराजमान हुए। कल की बातों के अनुसार एक सज्जन (जुगलजी धानुका) ने प्रश्न पुछवाया। प्रश्नकर्त्ता की उस बात को बिचौलिया (डुँगरदास राम) अब श्रीस्वामीजी महाराज को सुना रहा है- } 
प्रश्न- (0 मिनिट से)●•• [एक सज्जन पूछ रहे हैं कि] - कोई चाहना नहीं रखना, (यह) आपने कल बताया था। तो इच्छा छोड़ने में और चुप रहने में, इनमें– दोनों में, ज्यादा कौन फायदा करता है?। 
   [ अभी बिचौलिये और उसकी बातों की तरफ श्रीस्वामीजी महाराज की रुचि नहीं है। इसलिये वे अपनी तरफ से, अपनी बात कह रहे हैं- ]
   (१) मैं भगवान का हूँ, (२) भगवान मेरे हैं। (३) मैं और किसी का नहीं हूँ (४) और कोई मेरा नहीं है। 
प्रश्न – चुप साधन में और इच्छा रहित होने में कोई फर्क है? चुप साधन करना और इच्छा रहित होना ... । 
  [ श्री स्वामी जी महाराज प्रश्नकर्त्ता के एक ही शब्द (इच्छा) को लेकर पुनः अपनी बात आगे बढाते हुए कह रहे हैं- ] 
श्री स्वामी जी महाराज– एक इच्छा ही, एक ही हो इच्छा। 
प्रश्न- दोनों बातें एक ही है? (1 मिनिट•) 
श्रीस्वामीजी महाराज– एक ही है, एक ही है– कुछ भी नीं चाहिये। ना भोगों री (की), ना मोक्ष री –कुछ भी इच्छा नी॔ करणा (नहीं करना)। और सब करो। कुछ भी इच्छा न करणी– कुछ भी इच्छा नीं करणा। ना प्रेम की र, ना भक्ति की, ना मुक्ति की, ना और कोई, संसार की, ए रे(इस के) बादमें कोई नहीं– इच्छा कोई करणी ईं(ही) नीं(नहीं)। 
बिचौलिया – इच्छा नहीं करणी पर काम, कोई काम करणा हो तो?
श्रीस्वामीजी महाराज – काम करो।
बिचौलिया – काम भले ही करो।
श्रीस्वामीजी महाराज – काम करो, उत्साह से, आठ पोहर (पहर) करो। (2 मिनिट•) इण बातने समझो मुको (इस बात को समझो‐ मैं कहूँ)। ठीक समझो (इसको)– कोई इच्छा नहीं। अङचन आवे जो बताओ! बाधा आवे जो बताओ! (जो बाधा आती हो, वो बताओ)। 
बिचौलिया – आप (प्रश्नकर्त्ता) कह रहे हैं (कि) काम तो करो और कुछ इच्छा मत रखो। तो इच्छा का मतलब उसका फल नहीं चाहना? 
श्री स्वामी जी महाराज– [अस्वीकार करते हुए॰(इयूँ ना – ऐसे  नहीं)] दूसरोंका दुख दूर करणो– दूसरों का दुःख दूर करणा, आई जैसी सेवा करणी (जैसी आपके सामने सेवा आई हो,  जैसी आपको करनी आई, वो सेवा करना)। (और) चाहना कोई नहीं करणी। 
प्रश्न – और (3 मिनिट•)  चाहना से मतलब क्या? उसके, उस कर्म का फल नहीं चाहना? सेवा का फल नहीं चाहना- यही चाहना छोड़ना है क्या? चाहना नहीं रखने का क्या तात्पर्य है? 
श्रीस्वामीजी महाराज– चाहना, कोई चाहना नहीं॰ (हो)– इयूँ मिले, मिल ज्याय, मुक्ति हो ज्याय,  कल्याण हो ज्याय, उद्धार हो ज्याय क, नहीं हो ज्याय– कुछ नहीं।  
बिचौलिया – सेवा, सेवा करते रहें और चाहना नहीं रखे, कि हम को बदले में कुछ मिले। 
श्रीस्वामीजी महाराज – सेवा कर दो, वो नीं करे (सेवा न करो) तो चुप रह ज्याओ। ऐकान्त में रहो, चुप रहो। बोलो। 
बिचौलिया – कोई कहीं नौकरी करता है, तो वो नौकरी करे।
श्रीस्वामीजी महाराज – हाँ। 
बिचौलिया – और फल की चाहना नहीं करे।
श्रीस्वामीजी महाराज – हाँ, चाहना नहीं करे।
   [श्री स्वामीजी महाराज के स्वर से ऐसा लगता है कि नौकरी, तनखाह आदि दूसरी बातोंके विस्तार में उनकी रुचि नहीं है ]।  
बिचौलिया – और तनखा भले ही लेवो। [जवाब में श्री स्वामी जी महाराज कुछ नहीं बोले]  (4 मिनिट•) वो तनखा तो भले ही लेवोऽऽ। 
श्रीस्वामीजी महाराज – लेवो भले ही। इच्छा नहीं राखणी। —
बिचौलिया – इच्छा नहीं रखनी। 
प्रश्न – कह, इसका तात्पर्य– सब प्रकार से, भीतर से खाली होना ही है?। 
श्रीस्वामीजी महाराज–  हाँ, जहाँ है... देखो! सार बात– जहाँ आप है, वहाँ परमात्मा है। आप मानो क नीं? (मानते हो कि नहीं? ); क्योंकि कुछ नहीं करोगे, कोई इच्छा नहीं, तो परमात्मा में ही स्थिति हो गई या (यह)। और कहाँ (होगी?॰)। आप जहाँ है, वहीं चुप हो ज्याओ। कुछ नहीं चाहो॰ ...  (5 मिनिट•) परमात्मा में स्थिति हो गयी। (हम हैं) तो वहाँ परमात्मा पूर्ण है। जहाँ आप है, वहाँ पूर्णपरमात्मा पूर्ण है। कोई इच्छा नहीं। हर(और) बाधा नहीं है। एक इच्छामात्र छोङदो। ना भुक्ति (भोग) की इच्छा रखो, (ना) मुक्ति की क, दर्शनों की क,  परिवार की क, कल्याण की क –कुछ भी॰ (इच्छा मत रखो)। कोई इच्छा नहीं रखोगे अर॰ [चुप हो जाओगे तो] वहाँ स्थिति परमात्मा में ही होगी; क्योंकि परमात्मा में इच्छा है नहीं। सब परमात्मा ही है (6 मि•), इ‌च्छा किसकी करे? अर (और) परमात्मा हमारे (हैं), ओर (दूसरे) किसकी इच्छा करें? समझ में आई कि नीं आई– पतो (पता) नहीं। 
समझ में नीं आई तो बोलदो। क्या, क्या समझ में नईं(नहीं) आयी। 
   [ श्रोताओंकी तरफसे जवाब न आनेपर उनसे बिचौलिया बोला कि बात समझ में आ गई क्या? इनको बातें करते देखकर और जवाब न पाकर श्री स्वामी जी महाराज [जो भी सुन सकते हों, उनके लिये] बोले–] 
  ... काच सूँ, अठे सुणीजे क नीं सुणीजे, काच सूँ?(यहाँ सुनायी पङता है कि नहीं सुनायी पङता, काँच के कारण?) [अन्दर आकर सुना सकते हैं] अठे खाली है ही। 
    [जहाँ तख्त के ऊपर श्रीस्वामीजी महाराज विराजमान हैं, उसके चारोंओर (कमरेकी तरह) पारदर्शी शीशे(काँच) लगे हुए हैं जो ठण्डीके दिनोंमें, ठण्डसे रक्षाके लिये लगाये थे। वे अभी भी मौजूद हैं। ऐसा लगता है कि बीचमें काँच होनेके कारण श्री स्वामी जी महाराज ने कहा कि प्रश्नकर्ताकी बात यहाँ सुनायी पङती है कि नहीं? अगर नहीं सुनाई पङती है तो यहाँ आकर सुना सकते हैं। यहाँपर जगह खाली है ही। बिचौलिये ने भी समर्थन किया कि कुछ कहना हो तो [कह सकते हैं]। जवाब में कोई बोला नहीं। थोङी देर बाद में श्री स्वामी जी महाराज उसी विषय को वापस कहने लग गये–] 
आप बताओ स्थिति कहाँ होगी आपकी? (7 मिनिट•)  परमात्मा में ही है “स्थिति”। संसार की इच्छा है, इस वास्ते संसार में है (स्थिति)। कोई तरह की इच्छा नहीं है (तो) परमात्मा में स्थिति (है)। मनन करो, फिर शंका ह्वे तो बताओ– पाछे(वापस) बोलो। 
बिचौलिया – [ये कहते हैं] कि इसका तात्पर्य मैं यह समझा हूँ कि होनेपन में स्थित रहे और कोई काम सामने आवे तो कर दे। 
स्वामीजी महाराज – [काम नहीं–सेवा। (8 मिनिट•) 
बिचौलिया – सेवा आवे तो कर दे और उदासीनता से रहे, हँऽऽ? (यही बात है न?)। 
   [ श्रीस्वामीजी महाराज जी ने इस बालवचन को टाल दिया और वापस उसी विषय को कहने लगे- ] 
श्रीस्वामीजी महाराज – आप की स्थिति परमात्मा में ही है। है ही परमात्मा में। इच्छा छोड़ दो, स्थिति हो ज्यायेगी। इच्छा से ही संसार में है (स्थिति), इच्छा छोड़ दी, परमात्मा॰ (में स्थिति हो गई)– सब की। मूर्ख से मूर्ख र अणजान से अनजान, जानकार से ( ... जानकार)– सबकी। ठीक है? (9 मिनिट•) [... हाँ]। सुणाओ (भजन आदि)। कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं– भुक्ति की, मुक्ति की। ••● (वाणीका यथावत-लेखन)।  
   [ इसके बाद श्रीबजरँगलालजी ने भजन गाया – 'हरिका नाम जपाने वाले तुमको लाखों प्रणाम'।।०।।  यह भजन उन्होंने नया बनाया था और श्रीस्वामीजी महाराज के सामने पहली बार ही सुनाया था। यह 'पहली बार सुनाना' 'अन्तिम बार सुनाना' भी हो गया। ]  
   ('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के अन्तिम प्रवचन करने के बाद में उनको सुनाया गया भजन— ) 
हरि का नाम जपानेवाले, हरि का नाम जपानेवाले, गीता पाठ पढ़ानेवाले, गीता रहस्य बतानेवाले, जग की चाह छुटानेवाले, प्रभु से सम्बन्ध जुड़ानेवाले, प्रभुकी याद दिलानेवाले, 
तुमको लाऽऽखों परनाम– तुमको लाखों प्रणाम॥टेक॥ 
जग में महापुरुष नहिं होते, सिसक सिसक कर सब ही रोते, आँसू पौंछनेवाले, सबका आँसू पौंछनेवाले, सबकी पीड़ा हरनेवाले, सबकी जलन मिटानेवाले, सबको गले लगानेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥१॥ 
जनम मरण के दुख से सारे, भटक रहे हैं लोग बिचारे, पथ दरशानेवाले, प्रभु का पथ दरशानेवाले, प्रभु का मार्ग दिखानेवाले, सत का संग करानेवाले, हरि के सनमुख करनेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥२॥ 
ऊँच नीच जो भी नर नारी, अमरलोक के सब अधिकारी, संशय हरनेवाले, सबका संशय हरनेवाले, सबका भरम मिटानेवाले, सबकी चिन्ता हरनेवाले, सबको आशिष देनेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥३॥ 
हम तो मूरख नहीं समझते, संतन का आदर नहिं करते, नित समझानेवाले, हमको नित समझानेवाले, हमसे नहिं उकतानेवाले, हमपर क्रोध न करनेवाले, हमपर किरपा करनेवाले, सब पर किरपा करनेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥४॥ 
अब तो भवसागर से तारो, शरण पड़े हम बेगि उबारो, पार लगानेवाले, हमको पार लगानेवाले, हमको पवित्र करनेवाले, हमपर करुणा करनेवाले, हमको अपना कहनेवाले, 
तुमको लाखों परनाम ॥५॥ 
तुमको लाखों प्रणाम ॰ 
   [भजन समाप्त हो जाने पर श्रीस्वामीजी महाराज (बिना कुछ कहे ही) अपने निवास स्थान की ओर चल दिये। ऐसा लग रहा था कि अपनी महिमा वाला यह भजन सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज राजी नहीं हुए।  
रामायण में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महाराज सन्तों के लक्षणों में भी ऐसी बात बताते हैं -
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।।
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती। 
              (रामचरितमा.३|४६|१,२;)। ] 
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  श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के द्वारा दिया गया, यहाँ पहला अन्तिम प्रवचन, दिनांक,२९ जून, सन २००५ को, सायं, लगभग ४ बजे का है और दूसरा आखिरी प्रवचन दिनांक ३० जून, सन २००५, सुबह ११ बजे का है। 
  मूल प्रवचनों में किसी ने काँट छाँट करदी है, कई अंश नष्ट कर दिये हैं और मूल प्रवचन का मिलना भी कठिन हो गया है। महापुरुषों की वाणी के किसी भी अंश को काटना नहीं चाहिये। यह अपराध है।  
 इन दोनों प्रवचनों की रिकोर्डिंग को सुन- सुनकर, उन के अनुसार ही, यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है। कुछ कटे हुए अंश दूसरे खण्डित प्रवचन में मिल गये। वहाँ से लेकर यहाँ दे दिये गये। जिज्ञासुओं के लिये यह बङे काम की वस्तु है। साधक को चाहिये कि इन दोनों सत्संग- प्रवचनों को पढ़कर और सुनकर  मनन करें तथा लाभ उठावें। 
  इसमें लेखन आदि की जो गलतियाँ रह गयी हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं और जो अच्छाइयाँ हैं, वो उन महापुरुषों की हैं। सज्जन लोग गलतियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाइयों की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।
                 निवेदक- डुँगरदास राम  
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   (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजकी गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित ‘एक सन्तकी वसीयत’ नामक पुस्तक, पृष्ठ १४ व १५ में इन दोनों प्रवचनों के भाव संक्षेप में लिखेे हुए हैं, पूरे नहीं। वो वहीं देखें)।  
                      ■●■
अंतिम प्रवचन (१,२; कुछ खण्डित )- goo.gl/ufSn5W 
अन्तिम प्रवचन– १ (२९ जून २००५) का पता (ठिकाना)– डाउनलोड करनेके लिये (लिंक–)  goo.gl/gTyBxF (खण्डित)।  अथवा सुननेके लिये– goo.gl/yR5SLd
अन्तिम प्रवचन– २ (३० जून २००५) का पता– (?) डाउनलोड करनेके लिये (लिंक–) goo.gl/QS68Wj अथवा सुननेके लिये– goo.gl/wt7YNR  
पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज का साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/ 

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शनिवार, 26 जुलाई 2014

पता-(सत्संग संतवाणीका)…

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/