॥श्रीहरि:॥
स्त्रियोंके लिये ॐनाम लेना मना नहीं है,
जप करना ही मना है।
(किसीने लिखा है कि स्त्रियोंको ॐनाम नहिं लेना चाहिये,श्रीस्वामीजी महाराज मना करते थे;परन्तु)
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने भगवानका ॐनाम लेनेके लिये मना नहीं किया है।
कृपया बातको ठीक तरहसे समझें।
स्त्रियों और शूद्रोंको ॐनामका जप इसलिये मना किया गया है कि यह वैदिक-मन्त्र है।वेदका अधिकार जनऊ-संस्कार होनेके बाद ही होता है।
जनेऊ-संस्कारका अधिकार द्विजाती(ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य)मात्रको ही है।
अगर संस्कार नहीं हुआ है तो पण्डितजीका बेटाभी शूद्रतुल्य माना गया है,उनको भी वेदका अधिकार नहीं है।
यथा-
जन्मना जायते शूद्र संस्काराद्द्विज उच्यते.
इसलिये जैसे स्त्रियाँ पतिका नाम नहीं लेती,पतिका नाम अटकता है,ऐसे ॐका नाम अटकता नहीं है।
यह तो भगवानका नाम है,सभीको लेना चाहिये;पर जप उन्हीको करना चाहिये जिन्होने संस्कार करा लिया है।
श्रध्दाभक्तिपूर्वक ॐनामके उच्चारणसे जो लाभ होता है,वही लाभ रामनामके उच्चारणसे भी हो जाता है।
एक बार रामनामका उच्चारण भगवानके दूसरे हजार नामोंके बराबर माना गया है।
एक बार श्रीशंकर भगवान बोले कि हे पार्वती! आओ, भोजन करलें।
तब श्रीपार्वतीजी बोली कि हे प्रभो! मेरे तो श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रंका पाठ करना बाकी है,(आप भोजन करलें,मैं पाठ करके बादमें भोजन कर लूंगी।वे नित्य श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रवाले भगवानके हजार नाम लेकर भोजन करती थीं)।
तब श्रीशंकर भगवान बोले कि
राम राम राम-इस प्रकार मैं तो इस मनोरम राममें ही रमण करता हूँ।
हे सुमुखी पार्वती! यह रामनाम हजार नामोंके समान है।
यथा-
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने॥
(पद्मपुराण)
श्रीशंकर भगवानकी यह बात सुनकर श्रीपार्वतीजीने एक बार रामनाम लिया और शंकर भगवानके साथ ही भोजन कर लिया।
पार्वतीजीके हृदयमें रामनाम आदिके प्रेमको देखकर श्रीशंकरजीने उनको अर्ध्दांगमें (आधे अंगमें)धारण कर लिया।
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सहसनाम सम सुनि सिव बानी।
जपि जेईं पिय संग भवानी॥
हरषे हेतु हेरि हर हीको।
किय भूषन तिय भूषन तीको॥
(रामचरितमा.१।१९;)।
नारदजीको तो भगवानने माँगनेपर यह वरदान ही दे दिया कि रामनाम सबसे श्रेष्ठ होगा-
राम सकल नामन्हते अधिका।
होउ नाथ अघ खगगन बधिका॥
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एवमस्तु मुनि सन कहेउ…
(रामचरिमा.३।४२;) आदि।
इस प्रकार भगवानके दूसरे
नामोंकी अपेक्षा रामनाम सबसे बढकर है।
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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/
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