शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

नई रचना (रचनाकार- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

सूक्ति-५५.

(रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत |
दास होइ जपु रात दिन साधुसभा सौभन्त ||)

राम(२) नाम संसारमें सुख(३)दाई कह संत |
दास(४) होइ जपु रात दिन साधु(१)सभा सौभन्त ||

खुलासा-

(इस दोहेकी रचना स्वयं श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने की है |

इसमें श्रीमहाराजजीने परोक्षमें अपना नाम-(१)साधू (२)राम(३)सुख(४)दास लिखा है |

सूक्ति-५६.

आसाबासीके चरन आसाबासी जाय |
आशाबाशी मिलत है आशाबाशी नाँय ||

इस दोहेकी रचना करके श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने इस दोहेमें (रहस्ययुक्त) अपने विद्यागुरु श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजका नाम लिखा है और उनका प्रभाव बताया है |

शब्दार्थ-

आसा (दिग,दिसाएँ).बासी (वास,वस्त्र,अम्बर).आसाबासी (बसी हुई आशा).आशाबाशी (आ-यह,शाबाशी-प्रशंसायुक्त वाह वाही).आशाबाशी (बाशी आशा अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं रहती,तुरन्त मिटती है ,बाकी नहीं रहती).

भावार्थ-

विद्यागुरु १००८ श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजके चरणोंकी शरण ले-लेनेसे से मनमें बसी हुई आशा चली जाती है और यह शाबाशी मिलती है (कि वाह  वा आप आशारहित हो गये -चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह | जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह -बादशाहोंका भी बादशाह हो जाता है,वो आप होगये,शाबाश | ) आशा बाशी नहीं रहती , अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं हो जाती,गुरुचरण कमलोंके प्रभावसे तुरन्त मिटती है,बाकी नहीं रहती ,दु:खोंकी कारण आशाके मिट जानेसे फिर आनन्द रहता है-
ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह|
सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ).|

विद्यागुरु श्री दिग्(आशा)+अम्बर(बासी,वास)+आनन्द(आ शाबाशी,आशाबाशी नाँय)-दिगम्बरानन्दजी महाराज | शिष्य श्री साधू रामसुखदासजी महाराज-

रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत |
दास होइ जपु रात दिन साधु सभा सौभंत ||

इसके अलावा श्री स्वामीजी महाराजने एक दोहा कवि शालगरामजी सुनारके विषयमें बनाया था,(उनकी पुत्रीका नाम मोहनी था)
जो इस प्रकार है-

(सूक्ति-५७).

तो अरु मोहन देह मोहनसे मोहन कहे |
मोहनसे करु नेह मोहन मोहन कीजिये ||

भावार्थ-

तेरा(तो) और मेरा (मो+) मिटादो(+हन देह), भगवानका नाम मोहन मोहन कहनेसे (भगवान्नाम लेनेसे) मोह नष्ट हो जाता है (मोह नसे),भगवान (मोहन) से प्रेम करो और उनको पुकारो (मोहन मोहन कीजिये).

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

कलियुगकी हवा न लगने दें।

सूक्ति-५३.

पत्र देणों परदेसमें मित्रसे होय मिलाप |
देरी होय दिन दोयकी तो करणो पड़े कलाप ||

सूक्ति-५४.

*नासत दूर निवारज्यो आसत राखो अंग |
कलि झोला बहु बाजसी रहज्यो एकण रंग ||

शब्दार्थ-

नासत (नास्तिकता-ईश्वरको न मानना).आसत (आस्तिकता-ईश्वरको मानना).झोला (एक प्रकारकी हवा,जिससे खेती जल जाती है).

(*यह दोहा श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके गुरुजीने किसीको पत्र लिखवाते समय पत्रमें लिखवाया था ).

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

रहस्यकी,गुप्त बात बतानेका परिणाम

सूक्ति-५१.

आखी गुञ्ज  न आखिये होइ जो मित्र सुप्यार |
दूधाँ सेती पित्त पड़े आधी आधी बार ||

भावार्थ-

अगर अपना अच्छा,प्यारा मित्र हो तो भी अपनी रहस्यकी सारी गुप्त बातें तो उनसे भी नहीं कहनी चाहिये ; (क्योंकि उन शत(सौ)-प्रतिशत बातोंमें से पचास प्रतिशत हानि हो जाती है | जैसे,किसीको खूब दूध पिलाया जाता है तो) दूधसे भी आधी आधी बार(सौ बारमेंसे आधी-पचास बार) पित्त पड़ जाता है।

सूक्ति-५२.

आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय |
देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||

भावार्थ-

अपनोंको छोड़ कर परायोंमें बसनेसे और स्त्रीको गुप्त रहस्य बतानेसे पुँडरीक नागको देखो कि वह (गरुड़जीके) पैरोंमें बुरी तरहसे लूँमता,लटकता जा रहा है।

शब्दार्थ-

बिड़ बसण (परायोंमें बसना).गुञ्ज (रहस्यकी बात)।

कथा-

एक 'पुण्डरीक' नामका नाग गरुड़जीके डरसे (दूसरा रूप धारण करके) कहीं जाकर रहने लग गया (वहाँ विवाह भी कर लिया,परन्तु यह रहस्य किसको भी नहीं बताया था)| एक बार नागपञ्चमीके दिन उस नागकी पत्नि नागदेवताकी पूजा करनेके लिये कहीं जाने लगी तो पुँडरीक नागके पूछने पर उसने बताया कि नागदेवताकी पूजा करने जा रही हूँ | तब उसने हँसकर बताया कि वो तो मैं ही हूँ , जब मैं साक्षात नाग तुम्हारा पति हूँ और यहाँ मौजूद हूँ तो किसकी पूजा करने जा रही हो? यह सुनकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ | नागने कहा कि यह बात  किसीको भी बताना मत; परन्तु उसकी पत्निके यह बात  खटी नहीं और अपनी पड़ोसिनको बतीदी तथा मना कर दिया कि वो किसीको न बतावे; उसके भी वो बात खटी नहीं और उसने आगे बतादी | इस प्रकार चलते-चलते यह बात गरुड़जीके पास पहुँच गयी और गरुड़जी तो उसको खोज ही रहे थे | तब गरुड़जी  वहाँ आये और पुँडरीक नागको पकड़ कर लै गये (पंजोंसे उसको पकड़ कर उड़ गये)| इसलिये कहा गया कि- आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय | देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
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गुरुवार, 18 सितंबर 2014

अपने किये हुए कर्मोंका फल।

सूक्ति-१०.

आप कमाया कामड़ा दीजै किणने दोष |
खोजेजीरी पालड़ी काँदे लीन्ही खोस ||

कथा-

पालड़ी गाँववाले ठाकुर साहबके यहाँ एक काँदा(प्याज) इतना बड़ा हुआ कि उन्होने उस काँदेको ले जाकर लोगोंके सामने ही दरबारके भेंट चढाया;सबको आश्चर्य आया कि पालड़ीमें इतना बड़ा काँदा पैदा हुआ है,लोग उस गाँवको 'काँदेवाली पालड़ी' कहने लग गये; इससे पहले उसका नाम था 'खोजेजीरी पालड़ी'| अगर खोजोजी ऐसा नहीं करते तो उनका यही अपना नाम रहता;परन्तु अब किसको दोष दें |  

सूक्ति-११.

बोरड़ीरे चौर बँधियो देखि पिणियारी रोई |
थारे सगो लागे सोई?
म्हारे सगो लागे नीं सोई |
इणरे बापरो बहनोई म्हारे लागतो नणदोई.
(यह चौर उसका बेटा था ).

सूक्ति-१२.

रामजी घणदेवाळ है .

शब्दार्थ-

घणदेवाळ(ज्यादा देनेवाले,सुख देते हैं तो एक साथ ही खूब दे देते हैं और दुख देते हैं तो भी एक साथ ज्यादा दे देते हैं.).

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
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भगवानने पुकार सुनी।


सूक्ति-७.

गारबदेसर गाँवमें सब बाताँरो सुख |
ऊठ सँवारे देखिये मुरलीधरको मुख||

शब्दार्थ-

मुरलीधर(भगवान).

सूक्ति-८.

आयो दरशण आपरै परा उतारण पाप |
लारे लिगतर लै गयो मुरलीधर माँ बाप ! ||

शब्दार्थ-

लिगतर(जूते).

कथा-

एक चारण भाई इस मन्दिरमें दर्शनके लिये भीतर गये,पीछेसे कोई उनके पुराने जूते(लिगतर) लै गया.तब उन्होने मुरलीधर(सबके माता पिता) भगवानसे यह बात कहीं;इतनेमें किसीने नये जूते देते हुए कहा कि बारहठजी ! ये जूते पहनलो ; मानो भगवानने दुखी बालककी फरियाद सुनली |

सूक्ति-९.

कुबुध्द आई तब कूदिया दीजै किणने दोष |
आयर देख्यो ओसियाँ साठिको सौ कोस ||

कथा-

साठिका गाँवके एक जने(शायद माताजीके भक्त,एक चारण भाई)ने सोचा कि इस गाँवको छोड़कर ओसियाँ गाँवमें चले जायँ (जो सौ कोसकी तरह दूर था)तो ज्यादा लाभ हो जायेगा,परन्तु वहाँ जाने पर पहलेसे भी ज्यादा घाटा दीखा; तब अपनी कुमतिके कारण पछताते हुए यह बात कहीं .

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

संत और भगवत्कृपा।(अन्त समयमें भगवन्नाम स्मरण)।

परम पिता परमात्मा और महापुरुषोंकी अनुपम अनुकम्पासे माताजी अन्त समयमें राम राम करते हुए परमधामको प्राप्त हुए।यह बहुत ही (अनुपम) खुशीकी बात है।

भगवान और महापुरुषोंसे प्रार्थना है कि सद्गति चाहनेवाले सभीको  ऐसी गति दें।

राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।(…मा.३/२०)
।जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अन्त राम कहि आवत नाहीं।।
(मा.४/१०)।
जाकर नाम मरत मुख आवा।
अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा।।
(मा.३/३१)।
पापिउ जाकर नाम सुमिरहीं।
अति अपार भवसागर तरहीं।।
(मा.४/२९)।
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना।
सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना।।
(मा.६/५८)।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य:प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:।।
(गीता८/५)।

माताजीने उस दिन पूछा था न कि साधक-संजीवनीमें आया है कि (अन्त समयमें) जहाँ भगवानके नामका कीर्तन होता है,तो वहाँ यमदूत नहीं आ सकते और
भगवद्भक्त जब कभी शरीर छोड़ते हैं तो उनको लेनेके लिये भगवानके पार्षद आते हैं।यह कौनसी जगह आया है?

फिर वे बातें साधक-संजीवनीमें आठवें अध्यायके पाँचवें और पच्चीसवें श्लोकमें लिखी हुई मिल गयी थी।
कितनी बढिया बात है कि माताजीने उस बातको पूछकर याद किया और परम प्रभु और महापुरुषोंकी ऐसी कृपा हुई।

अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।।
(मा.५/७)।
बिनु सतसंग बिबेक न होई।
रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।।
(मा.१/३)।
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान।।
(मा.७/१२५)।
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती।
सेवक पर ममता अरु प्रीति।।
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी।
ग्यान रंक नर मंद अभागी।।
(मा.३/४५)।।

हरि:शरणम् हरि:शरणम्
हरि:शरणम् हरि:शरणम्
आपको बहुत-बहुत धन्यवाद,जो अपनी परवाह न करके माताजीकी सेवा और परमसेवा की तथा हमको भी ऐसा सुअवसर प्रदान किया।हरि:शरणम्  हरि:शरणम् हरि:शरणम् हरि:शरणम् हरि:शरणम्…

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/