सोमवार, 29 जुलाई 2019

सीखने की बात(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)

                ।। श्री हरिः ।।
                  ● (पहला प्रवचन- ) ● 
               ■ सीखने की बात ■
  (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज )
{  दिनांक २०|०३|१९८१_ दुपहर २ बजे  खेङापा (जोधपुर) वाले प्रवचन
                                 का 
                       यथावत् लेखन -   } 

(1 मिनिट से) ●•• मनुष्यको एक बिशेष(विशेष) बुद्धि दी है।  निर्वाहकी बुद्धि तो पशु-पक्षियोंको भी है, और वृक्षों में भी है। जिससे अपना जीवन निर्वाह हो ज्याय(जाय), उसके लिये अपणा (अपना) प्रयत्न करणा(करना) , ऐसी बुद्धि तो वृक्ष, लता, घास- इसमें (इनमें) भी है। बेल होती है ना, वहाँ, जिस तरफ उसको जगह मिलती है उधर चढ़ ज्याती(जाती) है ऊपर और बर्षा(वर्षा) बरसे तो घास, पौधे- सब खुश हो ज्याते(जाते) हैं।, गर्मी पड़े और जळ नहीं मिले , तो कुम्हला ज्याते(जाते) हैं। तो अनुकूलता में राजी र प्रतिकूलता में नाराजी(नाराजपना) , उनमें भी है। (2 मिनिट.)  अगर यही हमारे - मनुष्यों में रही, तो मनुष्यों के बुद्धिका क्या उपयोग हुआ ? वो पशु भी कर लेते हैं अपना । घाम तपता है, तावड़ो(घाम) तपे जोरदार। गाय, भेंस, भेड़, बकरी, ऊँट - ये भी छायामें चले जाते हैं , और अच्छी चीज मिलती है तो वो ही खा लेते हैं, बुरी चीज नहीं खाते । उनका भी कोई प्यार करे, आदर करे, तो उनको अच्छा लगता है। उनका तिरस्कार करे, मारे , तो उनको बुरा लगता है। कुत्तेका भी आदर करो तो राजी हो ज्याता है, अर निरादर करो तो उसको गुस्सा आ ज्याता है, काटनेको दौड़ता है। उसके चेहरे पर फर्क पड़ ज्याता है, अगर यही हमारेमें हुआ तो फिर मनुष्यकी बुद्धिका उपयोग क्या हुआ? (3 मिनिट.) मानो मिनखपणों कठे काम आयो ? पशुपणों ही हुयो (मनुष्यपना कहाँ काम आया ? पशुपना ही हुआ)। । मनुष्य भी अपणेको (अपनेको) अच्छा देखणा(देखना) चाहता है कि मेरेको लोग अच्छा मानें। ऐसे हमारे भाई- बहन भी चौखा ओढ़- पहर र(कर) तैयार हो जाय क(कि) मने(मेरेको) लोग अच्छा मानें। तो फिर मनुष्यों में र(और) पशुओं में  क्या फर्क आया(हुआ) भाई ? वो मनुष्यपणा नहीं है। जकेने(जिसको) मानखो कहे, मिनखपणो कहे र(आदि), मिनखपणो नहीं है। मिनखपणो तो तभी है कि जब जीते- जी आणँद(आनन्द) हो ज्याय । जिसमें दुःख का असर ही न पड़े।
युद्धमें जाणेवाळे(जानेवाले) कवच पहना करते थे , बड़ा- बड़ा बखतर लोहेका, जिणसे(जिससे कि)  (4 मिनिट.) उसके चौट न लगे, घाव न लगे। इसी तरहसे हम संसारमें आकर ऐसे रहे(रहें ), जो हमारे , प्रतिकूल- से- प्रतिकूल का भी घाव हमारे लगे ही नहीं । हम ठीक साबत– साबत (बिना किसी टूट- फूटके , जैसे पहले थे वैसे ही) बच जायँ। तब तो है मिनखपणो और चौट लग जाती है तो मिनखपणा कहाँ भाई? मिनखपणा नहीं हुआ और इसी बात को ही वास्तव में सीखणा(सीखना) है, समझणा(समझना) है। मनुष्यके लिये यह, इस बात की बड़ी भारी आवश्यकता है, जरुरत है और मनुष्य ऐसा बण(बन) सकता है, भाई हो, चाहे बहन हो, वे ऐसे बण सकते हैं। हर दम खुश रहें।
पूरे हैं मर्द वही जो हर हाल में खुश है (रहे),
हर समय में प्रसन्न रहे, मौजमें रहे, मस्तीमें रहे, आणँदमें रहें (5 मिनिट.) ऐसे हम और आप - सब बण सकते हैं। इसमें सन्देह नहीं है। 
बाहरकी घटना मन- सुहावती(मन- सुहाती) हो, चाहे बेसुहावती(बिना मन- सुहाती) हो, ये तो होती रहेगी। बाहर की घटनाओं को ही सुधार ले , अपणे लिये सुखदायी ही सुखदायी हो, ये किसी के हाथ की बात नहीं है ।
भगवान् रामजी अवतार लेकर आते हैं, उनके सामने भी सुखदायी और दुःखदायी घटना आई है। [जब] ये विचार हुआ क(कि) रामजी को राजगद्दी दी ज्यायगी(जायेगी) और राजगद्दीके बदळे(बदले) बनवास(वनवास) हो गया। कितनी बिचित्र(विचित्र) बात। प्रसन्नतां या न गताभिषेकतः (२|२) ( रामचरितमानस मं॰२|२) ,  अभिषेककी बात सुणी(सुनी), राजतिलक की बात सुणी हो[ऽऽ]  तो उनके मुखाम्बुजश्री-  उनके मुखकमल की शोभा & (6 मि.) कोई प्रसन्न नहीं हुई और तथा न मम्ले वनवास दुखतः  और बनवास(वनवास) की बात सुणादी क( सुनादी कि) तुम्हारेको चौदह बरस(वर्ष) तक बन में रहणा(रहना) पड़ेगा। किसी गाँवमें जा नहीं सकते, पैर नहीं रख सकते। चौदह बरस तक किसी गाँव में नहीं जा सकते। ऐसा बनवास हो गया , तो उससे कोई दुःखी नहीं हुए- तथा न मम्ले वनवास दुखतः । मुखाम्बुजश्री,  ऐसी वो जो शोभा है , वो हमारा मङ्गल करे अर(और जो) स्वयं सुखी और दुःखी होता है (वो) हमारे मंगळ क्या करेगा ? वो हमारी सहायता क्या करेगा ? [ जैसे ] हम सुखी- दुःखी होते हैं [ वैसे ]  वो भी सुखी- दुःखी होता है। 
रामायणमें तो बड़ी सुन्दर बात आई है। (7) मन्त्री जब गये हैं रामजी को बुलाणे(बुलाने) के लिये, दशरथजी महाराज बरदान देणेके(वरदान देनेके) लिये , वो तैयार नहीं हुए, कैकेयी ने हठ कर लिया। दशरथजी दुःखी हुए । उस समय मन्त्री गये तो सुबह हो गया , बात क्या है? उठे नहीं भूपति । तो कैकेयी ने कहा क राम को बुला लाओ , उसको सुणाएँगे(सुनाएँगे)।  बुलानेके लिये गये तो वहाँ आया है- 'रघुकुलदीपहि चलेउ लिवाई (लेवाई) ' ,  तो 'रघुकुलदीप' हुआ- दीपक, दीपक की तरह , रघुवँशियों में  दीपक की तरह, उसको(उनको) लेकर चले। 
जब रघुनाथजी महाराज दशरथजी के सामने जाते हैं, वहाँ  देखे हैं (देखा है) , (8) तो गोस्वामीजी कहते हैं-
जाय'(जाइ) दीख रघुबंसमणि(रघुबंसमनि)'
(रामचरितमानस २|३९)
वहाँ  दीपकसे मणि हो गये और जब बनवास की बात सुणाई(सुनाई) तो 'मन  मुसकाय(मुसुकाइ) भानुकुल भानू'    समझे ! , अब सूरज(सूर्य) हो गये। बुलाया जब(तब) तो दीपक था, देखा जब मणि हो गया अर(और) बनवास की बात सुणी(सुनी) तो सूरज हो गये, तो तेज बढ़ गया। मानो बिपरीत(विपरीत) बात सुणणे (सुनने) से तेज बढ़ा है।   मलीन और दुखी तो होवे ही क्या, विपरीत- से- विपरीत बात सुण करके खुश हो रहे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं।  हाँ,  वो जो 'मुखाम्बुजश्री'  है न,(9) वो हमारा कल्याण करे, हमारेको आणँद देवे (आनन्द दें)- 'सदास्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा' (२|२) ।  तो , क्योंकि उसके (समतायुक्त , मनुष्यपन वाले के) तो मंगळ ही मंगळ है।
मणि होती है उसकी बात सुणी है क उसको शाण (कसौटी वाले पत्थर) पर लगा करके रगड़ते हैं तो वो एकदम चमक उठती है, राजाओंके मुकुट में चढ़ ज्याती है, तो विपरीत अवस्थामें (वो मनुष्य) चमक  उठता है, असली संत होते हैं, महात्मा होते हैं , वो चमक उठते हैं। और ये स्थिति मनुष्यमात्र् प्राप्त कर सकता है। ऐसा बड़ा सुन्दर अवसर मिला है, मौका मिला है।
भाईयों ! बहनों ! यहाँ थोड़ी- सी क चीज मिल ज्याय, थोड़ा- सा शृङ्गार कर लिया - थोड़ा [ कि लोग ] मेरेको चौखा- अच्छा , अच्छा  देखे । महान्  मूर्ख है, महान्  मूर्ख, (१0) महान् मूर्ख। लोग अच्छा देखे र, बुरा देखे, तुम अच्छे बण ज्याओ भीतरसे, श्रेष्ठ बण ज्याओ(बन जाओ) । चाहे लोग बुरा देखे, अच्छा देखे, निन्दा करे, स्तुति करे, आदर करे, निरादर करे , तुम्हारे पर कोई असर न हो।  इतना बखतर पहरा (पहना) हुआ है , ऐसा जो मस्त- ही- मस्त है, आणँद ही आणँद है। ऐसे बण ज्याओ तो मौत में भी दुःखी नहीं होंगे । 
मरणे(मरने) की तो इच्छा नईं(नहीं) और जीणे(जीने) की भी इच्छा नीं(नहीं), भई (भाई !) मैं जी उठूँ- येइ(यह भी) इच्छा नीं और कुछ मिल ज्याय - ये बिलकुल ही भीतरमें भाव नहीं - मेरे को मिल ज्याय। तो जीणे की इच्छा क्यों नहीं होती है कि वो सदा के लिये जी गया, अब मरणा है ई(ही) नहीं । तो मरणे की बात कहाँ हो? मरणे की सम्भावना (11) होती है तब न डरता है ! तो मरेगा कौण? कह, शरीर। अर शरीर के साथ एक हुआ– हुआ है तो वो तो मरेगा भाई ! कितनी वार मरेगा-  इसका पता नहीं है। और मरणे का डर लगता है तब जीने की इच्छा होती है।
संतों ने कहा - 
‘अब हम अमर भये न मरेंगे '  
अब मरेंगे नहीं 
‘राम मरै तो मैं मरूँ नहिं तो मरे बलाय ।
अबिनासी रा (का) बालका र मरे न मारा जाय’।।, 
अर इसकी प्राप्ति में सब स्वतन्त्र हैं, पर धन मिल ज्याय क, मान मिल ज्याय क, सुन्दर शरीर मिल ज्याय क, भोग मिल ज्याय क, रुपये मिल ज्याय- इसमें(इनमें) कोई स्वतन्त्र नहीं है। रामजी भी स्वतन्त्र नहीं है क राज मिल ज्याय । (हल्की हँसी) कोई स्वतन्त्र नहीं और मौज में सब स्वतन्त्र है, और उसमें जितना आणँद है, (12) [ उतना ] उन पराई चीजसे सुखी होणे वाळा कभी सुखी हो नहीं सकता क्यों(कि)
  'पराधीन सुपनेहुँ(सपनेहुँ) सुख नाहीं' ।। '
(रामचरितमानस १|१०२|५)।
धन के अधीन हुआ तो पराधीन हो गया, राज्य मिला तो पराधीन हो गया, पराधीनको सुख नहीं। सदा स्वतन्त्र हो ज्याय । किसी बात की पराधीनता न रहे । उस स्वतन्त्रता का अर्थ यह नहीं क उच्छृङ्खल हो ज्याय (और) मन मानें ज्यूँ(ज्यों) करे। उद्दण्डता करे- ये अर्थ नहीं है। अपणे सुख के लिये, अपणे आराम के लिये, अपणे आणँद के लिये, कभी किसी चीज की गरज(गर्ज़) किंचित् मात्र् रहे ही नहीं,  भीतरसे  खाता ही उठ ज्याय। 
सज्जनों ! मैं बात तो कहता हूँ, आप लोग कृपा करें, मेरी बात की तरफ ध्यान दें। ऐसे हम बण सकते हैं, ऐसा बड़ा भारी लाभ हम ले सकते हैं, बिलकुल ले सकते हैं, अर बड़ी सुगमता से ले सकते हैं। (13) ऐसा धन हम इकट्ठा कर सकते हैं, जिसमें सदा तृप्ति रहे, मौज ही मौज रहे। मृत्युके समयमें भी दुःखी न होवें । कबीर साहब ने कहा है-
सब जग डरपे मरणसे अर मेरे मरण आणँद ।
कब मरियै कब भेटियै पूरण परमानन्द।। 
दुनियाँमात्र् मरणे से डरती है, हमारे तो मरणे में आणँद है। यहाँ से मरे तो बहुत ही आणँद ही में- आणँद में जायेंगे डर किस बात का , मौज है यहाँ ।  डरता वही है जो शरीर के आधीन हो गया- शरीरको 'मैं' अथवा 'मेरा' मानता है , अपणेको शरीर मानणा अथवा शरीरको अपणा मानणा। अपणेको शरीर मानणा हुआ 'मैं- पन' -- 'अहंता' (14) और शरीरको अपणा मानणा हुआ 'ममता' । तो 'मैं' 'यह हूँ' र ये 'मेरा है'- ऐसा बिचार रखणे(रखने) वाला तो मरेगा र डरेगा , संसार का कोई दुःख ऐसा है नहीं जो शरीरको 'मैं' और 'मेरा' मानणे वाळे को न मिले। ऐसा 'दुःख' है ई(ही) नीं(नहीं)। कोई ऐसा 'दुःख' नहीं है जो उसको न मिले। सब तरह का 'दुःख' मिलेगा और मिलेगा अर मिलता ही जायेगा, जब तक 'मैं' और 'मेरा' मानेगा तब तक मिलता जायेगा 'दुःख' - 
मैं मेरे की जेवड़ी गळ बँधियो संसार।
दास कबीरा क्यों  बँधे जिसके राम आधार।। 
उसका शरीर आधार नहीं है, उसके रामजी आधार है, तो कबीरजी कहते हैं- हमारेको किसका भय भाई? ये 'मैं' - 'मेरे' की जेवङी बँधी है ना-  गळ बँधियो संसार।  संसार एक गळेमें फाँसी है - 'मैं' - 'मेरे' की। सच्ची पूछो तो (15) बात ये है, कह, मनुष्य 'मैं' और 'मेरा' - ये मिटा सकता है। 'मैं' और 'मेरे' को बढ़ा ले पूरा [ ये ] किसी के हाथ में नईं(नहीं) । कितना ही ऊँचा 'मैं' बण ज्यायगा तो उससे ऊँचा और रह ज्यायगा कोई , बाकी और ऊँचा रह ज्यायगा , और ऊँचा रह ज्यायगा । और सर्वोपरि हो ज्यायगा । दुनियाँमात्र् में,  कहीं भी उससे बड़ा नहीं रहा है तो एक होगा। दो तो  हो इ नईं सकते। दोनों बराबर हो जायेगें, 'सबसे बड़े' कैसे होगा? अर वो(जो) , सबसे बड़ा होगा  सबसे अधिक भयभीत होगा वो ; क्योंकि सबके ऊपर आधिपत्य करता है तो आधिपत्य करणे वालेको सुख नहीं मिलता है। ये बहम है।  एक मिनिस्टर बणता है क मैं मालिक हूँ। वो मालिक नहीं , दुनियाँ का गुलाम है, गुलाम, गुलाम। अपणे को बड़ा मानता है, है दुनियाँ के आधीन। [ दुनियाँ ] सबकी सब बदल जाय तो जय रामजी री(जय रामजी की) , कुछ नहीं। बोट(वोट) नहीं दे तो? (16) क्या दशा हो? पराधीन है पराधीन। संतो ने इस पट्टे को बढ़िया नहीं (बताया) है,
राम पट्टा है रामदास, दिन– दिन दूणा थाय। 
पट्टा तो भई ! ये है जो
राम पट्टा है राम . दिन दिन दूणा थाय।। 
तो पट्टा मिल ज्याय तो दूणा(दूना)- ही- दूणा बढ़े, कभी घाटा पङे ही नहीं । अर वो पट्टा सब को मिल ज्याय । एक- एक सर्वोपरि होजायेंगे, सब के सब सर्वोपरि हो जायेंगे और किसी को ही दखल नहीं होगी, किसी के भी दूखेगा नहीं। जिनको मिल गया वे भी राजी अर जिसको(जिनको) नहीं मिला वे भी राजी अर मिलना(पाना) चाहते हैं , वे भी राजी हैं । सब- के- सब प्रसन्न हो ज्याय । ऐसी बात है, अर सीधी बात है भाई। सीधी, सरल बात - कह, 
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम ।।  
आप कई तरह का(के) उद्योग करते हो, कई तरह का मनोरथ करते हो, कई तरह का संग्रह करते हो, (17) जो कि अपणे हाथ की बात नहीं है । बिद्वान (विद्वान) बण्णा हाथकी (बात) नाहीं(नहीं), धनवान बनना हाथकी बात नहीं, मान पा ज्याणा हाथकी बात नहीं, सब लोग प्रशंसा करे, हाथकी बात नहीं, राम राम राम राम करे जणा(तब) पराधीन की बात ही नहीं, इनमें क्या पराधीन है भाई? हरदम राम राम करे।  जबानसे नहीं हो तो भीतर- भीतर से करे।  अर शक्ति नहीं (है) तो पड़ा- पड़ा ही , भगवान् के चरणों में पड़ा हूँ (ऐसा मानले)। केवल इतनीज (इतनी- सी) बात ।
  मैं दुनियाँ में पड़ा हूँ , दुनियाँ में क्यों पड़ा [ है ] रे ? भगवान् के चरणों में हूँ [ - ऐसा मान ] ' सर्वतःपाणिपादं तत् ' (गीता १३|१३)    - भगवान् के सब जगह चरण है । तो जहाँ आप पड़े हो, हम पड़े हैं, वहाँ  चरण नहीं है क्या भगवान् के?  नहीं तो 'सर्वतःपाणिपादम् '  कैसे कहा? सब जगह भगवान् के चरण हैं, तो हम भगवान् के चरणों में पड़े हैं, हमारेको क्या भय है? क्या चिन्ता है? 
धिन शरणों महाराजको निशदिन करिये मौज। (18) 
तो भगवान् रो शरणो है (भगवान् का आधार है)।
निशदिन करिये मौज  (ज्यूँ - वैसे ही)
संतदास संसार सुख दई दिखावे नौज (नहीं ) ।। 
ऐसा है हो ऽऽ ! -  दई(भगवान्) कभी सुख न दिखावे  , संसारका सुख न दिखावे, कृपा करे भगवान्। कह, 'सुख के माथै सिल पङो'।  ये नहीं दिखावे ।
अब संत तो आ(यह) बात कैवे(कहते हैं) र आपाँ चावाँ(अपने चाहते हैं) क(कि) - सुख मिले।
जो बिषिया संतन तजी, ताही नर लिपटाय।
ज्यौं नर डारे वमनको र स्वान स्वाद सौं खाय ।। 
उल्टी(वमन) हो जाती है न , उल्टी होती है तब अपणी भाषामें  - 'जी दोरो ह्वे है' कह (कहते हैं)  (जीव- अन्दर से दुखी हो रहा है)  जी दोरो ह्वे जणा उल्टी ह्वे है क। , जी दोरो ह्वे जणा उल्टी ह्वे है न ! कोई सोरे में ह्वे है?  (अन्दर से दुखी होता है तब उल्टी होती है न , कोई सुखी रहने में होती है ? )  जी दोरो ह्वे जब(तब) उल्टी ह्वे,(19) उल्टी हू ज्याय जणा सोरो हू ज्याय (जीव- अन्दर से दुखी होता है तब उल्टी होती है और जब उल्टी हो जाय , तब सुखी हो जाता है)  , ठीक, साफ उल्टी हो ज्याय, तो जी सोरो हू ज्याय। तो संताँ(संतों) ने उल्टी करदी- संसारको छोड़ दिया, भोग छोड़ दिया, तो उल्टी हो गयी। उल्टी कैसे है?  कह, सुल्टी तो खाणे- खाणे(खाने- खाने) में है , वह (छोङना) तो उल्टी ही है। लोग खाणो चावे र, वेरे लिये वो उल्टी  {लोग खाना चाहते हैं आदि और उन (संतों) के लिये वो विषय आदि  है उल्टी}  , लोग विषय भोगणो चावे (भोगना चाहते हैं) , संसार चावे (संसार को चाहते हैं) , मिल ज्याय रुपया पैसा र मान र  सत्कार, भोग मिल ज्याय । अर संतों के वो हुई उल्टी । 
उल्टी हो जाणेपर कुल्ला भी करें तो और ज्यादा [उल्टी की सम्भावना ] , मक्खियाँ भिणके (भिनके ) र नाक र (आदि)  देखेंगे तो और उल्टी हो ज्यायगी, इस वास्ते (इसलिये) उसकी तरफ देखते ही नहीं, अर कुत्ते लड़ते हैं - वो तो कह , मैं खाऊँ, वो कहते- मैं खाऊँ । 'स्वान स्वाद सौं खाय '   ( हँसते हुए [- समझे? ] ) एक- एक लड़कर खाते हैं। ऐसे (20) लोग संसार के भोगोंके लिये, रुपयों के लिये र  पदार्थोंके लिये, मान के लिये, बडाई के लिये लड़ते हैं कि मेरेको मिल ज्याय , वो कहता- मेरेको मिल ज्याय, वो कहते- मेरेको मिल ज्याय, तो कुत्ते से भी नीची दशा है भई, समझदार होकर ऐसा करे। कुत्ता बिचारा बेसमझ और अपणे समझते हैं। 
  अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभो दीपदहने
स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नाति पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ।।
(भर्तृहरिवैराग्यशतक)। (गीता साधक- संजीवनी 11/29)।  
 
 
मूढ़ता , हद हो गयी।
अजानन् दाहार्तिं पतति शलभस्तीव्र॰
(अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभो दीपदहने )
, पतंगा जाणता नहीं कि मैं जळ(जल) ज्याऊँगा , ऐसा जाणता नहीं है र आग में पड़ ज्याता है अर मर ज्याता है बिचारा । ये कीट , पतंग, मछली भी जाणती नहीं, (21) वो टुकड़ा है, जो काँटा है, वो (उसको) निगळ जाती है अर मर ज्याती है बिचारी(बेचारी)। वे तो जाणते नहीं - अजानन् दाहार्तिं, न मीनोऽपि अज्ञात्वा ।  मछली को पता नहीं और हम कैसे (हैं) क विजानन्तः -  बिशेषतासे जाणते हैं, ठीक- ठीक जाणते हैं, भोग भोगकरके देखा है, कई वार उथल- पुथल करके देखा है अर उससे ग्लानि हुई है, मन(में) पश्चात्ताप  हुआ है, दुःख पाया है। विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्   हम लोग ठीक तरहसे जाणते हुए विपत्तियों के जाल से जटिल , ऐसे भोगोंका , हम त्याग नहीं करते हैं। अहह गहनो मोह -  मूढ़ता की हद्द(हद) हो गयी। इस मूढ़ता को छोड़ दो भाई । ये ई तो काम है। सत्संग में आणा- करणा(आना- करना) , इसका अर्थ यही कि मूढ़ता को छोङदें। असली धन ले करके जावें (जायें) । वो धन क्या काम का जो अठे(यहीं) ही रह ज्याय र हम मर ज्यावें(जायँ) बीचमें ही ! ऐसा धन कमावें(कमायें) (22) जको(जो) मौज में , साथ में ही जाय, संतों का धन साथ रहता है सदा। ऐसा धन कमाया जको सदा ही साथमें रहे, कभी बिछुड़े ही नहीं, वो धन लेणेके (लेनेके) लिये हम लोग आये हैं। सच्चे ग्राहक बण ज्यायँ , केवल चाहना हमारी हो , उससे मिलते हैं भगवान्। 
परमात्मा चाहना मात्र् से मिलते हैं ; पण चाहना होणी चहिए (होनी चाहिये) एक ही, दूजी(दूसरी) नहीं । 
एक बाण(बानि)  करुणा(करुना)निधान की। सो प्रिय जाके गति न आन की ।। 
  (रामचरितमानस ३|१०|८)।
  और का सहारा न हो, वो उसको मिलता है क्योंकि और(दूसरा) सहारा रहणेसे उसका मन उस, और की तरफ चला जाता है, इस वास्ते वो(परमात्मा) मिलता नहीं । और (दूसरी) चाहना न होणे से एक चाहना होती है भगवान् की, तो भगवान् एकही है तो चाहना एक ही है बस, फेर(फिर) मिल ज्यायगा, खट मिल ज्यायगा । फेर देरी का काम नहीं। और (23) चाहना नहीं, चीज भले ई आपके पास रहो, शरीर आपके पास रहो, ऊमर रहे, पदार्थ रहे, परन्तु चाहना न रहे।
चाह चूहङी रामदास सब नीचोंसे नीच ।
तू तो केवल ब्रह्म था ये चाह न होती बीच ।।
  ये अगर तेरे पास नहीं होती तो तुम तो केवल ब्रह्म हो । इस चाहना के कारण से भाई ! ये दशा है अर बड़ी निन्दा होगी, बड़ा तिरस्कार होगा, बड़ा अपमान होगा, बड़ा दुःख होगा और मिलेगा कुछ नहीं भाई। अपणी सीधी भाषा में - कोरो माजणो गमावणो है (केवल इज्जत गमाना- खोना है) और कुछ नहीं । मिलणो- मिलणो कुछ नहीं है, माजणो खोवणो(खोना) है । तो माजणो खोवणने  आया हा क्या? (तो इज्जत खोने के लिये आये थे क्या?) मनुष्य बण्या(बने) हो, कि...(और) रामजी कृपा करी(की) है तो ऐड़ी(ऐसी) बेइज्जती करावण ने आया हाँ ?(करवाने के लिये आये हैं?) बड़ी भारी बेइज्जती, मिनख बणकरके र फेर(मनुष्य बन करके और फिर) भी सदा दुःखी(ही) रहे,  (24 बडी गलती (है)। 
महान् सुख की बात है ये -
मैं तो प्रार्थना करता हूँ भाईयोंसे, बहनों(से) और हमारे आदरणीय साधु समाजसे कि आप थोड़ा(थोङी) कृपा करें, हम लोग मिल करके बातें करें, क भई ऐसा हो सकता है क्या? अरे ऐसा ही हो सकता है । संसार का धन र विद्या र मान र बड़ाई-  ये मिल ज्याय हाथकी बात नहीं है। इसमें कोई स्वाधीन नहीं है और इसकी प्राप्तिमें कोई पराधीन नहीं है। आप कृपा करें, थोड़ी सी कृपा करें। मैं आपको धोखा नहीं देता हूँ। आपको ललचाता हूँ , कोई विपरीत- मार्ग में ले जाता हूँ, ठगाई करता हूँ, ऐसी बात, नियत हमारा(हमारी) नहीं है, (25) आपको महान् आणँद मिले(-ऐसी नियत है हमारी) और संत- महात्माओं ने कहा है वो बात कहणा चाहता हूँ, उस तरफ भी ले जाणा चाहता हूँ। तो सब संत कृपा करें और इकट्ठे होकर के इसका बिचार करें, बहुत लाभ की बात है, बहुत लाभ की बात है, बहुत ही लाभकी बात है। तो ये प्रार्थना है।
मैं साधु समाज में रह चूका हूँ । बच्चा था तबसे अभीतक इस साधूवेष में हूँ, तो मैंने देखी है , बहुत बातें देखी। अपणी मारवाड़ी भाषामें कह न- (कहते हैं न-) 'ऊँनी - ठण्डी के ई देखी (है)'  (गर्म - ठण्डी कई देखी है) अच्छी- भूण्डी(बुरी) केई(कई) बातें देखी है, तो मैं भुगत- भोगी(भुक्तभोगी) हूँ। 
आदमी एक तो सीख्योड़ो ह्वे(सीखा हुआ होता) है र एक भोग्योड़ो ह्वे(भोगा हुआ होता) है, इणमें,  दोनों  में बड़ा फर्क है । सीख्योड़ो तो भूल ज्याय पण भोग्योड़ो भूले कोनी (सीखा हुआ तो भूल जाता है पर भोगा हुआ भूलता नहीं) । (26) कहावत है क नीं(है कि नहीं) ! --
'दोरो कूट्योङो र सोरो जिमायौङो भूले कोनी' ,  याद रेवै। (बहुत दुखी करते हुए पीटा हुआ और बहुत सुखी करते हुए भोजन कराया हुआ - भूलता नहीं  , याद रहता है)
(तो) मनें(मेरेको) बातें याद है, मेरे(को) बोहोत बरस हुआ है(हुए हैं), इस बेष(वेष) में आये हुए, होश में आये हुए, समझ में आये हुए, और मैं भाई ! देखी है बातें। मैं हाथ जोड़के(जोङकर) कहता हूँ कि मेरी देखी हुई बातें है, 'ए पापङ पोयौङा है म्हारा' । (ये पापङ बेले हुए हैं मेरे) । देख्योड़ी ई(देखी हुई ही) बात है। नमूना देखा है सब, तरह–तरह का देखा। 
मेरे मन में आती है कि मैं भटका कई जगह और मैं [ जो ] चाहता था वो चीज नहीं मिली, जब(तब) भटकता रहा। उसके लिये मैंने गृहस्थोंका र साधुओंका कोई बिचार ई(ही) नहीं किया, कह, साधुके पास मिल ज्याय  कि, गृहस्थी के ई पास मिल ज्याय, कठे ही(कहीं भी) मिल ज्याय ।  भूख लगती है, भिक्षा माँगता है (27) तो कठे ही मिल ज्याय , ऐसी मन में रही और उससे लाभ हुआ है भाई।
और मेरे एक मन में आती है , आप क्षमा कर देंगे, मैं अभिमान से नहीं कहता हूँ । बहुत सुगमता से वो मार्ग मिल ज्याय हमारे को, बहुत सरलता से बड़ी भारी उन्नति हो ज्याय और थोड़े दिनों में हो सकती है, महिनों में , बरसों में हो ज्याय  और बिलकुल हो ज्याय- इसमें सन्देह नहीं। केवल इसकी चाहना आप जाग्रत करें और आप पूछें और वैसे ही चलें। थोड़ा(थोङे) दिन, पहले तो भई सहणा(सहना) भी पड़ता है, कष्ट भी सहणा पड़ता है। परन्तु कष्ट वो कष्ट नहीं होता । जब अगाड़ी चीज मिलने वाली होती है न , तो वो कष्ट कष्टदायी नहीं होता, दुखदायी नहीं होता । ऐसे आप लोग लग ज्यायँ तो बड़ी कृपा मानूँगा आपकी, बहुत बड़ी कृपा।  (28) एक, मेरे एक शौक लगी है , एक , भीतरमें है ऐसी एक, उसको जलन कहदें तो ई (तो भी)  कोई आश्चर्यकी [बात] ना(नहीं) है पण जलन है नहीं वैसी। जैसी जलन जलाती है, ऐसी नहीं जलाती है, पण जलन है । आप लोग कृपा करके मेरी बात मानें, सुणें, उस पर बिचार करें, उसको समझणे(समझने) का उद्योग करें, चेष्टा करें, शंका करें, मेरेसे पूछें,  अर मेरेसे ही क्यों ,  संतों की बाणी पढ़े(पढें) , संत- महात्माओं की बात है न , उनको देखे(देखें) , पढें,  सुणें, समझें  और जो समझणे वाले हैं उनसे आपस में बात करे (करें) । तो बोहोत(बहुत) बड़े लाभ की बात है । नहीं तो समय आज दिन का गया , वैसे और रहा हुआ समय भी हाथों से निकल ज्यायगा । और फेर कुछ नहीं। आज दिनतक का समय चला गया ऐसे ये चला जायगा और ले लो तो बड़ा भारी लाभ (29) ले लोगे, हो जायेगा लाभ- इसमें सन्देह नहीं, किंचित् मात्र् भी सन्देह नहीं। अब इसमें कोई शंका हो तो बोलो आप।
भगवान् के नाम का जप है सीधा, सरल। 
सुमित सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाह(लाहु) परलोक निबाहू ।। 
(रामचरितमानस १|२०|२)।
लोक र परलोक, दोनों में ईं(ही) काम ठीक हो ज्याय, 
वो ही राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम [ है यह ] ।
श्रीजी महाराज, श्रीरामदासजी महाराज को देषनिकाळा हुआ, देश निकाळा। जोधपुरसे हुक्म हो गया क हमारे देश (खेङापा गाँव) में मत रहो। आप बाहर, देवळों  के सामने है नीं(न) खेजड़ी, उसके नीचे दातुन कर रहे थे, (तो) हुकम आ गया। वहाँ से ही चल दिया(दिये) और कहा भई ! हमारे गुरु- महाराज की बाणी(वाणी) का गुटका(पुस्तक) और छड़ी, ये लियाओ (ले आओ) । (30) भीतर आकर नहीं देखा , बाहर ही । आ ज्याओ(जाओ) , राज का हुकम हो गया। चीज- बस्तु भण्डार भरे , है जैसे- के- जैसे छोड़के(छोङकर) , वहाँ से ही चल दिये। [ पीछे ] इस राज में बड़ी आफत आई, दुःख हुआ। [ उन संतों को ] बीकानेर दरबार ने बुला लिया, द्यालजी (दयालजी) महाराज भी साथ में ईं थे। तो लोगों ने [ जोधपुर दरबार से ] कहा - कह , तुमने साधुओं को तंग किया, दुःख दिया , तो अब सुख कैसे होगा? दुःख पाओगे तो उनको बुलाओ। यहाँ से बुलावा भेजा । तो सुणते हैं (सुना है) कि [ रामदास जी महाराज के पुत्र ] द्याल- महाराज ने पत्र लिखा क जिस अवगुण(भजन) के कारण से हम निकाले गये वो अवगुण बढ़ा है, घटा नहीं है। हम राम राम करते थे न, तो वो धन तो बढ़ा ही है घटा थोड़े ही है। जिस कारणसे आप(आपने) इस तरह   निकाळा है न , वो हमारा अवगुण कि  (31) कुछ भी मानलो उसको आप , ऐब मानो , औगुण(अवगुण) मानो, खराबी मानो, वो हमारी तो बढ़ी है। अब क्यों बुलाते हो? क्या , अब शुद्ध हो गये क्या हम?  (हँसते हुए बोल रहे हैं ) दयालजी महाराज थे वे, दयालजीके भी गुरुजी (श्री रामदासजी महाराज) और दयालु थे महाराज ,
उन्होंने केह्यो(कहा)  कि बुलावे(बुलाते हैं) तो चलो भाई । (हँसत हुए बोल रहे हैं- ) समझे ?
  अब तो यूँ थोङी ही है , अब कहे तो यूँ ही सही
[ 'देश निकाला' देने वाली गलती को लेकर अङे नहीं रहे कि अब हम वापस नहीं आयेंगे , दया करके 'बुलावे' वाली बात भी मानली ]
अर पधार गये, वो ऐसा पट्टा है महाराज, देश निकाळा देणे(देने) पर भी अपणा(अपना)  तो बढ़े- 'दिन दिन दूणा थाय', । 
  नारायण, नारायण, राऽऽम राऽऽम राऽम  ।। 
रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(पीछे बोलते लोग- रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम (32) राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।) (33) 
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम (34)  सीताराम ।। )
सियावर  रामचन्द्रकी जय,
मोरमुकुट बँशीवाले की (जय) । 
{  दिनांक २०|०३|१९८१_ दुपहर २ बजे  खेङापा (जोधपुर) वाले प्रवचन
                                 का 
                       यथावत् लेखन -   }
लेखनकर्ता- डुँगरदास राम आदि
●● ●     ■><■     ●●●
             
http://dungrdasram.blogspot.com/2019/07/blog-post_29.html

सरलता से भगवत्प्राप्ति(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ) ।

               ।।श्री हरिः ।।

सरलता से भगवत्प्राप्ति (-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)

           
              ● [ दूसरा प्रवचन ] ●

■ सरलता से भगवत्प्राप्ति ■

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज

( दिनांक २०|०३|१९८१_१४०० बजे  खेङापा
का यथावत् लेखन  , आगे का भाग - )
      (34 मिनिट से आगे...)    रा ऽम  रा ऽम  रा ऽम । 

नारायण नारायण नारायण नारायण।

(तो) भाई- बहन अपणे कल्याणके लिये आये हैं, पारमार्थिक बातें सुनने के लिये आये हैं, उनसे मेरी एक नम्र निवेदना (विनती,नम्र निवेदन) है , उणसे कहणा है, अर्ज करणा(करना) है कि सरळता से काम लें। सीधे, सरळ होकर उस परमात्माकी तरफ चलें, तो बहुत सुगमता से (35 मिनिट.) कल्याण हो ज्याता है। हम जो अपने ब्यक्तिगत(व्यक्तिगत) सुख चाहते हैं न, मानो मेरे को सुख मिले, मेरी उन्नति हो ज्याय   , मैं बड़ा हो ज्याऊँ । ये बात दीखणे में तो अच्छी दीखती है, परन्तु बोहोत बड़ी बाधा होती है [ इससे ] । लोकमें और परलोकमें वो अपणा लाभ ले ले - ये बात नहीं है , नुकसाण(नुकसान) उठाता है [ वो ]। ऐसे मैं भावों को देखता हूँ, आचरणोंको देखता हूँ, तो मेरा बश(वश) तो नहीं चलता है पर(न्तु) दुःख होता है। भई ! क्या दशा होगी? ब्यवहार(व्यवहार) में ,परमार्थ में - सब जगह ही। इस वास्ते हम सरळता का अगर आश्रय लें, सीधे - सरळ हो ज्याय(जायँ) , तो बहुत सुगमता से हमारा कल्याण हो ज्याय । (36 मिनिट.) 

बोलो मत भाई ! थोड़ी देर है कोई ज्यादा देर नहीं है । आप थोड़े चुप रहें तो बड़ा अच्छा रहेगा, बातें अच्छी पैदा होगी , अच्छी बात कहूँगा  और आप बातें करते रहेंगे तो भी मैं तो मेरी बातें कह दूँगा ;  परन्तु बढ़िया बातें पैदा नहीं होगी । वो  मेरे हाथ की बात नहीं है। मैं मेरे मन में कपट रखणे का तो विचार रखता ही नहीं हूँ, क्योंकि सरळता है वो कल्याण करणे वाळी है । इस वास्ते सीधी , सरळ बात मैं कहता हूँ। आपलोग कृपा करके थोड़े चुप रहकर के ध्यान दें।

मेरे मन में बिचार आ रहे हैं तरह–तरह के ।  मैं देखता हूँ उन भाईयोंको, बहनोंको, (37 मिनिट.) जिसमें भी भाई लोग , गृहस्थ भाई हैं वे और जो हमारे आदरणीय संत हैं वे। वो ठीक मर्यादा से बैठणा- ऊठणा करे तो भी बड़ा अच्छा रहे । बैठणे(बैठने) में , मैं साधुओं की जगह गृहस्थियों  को देखता हूँ, अर वो भी बेढ़ंग से बैठे हुए । हमारे को दुःख होता है और हमारा बश तो चलता नहीं। मेरे हाथ की तो बात है नहीं, परन्तु वो  मर्यादा- विरुद्ध काम करते हैं वो अच्छा नहीं है। उणके(उनके) लिये भला नहीं है, इस बात को लेकर के दुःख है। सीधे , सरळ होकर , बड़ी नम्रता से काम में लें , तो हमारा ये जो धाम है, ये कल्याण करणे वाला है , यहाँ संत- महापुरुषों ने भजन किया है,(38 मिनिट.) भगवान् की तरफ सच्चे हृदयसे चले हैं,  तब उनका प्रभाव बढ़ा है ।

वैसे ही अगर हम सरळ  हो करके भगवान के केवल पीपासु  हो ज्यायँ - जिज्ञासु । , मानो भगवान् को हम जाण्णा(जानना)  चाहते हैं। भगवान् की तरफ हम चलें । हमारा कल्याण हो , लोक में , परलोक में , सब तरह हमारे को सुख हो, दुःख कभी न हो। ऐसा अगर बिचार है तो भई ! मर्यादा सहित , बड़ी सरळता से भगवान् की तरफ चलें । इसमें बड़ा लाभ होगा। 

भगवान् के नाम के जप का बड़ा माहात्म्य है । उसकी बोहोत बड़ी , भारी महिमा है । पण वो महिमा प्राप्त होगी सरळता से नाम लेणे से। आप परीक्षा की दृष्टि से देखेंगे , तो भगवन्नाम -महाराज उतना लाभ आपको देंगे नहीं,(39 मि.) क्यों क(क्योंकि) आपके लेणेकी उत्कट- अभिलाषा नहीं है।

भगवान् रामजी ने अवतार लिया तो रावण ने परीक्षा करणा(करना) चाहा कि वास्तव में साधरण मनुष्य है क(कि) अवतार है, तो मायाका मृग बणाया(बनाया) । बणावटी(बनावटी-) हरिण बणाकर(बनाकर) और भेजा मारीच को कि ये पहिचाणते(पहचानते) हैं क  नहीं ? तो भगवान् उसके पीछे दौड़े। रावण ने समझ लिया कि [ इनमें  ]  अकल(समझ) नहीं है । तो रावण से भगवान् को सार्टिफिकट(सर्टिफ़िकेट) लेणा नहीं था। रावणका सार्टिफिकट चलता, वो पास कर देता, तब तो लोग मानते अर वो पास नहीं करणे से लोग नहीं मानते - ऐसी कोई रेखा ही नहीं थी रामजी के भीतर।(40) इस वास्ते बड़ी सरळता से , उस मृग के पीछे ,  पीछे- पीछे चले गये। तो ऐसे ही नाम- महाराज की आप परीक्षा लोगे , तो नाम- महाराज फैल हो जायेंगे, पास नहीं होंगे । आपसे नाम- महाराजको गरज नहीं है कि आप पास कर देंगे तो वे ठीक रहेंगे,  नहीं तो फैल हो जायेंगे तो उनकी कोई बेइज्जती हो जायेगी । वहाँ बेइज्जती - इज्जत  की बात ही नहीं है । वे तो सबका कल्याण करणे के लिये कलियुग में विशेष अवतार लिये हैं। 
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ । कलि बिशेष (बिसेषि) नहिं आन उपाऊ ।। 

(रामचरितमानस १|२२|८) । 

चारों ही जुगों(युगों) में , चारों ही बेदों(वेदों) में नाम का बड़ा प्रभाव है ; परन्तु कळजुग(कलियुग) में नाम का प्रभाव बिशेष है ।  क्यों ? दूसरे जितनेक साधन है (41) उन साधनों में जो शक्ति है वो सब - की- सब शक्ति नाम- महाराजमें आ गयी। बंगाल में चैतन्यमहाप्रभु हुए हैं । उन्होंने ऐसा ही कहा है- 

नाम्नामकारि  बहुधा निज सर्वशक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न  कालः ।। 

नाम में सब शक्ति दे दी भगवान् ने, कलियुग आते ही , ये सीदे(सीधे)- सादे आदमी होंगे । बिशेष साधना कर नहीं सकेंगे । तो केवल नाम- महाराज का सहारा ले ले , राम राम राम राम राम - ऐसे, तो उसका(उनका) कल्याण हो ज्याय । इस वास्ते भगवान् ने नाम महाराज में अपार शक्ति रख दी और स्मरण करणे के लिये कोई समय- बिशेष नहीं बाँधा कि अमुक बगत (वक्त) में ऐसे– ऐसे किया जाय तो फायदा होगा, नहीं तो नहीं होगा - ऐसी बात नहीं (है)।  ऐसी भगवान् की कृपा । और मैं समझता (42) नहीं हूँ, आ भी (यह भी) बड़ी नम्रता प्रकट की है । चैतन्य महाप्रभु , बड़े महापुरुष हुए हैं। ऐसे संतों ने अपणी बात कही है । तो भाईयों से , बहनों से मेरा कहणा है कि आप हर समय
राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम -
ये रटते रहें, -

रसना से रटबो करे आठूँ पैहर (पहर) अभंग।
रामदास उस संत का राम न छाँडे संग।।

जो आठों पहर अभंग रूपसे , बीचमें कोई बाधा न देकर के नाम जपता रहे, तो वो भाई हो , चाहे बहन हो, गृहस्थ- आश्रम में  हो, चाहे साधु- आश्रम में हो, वो संत है अर उसके साथ राम जी रहेंगे। हर दम भगवान् के नाम को जपता रहे। तो भगवान् के नाम का जप बड़ा , बड़ा (43) सीधा , सरळ उपाय है, परन्तु भई ! जितना हृदय सरळ रखोगे उतना लाभ बहोत , बिशेष होगा। रामायण में प्रसंग आता है  क - 

सरल सुभाव न मन कुटिलाई । जथा लाभ संतोष सदाई ।।

(रामचरितमानस ७|४६|२)।

स्वभाव सरळ हो , मन में कोई कुटिलता नहीं। जैसा मिल जाय , उसमें संतोष है और

मोर दास कहाइ नर आसा । (करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा) ।।  
(७|४६|३) ।

भगवान् का दास कहा कर ...[ कुछ रिकार्डिंग कट गई ] ( मनुष्य की आशा करे तो  उसका क्या विश्वास है ? )  । (श्री तुलसीदास जी महाराज ने) भगवान् के मुखसे कहलाया है

बहुत कहउँ का कथा बढाई । एहि आचरण(आचरन) बस्य मैं भाई ।।

(७|४६|४) । 

बोहोत बात कहकर कथा क्या बढ़ाऊँ , ऐसा सरळ रस्ता है - बिचार,  उसके मैं बस(वश) में हो ज्याता हूँ। भगवान् बस में हो ज्याते(जाते) हैं । (44) चतुराइयों से आप दूसरों को बस में करणा चाहें तो होंगे नहीं र होकर के भी निहाल कुछ करेंगे नहीं। सिवाय बाधाके और कोई फायदा निकळेगा नहीं , अर सीधे , सरळ  होकर भगवान् की तरफ ही चलें, तो भगवान् बहुत बड़ी कृपा करें और बस में हो ज्याय। अर उसके होणे पर क्या बाकी रह ज्यायगा - कोऽसौऽस्यावशिष्यते ?  सब तरह से पूर्ण हो जायेंगे ।

(तो) भाईयों से, बहनों से, संतों से - सबसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ क मन की कुटिलता को छोड़कर , सरलता से भगवान् के चरणोंमें लग ज्याय -

कपट गाँठ मन में नहीं सबसें सरल सुभाय ।
नारायण ता भगत की लगी किनारे नाव ।। ।

सीधे, सरल होकर भगवान् में लग ज्याय , (45) उसकी नौका किनारे लग गयी, उसका उद्धार हो गया । कितनी सीधी बात है। चालाकी रखणे से, चतुराई करणे से, अपणे को भी तकलीफ पड़ती है, निगाह रखणी पड़ती है, और बाधा हो ज्याती है , बड़ी भारी हानि हो ज्याती है। सीधा , सरळ अन्तःकरण रख करके और भगवान् की तरफ चलें , तो कितना बड़ा फायदा हो ज्याय  । स्वाभाविक ही हो ज्याय ।

पारमार्थिक फायदा बहुत चौड़े पड़ा हुआ है। हम देखते हैं तो हम अपणे शरीर के लिये अन्नको आधार मानते हैं और है भी, अन्न के बिना जी नहीं सकते ; पण अन्नसे भी ज्यादे(ज्यादा) जरुरत (46) जळ की है। अन्न बिना केई(कई) दिन रह सकते हैं परन्तु जळ के बिना नहीं रह सकते। वो अन्नसे जळ सस्ता है और जळ के बिना ई(भी) केई घंटा(घंटे) रह सकते हैं, परन्तु श्वास (हवा)के बिना नहीं रह सकते। तो हवा है , श्वास लेणेके लिये बोहोत सस्ती है। इतना जळ सस्ता नहीं , जितनी हवा है - कहीं श्वास लो , सब जगह श्वास आता है, लेते हैं, जी सकते हैं। श्वाससे हमारे प्राण रहेंगे , [  हमारा शरीर रहेगा ]    ;  परन्तु अन्तमें शरीर तो छूट ज्यायगा । हम रहेंगे । हमारे असली आधार भगवान् हैं। वे भगवान् वायु से भी बहुत सरल है (सस्ते हैं ) । वे सब जगह मौजूद है। (47) सब समय में, सब जगह, सम्पूर्ण  ब्यक्तियों में, सब बस्तुओंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियों में सदा है ज्यों- के- त्यों  रहते हैं । और सच्ची पूछो तो ये देश ,काल, बस्तु, ब्यक्ति, घटना, परिस्थिति, उसके अन्तर्गत है, वो तो असीम है, अनन्त है, अपार है, और सबके लिये अपणे आपको दे रखा है। वो  संतोंके तो हो ज्याय और जो दुष्ट है , उनके न हो, ऐसी बात नहीं है।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

(गीता ९|२९)।

  - न मेरे कोई प्रेम का बिषय(विषय) है, न मेरे द्वेष का बिषय है, कोई मेरेको अप्रिय नहीं है -

सब मम प्रिय सब मम उपजाए ।

(रामचरितमानस ७|८६|४) ।

वो सब के भगवान् हैं। पर सनमुख(सन्मुख) होता है वो ले लेता है, और बिमुख(विमुख) होता है वो ले नहीं पाता । (48) परमात्मा अपणी तरफ से मना नहीं करते । हमारे भाव शुद्ध न होणे से हम ले नहीं पाते हैं  अर अपणा भाव शुद्ध करणे में हम , आप - सब स्वतन्त्र हैं।

बाहर की परिस्थिति है , उसको ठीक बणालें , ये किसी के हाथकी बात नहीं है। बाहर से हम धनवान बणें न बणें , कुटुम्ब वाले बणें न बणें , लोग महिमा करे न करे, आदर करे न करे , ये हमारे हाथकी बात नहीं है, परन्तु हम सीधे , सरळ होकर भगवान् की तरफ चलें , इसमें बिलकुल परतन्त्रता नहीं है। सब- के- सब हम स्वतन्त्र हैं ।

परमात्माकी तरफ चलणे में सब के सब स्वतन्त्र (है)।  तो कितनी बढ़िया बात है , बताओ । कितनी एक आणँद की बात है। ये जो हमारा जीवन [ है ] , ये जनम सफल हो ज्याय । कितनी विचित्र बात है। (49) बड़े सुखकी , बड़े आणँद की बात है । तो सीधे , सरल होकर के भगवान् की तरफ चलें हम, प्रभुकी तरफ चलें।

आप- हम जो यहाँ इकट्ठे हुए हैं । ये महाराजका धाम है। ये धाम की महिमा क्यों है ? क यहाँ संतों ने भजन किया है। हम तो महिमा महापुरुषों की मानते हैं ; परन्तु महापुरुषों में महापुरुष(पन) कहाँ से आया? ये(यह) महापुरुषपण है वो भगवान् के भजनसे आया है। इस वास्ते वो , अगर भजन में हम लग ज्यायँ सीधे , सरल हो करके , तो बहुत बड़ी उन्नति हमारी हो ज्याय , बड़ा भारी लाभ हम ले लें , इसमें कोई सन्देह नहीं है। कारण ? कि ये समय गिरा है। दो सौ ,  ढाई सौ बरस हुए , (50) इससे पहले समय बोहोत अच्छा था। अभी समय बोहोत गिरावट पर है । ये अनुभव आप- हम कर सकते हैं। छोटी उम्र वाळे भी , जिसकी(जिनकी) पचास- साठ बरस की ऊमर है, तीस- चाळीस बरस की ऊमर है, वे भी इस बात का अनुभव कर सकते हैं। हमारे देखते- देखते लोगों के भाव में कितना परिवर्तन हो गया। तो सौ , दो सौ , ढाई सौ बरस पहले कितना भाव अच्छा था। जितना संसारमें भाव अच्छा था ज्यादे , उतने उण अच्छे भावोंकी इतनी कीमत नहीं थी, और ज्यों- ज्यों  ये भाव गिरते गये हैं, त्यों ही त्यों अच्छे भाव की कीमत बहुत बढ़ती चली गयी।

अभी बस्तुओं की कीमत बोहोत बढ़ गयी। (51) कहते हैं सब चीजें महँगी हो गई । हम दूसरी दृष्टि से देखें तो रुपये सस्ते हो गये। पहले एक सेर घी गाय का, उसका एक रुपया मिलता। आज सत्ताईस - अट्ठाईस , तीस रुपयोंमें भी शुद्ध घी मिलणा मुश्किल है । तो  घी की कीमत बढ़ गयी - ऐसे कहदो, चाहे कह दो कि रुपये की कीमत घट गयी। तो ऐसे ही सद्गुण-  सदाचार और सरल- हृदय से भगवान् की तरफ चलने की बात है , इसकी बड़ी भारी कीमत है - ऐसा कहदें और चाहे भगवान् सस्ते हैं - यूँ कह दें । भगवान् बहुत सस्ते हैं । हमारे देखते- देखते बहुत परिवर्तन हुआ है   ।

अनुभव भगवद् भजन का भाग्यवान को होय ।

भजन करने का अनुभव (52) जल्दी होता नहीं है, श्रद्धासे करते रहते हैं, परन्तु सरळता से अगर लग ज्यायँ , तो मैं तो दिनोंमें और महिनोंमें समझता हूँ, बरसों में तो लाभ हो ही जायेगा - इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु सच्चे हृदयसे लगणा चाहिये , लगनपूर्वक। उसके बोहोत , बिशेष लाभ होगा। 

मेरी एक प्रार्थना है, आप कृपा करके सरळता से लग ज्यायँ , अपणें में नम्रता रखें। लोग मेरे को मान लें - ऐसी इच्छा न रखें । लोग मेरेको बड़ा मानें - ऐसी लालसा (है) वो बड़ा होणे नहीं देती। वो लोकों का गुलाम हो ज्याता है, वो बड़ा हो नहीं सकता , क्योंकि लोगों से आशा रखता है न, 

आशा हि परमं दुखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
(श्रीमद्भा॰११|  )
ये महान् दुःख देणेवाळी (53) चीज है। लोग मेरा कहणा मानें , मेरे अनुकूल हो ज्याय , ऐसी इच्छा है , वो बड़ी पतन करणे वाली है। 

तेरे भावै जो करो भलो बुरो संसार ।
नारायण तूँ बैठिकै अपणा भवन बुहार ।। 

दुनियाँ चाहे तुम्हारे को कैसा ही समझे, अपणा अन्तःकरण निर्मल करो और सज्जनों ! मैं ये बात बताणे में, आपके(आपको) समझाणे में तो असमर्थ हूँ, पर बात ये पक्की है। मेरे को मानले लोग- ये भाव ज्यों- ज्यों  उठता चला जायेगा , त्यों  ही [त्यों ] लोग मानते चले जायेंगे और इच्छा रखेंगे तो नहीं मिलेगा। आपाँरी (अपने लोगों की) साधारण भाषा में (ईं) आवे है ना - घी तो आडै हाथ ही आवै है । { घी तो (रोकने के लिये दिये गये) आङे हाथ से ही आता है } ।  घी घालो , तो घी घाले तो , फेर वो सँभेगा नहीं (कोई कहे कि मेरे को घी परोसो, तो घी परोसे , तो  फिर वो तैयार नहीं होगा)। घी की माँग नहीं हो , ना- ना (54) कहते- कहते घी आया करे(करता) है , ऐसे ही आप कृपा कर थोड़ा- सा बिश्वास करलें। अपणे मन का बड़ापन है ना, 

मार मार तन मन मोटाई हाय ! दाव ऐसो मत हार । 

तन- मन मोटाई (बङप्पन का अभिमान ) - इसको मार।  ऐसा दाव मिलेगा नहीं,

फळी ज्यूँ फूट ज्यावसी फटके तटके तागो तूटै तेह।
झाड़ हाथ उठ ज्यासी झटके खटके तन हू ज्यासी खेह।।

ये राख हो ज्यायगी ।

और सज्जनों ! समय जा रहा है, छोटी अवस्था में साधू है, उण से मेरा बिशेष निवेदन है, क थोड़ी वे कृपा करें , सरळता से भगवान् की तरफ लग ज्याय(जायँ) , बहुत बड़ा लाभ होगा। आप जो चाहते हो क हमारे को लोग अच्छा मानें , मेरी तरफ लोग खिंच ज्याय , आकृष्ट हो ज्याय , ये इच्छा रखोगे तब तक होगा नहीं, (55) और ज्यों- ज्यों  भीतर की इच्छा चली ज्यायगी , हम सच्चे बणते(बनते) चले ज्यायँ । तो लोगों का आकर्षण होगा पर लोगों का आकर्षण तो बाधक होगा , फायदा नहीं होगा। ये(यह) जिस दिन बात समझमें आ ज्यायगी , आपको पारमार्थिक लाभ होगा बिलक्षण । स्वतःही होगा - स्वाभाविक ही।

ये जो अभी 'नहीं'(संसार) हैं(है) , उसके पीछे पड़े हैं, इस वास्ते 'है'(भगवान्) वो दीखते नहीं है । 'नहीं' है ये , 'नहीं' है वो  - संसार नहीं है। आज से पहले जमाना था , वो आज नहीं है अर आज है वो अगाड़ी रहेगा नहीं । सब संसार अभाव में जा रहा है, प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है । अभाव हो रहा है, मिट रहा है । इसका क्या भरोसा करते हो? इसकी आशा लगाये रहते हो क मान मिले ,  भोग मिले, सुख मिले, आदर मिले, महिमा मिले । (56) कुछ नहीं मिलने का है। बहम रहेगा और मर जायेंगे,  रीते रह जायेंगे । इस वास्ते सज्जनों ! सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ चलें आप । तो बोहोत लाभ होगा। साधुओं से बिशेष मेरा कहणा है।

एक बात मनमें आती है , कहणे में संकोच होता है , परन्तु अगर कोई ख्याल करे तो लाभ है । इस वास्ते कहता हूँ। है तो शर्म की बात , लज्जा की बात है, परन्तु किसी के लाभ हो ज्याय तो कोई हर्ज नहीं है, हमारी नीची बात ही सही। वो यह है क मैं साधू- आश्रम में बहोत बरसों से हूँ, मेरेको याद है बोहोत- सी बातें और बहुत- सी मैं भूल गया हूँ, परन्तु ये जो (57) आपसे मैं(मैंने) बातें कही- इन बातों को मैं जानता हूँ, [ मेरे को याद है ]भुगत- भोगी हूँ, मैंने देखा है। ये ऊँचा- नीचा सब तरह का समय मेरे सामने आया है। अपणें सीधी भाषामें कहे है(कहते हैं) न -  ए पापङ पोयोङा है ,  म्हारे देख्योड़ा है ये (मेरे देखे हुए हैं ये) । इस वास्ते भुगत- भोगी कोई आदमी मिल ज्याय तो उनसे कोई लाभ लेणा चाहे तो बहोत बिशेष लाभ ले सकता है । जकेरे देख्योड़ी बाताँ है, बीत्योङी है अपणी ऊमर में । वो देखे (है) क ऐसा चालणे से ऐसी आफत आती है, ऐसा चालणेसे ऐसा लाभ होता है (जिसके देखी हुई बातें हैं , बीती हुई है अपनी उम्र में । वो देखता है कि ऐसे चलने से ऐसी आफत आती है , ऐसे चलने से ऐसा लाभ होता है) । उणसे(उनसे) अगर हम सीखलें तो बड़ा अच्छा है ।

मेरी कुछ ऐसी जिज्ञासा रही है। हमारे साथ रहने वालोंने शास्त्रोंके ऊपर, पुस्तकोंके ऊपर विश्वास विशेष किया और (58) करणा चाहिये र मैं भी अच्छा मानता हूँ र मैं भी करता हूँ, पर मेरे मन में कुछ लगन रही क कोई अनुभवी आदमी मिले। इण बातोंको करके किसी ने देखा हो , वैसे मिले , तो हम उणसे लाभ लें। ऐसी खोज करणे पर मेरे को संत मिले हैं। अच्छे संत मिले हैं, तो मिल सकते हैं संत - इसमें कोई सन्देह की बात नहीं। 

भगवान् का अवतार होता है नैमित्तिक-  कभी- कभी अवतार होता है और संत- महात्माओं का अवतार हमने सुणा है कि नित्यअवतार है- हर समयमें संत रहते हैं। जिसमें हमारी भारतभूमि है ये, ये बहुत बिलक्षण है । राजस्थान उसमें भी बिलक्षण हैं(है)। इसमें अच्छे- अच्छे महापुरुष हुए हैं, होते रहते हैं। तो हमारी सच्ची लगन हो , तो अच्छे- महात्मा मिल सकते हैं।

सज्जनों ! रुपये- पैसे (59) र भोग और(आदि) मिलेगा , हरेक जूणी(योनि) में मिल ज्यायगा । इसमें ये भोगोंके ऊपर (आपकी) अधिक रुचि है न , ये तो कुत्तोंको र गधोंको भी मिल ज्यायगा । इसमें कमी नहीं रहेगी। परन्तु पारमार्थिक बातें मिलेगी नहीं अर वो मनुष्य- शरीरमें ही हम ले सकते हैं। वो मनुष्य- शरीर हमारे को मिला हुआ है और मिला हुआ समय, समय जा रहा है, मौत नजदीक आ रही है। अच्छा- अच्छा समय जा रहा है, 

आछा दिन पाछा गया (आछे दिन पाछे गये)
- संतों ने कहा है , कियो न हरि से हेत ।
अब पिसतायाँ क्या हुए
(अब पछतायै होत का , जब)
चिङिया (चिङियाँ) चुग गई खेत ।।

आच्छा दिन जावे छै जी दियाँ रे दगो । 

तो दिन दगा नहीं दे रहा है स्वयं हम दगा ले रहे हैं, तो बहुत- सा समय तो चला गया है और रहा हुआ समय भी (01:00) तेजी से जा रहा है, जिस दिन को कोई नहीं चाहता , वो मौत का दिन बोहोत नजदीक आ रहा है।

बारी आपो- आपणी (आपरी) चले पियारे मित्त।
तेरी बारी रही है और नेड़ी आवे नित्त।। 

  वो नित्य ही नजदीक आ रहा है मौत का दिन। उस दिन ये हेकड़ी चलेगी नहीं, जाणा पड़ेगा , बिलकुल और अभी जो कुदृष्टी रखी है अर खराब- भाव भीतर , मन में भरे हैं , इसका बड़ा गहरा डण्ड मिलेगा ('मिलेगा' के 'गा' अक्षर पर जोर देर समझाया कि अवश्य मिलेगा)। ये भगवान् के यहाँ पर पोल नहीं है । इस वास्ते मैं प्रार्थना करता हूँ, आप कृपा करें । अभी तक बीता है जो . सो बीत गया , अब अगाड़ी हमारा समय है वो अच्छे- से अच्छे, उत्तम- से उत्तम काम में लगे , जिससे कि हमारा जीवन सुधर ज्याय  ।

कूवे(कुए) में लाव(रस्सी) चली ज्याती है । बाहर पुरष- दो- पुरष (एक दो पुरुषों की लम्बाई जितनी) रहती है, {01:01 (एकघंटा और एकमिनिटसे आगे–)}  जिससे वो सब की सब लाव [ खींचने पर वापस बाहर ] आ ज्याती है, कोष आ ज्याता है, जळ आ ज्याता है, अर वो भी हाथों से अगर निकळ गयी तो फिर एक पुरष , दो पुरष गयी है, वो एक- दो- पुरष नीचे नहीं मिलेगी, बोहोत नीचे चली ज्यायगी  पाणी के भी तळे चली ज्यायगी । निकालने में भी समय लगेगा। इसी तरह से अभी जी रहे हैं तो हमारे हाथमें ये , क्या कहें , कोषङी है , थोड़ी ऊमर है हमारी । इस ऊमर को अगर हम काम में लें- बची हुई उमरको , तो हमारा जीवन सुधर ज्याय , हमारा जलम(जन्म) सुधर ज्याय , मनुष्यजन्म सफल हो ज्याय और आपको , खुद को आणँद आयेगा, बिलक्षण आणँद आयेगा, अलौकिक आणँद आयेगा । इसमें मेरे सन्देह नहीं है, सच्ची बात है। और दुनियाँ  का लाभ आप ले लोगे , कितना क ले लोगे? दुनियाँमात्र् से अधिक धनी औरक  (01:02) अधिक भोगी हो जावेंगे(जायेंगे) तो भी कुछ नहीं मिलने का है। धोखा होगा, धोखा, धोखा, धोखा ; क्योंक अभी वो ऊँचा पद नहीं है, अर थोड़े दिन बाद भी नहीं रहेगा, तो क्या फायदा होगा?

सुपनो सो हो ज्यावसी (जावसी) सुत कुटुम्ब धन धाम।
हो सचेत बलदेव नींदसे जप ईश्वरका नाम।।
मनुष तन फिर फिर नहिं होई । 

ये बार- बार नहीं मिलता । इस वास्ते सज्जनों ! कृपा करो। मेरे पर मेहरवानी करो । आप सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ लग ज्याओ। नफो भजन में केतो रे ।   सहजराम जी महाराज की बाणी में आता है , कि भजन में कितना नफा है , कितना लाभ है जिसका कोई अन्त नहीं है।

चेतो रे चेतो रे दुनियाँ  जन्म जाय है चेतो रे।
बैरी काळ ताळ नहीं लावे बाळ बृद्ध कूँ लेतो रे।।

भूलो कहा  (01:03)  भरममें भोळा कछु क सुकृत लेतो रे। 
क्या भोळा भूला हुआ है तू ।

चेतो रे चेतो रे दुनियाँ जनम जाय है चेतो रे।
ये बैरी काळ ताळ(समय) नहीं लावे  ।
  
ये काळ , मौत है , देरी(ताळ) नहीं लाती । ये तो

बाळ बृद्ध कूँ लेतो रे।

सगरामा संसार में बडो कसाई काळ ।
राजा गिणे न बादशाह र बूढ़ो गिणे न बाळ।।

ये सबको भक्षण - काल भक्ष सबको करे  ।

नव ग्रह चौसठ जोगणी  बावन वीर प्रजन्त।
काळ भक्ष सबको करे हरिशरणै डरपन्त।।

भगवान् के शरणै  -

काळ डरे अणघङ सूँ भाई , ता सूँ संताँ सुरत लगाई। 

ता मूरत पर रामदास बार बार बलि जाइ।
भजन करे गुरुदेव को ताको काळ न खाइ।। 

भगवान् का भजन करे , आश्रा (आश्रय) ले लेता है, तो उसको काळ नहीं खाता , नहीं तो काळ तो सबको खा ज्याता है अर वो खा रहा है बड़ी (01:04) तेजीसे । हमारा जीवन कहते हैं वो  मौतमें जा रहा है । 'जी रहे हैं'- ये(यह) तो है 'बहम' और 'मर रहे हैं'- ये बात है 'सच्ची'। चाहे लगे बुरी , परन्तु मर रहे हैं। जितनी ऊमर आ गयी , इतने बरस तो मर ही गये, अब बाकी कितना है , इसका पता नहीं , परन्तु मर गये- इसका बिलकुल पता है। इतनी ऊमर चली गयी, चली गयी, चली ही गयी और रही हुई भी जा रही है, वो जाणे में बन्द नहीं हुई है। ये रुकी हुई नीं है - अटकी नहीं है। आप काम करें न करे(करें) , भजन करें न करे , आप सोवें- आराम करें , न करें। आपकी तरफ देखता ही नहीं , काळ तो धना- धन, धना- धन, धना- धन जा रहा है। अपणी  अर  सबकी आयु को खतम कर रहा है। ये खर्च नित्य- निरन्तर हो रहा है और ये समाप्त हो जायेगा, तब उसी क्षण जाणा पङेगा। (01:05) यहाँ जोर नहीं चलता किसीका ई । ऊमर भगवान् ने दी है , उतने दिन भाई ! जैसे-  तैसे बिता(बीता) दो , परन्तु एक दिन ये खतम हो ज्यायगा काम। कुछ हाथ लगेगा नहीं, अर

सो परत्र दुख पावइ र सिर धुनि धुनि पछिताइ । 

    (रामचरितमानस ७|४३)

फिर परलोक में रोवेगा , सिर धुन- धुन के - हाय- हाय मैंने कुछ नहीं किया। अब रोणे से क्या हो भाई? अभी अगर चेत करले तो बड़ी अच्छी बात है। नहीं तो पीछे रोणा(रोना) होगा , कोई फायदा नहीं होगा। उस रोणे का फल रोणा ही निकळेगा। आज अगर चेतकर के भगवान् की तरफ चल दें, तो बिशेष लाभ हो ज्याय हमारे , बहुत बड़ा लाभ हो ज्याय अर भगवान् इतने कृपालु , इतने कृपालु , इतने कृपालु है क

सनमुख होइ जीव मोहि जबही (जबहीं) । क
जन्म कोटि अघ नासहिं तबही (तबहीं) ।। 

(रामचरितमानस ५|४४|२) ।

देरीका काम नहीं। सच्चे हृदयसे भगवान् के सनमुख हो ज्यायँ।

बाळक को चुप (01:06) रखो भाई ! प्यारसे , स्नेहसे लेकर खड़े हो ज्याओ । 
भइया ! टाइम हो जायेगा एक दिन खट सा, सच्ची बात है, आप ध्यान देकर के सुणें, मानें न मानें, ख्याल करे न करें , आप की मर्जी, परन्तु सच्ची बात यह है। आप बुरा न मानें  क्षमा माँग लेता हूँ ।  जिन लकङों में बळोगे(जलोगे) ना , वो लकड़े अब ऊगेंगे नहीं , त्यार(तैयार) है, वे बाँसङा ई(बाँसङे भी) त्यार है होऽऽ ,  जिनमें सीढी गूँथी ज्यायगी  न , वे बाँसङा त्यार है। मूँज भी बण गई है, कफ़ण का कपड़ा भी बहुतों के त्यार हो गया है अर दूजों के त्यार हो रहा है, और उठाणे(उठाने) वाले आदमी अब नहीं जलमेंगे (जन्मेंगे) । केवल थाँरी आ धौंकणी(आपकी यह धौंकनी- श्वास) चलती है ना , इसको अडिके है वे (प्रतीक्षा कर रहे हैं वे) । आ(यह) बन्द होताँ(होते) ही चटा- चट सामग्री मिल ज्यायगी अर उठ(उठे- वहाँ अर्थात्  श्मशान में) ले जाकर फूँक देंगे । ये सामग्री (01:07) त्यार है, अब नहीं होगी सामग्री। ये जरा याद रखो । कृपा करो ! सिवाय भगवान् के और कोई बचाणे वाळा नहीं है। सब काल के गाल में जा रहा है, क्या बचावेगा? वो खुद बिचारा मरणे वाळा है , क्या सहायता करेगा? सहायता तो अमर है वो ही करेगा , जो सदा रहणे वाळे भगवान् हैं , हमारे, प्रभु हैं। उसके चरणोंका शरणा(शरण) लो और कोई रक्षा करणे वाला नहीं है, सहायता करने वाला नहीं है, सुपने(स्वप्न) में भी कोई निहाल करदे-  ये बात है नहीं। बहम आपको पड़ गया है, उसका तो भई ! कोई इलाज नहीं है, परन्तु हानि बड़ी भारी हो जायेगी-

अबके चूकाँ राम दास होगी बहुत ही हाँण।।

बड़ी हाणि(हानि) हो ज्यायगी । इस वास्ते अब चूको मत , अब तो सरळता से भगवान् की तरफ लग ज्याओ । और (01:08) सीधी बात , बहुत सरल , संतों ने ये रस्ता बताया है, कि

राम राम राम राम राम राम राम राम।
सीधा , सरल अन्तःकरण  रख करके , सीधा हो करके राम राम करो। तेरे पर जो विपत्ति  आवे, आफत आवे, कोई कपट करे, झूट(झूठ) कपट करे, ठगाई करे, करणे दो , बेचारे को , करणे दो। 

बोहोत बरसों की बात है-
मैंने एक अच्छे महापुरुष से बात पूछी थी, कि मेरे को लोग मूर्ख बणा करके अनुचित लाभ लेते हैं, तो मेरे अकल में आ ज्याती है कि ये बिलकुल मेरी मूर्खता से लाभ ले रहे हैं। तो मैंने पूछा क्या करणा चाहिये? कहते(उन्होंने कहा-) कुछ नहीं करणा, लेणे दो उनको । यही उत्तर मिला था मेरे को।, वे लोग समझते [ हैं कि यह ] मूर्ख है, समझता नहीं , बेसमझ है। उसमें नुकसाण नहीं है। समझदारी में नुकसाण है। अपणे बेसमझे समझे तो हमारे को क्या हर्ज हुआ? लाखों - करोड़ों रुपये जिसके पास में है र लोग कँगला समझते हैं  तो क्या हर्ज है? (01:09) रुपये है नहीं र रुपये वाळे समझे , तो सब तरह की आफत आ गयी; चोर भी, डाकू भी, राज भी- सब पीछे पड़ा(पङे) रहे। गरीब से गरीब साधु और ब्राह्मण , वे भी तुम्हारे पीछे पड़ेंगे, परन्तु पासमें कुछ नहीं है तो क्या होगा? अर है सब कुछ र लोगों को पता नहीं है तो बड़ी बढ़िया बात है। आप झूठी इज्जत के लिये लालाइत मत होवो(होओ), बेइज्जती होणे दो, अपणी बेइज्जतीके लायक काम कोई मत करो। कैसा भी , छोटा- से- छोटा भी , बेइज्जती का काम नहीं करेंगे भाई। हमारे वर्ण- आश्रम से , मर्यादासे बिरुद्ध(विरुद्ध) है वो काम नहीं करेंगे, नहीं करेंगे, नहीं करेंगे । इस पर पक्के रहो।

लोगों ने समझ रखा है क भजनसे, अच्छे आचरणों से लाभ होता है , परन्तु दुर्गुण- दुराचारों से जितना नुकसाण होता है , उतना लाभ नहीं होता है। नुकसाण से बच ज्याय, दुराचारों से, दुर्गुणों से, झूठ , कपट, बेईमानी , व्यभिचार, अनाचार, अत्याचार, (01:10) दुराचार से बच ज्याय और इनको अपणे न आणें दे(न आनें दें)  , तो बहुत बड़ी- उन्नति होगी। दुर्गुण- दुराचार से रहित होणे से बहुत लाभ होगा, विशेष लाभ होगा। इस तरफ लक्ष्य नहीं होता है। मनुष्य अच्छा काम तो करता है ,पण बुरे कर्मों का त्याग नहीं करता। अर त्यागका माहात्म्य है उतना उनके ग्रहण करने का माहात्म्य नहीं है। इस वास्ते इन दोनों को ही करें अपणे। अच्छे काम करें, बुरे काम न करें , पण बुरा काम तो आज ही छोड़ दे(छोङदें)।

एक अच्छे महात्मा मिले थे, उन्होंने कहा क भजन- स्मरण करणे में, अच्छे कामों को करणे में, संग्रह करणे में तो देरी लगी, पण बुरे कर्मों के छोड़ने में मेरे को देरी लगी ही नहीं। कह, अब नहीं करणा है , कह,  नहीं करणा , बस । सुगमता से छूट ज्याता है (क्योंकि) करणा नहीं पड़ता न उसमें, उसमें तो 'नहीं करणा' ही है- हमें पाप करणा नहीं है , अन्याय करणा नहीं है।, (01:11)  इतने से आसुरी- सम्पत्ति छूट ज्याती है। दैवी- सम्पत्ति के लाणे में समय लगे , (पण) आसुरी- सम्पत्ति छूटते ही क्या है क नहीं करणा है , बस !  [ इसमें समय नहीं लगता ] करणा ही नहीं है और इस पक्के- विचार के करणे पर , जितने संत हो गये , वे संत- महात्मा अर आज हैं जितने र अगाड़ी होंगे जे (जो )-  वे सब- के- सब हमारे साथ में है। शास्त्र हमारे साथ में है, धर्म हमारे साथ में है, सर्वोपरि परमात्मा हमारे साथ में है। प्रकृति- भगवान् की माया , वो हमारी सहायता करणे के लिये तैयार है। हम सच्चे- हृदय से दुर्गुण- दुराचारों का त्याग करके और पक्का बिचार करके भगवान् की तरफ लग ज्याय(जायँ) तो मात्र् दुनियाँ हमारी सहायता करणे वास्ते तैयार है। अभी पता लगे , न लगे - अलग बात है , परन्तु बात एकदम सच्ची है। सब सहायता करेंगे अर दुर्गुण- दुराचार करेंगे तो भाई ! कोई सहायता करणे वाला नहीं है। अपणे , आपके होणे वाले माँ- बाप, भाई , सम्बन्धी,  कुटुम्बी - वे भी जबाब (01:12) दे देंगे। कपूत का कोई नहीं है, सपूत के सब कुछ है। इस वास्ते सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ लग ज्याय(जायँ) ये मेरी प्रार्थना है। सरल हृदयसे भगवान् की तरफ लगें। बस , भगवान् की तरफ ही लगणा है हमें।

ये दो चीज बाधक है- एक तो रुपया , पईसों का संग्रह हो जाय र एक सुख भोगलूँ । 

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।

(गीता २|४४) ।

इनमें जिसका चित अपहृत हो गया है , वो परमात्मा हैं और वो (उनसे) मेरे को मिलणा है- इस बातको निश्चय में ही नहीं ला सकते, मिलणा तो दूर रहा। इस वास्ते इन भोगों में और संग्रह के लोभ में न फँसे(फँसें) ।

रुपयों का लोभ छोड़ने पर रुपये आते हैं।  ध्यान दो आप । एक बात कह दूँ,  फिर समाप्त करता हूँ। ध्यान दें मेरी बात की तरफ । रुपयों की चाहना छोड़ने पर रुपये (01:13) खुल्ले आते हैं- ये बात सच्ची है। भगवान् के धाम में कह रहा हूँ। मैंने देखा है, आप(आपने) रुपये लेकर के देखा है तो मुफ्त में पचास हजार साथ में नहीं आये होंगे । मेरे पास पचास- पचास हजार दो वार आये हैं। एक साथ पचास हजार यहाँ (इधर) , ये पचास हजार है - [ लोग ] पीछे पड़े हैं और भाईयों ने मेरे से पूछा है क स्वामीजी ! कहीं लगाओ। मैंने पूछा कितने क रुपये लगाओगे ? हजार- दसहजार, पनरै(पन्द्रह) हजार , बीस हजार- ऐसे मैंने प्रश्न किया है। उन्होंने कहा एक लाख । ऐसे दो आदमी मेरे को मिले हैं। मैंने वो , उसको एक हजार भी लगाणे का कहा नहीं है ,  पर मिले हैं क एक लाख रुपये लगा दूँगा मैं , जहाँ आप कहो ज्याँ ही (जैसे ही)  लगा दूँगा। आप रखणे वाले बताओ- कितनेक आदमी मिले (हैं )  आपको? लेणे वाळों को कितनेक आदमी (01:14) मिले हैं पचास- पचास साथ में दे दे , पचास हजार ।
मिले होंगे , मैं अभाव नहीं कहता हूँ , पण बिना उद्योग, बिना माँगे, बिना इच्छा, बिना आशा रखे हुए, आग्रह किया है उन लोगों ने। 

ये भोग और रुपये- ये कोई चीज नहीं है, मानव जीवन की जो महिमा है, उस महिमा के सामने ये क्या चीज है? ये कोई बड़ी चीज नहीं है। जितना- जितना आप इसको बड़प्पन दोगे, आदर कर(करके) देखोगे - बड़ी भारी है, बड़ी भारी चीज है , उतना आपका पतन हो ज्यायेगा महान्- इसमें सन्देह नहीं है।

आप चेतन होते हुए, कमाणेवाळे होते हुए , फिर रुपयों के गुलाम होते हो ! बगत(वक्त) पर क्या कहे(कहते हो) - काँई है , रुपयो तो हाथ रो मैल है , (क्या है , रुपया तो हाथ का मैला है)  थाँरे हाथ रो मैल है क काळजे री कौर है ? (आपके हाथ का मैला है या कलेजे की कौर है ?)  जरा देखो। ये(यह) जड़ है, ये आपका कल्याण नीं (नहीं) करेगा। आपके हृदय में चाहना न होणे पर गर्ज होगी गर्ज ; क्योंकि रुपये सफल मनुष्यके पास में आकर होते हैं, मनुष्य सफल नहीं (01:15) होता है रुपयों से। मनुष्य- जीवन रुपयों से सफल नहीं होता है। मनुष्य- जीवन परमात्मा से सफल होता है। जिन रुपयों के लेणे से सफलता मानते हो , वे रुपये अच्छे संतों की कृपामें लग ज्याय , उनकी सेवामें लग ज्याय तो रुपये सफल होते हैं। हम कितना(कितने) गळती में , नीचे चले गये। उन रुपयों से अपणी सफलता मानते हैं क अबकी या(यह) यात्रा अच्छी हुई,  जो हमारे[ को ]  इतने रुपये मिल गये। परन्तु रुपये अच्छे काम में लग ज्याय तो रुपये सफल हो ज्याते हैं सज्जनों ! ये बात आपके , हमारी बिलकुल है ऐसी बात। 

मानव- शरीर की बड़ी भारी महिमा है- भगत मेरे मुगुटमणि (मुकुटमणि) ।  भगवान् कहते हैं- भगत मेरा मुगुटमणि है । भगवान् जिसको मुगटमणि बणावे(बनावे) , उसकी कितनी महिमा है, पण महिमा [ के लिये ] , मुगुट बण्णे के लिये इच्छा न करे । सच्चे हृदयसे भगवान् के चरणों में लग ज्याय । ज्यों- ज्यों  वो सच्चे हृदयसे लगता है, त्यों- ही- त्यों  भगवान् के दरबारमें उसका आदर बढ़ता है -  (01:16) 

एहि दरबार दीन को आदर रीति सदा चलि आई ।  

(विनयपत्रिका १६५)

सदा की रीति है। इस वास्ते सज्जनों ! क्यों दुत्कार पाते हो? क्यों तिरस्कार पाते हो? दुनियाँ की गरज करके क्यों गुलाम बणते हो? सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ चलो ना। एष निष्कण्टकाः पन्था ।   ये रस्ता(रास्ता) बहुत ही बढ़िया है, बड़ा लाभ का है। इस वास्ते सच्चे हृदय से भगवान् की तरफ लग ज्यायँ , कितनी बढ़िया बात है, कितनी उत्तम बात है, कितनी ऊँचे दर्जे की बात है। आप कृपा करके , लग करके देखें।

आज ही आप लग करके , आज ही आप फल- चाहणा(फल- चाहना) चाहें- यह नहीं होगा, हो भी ज्याय , परन्तु आप डट करके रह ज्याओ र पक्के बण ज्याओ इधर । फिर ये दुनियाँ भी न मिले तो आपको गरज ही नहीं है, गरज ही नहीं है, गरज ही नहीं है बिलकुल, किंचित् मात्र् (भी) ।

राम नाम धन पायो प्यारा । जनम जनम के मिटे विकारा ।। (01:17) 

कितनी बढ़िया बात है।

यो धन तन मन साटै लीजे प्रेम प्रीति [सहित] लिव लाई।।
राम धन ऐसा है मेरा भाई।। 

पायो री मैंने राम रतन धन पायो । 

ये बोहोत विलक्षण धन है, जिन संतों ने पाया है , वे मस्त हो गये। वे [ही] नहीं , उनके नाम से दुनियाँ मस्त हो रही है, दुनियाँ के लाभ हो रहा है।

आप , आज हम लोग यहाँ बैठे हैं  और लाभ की दृष्टि से आये हैं। ये कौण(कौन)- सा राज्य था क, सम्पत्ति थी क, वैभव था क, कोई बड़े भारी ऊँचे विद्वान थे क, क्या थे? भगवान् का नाम लेणे वाळे थे। इसके सिवाय क्या सामर्थ्य थी सा ? उसी(भजन) की यह सामर्थ्य है र सैकड़ों बरसों तक दुनियाँ का उद्धार होता है। इतना कोई धन खर्च करके कर सकता है उपकार? है किसी की ताकत ? अरबों धन खर्च करणे पर भी क्या [ कोई ] इतना लाभ ले सकता है? नहीं ले सकता। और भजन करके (01:18) आप बड़ा भारी लाभ ले लेंगे - इसमें सन्देह नहीं है। 

मेरे मन में बोहोत आती है तरँगें । इस वास्ते कभी- कभी आप लोगों के सामने अपणी भाप निकाळ लेता हूँ। अपणे मन री निकाळ लूँ बस। आप कृपाकर मानलें , तो बोहोत कृपा मानूँगा आपकी कि मेरे पर बड़ा अनुग्रह किया , आपने बड़ी कृपा की। अपणी भाषा में- बोहोत बङो माइतपणों कियो थे ,   जो अठीनें लग ज्याओ । { (अगर आप इधर , भगवान् की तरफ लग जायँ,  तो मैं मानूँगा कि ) बहुत बङा , माता पिता के समान बङप्पन, निःस्वार्थ हित किया आपने , जो इधर जाओ }  
।  इतरा(इतना) दिन करके देख ही लिया संसारका, कितनाक रस है? वो कोई आपसे अपरिचित नहीं है, नमूना तो देख लिया है न । ऐसा ई और है, और क्या है ? और जाती थोड़े ही है, अब अठीलो ही (इधर का भी) देखो तो सही, ओ(यह) भी देखो। जो संत- महात्माओं ने लिया है , वो लाभ भी लेकर देखो। 

मेरे मन में था क वो ऐसे बात पहले होती है (थी) , आज ऐसा नहीं है , परन्तु अब मेरे मन में ये नहीं है , आज तो बोहोत सस्ती - सी ई (01:19) चीज मिलती है । इस वास्ते कृपा करें , सच्चे हृदयसे भगवान् में लग ज्यायँ । ये दुनियाँ का भरोसा नहीं है, क्षणभँगुर है- एक क्षण भी नहीं रहता [ संसार ] । इसका क्या भरोसा। 

राऽऽमा श्री राऽऽमा रामा ऽऽ श्री राऽऽ मा ,
(लोग- रामा श्री राऽऽमा रामा श्रीरा ऽऽमा),
रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

हे रामा श्री राऽऽमा रामा ऽऽ श्री राऽऽ मा,
( रामा श्री राऽऽमा रामा श्रीरा ऽऽमा), (01:20) 
रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

हे रामा श्री राऽऽमा रामा ऽऽ श्री राऽऽ मा,
( रामा श्री राऽऽमा रामा श्रीरा ऽऽमा),
रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

हे रामा श्री राऽऽमा रामा ऽऽ श्री राऽऽ मा,
( रामा श्री राऽऽमा, (01:21) रामा श्रीरा ऽऽमा),
रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

हे रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

श्रीराम गुरुदेवजी महाराज की जय,
सियावर रामचन्द्र की जय,
मोरमुकुट बँशी वाले की जय..,।

[ यहाँ शुरुआत की रिकोर्डिंग छूट(कट) गई है । यहाँ श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज एक भूल- सुधार करने के लिये कह रहे हैं-  ]

(••• आप भगवान् के नाम का जप- कीर्तन करते हैं वो बहुत बढ़िया बात है पर )
••• उसके साथ- साथ , भगवान् यहाँ नहीं है, भगवान् तो भविष्य में कभी मिलेंगे , भगवान् अभी यहाँ नहीं है, नहीं है, नहीं , (01:22) है। ये अभ्यास कर रहे हैं। भगवान् के नाम का जप- कीर्तन करते हुए इस बात को दृढ़ करते हैं क अभी भगवान् नहीं मिलेंगे। अभी भगवान् है नहीं यहाँ , वे आयेंगे तब मिलेंगे। भजन करते हुए उल्टा अभ्यास करते हैं।

ख्याल किया कि नीं आपने? अभी भगवान् कैसे मिल सकते हैं? अभी भगवान् यहाँ थोड़े ही हैं। हम दूर है (हैं ), भगवान् दूर है (हैं )। हम योग्य बणेंगे, कभी अधिकारी बणेंगे, तो भगवान् कभी मिलेंगे । वो ही कृपा करके आ ज्याय तो मिल ज्याय । शरीर तो हमारे साथ है , ये तो मिला हुआ है। अर परमात्मा मिले हुए नहीं है। बात तो वास्तवमें , शरीर आपको मिला हुआ है ही नहीं, , (01:23) ये तो हरदम बहता है, ज्यूँ गंगाजी का प्रवाह बहे ,  ज्यूँ(ऐसे यह शरीर) हरदम नाश की तरफ जा रहा है। ये मिला हुआ कैसे हैं? मिला हुआ है तो[ पहले आप ] बच्चे थे और आज सफेद बाल हो गये, शरीर तो बदल गया न- ये प्रत्यक्ष में। [ तो यह शरीर  ] बदलने वाला है हरदम , हमारे साथ से बियुक्त(वियुक्त) हो रहा है, अलग हो रहा है, उसको तो साथ मानते हैं और परमात्मा नित्य- निरन्तर हमारे साथ हैं  ,  उनको अपणे पास नहीं मानते। इस(उलटी मान्यता) को दूर करने के लिये एक बात बताता हूँ, उसको आप अगर पकड़ लें और याद रख लें और करणे लग ज्याय  तो बहुत ही लाभकी बात है, बहुत ही लाभकी बात है , बहुत ही लाभकी बात । 

कहते (हैं ) वो क्या है ? क नामजप करते हुए , समझे कि जहाँ जप हो रहा है भीतर - राम राम राम राम राम राम- ऐसा जप हो रहा है, उस जप में (01:24)  परमात्मा हैं  । "रा ऽ म"  उस 'र' में भगवान् हैं , 'रा - आ' में भगवान् हैं , 'म' में भगवान् हैं,  'म' में 'अ' है , उसमें भगवान् हैं , राम- राम- राम इस ध्वनि में भगवान् है, इस जीभ में भगवान् है, इस चिन्तन में भगवान् है, शरीर में भगवान् है, कुछ भी याद आ ज्याय - उसमें भगवान् है। जो याद आता है , वो तो रहता नहीं र भगवान् उसमें रहते हैं। बुरी बात आ ज्याय तो उसमें ई(भी) भगवान् रहते हैं, कुछ भी स्मरण हो ज्याय , स्फुरणा  हो ज्याय  , उसमें भगवान् हैं- इस बातको मानलें । 

शिकायत करते हैं क भगवान् में मन नहीं लगता, मन में तो संसार की बात याद आती है, तरह- तरह की बातें याद आती है , तो जो याद आती है , वे चीजें अभी नहीं है यहाँ और परमात्मा अभी हैं [ यहाँ ] । 
'है' उसको तो नहीं मानते र  (01:25) 'नहीं है' उसको 'है' मानते  हैं । कितनी बड़ी गलती करते हैं  । बहुत बड़ी गलती । इसको आज से ही छोड़ दें ।

हम जप कर रहे हैं वो  जप में भगवान् है । जिस 'जबान' से 'जप' करते हैं उस 'जबान' के भीतर ओत- प्रोत "भगवान्" मिले हुए हैं। जैसे बर्फ में पाणी रहता है, ऐसे जीभ में भगवान् है । मनसे हम भगवान् को याद करें तो मन में भगवान् है। ध्वनि सुणाई देती है राम राम राम राम राम- ऐसे सुणाई दे , तो उस सुणणे में भगवान् हैं । सुणणे के साधन- कान है - उनमें भगवान् है। 'मैं' जप करता हूँ, सुणता हूँ , उस 'मैं' में भी भगवान् है। सुणता हूँ , उसमें भी भगवान् है। देखता हूँ , उसमें भी भगवान् है। (01:26) जो दीखता है उसमें भी भगवान् है। जिसके द्वारा देखता हूँ , उस आँख में भी भगवान् है और आँख के द्वारा जिसको देख रहा हूँ, उधर जो आँख की बृत्ति(वृत्ति) जा रही है , उसमें भी भगवान् हैं । आपना(अपना) जो फुरणा (स्फुरणा) है , वो जो देखना , सुण्णा , जो देखा ज्याता है , उसमें- सबमें परमात्मा परिपूर्ण हैं । इस बात को मान लें आप, बड़ी दृढ़ता से, तो बहुत बड़ा भारी फर्क पड़ ज्यायगा । अर फर्क पड़े चाहे न पड़े, फायदा दीखे चाहे न दीखे, लाभ दीखे चाहे न दीखे, परन्तु इस बातको आज आप मान लें। ये मेरा बिशेष कहणा है आप लोगों से । इस बातको मानलें। तो 

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा (01:27) सुदुर्लभः । 

(गीता ७|१९) ।

सब कुछ वासुदेव है - ऐसा जाण्णे (जानने) वाला महात्मा है, वो बड़ा दुर्लभ है, वो ई हम , महात्मा(वही महात्मा हम और) आप हो ज्यायेंगे। क्योंकि सबमें परमात्मा है , तो सभी परमात्मा ही तो होंगे  और क्या होगे(होंगे) । तो सब , जितना दीखता है र सुणता है , ये तो रहेगा नहीं, र परमात्मा परमात्मा रहेगा अर उसको हमने पहले ही पकड़ लिया।

क्या जची? तो इसको भूलना नहीं है और भूलें क्या , ये तो बात है ही ऐसी ई, भूले क्या? भूले , कोई याद करणे से थोङी ही पैदा हुई है, इधर ध्यान नहीं देणे से लक्ष्य नहीं था, परमात्मा तो अभी(तभी) वैसे- के- वैसे ही थे। जब तक ध्यान नहीं दिया तब , ध्यान देतें हैं तब तक और भूल ज्याते हैं तब, भगवान् तो वही रहते हैं ।  वे तो हैं ही- (01:28) ऐसा आप मानलें और इसमें आपके शंका हो तो पूछलो(पूछलें) ।  

- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज 

( दिनांक  २०|०३|१९८१ _१४०० बजे आदि वाले प्रवचन का यथावत् लेखन )

लेखनकर्ता - डुँगरदास राम आदि 

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गुरुवार, 9 मई 2019

बिना प्रयत्न और बिना इच्छा के भी तत्त्वज्ञान(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।


।।श्रीहरिः।


तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥ ११॥


उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप- (होनेपन-)में रहनेवाला मैं (उनके) अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

तेषाम्=उन भक्तोंपरअनुकम्पार्थम्=कृपा करनेके लियेएव=हीआत्मभावस्थ:=उनके स्वरूप- (होनेपन-)में रहनेवालाअहम्=मैं (उनके)अज्ञानजम्=अज्ञानजन्यतम:=अन्धकारकोभास्वता=देदीप्यमानज्ञानदीपेन=ज्ञानरूप दीपकके द्वारानाशयामि=नष्ट कर देता हूँ।

— 'तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:’—उन भक्तोंके हृदयमें कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं होती। इतना ही नहीं, उनके भीतर मुझे छोड़कर मुक्तितककी भी इच्छा नहीं होती१। अभिप्राय है कि वे न तो सांसारिक चीजें चाहते हैं और न पारमार्थिक चीजें (मुक्ति, तत्त्वबोध आदि) ही चाहते हैं। वे तो केवल प्रेमसे मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेमपूर्वक भजन करनेको देखकर मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा बन जाय, वे मेरेसे कुछ ले लें। परन्तु वे मेरेसे कुछ लेते नहीं तो द्रवित हृदय होनेके कारण केवल उनपर कृपा करनेके लिये कृपा-परवश होकर मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको दूर कर देता हूँ। मेरे द्रवित हृदय होनेका कारण यह है कि मेरे भक्तोंमें किसी प्रकारकी किंचिन्मात्र भी कमी न रहे।
 'आत्मभावस्थ:’—मनुष्य अपना जो होनापन मानते हैं कि 'मैं हूँ’ तो यह होनापन प्राय: प्रकृति-(शरीर-) के साथ सम्बन्ध जोड़कर ही मानते हैं अर्थात् तादात्म्यके कारण शरीरके बदलनेमें अपना बदलना मानते हैं, जैसे—मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बलवान् हूँ, मैं निर्बल हूँ इत्यादि। परन्तु इन विशेषणोंको छोड़कर तत्त्वकी दृष्टिसे इन प्राणियोंका अपना जो होनापन है, वह प्रकृतिसे रहित है। इसी होनेपनमें सदा रहनेवाले प्रभुके लिये यहाँ 'आत्मभावस्थ:’ पद आया है।
 'भास्वता ज्ञानदीपेन नाशयामि’—प्रकाशमान ज्ञानदीपकके द्वारा उन प्राणियोंके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ। तात्पर्य है कि जिस अज्ञानके कारण 'मैं कौन हूँ और मेरा स्वरूप क्या है?’ ऐसा जो अनजानपना रहता है, उस अज्ञानका मैं नाश कर देता हूँ अर्थात् तत्त्वबोध करा देता हूँ। जिस तत्त्वबोधकी महिमा शास्त्रोंमें गायी गयी है, उसके लिये उनको श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि साधन नहीं करने पड़ते, कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, प्रत्युत मैं स्वयं उनको तत्त्वबोध करा देता हूँ। 

×××

( कई टिप्पणियाँ छूट गई) 


विशेष बात
 भक्त जब अनन्यभावसे केवल भगवान्में लगे रहते हैं, तब सांसारिक सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना—यह 'समता’ भी भगवान् देते हैं और जिसके समान पवित्र कोई नहीं है, वह 'तत्त्वबोध’ (स्वरूपज्ञान) भी भगवान् स्वयं देते हैं। भगवान्के स्वयं देनेका तात्पर्य है कि भक्तोंको इनके लिये इच्छा और प्रयत्न नहीं करना पड़ता; प्रत्युत भगवत्कृपासे उनमें समता स्वत: आ जाती है। उनको तत्त्वबोध स्वत: हो जाता है। कारण कि जहाँ भक्तिरूपी माँ होगी, वहाँ उसके वैराग्य और ज्ञानरूपी बेटे रहेंगे ही। इसलिये भक्तिके आनेपर समता—संसारसे वैराग्य और अपने स्वरूपका बोध—ये दोनों स्वत: आ जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि जो साधनजन्य पूर्णता होती है, उसकी अपेक्षा भगवान्द्वारा की हुई पूर्णता बहुत विलक्षण होती है। इसमें अपूर्णताकी गंध भी नहीं रहती।
 जैसे भगवान् अनन्यभावसे भजन करनेवाले भक्तोंका योगक्षेम वहन करते हैं (गीता—नवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक), ऐसे ही जो केवल भगवान्के ही परायण हैं, ऐसे प्रेमी भक्तोंको (उनके न चाहनेपर भी और उनके लिये कुछ भी बाकी न रहनेपर भी) भगवान् समता और तत्त्वबोध देते हैं। यह सब देनेपर भी भगवान् उन भक्तोंके ऋणी ही बने रहते हैं। भागवतमें भगवान्ने गोपियोंके लिये कहा है कि 'मेरे साथ सर्वथा निर्दोष (अनिन्द्य) सम्बन्ध जोडऩेवाली गोपियोंका मेरेपर जो एहसान है, ऋण है, उसको मैं देवताओंके समान लम्बी आयु पाकर भी नहीं चुका सकता। कारण कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, त्यागी आदि भी घरकी जिस अपनापनरूपी बेडिय़ोंको सुगमतासे नहीं तोड़ पाते, उनको उन्होंने तोड़ डाला है’।२
भक्त भगवान्के भजनमें इतने तल्लीन रहते हैं कि उनको यह पता ही नहीं रहता कि हमारेमें समता आयी है, हमें स्वरूपका बोध हुआ है। अगर कभी पता लग भी जाता है तो वे आश्चर्य करते हैं कि ये समता और बोध कहाँसे आये! वे 'अपनेमें कोई विशेषता न दीखे’ इसके लिये भगवान्से प्रार्थना करते हैं कि 'हे नाथ! आप समता, बोध ही नहीं, दुनियाके उद्धारका अधिकार भी दे दें, तो भी मेरेको कुछ मालूम नहीं होना चाहिये कि मेरेमें यह विशेषता है। मैं केवल आपके भजन-चिन्तनमें ही लगा रहूँ।’ 

×××



गीता साधक- संजीवनी (लेखक- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) 10/11 की व्याख्या । 

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

सत्संग की बातों के अंश-(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सत्संग की बातों के अंश) 

।।श्रीहरि:।।

सत्संग की बातों के अंश। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग की बातों के अंश 


(जीवन में काम आनेवाली और काम में लेने के लिये आवश्यक बातें- ) 
•••
सबसे पहले तो हमारा यह उद्देश्य हो कि हमें अपना उद्धार करना है। •••
हमारे सामने ये चीजें आती हैं- 
काम- धन्धा, समय, व्यक्ति, वस्तु आदि- आदि । •••  

मान लें वह काम आप हाथ-मुँह धोनेका कर रहे हैं। तो उसमें अनुभव यह होना चाहिये कि यह भगवान् का काम है। ••• 

हम हाथ धोनेके समय यह समझें कि भगवान् की अनन्त सृष्टिमें यह भी उनका एक छोटा-सा क्षुद्र अंश है। ••• 

(अधिक जानकारी के लिए मूल प्रवचन,  पुस्तक आदि देखें) 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज  
की पुस्तक  
"साधन रहस्य" (एकै साधै सब सधै) के 'सबका कल्याण कैसे हो? ' लेख से ।
••• 

सबसे पहले साधकको दृढ़ताके साथ यह मानना चाहिये कि ‘शरीर मैं हूँ और यह मेरा है’ यह बिलकुल झूठी बात है। हमारी समझमें नहीं आये, बोध नहीं हो, तो कोई बात नहीं। पर शरीर ‘मैं नहीं हूँ’ और ‘मेरा नहीं है, नहीं है, नहीं है’—ऐसा पक्का विचार किया जाय, जोर लगाकर। जोर लगानेपर अनुभव नहीं होगा, तब वह व्याकुलता, बेचैनी पैदा हो जायगी, जिससे चट बोध हो जायगा।
शरीर मैं नहीं हूँ—इस बातमें बुद्धि भले ही मत ठहरे, आप ठहर जाओ ! बुद्धि ठहरना या नहीं ठहरना कोई बड़ी बात नहीं है। यह मैं नहीं हूँ—यह खास बात है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ ‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह इतना जल्दी लाभदायक नहीं है, जितना ‘यह मैं नहीं हूँ’ यह लाभदायक है। दोनों तरहकी उपासनाएँ हैं; परंतु ‘यह मैं नहीं हूँ’ इससे चट बोध होगा। लेकिन खूब विचार करके पहले यह तो निर्णय कर लो कि शरीर ‘मैं’ और ‘मेरा’ कभी नहीं हो सकता। ऐसा पक्का, जोरदार विचार करनेपर अनुभव नहीं होनेसे दु:ख होगा। उस दु:खमें एकदम शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी ताकत है। वह दु:ख जितना तीव्र होगा, उतना ही जल्दी काम हो जायगा। 

" तात्त्विक- प्रवचन " के
'मैं शरीर नहीं हूँ ' लेख से। 

•••तो इच्छा करने से वस्तुएँ थोङे ही मिलेंगी । वस्तुएँ तो काम करने से मिलेंगी । इसलिये वस्तुओं की इच्छा न करके काम करने की इच्छा करो। ••• 

इस विषय में मैं चार बातें कहा करता हूँ -- 

(1)अपना सब समय अच्छे- से- अच्छे, ऊँचे- से ऊँचे काम में लगाओ। निकम्मे मत रहो, निरर्थक समय बरबाद मत करो •••
(1) जिस किसी काम को करो, सुचारुरूप से करो, जिससे आपके मन में सन्तोष हो और दूसरे भी कहें कि बहुत अच्छा काम करता है। •••
(3) इस बात का ध्यान रखो कि आप के पास दूसरे का हक न आ जाय। आपका हक दूसरे के पास भले ही चला जाय, पर दूसरे का हक आपके पास बिल्कुल न आये।
(4) अपने व्यक्तिगत जीवन के लिये कम- से कम खर्चा करो। ••• 

चिन्ता करना और चीज है, विचार करना और चीज है । 'काम किस रीति से करें, किस रीति से कुटुम्ब का पालन करें, किस रीति से व्यापार करें; किस तरह से सबके साथ व्यवहार करें ' ऐसा शान्त- चित्त से विचार करो । विचार करने से बुद्धि विकसित होगी। परन्तु चिन्ता करोगे कि 'हाय , क्या करें ! इतने कुटुम्ब का पालन कैसे करें । पैदा है नहीं, क्या करें ! ' तो बुद्धि और नष्ट हो जायगी, काम करने में भी बाधा लगेगी, फायदा कोई नहीं होगा । ••• 

"कल्याणकारी- प्रवचन " के
'इच्छा के त्याग और कर्तव्य- पालन से लाभ' से । 


••• 
दूजी बात, एक मार्मिक बताता हूँ । उस तरफ भाई बहनों का ध्यान बहोत कम है । आप कृपा करके ध्यान दें । अपणे भजन- स्मरण करके भगवान् का चिन्तन करके, दया, क्षमा करके जो साधन करते हैं । ये जो करके साधन करते हैं , इसकी अपेक्षा भगवान् की शरण होणा , तत्त्व को समझणा और ये करणे पर जोर नहीं देणा, करणे से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है, इणका त्याग करके एक शरण होणा, एक परमात्मा में लग ज्याणा अर उसके नाम का जप करो, कीर्तन करो , भगवान् की चर्चा सुणो, भगवान् की बात कहो- ये करणे की है। और दूजा करणे का ऊँचा दर्जा नहीं है । जैसे दान करो, पुण्य करो, तीर्थ करो, ब्रत करो, होम करो, यज्ञ करो। ये सब अच्छी बातें है; परन्तु ये दो नम्बर की बातें हैं । 

निष्कामकर्मानुष्ठानं त्यागात्काम्यनिषिद्धयोः। 

काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना और निष्काम भाव से सबकी सेवा करना है। 

तत्रापि परमो धर्मः जपस्तुत्यादिकं हरेः।। 

भगवान् के नाम का जप करणा, स्तुति करणा, भगवान् की चर्चा सुणणी, कथा कहणी, कथा सुणणी, भक्तों के, भगवान् के चरित्रों का वर्णन करणा- ये काम मुख्य करणे का है।
और इसमें थाँरे पईसे री जरुरत कोनि । यज्ञ करो तो , दान करो तो , पुण्य करो तो, उपकार करो तो पईसा री जरुरत है । तो जिणके पास पईसा है, उनको यह करणा चाहिये, टैक्स है उन पर। नहीं करते हैं तो गलती है । पैसा रखे अर दान पुण्य नीं करे - 

धनवँत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।
भगति करे नहिं भगतङा अब कीजै कौण उपाव।।
कीजै कौण उपाय सलाह एक सुणलो म्हारी।
दो बहती रे पूर नदी जब आवै भारी।।
जाय गङीन्दा खावता धरती टिकै न पाँव।
धनवत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।। 

तो धर्म, दान, पुण्य करणा कोई ऊँचे दर्जे की चीज़ नहीं है; पण पईसा राखे है, वाँरे वास्ते टैक्स है । नीं करे तो डण्ड होगा । तो डण्ड से बचणे के लिये ये काम करणे का है । भाई, पईसा ह्वै तो इयूँ करलूँ, इयूँ करलूँ । कहीं कुछ नहीं होता । पईसा है तो वे लगाओ अच्छे काम में । नहीं तो थाँरे फाँसा घालसी , पईसा थाँरा अठैई रहई अर डण्डा थाँरे पङसी, मुफत में, अर पईसा खा ही मादया भाई- दूजा । डण्डा थाँरे पङसी। इण वास्ते ए खर्च करणा है ।
करणे रो काम तो भगवान् रे नाम रो जप करो, कीर्तन करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, कथा पढ़ो , भगवान् री कथा पढ़ो, सुणो, भगतों की कथावाँ सुणो, पढ़ो । ये पवित्र करणे वाळी चीजें हैं और मुफत में पवित्र कर देगी, कौङी- पईसा लागे नहीं, परतन्त्रता है नहीं । और फेर निरर्थक और निषिद्ध काम बिल्कुल नहीं करणा है कोई तरह से ई । ये जितना अशुद्ध •••
(आगे की रिकोर्डिंग कट गई)। 

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सतरह जुलाई, उन्नीस सौ छियासी, प्रातः पाँच बजे वाले प्रवचन के अंश का यथावत् लेखन)।
http://dungrdasram.blogspot.com/2019/04/blog-post.html

सोमवार, 14 जनवरी 2019

परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका की विलक्षणता।( --श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन) । 

                           ।।श्रीहरिः। ।

परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका की विलक्षणता।

( -श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के  दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन) । 

 ( 0 मिनिट से) नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण । 

देखो! आप मानें, न मानें और न मानें तो मेरा कोई आग्रह नहीं, अर मानें तो लाभ की बात है, और नईं (नहीं) मानें तो ई (भी) < > म्हाँरे (हमारे) कोई, नरक चले जाओगे उस समय - आ (यह) बात नहीं (है)।

श्री गोयन्दकाजी को, सेठजी गोयन्दकाजी, जो रहा - जयदयालजी गोयन्दका। उनको मैं तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुष मानता हूँ। और ये मैं (मैंने) माना है। अर(और), उनकी लेखिनी पढ़ी है, उनके साथमें रहा हूँ, उनके आचरण देखे हैं। और देखणे से वो बात दृढ़ होती है। दूजों (दूसरों) के दूर से सुण्णे (सुनने) पर श्रद्धा बैठती है, पास में रहणे पर वैसी श्रद्धा नहीं रहती। तो ऐसी मेरे भी कुछ- कुछ हुई है बातें; परन्तु मैं, फिर भी उनको समझता हूँ तो वैसे हमें (1 मिनिट.) इतिहास में महापुरुष नहीं दीखते हैं उनके समान। इतना विलक्षण मानता हूँ उनको। बहुत विचित्र पुरुष थे वो।

एक महात्मा होते हैं, एक भगवान् होते हैं। तो महात्मा होते हैं, जो संत होते हैं, उनकी [ जीवनी -] इतिहास आप देखलो, जगह- जगह जितना प्रमाण (है) वो देखलो, कोई प्रमाण मिले तो मेरे को बता देना, एक बात कहता हूँ–

पारमार्थिक साधन में लगणे पर मनुष्य की चाल बदलती है, बेश (वेश) बदलता है, रहन- सहन बदलता है, ये बदलता ही है, नहीं बदला हो तो मने बतादो, उदाहरण बतादो फिर। इता बैठा हो थे ई( इतने बैठे हो आप भी), जाणकार हो, कोई एक- दो बतायो (- बता देना)।

सेठजी रे वाही(वही) तो धोती है र(और) वाइ(वही) पगड़ी है र वाइ अँगरखी है, अर वेइ(वे ही) जूता है र, वो जूता तो चमड़े रा म्हें देख्या ई कोनीं (चमङेके मैंने देखे ही नहीं), कपड़े रा(का) है, और वाइ कामळ है देशी बण्योड़ी(बुनी हुई), अर वाइ बोली है, - मोटर ने मटर कहता(कहते थे), (2 मिनिट.) मटर।

(श्रोताओं को हँसी आ गई - हँहहहहहअ.)।

इतनी ऊँची स्थिति होने पर रहन- सहन, वेशभूषा में कोई फर्क नहीं, है ज्यूँ रा ज्यूँ(है ज्यों-के-त्यों), हर ये कहता म्हेंतो(और यह कहते थे कि मैं तो), एक बणिये को(बनियेका) बेटा हूँ मैं– म्हे तो बाणिया हाँ(हम तो बनिये हैं)। आ बात ही(यह बात थी)। और विवेचन करणे में इतनी विलक्षणता ही(थी) कि जो गहरा उतरता, वे(उस) बात में, जो बड़ा चकरा जाय आदमी।

अपणे साधुओं में, श्री चौकसरामजी महाराज बहोत बुद्धिमान हा(थे) । तो वे भी उठे आया हा(वहाँ आये थे)। रामधनजी - म्हारे गुरु भाई, वे भी हा(थे)।

तो आया जणाँ(आये तब) तो आ बात कही मेरे वास्ते, क ए(ये) स्वामीजी तो पढ़्या लिख्या(पढ़े-लिखे) है, सेठजी तो, पढ़्या लिख्या तो है ई नईं। पढ्या लिख्या दीखता ई कोनी। तो आँरो (स्वामीजी रो) व्याख्यान चौखो। ऐतो(ये तो) आप (श्रीसेठजी) मारवाड़ी- मिश्रित बोले है(बोलते हैं)।

बे(वे) चौकसरामजी महाराज कहणे लग्या(कहने लगे) कह, मैं(मैंने) एक बात अठे(यहाँ) (3 मिनिट.) देखी जिठी (-जिसी) कठेई नीं(वैसी कहीं नहीं) देखी। चौकसरामजी महाराज केयौ रामधनजी नें, वाँ म्हने केयौ (चौकसराम महाराजने रामधनजीको कहा, उन्होंने मेरेसे कहा)—

जो तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, पारमार्थिक विशेष हो जायेगा, वो व्यवहार में इतना चतुर नहीं होगा। और व्यवहार में बहुत सावधान होगा, वो पारमार्थिक- ऊँचा नहीं होगा।

सेठजी से कोई ( - सी भी ) बात पूछलो भले ही थे, ब्याह सावे की पूछलो, सगाई सम्बन्ध री पूछलो, पारमार्थिक पूछलो, ज्ञानयोग पूछलो, ध्यानयोग पूछलो, कर्मयोग पूछलो, भक्तियोग पूछलो, अष्टांगयोग पूछलो। सब बातों की बारीक- बारीक, पुर्जा- पुर्जा बता देंगे। येह(यह), एक बात मैं एक जगह ई देखी। चौकसरामजी महाराज [ने] कही अन्तमें। 

सब बातों का चौधारो (चारों और से धार वाला, सब प्रकार से कुशल) आदमी नीं हुया करे है (नहीं हुआ करते हैं), एक- एक विषय में हुया करे (है)। बड़े- बड़े वकीलों से लड़ायाँ (लङाइयाँ) नहीं सुळझी है, वा (उन सबको) सेठजी [ने] सुळझायी (सुलझाया) है, अर वहाँ सब का फैसला लिखा है। मेरे सामने, पाँच- सात, (4 मिनिट.) दस– ऐसे फैसला किया है वहाँ। सत्संग छोड़ देता, अबार (अभी) फैसला कराँ (करते हैं) कह,। अर करोड़पति, लखपति आदमी र, अड़ जाय एक कुर्छी पर – चमचो मैं लेएऊँ(लूँगा), वो कहते - मैं लेएऊँ। अर नीं तो आदमी मर ज्याय(जाय) - आपसमें ऐसी लड़ाई। जके में, सगळाँ ने सळ्चा (सरचा) दिया (ऐसे में, सबको यथायोग्य देकर सन्तुष्ट कर दिये), राजी कर दिया दोनूँ [पक्षोंको]। ऐसा फैसला कर देता। वकालत, जज भी जाणें कोनीं जिता जाणता (हा। जजभी नहीं जानते, उतना जानते थे)।

तो व्यवहार में भी इतना विलक्षण, और परमात्मा में ईं, परमार्थ- रीति में बहुत विलक्षण– ऐसी मेरी धारणा रही। 

नहीं तो आप भी विचार करो– तो साधू होकर गृहस्थी के पास क्यों गया मैं ? पण कोई साधू ऐसा मिला नहीं मेरे को। मिलता तो मैं नहीं जाता वहाँ। ऐसे विलक्षण थे।

मेरी दृष्टिमें, उनकी चाल शाल, विचार, भले ई वेशभूषा तो अवतार की [थी]। (5 मिनिट.) अवतार यूँ(ऐसे) - कह, रामजी क्या कहते हैं, रामजी का परिचय –

कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए।। 

(रामचरितमा. ४।२।१)। 

— पूछे कि तुम कौण हो? तो उन्होंने परिचय क्या दियो? – कोशलपति, दशरथजी का बेटा हाँ(हैं), और पिताजी ने वनवास दिया, वनवास में आया हाँ, अर राम र लिछमण म्हारो भाई है, म्हे भाई- भाई हाँ। म्हारी लुगाई लोग लेग्या जो, जोवता फिराँ हाँ (हमारी पत्निको जो लोग ले गये, उनको खोजते फिर रहे हैं)।

इमें (इसमें) काँई अवतार है र काँई महात्मापणों है? सीधी सादी बात है क नीं? गृहस्थियों जैसी बात ह्वे, जैसी- जैसी साफ कह दी। इहाँ हरी निसिचर बैदेही। खोजत हम, फिरहिं बिप्र तेही - ब्राह्मण रा देवता ! म्हे तो बेने जोवता फिराँ हाँ। आ बात की - अपणो परिचय ओ दियो। कठेई यूँ कोनी– म्हें महात्मा हूँ क, म्हें भगवान् हूँ क, संत हूँ क, कठे ई को दियो नीं (कहीं भी नहीं दिया)। इयूँ(ऐसे) ही सेठजी के परिचय वो ही । वेशभूषा में ईं वो ही परिचय। आप एक महात्मा बताओ ऐसा। (6 मि.) 

जैसे श्रीजी महाराज ने कहा है-

त्यागी शोभा जगत में करता है सब कोय ।
हरिया गृहस्थी संत का भेदी बिरळा होय ।। 

आ बाणीमें आवे। कितनी विचित्र बात है। सहजावस्था की बात पूछी, वो सहजावस्था की बात जितनी श्रीजी महाराज रे– श्रीहरिरामदासजी महाराज की बाणी में जितनी आती है, इतनी म्हें बाणी दूजी देखी नहीं है, जिके में आ बात आयी ह्वै(हो)।, जितने- जितने आचार्य हुए हैं, उन आचार्यों की देखी, श्रीजी महाराज की, हरदेवदासजी महाराज, नारायणदासजी महाराज हुए, रामदासजी महाराज हुए, दयालजी महाराज की बाणी बहुत विचित्र। बे(उस) में भी आवे, थोड़ो आवे (घणाँ कोनि)। इनके खास बात है।

हरिया जैमलदास गुरु राम निरंजन देव ।
काया देवल देह रो
सहज हमारी सेव ।।

( 'सहज' शब्द पर ताळी ठौक कर, उसको विशेष जताया )

हद करदी नीं ! हमारी सेवा सहज है -

सहजाँ मारग सहजका सहज किया बिश्राम।
हरिया जीव र सीव का एक नाम एक
(7) ठाम ।। 

सहज तन मन कर सहज पूजा। सहज सा देव नहीं और दूजा।।

हद ई करदी है। ऐसी साफ बाणी, हरेक संत की मिले नीं है। ऐसी बात सेठाँ की है। विचित्र बात है उनकी, ज्यादा नहीं कहूँ मैं, उदाहरण थाँ पूछ्यो जको उदाहरण कहणे रे वास्ते आ भूमिका बाँधी है।

गोरखपुर में हम लोग ठहरे हुए थे, सेठजी जिसमें रहते, उसके ऊपर मकान में। सुबह चार बजे सत्संग होता था। उसमें, प्रेस में से भी भाई आ ज्याते, हम लोग भी आ ज्याते, गाँव में, घर में - घराँ में से लोग आ ज्याते। तात्त्विक- बातें होती थी सुबह के समय में। बड़ी बिचित्र- विचित्र बाताँ होती थी। सुणते थे हम।

तो वहाँ एक, गुप्तानन्दजी नाम कर एक संत थे। वो ठहरे हुए थे प्रेसमें। (8)  गुप्तानन्दजी महाराज थे, ऐसे साधू भी बहोत कम देखणे में आते हैं। इतने बे (वे) बिरक्त थे। हाथ का कता, हाथ का बणा ही कपड़ा पहनते। टेका (टाँका) लेता तो भी, मील रा, सुई रो डोरो भी लेता कोनी और सोता, जणाँ आपरो कपड़ो ई बिछावता कोनी। यूँ ई, छत पर यूँ ई सो जाता। भिक्षा में जाता, जको मिळ ज्याय ज्यूँ ले लेता। वाँ रे गुरुजी हा, वाँ री बात भी ऐसी मैंने सुणी र मैंने दर्शन किये हैं। कोई कहता महाराज! निमन्त्रण है। कह, ठीक है। खीचड़ी बणाणा, नमक भी मत डालणा (बी म्हें-उसमें))। और कुछ नहीं। और नेतो नीं लेता, जणाँ निमक डालदो भले ही। खीचड़ी ले लेता, रोटी ले लेता। घी क, दूध क, दही क, कुछ नहीं। और गुप्तानन्दजी महाराज री बात, जो भिक्षा माँगता, जो केवल रोटी ले लेता और बे खा लेता। दस्ताँ लगणे लग गई। (9) जणाँ म्हें कहयो महाराज! आप छाछ ले लिया करो, घराँ में से छाछ ले लो। ज्यादा आग्रह किया। तो मेरे पर बहोत कृपा रखते थे, मेरी बात मानते थे। तो वाँने स्वीकार कर लिया। मैंने बहनों माताओं से कह दिया भई! आवे तो इनको छाछ घाल देना। एक हाँडी देदी छोटी। छाछ लेई - ईमें काँईं बात, छाछ लेलो। 

   दो, तीन, चार दिन हुआ होगा- याद नहीं, कितना दिन। एक दिन आ र कह - स्वामीजी! देखो, आपका कहणा मैंने कर लिया, अब नहीं लूँगा। मुको क्या हुयो? कह, किसी माई ने दही डाल दिया उसमें। इस वास्ते अब नहीं लूँगा मैं। आ बात है। ओ वाँ रे, गुप्तानन्दजी रो परिचय दियो थाँने। 

   वे उतर्योड़ा हा प्रेसमें। तो वे केवै क प्रेसमें रहता है ताळा। तो पहले मैं शौच- स्नान करिआऊँ, गंगाजी जायआऊँ (श्री स्वामीजी महाराज कहीं- कहीं पर दूसरी नदी को भी आदर से गंगाजी कह देते थे) - नदी पास में बेवै ई है, नदी में (10) नहाइयाऊँ, त्यार हू ज्याऊँ चार बजे से पहले। तो मैं ताळो खोलाऊँ जको साधु रो धर्म क्या है? दरबान ने कह सकाँ (हाँ)? - थे ताळो खोलो। अथवा तो कह सको - मत खोलो? आपाँने कहणो क्या है? साधू रो धर्म क्या है? कर्त्तव्य बताओ- साधू को ओ कर्त्तव्य है ।  देरी सूँ ईं आता बिचारा, चार बज्याँ, आता जणाँ ही आता। खोलता दरवाजो जणाँ आ ज्याता। तो मेरे, पीछे शौच- स्नान में देरी हो ज्याय। तो आपाँने कहणो धर्म है क नीं दरबान ने?

   म्हें पूछ्यो भाई म्हें क्यों उत्तर दूँ , जब सेठजी बैठा है तो आनें ईं पूछलाँ। जैसे कोई बताणे वाळो ह्वै तो आपाँ क्यों कूद र पड़ाँ बीचमें?        सेठजी ने पूछ्यो सेठजी! आ दशा है। अब क्या कराँ। म्हारे संत पूछे है। सत्संग उठग्यो, उठते हैं, कोई- कोई जा रया है, कोई बैठा है, यूँ हो रहा है, बे वख्त मैंने प्रश्न किया। ऐसे ये पूछे है, तो आपाँने– म्हाँने क्या करणो चइये – साधू रो धर्म क्या है? दरवज्जे ऊपर है, तो आनें कहणो – तू आडो खोलदे भाई। (11) ओ कहणो ठीक है क नीं है?

वाँ बात मेरी सुणली। शुकदेवजी! शुकदेवजी!! – जा रया था, आओ। क्या बात है? कह, तीन बजे आडो खोल दिया करो, ताळो खोल दिया करो। ये बात हूगी। चलाग्या। 

   अब वे गुप्तानन्दजी रे खळबळी मचगी क म्हेंतो एक मेरे वास्ते कहूँ, रोजीनाँ ड्यूटी लगा दिया आनें तो – रोजीनाँ ही ड्यूटी लगा दी। बात ठीक नहीं हुई। भिक्षारो टाइम हो गयो म्हारे। सेठजी! आपसे मेरे बात करणी है। कह, अच्छा। 

   भिक्षा कर र, भोजन करके आया (हूँ), मैंने कहा – आप मनें ये बताओ, उनके तो एक अपणे लिये ही दरवज्जा खोलाणे का सँकोच, अर आपने सदा के लिये ड्यूटी लगादी खोलणे की। तो उनके भारी लगी। इण वास्ते ये क्या उत्तर दिया आपने? 

   समझ में कठे आयी? ज्यूँ, या नहीं समझ में आयी न!  मैंने पूछा। पूछा तब महाराज! उत्तर दिया– बङा ही सन्तोषजनक— (12) 

   कहते हैं क साधू का कर्त्तव्य पीछे बतावें, जब हम अपणा कर्त्तव्य पालन करें। हम तो कर्त्तव्य पालन करें ईं नीं र साधू का कर्त्तव्य बतावें, हमारा अधिकार नहीं है बतानेका। 

   तो उनको क्यों कहणा पड़े- क दरवज्जा खोल दो। हमारा कर्त्तव्य है कि साधू को कोई अङचन (है) दरवाजा खोल दो। तो क्या कर्त्तव्य? कर्त्तव्य हमने पालन किया। 

   इससे ये ई बताया क तुम मत कहो। इतरा वर्षों से मैं साथ में रहता हूँ, मेरे अकल(बुद्धि) में नहीं आयी बात – आ सेठजी कैसे करदी। 

   तो आदमी रे आचरण समझमें थोड़े ई आवे सभी, कौणसो आदमी, किस वक्त में, कौणसा काम करता है? 

   म्हनें केयो– बताओ बीती हुई घटना। ऐसी मेरी बीती हुई है घटनाएँ। मैंने देखी है, पूछी है। हमारे समझमें नीं आयी थी भई! हर कहणें से समझमें आ ई गी चट सी। आप बताओ, आपके शंका रही हो तो। 

   गुप्तानन्दजी बिचारे के खळबळी हुई क रोजीनाँ ही स ड्यूटी लगाादी इनकी तो। (13) मेरे भी समझमें नीं आयी वा। भिक्षा फिरा, किया, जितनी बात, चिन्तन वो– बात क्या हुई भाई? सेठजी ने ऐसे कैसे कर दिया? या बात ही सा। 

   दूजो कोई कर्त्तव्य पूछे, थारो कर्त्तव्य ओ है - यूँ बता दे चट सूँ। [और म्हने] बतायो ई कोनीं, सीधो हुक्म ही दियो। 

   इस वास्ते मनुष्य की लीला भी समझमें नहीं आती है, किस समय में, कौणसा काम, कैसे करते हैं? ऐसे भगवान् कृष्ण की लीला, कैसे समझमें आवे?

( --श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के  दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन ) । 

यह प्रवचन इस ठिकाने (- पते) से प्राप्त किया जा सकता है- 
bit.ly/sethji10041981

http://dungrdasram.blogspot.com/2019/01/10041981.html

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

विश्राम में परमात्मा में स्थिति(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                      ।।श्रीहरिः। ।

विश्राम में परमात्मा में स्थिति ।
(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने
( "19940711_0518_Chup Saadhan_VV " नाम वाले) इस प्रवचन में कहा कि

एक विश्राम और एक क्रिया- दो चीज है। हरेक क्रिया करते हैं तो क्रिया में थकावट होती है,खर्च होता है। विश्राम में थकावट दूर होती है, संग्रह होता है। थकावट में बल खर्च होता है। व्यायाम से बल बढता है, परन्तु वो एक समय वो खर्च होता है। और विश्राम में शान्ति मिलती है, बल बढता है, विवेक काम आता है और विश्राम की बहोत बङी महिमा है, परमात्मा में स्थिति हो जाती है। 

हम काम करते हैं, (तो) लोगों की प्रायः दृष्टि है क्रिया पर। क्रिया से, कर्म से काम होता है, करणे से होता है काम। है भी संसार में करणे से ही होता है, ॰परन्तु परमात्मतत्त्व की प्राप्ति विश्राम में होती है अर उनसे अनुकूल क्रिया होती है। करणे में क्या बात है ! कि जो बिना ज़रूरी क्रिया है, उसका तो त्याग कर दे, जिससे कोई ना स्वारथ होता है ना परमार्थ होता है। मानो, न पैसे पैदा होता है, ना कल्याण होता है। ऐसी क्रियाओं का, जो निरर्थक है, अभी आवश्यक नहीं है, उन क्रियाओं का (तो) त्याग कर दे और आवश्यक काम है उस काम को कर लें। तो आवश्यक काम करने के बाद और निरर्थक क्रियाओं के त्यागने के बाद, विश्राम मिलता है। स्वतः, स्वाभाविक। 

वो विश्राम है, वो अगर आप अधिक करलें, तो उसमें बङी लाभ की बात है। इसमें ताक़त मिलती है। जैसे, चलते-चलते कोई थक जाय, तो थोङा क ठहर जाते हैं - सांस (श्वास) मारलो, सास मारलो। आप(लोग) कहा करे है -थोङा विश्राम करलो। तो फेर चलने की ताक़त आ जाती है। ऐसे, क्रिया करते- करते बीच में ठहरना है, (यह) बहोत अच्छा है। आप अगर उचित समझें तो ऐसा करके देखें, थोङी देर, पाँच- सात सैकण्ड ही हो चाहे। कुछ नहीं करना है, ना भीतर से कुछ करना है, ना बाहर की क्रिया। ना कोई मन, बुद्धि की क्रिया। (क्रिया) नीं (नहीँ) करणा। यह अगर आ जाय थोङी क करना, तो इससे सिद्धि होती है। आगे (अगाङी) क्रियाओं की ताक़त होती है, ताक़त आती है इससे। और विश्राम मिलता है, थकावट दूर होती है और बहुत बङी बात होती है कि संसार का सम्बन्ध- विच्छेद होता है। (यथावत् लेखन)। 

इसमें आगे और भी बढ़िया बातें बताई गई है। जानने के लिये पूरा प्रवचन सुनें। 

राम राम राम राम राम राम राम ।
राम राम राम राम राम राम राम ।।

http://dungrdasram.blogspot.com/2018/12/blog-post.html

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

(निवेदन 1,2-)'सत्संग-स्वामीरामसुखदासजीम' वाले समूहके सदस्योंसे नम्र निवेदन-

'सत्संग-स्वामीरामसुखदासजीम' वाले समूहके सदस्योंसे नम्र निवेदन-

१-

कई सत्संगियोंका भाव था और मेरे पास विस्तृत निवेदन भी आया है कि एक ऐसा समूह (ग्रुप) हो कि जिसमें केवल सत्संग-सम्बन्धी चर्चा हों।उसमें  'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की बातें,संस्मरण,अनुभव और ज्ञान आदि हों। इसलिये यह समूह ('सत्संग-स्वामीरामसुखदासजीम') बनाया गया है।

इस समूहका उद्देश्य है कि इसमें सिर्फ 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'के सत्संगकी ही बातें हों।इस सत्संगके अलावा किसीको और कोई बात बतानी हो तो कृपया "ज्ञानचर्चा" नाम वाले दूसरे समूहमें भेजें। इस समूहमें 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की सत्संग-सम्बन्धी बातोंके अलावा दूसरी बातें न भेजें। 

सत्संग सामग्री भेजनेवालोंसे प्रार्थना है कि जो भी कुछ भेजें,वो प्रमाणिक हों,सत्य हों। जिस पुस्तकमेंसे जो बात लिखी गई हों,कृपया उस पुस्तकका नाम और लेख का नाम लिखें।  पृष्ठ संख्या साथ में लिखना और भी बढ़िया है।  सत्संग-प्रवचन आदिमें से भी जो बात लिखी हों तो कृपया वो भी (तारीख आदि) बतावें। अगर याद न हो या कोई दूसरी असुविधा हो तो कृपया स्पष्ट करके जतादें। 

जिन बातों का पता ठिकाना न हों,  वो बातें यहाँ न भेजें।  

इस प्रकार सत्य-सत्य बातोंकी ही चर्चा हों। सत्यका संग ही सत्संग है।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की सत्संग के अलावा अन्य कोई भी सामग्री न भेजें,  चाहे वो कितनी ही बढ़िया हो। 

यहाँ पर किसी भी प्रकार की प्रचार सामग्री न भेजें ।

कथा आदि की सूचना भी इस ग्रुप में न भेजें। 

इन बातों पर ध्यान न देने वालों के नम्बर यहाँ से हटाये जा सकते हैं।
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इस समूहका नामहै-

"सत्संग-('परम श्रद्धेय)स्वामी(जी श्री)रामसुखदासजी म(हाराज'का सत्संग)"।

यह(वाटस्ऐप) पूरा नाम पकड़ता नहीं है; इसलिये संक्षिप्त नाम यह लिखना पड़ा-

सत्संग-स्वामीरामसुखदासजीम।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

२-

जैसे श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की पुस्तकोंमें उनके ही लेख होते हैं,दूसरों के नहीं।इसी प्रकार इस समूहमें भी उनके ही सत्संगकी बातें होनी चाहिये,दूसरोंकी नहीं।

दूसरोंके लेख चाहे  कितने ही अच्छे हों,पर स्वामीजी महाराज की पुस्तक में नहीं दिये जाते और अगर दे दिये जायँ तो फिर सत्यता नहीं रहेगी (कि यह पुस्तक श्री स्वामीजी महाराज की है)।

ऊपर नाम तो हो श्रीस्वामीजी महाराज का और भीतर सामग्री हो दूसरी,तो वहाँ सत्यता नहीं है,झूठ है और जहाँ झूठ-कपट हो, तो वहाँ धोखा होता है,वहाँ विश्वास नहीं रहता।

विश्वास वहाँ होता है, जहाँ झूठ-कपट न हो,जैसा ऊपर लिखा हो,वैसा ही भीतर मौजूद हो।यही सत्यता है।सत्यताको पसन्द करना,सत्यमें प्रेम करना ही सत्संग है।

इस (मो.नं. 9414722389 वाले) समूहका उद्देश्य ही यह है कि इसमें सिर्फ श्रीस्वामीजी महाराजके सत्संगकी बातें हों।

मेरी सब सज्जनों से विनम्र प्रार्थना है कि इस समूहको इसके नामके अनुसार ही रहनें दें।किसी भी प्रकारकी दूसरी सामग्री न भेजें।

विनीत- डुँगरदास राम