।।श्रीहरि:।।
साधक-संजीवनी गीता के अंश-(1) लेखक - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। ●
संसारमें कोई भी नौकरको अपना मालिक नहीं बनाता;परन्तु भगवान् शरणागत भक्तको अपना मलिक बना लेते हैं।ऐसी उदारता केवल प्रभुमें ही है।
गीता साधक-संजीवनी (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) 18।12 से।
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जैसा प्रारब्ध है,उसीके अनुसार उसकी बुद्धि बन गयी,फिर दोष किस बातका ?
बुद्धि में जो द्वेष है, उसके वशमें हो गया - यह दोष है।उसे चाहिये कि वह उसके वशमें न होकर विवेकका आदर करे।गीता भी कहती है कि बुद्धि में जो राग-द्वेष रहते हैं (तीसरे अध्यायका चालीसवाँ श्लोक), उनके वशमें न हो - 'तयोर्न वशमागच्छेत्' (३|३४)।
गीता साधक-संजीवनी (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) १८|१२ से।
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••• उनके साथ मन न रहे तो किसी भी विषयका ज्ञान नहीं होता। अत: इन्द्रियोंकी ज्योति (प्रकाशक) 'मन’ है। मनसे विषयोंका ज्ञान होनेपर भी जबतक बुद्धि उसमें नहीं लगती, बुद्धि मनके साथ नहीं रहती, तबतक उस विषयका स्पष्ट और स्थायी ज्ञान नहीं होता। बुद्धिके साथ रहनेसे ही उस विषयका स्पष्ट और स्थायी ज्ञान होता है। अत: मनकी ज्योति (प्रकाशक) 'बुद्धि’ है। बुद्धिसे कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्-असत्, नित्य-अनित्यका ज्ञान होनेपर भी अगर स्वयं (कर्ता) उसको धारण नहीं करता, तो वह बौद्धिक ज्ञान ही
रह जाता है; वह ज्ञान जीवनमें, आचरणमें नहीं आता। वह बात स्वयंमें नहीं बैठती। जो बात स्वयंमें बैठ जाती है, वह फिर कभी नहीं जाती। अत: बुद्धिकी ज्योति (प्रकाशक) 'स्वयं’ है। स्वयं भी परमात्माका अंश है और परमात्मा अंशी है। स्वयंमें ज्ञान, प्रकाश परमात्मासे ही आता है। अत: स्वयंकी ज्योति (प्रकाशक) 'परमात्मा’ है। उस स्वयंप्रकाश परमात्माको कोई भी प्रकाशित नहीं कर सकता।
तात्पर्य यह हुआ कि परमात्माका प्रकाश (ज्ञान) स्वयंमें आता है। स्वयंका प्रकाश बुद्धिमें, बुद्धिका प्रकाश मनमें, मनका प्रकाश इन्द्रियोंमें और इन्द्रियोंका प्रकाश विषयोंमें आता है। मूलमें इन सबमें प्रकाश परमात्मासे ही आता है। अत: इन सब ज्योतियोंका ज्योति, प्रकाशकोंका प्रकाशक परमात्मा ही है। जैसे एक-एकके पीछे बैठे हुए परीक्षार्थी अपनेसे आगे बैठे हुएको तो देख सकते हैं, पर अपनेसे पीछे बैठे हुएको नहीं, ऐसे ही अहम्, बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ आदि भी अपनेसे आगेवालेको तो देख (जान) सकते हैं, पर •••
(गीता साधक- संजीवनी, १३|१७)।
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शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिसे जो कुछ शास्त्रविहित सांसारिक या पारमार्थिक क्रियाएँ होती हैं, वे सब भगवान्की मरजीसे ही होती हैं। मनुष्य तो केवल अहंकारके कारण उनको अपनी मान लेता है। उन क्रियाओंमें जो अपनापन है, उसे भी भगवान्के अर्पण कर देना है; क्योंकि वह अपनापन केवल मूर्खतासे माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं। इसलिये उनमें अपनेपनका भाव बिलकुल उठा देना चाहिये और उन सबपर भगवान्की मुहर लगा देनी चाहिये। (साधक- संजीवनी गीता १८|५७)।
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'यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषम्’—धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श अर्थात् प्रकृतिके मात्र पदार्थ व्यथा नहीं पहुँचाते। प्राकृत पदार्थोंके संयोगसे जो सुख होता है, वह भी व्यथा है और उन पदार्थोंके वियोगसे जो दु:ख होता है, वह भी व्यथा है। परन्तु जिसकी दृष्टि समताकी तरफ है, उसको ये प्राकृत पदार्थ सुखी-दु:खी नहीं कर सकते। समताकी तरफ दृष्टि रहनेसे अनुकूलताको लेकर उस सुखका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्त:करणमें उस सुखका स्थायी रूपसे संस्कार नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रतिकूलता आनेपर उस दु:खका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्त:करणमें उस दु:खका स्थायीरूपसे संस्कार नहीं पड़ता। इस प्रकार सुख-दु:खके संस्कार न पडऩेसे वह व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि अन्त:करणमें सुख-दु:खका ज्ञान होनेसे वह स्वयं सुखी-दु:खी नहीं होता।
(साधक- संजीवनी गीता २|१५;)
(बाकी बाद में ■)
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