शनिवार, 21 जून 2014

४०१-५०१÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |


                                ||श्री हरिः||          

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                          

-:@पाँचवाँ शतक (सूक्ति- ४०१-५०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री  रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |

उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |

इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |

इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -  

सूक्ति-
४०१-

भीखमेंसूँ भीख देवै , तीन लोक जीत लेवै |

सूक्ति-
४०२-

बानाँ पूज नफो लै भाई !
उणरा औगुण उणरे माहीं |

शब्दार्थ-
बाना (साधूवेष)।

सूक्ति-
४०३-

जौ सिर साँटै हरि मिलै तौ पुनि लीजै दौर |
ना जानें इस देरमें ग्राहक आवै और ||

सूक्ति-
४०४-

माजनौ गमायौ है |

सूक्ति-
४०५-

लिख दिया बिधाता लेख नहीं टलनेका |
राई घटै नहिं तिल नहीं बढनेका ||

सूक्ति-
४०६-

चन्दनकी चुटकी भली गाडा भला न काठ |
चतुर नर एकही भलौ मूरख भला न साठ ||

सूक्ति-
४०७-

निरमल नैण कड़कड़ी काया |
कह कबीर कोइ हरिजन आया ||

भावार्थ-

(जिनकी आँखें निर्मल और शरीर कड़कड़ा है तो समझो कि कोई संत आ गये)।

सूक्ति-
४०८-

हाकम जिण दिन होय बिधि षट मेख बणावै |
दोय श्रवणके माँय शबद नहिं ताहि सुणावै ||
दोय मेख चख माँय सबळ निरबळ नहिं सूझै |
एक मेख चख माँय बिपति नहिं किणरी बूझै ||
पद हीन होय हाकम पर्यो छठी मेख तलद्वारमें|
पाँचोंही मेख छिटकै परी सरल भये संसारमें ||

सूक्ति-
४०९-

असी बरसरो डोकरो जाय जगतरी जान |
ब्यायाँरी गाळ्याँ सुणै कर कर ऊँचा कान ||
कर कर ऊँचा कान मानरो मार्यो मरहै |
जौ नहिं देवै गाळ उणाँसूँ जायर लड़है ||
टको पईसो खरचकै राखै अपनौ मान ||
असी बरसरो डोकरो जाय जगतरी जान ||

सूक्ति-
४१०-

बीराँ ! तूँ मीराँ जैसी इणमें फरक न कोय |
उण मीराँनें नहिं देखी तौ इण मीराँनें जोय ||
बीराँ ! तूँ मीराँ जैसी इणमें मीन न मेख |
उण मीराँनें नहिं देखी (ह्वै) तौ इण बीराँनें देख ||

सूक्ति-
४११-

वा मीराँ तूँ बीरकी … (उणरी हौड करै |
उण मीराँ तो जहर पियौ तूँ पीवै तो मरै||)
बाळूँ मूँडो बीरकी तूँ मीराँरी होड करे ! ||

सूक्ति-
४१२-

काँटो करचो काँकरो गोधा गिँडक गिँवार |

साधू आवत देखिकै एता ह्वै हुँसियार ||

सूक्ति-
४१३-

(आजकल तो)

धूड़ बिना धड़ौ नहीं ,
अर कूड़ बिना बौपार नहीं।।

सूक्ति-
४१४-

आँधै आगे रोवौ ,
अर नैण गमावौ |

सूक्ति-
४१५-

घर बिना धर नहीं |

सूक्ति-
४१६-

घाणीरो तेल पग धौवणनें थौड़ौही हुवै (है) |

सूक्ति-
४१५-

ओ तो बाड्यौड़ी माथै भी कौनि मूतै |

सूक्ति-
४१६-

बेळाँ नहिं बिणजे सो तो बाणियोंई (भी) गिँवार |

सूक्ति-
४१७-

जीमणौं तो माँ रे हाथरो हुवौ भलाँहीं जहर ही |
बसणौं भायाँमें हुवौ भलाँहीं बैर ही |
बैठणौ छायामें हुवौ भलाँहीं केर ही |
घी तो गायरो हुवौ भलाँ हीं सेर ही |
चालणौं रस्ते-रस्ते हुवौ भलाँ हीं फेर ही |
लेवणौ हकरो हुवौ भलाँ हीं ढेर ही |

सूक्ति-
४१८-

पहलाँ आवै, झकैरी गौरी गाय ब्यावै |

सूक्ति-
४१९-

देखै $न्न कुत्तो भुसै |

(अगर कुत्ता किसी नापसन्दको देखेगा ही नहीं, तो क्यों भौंकेगा? न देखेगा,न भौंकेगा)।

सूक्ति-
४२०-

झकी हाँडीमें खावै , बीनेही फौड़ै |

सूक्ति-
४२१-

कुछ कुँवाड़ा मोडा ,
अर कुछ धव चीकणा |

सूक्ति-
४२२-

(अणूत करै ) तो नानी राण्ड हू ज्यावै |

सूक्ति-
४२३-

ए राफाँ है ?

सूक्ति-
४२४-

आँ राफाँनें , अर आ खीर ! |

सूक्ति-
४२५-

आमरा आम , अर गुठलीरा दाम |

सूक्ति-
४२६-

आपरै घररा ऊँदराभी राजी ह्वै ज्यूँ करो |

सूक्ति-
४२७-

भिणिया है , पण गुणिया कौनि |

सूक्ति-
४२८-

घड़ी घड़ीरा बिघ्न रामजी टाळै है |

सूक्ति-
४२९-

बात बीत जायगी , रीत रह जायगी |

सूक्ति-
४३०-

मिन्नीरे आशीशसूँ छींको नहिं टूटै (है) |

शब्दार्थ-

मिन्नी (बिल्ली,बिलाई)।

सूक्ति-
४३१-

घर तो घौष्याँरा बळही , पण सौरा ऊँदराही हू ज्याही |

सूक्ति-
४३२-

सोनेरी थाळीमें लोहरी मेख ! |

सूक्ति-
४३३-

चिड़ियाँमें भाटो पड़ग्यो |

सूक्ति-
४३४-

रातमें बोलै कागलो (अर) दिनमें बोलै स्याळ |
कै धरतीरो धणी नहीं (अर) कै अणचीत्यो काळ ||

शब्दार्थ-
धरतीरो धणी (राजा)।

सूक्ति-
४३५-

भावौ भाव बेची है |

सूक्ति-
४३६-

कह, मरग्या क्यूँ ?
कह, श्वास नहिं आया |

सूक्ति-
४३७-

राम नाम सत है !
सत बोल्याँ गत है |

सूक्ति-
४३८-

ऊछळ पाँती छोटैरी |

सूक्ति-
४३९-

खौजत खौजत खौजैगा ,
तीन लोककी सौजैगा |
गाया गाया गायेगा ,
दबा गेबका खायेगा ||

सहायता-
गेब (शून्य)।

सूक्ति-
४४०-

जै साँईं सँवळा हुवै तौ (चाहे) अँवळा हुवौ अनेक ||

सूक्ति-
४४१-

राम नामसूँ लाज मरत है प्रगट खेलै होळी , दुनियाँ है भोळी , है भोळी |

सूक्ति-
४४२-

घी माँयनें घोटो जैसे सुखसूँ सोवै सुन्दरदास |

सूक्ति-
४४३-

क्यूँ दाँत्य्या करै है ! |

सूक्ति-
४४४-

खा गुड़ तेरा ही |

घटना-

एक ठाकुर रातमें चुपकेसे एक बनियेकी दुकानसे गुड़ लै आया और सुबह जाकर उसी बनियेसे बोला कि लौ सेठसाहब! गुड़ मौल लेलो।बनियेने परीक्षा के बहाने गुड़ चखते हुए एक डली उसमेंसे उठाकर खायी और इस प्रकार चखनेके बहाने वो बनिया गुड़ खाता जा रहा था। तब वो ठाकुर कहने लगा कि खा गुड़ तेरा ही-गुड़ खाता जा भले ही,  यह है तो तेरा ही। अर्थात् मेरेको तो जितना मूल्य (पैसा) मिलेगा, वो मुफ्तमें ही मिलेगा। मेरे घरसे क्या जायेगा? सेठ अपनी जानकारीमें दूसरोंका गुड़ खा कर मुफ्तमें लाभ लै रहा है और गुड़को खा कर उसका वजन  भी कम कर रहा है जिससे पैसे भी ज्यादा देने नहीं पड़ें,बच जायँ:परन्तु यह खर्चा भी उसीका हो रहा है।इसी प्रकार जब किसीको कोई चीज मुफ्तमें मिलती है तो वो राजी होकर उसका खूब उपभोग करता है; परन्तु यह भी है तो उसीका।उसको पहले किये हुए पुण्य-कर्मोंके फलस्वरूप वो चीज मिली है।वो जितना उपभोग करेगा,सुख भौगेगा,उतना पुण्यखर्च उसीका होगा।

सूक्ति-
४४५-

सती श्राप देवै नहीं ,
अर, कुसतीरो लागै नहीं |

सूक्ति-
४४६-

बधू ! तूँ जाणै छै |

घटना-

एक बार श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सामने किसीने कहा कि महात्मा ईसाका सिध्दान्त (ईसाई धर्म)बड़ा ऊँचा था जो मारनेवालेके लिये भी उन्होने ईश्वरसे प्रार्थना की कि इसको सद्बुध्दि दो।

तब श्री स्वामीजी महाराज ( तेज होकर) बोले कि आप किसी भी धर्मकी श्रेष्ठ बात बतादो,मैं सनातन धर्ममें उससे भी श्रेष्ठ,ऊँची बात बता दूँगा।
(फिर बताया कि)
गुजराती भाषाकी एक पुस्तकमें एक संतोंका चरित्र लिखा है कि
कोई चौर चौरी करके दौड़े तो लोग उनके पीछे दौड़े।चौरोंने चौरीका माल एक संतकी कुटिया पर रखा और भाग कर कहीं छिप गये।संत उस समय भगवानके ध्यानमें लगे हुए थे,उन्होने चौरोंको देखा नहीं।वे इस विषयमें कुछ नहीं जानते थे।पीछेसे भागते हुए लोग आये और माल वहाँ पड़ा हुआ देखकर उन्होने उन संतोंको ही चौर समझा और लगे मारने-पीटने कि चौरी करके लै आया और अब यहाँ आकर साधू बना बैठा है।बिना कारण ही जब वो लोग पीटने लगे,मार पड़ने लगी,तो वो संत(ऊपरकी तरफ हाथ जौड़कर) भगवानसे कहने लगे कि बधू!  तूँ जाणै छै, बधू!  तू जाणै छै।
अर्थात् हे प्रभु!  आप जानते हो।मैंने अपनी जानकारीमें कोई अपराध तो किया नहीं और मार पड़ रही है तथा  बिना अपराधके मार पड़ती नहीं।इसलिये लगता है कि मेरे पहलेके कोई अपराध बने हुए हैं जिनको मैं जानता नहीं।अब कौनसे अपराधके कारण यह मार पड़ रही है-इसको मैं नहीं जानता प्रभु! आप जानते हो।
उन संतोंने चौरोंको अपराधी और दुर्बुध्दि नहीं माना तथा न भगवानको दोष दिया।उन्होने तो माना कि यह तो मेरे ही कोई कर्मोंका फल है।
बोलो,कितनी ऊँची बात है!
माहात्मा ईसाने सद्बुध्दि देनेकी प्रार्थना की तो उनको दुर्बुध्दि माना है ना!।ये संत ऐसा नहीं मानते हैं।
(ये तो ऐसा मान रहे हैं कि भगवानके राज्यमें जो हो रहा है, वो ठीक ही हो रहा है, बेठीक दीखनेवाला भी ठीक ही हो रहा  है।बेठीक हमको दीख रहा है, पर बेठीक है नहीं।हम जानते नहीं,भगवान जानते हैं आदु आदि)।

सूक्ति-
४४७-

आई बलाय , दी चलाय |

सहायता-

रामा माया रामकी मत दै आडी पाऴ।
आयी ज्यूँ ही जाणदे परमारथरे खाऴ।।

विशेष-

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि हमारे गुरुजी (१००८ श्री श्री कन्नीरामजी महाराज) ऐसा कहते थे और ऐसा ही करते थे कि आयी बलाय, दी चलाय।रुपये-पैसे लेते थे और परोपकारके लिये आगे दे देते थे।संग्रह नहीं रखते थे।वो कहते थे कि -(सूक्ति नं.४४८ देखें)।

सूक्ति-
४४८-

पूत सपूत तौ क्यों धन संचै ?
पूत कपूत तौ क्यों धन संचै ?

सहायता-

अगर आपका पुत्र सुपुत्र (सपूत) है तो क्यों धनका संग्रह करते हो,वो धन कमा लेगा और अगर आपका पुत्र कुपुत्र है तो क्यों धनका संग्रह करते हो, वो धन बर्बाद कर देगा।

सूक्ति-
४४९-

भूवाके मिस देणो ,
अर भतीजैके मिस लेणो |

सूक्ति-
४५०-

राँध्येरो काँई राँधै ?

सूक्ति-
४५१-

घररा होका , बाँरे घररा हळ |

सूक्ति-
४५२-

सासरो सुख बासरौ ।
दिनाँ तीनरो आसरौ ।।
कह , रहस्याँ षटमास।
कह , देस्याँ खुरपी
अर कटास्याँ घास ।।

वार्ता-

एक बार अकाल पड़ा हुआ जानकर एक व्यक्ति ससुराल चला गया।उसके साथमें कुछ और भी लोग थे।सासूजीने आदर किया।अच्छा भोजन करवाया।वो वहीं रहने लग गये।धीरे-धीरे अच्छा भोजन बनाकर करवाना कम होने लगा,फिर भी रोटी तो घी से चुपड़ी हुई ही मिलती थी।साथवालोंने कहा कि अब यहाँसे चले चलें?तो वो बोला कि नहीं,यहीं ठीक है।घरकी अपेक्षा तो अच्छा ही मिल रहा है,सास रोटी चुपड़ कर देती है,घर पर तो यह भी नहीं मिलती थी।ससुराल सुखका आश्रय है-

सासरो सुख बासरो।

सालेने देखा कि इन्होने तो यहाँ डेरा ही लगा दिया।तब उन्होने कहा (या लिखा) कि

दिनाँ तीनरो आसरो।

अर्थात् ससुराल सुखका आश्रय तो है,परन्तु ससुरालमें तीन दिन तक ही रहना चाहिये।
तब इन्होने लिखा कि

रहस्याँ षट मास।

अर्थात् हम तो छ: महीने तक रहेंगे।

तब उत्तरमें सालेने लिखा कि-

देस्याँ खुरपी और कटास्याँ घास।

अर्थात् इतने दिनों तक रहोगे तो हाथमें खुरपी देंगे और घास कटायेंगे।

सूक्ति-
४५३-

जाओ बाढियोड़े तिलाँमें |

सूक्ति-
४५४-

बैठौड़ैरे ऊभौड़ा पाँवणाँ (ह्वै है)।

सूक्ति-
४५५-

क्यूँ थूक बिलौवै (है) ? |

सूक्ति-
४५६-

ऊगै सो ही आँथवै फूल्या सो कुम्हलाय |
चिणिया देवळ ढह पड़ै जाया सो मर जाय ||

सूक्ति-
४५७-

मारग सबही सत्त है नहिं मारगमें दोष |
पैंडो कोस करौड़को करै न पैंडो कोस ||

सूक्ति-
४५८-

स्वारथ शीशी काँचकी पटकै जासी फूट |
परमारथ पाको रतन परत न दीजै पूठ ||

सूक्ति-
४५९-

जगमें बैरी कोइ नहीं सब सैणाँरो साथ |
केवळ कूबा यूँ कहै चरणाँ घालूँ हाथ ||

सूक्ति-
४६०-

बाह्मण कह छूटै, अर बैल बह छूटै |

सूक्ति-
४६१-

प्रभातै गहडम्बराँ सांझाँ सीळा वाय |
डंक कहै सुण भडळी ये काळाँरा सुभाव ||

सहायता-

ज्योतिष विद्याके महान जानकार कवि डंक अपनी पत्नि भडळीसे कहते हैं कि अगर सबेरे खूब बादल छाये हुए हों और शामको ठणडी हवा चलती हो तो(समझना चाहिये कि अकाल पड़ेगा) ये अकालोंके स्वभाव हैं अर्थात् जब दुष्काल पड़ने वाला होता है तो पहले ऐसे लक्षण घटते हैं।इसलिये अबकी बार काल (दुष्काल,दुर्भिक्ष) पड़ेगा।

सूक्ति-
४६२-

दारु मांस दपट्ट अमल अणमाप अरौगै |
चमड़पौषनें चेंट माल मादक मुख भौगै ||
परणींनें परिहरै गैरसुत गोदी धारै |
जवानीपणमें जोध सटक सुरलोक सिधारै ||
सस सिआर तीतर सुभट कुरजाँ चिड़ी कबूतरा |
भायाँसूँ नित उठ भिड़ै (ए) परम धरम रजपूतरा ||

सहायता-

यहाँ व्यंग्यके द्वारा परम धर्मके नामसे क्षत्रियों (राजपूतों) के पाप बताये हैं और दुष्परिणाम भी बताया गया है।

सूक्ति-
४६३-

गुड़ खळ एकण भाव बुस्ताँरा ब्यौरा नहीं |
नगरीमें नहिं न्याव रोही भलीरे राजिया ! ||

शब्दार्थ-

रोही (निर्जन स्थान,जंगल)।

सूक्ति-
४६४-

बात बीत जायगी , रीत रह जायगी |

सूक्ति-
४६४-

उठाया कुत्ता किताक शिकार करे है? |

सूक्ति-
४६५-

नैण सलूणा ना मिलै बाळ अलूणी बत्थ |
काँई हुवै आगा कियाँ हेत बिहूणा हत्थ ||

शब्दार्थ-

बत्थ (बात)। हत्थ (हाथ)।

सूक्ति-
४६६-

मोटाँरा पग ऊपरे मत कोइ मानो रीस |
और देवता पग पूजावे लिंग पुजावे ईस ||

शब्दार्थ-

पग (पाँव पैर)। लिंग (पुरुषकी मूत्रेन्द्रिय,निसान,चिह्न,शिवलिंग)। ईस (ईश,ईश्वर,शक्तिशाली,समर्थ)।

सूक्ति-
४६७-

नहीं भरौसो भागरो नहीं भरौसो राम |
थळिया सबही करत है सगुन भरौसै काम ||

सूक्ति-
४६८-

बाळपणाँ बाळाँसंग खेल्यो तरुणाँ पै हळ हाँक्यो |
बूढापैमें माळा फेरी राम ! तेरो ही (भी) मन राख्यो ||

सूक्ति-
४६९-

घर खोयौ पराई जाई |

सूक्ति-
४७०-

करै न अक्कल काम अधगहलाँ ढिग आपरी ।।

सूक्ति-
४७१-

दै भेंस पाणीमें |

सूक्ति-
४७२-

रामजी सींग देवै तो भी सहणा है |

सूक्ति-
४७३-

सज्जन हंस बिदेस गये मिलै न महँगै मौल |
दिन कटणीं अब कीजिये बुगलाँसूँ हँस बोल ||

सूक्ति-
४७४-

कह , धौळा धाड़ आईरे !
कह , अभाग धणींरा |

शब्दार्थ-
धौळा (बैल)। धाड़ (जबरदस्ती छीनकर लै जानेवालोंका समूह)।

सूक्ति-
४७५-

सहन्दो सामी सूंठरो गाँठियो |

शब्दार्थ-

सहन्दो (परिचित)। सामी (स्वामी,साधू)।

सूक्ति-
४७६-

साँवणरे आँधैनें हरियो ही हरियो दीसै |

सूक्ति-
४७७-

तूँ राण्ड रोवै (है) रोटीनें ,
अर , हूँ रन्धासूँ दाळ |

सहायता-

एक स्त्री दु:ख करने लगी कि रोटी कैसे बना पाऊँगी,रेटीमें तो बहुत देरी लगती है आदि आदि।तब उसके घरवाला (पति) गुस्सा करता हुआ बोला कि राँड़!  तू तो रोती है रोटीके लिये और मैं तुम्हारेसे रन्धवाऊँगा दाळ।दाळ बनानेमें समय ज्यादा लगता है।

सूक्ति-
४७८-

मिन्नीरे कहयाँसूँ छींको थौड़ो ही टूटै (है! ) |

शब्दार्थ-

मिन्नी (बिल्ली)।

सूक्ति-
४७९-

[ फेराँमें ] छोरी गिड़कै चढी ही थी कि बाप कहयो ह्वा (- बस) |

सूक्ति-
४८०-

कह , जीमरे भाई !
कह , किणरेये बाई !
हाँ , साँची कहवे है लाई |

शब्दार्थ-

लाई (बेचारा)।

सूक्ति-
४८१-

कह , देरे पाँड्या आशीस ;
कह , हूँ काँई देऊँ , म्हारी आँतड्याँ देसी |

सूक्ति-
४८२-

(किसान अपने बैलसे- )
थारो धणी मरेरे |
कह , आ गाळ किणने लागी ?
कह , समझे बीनें |

सूक्ति-
४८३-

(अबभी)
काँई मियाँ मरग्या ,
अर काँई रोजा घटग्या |

सूक्ति-
४८४-

चौरने मारदो , चौररी माँनें मारदो |

सूक्ति-
४८५-

धी मुई जँवाई चौर |

शब्दार्थ-

धी (धीव,बेटी)।मुई (मरी)।

सूक्ति-
४८६-

थारी जूती ,
अर , थारो ही सिर |

सूक्ति-
४८७-

रो थारे गोडाँनें |

सूक्ति-
४८८-

मान , न मान ;
मैं तेरा मेहमान |

सूक्ति-
४८९-

करै सेवा , मिले मेवा |

सूक्ति-
४९०-

भूखाँरे भूखा पाँवणा बे माँगे , अर , ए दै नहीं |
धायाँरे धाया पाँवणा , बे देवै , अर ए लै नहीं ||

सूक्ति-
४९१-

सगाँरे घर सगा आया लागी खैंचाताण | राबड़ीसूँ नीचा उतर्या (तो) थाँनें इष्टदेवरी आण ||

घटना-

एक बार किसीके घर पर सगे-सम्बन्धी आ गये।अब घर वाले (घरके अन्दर)आपसमें विचार-विमर्श करने लगे कि इनके लिये भोजन कौनसा बनाया जाय।किसीने कहा कि सगोंके लिये तो बढिया हलुवा आदि बनाना चाहिये।किसीने कहा कि हलुएके लिये गेहूँका आटा तो पीसा हुआ ही नहीं है (अब अगर पीसेंगे तो सगेलोग क्या सोचेंगे कि इनके तो आटा पीसा हुआ ही नहीं है)।अच्छा, तो बाजरेके आटेकी रोटी घी में चूर कर और चीनी डाल कर, चूरमा बना कर भोजन कराया जाय (हलुवेमें भी तो घी,चीनी और गेहूँका आटा ही तो होता है!)। कह,चीनी तो बाजारसे लायी हुई ही नहीं है आदि आदि। … तो (छाछमें आटा राँधकर) राबड़ी बनायी जाय। …
उनकी ये बातें कच्चे मकान होनेके कारण जहाँ सगे-सम्बन्धी ठहरे हुए थे वहाँ सुनायी पड़ रही थी।राबड़ी तक आये जानकर वो सगे-सम्बन्धी (पाहुने) बोले कि सगोंके घर सगे आये तो (भोजनके लिये) खींचातानी होने लग गई।अब अगर आपलोग राबड़ीसे भी नीचे उतर गये तो आपको अपने इष्टदेवकी सौगन्ध है(पेटमें कुछ अन्न तो जाने देना! ऐसा न हो कि साफ दलिया ही पिलादें) -

सगाँरे घर सगा आया लागी खैंचाताण |
राबड़ीसूँ नीचा उतर्या (तो) थाँनें इष्टदेवरी आण ||

सूक्ति-
४९२-

केई दिन सासूरा , तो केई दिन बहूरा |

सूक्ति-
४९३-

सासू सूधी ही (भी) लड़ै ,
फोग आलो ही बळै |

सूक्ति-
४९४-

ज्ञानी स्वार्थी , अर , भगत पागल |

सूक्ति-
४९५-

घरबीती कहैं , या परबीती ? |

सूक्ति-
४९६-

पूतरो मूत पिरागरो पाणी |

शब्दार्थ-

पिराग (प्रयाग,तीर्थराज)।

(यहाँ मोहमें डूबे हुए लोगोंकी बात बताई गई)।

सूक्ति-
४९७-

घर फाटाँनें कारी नहीं |

भावार्थ-

जैसे कोई कपड़ा फट जाता है,उसमें बड़े या छौटे छेद हो जाते हैं, तो उस फटे हुए कपड़े पर दूसरे कपड़ेका टुकड़ा सील कर कारी लगादी जाती है तो इस उपायसे सुरक्षा हो जाती है,कुछ ठीक हो जाता है ; परन्तु अगर आपसमें फूट पड़ जाती है, घर फट जाता है तो इसके कारी नहीं लगायी जा सकती।इसलिये पहलेसे ही सावधानी रखें कि घर न फट जाय,घरमें फूट न पड़ें।

सूक्ति-
४९८-

भागते भूतरी लँगोटी भी चौखी |

सूक्ति-
४९९-

बाईरा फूल बाईनें ही |

सूक्ति-
४९९-

माँ राँड सिखाई कोनि |

शब्दार्थ-

जब बहूको काम-धन्धा करना नहीं आता तो सासू गुस्सेमें आकर उस बहूकी माँ को गाली देती हुई कहती है कि इसकी माँ ने इसको सिखायी नहीं।

सूक्ति-
५००-

बाई कहताँ राँड आवै (है) |

सूक्ति-
५०१-

भाटो आयो है भाटो |

भावार्थ-

जब घरमें कन्याका जन्म होता है और कोई बूढी माँजीसे पूछता है आपके घरमें पुत्र आया है कि पुत्री? तब वो कहती है कि भाटा (पत्थर) आया है भाटा-

भाटो आयो है भाटो |

अगर कोई उन बूढी माँजीसे पूछे कि आप जन्मे थे,तो हीरो जन्मे थे क्या? अर्थात् आप भी तो भाटा ही
आये  थे! (फिर कन्याका इतना तिरस्कार क्यों?)।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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शनिवार, 14 जून 2014

मेरा कोई स्थान,मठ अथवा आश्रम नहीं है। मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य , प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । … (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

कृपया ध्यान दें।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका न कोई स्थान था, न कोई जमीन थी, न कोई आश्रम था और न ही कोई गद्दी थी तथा न कोई उत्तराधिकारी था।

उनकी लिखायी हुई पुस्तक ('एक संतकी वसीयत' प्रकाशक- गीताप्रेस गोरखपुर वाली) पृष्ठ संख्या 12 में लिखा है -

मैंने किसीभी व्यक्ति , संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है ।…

मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लग कर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

मेरा कोई स्थान,मठ अथवा आश्रम नहीं है। मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य , प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है ।

... करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

पूरी पुस्तक यहाँ(इस पते)से नि:शुल्क प्राप्त करें- http://db.tt/v4XtLpAr

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मंगलवार, 3 जून 2014

सत्यको स्वीकार करो , (आप) दुखी हो ही नहीं सकते | (-श्रध्देय स्वीमीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के २९/०९/१९९३/८००) बजेके सत्संग-प्रवचनसे )|

                           ।।श्रीहरि।।

सत्यको स्वीकार करो , (आप) दुखी हो ही नहीं सकते |

(-श्रध्देय स्वीमीजी श्री रामसुखदासजी महाराज
के २९/०९/१९९३/८००) बजेके सत्संग-प्रवचनसे )|

('सत्य' यह बताया कि बचपनमें जो शरीर था वैसा आज नहीं है और आज जैसा है वैसा आगे नहीं रहेगाऐसे ही कितनी चीजें बदल गई,चली गई।इसलिये जानेवालेको रखनेकी इच्छा न करें। भगवानको याद रखो,बदलनेवालेकी सेवा करो और चाहो मत)।

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राधाकृष्ण रटो मन मेरे .

राधे राधे