डुँगरदासके ब्लॉगका पता-
■ सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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इस जगतमें अगर संत-महात्मा नहीं होते, तो मैं समझता हूँ कि बिलकुल अन्धेरा रहता अन्धेरा(अज्ञान)। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजीमहाराज की वाणी (06- "Bhakt aur Bhagwan-1" नामक प्रवचन) से...
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■ सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
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।।श्रीहरि।।
पापी भी कैसे भगवानके प्यारे हैं..
(-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के 19971111/1630 बजेवाले प्रवचनमें आया है कि पापी भी कैसे भगवानके प्यारे हैं और भगवानकी कृपाकी कैसी विलक्षणता है।
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दिनांकवाले सत्संग-प्रवचन। -
(श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराज)।
साधक-संजीवनी गीतामें किसी मतका खण्डन नहीं किया है-
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज।
दि.19950917/830 बजेके प्रवचनमें श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया कि
मैंने गीताकी टीका(साधक-संजीवनी)में किसी मतका खण्डन नहीं किया है।मैंने यह ध्यान रखा है।खण्डन करना न मेरा उध्देश्य है और न मैं खण्डन करना ठीक समझता हूँ। गीताके मूलमें भी यही शैली है(गीता18।2-5)।
।।श्रीहरि:।।
साधक-संजीवनी गीतामें किसी मतका खण्डन नहीं किया है- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज।
दि.19950917/830 बजेके प्रवचनमें श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया कि
मैंने गीताकी टीका(साधक-संजीवनी)में किसी मतका खण्डन नहीं किया है।मैंने यह ध्यान रखा है।खण्डन करना न मेरा उध्देश्य है और न मैं खण्डन करना ठीक समझता हूँ। गीताके मूलमें भी यही शैली है(गीता18।2-5)।
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॥श्रीहरि:॥
दो प्रकारकी अयोध्या-
(एक तो अवतारके समयवाली और दूसरी,रामायणपाठ तथा सत्संग-समारोह-स्वरूप वाली)।
-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज।
{कौसल्यादि मातु सब धाई।
निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥
जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ
चरन बन परबस गई।
दिन अंत पुर रुख स्रवत थन
हुँकार करि धावत भईं॥
[रामचरितमा.७।६]।
जैसे,कुछदिनों पहले ही ब्यायी हुई गऊ अपने बछड़ेको घरपर ही छोड़कर चरनेके लिये परवशतासे वनमें गयी हों और सूर्यास्तके समय थनोंसे दूध बहाती हुई हुँकार करके नगरकी तरफ दौड़ी हों;ऐसे कौसल्या आदि सब माताएँ (जब रामजी वनसे लौटकर वापस आये,तब वो रामजीसे मिलनेके लिये) दौड़ीं।
यहाँ(अयोध्यामें) बछड़ा वनमें गया है,रामजी वनमें गये हैं,माताएँ वनमें नहीं गई हैं।तो यह विपरीत उदाहरण क्यों दिया यहाँ?
यह इसलिये दिया कि जहाँ रामजी है,वहीं अयोध्या है,बाकी तो सब जंगल है, वन है।माताएँ घरपर थीं तो भी मानो जंगलमें ही थीं; क्योंकि अयोध्या तो रामजीके साथमें थीं।}।
…(सतीजी-पार्वतीजीकी तरह) नारदजीके सन्देह हो गया,ब्रह्माजीके सन्देह हो गया… इन्द्रके सन्देह हो गया।येह सन्देह हुआ है भगवानके चरित्रसे(चरित्र देखनेसे) और भगवानकी कथा(सुनने)से(सन्देह) दूर हुआ।
तो रामचन्द्रजी महाराजके समय(जो) अयोध्या है,उसकी अपेक्षा यह(सत्संग-समारोह-स्वरूप) अयोध्या तेज हो गयी,जब रामायणकी कथा हुई है यहाँ।
रामजीके चरित्रसे तो मोह हो जाता है अर(और) रामचरित्रकी कथासे मोह दूर हो जाता है।
आप ख्याल किया कि नहीं आपने!?
तो यह अयोध्या कम नहीं है येह!
अब जो रामजीका राज्याभिषेक होता है! तो यह अजोध्या है।
हरेक भाई-बहनसे कहना है कि आपलोग सब-हम आप, अजोध्यामें हैं,रामजीके राजगद्दीका उत्सव देखते हैं और अजोध्या*में हैं(तालियोंकी आवाजें)।रामजीसे बढकर रामजीकी कथा है।
-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके
19951003/1700 बजेवाले प्रवचनका अंश (यथावत)… ।
…
अपने यहाँ कथा हुई है रामजीका पाठ हुआ है…
(तो यह रामजीसे बढकर है,उस अयोध्यासे यह रामायण-पाठ तथा सत्संग-स्वरूपवाली अयोध्या बढकर है,तथा आप और हम सब उस अयोध्यामें रामजीके राज्याभिषेकका उत्सव देख रहे हैं।हम सब अयोध्यामें हैं।)
…तो कैसी मौजकी बात है।…
(*जोधपुरमें जो नौ दिनोंका सामूहिक रामायण-पाठ हुआ और उसमें 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' पधारे,उस 'सत्संग-समारोह'को ही यहाँ 'अयोध्या' कहा गया है)।
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सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
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॥श्रीहरि:॥
भरत-चरत्रसे भक्तिका उपदेस(अयोध्याकाण्ड २०६ से आगे)।
भरद्वाज मुनि द्वारा भरतजीको कहे जानेके भाव-
सांसारिक भोग पदार्थ न्यायपूर्वक प्राप्त हुए हों और उनको स्वीकार करनेपर परमात्माको भी संतोष होता हो तो उसको स्वीकार करनेपर कोई दोष नहीं है,अच्छा है,लेकिन उनका त्याग करके कोई परमात्माकी तरफ चलता है तो यह और भी बहुत बढिया है,भगवानके भक्तको तो ऐसा ही करना चाहिये।
जो भगवानकी पूर्ण भक्ति प्राप्त करना चाहते हों,उनके लिये भरतजीका यह चरित्र उपदेश है,आदर्श है,रास्ता बतानेवाला है।
भगवानकी परा भक्ति कैसे प्राप्त हो,भक्तिके रास्ते कैसे चलना चाहिये-इसका श्रीभरतजीने श्रीगणेश कर दिया,चलना सिखाना शुरु कर दिया।अब भगवानके भक्तोंको चाहिये कि भरपेट यह अमृत पीलें।
भरतजीकी तरह न्यायपूर्वक प्राप्त भोग पदार्थोंका त्याग करके भगवानकी तरफ चलना चाहिये,भगवानकी भक्ति करनी चाहिये।
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।।श्रीहरि।।
(साधक-संजीवनी)
परिशिष्टके सम्बन्धमें
(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।
श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है , जिसका आजतक न तो कोई पार पा सका , न पार पाता है , न पार पा सकेगा और न पार पा ही सकता है । गहरे उतरकर इसका अध्ययन -मनन करनेपर नित्य नये-नये विलक्षण भाव प्रकट होते रहते हैं । गीता में जितना भाव भरा है , उतना बुद्धि में नहीं आता । जितना बुद्धि में आता है , उतना मन में नहीं आता । जितना मन में आता है , उतना कहने में नहीं आता । जितना कहने में आता है , उतना लिखने में नहीं आता । गीता असीम है ,पर उसकी टीका सीमित ही होती है । हमारे अन्तःकरण में गीता के जो भाव आये थे , वे पहले ' साधक संजीवनी ' टीका में लिख दिये थे। परन्तु उसके बाद भी विचार करनेपर भगवत्कृपा तथा संतकृपा से गीता के नये-नये भाव प्रकट होते गये । उनको अब 'परिशिष्ट भाव' के रूप में 'साधक -संजीवनी' टीका में जोड़ा जा रहा है।
'साधक -संजीवनी ' टीका लिखते समय हमारी समझमें निर्गुणकी मुख्यता रही ; क्योंकि हमारी पढाईमें निर्गुण की मुख्यता रही और विचार भी उसीका किया। परन्तु निष्पक्ष होकर गहरा विचार करनेपर हमें भगवान के सगुण ( समग्र) स्वरुप तथा भक्तिकी मुख्यता दिखायी दी | केवल निर्गुणकी मुख्यता माननेसे सभी बातोंका ठीक समाधान नहीं होता। परन्तु केवल सगुणकी मुख्यता माननेसे कोई संदेह बाकी नहीं रहता। समग्रता सगुणमें ही है , निर्गुण में नहीं। भगवान ने भी सगुणको ही समग्र कहा है - 'असंशयं समग्रं माम्' (गीता ७ |१ )।
परिशिष्ट लिखनेपर भी अभी हमें पूरा सन्तोष नहीं है और हमने गीतापर विचार करना बंद नहीं किया है। अतः आगे भवत्कृपा तथा संतकृपासे क्या-क्या नये भाव प्रकट होंगे - इसका पता नहीं ! परन्तु मानव - जीवन की पूर्णता भक्ति (प्रेम ) -की प्राप्ति में ही है - इसमें हमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है।
पहले ' साधक -संजीवनी ' टीकामें श्लोकोंके अर्थ अन्वयपूर्वक न करनेसे उनमें कहीं-कहीं कमी रह गयी थी। अब श्लोकोंका अन्वयपूर्वक अर्थ देकर उस कमीकी पूर्ति कर दी गयी है। अन्वयार्थ में कहीं अर्थको लेकर और कहीं वाक्यकी सुन्दरताको लेकर विशेष विचारपूर्वक परिवर्तन किया गया है।
पाठकों को पहलेकी और बाद की (परिशिष्ट) व्याख्यामें कोई अन्तर दीखे तो उनको बादकी व्याख्या का भाव ही ग्रहण करना चाहिये। यह सिद्धान्त है की पहलेकी अपेक्षा बादमें लिखे हुए विषयका अधिक महत्व होता है। इसमें इस बातका विशेष ध्यान रखा गया है कि साधकोंका किसी प्रकारसे अहित न हो। करण कि यह टीका मुख्यरूपसे साधकोंके हितकी दृष्टिसे लिखी गयी है , विद्वत्ता की दृष्टि से नहीं।
साधकोंको चाहिये कि वे अपना कोई आग्रह न रखकर इस टीकाको पढ़ें और इसपर गहरा विचार करें तो वास्तविक तत्व उनकी समझमें आ जायगा और जो बात टीकामें नहीं आयी है , वह भी समझ आ जायगी!
विनीत -
स्वामी रामसुखदास
('साधक-संजीवनी परिशिष्टका नम्र निवेदन' से)।
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