मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

गीता साधक-संजीवनी* सप्ताह (*लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज),और सूचना-पत्र।

                            ॥श्रीहरिः॥


 गीता साधक-संजीवनी* सप्ताह (*लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज),और सूचना-पत्र।


गीताजी का प्रचार हो और जीवन्मुक्त महापुरुषों की वाणी जन-जन तक पहुँचे तथा लोगों का सुगमतासे जल्दी कल्याण हो - ऐसी प्रेरणा के लिये यहाँ कुछ उपयोगी सामग्री प्रस्तुत की जा रही है।


श्रीस्वामीजी महाराज कहते थे कि जैसे गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के समय उनकी रामायण का अधिक प्रचार नहीं था,पर अब घर-घर उनकी रामायण पढ़ी जाती है, ऐसे ही चार-साढ़े चार सौ वर्षों के बाद 'साधक-संजीवनी' का प्रचार होगा !  


(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की गीता 'साधक संजीवनी' पर आधारित 

'संजीवनी-सुधा' नामक पुस्तक के प्राक्कथन से)।


श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के श्रीमुखसे मैंने यह भी सुना है कि भविष्य में (सैकड़ों वर्षों के बाद) जब किसी बात का निर्णय लेना होगा तो सही निर्णय गीता 'साधक- संजीवनी' के द्वारा होगा। 


जैसे, किसीके तरह-तरह की बातों तथा मतभेदों के कारण सही निर्णय लेने में कठिनता हो जायेगी। यह बात सही है या वो बात सही है ? इस टीका की बात सही है या उस टीकाकार की बात सही है? गीताजी का यह अर्थ सही है अथवा वो अर्थ सही है? धर्म के निर्णय में यह बात सही है या वो बात सही है? व्यवहार में यह करना सही है अथवा वो करना सही है?  इस ग्रंथ की बात मानें या उस ग्रंथ की बात मानें? इस जानकार की बात मानें या उस जानकार की बात मानें? आदि आदि;  


इस प्रकार जब असमञ्जस की स्थिति हो जायेगी, किसी एक निर्णय पर पहुँचना कठिन हो जायेगा। कोई कहेंगे कि अमुक टीका में यह लिखा है, अमुक ने यह अर्थ किया है। अमुक स्थान पर यह लिखा है, अमुक ग्रंथ में यह लिखा है और अमुक अमुक यह कहते हैं  आदि आदि। 


तब कोई कहेंगे कि (गीता 'साधक- संजीवनी' लाओ) स्वामी रामसुखदास जी ने क्या कहा है? तब कोई कहेंगे  कि उन्होंने तो गीता की टीका 'साधक-संजीवनी' में यह लिखा है। तब उनके जँचेगी कि हाँ, यह बात सही है। तब उसी बातसे सही निर्णय होगा और 'साधक- संजीवनी' द्वारा दिया गया वही निर्णय सबको मान्य होगा।

 (गीता 'साधक-संजीवनी' के लिये  भविष्य-वाणियाँ 

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा।

http://dungrdasram.blogspot.in/2017/02/blog-post_22.html?m=1 नामक लेखसे)।

जैसे भागवत-सप्ताह किया जाता है,ऐसे गीता साधक-संजीवनी सप्ताह भी किया जा सकता है और करना चाहिये।

जैसे श्रीमद्भागवत के अठारह हजार श्लोकों की कथा सात दिन में सुनायी जाती है, ऐसे साधक-संजीवनी गीता के सात सौ श्लोकों की कथा भी सात दिनों में सुनायी जा सकती है।

जिस प्रकार श्रीमद्भागवत सप्ताह-कथा के प्रतिदिन विश्राम-स्थल नियत किये गये हैं, ऐसे गीता साधक संजीवनी सप्ताह-कथा के भी प्रतिदिन विश्राम-स्थल नियत किये जा सकते हैं।

यथा-

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित  साधक संजीवनी (सप्ताह के लिये सुझाव-)

१- प्रथम दिन का विश्राम-स्थल माहात्म्य  आदि करने के बाद, पहले अध्यायके पहले श्लोक से शुरु करके दूसरे अध्यायके तिरपनवें श्लोक पर करना चाहिये -)

(१-पहले दिन)- १।१- २।५३

 इसी प्रकार- 

 (२-दूसरे दिन)- २।५४-४।३८;


(३-तीसरे दिन)- ४।३९-७।२०;


(४-चौथे दिन)- ७।२१-१०।२८;


(५-पाँचवें दिन)- १०।२९-१३।११;


(६-छठे दिन)- १३।१२-१७।६;


(७-सातवें दिन)- १७।७-१८।७८;


इसमें विश्राम स्थल अपनी सुविधा के अनुसार आगे या पीछे भी किये जा सकते हैं। ये तो अगर प्रतिदिन १००-१०० श्लोकों की कथा करनी हों तो उसके अनुसार बताये गये हैं।


 कथा की सूचना देनेके लिये, अपने सम्बन्धियों या श्रोताओं को निमन्त्रण भेजने के लिये अथवा सर्व साधारण लोगों को बाँटने के लिये, जिनको सूचना-पत्र छपवाने हों तो उनकी सुविधा के लिए नीचे सूचना-पत्र और बेनर के नमूने-चित्र दिये गये हैं। इनको देखकर नाम, ठिकाना,तारीख और नम्बर आदि अपने खुदके दिये जा सकते हैं। 


अधिक जानने के लिये कृपया यह लेख पढ़े-

महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें -

 http://dungrdasram.blogspot.in/2014/01/blog-post_17.html?m=1


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रविवार, 19 फ़रवरी 2017

■□मंगलाचरण□■ (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                       ॥श्रीहरिः॥

■□मंगलाचरण□■

(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

यह मंगलाचरण
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज

सत्संग-प्रवचन से पहले
(सत्संग के प्रारम्भ में)
किया करते थे--

पराकृतनमद्बन्धं
परं ब्रह्म नराकृति।
सौन्दर्यसार सर्वस्वं
वन्दे नन्दात्मजं महः॥

प्रपन्नपारिजाताय
तोत्त्रवेत्रैकपाणये।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय
गीतामृत दुहे नमः॥

वसुदेवसुतं देवं
कंस चाणूरमर्दनम्।
देवकी परमानन्दं
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परंकिमपि तत्त्वमहं न जाने॥

हरिओम नमोऽस्तु परमात्मने नमः,
श्रीगोविन्दाय नमो नमः,
श्री गुरुचरणकमलेभ्यो नमः,
महात्मभ्यो नमः,
सर्वेभ्यो नमो नमः,

नारायण नारायण
नारायण नारायण

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आप (बड़ी सुगमता से और जल्दी) जीवन्मुक्त हो सकते हैं।(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                  ॥श्रीहरिः॥

आप (बड़ी सुगमता से और जल्दी) जीवन्मुक्त हो सकते हैं।
(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)। 

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज  दिनांक ११.५.१९९०.प्रातः  ०८.३० बजे  (19900511_0830_Jeevan Mukti Sahaj Hai नाम) वाले प्रवचन से पहले आ कर बैठे और बैठकर श्रोताओं से कहा कि अब बोलो (क्या सुनावें?)

श्रोताओं की तरफ से निवेदन किया गया कि आपके मनमें जो बात आयी हो,वही सुनाओ। तब श्री महाराज जी बोले कि

हमारे मनमें तो ऐसी बात आयी कि आप जितने सत्संग सुनने वाले हैं, वे सबके सब जीवन्मुक्त हो जायँ, तत्त्वज्ञ,भगवद्भक्त हो जायँ। मनुष्य जन्म सफल सबका हो जाय (आप सब ऐसे हो जाओ)।  चाहे बहन हो और चाहे भाई हो, चाहे बूढा हो और चाहे छोटा हो - सब के सब जीवन्मुक्त हो जायँ। यह बात आयी मनमें। यह (जीवन्मुक्त होना)  कोई बड़ी बात नहीं है (कठिन नहीं है) , सब जीवन्मुक्त हो सकते हैं। आप मेरी बात की तरफ ध्यान दो। मैं मेरी बात नहीं कहता हूँ। शास्त्रों की, गीताजी बात कहता हूँ। गीताजी की बात है यह (१३।३१;१८।१७; की- तेरहवें अध्यायका इकतीसवाँ और अठारहवें अध्यायका सतरहवाँ श्लोक) इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिये आपको।

आपमें कर्तापन और भोक्तापन दोनों ही नहीं है। आप परिवार आदि में लिप्त नहीं हैं। अहंकृत भाव और लिप्तता केवल आपकी पकड़ी हुई है (वास्तव में है नहीं)।

पहले नहीं थी,बादमें नहीं रहेगी और अभी भी नहीं है। जो 'नहीं'(शरीर,संसार) है उसको 'नहीं' मानलो और जो 'है'(स्वयं,परमात्मा) उसको 'है' मानलो।

(जो बात जैसी है उसको वैसी ही मानलो,स्वीकार करलो- इतनी सी ही बात है)। है जैसा जान लेने का नाम ही ज्ञान है। 

समझमें नहीं आवे तो भी बात तो यही है  (क्योंकि गीताजी कहती है) -यह स्वीकार करलो। करना कुछ नहीं है। ( आप जीवन्मुक्त हो जाओगे) । और समझमें नहीं आवे तो भगवानको पुकारो।

एक तो वस्तु का निर्माण करना होता है,उसको बनाना होता है और एक वस्तु की खोज होती है। परमात्मतत्त्व को बनाना नहीं है,वो तो है पहले से ही।उधर दृष्टि डालनी है (खोज करनी है)।

खोज में भी उधर दृष्टि डालना है। (नया कुछ नहीं  करना है, सिर्फ दृष्टि डालना है । दृष्टि डालते ही प्राप्ति हो जायेगी इसमें-प्राप्ति में देरी नहीं लगती। सांसारिक काम में देरी लगती है,परमात्मा की प्राप्ति में देरी नहीं लगती। परमात्मा की प्राप्ति का कायदा और सांसारिक प्राप्ति का कायदा दो है,अलग-अलग है) हमारे भाई बहनों ने कायदा एक ही समझ रखा है

(वो समझते हैं कि जैसे सांसारिक प्राप्ति होती है ऐसे ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। जैसे सांसारिक काम करने से होता है ऐसे ही परमात्मा की प्राप्ति भी करने से होती है; जैसे उसमें देरी लगती है,ऐसे इसमें भी देरी लगती है; पर बात यह नहीं है। परमात्मा की प्राप्ति का तरीका अलग है)। अधिक जानने के लिये कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का यह  (19900511_0830_Jeevan Mukti Sahaj Hai) प्रवचन सुनें।

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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

गीता ग्रंथका सार (श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित- गीता "साधक-संजीवनी" पर आधारित)।

                      ||श्रीहरि:||

◆गीता-सार◆

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित गीता "साधक-संजीवनी" ग्रंथ पर आधारित)।

अध्याय
१. सांसारिक मोहके कारण ही मनुष्य 'मै क्या करूँ और क्या नहीं करूँ'---इस दुविधामें फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अतः मोह या सुखासक्तिके वशीभूत नहीं होना चाहिए ।

२. शरीर नाशवान है और उसे जाननेवाला शरीरी अविनाशी है ---इस विवेकको महत्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करना ---इन दोनोंमेसे किसी भी एक उपायको काममें लानेसे चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।

३. निष्कामभावपूर्वक केवल दुसरोके हितके लिये अपने कर्तव्यका  तत्परतासे पालन करनेमात्रसे कल्याण हो जाता है।

४. कर्मबन्धनसे छूटनेके दो उपाय है--कर्मो के तत्त्व को जानकर निःस्वार्थभावसे कर्म करना और तत्त्वज्ञानका अनुभव करना।

५. मनुष्यको अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितियोंके आने पर सुखी -दुःखी नही होना चाहिये; क्योंकि इनसे सुखी-दुःखी होनेवाला मनुष्य संसारसे ऊँचा उठकर परम् आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता।

६.  किसी भी साधनसे अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये। समता आये बिना मनुष्य सर्वथा निर्विकार नहीं हो सकता ।

७. सबकुछ भगवान् ही हैं---ऐसा स्वीकार कर लेना सर्वश्रेष्ठ साधन है।

८. अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार ही जीवकी गति होती है। अतः मनुष्यको हरदम भगवान् का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये, जिससे अन्तकालमें भगवान् की स्मृति बनी रहे ।

९. सभी मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, वेश आदिके क्यों न हों।

१०. संसारमें जहाँ भी विलक्षणता, विशेषता, सुन्दरता, महत्ता, विद्वत्ता, बलवत्ता आदि दीखे, उसको भगवान् का ही मानकर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिये।

११.  इस जगत् को भगवानका ही स्वरूप मानकर प्रत्येक मनुष्य भगवान के विराटरूपके दर्शन कर सकता है।

१२. जो भक्त शरीर -इन्द्रियाँ - मन  बुद्धि-सहित अपने-आपको भगवान के अर्पण कर देता है, वह भगवान को प्रिय होता है।

१३. संसारमें एक परमात्मतत्त्व ही जाननेयोग्य है। उसको जाननेपर अमरताकी प्राप्ति हो जाती है।

१४. संसार - बन्धनसे छूटनेके लिये सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंसे अतीत होना जरूरी है।  अनन्य भक्तिसे मनुष्य इन तीनो गुणोंसे अतीत हो जाता है।

१५.  इस संसार का मूल आधार और अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही हैं---ऐसा मानकर अनन्यभावसे उनका भजन करना चाहिये।

१६.  दुर्गुण- दुराचारोंसे ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाता है  और दुःख पाता है। अतः जन्म - मरणके चक्रसे छूटनेके लिये दुर्गुण- दुराचारोंका त्याग करना आवश्यक है।

१७.  मनुष्य श्रद्धापूर्वक जो भी शुभ कार्य करे, उसको भगवान का स्मरण करके, उनके नामका उच्चारण करके ही आरम्भ करना चाहिये ।

१८.  सब  ग्रन्थोका सार वेद हैं, वेदोंका सार उपनिषद् हैं, उपनिषदोंका सार गीता है और गीताका सार भगवान् की शरणागति है। जो अनन्यभावसे भगवान की शरण हो जाता है, उसे भगवान सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं ।

-- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की पुस्तक- "सार-संग्रह" से।

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