बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

सास- बहू तथा राजा दशरथ जी और जनक जी का आदर्श व्यवहार(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग की कुछ बातें तथा राजा दशरथ जी और जनक जी का आदर और प्रेमयुक्त व्यवहार )।

                                                    ।। श्री रामाय नमः ।।

 
सास- बहू तथा राजा दशरथ जी और जनक जी का आदर्श व्यवहार 

( -श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग की कुछ बातें तथा राजा दशरथ जी और जनक जी का आदर और प्रेमयुक्त व्यवहार  )।


                (१) 
व्यवहार को बढ़िया बनाने का उपाय- 
 
आदर और प्रेम का व्यवहार कैसे किया जाय ? यह हम राजा दशरथ जी और जनक महाराज से सीख सकते हैं।

सास- बहू  का व्यवहार हम महारानी कौशल्या जी और सीता जी से सीख सकते हैं। इनका व्यवहार बहुत बढ़िया रहा।

इन सब के कथा- प्रसंग पढ़कर ही हृदय में आनन्द भर जाता है, भगवान् में प्रेम हो जाता है। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके जो भी व्यवहार किया जाता है , वो बढ़िया हो जाता है

देने के भाव से प्रेम और लेने के भाव से संघर्ष होता है।

आजकल समाज में जो लङाई- झगङे आदि देखने में आते हैं, इनका कारण भी लेने का भाव है, स्वार्थभाव  है। ऐसे अभिमान भी सब दुखों का कारण है। स्वार्थ और अभिमान- दोनों ही दुखदायी हैं।

राजा दशरथ जी और जनक महाराज आदि के व्यवहार में स्वार्थ और अभिमान का त्याग है। देने का भाव है। इसलिये इनका व्यवहार बढ़िया हो गया, सुखदायी हो गया। हम भी अगर ऐसा करें तो हमारा व्यवहार भी बढ़िया हो जायेगा। 
 हम राजा दशरथ जी और जनक महाराज के समान हो सकते हैं। माताएँ, बहनें कौशल्या जी और सीता जी के समान हो सकती हैं। 

अपने से जो बङे हैं, उनको तो बङाई देनी ही चाहिये , अपने से जो छोटे हैं उनको भी बङाई देनी चाहिये, प्रेम देना चाहिये, आदर देना चाहिये। ऐसा हम राजा दशरथ जी के व्यवहार में देख सकते हैं।

जैसे, कन्या (लङकी) के पिता से वर (लड़के) के पिता को बङा माना जाता है। इसके अलावा बङप्पन का कोई और कारण हो तो वो और भी बङा माना जाता है।

महाराजा दशरथ जी वर के पिता होने के कारण तो बङे थे ही, चक्रवर्ती सम्राट होने के कारण भी बङे थे। 

कहते हैं कि चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र का जब विवाह होता था तो उनको बारात लेकर कन्यावालों के यहाँ नहीं जाना पङता था, कन्या वाले ही चक्रवर्ती राजा के यहाँ आते और अपनी कन्या का विवाह करते थे। चक्रवर्ती सम्राट इस प्रकार बङाई पाते थे, आदर पाते थे। चक्रवर्ती सम्राट होने के कारण महाराजा दशरथ जी भी इस योग्य थे; लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने यह बङाई ली नहीं, राजा जनक को दी।

जब राजा जनकजी ने उनको बुलावा भेजा तो उन्होंने अपने बड़प्पन की तरफ नहीं देखा और बारात सजाकर जनकपुर पधार गये।

वहाँ भी उन्होंने महाराज जनक को बङा सम्मान दिया।

राजा जनक जी ने भी उनका बङा सम्मान किया। नगर में पहुँचने से पहले ही अगवानी में चतुरङ्गिणि सेना के साथ बङा स्वागत सत्कार करवाया। भेंट में  सुवर्णकलश , महान् मणियाँ, हाथी, घोङे  आदि अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री भेजी।

  राजा दशरथ जी ने वो सब लेकर याचकों को बख्शीश में दे दी, अपने लिये नहीं रखीं।

राजा जनकजी से उन्होंने दहेज आदि के लिये कोई भी माँग नहीं रखी थी। बिना माँगे ही राजा जनकजी ने बङा भारी दहेज दे दिया। राजा दशरथ जी ने वो दहेज भी अपने लिये नहीं रखा, याचकों को दे दिया। याचकों ने जिन-जिन चीज़ों को लेना चाहा, उनको वो-वो सब चीजें दे दी गयीं। बाकी बचा हुआ सामान जनवासे में पहुँचा। फिर जनक महाराज ने बिदाई के समय दुबारा और बङा भारी दहेज दिया तथा सीधे अवधपुर ही भेज दिया। राजा दशरथ जी इससे तटस्थ ही रहे।

विदा होकर आते समय भी उन्होंने महाराज जनक को बङा आदर और प्रेम दिया। अपने घर (अयोध्या) पहुँचने के बाद में भी उन्होंने अपने घरवालों के सामने राजा जनक की बङी भारी महिमा गायी। रनिवास में  सीता जी आदि चारों बहुओं, पुत्रों, रानियों और कौशल्या जी आदि महारानियों के सामने राजा दशरथ जी ने जनक महाराज के गुण, शील आदि का भाट के समान अनेक प्रकार से वर्णन किया।

                 (२) 
 सास-बहू का लाभदायक व्यवहार-


श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि ऐसे आदर करने से, बङाई करने से प्रेम बढ़ता है। सद्भाव पैदा होता है। इससे हमको शिक्षा लेनी चाहिये।  

बहू के माता-पिता आदि की बङाई करनी चाहिये। कोई कमी भी रह जाय तो निन्दा नहीं करनी चाहिये।

जैसे, बहू के यहाँ से मिठाई कम आयी और आपके परिवार हो बङा, तो असन्तुष्ट होकर निन्दा न करें कि इतनी- सी मिठाई भेजी है, हम किन- किन को देंगे परिवार में। ऐसा करना बहू को अच्छा नहीं लगेगा। उसको लगेगा कि सासूजी तो मेरी माँ की निन्दा करते हैं!

तो क्या करें? कि जैसी मिठाई वहाँ से आयी है, वैसी ही मिठाई अपने घर पर बनायें और इस मिठाई को उस मिठाई में मिलादें। फिर अपने परिवार को दें कि यह लो, हमारी बहू लाई है ऐसी मिठाई।

इससे बहू को अच्छा लगेगा। उसको लगेगा कि हमारे सासूजी कितने भले हैं जो अपने घर का खर्चा करके मेरी माँ की बङाई करवायी। बहू के मन में कृतज्ञता पैदा होगी। सद्भाव पैदा होगा।

कह, महाराज ! आपके कहने में क्या जाता है, ऐसे हमारे खर्चा लगता है!
तो सुनो-

ऐसे सौ- दो- सौ रुपयों का आपके घर का खर्चा भी हो गया तो महँगा नहीं है, सस्ता है, सौ- दो- सौ रुपयों में एक आदमी खरीदा गया , वो बहू सदा के लिये आपकी हो जायेगी और निन्दा करोगे तो क्या मिलेगा?

बहू को चाहिये कि ऐसी कोई बात हो जाय तो बुरा न मानें। अपनी सखी- सहेली आदि के सामने सास की निन्दा न करें, अपने घरकी बात बाहर न कहें।

सास को चाहिये कि दूसरों के सामने अपनी बहू की प्रशंसा करें,कोई कसर भी हो, तो निन्दा न करें। कह, झूठी प्रशंसा कैसे करें? झूठ बोलें क्या ?

कह, ना, झूठ न बोलें।

तो प्रशंसा कैसे करें? कि जैसे, आपकी बहू को रसोई बनाना बढ़िया आता है पर वो बनाती नहीं है। तो आप यह मत कहो कि मेरी बहू रसोई नहीं बनाती और यह भी मत कहो कि रसोई बनाती है। आप यह कहो कि हमारी बहू को रसोई बनाना बढ़िया आता है। अब बढ़िया बनाना तो आता ही है, सच्ची बात है, बनावे नहीं, वो दूसरी बात है।

इस प्रकार झूठ बोलना भी नहीं हुआ और बहू की प्रशंसा भी हो गयी। ऐसे अपना व्यवहार श्रेष्ठ बनावें। इससे बहू के मन में आ सकता है कि सासूजी ठीक ही तो कह रहे हैं। रसोई तो बढ़िया बनाना आता है मेरे को, पर मैं बनाती नहीं हूँ। तो हो सकता है कि वो बनाने लग जायँ। और नहीं भी बनावे, तो परवाह नहीं। अपने तो बर्ताव अच्छा ही करना है।
 
                (३)
 दहेज के लोभ से अनर्थ-

आजकल दहेज आदि के कारण बङे-बङे अनर्थ हो रहे हैं। बहू को तंग करते हैं और कई तो जान से मार देते हैं। वो इसलिये कि बेटे का दूसरा विवाह करेंगे और धन आयेगा। धन की इतनी गुलामी हो गयी कि उसके सामने मनुष्य की भी कीमत नहीं। लोभ के इतने वशमें हो गये कि मनुष्य के जान की भी परवाह नहीं रही। यह बङे दुःख की बात है। बङा भारी पाप है यह। इससे बङी भारी हानि होगी।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने (दिनांक ८.१०.२०००, सायं ४ बजे) जयपुर में कहा था कि दहेज- प्रथा बहुत खराब है। लोग ज्यादा गर्भपात करते हैं दहेज के कारणों से, तो दहेज लेनेवालों को महान् हत्या लगेगी, लगेगी, लगेगी। 

कई लोग तो अनावश्यक ही विवाह में लाखों करोङों रुपये खर्च कर देते हैं जिससे कि लोगों में हमारा नाम हो , लोग हमारी प्रशंसा करें। यह नहीं सोचते कि समाज में करोड़ों रुपये खर्च करने वाले कितने क हैं [ समाज की भी परवाह नहीं कर रहे हैं वे ]। हरेक इतना खर्चा कर नहीं सकता और कन्या का विवाह होना कठिन हो रहा है। कई कन्याएँ तो आत्महत्या करके विवाह से पहले ही मर गई कि हमारे कारण घरवालों को दुःख हो रहा है, वो इतने रुपये कहाँ से लायेंगे। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि यह हत्या उनको लगेगी जो विवाह में फिजूल- खर्च करते हैं, अधिक खर्चा करते हैं। यह कन्या-हत्या उनको लगेगी। कलकत्ते में बङे भारी जन-समुदाय के बीच में उन्होंने यह बात बङे जोर से कही थी
 
                 (४) 
 आत्महत्या का कारण और निवारण 

एक बार श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का बीकानेर धोरे पर सत्संग का प्रोग्राम था। उस समय एक सत्संगी सज्जन आये और उन्होंने पूछा कि आत्महत्या (खुदकुशी) करके मरने वाले के लिये क्या करना चाहिये? (उन सज्जन के निकट- सम्बन्धी ने आत्महत्या कर ली थी)।

तब श्रीस्वामीजी महाराज ने धर्मसिन्धु और निर्णयसिन्धु- दोनों ग्रंथ मँगवाये कि इसके लिये शास्त्र क्या कहते हैं? 

उनमें लिखा था कि 

आत्महत्या करने वाले के लिये कुछ न करे। अगर कोई करता है तो दोष लगता है, उसको प्रायश्चित्त करना चाहिये। 

इसी प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज के मन में एक बार करुणा सहित विचार आने लगे कि बेचारा मनुष्य आत्महत्या से कैसे बच सकता है ! जब उसकी बुद्धि ही खराब हो जाय तो वो क्या करे!, कैसे बचे? शरीर का संचालन तो बुद्धि ही करती है न! जब इञ्जन ही खराब हो जाय तब गाङी क्या करे? उस समय वो मरने को ही ठीक समझने लगता है, उसकी बुद्धि ही वैसी हो जाती है। कैसे बचे! 

फिर श्रीस्वामीजी महाराज ने आत्महत्या से बचने का उपाय बताया कि मनुष्य अगर रोजना भगवान् का चरणामृत ले, तो बच सकता है। उसकी बुद्धि ठीक हो सकती है। चरणामृत के प्रभाव से मनुष्य आत्महत्या के समय, मरने के लिये आगे नहीं बढ़ेगा और बच जायेगा। 



क्योंकि चरणामृत के मन्त्र में आया है कि यह अकालमृत्यु को हरनेवाला है, टालनेवाला है। जैसे- 

अकालमृत्यु हरणं सर्वव्याधिविनाशनम्। 
विष्णोः पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।। 

अर्थात् अकालमृत्यु हरनेवाले और सब प्रकार के रोगों का विनाश करने वाले भगवान् के चरणों का जल पीकर मनुष्य पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता।  

अकालमृत्यु आत्महत्या को कहते हैं। क्योंकि आत्महत्या करने वाला मनुष्य अपनी उम्र के रहते- रहते, बिना मौत आये ही, बिना काल आये ही मरता है। इसलिये यह अकालमृत्यु है। 

कोई छोटी अवस्था वाला मनुष्य एक्सिडेंट आदि दुर्घटना में मर जाता है या कोई उसको मार देता है तो वो अकालमृत्यु नहीं है। उसका तो काल आ गया था, उम्र पूरी हो गयी थी। तभी वो मरा है। बिना काल आये न तो कोई मर सकता है और न कोई किसी को मार सकता है। इसलिये यह आकस्मिकमृत्यु है, अकालमृत्यु नहीं। अकालमृत्यु तो वो होती है जो काल (मृत्यु का समय) तो आया ही नहीं और मर गया। 

मौत आये बिना कोई दूसरा तो नहीं मार सकता; परन्तु मनुष्य अगर स्वयं मरना चाहे तो मर सकता है, आत्महत्या कर सकता है; बिना मौत आये ही, अकालमौत मर सकता है। मनुष्य को स्वतन्त्रता मिली हुई है। दूसरी योनियों में तो पहले किये हुए कर्म का फल ही भोगा जाता है, नया कर्म करने का अधिकार नहीं; परन्तु मनुष्य योनि में नया कर्म करने का अधिकार है, मनुष्य मौत आये बिना ही आत्महत्या का नया पापकर्म कर सकता है। 

रोजाना भगवान् का चरणामृत लेने वाला आत्महत्या से बच सकता है। 

गंगाजल भी भगवान् का चरणामृत है। 

 आत्महत्या एक मनुष्य को मार देने के समान बङा भारी पाप है। भगवान् फिर उसको मनुष्यजन्म नहीं देते। नहीं देने में भगवान् का भाव यह है कि अभी जो मनुष्यजन्म हमने तुमको दिया , वो तो तुम्हारे पसन्द नहीं आया, तुमने नष्ट कर दिया। अब दुबारा मनुष्यजन्म क्यों दें!  

 फिर बाकी बची हुई उम्र भले ही भूत- प्रेत आदि बनकर भोगो, मनुष्यजन्म मिलना मुश्किल है। 

 पहले किये हुए पाप के कारण मनुष्य के सामने ऐसी दुःख देनेवाली परिस्थिति आती है कि वो मरने की सोचता है। उसको लगता है कि मैं मर जाऊँगा तो दुःख से छूट जाऊँगा; परन्तु ऐसा होता नहीं है और आत्महत्या करके और अधिक दुःख पाने की तैयारी लेता है।  

जिस पाप के कारण ऐसी दुखदायी परिस्थिति सामने आयी, उसका फल भुगतना तो बाकी ही रहा और आत्महत्या का नया पाप एक और कर लिया। तो इन सब का फल आगे जाकर जरूर भुगतना पड़ेगा। बिना भुगते कर्मों के फल का नाश नहीं होता, चाहे सौ करोड़ जन्म बीत जायँ, ऐसा शास्त्र कहते हैं। जैसे- 

•••  पाप का फल (दण्ड) तो भोगना ही पड़ता है, चाहे इस जन्म में भोगना पङे या जन्मान्तर में।  

अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतं कर्म शुभाशुभम्। 
नाभुक्तं क्षीयते कर्म जन्म कोटिशतैरपि।। 


(- साधक- संजीवनी गीता १८|१२ की टिप्पणी से )।  

 इसलिये मनुष्य को चाहिये कि चाहे कैसी भी परिस्थिति आ जाय, आत्महत्या कभी भी न करे और दूसरों को भी बचावें। ये बातें दूसरों को भी बतावें। आपके प्रयास से न जाने किनकी जान बच जाय। 

जय श्रीराम। 

                   (५) 
 नारीजाती का पतन और पापों का दुष्परिणाम-

लोग कहते हैं कि हम नारीजाती का उत्थान करते हैं और कन्या को मार देते हैं गर्भ में ही। यह नारीजाती का उत्थान करना है या नाश करना है? सोचें। छोटी बच्ची भी "मातृशक्ति" है। आगे चलकर वो माँ बनेगी। उसको मार देना "मातृहत्या" है। नारी जाती का बङा भारी नुकसान है यह, तिरस्कार है,अपमान है। बङा भारी महापाप है। आगे जाकर इसका परिणाम बङा भयंकर होगा।

   श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने गोहाटी में (दिनांक २०|१२|१९९५ के सायं छः बजे) कहा था कि ऐसे गर्भपात आदि महापापों के कारण आगे चलकर अन्न और पानी मिलना मुश्किल हो जायेगा।

और अभी जो जानवरों को मार रहे हैं, मांस का प्रचार कर रहे हैं, इसका नतीजा यह होगा कि मनुष्य मनुष्यों को ही खाने लग जायेंगे जैसे मछली मछली को ही खा जाती है।

उस प्रवचन का एक अंश यहाँ जस का तस लिखा जा रहा है-

(31वीं मिनिट से आगे -) ••● ( आपलोग परिवार नियोजन, गर्भपात आदि ) महान् पाप कर रहे हो।

लोग कहते हैं कि अन्न नहीं मिलेगा, ज्यादा संख्या बढ़ ज्याय तो अन्न नहीं मिलेगा। मैं कहता हूँ- अन्न नहीं मिलेगा र (और) पाणी (पानी) नहीं मिलेगा। ये चलती रही ऐसी (पापों की) परम्परा तो पाणी तक नहीं मिलेगा पाणी तक, याद करना, हम तो मर ज्यायेंगे; परन्तु बे• लारे सिखा देना (हम तो मर जायेंगे परन्तु वो बातें बाद में, पीछेवालों को सिखा देना), बता देना- पाणी की तंगी आ ज्यायगी, पाणी नहीं मिलेगा।

इसका प्रमाण है मेरे पास। क्या है? - [ कि ] जितने कूवे हैं, उनमें बोरिंग कराते हो। इसका अर्थ क्या हुआ? - [ कि ] पाणी नीचे जा रहा है। बाँध जितने बणे (बने) हुए हैं, उनमें मिट्टी भर रही है। ये आज है क (कि) नहीं?  तो पापों के कारण से पाणी तो नीचे जा रहा है, बाँध में मिट्टी भर रही है। पीणे (पीने) को क्या मिलेगा? ये (यह) पाप का फल होगा। और अभी तो खाणे लगे हैं जानवरों को और ज्यादा तंगी आ ज्यायगी तो मनुष्यों को मनुष्य खायेंगे- मच्छ गळागळ होहि। जैसे मछली छोटी मछली को खा ज्याती है, ऐसे मनुष्य मनुष्यों को खाणे लग ज्यायेंगे। अभी मांस का र•, अण्डों का प्रचार कर रहे हैं जोर से। इसका नतीजा क्या होगा? - खावेंगे मनुष्योंको मनुष्य आप ही। अऽर (और) बर्षा (वर्षा) कम होगी। क्यों होगी कम? कह, बर्षा होती है अन्न के और घास के लिये। तो घास तो पशुओं को चाहिये, अन्न मनुष्यों को चाहिये। मनुष्य जब पशुओं को खाणे लग ज्याय तो पशु है ही नहीं, घास क्यों पैदा होगा? और मनुष्योंको अन्न पैदा क्यों होगा? कह, आप पशुओं को खा ही लेते हो। यह दशा होगी अगाङी। शंका करो इसमें, तर्क करो। "देशकी वर्तमान दशा और उसका परिणाम" 'पुस्तक' "मेरी लिखी हुई" पढ़ो, ठण्डे हृदय से, शान्त हृदय से और अगर ये (जनसंख्या) बढ़ाना नहीं (चाहते) तो संयम रखो। शरीर भी ठीक रहेगा। 
••●

{ - श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक 19951220_1800_QnA (Dhan Parivar Niyojan Misc). नामवाले प्रवचन के अंश का यथावत् लेखन। } 

आजकल संसार भर में जो कोरोना जैसी महामारी फैल रही है न ( जिसका कोई इलाज नहीं है, कोई दवा नहीं है। लाखों लोग मर गये और मर रहे हैं ),  ऐसी बिमारी का कारण भी श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने जयपुर में आज से बीस वर्ष पहले ही  बता दिया था (कि)

मांस, अण्डा खानेसे पशु-पक्षियोंके रोग मनुष्योंमें आ जायँगे। पशु- पक्षियोंके रोग और मनुष्योंके रोग मिल करके ऐसे वर्णसंकर रोग पैदा होंगे, जिनका कोई इलाज नहीं है!| 
(दिनांक ८.१०.२०००, सायं ४ बजे,जयपुर) 

पाराशर स्मृति में लिखा है कि ब्रह्महत्या से दूना पाप गर्भपात का होता है और इसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है। गर्भपात करनेवाली स्त्री का त्याग कर देना चाहिये। ऐसा विधान है। ( अधिक जानकारी के लिये श्रीस्वामीजी महाराज की पुस्तक  "महापापसे बचो" पढ़ें। )

श्रीस्वामीजी महाराज ने गर्भपात वाले घर के अन्न का त्याग कर दिया था। जिस घरमें एक स्त्री ने भी गर्भपात करवा लिया हो, उस घर का अन्न नहीं लेते थे। वो कहते थे कि ऐसा अन्न खाने वाले की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। उस घर का तो पानी भी नहीं पीना चाहिये। पानी पीना भी पाप है।

कह, ज्यादा जनसंख्या बढ़ जायेगी तो लोग खायेंगे क्या? कितनी बङी मूर्खता की बात है। क्या इतना बङा संसार आपके ही भरोसे चल रहा है? भगवान् में इतनी भी अक्कल (बुद्धि) नहीं है, जो प्रबन्ध तो करे ही नहीं और जन्म दे दे। भगवान् के यहाँ ऐसी भूल नहीं होती। वे जन्म तो बाद में देते हैं और प्रबन्ध पहले करते हैं। बालक का जन्म तो बाद में होता है और माँ के दूध भगवान् पहले पैदा करते हैं।

अरबों वर्षों से सृष्टि चली आयी है और भगवान् सब का पालन करते आये हैं।

श्री तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि -

प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर।
तुलसी चिन्ता क्यों करे भजले श्री रघुबीर।।


इस प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज ने और भी अनेक बातें बतायी है। लेख लम्बा न हो जाय, इसलिये अधिक नहीं लिख रहे हैं। अधिक जानकारी के लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज की "गृहस्थमें कैसे रहें"? , "मातृशक्तिका घोर अपमान" आदि पुस्तकें पढ़ें। उनके साधन- सुधा- सिन्धु , साधन- सुधा- निधि और साधक- संजीवनी आदि ग्रंथों का अध्ययन करें तथा उनके प्रवचनों की रिकोर्डिंग- वाणी सुनें। अस्तु।

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               (६) 
श्री सीताराम जी का विवाह और आनन्द-  

अब रामायण के कुछ वो प्रसंग देखते हैं, जिसमें राजा दशरथ जी और जनक महाराज आदि के सुन्दर व्यवहार का वर्णन है-


पहले तो यह देखें कि कौशल्या जी आदि सासुओं और सीताजी आदि बहुओं के आपस में कैसा प्रेम और आदर था, कैसा अपनापन था। 

श्री कौशल्या माता राम जी से कहती हैं-

मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। 
रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। 
राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥

फिर मैंने रूप की राशि, सुन्दर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैंने इन (जानकी) को आँखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं॥1॥
(रामचरितमा.२|५९)


श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि सीता जी जहाँ- जहाँ घूमती थीं,विचरण करती थीं; कौशल्या माता ने वहाँ- वहाँ मखमल के गद्दे बिछा रखे थे कि चलते समय मेरी बहू के कौमल चरणों में कठोर भूमि आदि से कष्ट न हो-

पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। 
सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउँ। 
दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥3॥

सीता ने पर्यंकपृष्ठ (पलंग के ऊपर), गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा। मैं सदा संजीवनी जड़ी के समान (सावधानी से) इनकी रखवाली करती रही हूँ। कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती॥3॥
(रामचरितमा.२|५९)


श्री सुमित्रा माता लक्ष्मण जी से कहतीं हैं -
•••
तात तुम्हारि मातु बैदेही। 
पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥

हे तात! जानकीजी तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करने वाले श्री रामचन्द्रजी तुम्हारे पिता हैं!॥1॥

अवध तहाँ जहँ राम निवासू। 
तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। 
अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥2॥

जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं, तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है॥2॥
(रामचरितमा. २|७४)
×××
उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥


हे तात! मेरा यही उपदेश है (अर्थात तुम वही करना), जिससे वन में तुम्हारे कारण श्री रामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। (रामचरितमा.२|७५)


श्री कैकेयी महारानी मंथरा से कहतीं हैं-

जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। 
होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। 
तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥4॥

जो विधाता कृपा करके जन्म दें तो (यह भी दें कि) श्री रामचन्द्र पुत्र और सीता बहू हों। श्री राम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके तिलक से (उनके तिलक की बात सुनकर) तुझे क्षोभ कैसा?॥4॥
(रामचरितमा.२|१५)


श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि कोई अपने पति को दुःख दे तो पतिव्रता से सहन नहीं होता। कैकयी ने बिना कारण रामजी को वन में भेज दिया; परन्तु सीताजी ने कभी कैकेयी को कुछ नहीं कहा, सहन कर लिया। अनेक जनों ने कैकेयी को बुरा कहा; परन्तु सीताजी ने कभी नहीं कहा। अनेक रामायणें हैं; परन्तु मैंने किसी भी रामायण में यह नहीं पढ़ा कि सीताजी ने कैकेयी को बुरा कहा हो। 

सीताजी सासुओं को माता के समान मानती हैं- 

ससुरु एतादृस अवध निवासू। 
प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। 
मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥3॥

ऐसे (ऐश्वर्य और प्रभावशाली) ससुर, (उनकी राजधानी) अयोध्या का निवास, प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासुएँ- ये कोई भी श्री रघुनाथजी के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते॥3॥
(रामचरितमा.२|९८)


सीता जी के सात सौ सासुएँ थीं। भरतजी जब सबको साथ लेकर चित्रकूट पधारे, तब सीताजी ने समान रूप से सब सासुओं की सेवा की। कैकयी के साथ में भी भेदभाव नहीं किया। उनकी भी दूसरी सासुओं के समान ही सेवा की-

सीय सासु प्रति बेष बनाई। 
सादर करइ सरिस सेवकाई॥1॥

जितनी सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीताजी सब सासुओं की आदरपूर्वक एक सी सेवा करती हैं॥1॥

लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। 
माया सब सिय माया माहूँ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। 
तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥2॥

श्री रामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना। सब मायाएँ (पराशक्ति महामाया) श्री सीताजी की माया में ही हैं। सीताजी ने सासुओं को सेवा से वश में कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिए॥2॥
(रामचरितमा.२|२५२)


वनवास से लौटकर आ जानेके बाद में जब सीताजी रामजी के साथ राजगद्दी पर विराजमान हो गई, राजरानी बन गयी, तब भी वो अपने हाथों से स्वयं सेवा करती हैं-

जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। 
बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥
निज कर गृह परिचरजा करई। 
रामचंद्र आयसु अनुसरई॥3॥

यद्यपि घर में बहुत से (अपार) दास और दासियाँ हैं और वे सभी सेवा की विधि में कुशल हैं, तथापि (स्वामी की सेवा का महत्व जानने वाली) श्री सीताजी घर की सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा का अनुसरण करती हैं॥3॥

जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ।
सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं।
सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं॥4॥


कृपासागर श्री रामचन्द्रजी जिस प्रकार से सुख मानते हैं, श्री जी वही करती हैं, क्योंकि वे सेवा की विधि को जानने वाली हैं। घर में कौसल्या आदि सभी सासुओं की सीताजी सेवा करती हैं, उन्हें किसी बात का अभिमान और मद नहीं है॥4॥

उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता।
जगदंबा संततमनिंदिता॥5॥


(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जगज्जननी रमा (सीताजी) ब्रह्मा आदि देवताओं से वन्दित और सदा अनिन्दित (सर्वगुण संपन्न) हैं॥5॥

जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ॥24॥


देवता जिनका कृपाकटाक्ष चाहते हैं, परन्तु वे उनकी ओर देखती भी नहीं, वे ही लक्ष्मीजी (जानकीजी) अपने (महामहिम) स्वभाव को छोड़कर श्री रामचन्द्रजी के चरणारविन्द में प्रीति करती हैं॥24॥
(रामचरितमा.७|२४)


इतने बड़े जगत् के माता-पिता होते हुए भी भगवान् अपने भक्तों के बालक बन गये। 

इससे लगता है कि उन भक्तों की भगवान् में कितनी भक्ति थीं, कितना प्रेम था। कितने श्रेष्ठ आचरण थे। कितना बढ़िया व्यवहार था। वो कितने बङे भगवद्भक्ति के जानकार थे। उनके द्वारा कितना जगत का हित हुआ है और होगा। उनके द्वारा कितनी शिक्षा मिल रही है। 

आज भी कोई उन भक्तों के अनुसार चले तो उनको भी वही लाभ हो सकता है जो इन भक्तों को हुआ। अगर हम उनके अनुसार चलें तो हमारे को भी वही लाभ हो सकता है। जैसे राजा दशरथ जी और जनक महाराज के भगवान् प्रत्यक्ष में बेटा बेटी बने, ऐसे हमारे भी भगवान् प्रत्यक्ष में बेटा बेटी बन सकते हैं-


एहि बिधि राम जगत पितु माता।
कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी।
तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥


इस प्रकार (सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं, जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी है, हे भवानी! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनन्द दे रहे हैं)॥1॥

रघुपति बिमुख जतन कर कोरी।
कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे।
सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2॥


श्री रघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बन्धन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है॥2॥

भृकुटि बिलास नचावइ ताही।
अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई।
भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥


भगवान उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, (और) किसका भजन किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेंगे॥3॥
(रामचरितमा.१|२००)


अब महाराजा दशरथ जी और जनक महाराज वाले सुन्दर व्यवहार के कुछ प्रसंग देखते हैं- 

धनुषभंग के बाद मुनि विश्वामित्र जी की आज्ञा से जब महाराजा दशरथ जी को बुलाने के लिये राजा जनकजी ने दूत भेजे और अयोध्या पहुँचकर दूतों ने प्रणाम करके उनको पत्रिका दी, तब महाराजा दशरथ जी ने पत्रिका लेने के लिये किसी सेवक आदि से न कहकर, सभा में से उठकर स्वंय उस पत्रिका को लिया तथा स्वयं पढ़ा-

करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही।
मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि बिलोचन बाँचत पाती।
पुलक गात आई भरि छाती॥2॥


दूतों ने प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी बाँचते समय उनके नेत्रों में जल (प्रेम और आनंद के आँसू) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई॥2॥
(रामचरितमा॰ १|२९०)


बारात सजाकर जब राजा जनकपुर आ रहे थे तब उनकी सुविधा के लिये राजा जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिये और जगह-जगह पर ठहरने के लिये सबकी बहुत बढ़िया व्यवस्था करदी तथा बङे आदर से जोरदार अगवानी करवायी-

आवत जानि भानुकुल केतू।
सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥
बीच-बीच बर बास बनाए।
सुरपुर सरिस संपदा छाए॥3॥


सूर्यवंश के पताका स्वरूप दशरथजी को आते हुए जानकर जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिए। बीच-बीच में ठहरने के लिए सुन्दर घर (पड़ाव) बनवा दिए, जिनमें देवलोक के समान सम्पदा छाई है,॥3॥

असन सयन बर बसन सुहाए।
पावहिं सब निज निज मन भाए॥
नित नूतन सुख लखि अनुकूले।
सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥4॥

और जहाँ बारात के सब लोग अपने-अपने मन की पसंद के अनुसार सुहावने उत्तम भोजन, बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मन के अनुकूल नित्य नए सुखों को देखकर सभी बारातियों को अपने घर भूल गए॥4॥

आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥304॥


बड़े जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करने वाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले॥304॥
(रामचरितमा.१|३०४)


सब प्रेमसहित बङे आदर से मिले।  राजा जनक जी ने महाराजा दशरथ जी के लिये जो अनेक प्रकार की बहुमूल्य भेंट- सामग्री भेजी थी, राजा दशरथ जी ने वो सब लेकर याचकों को दे दी , अपने लिये नहीं रखी। जनकपुर में आदर पूर्वक सबको बहुत बढ़िया निवासस्थान (जनवासा) दिया गया-

हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥


(बाराती तथा अगवानों में से) कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले और ऐसे मिले मानो आनन्द के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों॥305॥

बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं।
मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें।
बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥


देवसुन्दरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं और देवता आनन्दित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। (अगवानी में आए हुए) उन लोगों ने सब चीजें दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम से विनती की॥1॥

प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा।
भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
करि पूजा मान्यता बड़ाई।
जनवासे कहुँ चले लवाई॥2॥


राजा दशरथजी ने प्रेम सहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को दे दी गईं। तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासे की ओर लिवा ले चले॥2॥

बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं।
देखि धनदु धन मदु परिहरहीं॥
अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा।
जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥3॥


विलक्षण वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन का अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुन्दर जनवासा दिया गया, जहाँ सबको सब प्रकार का सुभीता था॥3॥
(रामचरितमा. १|३०६)


जगज्जननी श्री सीताजी ने सब सिद्धियों को बुलाकर बारात सहित राजा की पहुनाई करने के लिये भेजा। सीता जी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ स्वर्ग के सब सुख सम्पत्ति लिये हुए वहाँ गयीं और बङे भारी वैभव की रचना करदीं। इस रहस्य को कोई नहीं जान सका-

निज निज बास बिलोकि बराती।
सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना।
सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥


बारातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर रहे हैं॥1॥

सिय महिमा रघुनायक जानी।
हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई।
हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥2॥


श्री रघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनन्द समाता न था॥2॥
(रामचरितमा. १|३०७)


बारात सहित महाराजा दशरथ जी का बङा आदर- सत्कार किया गया-

सतानंद अरु बिप्र सचिव गन।
मागध सूत बिदुष बंदीजन॥
सहित बरात राउ सनमाना।
आयसु मागि फिरे अगवाना॥3॥


अगवानी में आए हुए शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, मन्त्रीगण, मागध, सूत, विद्वान और भाटों ने बारात सहित राजा दशरथजी का आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे॥3॥

प्रथम बरात लगन तें आई।
तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं।
बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥4॥


बारात लग्न के दिन से पहले आ गई है, इससे जनकपुर में अधिक आनन्द छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानन्द प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि दिन-रात बढ़ जाएँ (बड़े हो जाएँ)॥4॥
(रामचरितमा. १|३०९)


जैसे राजा दशरथ जी महान् थे, ऐसे महाराजा जनक भी बङे महान् थे। वो तो जगज्जननी जानकी जी के भी जनक (पिता) थे। उनकी महिमा का वर्णन कोई कैसे कर सकता है!

कहते हैं कि जनक महाराज ज्ञानी थे और दशरथ जी महाराज प्रेमी। उधर कौशल्या महारानी ज्ञानी थीं और इधर सुनयना महारानी प्रेमी । यह ज्ञान और प्रेम (भक्ति) की जोड़ी अद्वितीय थी। ये दोनों ही बङे- बङे महाराजा थे। आगे विवाह- मण्डप में पधारते समय जब ये दोनों मिले हैं तब कविलोग भी इनकी की उपमा खोज- खोजकर हृदय से हार गये और उन्होंने यही उपमा निश्चित की कि इनके समान तो ये ही हैं। अभी जनकपुर वासी भी इन दोनों की महिमा कर रहे हैं-


जनक सुकृत मूरति बैदेही।
दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥
इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे।
काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥


जनकजी के सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किए हुए श्री रामजी हैं। इन (दोनों राजाओं) के समान किसी ने शिवजी की आराधना नहीं की और न इनके समान किसी ने फल ही पाए॥1॥

इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं।
है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी।
भए जग जनमि जनकपुर बासी॥2॥


इनके समान जगत में न कोई हुआ, न कहीं है, न होने का ही है। हम सब भी सम्पूर्ण पुण्यों की राशि हैं, जो जगत में जन्म लेकर जनकपुर के निवासी हुए,॥2॥

जिन्ह जानकी राम छबि देखी।
को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू।
लेब भली बिधि लोचन लाहू॥3॥


और जिन्होंने जानकीजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखी है। हमारे सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्री रघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भलीभाँति नेत्रों का लाभ लेंगे॥3॥
(रामचरितमा. १|३१०)


श्री सीताराम जी का विवाह मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को गोधूलि के समय हुआ था।

श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि शाम के समय गउएँ जब जंगल में से चरकर वापस आती हैं तब उनके खुरों (पैरों) से उङी हुई रजी धुएँ के समान दिखायी देती है। उस समय को 'गोधूलि की बेला' कहते हैं। रामजी के विवाह का मुहूर्त भी इस समय का था, जिसको मारवाड़ी भाषा में "गुदळक्याँ रा सावा" {गउओं के खुरों से उङी हुई धूलिका (धूल) वाला विवाह का समय} कहते हैं। जब वो समय आया तब जनक महाराज ने समाज सहित राजा दशरथ जी को बङे ठाट-बाट से बुलवाया-

धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥


निर्मल और सभी सुन्दर मङ्गलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा॥312॥

उपरोहितहि कहेउ नरनाहा।
अब बिलंब कर कारनु काहा॥
सतानंद तब सचिव बोलाए।
मंगल सकल साजि सब ल्याए॥1॥


तब राजा जनक ने पुरोहित शतानन्दजी से कहा कि अब देरी का क्या कारण है। तब शतानन्दजी ने मन्त्रियों को बुलाया। वे सब मङ्गल का सामान सजाकर ले आए॥1॥

संख निसान पनव बहु बाजे।
मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता।
करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥


शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मङ्गल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजाई गईं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं॥2॥

लेन चले सादर एहि भाँती।
गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू।
अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥


सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए। अवधपति दशरथजी का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥3॥

भयउ समउ अब धारिअ पाऊ।
यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा।
चले संग मुनि साधु समाजा॥4॥


(उन्होंने जाकर विनती की-) समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाड़ों पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले॥4॥

भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥


अवध नरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे॥313॥
( रामचरितमा. १|३१३)


उस समय बङे-बङे देवी-देवताओं के समुदाय भी विमानों पर बैठकर राम विवाह देखने के लिये आ गये और उस आनन्द में सम्मिलित हो गये। वहाँ का दृश्य देखकर सब चकित थे। जनकपुर के स्त्री पुरुषों के सामने उन सबकी शोभा फीकी पङ गयीं-

तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं।
भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी।
निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥


उन्हें देखकर सब देवता और देवाङ्गनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गए जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ, क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥4॥

सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥

तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान की महामहिमामयी निजशक्ति) श्री सीताजी का और (अखलि ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात्‌ भगवान) श्री रामचन्द्रजी का विवाह है॥314॥

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं।
सकल अमंगल मूल नसाहीं॥
करतल होहिं पदारथ चारी।
तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥


जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमङ्गलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये वही (जगत के माता-पिता) श्री सीतारामजी हैं, काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा॥1॥
(रामचरितमा. १|३१५)


ब्रह्मा, विष्णु आदि महान् देवता बङे प्रेम से रामजी के दर्शन करने लगे।
जनक महाराज की पटरानी ने बङा आनन्द मनाया-


अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥


दोनों ओर से राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और 'रघुकुलमणि श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो' कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिए मङ्गल द्रव्य सजाने लगीं॥

सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥

अनेक प्रकार से आरती सजकर और समस्त मङ्गल द्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथीकी- सी चाल वाली) उत्तम स्त्रियाँ आनन्दपूर्वक परछन के लिए चलीं॥317॥
(रामचरितमा. १|३१७)


लक्ष्मी जी, भवानी आदि महादेवियाँ माया से श्रेष्ठ स्त्रियों का रूप धारण कर रनिवास में जा मिलीं और मङ्गल गान करने लगीं। श्री रामचन्द्र जी का दूल्हा वेश देखकर सब के मन में बङा आनन्द हुआ। सीता जी की माँ को तो इतना आनन्द हुआ कि कहा नहीं जा सकता-

जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥

श्री रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते (अथवा लाखों सरस्वती और शेष लाखों कल्पों में भी नहीं कह सकते)॥318॥

नयन नीरु हटि मंगल जानी।
परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू।
कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥


मङ्गल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए॥1॥

पंच सबद धुनि मंगल गाना।
पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा।
राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥2॥


पञ्चशब्द (तन्त्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पञ्चध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मङ्गलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने (रानी ने) आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मण्डप में गमन किया॥2॥
(रामचरितमा. १|३१९)


समाज सहित महाराजा दशरथ जी बङे सुशोभित हुए और सब विधि- विधान किये गये-

मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं।
करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे।
उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥


वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिए उपमा खोज-खोजकर लजा गए॥1॥

लही न कतहुँ हारि हियँ मानी।
इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
सामध देखि देव अनुरागे।
सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥


जब कहीं भी उपमा नहीं मिलि, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर सम्बन्ध देखकर देवता अनुरक्त हो गए और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे॥2॥

जगु बिरंचि उपजावा जब तें।
देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
सकल भाँति सम साजु समाजू।
सम समधी देखे हम आजू॥3॥


(वे कहने लगे-) जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज और बराबरी के (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे॥3॥

देव गिरा सुनि सुंदर साँची।
प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए।
सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥4॥


देवताओं की सुन्दर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गई। सुन्दर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मण्डप में ले आए॥4॥

मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥


मण्डप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुन्दरता से मुनियों के मन भी हरे गए (मोहित हो गए)। सुजान जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती॥

बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस॥
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥


राजा ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया॥320॥

बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा।
जानि ईस सम भाउ न दूजा॥
कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई।
कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥


फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर (उनके सम्बन्ध से) अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की॥1॥

पूजे भूपति सकल बराती।
समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन उचित दिए सब काहू।
कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥


राजा जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए। मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ॥2॥

सकल बरात जनक सनमानी।
दान मान बिनती बर बानी॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ।
जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥


राजा जनक ने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,॥3॥

कपट बिप्र बर बेष बनाएँ।
कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
पूजे जनक देव सम जानें।
दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥4॥

वे कपट से ब्राह्मणों का सुन्दर वेश बनाए बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहिचाने भी उन्हें सुन्दर आसन दिए॥4॥
(रामचरितमा. १|३२१)


उस समय बिना पहचान के भी आदर और प्रेम किया जा रहा था-

नारि बेष जे सुर बर बामा।
सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं।
बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥3॥


श्रेष्ठ देवाङ्गनाएँ , जो सुन्दर मनुष्य-स्त्रियों के वेश में हैं, सभी स्वभाव से ही सुन्दरी और श्यामा (सोलह वर्ष की अवस्था वाली) हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहिचान के ही वे सबको प्राणों से भी प्यारी हो रही हैं॥3॥

बार बार सनमानहिं रानी।
उमा रमा सारद सम जानी॥
सीय सँवारि समाजु बनाई।
मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥4॥


उन्हें पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार-बार उनका सम्मान करती हैं। [रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ] सीताजी का शृङ्गार करके, मण्डली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें मण्डप में लिवा चलीं॥4॥
(रामचरितमा. १|३२२)


श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज बताते हैं कि जहाँ सीता जी,पार्वती जी आदि के रूप देखने की बात आती है, वहाँ गोस्वामी श्री तुलसीदास जी महाराज "जगदम्बा" , "जगजननि" आदि शब्द लिखकर याद दिला देते हैं कि यह जगत् की माता है, हमारी भी माता है।

जैसे, शिवविवाह के अवसर पर-

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं।
करि सिंगारु सखीं लै आईं॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे।
बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥


फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ शृङ्गार करके उन्हें ले आईं। पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुन्दरता का वर्णन कर सके?॥3॥

जगदंबिका जानि भव भामा।
सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुंदरता मरजाद भवानी।
जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥


पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुन्दरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती॥4॥
(रामचरितमा. १|१००)


विवाह के बाद-

जबहिं संभु कैलासहिं आए।
सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी।
तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥2॥


जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गये। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके शृङ्गार का वर्णन नहीं करता॥2॥
(रामचरितमा. १|१०३)।


सीता-स्वयंवर में मूढ़ और अन्य राजाओं के विचार सुनकर समझदार राजालोग बोले-

ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई।
मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता।
जगदंबा जानहु जियँ सीता॥1॥


गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीताजी को अपने जी में साक्षात जगज्जननी समझो (उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड़ दो),॥1॥

जगत पिता रघुपतिहि बिचारी।
भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी।
ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥2॥


और श्री रघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचार कर, नेत्र भरकर उनकी छबि देख लो [ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा]। सुन्दर, सुख देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं (स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाए रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गए हैं)॥2॥
(रामचरितमा. २४६)


श्री सीता जी के रङ्गभूमि में पधारते समय-

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी।
जगदंबिका रूप गुन खानी॥


रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। 
(रामचरितमा. १|२४७)

•••
चलीं संग लै सखीं सयानी।
गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह नवल तनु सुंदर सारी।
जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥


सयानी सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर पर सुन्दर साड़ी सुशोभित है। जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है॥1॥
(रामचरितमा. १|२४८)


और यहाँ विवाह- मण्डप में पधारते समय-
(पार्वती जी जब विवाह मण्डप में पधारी थीं, तब देवताओं ने उनको जगदम्बा जानकर मन ही मन प्रणाम किया था, अब देवता आदि 
जगदम्बा सीताजी को प्रणाम करते हैं) 

सिय सुंदरता बरनि न जाई।
लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता।
रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥


सीताजी की सुन्दरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बारातियों ने आते देखा॥1॥

सबहिं मनहिं मन किए प्रनामा।
देखि राम भए पूरनकामा॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता।
कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥


सभी ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी को देखकर तो सभी पूर्णकाम (कृतकृत्य) हो गए। राजा दशरथजी पुत्रों सहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना आनन्द था, वह कहा नहीं जा सकता॥2॥

सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला।
मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥
गान निसान कोलाहलु भारी।
प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥


देवता प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मङ्गलों की मूल मुनियों के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी प्रेम और आनन्द में मग्न हैं॥3॥
(रामचरितमा. १|३२३)


( इससे हमको यह शिक्षा मिलती है कि बिना पहचाने भी स्त्रियों को जगदम्बा के समान देखें और उनका आदर करें। महारानी सुनयना जी ने भी यहाँ बिना पहचाने स्त्रियों का आदर जगन्माताओं के समान किया है और वो आदर सम्मान वास्तविक जगदम्बाओं का हो गया । )

इसके बाद में विधि- विधान पूर्वक श्री सीता- राम जी का विवाह हुआ। फिर माण्डवी- भरत जी का , उर्मिला- लक्ष्मण जी का और श्रुतकीर्ति- शत्रुघ्न जी का विवाह भी उसी रीति से हुआ-


जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी।
सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि न जा कछु दाइज भूरी।
रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥1॥


श्री रामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गई, उसी रीति से सब राजकुमार विवाहे गये। दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं जाती, सारा मण्डप सोने और मणियों से भर गया॥1॥

कंबल बसन बिचित्र पटोरे।
भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥
गज रथ तुरग दास अरु दासी।
धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥2॥


बहुत से कम्बल, वस्त्र और भाँति-भाँति के विचित्र रेशमी कपड़े, जो थोड़ी कीमत के न थे (अर्थात बहुमूल्य थे) तथा हाथी, रथ, घोड़े, दास-दासियाँ और गहनों से सजी हुई कामधेनु सरीखी गायें-॥2॥

बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा।
कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने।
लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥


[ आदि ] अनेकों वस्तुएँ हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाय। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होंने देखा है, वही जानते हैं। उन्हें देखकर लोकपाल भी सिहा गये। अवधराज दशरथजी ने सुख मानकर प्रसन्नचित्त से सब कुछ ग्रहण किया॥3॥

दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा।
उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी।
बोले सब बरात सनमानी॥4॥


उन्होंने वह दहेज का सामान याचकों को, जो जिसे अच्छा लगा, दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासे में चला आया। तब जनकजी हाथ जोड़कर सारी बारात का सम्मान करते हुए कोमल वाणी से बोले॥4॥

सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥1॥

आदर, दान, विनय और बड़ाई के द्वारा सारी बारात का सम्मान कर राजा जनक ने महान आनन्द के साथ प्रेमपूर्वक लड़ाकर (लाड़ करके) मुनियों के समूह की पूजा एवं वन्दना की। सिर नवाकर, देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं (वे प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावों को कोई कुछ देकर कैसे सन्तुष्ट कर सकता है); क्या एक अञ्जलि जल देने से कहीं समुद्र सन्तुष्ट हो सकता है॥1॥

कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥


फिर जनकजी भाई सहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजी से स्नेह, शील और सुन्दर प्रेम में सानकर मनोहर वचन बोले- हे राजन्‌ ! आपके साथ सम्बन्ध हो जाने से अब हम सब प्रकार से बड़े हो गये। इस राज-पाट सहित हम दोनों को आप बिना दाम के लिये हुए सेवक ही समझियेगा॥2॥

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥

इन लड़कियों को टहलनी मानकर, नई-नई दया करके पालन कीजियेगा। मैंने बड़ी ढिठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी को सम्पूर्ण सम्मान का निधि कर दिया (इतना सम्मान किया कि वे सम्मान के भण्डार ही हो गए)। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं॥3॥


फिर कुलदेव-पूजन आदि लौकिक रीति के पश्चात बहुओं सहित चारों राजकुमार जनवासे में पिताजी के पास आ गये। इसके बाद बङे आदरपूर्वक सबका भोजन- प्रसाद हुआ-

पुनि जेवनार भई बहु भाँती।
पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत पाँवड़े बसन अनूपा।
सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥1॥

फिर बहुत प्रकार की रसोई बनी। जनकजी ने बारातियों को बुला भेजा। राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित गमन किया। अनुपम वस्त्रों के पाँवड़े पड़ते जाते हैं॥1॥

सादर सब के पाय पखारे।
जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥
धोए जनक अवधपति चरना।
सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥2॥


आदर के साथ सबके चरण धोये और सबको यथायोग्य पीढ़ों पर बैठाया। तब जनकजी ने अवधपति दशरथजी के चरण धोये। उनका शील और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता॥2॥

बहुरि राम पद पंकज धोए।
जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ भाइ राम सम जानी।
धोए चरन जनक निज पानी॥3॥


फिर श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों को धोया, जो श्री शिवजी के हृदय कमल में छिपे रहते हैं। तीनों भाइयों को श्री रामचन्द्रजी के समान जानकर जनकजी ने उनके भी चरण अपने हाथों से धोये॥3॥

आसन उचित सबहि नृप दीन्हे।
बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर लगे परन पनवारे।
कनक कील मनि पान सँवारे॥4॥

राजा जनकजी ने सभी को उचित आसन दिए और सब परसने वालों को बुला लिया। आदर के साथ पत्तलें पड़ने लगीं, जो मणियों के पत्तों से सोने की कील लगाकर बनायी गयी थीं॥4॥

सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥328॥


चतुर और विनीत रसोइये सुन्दर, स्वादिष्ट और पवित्र दाल-भात और गाय का [ सुगन्धित ] घी क्षण भर में सबके सामने परस गये॥328॥
•••
समय सुहावनि गारि बिराजा।
हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
एहि बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा।
आदर सहित आचमनु दीन्हा॥4॥


समय की सुहावनी गाली शोभित हो रही है। उसे सुनकर समाज सहित राजा दशरथजी हँस रहे हैं। इस रीति से सभी ने भोजन किया और तब सबको आदर सहित आचमन (हाथ-मुँह धोने के लिये जल) दिया गया॥4॥

देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥


फिर पान देकर जनकजी ने समाज सहित दशरथजी का पूजन किया। सब राजाओं के सिरमौर (चक्रवर्ती) श्री दशरथजी प्रसन्न होकर जनवासे को चले॥329॥

नित नूतन मंगल पुर माहीं।
निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बड़े भोर भूपतिमनि जागे।
जाचक गुन गन गावन लागे॥1॥

जनकपुर में नित्य नये मंगल हो रहे हैं। दिन और रात पल के समान बीत जाते हैं। बड़े सबेरे राजाओं के मुकुटमणि दशरथजी जागे। याचक उनके गुण समूह का गान करने लगे॥1॥
(रामचरितमा. १|३३०)



विवाह आदि सब काम हो जाने के बाद भी जनक महाराज बारात सहित राजा को प्रेम से वहीं रख रहे हैं-

जनक सनेहु सीलु करतूती।
नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा।
राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥1॥


राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। प्रतिदिन (सबेरे) उठकर अयोध्या नरेश विदा माँगते हैं। पर जनकजी उन्हें प्रेम से रख लेते हैं॥1॥

नित नूतन आदरु अधिकाई।
दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित नव नगर अनंद उछाहू।
दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥2॥


आदर नित्य नया बढ़ता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकार से मेहमानी होती है। नगर में नित्य नया आनन्द और उत्साह रहता है, दशरथजी का जाना किसी को नहीं सुहाता॥2॥

बहुत दिवस बीते एहि भाँती।
जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक सतानंद तब जाई।
कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥3॥


इस प्रकार बहुत दिन बीत गए, मानो बाराती स्नेह की रस्सी से बँध गए हैं। तब विश्वामित्रजी और शतानन्दजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा-॥3॥

अब दसरथ कहँ आयसु देहू।
जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए।
कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥4॥


यद्यपि आप स्नेह [ वश उन्हें ] नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिये। 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर जनकजी ने मन्त्रियों को बुलवाया। वे आए और 'जय जीव' कहकर उन्होंने मस्तक नवाया॥4॥

अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥332॥


[ जनकजी ने कहा- ] अयोध्यानाथ चलना चाहते हैं, भीतर ( रनिवास में ) खबर कर दो। यह सुनकर मन्त्री, ब्राह्मण, सभासद और राजा जनक भी प्रेम के वश हो गये॥332॥
(रामचरितमा. १|३३२)


राजा ने जाने की सब व्यवस्था करदी-

जहँ जहँ आवत बसे बराती।
तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना।
भोजन साजु न जाइ बखाना॥2॥


आते समय जहाँ-जहाँ बाराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहुत प्रकार का सीधा (रसोई का सामान) भेजा गया। अनेकों प्रकार के मेवे, पकवान और भोजन की सामग्री जो बखानी नहीं जा सकती-॥2॥

भरि भरि बसहँ अपार कहारा।
पठईं जनक अनेक सुसारा॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा।
सकल सँवारे नख अरु सीसा॥3॥


अनगिनत बैलों और कहारों पर भर-भरकर (लाद-लादकर) भेजी गयी। साथ ही जनकजी ने अनेकों सुन्दर शय्याएँ ( पलँग ) भेजीं। एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नख से शिखा तक (ऊपर से नीचे तक) सजाये हुए,॥3॥

मत्त सहस दस सिंधुर साजे।
जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना।
महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥4॥


दस हजार सजे हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओं के हाथी भी लजा जाते हैं, गाड़ियों में भर-भरकर सोना, वस्त्र और रत्न ( जवाहिरात ) और भैंस, गाय तथा और भी नाना प्रकार की चीजें दीं॥4॥

दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥333॥


[ इस प्रकार ] जनकजी ने फिर से अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालों के लोकों की सम्पदा भी थोड़ी जान पड़ती थी॥333॥

सबु समाजु एहि भाँति बनाई।
जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥
चलिहि बरात सुनत सब रानीं।
बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥1॥


इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गईं, मानो थोड़े जल में मछलियाँ छटपटा रही हों॥1॥

पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं।
देइ असीस सिखावनु देहीं॥
होएहु संतत पियहि पिआरी।
चिरु अहिबात असीस हमारी॥2॥


वे बार-बार सीताजी को गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं-- तुम सदा अपने पति की प्यारी होओ, तुम्हारा सोहाग अचल हो, हमारी यही आशिष है॥2॥

सासु ससुर गुर सेवा करेहू।
पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
अति सनेह बस सखीं सयानी।
नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥3॥


सास, ससुर और गुरु की सेवा करना। पति का रुख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। सयानी सखियाँ अत्यन्त स्नेह के वश कोमल वाणी से स्त्रियों के धर्म सिखलाती हैं॥3॥

सादर सकल कुअँरि समुझाईं।
रानिन्ह बार बार उर लाईं॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं।
कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥4॥


आदर के साथ सब पुत्रियों को [ स्त्रियों के धर्म ] समझाकर रानियों ने बार-बार उन्हें हृदय से लगाया। माताएँ फिर-फिर भेंटतीं और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्री जाति को क्यों रचा॥4॥ 
(रामचरितमा.१|३३४)। 

×××
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी।
होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥
भूसुर सचिव समेत समाजा।
संग चले पहुँचावन राजा॥2॥


सीताजी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गये। मङ्गल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मन्त्रियों के समाजसहित राजा जनकजी उन्हें पहुँचाने के लिए साथ चले॥2॥

समय बिलोकि बाजने बाजे।
रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे।
दान मान परिपूरन कीन्हे॥3॥


समय देखकर बाजे बजने लगे। बारातियों ने रथ, हाथी और घोड़े सजाये। दशरथजी ने सब ब्राह्मणों को बुला लिया और उन्हें दान और सम्मान से परिपूर्ण कर दिया॥3॥

चरन सरोज धूरि धरि सीसा।
मुदित महीपति पाइ असीसा॥
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना।
मंगल मूल सगुन भए नाना॥4॥


उनके चरणकमलों की धूलि सिर पर धरकर और आशिष पाकर राजा आनन्दित हुए और गणेशजी का स्मरण करके उन्होंने प्रस्थान किया। मङ्गलों के मूल अनेकों शकुन हुए॥4॥

सुर प्रसून बरषहिं हरषि करहिं अपछरा गान।
चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥339॥


देवता हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएँ गान कर रही हैं। अवधपति दशरथजी नगाड़े बजाकर आनन्दपूर्वक अयोध्यापुरी को चले॥339॥

नृप करि बिनय महाजन फेरे।
सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे।
प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥1॥


राजा दशरथजी ने विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर के साथ सब मँगनों को बुलवाया। उनको गहने-कपड़े, घोड़े-हाथी दिये और प्रेम से पुष्ट करके सबको सम्पन्न अर्थात बलयुक्त कर दिया॥1॥।

बार बार बिरिदावलि भाषी।
फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं।
जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥2॥


वे सब बारंबार विरुदावली (कुलकीर्ति) बखानकर और श्री रामचन्द्रजी को हृदय में रखकर लौटे। कोसलाधीश दशरथजी बार-बार लौटने को कहते हैं, परन्तु जनकजी प्रेमवश लौटना नहीं चाहते॥2॥

पुनि कह भूपत बचन सुहाए।
फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े।
प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥3॥


दशरथजी ने फिर सुहावने वचन कहे- हे राजन्‌ ! बहुत दूर आ गये, अब लौटिये। फिर राजा दशरथजी रथ से उतरकर खड़े हो गये। उनके नेत्रों में प्रेम का प्रवाह बढ़ आया (प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली)॥3॥

तब बिदेह बोले कर जोरी।
बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौं कवन बिधि बिनय बनाई।
महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥4॥


तब जनकजी हाथ जोड़कर मानो स्नेहरूपी अमृत में डुबोकर वचन बोले- मैं किस तरह बनाकर (किन शब्दों में) विनती करूँ। हे महाराज! आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी है॥4॥

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥340॥


अयोध्यानाथ दशरथजी ने अपने स्वजन समधी का सब प्रकार से सम्मान किया। उनके आपस के मिलने में अत्यन्त विनय थी और इतनी प्रीति थी जो हृदय में समाती न थी॥340॥
(रामचरितमा.१|३४०)


अयोध्या पहुँचने पर-

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू।
रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे।
सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥1॥


सब प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक भली-भाँति आदर-सत्कार कर लेने पर राजा दशरथजी के हृदय में पूर्ण उत्साह (आनन्द) भर गया। जहाँ रनिवास था, वे वहाँ पधारे और बहुओं समेत उन्होंने कुमारों को देखा॥1॥

लिए गोद करि मोद समेता।
को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥
बधू सप्रेम गोद बैठारीं।
बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥2॥


राजा ने आनन्दसहित पुत्रों को गोद में ले लिया। उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता है? फिर पुत्रवधुओं को प्रेमसहित गोदी में बैठाकर, बार-बार हृदय में हर्षित होकर उन्होंने उनका दुलार (लाड़-चाव) किया॥2॥

देखि समाजु मुदित रनिवासू।
सब कें उर अनंद कियो बासू॥
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू।
सुनि सुनि हरषु होत सब काहू॥3॥


यह समाज (समारोह) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदय में आनन्द ने निवास कर लिया। तब राजा ने जिस तरह विवाह हुआ था, वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सब किसी को हर्ष होता है॥3॥

जनक राज गुन सीलु बड़ाई।
प्रीति रीति संपदा सुहाई॥
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी।
रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥4॥


राजा जनक के गुण, शील, महत्त्व, प्रीति की रीति और सुहावनी सम्पत्ति का वर्णन राजा ने भाट की तरह बहुत प्रकार से किया। जनकजी की करनी सुनकर सब रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं॥4॥
(रामचरितमा.१|३५४)


जनक महाराज ने राजा दशरथ जी से अपनी पुत्रियों को पालन करने और उनपर दया बनाये रखने के लिये कहा था। अब राजा दशरथ जी उनका पालन आदि करने के लिये अपनी रानियों से कहते हैं-

नृप सब भाँति सबहि सनमानी।
कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं।
राखेहु नयन पलक की नाईं॥4॥


राजा ने सबका सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा- बहुएँ अभी बच्ची हैं, पराये घर आई हैं। इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की सब प्रकार से रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना)॥4॥

लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥355॥


लड़के थके हुए नींद के वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा श्री रामचन्द्रजी के चरणों में मन लगाकर विश्रामभवन में चले गये॥355॥
(रामचरितमा. १|३५५)


रानियों ने राजा के वचन का पालन किया। रामजी आदि चारों भाइयों के पौढाने के बाद वे अपनी बहुओं को हृदय से लगाकर सोयीं-

पुरी बिराजति राजति रजनी।
रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥
सुंदर बधुन्ह सासु लै सोईं।
फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं॥2॥


रानियाँ कहती हैं- हे सजनी! देखो, [ आज ] रात्रि की कैसी शोभा है, जिससे अयोध्यापुरी विशेष शोभित हो रही है! [ यों कहती हुई ] सासुएँ सुन्दर बहुओं को लेकर सो गईं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा लिया है॥2॥

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे।
अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥
बंदि मागधन्हि गुनगन गाए।
पुरजन द्वार जोहारन आए॥3॥


प्रातःकाल पवित्र ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु जागे। मुर्गे सुन्दर बोलने लगे। भाट और मागधों ने गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आये॥3॥

बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता।
पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥
जननिन्ह सादर बदन निहारे।
भूपति संग द्वार पगु धारे॥4॥


ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वंदना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा। फिर वे राजा के साथ दरवाजे (बाहर) पधारे॥4॥

कीन्हि सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥358॥


स्वभाव से ही पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादि से निवृत्त होकर पवित्र सरयू नदी में स्नान किया और प्रातःक्रिया ( सन्ध्या-वन्दनादि ) करके वे पिता के पास आये॥358॥

भूप बिलोकि लिए उर लाई।
बैठे हरषि रजायसु पाई॥
देखि रामु सब सभा जुड़ानी।
लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥1॥


राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गये। श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गयी। (अर्थात सबके तीनों प्रकार के ताप सदा के लिए मिट गये)॥1॥

पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए।
सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥
सुतन्ह समेत पूजि पद लागे।
निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥2॥


फिर मुनि वशिष्ठजी और विश्वामित्रजी आये। राजा ने उनको सुन्दर आसनों पर बैठाया और पुत्रोंसमेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे। दोनों गुरु श्री रामजी को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गये॥2॥

कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा।
सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥
•••

वशिष्ठजी धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं•••
(रामचरितमा. १|३५९)


×××
••• 
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।
रामचंद मुख चंदु निहारी॥3॥


•••
 सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥3॥

मुदित मातु सब सखीं सहेली।
फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।
प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥4॥


सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनन्दित हैं। श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनन्दित होते हैं॥4॥
(रामचरितमा. २|१)

×××
नृप सब रहहिं कृपा अभलिाषें।
लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
तिभुअन तीनि काल जग माहीं।
भूरिभाग दसरथ सम नाहीं॥2॥


सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुख को रखते हुए (अनुकूल होकर) प्रीति करते हैं। [ पृथ्वी, आकाश, पाताल ] तीनों भुवनों में और [ भूत, भविष्य, वर्तमान ] तीनों कालों में दशरथजी के समान बड़भागी [ और ] कोई नहीं है॥2॥

मंगलमूल रामु सुत जासू।
जो कछु कहिअ थोर सबु तासू॥
 •••

मङ्गलों के मूल श्री रामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैं, उनके लिए जो कुछ कहा जाय सब थोड़ा है 
•••
(रामचरितमा. २|२)


गोस्वामी श्री तुलसीदास जी महाराज वन्दना प्रकरण में लिखते हैं-

बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥


मैं अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया॥16॥

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू।
जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई।
राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥


मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया॥1॥
(रामचरितमा.१|१७)

इस प्रकार राजा दशरथ जी और जनक महाराज आदि बङे महान् थे। इनसे हम को शिक्षा लेनी चाहिये। इनके समान हमलोगों को स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके आदर और प्रेम का व्यवहार करना चाहिये तथा भगवान् की भक्ति करनी चाहिये।

जय श्रीराम

निवेदक-
डुँगरदास राम 
 ( अधिक आश्विन कृष्ण ५ , बुधवार विक्रम संवत् २०७७ )।


आदरणीय संत श्री नारायण दास जी महाराज (मथानियाँ, जोधपुर) और आनन्दकुअँर बाईसा (महिलासंघ अधिकारी,जयपुर) ने मेरे को "राजा जनक जी और दशरथ जी महाराज का आदरयुक्त व्यवहार" लिखने को कहा, इसके लिये मैं उनका आभार व्यक्त करता हूँ। आपकी कृपा से मेरे भगवान् की लीलोओं का चिन्तन- मनन हुआ और श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग की बातें लिखने का सौभाग्य मिला।।

सोई तिथि सुतित्त्थ है सोई वार सुवार।
भद्रा भागी नानका (जब) सुमिरिया सिरजनहार।। 
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सास- बहू तथा राजा दशरथ जी और जनक जी का आदर्श व्यवहार 

( -श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग की कुछ बातें तथा राजा दशरथ जी और जनक जी का आदर और प्रेमयुक्त व्यवहार  )।
https://dungrdasram.blogspot.com/2020/10/blog-post.html




सोमवार, 10 अगस्त 2020

हम सब भगवान् की लीला में सम्मिलित हैं।

                        ।।श्रीहरिः।।


हम सब भगवान् की लीला में सम्मिलित हैं। 

आज (९|८|२०२० को) "साधक- संजीवनी" गीता में "अव्यक्त" (२|२५) की व्याख्या में  पढ़ा कि जैसे शरीर- संसार स्थूलरूपसे देखने में आता है, वैसे यह शरीरी स्थूलरूपसे देखने में आनेवाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल सृष्टि से रहित है। (आगे सूक्ष्म और कारण सृष्टि से भी रहित है, आदि बताया गया है) तो मन में आया कि क्या इसका स्वरूप अव्यक्त ही है? और भगवान् भी अव्यक्त ही रहते हैं?। फिर मन में आया कि भगवान् तो व्यक्त (प्रकट) होते हैं, उनके दर्शन होते हैं। तब उत्तर आया कि नित्यधाम में जीव भी तो पार्षद रूप में व्यक्त रहते हैं। वहाँ भगवान् भी व्यक्त रहते हैं। भगवान् का धाम तो सदा रहता है। 

 "धाम" की जिज्ञासा होनेपर श्री मद्भागवत महा पुराण में सनकादिकों और दुर्वासाजी के वैकुण्ठ गमन वाले प्रसंग देखे। फिर ब्रह्मवैवर्तपुराण (ब्रह्मखण्ड, द्वितीय अध्याय) के भगवद्धाम और सृष्टि वर्णन में पढ़ा कि  

••• ब्रह्मन् ! पूर्ववर्ती प्रलयकालमें केवल ज्योतिष्पुञ्ज प्रकाशित होता था,जिसकी प्रभा करोङों सूर्यों के समान थी। वह ज्योतिर्मण्डल नित्य है और वही असंख्य विश्व का कारण है। वह स्वेच्छामय रूपधारी सर्वव्यापी परमात्मा का परम उज्ज्वल तेज है। उस तेज के भीतर मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं। तीनों लोकों के ऊपर गोलोक- धाम है,जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। ••• प्रलयकाल में वहाँ केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप- गोपियों से भरा रहता है। गोलोक से नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण भाग में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है।ये दोनों लोक भी गोलोक के समान ही परम मनोहर हैं। ••• 

(भगवान् श्रीकृष्ण से नारायण, शिव और ब्रह्मा आदि प्रकट हुए, लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, श्री राधा जी तथा गोप- गोपियाँ प्रकट हुई। श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी को सृष्टि रचने के लिये कहा। दूसरों को भी अपने- अपने कामों में लगाया आदि पढ़ा)। 

इससे पहले परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन सुने थे और उनके अंश यथावत् लिखे भी थे। 
 
 इस प्रकार समझ में आया कि भगवान् ही अनेक रूपों से प्रकट हुए हैं। नित्य- लोकों (वैकुण्ठलोक,शिवलोक आदि) और अनित्य- लोकों (अनेक ब्रह्माण्ड तथा जिसमें हमलोग रहते हैं) में जो कुछ हो रहा है, सब भगवान् की ही लीला है। अब ये सब हम स्वीकार करलें, इनमें सहमत हो जायँ, तो हम भी भगवान् की लीला में सम्मिलित हो गये। हो गये क्या, सम्मिलित हैं। कोई नित्यलीला में सम्मिलित होते हैं, हम अनित्य लोक वाली, अनित्य लीला में सम्मिलित हैं। उनकी मर्जी के अनुसार होनें दें और करते रहें। अपने अलग मानकर क्यों आफत करें। मौज में रहें। 
"साधक- संजीवनी" गीता (अठारहवें अध्याय के सत्तावनवें श्लोक की व्याख्या) में लिखा है कि- 

'शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिसे जो कुछ शास्त्रविहित सांसारिक या पारमार्थिक क्रियाएँ होती हैं, वे सब भगवान् की मरजीसे ही होती हैं। मनुष्य तो केवल अहंकारके कारण उनको अपनी मान लेता है। उन क्रियाओंमें जो अपनापन है, उसे भी भगवान् के अर्पण कर देना है; क्योंकि वह अपनापन केवल मूर्खतासे माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं। इसलिये उनमें अपनेपनका भाव बिलकुल उठा देना चाहिये और उन सबपर भगवान् की मुहर लगा देनी चाहिये।'

(इसलिये ये सब भगवान् की लीलाएँ हो रही हैं और हम उसमें सम्मिलित हैं।) 

जय श्रीराम 

●●●
बाद के भाव-

 त्रेता और द्वापर युग में लीला का स्वरूप वैसा था आज लीला का स्वरूप ऐसा है। बदलने वाली लीला को स्थायी न मानकर सदा रहने वाले भगवान् के साथ में रहना चाहिये।)। 


शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

महापुरुषोंके सत्संगकी बातें('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के सत्संग की कुछ बातें)।।

                     ।।श्री हरिः।।      

महापुरुषोंके सत्संग की बातें 

 ('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के
सत्संग की कुछ बातें)।।                                                                                                       ।। संक्षिप्त।।                                      ●●>■<●●                                                                                              ।। पंचामृत ।।                                           (भावार्थ-) 

१. हम (जैसे भी हैं) भगवान् के हैं।
२. हम भगवान् के दरबार (घर) में रहते हैं।
३. हम भगवान् का काम (कर्तव्य-कर्म) करते हैं।
४. हम भगवान् का प्रसाद (शुद्ध सात्त्विक- भोजन) पाते हैं।
५. हम भगवान् के दिये प्रसाद (तनखाह आदि) से
भगवान् के जनों (कुटुम्बियों) की सेवा करते हैं। 
 - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज  
 के 07 अगस्त 1982, (08:18 बजे) वाले प्रवचन से।  

 
             संग्रहकर्ता और लेखक - 
                संत डुँगरदास राम  

 पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें-  
https://drive.google.com/file/d/1kog1SsId19Km2OF6vK39gc4HJXVu7zXZ/view?usp=drivesdk 

 

बुधवार, 22 जुलाई 2020

श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत्- वाणी(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज...)

                       ॥ श्रीहरिः॥ 


श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत्- वाणी 

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज सत्संग- प्रवचनों में
जैसे- जैसे बोले थे वैसे- के- वैसे ही, ज्यों- के- त्यों लिखे हुए कुछ
विशेष- प्रवचन और उपयोगी सामग्री तथा -सन् १९९० से सन् २००० तक के ग्यारह चातुर्मासों के प्रवचनों की विषय- सूची)। 



प्रवचन लेखनकर्ता -संत डुँगरदास राम आदि 






-  ( इस पुस्तक का पता-) https://drive.google.com/file/d/168AH486VS05kutfemS3YtAAx6Hr50ZGY/view?usp=drivesdk 



श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत्- वाणी

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज सत्संग-प्रवचनोंमें जैसे-जैसे बोले थे वैसे-के-वैसे ही,ज्यों-के-त्यों लिखेहुए कुछ विशेष-प्रवचन और उपयोगी सामग्री तथा सन् १९९० से सन् २००० तकके चातुर्मासोंके प्रवचनोंकी विषय-सूची

https://drive.google.com/file/d/168AH486VS05kutfemS3YtAAx6Hr50ZGY/view?usp=drivesdk 


बुधवार, 24 जून 2020

वो अच्छा काम भी करने योग्य नहीं है, जिसके लिये महापुरुषों ने मना कर दिया हो

                ।।श्रीहरि:।।



वो अच्छा काम भी करने योग्य नहीं है, जिसके लिये महापुरुषों ने मना कर दिया हो । 

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग-सम्बन्धी कुछ  आवश्यक बातें-) 

[पूर्वार्ध पहले पढना हो तो कृपया उत्तरार्द्ध से आगे पढें]

● [ उत्तरार्द्ध- ] ●


••• 
प्रश्न- 
क्या श्रीस्वामीजी महाराज के स्टेज ( प्रवचनस्थल के तख्त ) को स्मृति के रूप में रखना उचित है? 

उत्तर - उचित नहीं है ।

महापुरुषों से सम्बन्धित इस प्रकार की किसी वस्तु आदि को काम में लेना तो ठीक है , पर उनको स्मृति आदि के रूप में रखना ठीक नहीं । 

श्रीस्वामीजी महाराज की "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या आठ पर लिखा है कि ••• अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि)- को पूजा में अथवा स्मृतिके रूप में बिलकुल नहीं रखनी चाहिये, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिये। 

प्रश्न- तो ऐसा काँचवाला विशेष स्टेज बनवाया ही क्यों? जिसके कारण रखने की और देखने की मन में आवे? 

उत्तर - यह सदा रखने के लिये नहीं बनवाया , यह तो आवश्यकता समझकर थोङे समय के लिये बनवाया था । क्यों बनवाया था इसका कारण सुनो - 

श्री स्वामी जी महाराज से उनके अन्तिम वर्षों में यह प्रार्थना की गयी कि आप गीताभवन ऋषिकेश में ही रहें । आप यहाँ रहेंगे तो सत्संग भी हो जायेगा और लाभ भी अधिक लोगों को मिलेगा । लोगों के रहने आदि की सुविधा जितनी यहाँ है, उतनी दूसरी जगह मिलनी मुश्किल है। इसलिये आप यहीं रहें। तब आपने कृपा करके यह प्रार्थना स्वीकार करली और अन्तिम समय तक वहीं रहे। 

लोगों के सत्संग करना आसान हो गया। दूर- दूर से लोग वहाँ आकर रहने लग गये और सत्संग का लाभ लेने लगे । रोजाना सत्संग होता था , चाहे सर्दी हो या गर्मी, शरीर स्वस्थ हो या बिमार , सत्संग की कोशिश हमेशा रहती। 

कोई पूछते कि महाराज जी ! आपकी तबियत कैसी है? तो कभी-कभी तो आप ऐसे कह देते कि आपका काम (अलग से बातचीत करना , सत्संग प्रवचन करना आदि) तो हम कर देते हैं , फिर तब़ियत चाहे कैसी ही क्यों न हो ! अपनी अस्वस्थता , असुविधा, तकलीफ, कठिनता आदि बताने में भी संकोच करते थे। अपने तो सत्संग चलना चाहिये। 

अधिक वृद्धावस्था आदि के कारण आपके शरीर की शक्ति क्षीण हो गयी, अधिक सर्दी या गर्मी सहन करने की शरीर में शक्ति नहीं रही , अगर सर्दी गर्मी आदि सह लेते , स्वयं उनकी बेपरवाही कर देते , तो शरीर बिमार होने लगता और शरीर बिमार हो जाता तो वैद्य, डाक्टर या उनके हितैषी लोग बाहर सत्संग में जाना बन्द करवा देते कि शरीर कुछ ठीक हो जाय तब जाना ठीक रहेगा। 

सत्संग बन्द होना श्रीस्वामीजी महाराज को पसन्द नहीं था। सत्संग को वो जरूरी और अत्यन्त लाभकारी मानते थे।आवश्यक सुविधा की व्यवस्था के कारण भले ही बाहर से हमारे त्याग में कुछ कमी ही दीखे ,पर सत्संग होना चाहिये । 

शरीर के हितैषी लोगों ने कुछ विशेष प्रबन्ध करवा दिये तो सहन कर लिये , सत्संग प्रवचन के समय जिस तख्ते पर आप विराजते थे , उसके इधर उधर प्लास्टिक आदि के शीशे लगवाकर वहाँ के स्थान को पैक करवा दिया , तो (पसन्द न होते हुए ) भी आपने सहन कर लिया। 

इनके अलावा और भी अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं को सह लेते थे। कैसी- कैसी परिस्थितियाँ थीं , उनको तो वो ही जान सकते हैं , दूसरे क्या समझे ? कभी- कभी तो आप ऐसे कह देते थे कि- 
कौन सुने कासौं कहौं सुने तो समुझे नाँय। 
कहना सुनना समुझना मन ही के मन माँय।। 

ये सब होते हुए भी आप तो अपनी ही मौज में रहते थे । दुःखदायी परिस्थिति में भी दुःखी नहीं होते थे। परिस्थिति को अपने अनुसार न बनाकर स्वयं परिस्थिति के अनुसार बन जाते थे। शारीरिक पीङा में भी हँसते थे । हर कोई तो उनकी स्थिति समझ ही नहीं पाता था ।  

शारीरिक कष्ट आदि के कारण उनमें प्रेम रखने वाले कभी- कभी कुछ दिन सत्संग बन्द करने के लिये कह देते तो वो भी मान लेते थे। बङा सुखदायी स्वभाव था आपका , बङा दयालु और सरल स्वभाव था। आप महाज्ञानी थे। किसी को किचिन्मात्र् भी कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते थे। अपनी बात को छोङकर दूसरे की बात रखते थे । बङे महान् थे। 

शरीर की अशक्तावस्था के समय भी लोगों का मन रहता कि महापुरुषों के दर्शन करें, उनकी बातें सुनें। कमजोरी के कारण व्याख्यान भले ही न दे सकें , पर दर्शन तो हो जाय, हमारी तरफ वो देख तो लें आदि ऐसे भाव थे लोगों के । वो लोगों के भावों का आदर करते थे, बाहर पधारते थे। लोग दर्शन करके ही अपने आपको धन्य समझ लेते और अगर वो कुछ बात बोल देते तो और भी आनन्द हो जाता। 

शीतकाल में जब कभी- कभी आपके शरीर पर ठण्डी का असर हो जाता। सर्दी जुकाम, कफ, बुखार आदि प्रबल हो जाते तब बाहर सत्संग में आना बन्द हो जाता। फिर जब परिस्थिति कुछ अनुकूल होती तब सत्संग में पधारना होता । 

यद्यपि कई बार आप अपने निवास स्थान पर बैठे बैठे ही सत्संग प्रवचन कर देते और यन्त्र (माइक) के द्वारा बाहर , पाण्डाल ( मण्डप ) में बैठे लोगों को सुनायी पङ जाता था । फिर भी लोगों का मन रहता कि सामने से , दर्शन करते हुए उनकी बातें सुनें। लेकिन बाहर आना तो फिर से ठण्डी को निमन्त्रण देना था । 

ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिये शीशे आदि लगवाकर यह विशेष स्टेज बनवाया गया । इससे ठण्डी हवा का डर कम हुआ और सत्संग में जाना सुगम हो गया। 

भगवान् की कृपा से बहुत बढ़िया सत्संग चला और वहाँ का वातावरण सत्संगमय हो गया । श्री सेठजी का गीताभवन बनाना सफल हो गया। श्री स्वामीजी महाराज के वहाँ विराजने से गीताभवन सजीव हो उठा । लोगों के मन में आने लगी कि हम रहें तो यहीं रहें और मरें तो भी यहीं मरें । उस समय की भगवत्कृपा का आनन्द तो वही जान सकता है कि जिन्होंने उस आनन्द का कुछ अनुभव किया है । 

संसार में सब दिन एक समान नहीं रहते। इसलिये एक दिन ऐसा आया कि सब कुछ बदल गया । सत्संग समाप्त हो गया। 

अब जब वो सब परिस्थितियाँ ही नहीं रही, समाप्त हो गयी, तब हमारा मानना है कि इस शीशेवाले स्टेज को भी नहीं रखना चाहिये । 

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का त्यागमय जीवन अनुकरणीय है । वो सुख सुविधा , मान , बङाई , शरीर के आराम आदि को महत्त्व नहीं देते थे । गीताभवन और गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के समय में भी वे उनके साथ त्यागपूर्वक रहते थे और बाद में भी वे त्यागपूर्वक ही रहे। 

ऐसे त्यागी महापुरुषों का सम्बन्ध एक ऐसे स्टेज से बताना , लोगों के द्वारा भी उसको पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाना , उसका प्रचार करने लग जाना आदि कोई बढ़िया बात नहीं है , यह तो एक प्रकार से उनके त्याग में कमी दिखाने जैसा है । वास्तविक बात को हर कोई तो नहीं समझता न ! इसलिये इसको नहीं रखना ही ठीक है । 

जो काम महापुरुषों की महिमा के अनुरूप न हो तो वो काम अच्छा दीखने पर भी नहीं करना चाहिये । इससे लाभ नहीं होता। 

कोई कहे कि उनसे सम्बन्धित गीताभवन आदि और भी तो वस्तुएँ हैं, उनके लिये न कहकर केवल इस काँचवाले स्टेज के लिये ही क्यों कहते हो? 

तो इसका उत्तर यह है कि अनभिज्ञ लोग स्मृति आदि के रूप में इस स्टेज को ही महत्त्व देने लगे हैं, न कि गीताभवन आदि को। इसलिये एक इस स्टेज के लिये ही कह रहें हैं । इस प्रकार की अगर कोई दूसरी वस्तु हो तो उसके विषय में भी यही समझना चाहिये। 

किसी के यह बात नहीं भी जँचे तो हम कोई आपत्ति नहीं करते। अपने कल्याण की बात ग्रहण करने और न करने में सब स्वतन्त्र हैं । हमने तो पूछनेपर यह हित की बात कही है , अब कोई माने तो ठीक और नहीं माने तो उनकी मरजी। अपने किसी से राग द्वेष नहीं करना है , समता में स्थित रहना है । 
••• 
श्री स्वामीजी महाराज तो देश , प्रदेश, विदेश आदि अनेक जगहों पर गये हैं और वहाँ रहे हैं तथा वहाँ उनके लिये स्टेज आदि भी बने हैं, लेकिन कहीं भी ऐसा देखने में नहीं आया कि कोई स्टेज को ऐसे अलग से रखे और लोग स्मृति आदि के रूप में उसको देखने लग जायँ । 

इसके अलावा किसी दूसरी जगह भी अगर कोई ऐसा करते हैं अथवा मानते हैं कि यह स्थान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह स्टेज उनका है , यह गद्दी श्रीस्वामीजी महाराज की है , तो वो भूल में हैं ; क्योंकि श्रीस्वामीजी महाराज कहते हैं कि - 

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं । 
४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य , प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है ।••• 

( "एक संत की वसीयत" ,'मेरे विचार', पृष्ठ संख्या 12 से )। 

अगर कोई ऐसा कहे अथवा समझे कि यह मकान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह कुटिया उनकी है ,यह कमरा श्रीस्वामीजी महाराज का है , तो वो ऐसा समझनेवाला भी भूल में है ; क्योकिं मकान के विषय में श्रीस्वामीजी महाराज की वसीयत में लिखा है कि 
••• अपने जीवनकालमें भी मैंने अपने लिये कभी कहीं किसी मकान आदिका निर्माण नहीं कराया है और इसके लिये किसीको प्रेरणा भी नहीं की है । यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदिको मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणासे निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिये। 
( "एक संतकी वसीयत" पृष्ठ संख्या नौ ) । 

अगर किसी स्थान पर कोई मकान आदि बनवाकर श्रीस्वामीजी महाराज के निमित्त करदे कि यह मैंने श्रीस्वामीजी महाराज को दिया, अब यह सब उनका है और लोग भी ऐसा समझने लग जायँ , तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि मकान आदि को वो स्वीकार नहीं करते थे और अपने लिये इसको उचित भी नहीं मानते थे। । 

कोई कहे कि इस गाँव को अथवा इस मकान को तो श्रीस्वामीजी महाराज अपना कहते थे , इसलिये यह मकान तो उनका है। तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि वो "अपना कहना" केवल व्यवहार के लिये था , वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदासजी महाराज कई बार सत्संग में बताते थे कि जैसे , आपलोग रेलगाड़ी में बैठकर कहीं की यात्रा कर रहे हैं और एक जगह गाङी रुकी । आप गाङी से नीचे उतरे । और भी कई लोग नीचे उतरे । इतने में ही आपको अपने कोई परिचित दिखायी पङ गये । आप राजी हुए और बोले कि अहो ! आप भी इसी गाङी में हैं, आपका डिब्बा कौन सा है ? तो वो भी राजी हुए और बोले कि हमारा डिब्बा वो है ( तथा आप से भी पूछा कि ) आपका डिब्बा कौन सा है ? तो आपने बताया कि वो देखो , हमारा डिब्बा वो है । कुछ देर बाद में फिर सब अपने अपने डिब्बों में चले गये।  जबतक यात्रा रही तबतक आराम से आप अपने उस डिब्बे में रहे और उस डिब्बे को अपना कहते रहे ; परन्तु यात्रा समाप्त करके जब आप अपने घरपर आ जाते हैं तो उस डिब्बे को अपना मानते हैं क्या? , कभी डिब्बे की चिन्ता होती है क्या? कभी पत्र लिखकर भी पूछते हैं क्या कि हमारा डिब्बा कैसा है ? आजकल उसका क्या हाल है ? आदि। 

क्यों नहीं पूछते ? कारण कि वो अपना था ही नहीं, आपने उसको अपना माना ही नहीं। उसको तो आपने व्यवहार के लिये अपना कहा था। वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

इसी प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज ने व्यवहार के लिये किसी मकान आदि को अपना कह दिया तो भी वास्तव में वो मकान उनका अपना नहीं है । 

कोई कहे कि यहाँ तो श्रीस्वामीजी महाराज बार- बार आते थे और वर्षोंतक यहाँ रहे हैं , इसलिये यह जगह तो उनकी है , तो यह भी ठीक नहीं , क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जगह को अपनी माननेवाला तो थोड़ी देर में ही मान लेता है और नहीं माननेवाला वर्षोंतक रहने पर भी ( उस जगह को अपनी ) नहीं मानता। श्रीस्वामीजी महाराज ऐसे महापुरुष थे कि वर्षों तक एक जगह रहनेपर भी उस जगह को अपनी नहीं मानते । इसलिये श्रीस्वामीजी महाराज के अधिक रहनेपर भी उस जगह को खास बताकर लोगों का ध्यान उधर नहीं लगाना चाहिये जिससे कि लोग उस जगह को पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाय। 

महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान और कार्य आदि विशेष होते हैं , आदरणीय , अच्छे और विलक्षण होते हैं; लेकिन जिस काम के लिये महापुरुष मना कर देते हैं, तो वो काम अच्छा होने पर भी नहीं करना चाहिये। 

महापुरुषों के चरणरज की बङी भारी महिमा है; पर चरणरज लेने के लिये अगर महापुरुष मना कर देते हैं तो नहीं लेनी चाहिये। 

चरणरज लेना अच्छा काम है; परन्तु श्री स्वामीजी महाराज मना करते हैं , इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। 

भगवान् के तो जन्म दिवस पर उत्सव मनाया जाता है और महात्माओं के निर्वाण दिवस पर उत्सव (बरसी) मनाया जाता है; क्योंकि इस इस दिन उन सन्तों का भगवान् से मिलन हुआ है।  बरसी मनाना अच्छा काम है , परन्तु श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी बरसी आदि मनाने का निषेध ( मना) किया है, इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। (आजकल कुछ अंश में लोग जो बरसी मनाने लगे हैं, वो भूल में हैं) "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के दसवें पृष्ठ पर बरसी आदि का निषेध करते हुए लिखा है कि
  "जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये।" 
 इसी प्रकार अन्य कामों में भी समझना चाहिये। 

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि महापुरुष किसी विहित काम के लिये कहे और कोई उसको न करे , तो वो लाभ से वञ्चित रहता है (नुकसान नहीं होता), परन्तु जिस काम के लिये उन्होंने निषेध किया है , उस काम को करने से नुकसान होता है। 

इस प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज ने जिस वस्तु को पूजा अथवा स्मृतिरूप में रखने के लिये मना किया है , वो न रखें। किसी वस्तु , स्थान , कमरा , स्टेज आदि को इस प्रकार महत्त्व न दें जिससे लोगों को स्मृतिरूप में रखने आदि की प्रेरणा मिले । दूसरे लोग ऐसी भूल करे तो उनको भी प्रेम से समझाने की कोशिश करें । 

ऐसे उन वर्जित कामों को न करके 
महापुरुषों के ग्रंथों को महत्त्व देना चाहिये। उनको आदर पूर्वक रखना और पढ़ना चाहिये । महापुरुषों की रिकॉर्डिंग वाणी सुनना और उसका प्रचार- प्रसार करना चाहिये। भगवान् की वाणी श्री मद् भगवद् गीता पर लिखी हुई टीका तत्त्वविवेचनी और साधक- संजीवनी का प्रचार-प्रसार करना चाहिये। महापुरुषों के लेख , सत्संग प्रवचनों के ग्रंथ , तत्त्वचिन्तामणि , साधन- सुधा- सिन्धु आदि का अध्ययन करना और करवाना चाहिये । यह काम उन महापुरुषों को भी पसन्द है और यह सबका कल्याण करने वाला है। पंजाबी लोग अपने गुरु ग्रंथ साहिब को कितना आदर से रखते हैं, ऐसे हमलोगों को भी चाहिये कि महापुरुषों के साधक- संजीवनी गीता आदि ग्रंथों को आदर से रखें , उनको महत्त्व दें और पढें । 

साधक- संजीवनी गीता के सातवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक की व्याख्या में लिखा है कि - 

 [ सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है, वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है; परन्तु वे महात्मा आज्ञाके रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं, उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।] 

इस प्रकार और भी अनेक बातें हैं, हमलोगों को चाहिये कि मन लगाकर ऐसे ग्रंथों का अध्ययन करें, महापुरुषों के सिद्धान्तों को समझें और उनके अनुसार अपना जीवन बनावें। 
••• 
आजकल कई लोग श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में मनगढ़न्त , कल्पित और झूठी बातें करने लग गये। उन बातों को सुनकर लोग बिना सोचे समझे आगे दूसरों को भी कहने लग गये। भ्रम की बातें फैलने लगी । सही बातें मिलनी मुश्किल हो गयी। इसलिये सही और महापुरुषों की बढ़िया बातें बताने के लिये एक पुस्तक लिखी गयी है। उस पुस्तक का नाम है- "महापुरुषोंके सत्संगकी कुछ बातें " । इसमें श्री स्वामी जी महाराज के विषय में उनके द्वारा ही सुनी हुई सही बातें लिखी है। इसमें श्रीसेठजी और स्वामीजी महाराज के पहली बार मिलने का भी वर्णन है तथा और भी कई बातें हैं। 

ऐसे ही दूसरी एक पुस्तक है - "श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत् वाणी " । इसमें श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग- प्रवचन में जैसे जैसे बोले थे , वैसे- वैसे ही लिखने का प्रयास किया गया है तथा इसमें ग्यारह चातुर्मासों (सन् 1990 से 2000 तक) के प्रवचनों की विषयसूची भी लिखी गयी है कि किस तारीख को , कितने बजे और किस विषय पर श्रीस्वामीजी महाराज बोले थे। इसमें और भी उपयोगी सत्संग- सामग्री है। इन दोनों पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिये। पुस्तकों का पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/?m=1

इन बातों में जो अच्छापन है वो उन महापुरुषों का है और जो त्रुटियाँ हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छेपन की तरफ ध्यान देंगे,  ऐसी आशा है। मेरी इन बातों से किसीको ठेस लगी हो तो मैं क्षमा याचना करता हूँ। 

निवेदक- 
डुँगरदास राम 
वैसाख कृष्ण ११ शनिवार , वि.सं.२०७७ । 
जय श्री राम 


                            ■●■   


जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी न करें।  



● [ पूर्वार्ध- ] ●

एक दिन (दि.14-4-2020 को) वाट्सऐप्प के ग्रुप में जो बहस हुई थी , उसके विषय में कुछ लिखा जा रहा है । यद्यपि मैं उस ग्रुप में नहीं था ; परन्तु उनके कुछ लेखन आदि देखकर ऐसा लगा कि इस प्रकार के आपसी तर्क- वितर्क से कई लोगों के मन में विक्षेप हुआ है। 

आदरणीय सज्जनों और माता बहनों को जो विक्षेप हुआ, उसके लिये मैं क्षमा याचना करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि दुबारा ऐसा न हो। 

बात क्या हुई कि एक सज्जन ने गीताभवन के सत्संग- मञ्च ( स्टेज ) की फोटो फेसबुक पर प्रकाशित करदी। बाद में उनको लगा कि मेरा यह काम अनुचित तो नहीं था ? ( उनको इस पर किसीने सलाह भी दी ) , तब उन्होंने अलग से सन्देश भेजकर इसके लिये मेरेसे जानकारी चाही । मैंने सन्देश में वो जानकारी लिखकर (उनको अलग से ही) भेजदी। 

फिर उन्होंने वो बातें वाट्सऐप्प पर ग्रुप में (चलते हुए वाद विवाद के समय) भेजदी। उस के बाद बात और बढ़ गयी । 

ग्रुप में कई प्रकार के तर्क, कुतर्क, प्रतीकार आदि किये गये , मामला देर राततक चलता रहा। इससे ऐसा लगा कि लोगों के मन में काफ़ी विक्षेप हुआ है । अधूरी जानकारी के कारण लोगों के मन में असमञ्जस की स्थिति पैदा हो गई। लोगों के मन में नये प्रश्न पैदा हो गये और वास्तविक बात समझनी कठिन हो गयी । इसलिये मन में आया कि इस विषय पर कुछ और लिखा जाय , जिससे अगर कोई जानना चाहें तो उनको सही बात का पता लग सके । 

जिन सज्जन ने मेरे से जो पूछा और मेरे द्वारा लिखा गया उनका जवाब जो उन्होंने ग्रुप में भेजा , वो कुछ इस प्रकार था- 

[ ••• 
[14/4, 9:28 PM] 
(प्रश्नकर्त्ता- ) 
राम राम भैया जी🙏

जहां तक मुझे ज्ञात है स्वामी जी महाराज ने जिस कुर्सी पर वो बैठा करते थे उसे भी नष्ट करवा गए थे ताकि उनकी स्मृति चिन्ह के रूप में लोग पूजना शुरू ना कर दें। (ऐसा मैंने कुछ श्रेष्ठ महानुभावों द्वारा सुना है... 

••• 

आप सभी श्रेष्ठ महानुभावों से विचार विमर्श कर ही निर्णय करें।

राम राम राम 🙏🙏
: राम महराज जी सादर विनम्र निवेदन है कि इस पर भी प्रकाश डालियेगा। 

[14/4, 10:12 PM] 
(जवाब-) 
: हाँ रामजी, लोहेका बैड था जो हमने गीताभवन ••• से समाप्त करने को कहा और उन्होंने उसके पुर्जे खुलवाकर गंगाजी में विसर्जित करवाया। 
हमलोगों ने तो इस काँचवाले स्टेज को भी हटाने के लिये ••• कह दिया था , लेकिन हमारे कहने के अनुसार यह कार्य हुआ नहीं । उन दिनों ••• भी वहाँ थे और गीताभवन के ••• सामने ही हमने फिर निवेदन किया कि यह हटा दिया जाय। वो ••• की तरफ देखकर संकोच पूर्वक बोले कि ये हटा देंगे, हमको विश्वास है। ( फिर भी नहीं हटा ) ।

यह स्टेज हमलोगों ने ही ठण्ड से रक्षा के लिये लगवाया था। ठण्डी हवा नहीं आवे , वो ठण्डी हवा श्री स्वामी जी महाराज के वृद्ध शरीर में कोई विकृति उत्पन्न न करें, सर्दी जुकाम आदि न करें, जिसके कारण सत्संग बन्द करना पड़े। ऐसा न हो, इसलिए हम लोगों ने स्टेज को शीशे आदि के द्वारा पैक करवाया था। 

जब श्री स्वामी जी महाराज के शरीर के साथ ही यहाँ का यह सब प्रोग्राम समाप्त हो गया तो हमलोगों ने उनके शरीर के काम आनेवाली कई चीजों को भी समाप्त करवा दिया । कुछेक बाकी भी रह गई, जिनमें से एक चीज यह काँच वाला स्टेज है ( गीता भवन नम्बर तीन में ) । हमने इनको भी समाप्त करने के लिए कहा, लेकिन यह नहीं हो पाया । जो वस्तुएँ हमारे हाथ में थी , जिसको हम करवा सकते थे , उनको तो समाप्त कर दिया गया और यह रह गया और बाद में तो लोग इसको रखने के पक्ष में हो गये। 

इस प्रकार यह ऐसे ही रह गया और यह सब चलने लगा जो कि ऐसे महापुरुषों के पीछे कोई अच्छी बात नहीं है । अधिक जानकारी के लिये उनकी वसीयत देखो। 
अस्तु। 

इसके बाद जो हुआ, वो ग्रुप के सदस्य जानते ही होंगे , हम उसको यहाँ लिखना उचित नहीं समझते। 

कुछ प्रश्नों के जवाब हम नीचे लिखी बातों में दे रहे हैं, जिनके मन में जो प्रश्न हो, वो इन बातों को ध्यान से पढ़कर समझलें। फिर भी कोई बात समझनी बाकी रह जाय तो मेरे से बात करके समझ सकते हैं। 

किसी सज्जन को स्टेज समाप्त करने जैसी बातें जँची नहीं और उनके द्वारा कई प्रकार के सवाल खड़े किये गये कि इस प्रकार कहने वाला मैं कौन होता हूँ । ( उनके सब सवाल यहाँ लिखने उचित नहीं लगे , आगे लिखी गई बातों को ठीक तरह से पढ़कर ही सवाल जवाब समझ लेने चाहिये )। 

••• सबसे पहले तो यह समझलें कि हम और गीताभवन एक ही हैं। मैं गीताभवन का ही हूँ और उस समय उस काम में सामिल भी था अर्थात् गीताभवन , गीताभवन के लोग , संत महात्मा और हमलोग - ये कोई अलग-अलग नहीं हैं , सब एक ही हैं । कुछ मतभेद हो जाने से कोई दो नहीं हो जाते , पराये नहीं हो जाते। यह तो हमारे ही आपस की बात है। इसका उद्देश्य न तो किसीकी निन्दा करना है और न किसी की प्रशंसा । इसका उद्देश्य यह समझना चाहिये कि महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी कार्य उनकी आज्ञा के अनुसार ही हो तथा सब लोगों का हित हो । 

प्रायः ऐसा देखा जाता है कि अपने घर में भी सब काम अपने मन के अनुसार नहीं होते। अपनी मर्ज़ी के अनुसार पूरे घरवालों को चलाना तो दूर , हम अपनी मरजी के अनुसार अपने शरीर को भी नहीं चला सकते। जब एक शरीर को भी नहीं चला सकते तो फिर सब को तो चला ही कैसे सकते हैं , नहीं चला सकते। 

नहीं चला सकने पर भी हम अपने शरीर अथवा घरवालों से पराये नहीं हो जाते , नाराज़ भी नहीं होते । उनके साथ में ही रहते हैं। घरवाले और हमसब एक ही रहते हैं। मतभेद होनेपर भी प्रेमभेद नहीं होता। अपनापन वही रहता है। ऐसा नहीं होता कि बेटे ने माँ की बात नहीं मानी तो अब वो माँ का बेटा नहीं रहा । बात न मानने पर भी बेटा तो बेटा ही रहता है, माँ भी माँ ही रहती है । माँ और बेटे का सम्बन्ध वही रहता है, मतभेद होने पर भी , एकमत न दीखने पर भी रहते सब एक ही हैं। ऐसे हमलोग मतभेद होनेपर भी हैं सब एक ही। अलग-अलग नहीं हैं। हम जो कह रहे हैं, वो अपने लोगों को ही कह रहे हैं। इस बात को समझना चाहिये । न समझने के कारण ही ऐसे तर्क कुतर्क पैदा होते हैं। 

अपने- अपने घरों में भी हमें ऐसे एकतापूर्वक प्रेम से रहना चाहिये। स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके सबके प्रति हित का भाव रखना चाहिये। 
परमात्मस्वरूप सारे संसार में जितने भी प्राणी हैं, वो और हम सब एक हैं। 
सबजग ईश्वररूप है भलो बुरो नहिं कोय। 
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय।। ●●● 
(इसके आगे का भाग इस लेख के ऊपर (उत्तरार्द्ध से ) पढें)। 

गुरुवार, 18 जून 2020

यथावत् लेखन प्रवचनों के अंश।(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के यथावत् लेखन किये गये प्रवचनों के चुने हुए, दिनांक सहित अंश)।

                       ।। श्रीहरि:।।


यथावत्- लेखन प्रवचनों के अंश।  

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के यथावत् लेखन किये गये प्रवचनों के चुने हुए, दिनांक सहित अंश)। 


यथावत्- लेखन प्रवचनों के अंश (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के रिकोर्डिंग- प्रवचनों के अनुसार यथावत् लिखे हुए वाक्यों के कुछ अंश)।

जब हम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के 'ओडियो रिकार्डिंग वाले' प्रवचन सुनते हैं तो उनमें कई बातें बहुत बढ़िया लगती है और मन करता है कि बार-बार सुनें। बाद में भी जब कभी दुबारा उस बात को सुनने का मन होता है और प्रवचन सुनना शुरु करते हैं तो उस बात को खोजने में समय लगता है। वो बात अगर अलग से लिखी हुई होती है तो सुगमता से मिल जाती है। लिखी हुई बात को बार-बार पढ़कर उस पर विचार करना भी सुगम हो जाता है। फिर विचार आता है कि इस बात को श्रीस्वामीजी महाराज बोले तो ऐसे ही हैं न? बोलने में और इस लिखे हुए में कोई फर्क तो नहीं है? कई बार लिखने में भूल भी हो जाती है और कभी-कभी लिखनेवाला अपनी समझदारी लगाकर वाक्य को बदल भी देता है। लेकिन ऐसे लेखन पर श्रद्धा नहीं बैठती। पता नहीं लगता कि श्रीस्वामीजी महाराज का यहाँ कहने का भाव क्या था। कई बार 'लेखन' और 'आडियो रिकार्डिंग' का मिलान करते हैं तो जैसा श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं, वैसा नहीं मिलता, अन्तर (फर्क) आता है। श्रीस्वामीजी महाराज जैसा वाक्य बोले हैं, वैसा लिखा हुआ नहीं मिलता, वाक्य बदला हुआ मिलता है। कभी-कभी तो वो लेखक पूरे वाक्य को ही छोड़ देता है और आगे बढ़ जाता है। तो ऐसे में विश्वास नहीं होता कि यह लेखन भी यथावत् है या नहीं। इससे वास्तविक बात का पता नहीं लगता, श्रीस्वामीजी महाराज की बात का रहस्य छूट जाता है। वो रहस्य तब समझ में आता है कि जब रिकोर्डिंग के अनुसार ही यथावत् लिखा हुआ हो, उसमें एक शब्द और मात्रा आदि का भी हेर- फेर न किया गया हो।

उससे भी बढ़िया तब समझ में आता है कि उस रिकोर्डिंग को ही ध्यान से सुना जाय।
ऐसे सुनकर समझा जाय तो बात बहुत बढ़िया समझ में आती है। बहुत लाभ होता है।
कभी-कभी सुनने की सुविधा न हो तो लिखी हुई बात को पढ़कर भी समझा जा सकता है। परन्तु लिखी हुई बात वैसी- की वैसी ही होनी चाहिये जैसी कि श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं। लिखने में हेर-फेर नहीं होना चाहिये। रिकोर्डिंग के अनुसार ही, यथावत् लेखन होना चाहिये।

यथावत् लेखन में जितनी कमी रहेगी, उतनी ही अथवा उससे भी अधिक समझने में कमी रहेगी। बात को यथावत् समझना हो तो लेखन भी यथावत् होना चाहिये।

यहाँ ऐसी ही बढ़िया और मार्मिक बातों को यथावत् समझने के लिये प्रवचनों के यथावत् लेखन के अंश दिये जा रहे हैं। भाई बहनों को चाहिये कि इससे स्वयं लाभ लें और दूसरों को भी बतावें।  

यथावत् लेखन एक प्रकार से दोनों की पूर्ति करता है- रिकोर्ड किये हुए प्रवचन की और लिखे हुए प्रवचन की।

[ इसमें जो लेखन के शुरु और अन्त में बङे बिन्दू दिये गये हैं, वो यह दर्शाने के लिये है कि इनके बीच के अंशों को यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है।

प्रवचनों के दिनांक और विषय वो ही दिये गये हैं जो श्रीस्वामीजी महाराज की सत्संग- सामग्री के मूल संग्रह में थे। जहाँ एक ही प्रवचन में से अनेक बातें ली गयी है, वहाँ, उनकी तारीख ऊपर एक बार ही दी गयी है ]

19940702_0830_Aham Rahit Svaroop Ka Anubhav_VV

● ••• तो ये जो बात मैंने कही, ये करणनिरपेक्ष बात बताई। साधन करणनिरपेक्ष होता है, वो स्वयं से होता है, चित्त की वृत्तियों से नहीं होता। चित्त की वृत्तियों को (के) साथमें साधन किया जाय, वो करणसापेक्ष है। करणनिरपेक्ष कह सकते हैं पण करणरहित नहीं कह सकते। ••• (यथावत् लेखन) ●



19940605_1600_Aham Ka Tyaag_VV
● ••• जो संसार में है वो परमात्मा है, इस शरीर में है वो आत्मा है। आत्मा र परमात्मा एक है। इसमें फर्क नहीं है। और मैं तू यह र वह, सऽऽब अनात्मा है। ये खास जाणने
की बात है।
जबतक अहम् साथ में नहीं लगेगा तबतक आप कोई व्यवहार नहीं कर सकोगे। व्यवहार करोगे तो अहम् साथ में लगेगा। इन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ,मन,बुद्धि, ये सब मिलकर काम करेंगे। और इस काम करणे को आप अपणे मानलें कि मैं कर्ता हूँ तो आपको भोक्ता बणणा पङेगा ,सुख दुख भोगणा ही पङेगा। तो [क्योंकि] कर्ता होता है वो ही भोक्ता होता है। तो ये स्वाभाविक नहीं है अस्वाभाविक है। इस वास्ते ये मिट ज्यायगा; क्योंकि ये है नहीं और जो आत्मा है र परमात्मा है, वो है। ये मिटेगा नहीं कभी। इसकी प्राप्ति हो ज्यायगी। जो मिटता है र अस्वाभाविक है, इससे आप विमुख हो ज्याय, अपणे स्वरूप का बोध हो ज्यायेगा। सीधी, सत्य बात है। तो वो 'है मात्र्' आपका रूप है- है मात्र्। है तत्त्व, उसमें स्थति सम्पूर्ण प्राणियों की है। (यथावत् लेखन) ●

19940530_0830_Ahamkar Kaise Mite Saadhan Kaunsa Kare
● ••• बङे- बङे ग्रंथों में समाधि और व्युत्थान- दो अवस्था लिखी है; परन्तु वास्तव में जो समाधि है, उसमें व्युत्थान नहीं होता है अर व्युत्थान होता है वो योग की समाधि है, तत्त्वज्ञान की समाधि वो नहीं है, जिससे व्युत्थान होता हो। वो समाधि हो गई तो हो गई हो गई , सदा के लिये हो गई। उसको सहजावस्था कहा है।
उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यान धारणा।
कनिष्ठा शास्त्रचिन्ता च तीर्थयात्राऽधमाऽधमा।।
(यथावत् लेखन)
● ••• तो मैं एक बात बताता हूँ- अहंकार दूर नहीं होता, मैं एक बात बताता हूँ- आप जिसको सुगमता से कर सकते हैं, उसी साधन को करो। उसका नतीजा ठेठ पहुँच ज्यायगा। जो होता नहीं, उसको तो करने के लिये हिचकते हैं, जो कर सकते हैं वो करते नहीं है- ये बाधा है, खास। (यथावत् लेखन)

● ••• चित्तवृत्तियों का निरोध हो ज्याय, योग हो ज्यायगा। यह पातञ्जलयोग होगा और गीता कहते हैं- समत्वं योग उच्यते, एकाग्र हो और न हो, अपने कोई मतलब नहीं, योग हो गया गीता जी का। जैसे कोई कहणा मानें, न मानें। अपणे छोड़ दिया, जै रामजी की, खुशी आवे ज्यूँ करो। ऐसे आप भगवान् के सामने हो ज्याओ, भक्तियोग हो गया। तटस्थ हो ज्याओ , ज्ञानयोग हो ज्यायगा अर संसार के हित में लगा दो, कर्मयोग हो जायेगा। ये बात है। (यथावत् लेखन) ●


19940526_1600_Aham Ka Tyag
● ••• तो बुद्धि और अहम् एक है। और भेद करें, तो अहम् की बुद्धि है, बुद्धि का अहम् नहीं है मानो मेरी बुद्धि - ऐसे कहनेवाला अहम् है। तो अहम् से हम अलग हो जाय ,तो वे, स्थूल, सूक्ष्म, कारण, सब ठीक हो जायेगा। एकदम। तो अहम् से हम अलग है- यह अनुभव हो ज्याय, केवल बातूनी ज्ञान से काम ठीक नहीं होता ••• (यथावत् लेखन) ●

● ••• बङी बात वो है जो अहम् से रहित आपको अपणे का अनुभव हो ज्याय। कह, वो अनुभव कैसे हो ? वो ऐसे हो, क अहंकार आता जाता है, आप आते जाते नहीं हो, आप निरन्तर रहते हो और अहंकार जाग्रत में, स्वप्न में आता है और सुषुप्ति में जाता है, लीन हो ज्याता है ; पण आप आने जाने वाले नहीं हो। आणे जाणे वाले वे अनित्य होते हैं (नित्य नहीं होते हैं)••• (यथावत् लेखन) ●

(ज्ञान अज्ञान का नाशक होता है, तत्त्व का प्रापक नहीं। अज्ञान का नाश करके स्वयं शान्त हो जाता है, स्वरूप रह जाता है। स्वयं भी ज्ञान स्वरूप है। [ ज्ञान दो प्रकार के हुए ] )।

19940419_0518_Sharnagati.
{ एक अहम् अभिमान रूप होता है, वो तो पतन करनेवाला है, एक अहम् कर्तव्यबोध कराता है, (मैं अमुक हूँ, आदि स्वाभिमान वाला)}।

● ••• बदल देने में, भगवान् का हूँ, यह बढ़िया है, परन्तु बहोत बढ़िया है कि मैं संसारी नहीं हूँ।जङता के साथ निषेधात्मक साधन है, बढ़िया बनता है। विध्यात्मक इतना बढ़िया नहीं है, जितना निषेधात्मक है। मैं संसारी नहीं हूँ, मैं भोगी नहीं हूँ••• (यथावत् लेखन) ●

19920529_0518_Aham Nash Ki Avashyakta
● ••• प्रकृतिरष्टधा (गीता ७|५) इस अहम् में स्थित है वो प्रकृतिस्थ है। वो ही भोक्ता बनता है, मान अपमान का, सुख दुःख का, निन्दा अस्तुति का,अनुकूल- प्रतिकूलता का, भोग भोगता है और सुखी दुखी होता है। यह अहम् होता है। अहम् में अपणी स्थिति होणे से आप स्वयं, सुखी और दुखी होते हैं ।राजी और नाराज़ होते हैं। तो वे राजी र नाराजी मैं-पन से होते हैं। मैं- पन को न पकङे तो 'सम दुखसुखः' (गीता १४|२४), सुख दुःख में समता हो ज्यायगी, जैसे सुख है वैसे ही दुःख है, जैसा दुःख है वैसे ही सुख है, जैसा लाभ है वैसी ही हानि है, जैसी हानि है वैसे ही लाभ है, जैसा संयोग है वैसा ही वियोग है, जैसा वियोग है वैसा ही लाभ है, सम हो जायेंगे। और अहंकार रहेगा तबतक सम नहीं होंगे। (यथावत् लेखन) ●

19900713_0518_Sharnagati Aur Seva.mp3
● ••• भक्तियोग एक ऐसी चीज है कि यह केवल (अकेला) भी कल्याण करने वाला है और कर्मयोग के साथ लगा दो ज्ञानयोग के साथ लगा दो तो भी कल्याण करने वाला है (यथावत् लेखन) ●

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने दिनांक
19900608_0830_Jagrit Mein Sushupti Kaise Ho Chup ... वाले प्रवचन में बताया कि-
● ... शामको कीर्तन करते हो,कीर्तन के बाद (में) मैं चुप होता हूँ,उस चुप में आप निर्विकल्प हो जाओ, परमात्मा में स्थिति बहुत सुगमता से हो जायेगी। कीर्तन करते-करते परमात्मा में स्थिति हुई, परमात्मा का चिन्तन हुआ और फेर (फिर) कुछ नहीं चिन्तन करो (कुछ भी चिन्तन मत करो)। वो कीर्तन आपके भीतर बैठ जायेगा। एकदम भीतर जम जायगा। उससे निर्विकल्पता स्वत: होगी। ऐसे जागते हो जब नींद से, उसके बाद थोड़ी देर चुप रहो। तो आपकी स्थिति परमात्मस्वरूप में हो जायेगी। नींद लेते समय - आरम्भ में,बिछौने पर बैठ गये, कुछ देर शाऽ ऽ ऽन्त (शान्त हो जाओ)। कुछ भी चिन्तन न करके सो जाओ। (अस्पष्ट- सुबह उठते ही न चिन्तनकर्ता) आपके साथमें कारण शरीर तक पहुँच जायेगा। तो उससे परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी। इतना सुगम साधन है,बढ़िया साधन है। 19900608_0830_Jagrit Mein Sushupti Kaise Ho Chup (नामक प्रवचन का यथावत् लेखन अंश) ● ••• ।

{ इस प्रवचन में और भी कई बातें बताई गयी है।
...सब शक्ति अक्रिय तत्त्व से मिलती है। अक्रिय, निर्विकल्प हो जाने से आप में बहुत शक्ति आ जायेगी। काम,क्रोध आदि (मिटाने की शक्ति आ जायेगी)।
...तो मन लगाना इतना दामी नहीं है,जितना राग-द्वेष हटाना दामी है}।

■■



05-04-1887_0518 - AM
(जबतक जङता का सङ्ग बुरा न लगे, तबतक जङता का त्याग नहीं होता और बुरा लगने से त्याग स्वतः होता है, स्वाभाविक ।

देखो ! जङता होती है न , वो चेतन का विषय होती है )।
● ••• जङ । चेतन ही कह सकता है (कि) यह जङ है, जङ नहीं कह सकता (कि) यह चेतन है। जङ में यह ताकत नहीं कि वो चेतन को बता सके और चेतन में जङ को बताने की शक्ति बरोबर है । तो आधिपत्य चेतन का है । इसको स्वीकार करले और जङ तो परिवर्तनशील है, बदलता रहता है । इसका त्याग कैसे करें? त्याग तो स्वतः होता है भाई ! इसको रखणा मुश्किल है, पकङणा मुश्किल है । अब बाळकपणा छोङा तो जवानी पकङली, जवानी छोङी तो वृद्धापण पकङ लिया। वो छोङा तो मृत्यु को पकङ लिया। मृत्यु को पकङ लिया फिर जङ में (जङता) को पकङ लिया। तो ये जङता तो हरदम जा रही है, केवल आप पकङणा छोङदें तो जङता तो छूट ज्यायगी, जङता तो रह सकती (ही) नहीं, जङता में ताकत नहीं है रहणे की । आप पकङते हैं, पकङना छोङदो तो छूट ज्यायगी ।
ये मेरी बात समझमें आती है क नहिं? (यथावत् लेखन) ●


17-07-1986-0618-AM

● ••• दूजी बात, एक मार्मिक बताता हूँ । उस तरफ भाई बहनों का ध्यान बहोत कम है । आप कृपा करके ध्यान दें । अपणे भजन- स्मरण करके भगवान् का चिन्तन करके, दया, क्षमा करके जो साधन करते हैं । ये जो करके साधन करते हैं , इसकी अपेक्षा भगवान् की शरण होणा , तत्त्व को समझणा और ये करणे पर जोर नहीं देणा, करणे से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है, इणका त्याग करके एक शरण होणा, एक परमात्मा में लग ज्याणा अर उसके नाम का जप करो, कीर्तन करो , भगवान् की चर्चा सुणो, भगवान् की बात कहो- ये करणे की है। और दूजा करणे का ऊँचा दर्जा नहीं है । जैसे दान करो, पुण्य करो, तीर्थ करो, ब्रत करो, होम करो, यज्ञ करो। ये सब अच्छी बातें है; परन्तु ये दो नम्बर की बातें हैं ।

निष्कामकर्मानुष्ठानं त्यागात्काम्यनिषिद्धयोः।

काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना और निष्काम भाव से सबकी सेवा करना है।

तत्रापि परमो धर्मः जपस्तुत्यादिकं हरेः।।

भगवान् के नाम का जप करणा, स्तुति करणा, भगवान् की चर्चा सुणणी, कथा कहणी, कथा सुणणी, भक्तों के, भगवान् के चरित्रों का वर्णन करणा- ये काम मुख्य करणे का है।

और इसमें थाँरे पईसे री जरुरत कोनि । यज्ञ करो तो , दान करो तो , पुण्य करो तो, उपकार करो तो पईसा री जरुरत है । तो जिणके पास पईसा है, उनको यह करणा चाहिये, टैक्स है उन पर। नहीं करते हैं तो गलती है । पैसा रखे अर दान पुण्य नीं करे -

धनवँत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।
भगति करे नहिं भगतङा अब कीजै कौण उपाव।।
कीजै कौण उपाय सलाह एक सुणलो म्हारी।
दो बहती रे पूर नदी जब आवै भारी।।
जाय गङीन्दा खावता धरती टिकै न पाँव।
धनवत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।।

तो धर्म, दान, पुण्य करणा कोई ऊँचे दर्जे की चीज़ नहीं है; पण पईसा राखे है, वाँरे वास्ते टैक्स है । नीं करे तो डण्ड होगा । तो डण्ड से बचणे के लिये ये काम करणे का है । भाई, पईसा ह्वै तो इयूँ करलूँ, इयूँ करलूँ । कहीं कुछ नहीं होता । पईसा है तो वे लगाओ अच्छे काम में । नहीं तो थाँरे फाँसा घालसी , पईसा थाँरा अठैई रहई अर डण्डा थाँरे पङसी, मुफत में, अर पईसा खा ही मादया भाई- दूजा । डण्डा थाँरे पङसी। इण वास्ते ए खर्च करणा है ।

करणे रो काम तो भगवान् रे नाम रो जप करो, कीर्तन करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, कथा पढ़ो , भगवान् री कथा पढ़ो, सुणो, भगतों की कथावाँ सुणो, पढ़ो । ये पवित्र करणे वाळी चीजें हैं और मुफत में पवित्र कर देगी, कौङी- पईसा लागे नहीं, परतन्त्रता है नहीं । और फेर निरर्थक और निषिद्ध काम बिल्कुल नहीं करणा है कोई तरह से ई । ये जितना अशुद्ध ••• ●
(आगे की रिकोर्डिंग कट गई)।

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सतरह जुलाई, उन्नीस सौ छियासी, प्रातः पाँच (0618) बजे वाले प्रवचन के अंश का यथावत् लेखन)।


30-3-1988-0830-AM
● ••• तो पहले से भूख लगी होती है उसके सत्संग का असर ज्यादे (ज्यादा) होता है,विलक्षण होता है। परन्तु बिना भूख भी सत्संग करता है उसपर असर जरूर होता है। इसमें सन्देह नहीं। (यथावत् लेखन) ● +++

● ••• अच्छा सत्संग मिलता कठिन है। सत्संग के नाम से तरह- तरह की कथाएँ होती है। परन्तु वास्तविक सत्संग कम मिलता है। मिलता है तो उसका असर हुए बिना रहता ही नहीं। ऐसी बात है। (यथावत् लेखन) ●। +++

● ••• और तो क्या कहें! हरेक जगह सत्संग वो कर नहीं सकेगा। थोङा- सा - क समझा है और उस विषय में गहरा उतरा है तो उसकी विलक्षण अवस्था होती है । हरेक जगह वो बैठ जाय, हरेक उसको अपनी तरफ खैंच ले। यह नहीं होता ।

आपने ध्यान दिया (क्या)? मानो सत्संग के संस्कार भीतर में स्थायी रूप से ही रहते हैं, मिटते नहीं है। वास्तविक सत्संग जिनको मिलता है, उनकी वास्तविकता विलक्षण होती है। हरेक कथा में मन नहीं लगेगा। और हरेक कथा में मन लगता है तो अभी तक असली सत्संग मिला नहीं है। (यथावत् लेखन) ● •••

( मेरे सामने कई ऐसे अवसर आये हैं। एक भाई ने कहा था - कोई तीस चालीस वर्षों से ऊपर की बात है मानो दो हजार संमत से पहले की बात है। उन (उस) भाई ने कहा कि हमारे को बहुत महात्मा मिले (हैं)। तो मैंने कहा कि तुम्हारे को एक महात्मा भी नहीं मिला। एक भी मिलता तो दूसरे के पास क्यों जाते?! बहुत कैसे मिल सकते हैं?। बहुत मिले- इसका अर्थ है कि एक भी नहीं मिला। बहुतों -से (कोई) मुर्दा थोङे ही उठाना है। पारमार्थिक बात लेना है••• एक सैंकङों सगाई ही नहीं हुई है । उसको कोई रोक नहीं सकता। प्रह्लाद और मीराँबाई को कोई रोक नहीं पाया। मेरे को भी रोका है।प्रेम से और धमका के भी (मैं नहीं रुका)। वो हरेक सत्संग में टिक नहीं सकता। बालक को माँ मिल जाती है तो छोङता है क्या? )

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( दो तरह की इच्छायें। एक स्वयं को लेकर और एक शरीर आदि को लेकर। मुक्ति की, प्रेम की परमात्मा की इच्छा स्वयं की और भोजन आदि की इच्छा शरीर की )।
॰॰॰
● ••• पार्माथिक इच्छा है,वो पूरी ही होती है, मिटती है ही नहीं और संसार की इच्छा मिटती ही है,पूरी होती ही नहीं। ऐसी मार्मिक बात कहता हूँ मैं । (वो, उसको) लिखलो आप, अभी बोलना नहीं है। सांसारिक इच्छा है वो पूरी होती ही नहीं (यथावत् लेखन) ● 

"जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये।" -श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

                          ।।श्रीहरि:।। 

   "जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये।" 
- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज। 

आजकल कई लोग गुप्त या प्रकटरूप से कुछ अंश में श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज की बरसी मनाने लग गये हैं, जो कि उचित नहीं है।  
इस दिन कोई तो कीर्तन करते हैं और कोई  गीतापाठ आदि का प्रोग्राम रखते हैं। (मानो वो इस प्रकार बरसी मनाते हैं)।
लेकिन इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि  बरसी के लिये श्रीस्वामीजी महाराज ने मना किया है।  
गीतप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित उनकी  "एक संत की वसीयत" नामक पुस्तक के दसवें पृष्ठ पर लिखा है कि - 
"जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये। "  
इस में बरसी के लिये मना लिखा है, फिर भी लोग बरसी मनाते हैं, चाहे आंशिक रूप से ही हो। इससे लगता है कि या तो लोगों को पता नहीं है या लोग परवाह नहीं करते अथवा यह भी हो सकता है कि लोगों ने ध्यान देकर इस पुस्तक को पढ़ा नहीं। 
 नहीं तो जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो, वो क्यों करते?  

भगवान् के तो जन्म दिवस पर उत्सव मनाया जाता है और महात्माओं के निर्वाण दिवस पर उत्सव (बरसी) मनाया जाता है; क्योंकि इस इस दिन उन सन्तों का भगवान् से मिलन हुआ है।  बरसी मनाना अच्छा काम है , परन्तु श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी बरसी आदि मनाने का निषेध ( मना) किया है, इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। (आजकल कुछ अंश में लोग जो बरसी मनाने लगे हैं, वो भूल में हैं। कीर्तन, गीतापाठ आदि तो भले ही रोजाना करो पर बरसी के उद्देश्य से कोई करते हैं तो उनको विचार करना चाहिये)

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि महापुरुष किसी विहित काम के लिये कहे और कोई उसको न करे , तो वो लाभ से वञ्चित रहता है (नुकसान नहीं होता), परन्तु जिस काम के लिये उन्होंने निषेध किया है , उस काम को करने से नुकसान होता है।  ••• 

अधिक जानकारी के लिये कृपया यह लेख पढें-
"जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी न करें। ".

http://dungrdasram.blogspot.com/2020/04/blog-post_29.html