रविवार, 19 फ़रवरी 2017

■□मंगलाचरण□■ (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                       ॥श्रीहरिः॥

■□मंगलाचरण□■

(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

यह मंगलाचरण
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज

सत्संग-प्रवचन से पहले
(सत्संग के प्रारम्भ में)
किया करते थे--

पराकृतनमद्बन्धं
परं ब्रह्म नराकृति।
सौन्दर्यसार सर्वस्वं
वन्दे नन्दात्मजं महः॥

प्रपन्नपारिजाताय
तोत्त्रवेत्रैकपाणये।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय
गीतामृत दुहे नमः॥

वसुदेवसुतं देवं
कंस चाणूरमर्दनम्।
देवकी परमानन्दं
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परंकिमपि तत्त्वमहं न जाने॥

हरिओम नमोऽस्तु परमात्मने नमः,
श्रीगोविन्दाय नमो नमः,
श्री गुरुचरणकमलेभ्यो नमः,
महात्मभ्यो नमः,
सर्वेभ्यो नमो नमः,

नारायण नारायण
नारायण नारायण

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आप (बड़ी सुगमता से और जल्दी) जीवन्मुक्त हो सकते हैं।(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                  ॥श्रीहरिः॥

आप (बड़ी सुगमता से और जल्दी) जीवन्मुक्त हो सकते हैं।
(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)। 

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज  दिनांक ११.५.१९९०.प्रातः  ०८.३० बजे  (19900511_0830_Jeevan Mukti Sahaj Hai नाम) वाले प्रवचन से पहले आ कर बैठे और बैठकर श्रोताओं से कहा कि अब बोलो (क्या सुनावें?)

श्रोताओं की तरफ से निवेदन किया गया कि आपके मनमें जो बात आयी हो,वही सुनाओ। तब श्री महाराज जी बोले कि

हमारे मनमें तो ऐसी बात आयी कि आप जितने सत्संग सुनने वाले हैं, वे सबके सब जीवन्मुक्त हो जायँ, तत्त्वज्ञ,भगवद्भक्त हो जायँ। मनुष्य जन्म सफल सबका हो जाय (आप सब ऐसे हो जाओ)।  चाहे बहन हो और चाहे भाई हो, चाहे बूढा हो और चाहे छोटा हो - सब के सब जीवन्मुक्त हो जायँ। यह बात आयी मनमें। यह (जीवन्मुक्त होना)  कोई बड़ी बात नहीं है (कठिन नहीं है) , सब जीवन्मुक्त हो सकते हैं। आप मेरी बात की तरफ ध्यान दो। मैं मेरी बात नहीं कहता हूँ। शास्त्रों की, गीताजी बात कहता हूँ। गीताजी की बात है यह (१३।३१;१८।१७; की- तेरहवें अध्यायका इकतीसवाँ और अठारहवें अध्यायका सतरहवाँ श्लोक) इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिये आपको।

आपमें कर्तापन और भोक्तापन दोनों ही नहीं है। आप परिवार आदि में लिप्त नहीं हैं। अहंकृत भाव और लिप्तता केवल आपकी पकड़ी हुई है (वास्तव में है नहीं)।

पहले नहीं थी,बादमें नहीं रहेगी और अभी भी नहीं है। जो 'नहीं'(शरीर,संसार) है उसको 'नहीं' मानलो और जो 'है'(स्वयं,परमात्मा) उसको 'है' मानलो।

(जो बात जैसी है उसको वैसी ही मानलो,स्वीकार करलो- इतनी सी ही बात है)। है जैसा जान लेने का नाम ही ज्ञान है। 

समझमें नहीं आवे तो भी बात तो यही है  (क्योंकि गीताजी कहती है) -यह स्वीकार करलो। करना कुछ नहीं है। ( आप जीवन्मुक्त हो जाओगे) । और समझमें नहीं आवे तो भगवानको पुकारो।

एक तो वस्तु का निर्माण करना होता है,उसको बनाना होता है और एक वस्तु की खोज होती है। परमात्मतत्त्व को बनाना नहीं है,वो तो है पहले से ही।उधर दृष्टि डालनी है (खोज करनी है)।

खोज में भी उधर दृष्टि डालना है। (नया कुछ नहीं  करना है, सिर्फ दृष्टि डालना है । दृष्टि डालते ही प्राप्ति हो जायेगी इसमें-प्राप्ति में देरी नहीं लगती। सांसारिक काम में देरी लगती है,परमात्मा की प्राप्ति में देरी नहीं लगती। परमात्मा की प्राप्ति का कायदा और सांसारिक प्राप्ति का कायदा दो है,अलग-अलग है) हमारे भाई बहनों ने कायदा एक ही समझ रखा है

(वो समझते हैं कि जैसे सांसारिक प्राप्ति होती है ऐसे ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। जैसे सांसारिक काम करने से होता है ऐसे ही परमात्मा की प्राप्ति भी करने से होती है; जैसे उसमें देरी लगती है,ऐसे इसमें भी देरी लगती है; पर बात यह नहीं है। परमात्मा की प्राप्ति का तरीका अलग है)। अधिक जानने के लिये कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का यह  (19900511_0830_Jeevan Mukti Sahaj Hai) प्रवचन सुनें।

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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

गीता ग्रंथका सार (श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित- गीता "साधक-संजीवनी" पर आधारित)।

                      ||श्रीहरि:||

◆गीता-सार◆

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित गीता "साधक-संजीवनी" ग्रंथ पर आधारित)।

अध्याय
१. सांसारिक मोहके कारण ही मनुष्य 'मै क्या करूँ और क्या नहीं करूँ'---इस दुविधामें फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अतः मोह या सुखासक्तिके वशीभूत नहीं होना चाहिए ।

२. शरीर नाशवान है और उसे जाननेवाला शरीरी अविनाशी है ---इस विवेकको महत्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करना ---इन दोनोंमेसे किसी भी एक उपायको काममें लानेसे चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।

३. निष्कामभावपूर्वक केवल दुसरोके हितके लिये अपने कर्तव्यका  तत्परतासे पालन करनेमात्रसे कल्याण हो जाता है।

४. कर्मबन्धनसे छूटनेके दो उपाय है--कर्मो के तत्त्व को जानकर निःस्वार्थभावसे कर्म करना और तत्त्वज्ञानका अनुभव करना।

५. मनुष्यको अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितियोंके आने पर सुखी -दुःखी नही होना चाहिये; क्योंकि इनसे सुखी-दुःखी होनेवाला मनुष्य संसारसे ऊँचा उठकर परम् आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता।

६.  किसी भी साधनसे अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये। समता आये बिना मनुष्य सर्वथा निर्विकार नहीं हो सकता ।

७. सबकुछ भगवान् ही हैं---ऐसा स्वीकार कर लेना सर्वश्रेष्ठ साधन है।

८. अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार ही जीवकी गति होती है। अतः मनुष्यको हरदम भगवान् का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये, जिससे अन्तकालमें भगवान् की स्मृति बनी रहे ।

९. सभी मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, वेश आदिके क्यों न हों।

१०. संसारमें जहाँ भी विलक्षणता, विशेषता, सुन्दरता, महत्ता, विद्वत्ता, बलवत्ता आदि दीखे, उसको भगवान् का ही मानकर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिये।

११.  इस जगत् को भगवानका ही स्वरूप मानकर प्रत्येक मनुष्य भगवान के विराटरूपके दर्शन कर सकता है।

१२. जो भक्त शरीर -इन्द्रियाँ - मन  बुद्धि-सहित अपने-आपको भगवान के अर्पण कर देता है, वह भगवान को प्रिय होता है।

१३. संसारमें एक परमात्मतत्त्व ही जाननेयोग्य है। उसको जाननेपर अमरताकी प्राप्ति हो जाती है।

१४. संसार - बन्धनसे छूटनेके लिये सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंसे अतीत होना जरूरी है।  अनन्य भक्तिसे मनुष्य इन तीनो गुणोंसे अतीत हो जाता है।

१५.  इस संसार का मूल आधार और अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही हैं---ऐसा मानकर अनन्यभावसे उनका भजन करना चाहिये।

१६.  दुर्गुण- दुराचारोंसे ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाता है  और दुःख पाता है। अतः जन्म - मरणके चक्रसे छूटनेके लिये दुर्गुण- दुराचारोंका त्याग करना आवश्यक है।

१७.  मनुष्य श्रद्धापूर्वक जो भी शुभ कार्य करे, उसको भगवान का स्मरण करके, उनके नामका उच्चारण करके ही आरम्भ करना चाहिये ।

१८.  सब  ग्रन्थोका सार वेद हैं, वेदोंका सार उपनिषद् हैं, उपनिषदोंका सार गीता है और गीताका सार भगवान् की शरणागति है। जो अनन्यभावसे भगवान की शरण हो जाता है, उसे भगवान सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं ।

-- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की पुस्तक- "सार-संग्रह" से।

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गुरुवार, 5 जनवरी 2017

गीताजी का अवतार किसलिये हुआ? (- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                     ॥श्रीहरिः॥

गीताजी का अवतार किसलिये हुआ?

(- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) ।

■♧  गीता का खास लक्ष्य  ♧■

गीता किसी वादको लेकर नहीं चली है अर्थात् द्वैत,अद्वैत,विशिष्टाद्वैत,द्वैताद्वैत,विशुध्दाद्वैत,अचिन्त्यभेदाभेद आदि किसी भी वाद को ,किसी एक सम्प्रदाय के किसी एक सिध्दान्त को लेकर नहीं चली है। गीता का मुख्य लक्ष्य यह है कि मनुष्य किसी भी वाद,मत,सिध्दान्तको माननेवाला क्यों न हो,उसका प्रत्येक परिस्थितिमें कल्याण हो जाय,वह किसी भी परिस्थितिमें परमात्मा से वंचित न रहे;क्योंकि जीवमात्रका मनुष्ययोनिमें जन्म केवल अपने कल्याणके लिये ही हुआ है। संसार में ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है,जिसमें मनुष्यका कल्याण न हो सकता हो। कारण की परमात्मतत्त्व  प्रत्येक परिस्थितिमें समानरूप से विद्यमान है । अत: साधक के सामने कोई भी और कैसी भी परिस्थिति आये,उसका केवल सदुपयोग करना है। सदुपयोग करने का अर्थ है - दु:खदायी परिस्थिति आनेपर सुखकी इच्छाका त्याग करना; और सुखदायी परिस्थिति आने पर सुखभोग का तथा  ' वह बनी रहे ' ऐसी इच्छाका त्याग करना और उसको दूसरों की सेवामें लगाना । इस प्रकार सदुपयोग करनेसे मनुष्य दु:खदायी और सुखदायी - दोनों परिस्थितियोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है।

       सृष्टिसे पूर्व परमात्मामें  'मैं एक ही अनेक रूपों में हो जाऊँ ' ऐसा संकल्प हुआ | इस संकल्पसे एक ही परमात्मा  प्रेमवृध्दि की लीला के लिये, प्रेमका आदान-प्रदान करने के लिये स्वयं ही श्रीकृष्ण और श्रीजी (श्रीराधा)- इन दो रूपों में प्रकट हो गये | उन दोनोंने परस्पर लीला करने के लिये एक खेल रचा । उस खेल के लिये प्रभु के संकल्प से अनन्त जीवों की ( जो कि अनादिकाल से थे ) और खेलके पदार्थों -(शरीरादि-) की सृष्टि हुई । खेल तभी होता है, जब दोनों तरफके खिलाड़ी स्वतन्त्र हों । इसलिये भगवान् ने जीवों को स्वतन्त्रता प्रदान की । उस खेलमें श्रीजीका तो केवल  भगवान् की तरफ ही आकर्षण रहा, खेल में उनसे भूल नहीं हुई । अत: श्रीजी और भगवान् में प्रेमवृध्दिकी लीला हुई । परन्तु दूसरे जितने जीव थे, उन सबनें भूलसे संयोगजन्य सुखके लिये खेल के पदार्थों-(उत्पत्ति-विनाशशील प्रकृतिजन्य पदार्थों - ) के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया,जिससे वे जन्म-मरणके चक्कर में पड़ गये ।

            खेलके पदार्थ केवल खेलके लिये ही होते हैं, किसीके व्यक्तिगत नहीं होते।  परन्तु वे जीव खेल खेलना तो भूल गये और मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके खेल के पदार्थों को अर्थात् शरीरादिको व्यक्तिगत मानने लग गये । इसलिये वे उन पदार्थोंमें फँस गये और भगवान् से सर्वथा विमुख हो गये । अब अगर वे जीव शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंसे विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जायँ, तो वे जन्म-मरणरूप महान् दु:खसे सदाके लिये छूट जायँ । अत: जीव संसार से विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जायँ और भगवान् के साथ अपने नित्य योग-( नित्य सम्बन्ध -) को पहचान लें -इसीके लिये भगवद्गीता का अवतार हुआ है।

"साधक-संजीवनी (लेखक-
श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)" ,
"प्राक्कथन" ("गीता का खास लक्ष्य"
नामक  विभाग) से।

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