शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

ज्ञानगोष्ठीमें सज्जनोंसे निवेदन

।।श्री हरि:।।

एक निवेदन

सीताराम सीताराम

ज्ञानगोष्ठीके सज्जन सनेही सदस्योंको सादर रामजी राम राम महाराज।

आजकल कई लोगोंके अनचाहे पोस्टोंसे कई लोगोंको जो कष्ट हुआ है, उसके लिये उन सभी सज्जनोंसे मैं माफी माँगता हूँ।साथ ही मैं उन लोगोंसे प्रार्थना करता हूँ कि आइन्दा कोई ऐसी सामग्री न भेजें कि जिससे किसीको कोई तकलीफ हो।

इसके सिवा एक प्रार्थना सभीसे करता हूँ कि सामग्री वही भेजें जो आवश्यक हो और जिससे लोगोंको प्रसन्नता हो,ज्ञान हो।

जो सामग्री भेजी जा चूकी हो,कृपया उसे बार-बार न भेजें।

लोगोंके सो जानेपर भी कृपया कुछ न भेजें।

कोई भी सामग्री भेजनेमें सभी स्वतन्त्र है।
कोई सामग्री पसन्द न आये तो आपत्ति जतानेमें भी सभी स्वतन्त्र है,परन्तु कृपया इसका दुरुपयोग न करें।

आपत्ति जताने पर भी कोई अगर परवाह न करें तो मेरेसे कहें।कृपया सीधे उस सदस्यसे फोन करके विवाद न करें (जैसा कि आजकलमें हुआ है)।

कोई बात पसन्द न आये तो स्वयं समूह छौड़कर अलग हो जाना अच्छा है; परन्तु किसीको छौड़नेके लिये विवश करना अच्छा नहीं है।

इस ज्ञानगोष्ठीमें करीब पचास जने हैं।कृपया कुछभी भेजना हो तो सौच-समझकर ही भेजें।

इस समूहमें कई आदरणीय,पूज्य संत-महात्मा हैं।कई आदरणीय  साधक,सत्संगी हैं।कई छौटे और कई बड़े भी हैं।कई शुरुआती और कई पुराने भी हैं।कई ऐसे हैं जिनको भगवत्सम्बनधी बातें ही अच्छी लगती है और कईयोंको इन बातोंके साथ-साथ सांसारिक-ज्ञानकी बातें भी अच्छी लगती है।

लोगोंकी रुचि अलग-अलग होती है।कोई अपनी रुचिकी सामग्री भेजें और वो हमारे पसन्द न आये तो कृपया उनका बुरा न मानें।सभ्यता-पूर्वक निवेदन करदें कि ऐसी सामग्री भेजना ठीक नहीं। जो सामग्री हमें पसन्द न आयी हो,वो दूसरे कईयोंको पसन्द आ जाया करती है,ऐसा देखनेमें आया है।

हमारा प्रयास तो यह रहना चाहिये कि अपनी समझमें अच्छीसे अच्छी सामग्री भेजें।

एक नम्बरकी सामग्री वही है,जो श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज और सेठजी श्री जयदयालजी गोयनदकाके सत्संगकी हो या उससे सम्बन्धित हो।
सीताराम सीताराम

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

रविवार, 3 अगस्त 2014

परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके नामके पहले 'परम' शब्द क्यों जोड़ा जाता है?


प्रश्न-
आप श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके नामका उच्चारण क्यों करते हो? (गुरुका नाम लेना तो वर्जित है)
और महाराजजीके नामके पहले 'परम' शब्द भी क्यों जोड़ते हो ?

उत्तर-

भाव भक्ति और अपने सन्तोषके लिये
भक्त और भगवानका नाम लेनेसे वाणी पवित्र हो  जाती है।आनन्द मंगल हो जाते हैं।

परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज कई बार बताते थे कि-

आत्मनाम गुरोर्नाम
नामातिकृपणस्य च।
श्रेयष्कामो न गृह्णीयात्
ज्येष्ठापत्यकलत्रयौ:।।

अर्थात् अपनी भलाई (कल्याण) चाहनेवालेको अपना और गुरुके नामका उच्चारण नहीं करना चहिये तथा अत्यन्त कृपण (कंजूस)का,बड़े पुत्रका और पत्निका नाम भी नहीं लेना चाहिये।

यह बात सही है।

एक बार मैंने महाराजजीसे पूछा कि अगर कोई गुरुजीका नाम पूछे और बताना आवश्यक हो तो कैसे बतावें? तब महाराजजीने बताया कि गुरुजीके नामके पहले आदरसूचक विशेषण (जैसे 1008,आदरणीय,प्रात:स्मरणीय पूज्य आदि या और कोई) जोड़कर नाम लेलें-नाम बतादें।
(इस प्रकार गुरुजीका नाम भी लिया जा सकता है) ।

महाराजजी किसीके गुरु नहीं बनते थे।कोई आपको मनसे गुरु मानलें, तो आपकी मनाही भी नहीं थी,परन्तु आप गुरु-शिष्यका सम्बन्ध नहीं जोड़ते थे और न ही इसका समर्थन करते थे।आजके जमानेमें तो वो इसका कड़ा निषेध करते थे।

गुरु बनाकर कोई गुरुकी बात नहीं मानें तो वो नरकोंमें जाता है।महाराजजीने बताया कि उसको नरकोंमें जानेसे भगवान भी नहीं रोक सकते और जिन संत महापुरुषोंपर श्रध्दा है,उनको गुरु बनाये बिना ही कोई उनकी बात मानता है तो कल्याण होता है और नहीं मान सके तो लाभसे वंचित रहता है,(परन्तु नरकोंमें नहीं जाना पड़ता)।

कई जने आपको मनसे गुरु मानते हैं। वैसे भी संत-महात्मा तो स्वत: ही गुरु हैं।

महाराजजी अपने नामके साथमें आदर सूचक ज्यादा विशेषण लगाकर लिखवानेमें संकोच करते थे।
एक बार परम श्रध्देय स्वामीजी श्री…लिखा जाता हुआ देखकर 'परम' शब्द हटवाकर संशोधन करवाया।
फिर आपसे पूछा गया कि कुछ जोड़े बिना तो कैसे लिखा जाय? (पता नहीं लोगोंके भी यह बात जँचेगी या नहीं) तब महाराजजीने बताया कि श्रध्देय… लगाकर लिखदो।
महाराजजीकी पुस्तकों पर तो 'स्वामी रामसुखदास' ही लिखवाया हुआ है।यह तो महापुरुषोंकी महान कृपा है जो इतनी छूट देदी।
महाराजजीके नामके साथ 'परम' शब्द पहलेसे ही जुड़ता आया है और इस घटनाके बादमें भी जुड़ता रहा है।कभी किसीको मना किया हो , ऐसा देखने-सुननेमें नहीं आया।जैसे आपकी फोटो लेने,चरण छूने आदिके लिये सख्त मनाही थी,ऐसी 'परम' शब्दके लिये मनाही देखी नहीं गयी।

इस प्रकार सत्संगी,सज्जन लोग आपके नामके पहले 'परम' शब्द लगाते आये हैं और लगाते जा रहे हैं। 'भगवानका प्रचार करना' खुद भगवानका काम नहीं,भक्तोंका काम है।

ऐसे महारुरुषोंके नामके साथ परम, श्रध्देय…आदि जितने भी विशेषण जोड़े जायँ, कम है, अति अल्प है।फिर भी भावुकजन विशेषण आदिके द्वारा प्रयास करते हैं-

छं० निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।
दो० रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ। संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ।।९२ क ।।
सो० भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।।९२ ख ।।
(रामचरितमानस ७/९२) ।

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पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

शनिवार, 2 अगस्त 2014

हस्ताक्षर

३०१-४०१÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

        
                                               ||श्री हरिः||          

                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                     -:@ चौथा शतक (सूक्ति ३०१-४०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |
उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |
इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |
इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -  

सूक्ति-
३०१-

पहले जैसो मन करले भाया |
रज्जब रस्सा मूंजका पाया , न पाया ||

घटना-

एक बार संत रज्जबजी महाराज कहींसे आ रहे थे | मार्गमें एक मुञ्जका रस्सा पड़ा था जो किसी गाड़ीवानकी गाड़ीसे गिर गया होगा | रज्जबजी महाराजने सोचा कि इसको उठाकर लै चलें ; गाड़ीवाला मिल गया तो उसको दे-देंगे ; नहीं तो कपड़े ही फैलायेंगे (सुखायेंगे) | इस प्रकार रस्सा उठाकर कन्धे पर रख लिया और भजन करते हुए चलने लगे | भजनकी मस्तीमें रस्सा खिसकते-खिसकते नीचे गिर गया | बादमें पता लगा कि रस्सा तो गिर गया | रस्सेका गिरना मनको अच्छा नहीं लगा | तब वो बोले कि हे भाई ! रस्सा मिलनेसे पहले जैसा मन था , वैसा करले | यह समझले कि मूंजके रस्सेका  मिलना न मिलना ही था | पहले रस्सा था नहीं , आखिरमें रस्सा रहा नहीं | बीचमें आया और बीचमें ही चला गया ; इसमें तुम्हारा क्या गया ? |
(यह युक्ति कोई सब जगह लगालें , तो कितनी मौज हो जाय ) |

सूक्ति-
३०२-

सत मत छोड़ो हे नराँ सत छोड़्याँ पत जाय |
सतकी बाँधी लिच्छमी फेर मिलेगी आय ||

सूक्ति-
३०३-

कह, पढाई कितनीक करी ?
कह, घर खोवै जितनी |

सहायता-

जैसे कोई कपटसे किसीका घर अपने नाम कराले और उसको कहे कि हस्ताक्षर(दस्तखत) करदो और अगर वो दस्तखत  कर देता है तो अपना घर खो देता है | उसको पढना तो आता नहीं कि इसमें क्या लिखा है? क्योंकि उसने पढाई इतनी ही की है कि अपना नाम लिख सके(दस्तखत कर सके) | हस्ताक्षर(दस्तखत) कर देनेसे वो घर उसका हो जाता है और यह अपना घर खो बैठता है |

सूक्ति-
३०४-

सगळा बैठर सोवै (है) |

सूक्ति-
३०५-

छोटै कवै ज्यादा जीमणो (ह्वै) |

सूक्ति-
३०६-

बेमातानें सांसो पड़ियो |
जणाँ मिनखरूपमें ढाँडो घड़ियो | |
लगावती तो ही सींग अर पूँछ |
पण लगादी दाढी और मूँछ ||

सहायता-

बेमाता (विधाता,ब्रह्माजी) | सांसो (संशय-सन्देह,भूल) |

सूक्ति-
३०७-

पेट मोटो करोसा |

भावार्थ-

किसीका कोई नुक्सान हो जाता है तब उसको सहन करनेके लिये या माफ करनेके लिये कहा जाता है कि पेट बड़ा करो-पेट मोटो करोसा |

सूक्ति-
३०८-

सौरो जिमायौड़ो ,
अर दौरो कूट्यौड़ो भूलै कौनि |

सूक्ति-
३०९-

काँई काँटाँमें हाथ जावै है ? |

सूक्ति-
३१०-

भिणिया पण गुणिया कौनि |

भावार्थ-

पढा है, सीखा है; पर अनुभव नहीं किया है , ठीकसे विचार करके समझा नहीं है |

सूक्ति-
३११-

देखै न कुत्तो भुसै |

सूक्ति-
३१२-

रोयाँ राज कौनि मिलै |

सूक्ति-
३१३-

आज्या घट्टीवाळे घरमें ! |

सूक्ति-
३१४-

घोड़ा गणगौरनेंई नहीं दौड़सी तो कद दौड़सी ? |

सूक्ति-
३१५-

नर नानाणैं जाय (है) |

जैसे-

माँ पर पूत पिता पर घौड़ा |
बहुत नहीं तो थौड़ा थौड़ा ||

सूक्ति-
३१६-

पूत कपूत हू ज्यावै ,
पण माईत कुमाईत कौनि हुवै |

सूक्ति-
४१७-

घणाँई ऊँचा नीचा लिया ,
( पण बात मानी कौनि ) |

सूक्ति-
३१८-

मियाँ बीबी राजी ,
तौ क्या करेगा पाजी |

सूक्ति-
३२०-

काँखमें कटारी , अर चौरनें घूताँसूँ मारै |

सूक्ति-
३२१-

कमाऊ पूत बहाळा लागै |

शब्दार्थ-

बहाळा(प्यारा,बाळा,बाला ) |

सूक्ति-
३२२-

कह , धोळा आग्या (बड़ा-बूढा है ) |
कह ,टल्डाँरे घणाँही है (धौळा केश तो ) |

शब्दार्थ-

टल्डा (भेड़ें ) |

सूक्ति-
३२३-

जीवती माखी कियाँ गिटीजै ? |

सूक्ति-
३२४-

बाह्मण कह छूटै , अर बैल बह छूटै |

सूक्ति-
३२५-

राधमें छुरी चलावणो (ह्मारेसूँ नहीं हुवै ) |

सहायता-

राध (मवाद,जब घाव पक जाता है,तो उसमें रस्सी-मवाद भर जाती है , उस समय बड़ी पीड़ा होती है और उसमें कोई छुरी चलाता है तो यह बड़ी निर्दयता कहलाती है , भले आदमीसे ऐसा नहीं हो सकता,वो ऐसा नहीं कर सकता |

सूक्ति-
३२६-

घाटो अकलरो है |

सूक्ति-
३२७-

बड़ो टाबर आपरै घरैही आछो |

सूक्ति-
३२८-

कह , धूड़ बाउँ थारे लारै |
कह , हूँ काँई चीणी मौलासूँ ? ||

सूक्ति-
३२९-

ए लोहरा चिणा है |

सूक्ति-
३३०-

गुड़ गोबर हू ज्यासी |

सूक्ति-
३३१-

काँजररी कुत्ती कठै ब्यावै ? |

सूक्ति-
३३२-

चाटतोई लोई काढै है |

सूक्ति-
३३३-

मूँडैसूँ खायोड़ौ फुण्णाँसूँ निकळसी |

शब्दार्थ-

फुण्णासूँ ( नाकसे ) |

सूक्ति- ३३४-

ऐतो लेणिया देणिया है |

सूक्ति-
३३५-

कपूत बेटो खाँदमें काम आवै |

शब्दार्थ-

खाँदमें (काँधमें,मर जाने पर अर्थी उठानेके लिये कँधा देनेमें) |

सूक्ति-
३३६-

हर डावा हर जीवणा हर ही रूपारेळ |
राम भरोसै रामदास ठूँठाँ माहीं ठेल ||

शब्दार्थ-

रूपारेळ (एक कबरी चिड़िया, सकुनचिड़ी) |

सूक्ति-
३३७-

पान सड़ै घोड़ो अड़ै बिद्या बीसर जाय |
रोटी बळै अंगारमें कहो चेला किण भाय ||

(कह, गुरुजी ! उथली कौनि ) |

भावार्थ-

बिना उथलै पान सड़ जाता है, बिना उथलैे (बिना आवृत्ति किये ) विद्या विस्मृत हो जाती है और बिना उथलै अंगार पर रखी हुई रोटी जल जाती है ) |

सूक्ति-
३३८-

डीगो बड़ डगमगै मऊ माळवै जाय |
लिखिया खत झूठा पड़ै कहो चेला किण भाय ||

(कह, गुरुजी ! शाखा कौनि ) |

शब्दार्थ-

मऊ (माँ) | बिना शाखा (डालियों) के ऊँचा (लम्बा) बड़(वटवृक्ष) डगमगाता है , बिना शाखा (औलाद,बेटा पौता)के माँ को अकाल पड़ने पर मालवै जाना पड़ता है , बिना शाख (गवाह)के लिखा हुआ खत झूठा पड़ जाता है |

सूक्ति-
३३९-

जिनके पाँव न फटी बिवाई |
सो क्या जानै पीर पराई ||

सूक्ति-
३४०-

कह , पेट लियो थारो कठौतो ह्वै ज्यूँ |
कह, म्हारे तो अन्न इणमें ही पचै है,
काँई कराँ थारो घणो चौखो है तो ? ||

सूक्ति-
३४१-

कह , राण्डाँ रोवौ क्यूँ हो ये ?
कह , माँटीड़ा मरग्या |

कह ,म्हे हाँ नी ?
कह , मिनख कठै ?

सूक्ति-
३४२-

राज जाज्यो , पण रीत मत जाज्यो |

सूक्ति-
३४३-

हाकम चल्यो जाय (है), पण हुकम नहीं जावै (हुकम रह ज्यावै) |

सूक्ति-
३४४-

लाम्बी पहरा देस्यूँ !

भावार्थ-

लम्बी पहना दूँगा अर्थात् विधवा कर दूँगा |
(यहाँ कोई अभिमान और गुस्सेमें बोल रहा है ) |

सूक्ति-
३४५-

ठीकरी घड़ैनें फौड़े |

सूक्ति-
३४६-

माठो बळद तो बुचकारो ही चावै (है) |

सूक्ति-
३४७-

भूखाँरे भूखा पाँवणा बे माँगे , अर ए दै नहीं |
धायाँरे धाया पाँवणा ए देवै अर बे लै नहीं ||

सूक्ति-
३४८-

कही थी छानी कानमें मानी नहिं महाराज |
बानी पड़ी विवेकमें याँरे कारण आज ||

शब्दार्थ-

बानी (राख) |

सूक्ति-
३४९-

रुपयो स्वादनैं , कै बादनैं |

शब्दार्थ-

बादनैं (वाद विवादके लिये , लड़ाई-झगड़ेके लिये) |

सूक्ति-
३५०-

पाका पान तो झड़ण वाळा ही हुवै है |

सूक्ति-
३५१-

गरज थकाँ मन और है गरज मिटै मन और |
संतदास मनकी प्रकृति रहत न एकण ठौर ||

सूक्ति-
३५२-

खीच गळेरो , अर घी तळैरो (चौखो ह्वै है ) |

सूक्ति-
३५३-

कह , ओ तो बचन हैटोई कौनि पड़ण देवै |

शब्दार्थ-

हैटो (नीचो) |

सूक्ति-
३५४-

बाँट कर खाणा , अर बैंकुण्ठाँमें जाणा |

सूक्ति-
३५५-

अणहूत भाड़ै इण्डियोई रूंख |

शब्दार्थ-

अणहूत (अभाव) | भाड़ै (बदलेमें) |

सूक्ति-
३५६-

अणहूत (-अभाव ) भाटेसूँभी काठी |

सूक्ति-
३५७-

[औ संसार तो ]
काजीजीरी कुत्ती है |

घटना-

एक काजीजी थे | उनके एक कुतिया थीं | एक दिन वो मर गयी तो लोग बैठनेके लिये आये कि आपकी कुतिया मर गयी और जब काजीजी मर गये ,तो कोई नहीं आया | जब काजीजी थे , उनके पासमें अधिकार था , तब स्वार्थ सधनेकी आशासे कुतियाकी मौतके लिये भी शौक जताया,सहानुभूति दिखायी और अब काजीजी मर गये तो स्वार्थ सधनेकी आशा नहीं रही | अब आनेसे क्या फायदा? ऐसे ही संसारके स्वार्थी लोग हैं | पासमें कुछ होता है , तब तक तो मतलब रखते हैं और जब पासमें कुछ नहीं होता तब कोई मतलब नहीं रखते |

सूक्ति-
३५८-

बूरयौड़ो मतीरो है |

सूक्ति-
३५९-

गूदड़ीके लाल |

सूक्ति-
३६०-

शंख , अर खीर भरियौड़ो |

सूक्ति-
३६१-

घी तो अँधेरेमें भी छानो कौनि रेवै |

सूक्ति-
३६२-

माजनों खोयो है (गमायो है ) |

सूक्ति-
३६३-

भागते चौररा झींटा |

शब्दार्थ-

झींटा (बाल,केश,जटा) |

सूक्ति-
३६४-

गोहरी मौत आवै जणा थौरीरी खाल खड़खड़ावै |

शब्दार्थ-

थौरी (भील) |

सूक्ति-
३६५-

किया किया हरिजीरा देखो |
अर पीछे तुम कर लेणा लेखो ||

सूक्ति-
३६६-

घुरियो तो घमंड , अर फरियो तो फतै |

सूक्ति-
३६७-

गाजररी पूंगी है ,
बाजी जितै (तो) बजाई , नहीं तो तौड़ खाई |

सूक्ति-
३६८-

जोगीवाळा जटा है |

सूक्ति-
३६९-

पनघट ऊपर पनघटै पनघट वाको नाम |
कह कवि पन कैसे रहै जहाँ पनहारिनको धाम ||

शब्दार्थ-

पन (प्रण,प्रतिज्ञा) |

सूक्ति-
३७०-

मरै टार (-घोड़ा) या लाँघे खाई |

सूक्ति-
३७१-

पौर मरी सासू , अर ऐस आया आँसू |

शब्दार्थ-

पौर (गई साल) | ऐस (इस साल-वर्ष) |

सूक्ति-
३७२-

चिड़ियाँसूँ खेत छानो थौड़ोही है |

सूक्ति-
३७३-

मँगताँसूँ गळी छानी थौड़ेही है |

सूक्ति-
३७४-

(माँ-बेटा,भक्त-भगवन्त आदिका सम्बन्ध)
काँई धौयाँ ऊतरै है ?

सूक्ति-
३७५-

कंथो एक , अर दिसावराँ घणी |

शब्दार्थ-

दिसावर (देश-विदेश) | कंथ (कन्त,पति) |

सूक्ति-
३७६-

हूँई राणी तूँई राणी ,
कुण घाले चूल्हैमें छाणी |

सूक्ति-
३७७-

पहले आवै उणरे गौरी गाय ब्यावै |

सूक्ति-
३७८-

ऊँखळमें सिर दियो है तो धमकेसूँ काँई डरणो |

सूक्ति-
३७९-

भौगना फूटा है सावणरे महीनें गधेरा फूटे ज्यूँ |

शब्दार्थ-

भौगना (मष्तिष्क,दिमागका तिरस्कार सूचक नाम) |

सूक्ति-
३८०-

केई पड़े केई तीसळै केइयक लंघे पार |
किण किण अवगुण ना किया वय चढन्ती बार ||

शब्दार्थ-

तीसळै (फिसल गये) | वय (अवस्था) |

सूक्ति-
३८१-

रातै जम्बुक बोलियो पिया जो मानी रीस |
जे कौवेरो कहयो करूँ (तो) नौ तेरह बाईस ||

शब्दार्थ-

जम्बुक (सियार,स्याळ) | घटना शायद ऐसे है कि एक स्त्री पशु-पक्षियोंकी बोली (भाषा) समझती थीं | एक बार रातमें सियार बोला | उसकी बोली समझकर वो बाहर गई और नौ मुहरें आदि लै आयीं; परन्तु रातमें बाहर निकल जानेसे पतिने गुस्सा कर लिया | दूसरे दिन कौएकी बोली समझ कर वो कहती है कि अगर इसका कहना मानूँ तो तेरह मुहरें और मिल जाय | इस प्रकार नौ और तेरह - बाईस मुहरें हो जाय ) |

सूक्ति-
३८२-

भूवारे मिस दैणो ,
अर भतीजैरे मिस लैणो |

सूक्ति-
३८३-

साँची कहवै जणाँ माँ भी माथैमें देवेै |

सहायता-

एक विधवाको काजल,टीकी आदिसे शृंगार करते देख कर उसके बेटेने कहा कि माँ ! विधवा तो काजल आदि नहीं लगाया करती है ; फिर आप क्यों लगा रही हो? यह सच्ची बात सुन कर माँ ने बालकके सिरमें मारी (थप्पड़ लगायी) |

तीतर पंखी बादळी विधवा काजळ रेख |
बा(आ) बरसै बा घर करै इणमें मीन न मेख ||

सूक्ति-
३८४-

खरचरो भाग मोटो है |

सूक्ति-
३८५-

थारो मन है तो म्हारो काँई धन है
[जो खर्च हो जाय] |

सूक्ति-
३८६-

खार समँद बिच अमरित बेरी |

शब्दार्थ-

अमरित (अमृत) | बेरी (छौटा कुआँ,कुईं,बेरी ) |

सूक्ति-
३८७-

लंकामें बिभीषणरो घर |

सूक्ति-
३८८-

कोरो हिरणाँ लारे दौड़ै है |

सूक्ति-
३८९-

अन्धेरो ढौवे है |

सूक्ति-
३९०-

ऊछळ पाँती छौटेरी |

सूक्ति-
३९१-

गोतरी गाळ तो भेंसनेंई भारी |

सूक्ति-
३९२-

उदळतीनें दायजो कुण देवै |

भावार्थ-

ऊदळती (माता पिताकी बिना मर्जीके जब कन्या अपनी मर्जीसे जल्दीमें किसीके साथ जाती है,शादी करती है ,तब उसको दहेज थौड़े ही दिया जाता है ! क्योंकि ऊदळतीको दहेज कौन दे ! ) |

सूक्ति-
३९३-

घाततेरो (-घालतेरो) घी लूखो |

सूक्ति-
३९४-

घणी भेळी करके काँई राबड़ी राधस्याँ |

सूक्ति-
३९५-

कोई गावै होळीरा कोई गावै दिवाळीरा |

सूक्ति-
३९६-

तुम जो निशिदिन देतहौ द्वार द्वार सब अयन |
साधू पूछे सेठसे नीचे किसविध नयन ||

सूक्ति-
३९७-

देनेवाला और है पूरत है दिन रैन |
लोग नाम मेरो धरै यातें नीचे नैन ||

सूक्ति-
३९८-

गृहस्थ तो टके बिना टकैरो ,
अर साधू टकेसूँ टकैरो |

सूक्ति-
३९९-

सूधी (या सोरी) बैठी डूमणी घरमें घाल्यो घौड़ो |

सूक्ति-
४००-

छाछ तो छाँई माँईं ,
अर राबड़ी फिळै ताँईं |
घाट पाँवडा साठ ,
अर, रोटीरी ऊमर मोटी ||

सूक्ति-
४०१-

भीखमेंसूँ भीख देवै , तीन लोक जीत लेवै |

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
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शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

गुरु कैसा हो?-"साधक-संजीवनी"(लेखक-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) १३।७ से।

                         ॥श्रीहरि:॥

(गुरु कैसा हो?)

साधकको शुरुमें ही सोच-समझकर आचार्य,
संत-महापुरुषके पास जाना चाहिये।

आचार्य (गुरु) कैसा हो ?

इस सम्बन्धमें ये बातें ध्यानमें रखनी चाहिये ----

(१) अपनी दृष्टिमें जो वास्तविक बोधवान्, तत्त्वज्ञ दीखते हों ।

(२) जो कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि साधनोंको ठीक-ठीक जाननेवाले हों ।

(३) जिनके संगसे, वचनोंसे हमारे हृदयमें रहनेवाली शंकाएँ बिना पूछे ही स्वतः दूर हो जाती हों ।

(४) जिनके पास रहनेसे प्रसन्नता, शान्तिका अनुभव होता हो ।

(५) जो हमारे साथ केवल हमारे हितके लिये ही सम्बन्ध रखते हुए दीखते हों ।

(६) जो हमारेसे किसी भी वस्तुकी किञ्चिन्मात्र भी आशा न रखते हों ।

(७) जिनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ केवल साधाकोंके हितके लिये ही होती हों ।

(८) जिनके पासमें रहनेसे लक्ष्यकी तरफ हमारी लगन स्वतः बढ़ती हो ।

(९) जिनके संग, दर्शन, भाषण, स्मरण आदिसे हमारे दुर्गुण-दुराचार दूर होकर स्वतः सद्गुण-सदाचाररूप दैवी सम्पति आती हो ।

(१०) जिनके सिवाय और किसीमें वैसी अलौकिकता, विलक्षणता न दीखती हो।

ऐसे आचार्य,संतके पास रहना चाहिये और केवल अपने उध्दारके लिये ही उनसे सम्बन्ध रखना चाहिये।वे क्या करते हैं,क्या नहीं करते? वे ऐसी क्रिया क्यों करते हैं? वे कब किसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं? आदिमें अपनी बुध्दि नहीं लगानी चाहिये अर्थात् उनकी क्रियाओंमें तर्क नहीं लगाना चाहिये।साधकको तो उनके अधीन होकर रहना चाहिये,उनकी आज्ञा,रुखके अनुसार मात्र क्रियाएँ करनी चाहिये और श्रध्दाभावपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिये।अगर वे महापुरुष न चाहते हों तो उनसे गुरु-शिष्यका व्यावहारिक सम्बन्ध भी जोड़नेकी आवश्यकता नहीं है।हाँ,उनको हृदयसे गुरु मानकर उनपर श्रध्दा रखनेमें कोई आपत्ति नहीं है।

अगर ऐसे महापुरुष न मिलें तो साधकको चाहिये कि वह केवल परमात्माके परायण होकर उनके ध्यान,चिन्तन आदिमें लग जाय…

"साधक-संजीवनी"

(लेखक-
परम श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजीमहाराज)

तेरहवें अध्यायके सातवें श्लोककी टीका(पृष्ठ ८७२) से।
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