शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

संतों के प्रति मनगढ़न्त बातें न फैलाएं।

                      ।।श्रीहरि।।

संतों के प्रति मनगढ़न्त बातें न फैलाएं।

 आजकल कई लोग संतों के प्रति अनसमझी, मनगढ़न्त​ बातें फैलाने लग गये हैं  जिससे लोगो में भ्रम पैदा हो जाता है और सही बात न मिलने के कारण कई लोग उन भ्रामक बातों​ को ही सही बात मानने लग जाते हैं तथा बिना विचार किए आगे फैलाने भी लग जाते हैं। इस प्रकार झूठी बातों का प्रचार होने लगता है और सच्ची बातें लुप्त होने लगती है।

झूठी बातों का प्रचार चाहे कितना ही अच्छा चौला पहना कर किया जाय, तो भी परिणाम उनका ठीक नहीं होता। उनसे लोगोंका नुकसान ही होता है,फायदा नहीं।

फायदा तो सच्ची बातों से ही होता है और संत-महात्माओं को भी सच्ची बातें ही पसन्द है तथा कल्याण भी सच्ची बातों से ही होता है। सच्ची बातों में प्रेम होना सत्संग हैसत्संग की महिमा जितनी है उतनी कोई कह नहीं सकता।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का कहना है कि जगत में जितने भी सद्गुण सदाचार है,जितनी सुख शान्ति है, दुनियाँ में जितनी अच्छाई है,भलाई है; वो सब संत-महात्माओं की कृपा से ही है। उन सब के मूल में (उनको पैदा करने वाले) संत- महात्मा ही हैं।

ऐसी ही बात गोस्वामीजी श्रीतुलसीदास जी महाराज भी कहते हैं -

जलचर थलचर नभचर नाना।
जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
(रामचरितमानस बाल० ३)।

तथा

दुष्ट उदय जग आरति हेतू।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।

संत उदय संतत सुखकारी।
बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
(रामचरितमानस उत्तर०१२१)।  आदि आदि। 

संसार में संत-महात्माओं की महिमा जितनी प्रकट रूप में रहेगी, उतनी ही अधिक संसार में सुख शान्ति रहेगी, उतने ही सद्गुण सदाचार आदि रहेंगे और जितनी ही संसार में उनकी प्रकट रूप में महिमा कम होंगी, महिमा जगत में छिपेगी;उतनी ही जगत में दुख, अशान्ति आदि बढेगी। 

सन्त-महात्माओं के प्रति मनगढ़न्त बातें फैलाने से लोगों में भ्रम फैलेगा और सच्चाई छिप जायगी जिससे दुनियाँ का बड़ा भारी नुकसान होगा तथा सन्त-महात्माओंने दुनियाँ के हित के लिये जो महान प्रयास किया है, वो महान प्रयास भी एक प्रकार से व्यर्थ हो जायेगा। बड़ी भारी हानि हो जायेगी।

लोग उस महान कल्याणकारी प्रयास के लाभ से वञ्चित रहेंगे, दुनियाँको वो लाभ नहीं मिल पायेगा।

इस तरफ अगर हम ध्यान नहीं देंगे तो हम भी दोषी होंगे।

इसलिये हमलोगों को चाहिये कि जो बातें​ सही-सही हो, वही लोगों में फैलायें। भ्रम की बातों का निराकरण करें।

इस लेख का प्रयोजन भी यही है कि लोगों को सच्ची, सही-सही बातें बताई जाय।

ये (जो बातें मैं लख रहा हूँ,वे) बातें मेरी जानकारी में हैं और मेरी दृष्टि में सही हैं, सच्ची हैं, यथार्थ हैं।

मैं यहाँ वही बातें लिख रहा हूँ जो मेरी दृष्टि में निस्सन्देह हों, यथार्थ हों। किसी के अगर कोई बात समझ में न आयें अथवा सन्देह हो तो मेरे (डुँगरदास राम) से  बात कर सकते हैं।

(१) प्रश्न-

क्या श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज गुरु की निन्दा करते थे?

उत्तर-

नहीं, श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने कभी गुरु की निन्दा नहीं की। वो तो प्रवचन के आरम्भ में सदा ही गुरु-वन्दना किया करते थे, गुरुजी को प्रणाम करते थे। उनके हृदय में गुरु का बड़ा आदर था।

उन्होंने अपनी पुस्तक (क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?) में स्वयं बताया है कि मैं गुरु की निन्दा नहीं करता हूँ, मैं पाखण्ड की निन्दा करता हूँ।

(आजकल के गुरु और शिष्यों का समाचार सुनकर वो शिष्य और गुरु  बनाने का निषेध करने लग गये थे)।

उन्होंने किसी के भी साथ में अपना व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। न किसी को अपना उत्तराधिकारी  बनाया है। न उन्होंने कोई आश्रम बनाया है और न ही कहीं कोई उनकी गद्दी है। न उनके द्वारा चलाया हुआ कोई धन्धा है और न ही उनका कोई स्थान है। वो न तो किसीको अपना शिष्य  बनाते थे और न ही इसको बढ़ावा देते थे। किसी को अपना शिष्य बनाने का उन्होंने त्याग कर दिया था। गुरु बनाने का भी वो निषेध करते थे।

(२) प्रश्न-

गुरु तो उनके भी थे न?

उत्तर-

हाँ,थे; परन्तु वो बात और प्रकार की थी। चार वर्ष की अवस्था में ही उनकी माताजी ने उन्हें सन्तोंको सौंप दिया था और उन सन्तोंने भी आगे दूसरे सन्तोंको शिष्य रूप में दे दिया था। इस प्रकार वो इनके गुरु हुए, (उन्होंने स्वयं  गुरु नहीं बनाया )।

ये मानते उनको गुरुजी​ ही थे और कहते भी गुरुजी​ ही थे तथा बर्ताव भी वैसा ही करते थे जैसा कि एक सदाचारी शिष्य को करना चाहये।

गुरुजी का शरीर शान्त हो गया तब बरसी आदि करके कुछ वर्षों के बाद आप गीताप्रेस के संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के पास आ गये। अधिक जानने के लिये कृपया यह लेख पढें-

@महापुरुषों के सत्संग की बातें @ ('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के श्रीमुखके भाव)।
http://dungrdasram.blogspot.in/p/blog-page_94.html?m=1

(३) प्रश्न-

गीतप्रेस के संस्थापक तो भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार नहीं थे क्या?

उत्तर-

नहीं, गीताप्रेस के संस्थापक तो सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ही थे।

अधिक जानने के लिये कृपया यह लेख पढें-

महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें -
http://dungrdasram.blogspot.in/2014/01/blog-post_17.html?m=1

(४) प्रश्न-

क्या श्री स्वामीजी महाराज संत श्रीशरणानन्दजी महाराज के अनुयायी थे?

उत्तर-

नहीं, वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज के अनुयायी नहीं थे, वो तो तत्त्व के अनुयायी थे। यह बात उन्होंने स्वयं कही है।

  उनके "मेरे विचार" नामक सिद्धान्तों के तीसरे सिद्धान्त में वो स्वयं कहते हैं कि

"मैंने किसी भी व्यक्ति,संस्था,आश्रम आदि से व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। यदि किसी हेतु से सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदा के लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्ति का नहीं।"

{श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की पुस्तक "एक संत की वसीयत"(प्रकाशक-गीताप्रेस,गोरखपुर) , पृष्ठ संख्या १२ से}।

अधिक जानने के लिये यह लेख पढें-
(★-: मेरे विचार :-★
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।
http://dungrdasram.blogspot.in/2014/07/blog-post_0.html?m=1

(५) प्रश्न-

तब वो संत श्रीशरणानन्दजी महाराज की बातें क्यों मानते थे?

उत्तर-

वो श्री शरणानन्दजी महाराज की बातें नहीं​ मानते थे,वो गीताजी की बातें मानते थे। जो बातें संत श्री शरणानन्दजी महाराज कहते थे, उनमें से जो बातें गीताजी के अनुसार होती थीं,उन्हीको मानते थे,सब नहीं मानते थे। वो बातें श्री शरणानन्दजी महाराज की होने के कारण नहीं मानते थे,किन्तु गीताजी के अनुसार होने से मानते थे। 

इस प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज संत श्रीशरणानन्दजी महाराज की बातें नहीं मानते थे। वो गीताजी की बातें मानते थे।

यह बात'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की पुस्तक
"रहस्यमयी वार्ता" (प्रकाशक-गीता प्रकाशन, गोरखपुर) के पृष्ठ संख्या ३२९ पर लिखी हुई है।

वहाँ श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज स्वयं कहते हैं कि-

शरणानन्दजी की बातोंको मैं इसलिये मानता हूँ कि वे गीताके साथ मिलती हैं, इसलिये नहीं मानता कि वे शरणानन्दजी की हैं!उनकी वही बात मेरेको जँचती है,जो गीताके अनुसार हो।

(६) प्रश्न-

लोग कहते है कि वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की पुस्तकें निसान (अण्डर लाइन) लगा-लगाकर पढ़ते थे और सिरहाने रखकर सोते थे आदि आदि। क्या यह बात सही है?

उत्तर-

सही नहीं है, उनको पूरी बात का पता नहीं। 

निसान तो वो गीता, रामायण आदि दूसरी पुस्तकें​ पढ़ते समय भी लगा देते थे। ऐसे इनकी पुस्तकें पढ़ते समय भी लगा देते थे।

वो इसलिये लगा देते थे कि पढनेवाले की दृष्टि वहाँ आसानी से चली जाय और थोड़े ही समय में पाठक को वो विशेष बात मिल जाय,आसानी से मनन हो जाय। किसीको दिखानी हो तो भी आसानी से दीखायी जा सके और देखी जा सके।

उनकी प्राय: यह रीति थी कि  पुस्तक पढते समय जो-जो विशेष बातें लगती,उनको रँग देते थे ( चिह्नित  कर देते थे, अथवा यों कहिये कि निसान लगा देते थे)। ऐसी कई पुस्तकें आज भी देखी जा सकती है।

ऐसे श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा चिह्नित की हुई उनकी,  खुदकी लिखी हुई अनेक पुस्तकें​ मैंने देखी है। उनके द्वारा​ चिह्न लगा-लगाकर पढ़ी हुई रामायण मैंने देखी है तथा गीताजी भी देखी है।

अब रही बात पुस्तकें​ सिरहाने रखकर सोने की। सो उनके सिरहाने पुस्तकें तो उनके पासमें रहने वाले (संतलोग) सुविधा के लिये रख देते थे कि जब चाहें,तब (सुगमतापूर्वक) सिरहाने से उठाकर पढ़ी जा सके।

(उनके तख्त के सिरहाने बैंच या चौकी लगाकर उसपर आवश्यक सामग्री, पुस्तक आदि रख देते थे, जिसमें गीता रामायण आदि और अन्य पुस्तकें भी होती थीं)।

इसका अर्थ यह नहीं है कि जैसे कोई (शुरुआती​) विद्यार्थी विद्या पाने के लिये पुस्तक का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करता हो और सिरहाने ही रखकर सो जाता हो जिससे कि उसको विद्या मिले तथा उठते ही उस अध्ययन में लग जाय आदि।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज का भाव ऐसा नहीं था। उनका भाव तो स्वयं वो ही जानते हैं। दूसरे तो बेचारे दूर से ही देखकर अन्दाजा लगाते हैं।

उनको तो उनके पास में रहनेवाले भी ठीक से नहीं समझ पाते थे, फिर बिना श्रद्धा भक्ति के दूरवाले लोग तो उनको समझ ही क्या सकते हैं। दूसरे लोग तो जैसी खुद की समझ होती है, वैसी ही अटकल लगा लेते हैं और अपनी बुद्धि का परिचय देते हैं।

किसीने संत श्री शरणानन्द जी महाराज से पूछा कि भगवान् कैसे हैं? तो वो बोले कि हमारे जैसे हैं। तब (पास में ही बैठे हुए) श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज सुननेवालों से (हँसते हुए) बोले कि आपलोग ऐसा मत समझ लेना कि इनके जैसे दाढ़ी आदि है,भगवान् भी ऐसे होंगे। इनकी बात का तात्पर्य है कि जैसा हमारा, (शरीर का नहीं) स्वयं का, (सुन्दर) स्वरूप है,ऐसे हैं भगवान्।

इस प्रकार उन्होंने संत श्री शरणानन्द जी महाराज की बात का खुलासा किया। इससे सिद्ध होता है कि वो इनकी रहस्ययुक्त बातें लोगों को ठीक तरह से समझाते हैं। ऐसा नहीं है कि वो जानते नहीं। वो जानते हैं,लेकिन हर किसीके संत श्री शरणानन्द जी महाराज की गहरी बातें समझ में नहीं आती, कठिन पङती है। इसलिये लोगों को समझाने के लिये श्री स्वामीजी महाराज उनकी बातों का खुलासा करते हैं, सरल करके समझाते हैं। इससे बिना विचार वाले लोगों को लगता है कि ये जानते नहीं, इनको उनसे पता लगा है, तभी तो उनकी वाणी पढ़ते हैं और लोगों को कहते हैं। इस प्रकार लोग अपनी बुद्धि के अनुसार अटकल लगा लेते हैं। वो बेचारे संतों को क्या समझे।

संतों की गत रामदास जग से लखी न जाय।
बाहर तो संसार सा भीतर उलटा थाय।। 


कई लोग सुनी-सुनाई, झूठी बातों का भी प्रचार करते रहते हैं।

जैसे,कई लोग बिना जाने ही झूठी बात कह देते हैं कि उनके गले में कैंसर था। परन्तु सच्ची बात यह है कि श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के ऊमर भर में कभी कैंसर हुआ ही नहीं था। उनके कभी भी और किसी भी अंग में कैंसर नहीं हुआ था। अधिक जानने के लिए यह लेख पढें-

क्या गलेमें कैंसर था स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके? कह,नहीं। उम्र भरमें कभी कैंसर हुआ ही नहीं था उनके।
http://dungrdasram.blogspot.in/2016/02/blog-post_8.html?m=1

ऐसे ही कई लोगों ने उनके शरीर सहित मौजूद रहते हुए भी शरीर छोड़ कर चले जाने की झूठी बात कहदी। जिससे कई लोगों को बड़ा दुःख हुआ। ऐसा कई बार  हो चुका है।

इस प्रकार  न जाने लोग और भी कितनी ही झूठी-झूठी बातें फैलाते रहते हैं।

मेरा भाव यह नहीं है कि संत श्री शरणानन्दजी महाराज का प्रचार न हो। मैं तो चाहता हूँ कि ऐसी कल्याणकारी बातें सबको मिले और इसके लिये प्रयास किया जाय; परन्तु प्रचार सही ढंग से किया जाय और सही-सही बातों का किया जाय। अनुचित ढंग से न किया जाय।

जैसे,आजकल कुछ लोग श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की वाणी की औट में संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी का अनुचित ढंग से प्रचार करते हैैं​ कि इनकी प्रशंसा तो स्वामी रामसुखदासजी महाराज भी करते थे। वो इनकी पुस्तकें निसान लगा-लगा कर पढ़ते थे और सिरहाने रख कर सोते थे आदि आदि। (उनके लिखने का ढंग ऐसा लगता है कि मानो श्री स्वामीजी महाराज इसी कारण इतने महान हुए हैं)।यह तरीका गलत है और असत्य है।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज कोई संत श्री शरणानन्दजी महाराज के कारण इतने महान नहीं हुए हैं,वो तो इनसे मिलने के पहले​ से ही महान थे। इनसे तो परिचय ही बाद में हुआ था)।

इस ढंग से जो प्रचार किया जाता है,वो गलत ढंग से प्रचार करना है। इसमेें एक साधारण आदमी की तरह श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज को संत श्री शरणानन्दजी महाराज का 'प्रचार करनेवाले' बता दिया गया है। जबकि बात ऐसी नहीं है।

यह तो अपनी बात की मजबूती के लिये किया गया सन्तों का 'अनुचित इस्तेमाल' है। यह उन 'सन्तों की सज्जनता का दुरुपयोग' है। यह उन सन्तोंका का गौरव घटाना है। इसमें एक को बड़ा और एक को छोटा बना दिया गया है। ऐसा नहीं करना चाहिए; क्योंकि पहुँचे हुए संत संत सभी बड़े ही होते हैैं​ ,यथा-

पहुँचे पहुँचे एक मत अनपहुँचे मत और।
संतदास घड़ी अरहट की ढुरै एक ही ठौर।।

नारायण अरु नगर के रज्जब राह अनेक।
भावै आवो किधर से (ही) आगे अस्थल एक।।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के प्रवचनों​ से)।

तथा -

मैं किसी व्यक्ति या सम्प्रदायका अनुयायी नहीं हूँ - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

इसके अलावा कई लोगों को यह भ्रम है कि श्री स्वामी जी महाराज अमुक सम्प्रदाय के थे, वे अमुक महात्मा की बात मानते थे, अमुक की पुस्तकें पढ़ते थे, अमुक के अनुयायी थे, आदि आदि।

ऐसे ही कई लोग कह देते हैं कि श्रीस्वामीजी महाराज का अमुक जगह आश्रम है,अमुक जगह उनका स्थान है, आदि आदि।

ऐसे भ्रम मिटाने के लिए कृपया श्री स्वामी जी महाराज की "रहस्यमयी वार्ता" नामक पुस्तक का यह अंश पढें-

"रहस्यमयी वार्ता" (प्रकाशक- गीता प्रकाशन, गोरखपुर) नामक पुस्तक के पृष्ठ ३२८ और ३२९ पर 'श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज' स्वयं बताते हैं कि -

प्रश्न- स्वामी शरणानन्दजीके सिद्धान्तसे आपका क्या मतभेद है?

स्वामीजी- गहरे सिद्धान्तोंमें मेरा कोई मतभेद नहीं है। वे भी करण निरपेक्ष शैली को मानते हैं,(और) मैं भी। शरणानन्दजीकी वाणी में युक्तियोंकी, तर्ककी प्रधानता हैं। परन्तु मैं शास्त्रविधिको साथ में रखते हुए तर्क करता हूँ। उनके और मेरे शब्दोंमें फर्क है। वे अवधूत कोटिके महात्मा थे ; अत: उनके आचरण ठोस, आदर्श नहीं थे।

उनके और मेरे सिद्धान्तमें बड़़ा मतभेद यह है कि वे अपनी प्रणालीके सिवाय अन्य का खण्डन करते हैं। परन्तु मैं सभी प्रणालियोंका आदर करता हूँ।
उन्होनें क्रिया और पदार्थ (परिश्रम और पराश्रय ) -का सर्वथा निषेध किया हैं। परन्तु क्रिया और पदार्थका सम्बन्ध रहते हुए भी तत्त्वप्राप्ति हो सकती हैं।

'हम भगवान के अंश हैं' - यह बात शरणानन्दजीकी बातोंसे तेज है ! उनकी पुस्तकोंमें यह बात नहीं आयी!
आश्चर्यकी बात है कि 'सत्तामात्र' की बात उन्होनें कहीं नहीं कही! खास बात यह है कि हमारा स्वरूप सत्तामात्र है। उस सत्तामात्रमें ही साधकको निरन्तर रहना चाहिये।

प्रश्न - कई कहते हैं कि स्वामीजी सेठजीकी बातें मानते हैं, कई कहते हैं कि स्वामीजी शरणानन्दजी की बातें मानते हैं, आपका इस विषयमें क्या कहना है ?

स्वामीजी - मैं किसी व्यक्ति या सम्प्रदायका अनुयायी नहीं हूँ, प्रत्युत तत्त्वका अनुयायी हूँ। मुझे सेठजीसे क्या मतलब ? शरणानन्दजीसे भी क्या मतलब ? मुझे तो तत्त्वसे मतलब है ? सार को लेना है, चाहे कहींसे मिले।
शरणानन्दजी की बातोंको मैं इसलिये मानता हूँ कि वे गीताके साथ मिलती हैं, इसलिये नहीं मानता कि वे शरणानन्दजीकी हैं ! उनकी वही बात मेरेको जँचती है, जो गीताके अनुसार हो।
मेरेमें किसी व्यक्तिका, सम्प्रदायका अथवा ज्ञान- कर्म- भक्तिका आग्रह नहीं है, पर जीवके कल्याण का आग्रह है ! मैं व्यक्तिपूजा नहीं मानता। सिद्धान्तका प्रचार होना चाहिये, व्यक्तिका नहीं। व्यक्ति एकदेशीय होता है ,पर सिद्धान्त व्यापक होता है। बात वह होनी चाहिये, जो व्यक्तिवाद और सम्प्रदायवादसे रहित हो और जिससे हिंदू , मुसलमान, ईसाई आदि सभी को लाभ हो।

अधिक जानकारी के लिए यह लेख भी पढ़ें-

श्रीस्वामीजी महाराज की पुस्तक
"एक संतकी वसीयत" (प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर) के पृष्ठ संख्या १२ पर स्वयं श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि
...

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें। व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है। मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य, प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें ... (और रिकोर्डिंग वाणी) ही साधकों का मार्गदर्शन करेगी।

☆ -: मेरे विचार :-☆श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज।
http://dungrdasram.blogspot.in/2014/07/blog-post_0.html?m=1http://dungrdasram.blogspot.in/?m=1

इसलिये जो बात जैसी हो,निष्पक्ष भाव से,  वैसी ही बतानी चाहिये। अच्छी बातों के प्रचार के लिये भी गलत ढंग का सहारा नहीं लेना चाहिये। अधिक जानने के लिए यह लेख पढें-

कृपया श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें।
http://dungrdasram.blogspot.in/2016/12/blog-post.html?m=1

जिनको  सुगमता पूर्वक अपना कल्याण करना हो और सही जानकारी प्राप्त करनी हो तो उनको श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की रिकोर्डिंग वाणी सुननी चाहिये और उनकी पुस्तकें पढ़नी चाहिये।

उनकी रिकोर्डिंग वाणी में और उनकी पुस्तकों​में सब ग्रंथों का सार भरा हुआ है तथा इन सब संतों तथा इनकी पुस्तकों​ के ज्ञान का सार भी है;

क्योंकि श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज सब ग्रंथों के सार को जानते थे। इन सब संतों और ग्रंथों को भी जानते थे। संत श्री तुलसीदासजी महाराज,मीराँबाई, कबीरदासजी और वेदव्यासजी महाराज को भी जानते थे।संत श्री शरणानन्दजी महाराज को भी जानते थे और भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार तथा सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका को भी जानते थे। इन सबकी पुस्तकों को भी वो जानते थे।गीताप्रेस की पुस्तकों को भी जानते थे। वेदान्त के ग्रंथों को भी जानते थे,अनेक शास्त्रों​को,पुराणों को, उपनिषदों को, गीता, रामायण,भागवत, महाभारत आदि ग्रंथों को भी जानते थे तथा और भी अनेक संतों की वाणी को भी आप जानते थे। शरीर तथा संसार को भी जानते थे और स्वयं तथा परमात्म-तत्त्व को भी जानते थे। परमात्मा के समग्र रूप (ब्रह्म, अध्यात्म,कर्म,अधिभूत,अधिदैव और अधियज्ञ रूप सम्पूर्ण परमात्मा) को जानते थे (गीता साधक-संजीवनी ७/२९,३०;८/४)। आजकल के जमाने को और लोगों को जानते थे। साधकों को और उनकी बाधाओं को जानते थे। उनकी बाधाओं को दूर करने के सरल उपायों को भी जानते थे और बताते भी थे। और भी पता नहीं क्या क्या जानते थे। परमात्मप्राप्ति के लिये अनेक सरल-सरल युक्तियाँ जानते थे और जिससे सुगमतापूर्वक परमात्मा​की प्राप्ति हो जाय- ऐसे नये-नये तथा सरल आविष्कार करना जानते थे और बताना भी जानते थे। सन्त और सन्तपना भी जानते थे।  इसलिये उनकी बातों में और उनकी पुस्तकों में सब संतों और सब ग्रंथों का सार आ गया है तथा वो भी बड़ी सुगमता पूर्वक समझ में आ जाय - इस रीति से,  सरलता पूर्वक समझाया गया है।

श्री मद्भगवद्गीता को तो ऐसी सरल करके गीता साधक-संजीवनी के रूप मेें समझा दिया कि साधारण पढा लिखा हुआ आदमी भी गीता साधक-संजीवनी को पढकर गीता का महान् विद्वान बन सकता है, परमात्मतत्त्व को जान सकता है और प्राप्त कर सकता है। ऐसे ही गीता-दर्पण ग्रंथ है जो कि गीता साधक-संजीवनी की ही भूमिका है। ऐसे उनके और भी अनेक ग्रंथ है। इस प्रकार ध्यान देने पर कुछ समझ में आता है कि वो कितने महान् थे।

(७) प्रश्न-

वो कभी-कभी संत श्री शरणानन्दजी महाराज की प्रशंसा करते थे जिससे लगता है कि वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज के अनुयायी थे?

उत्तर-

नहीं, अनुयायी नहीं थे। वो प्रशंसा तो संत श्री तुलसीदासजी महाराज की भी कर देते थे, मीराँबाई की भी कर देते थे। कबीरदासजी महाराज, वेदव्यास जी महाराज, सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका की भी प्रशंसा कर देते थे। गीता, रामायण,भागवत, गीता तत्त्वविवेचनी, गीता साधक-संजीवनी की भी प्रशंसा कर देते थे। गीता-दर्पण,गीता-माधुर्य और कल्याणकारी प्रवचन आदि अपनी पुस्तकों की भी प्रशंसा कर देते थे। ऐसे ही किसी​ और की भी प्रशंसा कर देते थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि वो इनके अनुयायी हो गये।

ऐसे तो कभी-कभी संत श्री शरणानन्दजी महाराज भी श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की प्रशंसा करते थे। इससे यह थोड़े ही कहा जायेगा कि संत श्री शरणानन्दजी महाराज श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के अनुयायी थे।

ऐसे ही कभी-कभी वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की भी प्रशंसा कर देते थे, उनकी बुद्धि की और उनकी पुस्तकों की भी प्रशंसा कर देते थे , पढ़ने के लिये कह देते थे। इससे कोई वो इनके अनुयायी थोड़े ही हो गये।नहीं हुए।

यह सब उनकी महानता है कि जो अपनी बात को महत्त्व न देकर दूसरों की बात को आदर देते हैं, अपनी पुस्तक को पढ़ने के लिये न कहकर दूसरों की पुस्तक को पढ़ने के लिये कहते​ हैं।

वो अपनी बात की प्रशंसा करना शर्म की बात मानते थे। फिर भी लोगों के हित के लिये वो पुस्तकों आदि की प्रशंसा कर देते थे। यह उनका त्याग था,महानता थी, संतपना था। संतों का तो यह स्वभाव ही होता है कि मान दूसरों को देते हैं, आप नहीं रखते हैं ।

यथा -

सबहि मानप्रद आपु अमानी।
भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।
(रामचरितमा.७।३८)।

ऐसे संतों को बारम्बार प्रणाम।
बारम्बार प्रणाम।।

अधिक जानने के लिए उनके ग्रंथ पढ़ें और उनके प्रवचनों​की रिकोर्डिंग की हुई वाणी सुनें। 

राम राम राम राम राम राम राम।
राम राम राम राम राम राम राम।।
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■ सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

रविवार, 11 जून 2017

गीता "साधक-संजीवनी" पढने वालों के लिये सुझाव-

                     ॥श्रीहरि:॥


गीता "साधक-संजीवनी" पढने वालों के लिये सुझाव-

(गीता "साधक-संजीवनी" (लेखक- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।
को समूह में पढ़कर सुनाने वालों के लिये सुझाव-)

पहले श्लोक तथा अर्थ पढकर लोगों को समझा दें और फिर व्याख्या पढ़- पढ़कर लोगों को समझा दें।

यह कर लेने के बाद उसी श्लोक को यह ध्यान में रखते हुए दुबारा पढें कि यह श्लोक ठीक तरह से समझ में आ गया है कि नहीं?

अगर कहीं समझने में कसर रह गई हो तो उस अंश को दुबारा ठीक तरह से समझा दिया जाय।

अब आगे वाले श्लोक को पढना है तो पहले पीछे वाला (केवल मूल) श्लोक बोल कर आगे वाला श्लोक बोलें।

इस को गा- गा कर सुनाने से यह और रुचिकर हो सकता है (आजकल संगीत को लोग ज्यादा पसन्द करते हैं)।

इसके भी शुरु में वसुदेव सुतं देवं ... वाला श्लोक जोड़ कर गायेंगे तो और अधिक सुगमता हो जायेगी।

जैसे-
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम्।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

धृतराष्ट्र उवाच 
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥१॥

अर्थ और व्याख्या के बाद आगे वाला श्लोक पढने से पहले इसी प्रकार दोहरा कर बोलें-

जैसे-
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम्।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥१॥

सञ्जय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसड़्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥२॥

इसके बाद इस दूसरे श्लोक का अर्थ और व्याख्या समझा कर यह जाँच करते हुए दूसरे श्लोक को दुबारा पढ लें कि यह दूसरा श्लोक भी ठीक तरह से समझ में आ गया है।

(श्रोताओं को भी चाहिये कि जहाँ ठीक तरह से समझ में न आवे तो वहाँ दुबारा सुन कर समझ लेवें)।

यहाँ एक बात और ध्यान देने की है कि रोजाना सुनाने के लिये समय तै कर लेंवें (जैसे १० मिनट या ३० अथवा ६० मिनट)।

वर्तमान श्लोक की व्याख्या (उसी दिन) पूरी सुनाने का (या पृष्ठ पूरा सुनाने का) आग्रह न रखें; क्योंकि किसी दिन अगर समय कम बचा है और व्याख्या लम्बी है तो जल्दी-जल्दी पढकर पूरी करनी पड़ेगी और जल्दी-जल्दी पढकर पूरी करेंगे तो कई बातें बिना समझे ही छूट जायेगी जो कि एक घाटे का काम होगा।

इसलिये पढते-पढते जहाँ पहले से तै किया हुआ समय पूरा हुआ कि वहीं पढना भी पूरा कर दें अर्थात् उस दिन सुनाना वहीं समाप्त कर सकते हैं। दूसरे दिन वहाँ से आगे सुनावें।

हमारा लक्ष्य ठीक तरह से समझने का होना चाहिये (केवल जल्दी-जल्दी पढकर) पुस्तक पूरी करने का न हो।

(जिनको गीता "साधक-संजीवनी" का अकले ही अध्ययन करना हो उनके लिये भी यह युक्ति बड़े काम की है)।

इसी प्रकार (सुनते हुए और सुनाते हुए आगे) बढते रहें। 

■ सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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बुधवार, 24 मई 2017

*"श्रीलक्ष्मण गीता"*

                     ॥श्रीहरि:॥

*"श्रीलक्ष्मण गीता"*

प्रसंग-
भगवान श्रीरामचन्द्रजी वन में जाने के लिये जब अयोध्या से चले, तब पहले दिन तमसा नदी के तीर पर ठहरे और दूसरे दिन अपने सखा निषादराज के यहाँ गंगा-तट पर ठहरे तथा रात्रि में वहीं विश्राम किया। श्रीसीतारामजी धरती पर ही सोये। लक्ष्मणजी पहरा लगाते हुए जग रहे थे। उस समय निषाद राज ने अपने विश्वास पात्र पहरेदारों को बुलाया और बड़े प्रेम से जगह-जगह पर उनको पहरे के लिये नियुक्त किया तथ आप भी धनुष बाण आदि से सुसज्जित होकर लक्ष्मणजी के पास जाकर बैठ गये।

श्रीसीतारामजी को पृथ्वी पर ही सोये हुए देख कर और अयोध्या के राज महलों के सुखों की याद करते हुऐ निषादराज बड़ा भारी विलाप करने लगे तथा महारानी कैकेयी को कोसने लगे कि उन्होंने श्रीसीतारामजी को सुख के अवसर पर दुख दे दिया। (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज कई बार यह प्रसंग सुनाते थे)।

तब श्रीलक्ष्मणजी ने संसार को स्वप्नवत असत्य बताते हुए सत्य-तत्त्व,परमार्थ का वर्णन किया और बताया कि परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीरामचन्द्रजी ही परमार्थ स्वरूप है।ये ही सगुण और ये ही निर्गुण हैं। वे ही (अपनी मर्जी से) मनुष्य बन कर लीला कर रहे हैं। (इनको कैकेयी आदि कोई भी दुख नहीं दे सकता आदि)।

इसलिये हे सखा! मोह छोड़कर इनके चरणों में प्रेम करो। इनके चरणों में प्रेम करना ही परम परमार्थ है आदि-आदि।

(इस प्रकार श्रीलक्ष्मणजी ने निषाद का विषाद मिटा कर परमात्मतत्त्व का बोध कराया)।

इसको "श्रीलक्ष्मण गीता" कहा जाता है।
यथा-

  भयउ बिषादु निषादहि भारी।
राम सीय महि सयन निहारी।।
बोले लखन मधुर मृदु बानी।
ग्यान बिराग भगति रस सानी।।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।
जोग बियोग भोग भल मंदा।
हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू।।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू।
सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू।।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।

सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ।।९२।।

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू।।
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा।
जब जब बिषय बिलास बिरागा।।
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।
सखा परम परमारथु एहू।
मन क्रम बचन राम पद नेहू।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अबिगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल बिकार रहित गतभेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।।

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल।।९३।।

सखा समुझि अस परिहरि मोहु।
सिय रघुबीर चरन रत होहू।।
कहत राम गुन भा भिनुसारा।
जागे जग मंगल सुखदारा।।

(रामचरितमा.२|९२-९४)।

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बुधवार, 26 अप्रैल 2017

सब समय में भगवान का स्मरण कैसे करें? (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                      ॥श्रीहरि:॥

सब समय में भगवान का स्मरण कैसे करें?
(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)। 

दिनांक ५-८-१९९५ के प्रातः पाँच बजे वाले प्रवचन में श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने बताया कि

... तो सब समय में  स्मरण कैसे करें?

तो एक बात है खास। जो मैंने कही है।  मनुष्य को अपना एक उद्देश्य बना लेना चाहिये। एक ध्येय, एक लक्ष्य कि मेरे को तो भगवत्प्राप्ति ही करना है,अपना कल्याण ही करना है; क्योंकि कल्याण के लिये ही मानव शरीर मिला है।

हमें धन कमाना है,हमें तो मान कमाना है, हमें (तो) भोग भोगना है  -ये आप कर लेते हो; पण (पर) भोगों के लिये, मान-बड़ाई के लिये (मानव-) शरीर मिला नहीं है। मिला तो कल्याण के लिये ही है । तो यह लक्ष्य अभी बना लेना चाहिये। (तो) इससे क्या होगा ? (कि) जो कल्याण के विरुद्ध बात होगी आप उसे (आप-से आप) नहीं करोगे।

जैसे लोभी आदमी धन के लिये काम करता है। तो  जानकर नुकसान  (घाटे) का काम करेगा क्या वो? जानकर घाटा लगे जैसा काम करेगा? (नहीं करेगा) धन चाहता है वो कैसे करेगा? ऐसे ही कल्याण चाहते हो तो अभी कल्याण का उद्देश्य बन जाने से कल्याण में बाधा वाला काम आप से होगा ही नहीं।

... तो लोग खुल्ले रहते हैं। हमारे सामने तो कई आदमियों ने कहा है ऐसा। क्या हुआ?..    (कह,) महाराज! हम तो गृहस्थी हैं। आपको ऐसे करना चाहिये हम तो गृहस्थी हैं। तो गृहस्थों को कहाँ छुट्टी दी है? आपने ले ली छुट्टी। गृहस्थ के ऐसा नहीं है। साधू को ऐसा करना चाहिये। गृहस्थ तो खुल्ला है ... करे क्या। कहीं आया है ऐसा? (कहीं शास्त्र में विधान आया है क्या ऐसा?) पर मनमें खुल्ला मानते हैं।

तो खुल्ला मानते हैं तो खुल्ला होगा, पाप भी होगा पुण्य भी होगा;अच्छा भी (होगा) मन्दा भी (होगा) सब तरह के (होंगे) खुल्ला है यह तो। तो ऐसे खुल्ला नहीं रखना चाहिये। खुल्ला तो चौरासी लाख जूणी (योनि) के लिये है। मनुष्य के लिये यह खुल्ला नहीं है। मनुष्य तो परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही बनाया गया है।

(आगे बताया कि साधक तो मनुष्य ही होता है। ब्रह्म (चेतन) साधक नहीं होता और जड़ भी साधक नहीं होता। साधक होता है मनुष्य)।

[ इस प्रकार उद्देश्य एक (- भगवत्प्राप्ति का) होगा तो सब समय में स्मरण रहेगा ] ।

अधिक जानने के लिये गीता साधक-संजीवनी (लेखक- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) में  आठवें अध्याय के सातवें श्लोक की व्याख्या पढें। 

इसके अलावा और भी कई बातें बताई गई है।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के 19950805_0518_Antakaaleen Chintan Aur Mukti Ka Upay नाम वाले प्रवचन का अंश (यथावत)।

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शनिवार, 15 अप्रैल 2017

"सुहागिन स्त्री" को "एकादशी व्रत" करना चाहिये या नहीं ? कह, करना चाहिये।

                         ॥श्रीहरिः॥

"सुहागिन स्त्री" को "एकादशी व्रत" करना चाहिये या नहीं ?  कह, करना चाहिये।   

एक बहन "श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज"के
दिनांक 13-12-1995/,0830 बजेका सत्संग पढकर पूछतीं है कि क्या "स्त्री"को "व्रत "नहीं करना चाहिए?

उसके उत्तरमें निवेदन इस प्रकार है -

"शास्त्र"का कहना है कि

पत्यौ जीवति या तु स्त्री उपवासं व्रतं चरेत् ।
आयुष्यं हरते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति ।।

(अर्थ-)

जो स्त्री पति के जीवित रहते उपवास- व्रत का आचरण करती है वह पति की आयु क्षीण करती है और अन्त में नरक में पड़ती है।

(गीताप्रेस के संस्थापक - श्रध्देय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका द्वारा लिखित 
तत्त्व चिन्तामणि, भाग 3, 
नारीधर्म, पृष्ठ 291 से)।

पत्यौ जिवति या योषिदुपवासव्रतं चरेत् ।
आयुः सा हरते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति ॥

विष्णुस्मृति 25 ।

(इस भाव के वचन पाराशर स्मृति 4/17; अत्रि संहिता 136; शिवपुराण,रुद्र.पार्वती.54/29,44; और स्कन्दपुराण ब्रह्म. धर्मा. 7/37; काशी उ.  82/139; में भी आये हैं। "क्या करें क्या न करें " नामक पुस्तक से)। 

इस 'शास्त्र वचन'की बात सुनकर जब कोई बहन पूछती थीं तो

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते थे कि
"सुहागके व्रत" (करवा चौथ आदि) कर सकती हैं (इसके लिये मनाही नहीं है)।

कोई पूछतीं कि "एकादशी व्रत" भी नहीं करना चाहिए क्या?

तब उत्तर देते थे कि

एकादशी (आदि) "व्रत" करना हो तो पतिसे आज्ञा लेकर कर सकती है।

कुछ और उपयोगी बातें ये हैं- 

प्याज और लहसुन का तो कई जने सेवन नहीं करते,पर कई लोग गाजरका भक्षण कर लेते हैं।

लेकिन यह भी ठीक नहीं है;क्योंकि 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' बिना एकादशी के भी "गाजरका भक्षण" निषेध करते थे।

श्री सेठजी एकादशीके दिन "साबूदाना" खानेका भी निषेध करते थे कि इसमें "चावलका अंश" मिलाया हुआ होता है।

(आजकल 'साबूदाने' भी नकली आने लग गये )।

एकादशी के दिन 'चावल' खाना वर्जित है  ; क्योंकि "ब्रह्महत्या" आदि बड़े-बड़े "पाप" एकादशी के दिन चावलों में निवास करते हैं, चावलों में रहते हैं । ऐसा "ब्रह्मवैवर्त पुराण" में लिखा है।

जो एकादशी के दिन 'व्रत' नहीं रखते,'अन्न' खाते हैं, उनके लिये भी एकादशी के 'दिन' "चावल खाना" "वर्जित" है।

स्मृति आदि ग्रंथों को मुख्य मानने वाले "स्मार्त एकादशी" का 'व्रत' करते हैं और भगवानको, "वैष्णवों" (संन्तो-भक्तों) को मुख्य मानने वाले "वैष्णव एकादशी" का "व्रत" करते हैं ।

"एकादशी" चाहे "वैष्णव" हो अथवा "स्मार्त" हो; "चावल खाने का निषेध" दोनों में है।

"सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका" और "श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज" "वैष्णव एकादशी व्रत","वैष्णव जन्माष्टमी व्रत" आदि करते थे और मानते थे ।

एकादशी आदि व्रतोंके माननेमें "दो धर्म" है-

एक "वैदिक धर्म" और एक "वैष्णव धर्म"।

(एक "एकादशी" "स्मार्तों " की होती है और एक "एकादशी" "वैष्णवों " की होती है।

"स्मार्त" वे होते हैं) जो 'वेद' और 'स्मृतियों ' को खास मानते हैं,वे 'भगवान' को "खास"(-विशेष) नहीं मानते।

"वेदों" में,"स्मृतियों " में भगवान् का "नाम" आता है इसलिये वे भगवान् को मानते हैं (परन्तु "खास"  "वेदों" को मानते हैं) और

"वैष्णव" वे होते हैं जो भगवानको "खास" मानते हैं, वे "वेदों" को,"पुराणों" को इतना "खास" नहीं मानते जितना "भगवान्" को "खास" मानते हैं।

( "वैष्णव" और "स्मार्त" का रहस्य "परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज" ने 19990809/1630 बजे वाले "प्रवचन" में  भी बताया है ।

कृपया  वो प्रवचन इस पते पर जाकर  सुनें -)।

(पता:-
"https://docs.google.com/file/d/0B3xCgsI4fuUPTENQejk2dFE2RWs/edit?usp=docslist_api " )।

"वेदमत","पुराणमत" आदिके समान एक "संत मत" भी है,(जिसको "वेदों" से भी "बढकर" माना गया है)।

...
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । 
भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू । 
सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥

(रामचरितमा.1/27)।
...

एकादशीको "हल्दी"का प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योकि "हल्दी"की गिनती "अन्न" में आयी है (हल्दीको "अन्न" माना गया है)।

साँभरके "नमक" का प्रयोग भी एकादशी आदि "व्रतों"में नहीं करना चाहिये ;क्योंकि

"साँभर झील" (जिसमें नमक बनता है,उस) में कोई 'जानवर' गिर जाता है तो वो भी 'नमक' के साथ 'नमक' बन जाता है (इसलिये यह "अशुध्द" माना गया है)।

"सैंधा नमक" काममें लेना ठीक रहता है। "सैंधा नमक"  "पत्थर"से बनता है,इसलिये "अशुध्द" नहीं माना गया।

एकादशीके अलावा भी "फूलगोभी" नहीं खानी चाहिये।'फूलगोभी' में "जन्तु" बहुत होते हैं।

["बैंगन" भी नहीं खाने चाहिये।शास्त्र कहता है कि जो "बैंगन"  खाता है,भगवान उससे दूर रहते हैं]।

"उड़द" और "मसूर"की "दाळ" भी "वर्जित" है।

'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'ने बताया है कि जिस वस्तुमें नमक और जलका प्रयोग हुआ हो,ऐसी कोई भी वस्तु बाजारसे न लें;क्योंकि नमक "जल" है ('नमक' को जल माना गया है) और 'जल' के "छूत" लगती है।

(अस्पृश्यके स्पर्श हो गया तो स्पर्श दोष लगता है।

इसके अलावा 'पता नहीं' कि वो किस 'घर'का बना हुआ है और 'किसने' , 'कैसे' बनाया है)।

"हींग" भी काममें न लें;क्योंकि वो "चमड़े"में डपट कर रखी जाती है,नहीं तो उसकी "सुगन्धी" चली जाय अथवा  कम हो जाय ।

"हींग" की जगह "हींगड़ा" काममें लाया जा सकता है।

सोने चाँदी के "वर्क" लगी हुई "मिठाई" नहीं खानी चाहिये;क्योंकि यह ("गाय" या) "बैल"की "आँत"में रखकर बनाये जाते हैं,'बैल'की 'आँत' में छौटासा सोने या चाँदीका "टुकड़ा" रखकर, उसको 'हथौड़े' से पीट-पीटकर फैलाया जाता है और इस प्रकार ये सोने तथा चाँदीके "वर्क" बनते हैं।

इसलिये न तो "वर्क" लगी हुई मिठाई खावें और न मिठाईके "वर्क" लगावें।

इस प्रकार अपना "कल्याण" चाहने वालों को और भी "अभक्ष्य खान-पान" आदि से बचना चाहिये और लोगों को भी ये बातें बताकर बचाना चाहिये ।

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(पन्द्रह मिनट का साधन-) *यह तो केवल समझ लेने की, मान लेने की चीज है -* *श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।*

                        ॥श्रीहरि:॥

(पन्द्रह मिनट का साधन-)*यह तो केवल समझ लेने की, मान लेने की चीज है -*
*श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।*

×××

इससे भी एक बारीक बात है। मेरा निवेदन है, आप ध्यान देकर सुनें। शरीर-संसारका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है- ऐसा निश्चय करके बैठ जायँ। कुछ भी चिन्तन न करें। फिर चिन्तन हो तो वह भी मिट रहा है। मिटनेके प्रवाहका नाम ही चिन्तन है। मिटनेवालेके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं। यह सब नित्य-निरन्तर मिट रहा है, और हम इसे जाननेवाले हैं, इससे अलग हैं। ऐसे अपने स्वरूपको देखें। दिनमें पाँच-छः बार पन्द्रह-पन्द्रह मिनट ऐसा कर लें। फिर इस बातको बिलकुल छोड़ दें। फिर याद करें ही नहीं। याद नहीं करनेसे बात भीतर जम जाएगी। इतनी विलक्षण बात है यह! इसे हरदम याद रखनेकी जरूरत नहीं है। याद करो तो पूरी कर लो और छोड़ दो तो पूरी छोड़ दो, फिर याद करो ही नहीं। जैसा रोजाना काम करते हैं, वैसा-का-वैसा ही करते जायँ फिर बात एकदम दृढ़ हो जायगी। यह याद करनेकी चीज ही नहीं है।
यह तो केवल समझ लेनेकी, मान लेनेकी चीज है। जैसे यह बीकानेर है-इसे क्या आप याद किया करते हैं? याद करनेसे तो और फँस जाओगे; क्योंकि याद करनेसे इसे सत्ता मिलती है। मिटानेसे सत्ता मिलती है। हम इसे मिटाना चाहते हैं, तो इसकी सत्ता मानी तभी तो मिटाना चाहते हैं! जब हम सत्ता मानते ही नहीं, तो क्या मिटावें? तो इसकी सत्ता ही स्वीकार न करें ।

*-परम श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज* की पुस्तक
*"साधन-सुधा-सिन्धु"* के *"संयोगमें वियोगका अनुभव"* नामक लेख से।
(पृष्ठ संख्या ५९१)।

शनिवार, 18 मार्च 2017

गीताजी की टीकाओं का नाश न करें और न करने दें।

                       ॥श्रीहरि:॥

गीताजी की टीकाओं का नाश न करें और न करने दें। 

आज दिनांक १८-३-२०१७ को  गीताजी की दोनों टीकाएँ - साधक-संजीवनी (लेखक - श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)  और तत्त्वविवेचनी (लेखक - परम श्रध्देय सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका - इन दोनों टीकाओं) को 'एण्ड्रोइड सिस्टम' में देखकर बहुत बहुत खुशी हुई।

{उनके पते ठिकाने ये हैं-
१- (साधक-संजीवनी-)
https://play.google.com/store/apps/details?id=sadhaksanjeevani_hindi.com.spiritualseekerrsk

२-
(तत्त्वविवेचनी-) https://play.google.com/store/apps/details?id=tv.org.spiritualseeker}

इनको डाउनलोड करके मैं देखने लगा तो वहाँ 'पद छेद' शब्द देखकर मनमें आया कि इस शब्द की जगह 'पदच्छेद' शब्द लिख दिया जाता तो अच्छा होता (जबकि मूल में न होने के कारण अनुचित है)। 

खैर, शुरुआत में भूलें होना स्वाभाविक है, ('लिखनेवाला' ईमानदार होना चाहिए  और बेपरवाही न करनेवाला भी होना चाहिए। 'लिखने वाले' का प्रयास उपयोगी और सराहनीय है

अगर 'लेखन' में  अशुध्दि रह भी गयी होगी तो भी सामग्री तो पूरी ही लिखी होगी -ऐसी उम्मीद थीं)।

इसलिए मेरे को सबसे बढ़िया लगने वाले भगवान के "समग्र रूप" के वर्णन वाले  प्रसंग को (जिसमें श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने चार्ट बनाकर इस रहस्य को समझाया है,वो चार्ट) खोज कर देखने लगा जो कि आठवें अध्यायके चौथे श्लोक की व्याख्या में आया था

(और जिसको देखने से मेरे को नया प्रकाश मिला और एक साथ ही अनेक शंड़्काओं का समाधान हो गया था तथा भगवान का समग्र रूप सरलता पूर्वक समझ में आया था) ।

लेकिन उस चार्ट को तो 'इन लेखक' ने छोड़ ही दिया था, लिखा ही नहीं।

छोड़ दिया - जानकर 'खुशी' 'चिन्ता' में बदल गयी कि ऐसे तो न जाने इन्होंने क्या-क्या छोड़ दिया होगा?

ऐसे तो ये लोग इन ग्रंथों का ●● कर देंगे,"सन्तों की वाणी" का ●● कर देंगे आदि आदि।

(एण्ड्रोइड सिस्टम में 'लिखने वाले' की ईमानदारी ●●●)।

ऐसा न तो करना चाहिये और न करने देना चाहिये।

अब कहें किससे और सुने भी कौन?

हे नाथ! हे मेरे नाथ !! मैं आपको भूलूँ नहीं।

- डुँगरदास राम

अधिक जानने के लिये कृपया यह लेख पढ़े-

संत-वाणी यथावत रहने दें,संशोधन न करें|('श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की वाणी और लेख यथावत रहने दें,संशोधन न करें)।
http://dungrdasram.blogspot.in/2014/12/blog-post_30.html?m=1

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अब वो गलती सुधार दी गयी- यह बहुत खुशीकी बात है और आगे भी उम्मीद है कि इसमें जो अनेक त्रुटियाँ रह गई है वो भी सुधारी जायेगी। लेखक को बहुत बहुत साधुवाद।

■ कृपया कोई भी टिप्पणियाँ (८।४ और ५ आदि की तरह) छोड़ें नहीं।

■ "साधक-संजीवनी" में जैसा लिखा है , उसका मिलान करके वैसा का- वैसा ही लिखना चाहिये। कोई भी अंश छूट न जाय। (और न अपने मन से ही कुछ जोड़ें)।

■शब्द, हलन्त, मात्रा, कौमा, अल्प विराम, पूर्ण विराम, अनुस्वार, चन्द्रबिन्दू, डैस, कोष्ठक आदि जैसे "साधक-संजीवनी: में दिये गये हैं, यहाँ भी वैसे के- वैसे ही होने चाहिये।