गुरुवार, 2 जुलाई 2015

रामकथा,(विलोमसे)कृष्णकथा

रामकथा,(विलोमसे)कृष्णकथा

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये
वासे ॥ १॥
विलोमम्
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी
भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥
साकेताख्या
ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशा
रावा ॥ २॥
विलोमम्
वाराशावासाग्र्या
साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता
दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥
२॥
कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिक
ा ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥
विलोमम्
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका
॥ ३॥
रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥
विलोमम्
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥
यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये
सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता
त्रातम् ॥ ५॥
विलोमम्
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं
ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो
योधेगायन् ॥ ५॥
मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥
विलोमम्
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥
रामनामा सदा खेदभावे दया-
वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-
मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥
विलोमम्
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-
सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवा
यादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥
सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥
विलोमम्
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥
८॥
सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥
विलोमम्
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥
तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥
विलोमम्
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥
वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥
११॥
विलोमम्
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥
यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा
॥ १२॥
विलोमम्
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा

वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥
रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥
विलोमम्
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥
यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥
विलोमम्
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥
दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥
विलोमम्
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥
१५॥
सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥
१६॥
विलोमम्
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥
सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥
१७॥
विलोमम्
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥
तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥
विलोमम्
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥
गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥
विलोमम्
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥
हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥
विलोमम्
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥
ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।
हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि ॥
२१॥
विलोमम्
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥
भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥
२२॥
विलोमम्
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥
हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥
विलोमम्
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥
भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥
विलोमम्
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥
हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥
विलोमम्
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥
सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥
विलोमम्
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥
२६॥
वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥
विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥
हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥
विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥
नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥
विलोमम्
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥
२९॥
साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥
विलोमम्
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥
३०॥
॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं
श्री राघव यादवीयं समाप्तम् ॥

शनिवार, 27 जून 2015

'मीराँचरित' पुस्तक पर दृष्टि-डुँगरदासराम

                           ।।श्रीहरि:।।

अगर पूछा जाय कि रोचक बनाकर लिखी गई 

'मीराँचरित' 

नामक पुस्तकका आधार क्या है?

इसका उत्तर अगर यह मिलता है कि पता नहीं,तो बिना पतेकी बातें कृपया ज्ञानगोष्ठीमें न भेजें।

बिना पतेकी बातें तो लोग मना करने पर भी बहुत भेजते रहते हैं,पर मीराँबाईकी औटमें असत बातें फैलाना उचित नहीं है।

इससे साधक भ्रमित हो सकते हैं और सच्चीबातोंकी गिनती भी असतबातोंमें कर सकतें हैं।

आप मीराँबाईका इतिहास पढकर देखो, तो पता लगेगा कि इस पुस्तकमें कितनी सच्चाई है!

मनकी कल्पनाके अनुसार,मीराँबाईके नामपर भले ही कितना ही बढिया,आकर्षक संवाद लिखदो,घटना गढकर, बनाकर लिखदो और पढनेवाले भी भले ही उसमें तल्लीन हो जायँ,भले ही वाह् वाह् करने लग जायँ, भले ही लोगोंमें खूब प्रचार हो जाय;लेकिन असत्य सत्यकी हौड़ नहीं कर सकता।

असत्यका तात्कालिक असर भले ही जोरसे पड़ जाय;लेकिन वो स्थायी नहीं रह सकता।

इस प्रकार परिणाममें जब मीराँ जैसे भक्तके चरित्रसे भी उन्नति दिखायी नहीं देती(क्योंकि वो बिना हुए ही, मानवके दिमागकी कल्पना थी,वास्तविकता नहीं थी),तब वास्तविक चरित्रमें भी विश्वास घट जाता है,जिससे कि साधककी बड़ी हानि होती है।

आजकल टेलीविजनमें जैसे कल्पित घटनाएँ लोग चावसे,रुचिपूर्वक देखते हैं,पर उनको कल्पत ही मानते हैं,क्योंकि लोग टेलीविजनकी सच्चाई जानते हैं; ऐसे ही अगर 'मीराँचरित'को मानें तो कोई खास बात नहीं;परन्तु अगर कल्पितको अकल्पित, वास्तविक मानें तो परिणाममें सच्चाईसे विश्वास हटता है।भक्तोंके वास्तविक चरित्रोंमें भी विश्वास नहीं होता,आदत वैसी ही हो जाती है।

इसलिये शास्त्र और भक्तोंके चरित्र वही पढने लायक हैं जो वास्तविक हों और प्रचार भी उसीका करना चाहिये जिससे कि लोगोंका हित हो।

[मेरा लिखनेका उध्देश्य लेखक पर दोषारोपण करना नहीं है,लेखकको तो मैं श्रध्दापूर्वक,हृदयसे नमस्कार करता हूँ और उनकी मेहनतकी सराहना करता हूँ।अगर इस पुस्तककी घटनाके साथ उध्दरण भी लिख दिया होता कि कहाँसे लिया गया है,तो मैं भी उसको रुचिपूर्वक पढता] 

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रविवार, 24 मई 2015

यह 'अहम'(अहंकार) जो चीज है, यह दो तरहका होता है- -श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज।(दि.21-9-1993/0518)।

                         ॥श्रीहरि:॥
यह 'अहम्'(अहंकार) जो चीज है, यह दो तरहका होता है-
-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज। (दि.21-9-1993/0518)।

श्रोता-
'जीवन्मुक्ति' होजानेपर 'अहम्'की क्या स्थिति रहेगी?

स्वामीजी-
'अहम्' की, शरीरकी स्थिति ऐसी ही रहेगी।
'अहंकार',
देखो एक बात बतावें।
यह जीवन्मुक्त-'जीवन्मुक्ति'की (बात) पूछी ना!
(इसमें एक) बात बतावें आपको।यह 'अहम्' जो चीज है, यह दो तरहका होता है।
एक शरीरको लेकरके 'मैं हूँ'-यह 'अहम्' होता है और एक 'अहम्' है जो क्रिया करनेमें,सब काम करनेमें,वो 'समष्टि अहंकार'के साथ 'अहंकार' होता है उसका।
'व्यष्टि,शरीरधारी मैं हूँ -यह मिट जाता है और 'सामान्य अहंकार' जो 'महाभूतान्यहंकारो बुध्दिरव्यक्तमेव च।'(गीता १३।५),यह जो 'अहंकार' है,यह 'अहंकार' रहता है और एक 'व्यक्तिका (व्यक्तिगत) अहंकार' है,वो मिट जाता है।
जीवन्मुक्ति, 'मुक्ति' नाम उसीका ही है कि शरीरसे अपनी 'अहंता' मिट गईऽऽऽ॥
यह मुक्त हो गये,छूट गया।…
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के 21-9-1993.0518 बजेवाले प्रवचनसे।
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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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बुधवार, 20 मई 2015

परम हितैषी,भगवान अचिन्त्यरूपसे अपने भक्तकी रक्षा करते हैं।

                      ।।श्रीहरि:।।

परम हितैषी,भगवान अचिन्त्यरूपसे अपने भक्तकी रक्षा करते हैं।

आपने रघुनाथ भक्तकी कथा सुनी या पढी  होगी।यह कथा 'भक्त पञ्चरत्न' नामक पुस्तकमें है और

'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' भी कहते थे।

(…कि) जब वो दौनों (पति-पत्नि) चारों ओरसे शत्रुओं द्वारा घिर गये और पत्नि डरने लगी तो रघुनाथ भक्तने उपालम्भ (ओलबा) देते हुए कहा कि प्रिये! (अपने परम हितैषी, भगवान् के मौजूद रहते हुए भी तुम) डरती हो! ? डरो मत।डरना है-यह भगवानका तिरस्कार करना है।

…और उसी समय अचिन्त्य रूपसे भगवान् ने आकर उन दौनोंकी रक्षा की।

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शुक्रवार, 8 मई 2015

(संसारकी याद) मिटती नहीं; तो इसमें कारण है कि संसार को सत्य माना है। (-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                        ।।श्रीहरि:।।

(संसारकी याद) मिटती नहीं; तो इसमें कारण है कि संसार को सत्य माना है।

(-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

प्रश्न-
संसार की स्मृति (याद) मिटती नहीं है, क्या करें ?

(स्वामीजी -)

(संसारकी स्मृति) मिटती नहीं; तो इसमें कारण है कि संसार को सत्य माना है। अच्छा,
आपको स्वप्न क्या आया था,बता सकते हो? रात स्वप्न आया, परसों रातने (को) आया, वो स्वप्न बताओ; क्या आया?

  (श्रोता -
नहीं बता सकते)।

(स्वामीजी -)
क्यों?

(श्रोता -)
याद नहीं रहता है वो ।

तो उसमें बुद्धि आपकी 'है  वो' - यह (बुद्धि) है ही नहीं;जागते हुए, जगे है ही नहीं। तो स्मृति नहीं रहती। 'है' (सत्य) मानते हो तब स्मृति रहती है।
-
सुपना सा हो जावसी सुत कुटुम्ब धन धाम।
हो सचेत बलदेव नींद से जप ईश्वरका नाम॥
मनुषतन फिर फिर नहिं होई॥
ऊमर सब गफलत में खोई,
किया शुभकरम नहीं कोई ॥
...

(--श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के
दि.२८-४-१९९५ _१६०० बजे वाले सत्संग प्रवचन से)।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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सोमवार, 27 अप्रैल 2015

संसारका चिन्तन नहीं करें या भगवानका चिन्तन करें?(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                      ।।श्रीहरि:।।

संसारका चिन्तन नहीं करें या भगवानका चिन्तन करें?

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

…तो निषेधात्मक-साधन बहुत ऊँचा है…

चिन्तन भगवानका करोगे,तो संसारका चिन्तन जबरदस्ती आवेगा और संसारका चिन्तन नहीं करेंगे,तो भगवानका चिन्तन स्वत: होगा।

और कुछभी चिन्तन नहीं करोगे तो आपकी स्थिति स्वरूपमें ही होगी,और कहाँ होगी,क्यों होगी,आप जरा सोचो।

अधिक जाननेके लिये
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका 19950824.0830 बजेवाला प्रवचन सुनें)।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

दिनांक सहित सत्संग(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                        ॥श्रीहरि:॥

(संकलित)

प्रेम का मूल है-- अपनापन ! जिसमें हमारी प्रियता होगी, उसकी याद अपने-आप आयेगी ! अपनी स्त्री ,बेटा, बेटी इसलिये याद आते हैं कि उनमें हमारी प्रियता है, उनको हमने अपना माना है ! यदि भगवान् में प्रेम चाहते हो तो उनको अपना मान लो, फिर उनकी याद स्वतः आयेगी, करनी नहीं पड़ेगी ! आप जिसको पसन्द करोगे, उसमें मन स्वतः लगेगा ! भगवान् मेरे हैं-- इसमें जो शक्ति है, वह त्याग-तपस्या में नहीं है !(२३.६.१९९९,प्रातः ८.३०,ॠषिकेश) परम श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन से !

भगवान् को अपना माने बिना भजन करने से भजन की वैसी सिद्धि नहीं होती ! परन्तु भगवान् को अपना मान लें तो भजन किये बिना स्वाभाविक भजन की सिद्धि हो जायगी ! मैं भगवान् का हूँ --ऐसा भीतर से मान लें तो आपकी अवस्था बदल जायगी,आपका पूरा परिवर्तन हो जायगा,आपको शान्ति मिल जायगी,आपकी शंका मिट जायगी,सन्देह मिट जायगा ! 'हे नाथ ! मैं आपका हूँ ' --इतना भीतर से मान लो तो संसार का सम्बन्ध स्वतः छूट जायगा ! संसार को छोड़ने के लिए आपको प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा | (२९.२.२०००,सांय ४,अहमदाबाद) परम श्रद्धेय स्वामीश्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन से !

।।श्रीहरिः।।

हमें जो समय मिला है यह बहुत श्रेष्ठ समय है। मनुष्यशरीर को दुर्लभ बताया है। 'दुर्लभ साज सुलभ करी पावा'। अपने को सुलभता से मिला है। यह दुर्लभ साज है। बहुतसे जन्मों के अंत में यह जन्म मिलता है।  सुखके भोगनेमें समय बर्बाद नहीं करना चाहिये। अवसर है। यह अवसर बार बार नहीं मिलता है। भगवत्कृपा से मिलता है। बड़ा दुर्लभ है। मिलजाने के कारण मनुष्य उसकी कीमत नहीं समझता। ऐसा कीमती समय है। तो समय खाली नहीं जाना चाहिये। हर समय भगवानके नाम को लेते रहना चाहिये। बड़ी भारी हानि है जो समय खाली चला गया। मैंने संतोंका एक पत्र पढ़ा था उसमें लिखा था, चेतावनी देते हुए अपने प्यारे सज्जन को लिखा। बहुत पुरानी बात है। कार्ड था। पैसे पैसे में कार्ड आया करता उन दिनों की बात है। उसमें लिखा था एक 'राम' इतना समय भी भगवन्नाम उच्चारण करे एक बार, इतना समय भी खाली चला गया तो उसका दुःख होना चाहिये जैसे ब्याहा हुआ बड़े से बड़ा बेटा मर जाय। उससे भी ज्यादा दुःख होना चाहिये। बेटा तो छोटा होकर भी जवान हो जायेगा, और वस्तुएँ तो फिर भी पैदा हो जायेंगी परन्तु समय पैदा नहीं होता। 'गया वक्त नहीं आवे दूजी बारी' - बार बार नहीं आता। जो समय चला गया वो तो सज्जनों चला ही गया। वो तो घाटा लग गया, लग ही गया। गिनती का समय है। कितने वर्ष जीयेंगे इसका पता नहीं और हर दम मर रहा है। आयु-रूपी खेत को काल-रूपी चिड़िया चुग रही है। खत्म हो रही है आयु। उम्र खत्म हो रही है। जितना समय जाता है वो हमारे जीवन का समय जाता है। जिसमें हम जी रहे हैं। मरते नहीं है। मौत से रक्षा करनेवाला हमारे पास समय है।

- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन 'मनुष्य-शरीर औऱ समयके सदुपयोग का महत्व'(३ फरवरी १९९१, दोपहर ३:१५ बजे) से।

।।श्रीहरिः।।

मनुष्यको तंग करने वाला, दुःख देने वाला खुदका संकल्प है। 'ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये' यह जो मनकी धारणा है इसी से ही दुःख होता है। अगर यह संकल्प छोड़ दे तो योगकी, समताकी प्राप्ति हो जायेगी।

- परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन ' 19900605_0518_Dukh Ka Kaaran Sankalp' से

मूर्खसे मूर्ख मनुष्यको भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है।
इस बातको समझनेके लिये श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका  19910916/518 बजेवाला यह प्रवचन सुनें।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके
3.12.1994/900 बजेवाले प्रवचनमें ऐसी बातें आयी है-

मूकसेवा-पाप करनेवाले पर दया करे कि यह ऐसा नहीं करता तो अच्छा था,ऐसे दया करे,गुस्सा नहीं।

बैठकर आपसमें सत्संगकी चर्चा करेंगे तो सत्संगकी बात पैदा हो जायेगी,सेठजीका वरदान है,यह सेठजीका दरबार है।सेठजीने अटकल सिखादी,अब सत्संगकी चर्चा करो।ऐसा कई जगह शुरु हो गया।

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