शनिवार, 10 जुलाई 2021

एक डॉक्टर साहब को लिखा गया पत्र

                      ।।श्रीहरिः।।

एक डॉक्टर साहब को लिखा गया पत्र - 

डॉक्टर साहब !
सादर राम राम, सीताराम।


आपने 'स्वदेशी चिकित्सा सार' आदि पुस्तकें लिखीं और दुनियाँ का बङा हित किया। इसके लिये आपको बहुत-बहुत बधाई।

आपने स्वदेशी चिकित्सा सम्बन्धी बहुत अच्छी-अच्छी और अनेक जानकारियाँ लिखीं, अनेक उपचार बताये, जिससे लोगों को बङा लाभ हुआ। 

हमने आपकी पुस्तक (स्वदेशी चिकित्सा सार) देखी है। उपचार के लिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी लगी। आपने अकारादि वर्णानुक्रम से दूसरी विषयसूची जोङकर इसको और भी उपयोगी बना दिया है। कुछ उपयोगी बातों की चर्चा हमने श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के आगे भी की थी।

एक बार एक उपचार की श्री स्वामीजी महाराज ने प्रशंसा की और आपको पत्र लिखने के लिये फरमाया था। वो अब लिखा जा रहा है। देरी के लिये क्षमा चाहता हूँ। इतने दिनों से लिखने का उत्साह नहीं बन रहा था। अब विचार आया कि महापुरुषों ने फरमाया था और अभी तक वो काम बाकी पङा हुआ है, यह ठीक नहीं। इसलिये वो काम अब किया जा रहा है। उस समय आपके लिये हमने कापी में कुछ लिखा भी था, पर वो ऋषिकेश में ही रह गया। बात यह थी कि-

श्रीस्वामीजी महाराज के पौरुष ग्रंथि (प्रोस्टेट) के कारण बङी समस्या हो गई थी। लघुशंका खुलकर नहीं लगती थी।लघुशंका जाकर आनेपर भी बाकी रह जाती थी। जब लघुशंका जाने की आवश्यकता होती, तब वृद्धावस्था और शरीर की कमजोरी के कारण अपने स्थान पर से उठने में भी शक्ति लगानी पड़ती। चलते समय किसीका सहारा लेकर चलते। फिर लघुशंका जाकर जल से शुद्धि करते। फिर हाथ धोकर कई कुल्ले करते (तीन चार से अधिक बार आचमन करते)। मुख में पानी भरकर तथा चुलू में पानी भर- भर कर, उससे आँखोंपर खूब छींटे लगाते। फिर हाथ मुँह धोकर दोनों पैर धोते (टखनों तक)। इस प्रकार, ऐसा शौचाचार श्रीस्वामीजी महाराज पहले से ही करते आये थे अर्थात् इस समस्या के पहले भी ऐसा हर बार करते थे और अन्ततक भी करते रहे। फिर जब वापस आते तो आने में भी बङी कठिनता होती। ऐसे और भी कई बातें थीं।

वैद्य डॉक्टरों ने तरह-तरह के उपाय किये। इलाज के कई काम श्रीस्वामीजी महाराज की दिनचर्या के साथ जोङ दिये गये, जिससे दिन और रात में उनके और भी असुविधाएँ होने लगी। एक बार तो श्रीस्वामीजी महाराज के भी विचार पैदा हो गया ।

गोखरू के बीजों को उबाल कर उनका पानी पिलाने जैसे कई उपाय किये गये। वैद्य डॉक्टर आदि के कहे अनुसार, असुविधा होनेपर पर भी वे उनकी बात का पालन करते थे, बताये गये उपायों के अनुसार ही काम करते। दूसरे की बात का बङा आदर करते थे,उनकी बात रखते थे। इस प्रकार यह रोजाना ही चलने लग गया।

एक दिन हमने एक पुस्तक ("वनौषधि चन्द्रोदय" पृष्ठ १४, "बथुआ" प्रसंग) में पढ़ा कि बथुए के "पत्तों का उबाला हुआ पानी पीने से रुका हुआ पेशाब खुल जाता है।" तो यह बात श्रीस्वामीजी महाराज को बताकर,  उसके अनुसार वो पानी उनको पिलाया गया। इससे पेशाब खुलकर आया। तब श्रीस्वामीजी महाराज आश्चर्य सा करते हुए हँसकर बोले कि अरे, येह ठीक है,कामकरता है! फिर बोले कि उस डॉक्टर को (आपको) पत्र लिखकर बताना चाहिये कि इससे हमारे को लाभ हुआ है। फिर यह इलाज रोजाना करने लग गये।

कुछ दिन बाद उनको देहरादून हॉस्पीटल में चैक कराने के लिये ले जाया गया और वहाँ डॉक्टरों ने प्रोस्टेट का ऑपरेशन कर दिया। एक बार तो डॉक्टर आदि सबको को लगा कि बहुत सफल काम हो गया है (वहाँ से वापस आने की छुट्टी भी दे दी गयी और वापस गीताभवन, ऋषिकेश आ भी गये); लेकिन वो इलाज बिगड़ गया और अन्त में उन्होंने शरीर ही छोङ दिया।

ऑपरेशन के बाद इलाज कई दिनों तक चला था, फिर भी सफलता नहीं मिली। कलकत्ते के एक होम्योपैथिक, नामी डॉक्टर (जिनके यहाँ इलाज करवाने वालों की रात दिन लाइन लगी रहती थी, इलाज के लिये कई दिनों पहले नम्बर लगाना पड़ता था,वो) आये। उनको देखकर श्रीस्वामीजी महाराज ने उनसे कहा कि हमारे को कोई अशुद्ध और हिंसायुक्त दवाई मत देना, भले ही प्राण चले जायँ। हमें "प्राण चले जाना" स्वीकार है, पर ऐसी दवा लेना स्वीकार नहीं है। डॉक्टर साहब बोले कि नहीं, ऐसी नहीं है यह दवाई।

फिर वो दवा शुरु की गई। पहले जो दवाई चल रही थी, उसको बन्द कर दिया गया। यद्यपि डॉक्टर साहब ने तो कहा था कि पहले वाली दवाई भी भले ही चलने दो। लेकिन इस दवा पर विश्वास किया गया। हमलोग बन्द करने में सहमत हो गये। बहुत दिनों तक चलते रहने के कारण, पहले वाले इलाज से परेशान भी हो गये थे। उस दवा को चलाने का प्रयास न करके, इस दवा को शुरु कर दिया गया और वो दवा बन्द कर दी गयी। फिर तो एक दो दिनों में ही परिणाम भयंकर हो गया (प्राण चलेे गये)। 

इस इलाज से पहले श्रीस्वामीजी महाराज डॉक्टर की दवा आदि लेने का परित्याग करते हुए से बोले कि इनको छोङ दें क्या? लेकिन हमलोगों ने इसमें सहमति नहीं जतायी और तर्क पेश किया कि डॉक्टर के पास जाते ही नहीं तब तो ठीक था , पर जब हम डॉक्टर के पास चले गये तो उनके इलाज के अनुसार ही चलना पङेगा। सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज कुछ बोले नहीं, चुप हो गये और वो इलाज चलता रहा। यह (दूसरा) इलाज तो बाद में शुरु हुआ।

सन्तों के तो ऐसे भी आनन्द है और वैसे भी आनन्द।
श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग में बताते थे कि •••
सदा दिवाली सन्त के आठों पहर आनन्द।।
सब जग डरपे मरण से मेरे मरण आनन्द।
कब मरिहौं कब भेंटिहौं पूरण परमानन्द।।

[ आजतक तो मैं यही समझ रहा था कि अन्य लोगों की तरह श्रीस्वामीजी महाराज ने आपको अपना अनुभव बताने के लिये कहा है; लेकिन जब यह पत्र लिख दिया गया, तब मेरी समझ में आया कि बात इतनी ही नहीं थी, इसका अर्थ 'उनकी प्रेरणा' लेकर हम बथुए वाला यह उपाय "स्वदेशी चिकित्सा सार" नामक पुस्तक में जोङ सकते; क्योंकि यह इसमें मिला नहीं। पहले मेरे ध्यान में तो ऐसा था कि यह इसी में है, लेकिन खोजने पर मिला "वनौषधि चन्द्रोदय" नामक पुस्तक में (उन दिनों उस पुस्तक का भी हमने उपयोग किया था)। इससे भी स्पष्ट होता है कि इस उपचार को जोङना चाहिये ]
महापुरुषों की हर क्रिया में रहस्य भरा हुआ होता है।

श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग में बोलते थे कि

सन्तों की गति रामदास जग से लखी न जाय।
बाहर तो संसार सा भीतर उलटा थाय।।

ज्यों केले के पात में पात पात में पात।
त्यों चतुरनि की बात में बात बात में बात।।

सीताराम सीताराम

आषाढ़ कृष्ण ५, गुरुवार,
संवत् २०७७, सीकर।
डुँगरदास राम। 

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शुक्रवार, 25 जून 2021

"मेरे विचार" (-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

       ।।श्रीहरिः।।
"मेरे विचार"
(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक तत्त्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा ।
इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया। वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे। मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें। व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ। 
 
५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है। मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य, प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है। मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी) ही साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी। गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ।
 
६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने,जय-जयकार करने,माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ।
 
७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता। मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ।
 
८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ।
 
९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ।
 
१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्व देता हूँ।
 
११. रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है।
 
१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ। इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ। गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है।
 
१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें। मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें। पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें। किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं।
 
१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ।
 
१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये। जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है। उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है।
--श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। 
 
(ऐसे) 'मेरे विचार' ''एक संतकी वसीयत'' (प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२,१३ ) में भी छपे हुए  हैं। ------------------------------------------------------------------ पढ़ेें , सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/  

शनिवार, 12 जून 2021

शुद्ध उच्चारण करके गीता पढ़ना सीखें-

शुद्ध उच्चारण करके गीता पढ़ना सीखें- 
••• 

*४. 
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज द्वारा किया गया गीतापाठ अनेक प्रकार से बङा उपयोगी है। इसलिये इससे सबको लाभ लेना चाहिये। 


जिनको ठीक तरह से गीता पढ़ना नहीं आता हो तो उनको चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज द्वारा किये गये गीतापाठ के साथ- साथ गीतापाठ करें। इससे उनको ठीक तरह से गीता पढ़ना आ जायेगा। 


जिनको गीता पढ़ना तो आता है पर शुद्ध उच्चारण करना नहीं आता, तो उनको चाहिये कि इसके साथ-साथ ध्यान देकर गीतापाठ करें। इससे उनको शुद्ध उच्चारण करना आ जायेगा, वे शुद्ध उच्चारण करके गीता पढ़ना सीख जायेंगे। 


श्रीस्वामीजी महाराज से कोई पूछता कि मेरे को गीता जी के संस्कृत श्लोक शुद्ध उच्चारण करके पढ़ने नहीं आते, मैं श्लोकों का उच्चारण शुद्ध कैसे करूँ? तो श्रीस्वामीजी महाराज उनको उपाय बताते कि यहाँ सुबह चार बजे गीताजी की टैप ( कैसेट ) लगती है; उसके साथ-साथ गीताजी पढ़ो। 


( इस प्रकार संस्कृत श्लोकों का उच्चारण शुद्ध किया जा सकता है। इस गीतापाठ के साथ गीताजी पढ़कर कोई भी उच्चारण शुद्ध कर सकता है। )


प्रश्न- 

गीताजी के संस्कृत श्लोक आदि पढ़ने में कोई गलती हो जाय तो कोई दोष तो नहीं लगेगा? 


उत्तर- 

नहीं लगेगा; क्योंकि पढ़नेवाले की नीयत (मन का भाव) सही है। 


ऐसा प्रश्न किसीने श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज से किया था। तब वे बोले कि आप गीताजी पढ़ो, भगवान् नीयत देखते हैं अर्थात् भगवान् देखते हैं कि इसकी नीयत गीता पढ़ने की है, पढ़ने में यह जान बूझकर गलती नहीं करता। शुरुआत में ऐसे गलतियाँ हो जाती है। भगवान् गलतियों की तरफ नहीं देखते, नीयत की तरफ देखते हैं। नीयत सही होने से गलतियाँ होनेपर भी माफ कर देते हैं। 


पढते समय बालक से शुरु- शुरु में गलतियाँ होती है; परन्तु पढ़ानेवाले माफ कर देते हैं ( तभी पढ़ना होता है ; नहीं तो पढ़ना और पढ़ाना- दोनों मुश्किल हो जायेंगे)। इसलिये अशुद्ध उच्चारण की गलती के डर से गीताजी को छोड़ नहीं देना चाहिये, गीताजी पढ़नी चाहिये। हमारी नीयत गीता पढ़ने की है और ठीक तरह से नहीं पढ़ पा रहे हैं तो भी भगवान् राजी होते हैं। जैसे बालक की तोतली बातों से माता पिता राजी होते हैं, ऐसे भगवान् भी गीता पढ़ने से राजी होते हैं। 

सोमवार, 17 मई 2021

स्वप्न में सेठजी ने कहा कि एक परमात्मा ही है- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक 
20040225_0518_Sethji Ki Svapna Ki Baat वाले प्रवचन के अंश का यथावत लेखन)

एक बार स्वीकार करते ही पूरा काम हो जाता है-
20040225_0518_Sethji Ki Svapna Ki Baat
(दिनांक 25-2-2004_0518 बजे, 1 मिनिट से) एक बार, सरल हृदय से, दृढ़तापूर्वक, (यह) स्वीकार कर लें कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् का ही हूँ और किसी का नहीं और भगवान् ही मेरे (अपने) हैं और कोई मेरा नहीं है। पूर्ण हो गया काम। क्योंकि जो बात है, वो सच्ची है। ध्यान नीं (नहीं) दिया,ध्यान देते ही- एक वार सरल हृदय से...[इसमें] कोई अभ्यास की जरुरत नहीं, माळा की जरुरत नहीं, बार-बार याद करने की जरुरत नहीं, एक वार, सच्चे हृदय से, सरलतापूर्वक, दृढ़तापूर्वक- सरलता से दृढ़तापूर्वक (यह) स्वीकार कर लें कि मैं भगवान् का ही हूँ और भगवान् ही केवल मेरे हैं। सब (कुछ) और कोई है नहीं सिवाय भगवान् के- वासुदेवः सर्वम्ऽऽ (गीता ७।१९)। भागवत में आया है- भगवान् का पहला अवतार है (आदिअवतार है)– सर्वम् वासुदेवः••● (यथावत लेखन)। ×××
   (3 मिनट से) ●•• और किसीका मैं था भी नहीं, हूँ भी नहीं। हुआ भी नहीं, होउँगा भी नहीं। अर भगवान् ही मेरे हैं, शरीर- संसार मेरा नहीं है। मेरा था नहीं, मेरा है नहीं, मेरा होगा नहीं, मेरा हो सकता ही नहींऽऽ। एकदम पक्की बात है।  ×××
(4 मिनट से) सिवाय भगवान् के कुछ हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, कुछ हो सकता ही नहीं। भगवान् ही है- वासुदेवः सर्वम्। छोटा,बङा,जलचर, थलचर, नभचर, दूरबीन से दीखे वे ई (वे भी), सऽऽऽब वे ही, एक हीऽऽऽ  (सब भगवान् ही हैं)। (यथावत-लेखन)।
स्वप्नमें श्री सेठजी बोले कि एक परमात्मा ही है
[श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने (दिनांक 25-2- 2004 _0518 बजेवाले  सत्संग में) अपने स्वप्न की बात बतायी कि]
   आज ही, अभी सेठजी ने कहा (परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका ने कहा)। पाँच बत्तीस. (सपने में पाँच बजकर बत्तीस मिनिट पर। प्रवचन से पहले)।
श्रोता- सेठजी ने क्या कहा?
श्री स्वामी जी महाराज- सेठजी ने कहा- आ ज्याओ (आ जाओ)। अपने हम (-सब) बैठे थे। (श्री सेठजी आदि अपन सबलोग एक मकान में बैठे थे)। (श्री सेठजी) उठकरके बाहर, एक दूजे (दूसरे) मकान में गये। दूजे मकान में जाकर (सब को कहा कि-) आ ज्याओ।  मेरे को बैठाया पास में। दूजे बैठ गये यहाँ (कुछ दूरीपर)। (श्री सेठजी ने फिर) दोनों हाथ धरे- यहाँ (मेरे कन्धोंपर और बोले कि-) एक परमात्मा ही है। (यह) लिख लेना (श्री स्वामी जी महाराज ने यह बात श्रोता को लिखने के लिये कहा। श्रोता ने लिखना स्वीकार किया कि- अच्छ्या)। आज, अभी, सपना आया सपना। सेठजी ने कहा आओ, इधर आओ। कई आदमी थे। मैं पास में बैठा था। वे मकान (उस मकान) से उठकर दूसरे मकान में गये। सबको कहा कि- आ ज्याओ। मेरे ऊपर दोनों हाथ धरे- यहाँ (कन्धोंपर और बोले कि) एक परमात्मा ही है। ×××
  एक परमात्मा ही है। शान्त। ×××  चुपचाप। पक्की, अच्छी पक्की बात है- एकदम्म्म।
   (सपनेमें उस समय लगभग साढ़े पाँच (५.३०-३२) बजे थे। कई आदमी थे- पाँच सात जने। मकान परिचित नहीं था। किस स्थानपर और कौन- कौन थे, यह याद नहीं है)।
  भगवान् की बङी भारी कृपा है अलौकिक कृपा है, जबरदस्ती कृपा है जबरदस्ती, माँग नहीं, हमारा कहना नहीं था, माँग नहीं (की) थी।आपे ही (अपने-आप ही) कह, आ जाओ। कृपा है विलक्षण कृपा। जितने सत्संगी है, सबके लिये है (यह)। एक परमात्मा ही है। एक बार, सरल हृदय से, दृढ़तापूर्वक (यह) स्वीकार करलें (कि मैं भगवान् का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं)...  यह मैं पढ़ रहा था। अलौकिक कृपा है भगवान् की। सच्ची बात है एकदम। सप्तर्षि, सप्तर्षि है। राम महाराज। विलक्षण कृपा है विलक्षण। आ ज्याओ, आ ज्याओ कह, सबको ही यह कहा।
[शीतकाल में यह प्रवचन गीताभवन नम्बर तीन, संतनिवास वाले कमरे के भीतर हुए थे। माइक लगा हुआ था।  बाहर, पाण्डाल में बैठे लोग सुन रहे थे। भीतर में भी कई सज्जन श्री स्वामी जी महाराज के पास में बैठे थे। भीतरवाले लोगों की गिनती करते हुए श्री स्वामीजी महाराज बोले - सप्तर्षि, सप्तर्षि है। (ऐसा कुछ अब स्मृति में, याद भी आ रहा है)। श्री स्वामी जी महाराज ने 'राम महाराज'- वाक्य उच्चारण किया। इससे लगता है कि कोई सज्जन बाहर से कमरे में आये हैं और उन्होंनेे प्रणाम किया है। जवाब श्री स्वामी जी महाराज ने 'राम महाराज' बोला है। किसीके प्रणाम करनेपर ऐसे 'राम महाराज' बोला करते थे जिसका रहस्य भी बताया करते कि यह प्रणाम 'राम महाराज' (भगवान्) को किया गया। स्वयं स्वीकार न करके भगवान् को अर्पण कर दिया)।
   ...  सबको ही कहा- आ ज्याओ। (सब आ गये) सच्ची बात है। केवल स्वीकार करलो, मानलो। बात तो इत्ती ही है। सब पूरी हो गई। एकदम, कुछ बाकी नहीं है। बहूनां जन्मनामन्ते ••• स महात्मा सुदुर्लभः।। गीता ७|१९; अनन्यचेताः••• तस्याहं सुलभः गीता ८|१४; अर स महात्मा सुदुर्लभः।। यह सातवें (अध्याय) में (कहा), वो आठवें में। एक परमात्मा ही है। (यह बहुत ऊँची बात है। सब भगवान् ही है- ऐसा माननेवाला महात्मा बहुत दुर्लभ है। भगवान् ने गीता जी के इन श्लोकों में महात्मा को दुर्लभ और अपने को सुलभ बताया है)। एक परमात्मा ही है बस। छोटे हो, बङे हो, शुभ हो, अशुभ हो ••• (अच्छे, बुरे आदि) सऽऽब  वासुदेवः। क्रूर हो, सौम्य हो, भूत, प्रेत, पूतनाग्रह आदि- (सब परमात्मा ही है-) ये चैव सात्त्विका भावा॰ (गीता ७।१२ {-सात्त्विक, राजस और तामसी- सब भाव मेरे से ही पैदा होते हैं; परन्तु मैं उनमें और वे मेरे में नहीं है } ••• मानो मेरी प्राप्ति चाहो, तो मेरे शरण हो जाओ। हूँ मैं- ही- मैं -सब। नारायण नारायण नारायण नारायण।।
{इससे पहले जो श्री सेठजी की एक बात बोले थे। उसको लिखने के लिये मना किया कि यह बात नहीं कहनी है - नहीं लिखनी है}।
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मंगलवार, 4 मई 2021

अनुभवी पुरुष के सत्संग की महिमा - श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

अनुभवी पुरुष के सत्संग की महिमा 

 श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज 
के दिनांक
19940305_0518_Satsang Ki Mahima वाले प्रवचन के अंश का यथावत लेखन-
(2:51)••• तो इसका विवेचन क्या करें,यह तो प्रत्यक्ष है।सत्संगति करने से आदमी की विलक्षणता आती है।यह हमारे कुछ देखणे में आई है।शास्त्रों के अच्छे नामी पण्डित हो,उनमें बातें वे नहीं आती है जो सत्संग करणेवाळे साधकों में आती है।पढ़े-लिखे नहीं है,सत्संग करते हैं।वे जो मार्मिक बातें जितनी कहते हैं इतनी शास्त्र पढ़ा हुआ नहीं कह सकता,केवल पुस्तकें पढ़ा हुआ। शास्त्रों की बात पूछो,ठीक बता देगा।ठीक बता देगा,परन्तु कैसे कल्याण हो,जैसे, जीवन कैसे सुधरे, अपणा व्यवहार कैसे सुधरे,भाव कैसे सुधरे,इण बातों को सत्संगत करणेवाळा पुरुष विशेष समझता है।तो सत्संगति सबसे श्रेष्ठ साधन है।सत्संगीके लिये तो ऐसा कहा है कि "और उपाय नहीं तिरणे का सुन्दर काढ़ी है राम दुहाई। संत समागम करिये भाई।" और ऐसा साधन नहीं है।तो इसका विवेचन क्या करें,जो सत्संग करणेवाळे हैं,उनका अनुभव है। कि कितना प्रकाश मिला है सत्संग के द्वारा।कितनी जानकारी हुई है।कितनी शान्ति मिली है।कितना समाधान हुआ है।कितनी शंकाएँ,बिना पूछे समाहित हो गई है,उनका समाधान हो गया है।तो सत्संग के द्वारा बहोत लाभ होता है।हमें तो सत्संग से भोहोत (बहुत)लाभ हुआ है भाई।हमतो कहते हैं क हम सुणावें तो हमें लाभ होता है अर सुणें तो लाभ होता है।जो अनुभवी पुरुष है,जिन्होंने शास्त्रों में जो बातें लिखी है,उनका अनुभव किया है,अनुष्ठान किया है,उसके अनुसार अपना जीवन बनाया है।उनके संग से बोहोत लाभ होता है।विशेष लाभ होता है।उनकी बाणी में वो अनुभव है।जैसे,बन्दूक होती है,उसमें गोळी भरी न हो,बारूदभरा छूटे तो शब्द तो होता है,पर मार नहीं करती वो।गोळी भरी होती है तो मार करती है,छेद कर देती है।तो बिना अनुभव के बाणी है वो तो खाली बन्दूक है।शब्द तो बङा होता है पर छेद नहीं होता।और अनुभवी पुरुष की बाणी होती है,उसमें वो भरा हुआ है शीशा,जो सुननेवालों के छेद करता है- उनमें विलक्षणता ला देता है।उसके विलक्षण भाव को जाग्रत कर देता है,उद्बुद्ध कर देता है,जाग्रत कर देता है।तो अनुभव में ताकत है।वो बाहर में नहीं है।तो उनका माहात्म्य कितना है,कैसा है,इसको समझावें क्या।मैं तो ऐसा कहता हूँ (कि) एक कमाकर के धनी बनता है और एक गोद चला जाता है।तो कमाकर धनी बनने में जोर पङता है,समय लगता है फिर धनी बनता है अर गोद जाणेवाळे को क्या तो जोर पङा अर क्या समय लगा?कल तो यह कँगला अर आज लखपति।जा बैठा गोद।ऐसे सत्संगति में कमाया हुआ धन मिलता है।बरसों जिसने साधना की है,अध्ययन किया है,बिचार किया है।तो वो मार्जन की हुई बस्तु है- परिमार्जित। तो वो वस्तु सीधी-सीधी मिल ज्याती है एकदम।••• 
 

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

भगवान के दर्शन की बात।(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

भगवान के दर्शन की बात।

(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)। 


एक बालक ने श्रद्धेय  स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज से पूछा कि आपको भगवान के दर्शन हुए हैं क्या?

जवाब देते हुए (तर्क की मुद्रा में) श्री स्वामीजी महाराज बोले कि तुम अपना खजाना बताते हो क्या?

बालक समझ भी नहीं पाया और बोल भी नहीं पाया कि अब क्या कहना चाहिये। फिर किसीने बालक को वहीं रोक दिया।

श्री स्वामीजी महाराज का कहना है कि 'जब लोग अपने लौकिक धन को भी (हरेक को) बताना नहीं चाहते, बताने योग्य नहीं समझते, तो फिर अलौकिक धन, पारमार्थिक खजाना (भगवान् के दर्शन आदि ) क्या बताने योग्य है! अर्थात् हरेक को बताने योग्य नहीं है।'

लोगों को अगर कह दिया जाय कि हाँ मेरे को भगवान के दर्शन हुए हैं तो लोगों के जँचेगी नहीं, उलटे तर्क पैदा होगा। दोषदृष्टि करेंगे। (इससे उनका नुक्सान होगा)।

(लोगों को बताने से विघ्न बाधाएँ भी आती है-)।

सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ने कहा है कि भक्त प्रह्लाद की भक्ति में इतनी बाधाएँ इसलिये आयीं कि उन्होंने भक्ति को (लोगों के सामने) प्रकट कर दिया था। (अगर प्रकट न करते तो इतनी बाधाएँ नहीं आतीं)।

श्री सेठजी ने भी गुप्त रीति से ही साधन किया है और सिद्धि पायी है।

चूरू की हवेली के ऊपर कमरे में उनको चतुर्भुज भगवान विष्णु के दर्शन हुए थे।

श्री स्वामीजी महाराज ने वहाँ पधार कर वो जगह बताई थी कि यहाँ श्री सेठजी को भगवान के दर्शन हुए थे।

श्री सेठजी मुँह पर चद्दर ओढ़े सो रहे थे उस समय भगवान् ने दर्शन दिये। कह, ऊपर चद्दर ओढ़ी होने पर भी भगवान दिखलायी कैसे पड़ रहे हैं?

उन्होंने चद्दर हटा कर देखा तो भगवान वैसे ही दिखाई दिये , जैसे चद्दर के भीतर से (साफ) दीख रहे थे। बीच में चद्दर की आड़ होने पर भी भगवान के दीखने में कोई फर्क नहीं पड़ा।

श्री सेठजी कहते हैं कि ऐसे चाहे बीच में पहाड़ भी आ जाय तो भी भगवान के दीखने में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

यह बात प्रसिद्ध है कि श्री सेठजी ने कई लोगों की मौजूदगी में भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार को भगवान् के दर्शन करवाये थे।

भाईजी से जब कहा गया कि भगवान के चरण पकड़ो। तब उन्होंने चरण पकड़ने के लिये हाथ बढ़ाये , तो वो हाथ श्री सेठजी के चरणों में गये।

(कई लोगों के मन में जिज्ञासा रहती है कि ऐसे ही श्री स्वामीजी महाराज को भी भगवान् के दर्शन हुए थे क्या?

उनके लिये ये बातें काम की है) ।

आज ही एक पुराने सत्संगी सज्जन बोले कि श्री स्वामीजी महाराज ने मेरे सामने बताया है कि श्री सेठजी ने स्वामीजी महाराज से कहा कि आप अपनी भगवत्प्राप्ति (वाली सिद्धि) लोगों में प्रकट न करें तो अच्छा रहेगा ; क्योंकि (अयोग्य) लोग पीछे पड़ जाते हैं कि मेरे को भी करवादो, हमारे को भी भगवान के दर्शन करवादो आदि आदि।

(मेरे को जो भगवान के दर्शन हुए थे उसको) मैंने प्रकट कर दिया था जिसके कारण मेरे को भी मुश्किल का सामना करना पड़ा। अस्तु।

अपने को साधक मानने में हानि नहीं  है , हानि तो सिद्ध मानने में है। अपने को सिद्ध मानने में बहम भी हो सकता है पर साधक मानने में क्या बहम होगा।

जो अपने को साधक मानता है वह उन्नति करता ही चला जाता है (सिद्ध मानकर रुकता नहीं कि अब मेरे को क्या करना है,जो करना था सो तो कर लिया)।

श्री सेठजी ने कहा है (इतने महान होकर भी) श्री स्वामीजी महाराज अपने को साधक ही मानते हैं। (यह इनकी विशेषता है)।

श्री स्वामीजी महाराज बताते हैं कि मैंने श्री सेठजी से प्रार्थना की कि मेरे को सिद्धि का पता न चले अर्थात् मैं चाहता हूँ कि मेरे में (भगवत्प्राप्ति आदि) सिद्धि है,इसका मेरे को पता न चले।■

इस प्रकार पारमार्थिक लाभ गोपनीय रखने में ही फायदा है। ऐसे अधिकारी मिलने दुर्लभ हैं जिनको ऐसी रहस्य की बातें बतायी जायँ।

अधिकारी को तो महापुरुष अत्यन्त गोपनीय रहस्य भी बता देते हैं-

श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।

रामचरितमा.७। ६९(ख)।।

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मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

सत्संग के अनेक लाभ। यहाँ श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज की सत्संग से होनेवाले अनेक प्रकार के लाभ बताये गये हैं और वे लाभ हर कोई ले सकते हैं -डुँगरदास राम

                 ।।श्रीहरिः।। 

 * सत्संग के अनेक लाभ *

(यहाँ "श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज" की सत्संग से होनेवाले अनेक प्रकार के लाभ बताये गये हैं और वे लाभ हर कोई ले सकते हैं)।

● "श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज" की रिकोर्डिंग वाणीवाला "सत्संग" सुनें और "साधक- संजीवनी" आदि पुस्तकों द्वारा उनका "सत्संग" करें। "श्री स्वामीजी महाराज" के "सत्संग" में हर प्रकार के मनुष्यों को अपने- अपने काम की सामग्री मिलती है। इसलिये यह सत्संग सबके काम का है। इसमें बहुत विलक्षणताएँ भरी हुई हैं। इसमें तरह-तरह के लाभ हैं। ●

इसमें अनेक प्रकार की विशेषताएँ हैं। 


जैसे- 


१.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का यह सत्संग गीताज्ञान,  रहस्य युक्त, शास्त्र सम्मत, अनुभव सहित, युक्तियुक्त, सत- असत का विभाग बतानेवाला और तत्काल परमात्मप्राप्ति का अनुभव कराने वाला है। 


२.यह बिना कुछ किये परमात्मा की प्राप्ति करानेवाला, सरलता से भगवत्प्राप्ति करानेवाला, करणसापेक्ष तथा करणनिरपेक्ष साधन बताने वाला और करणरहित साध्य का अनुभव करानेवाला है। 


३.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग आजकल की आवश्यकता युक्त, सामयिक, रुचिकर और तरह-तरह की शंकाओं का समाधान करनेवाला है। 


४.यह संशयछेदक, दुःख मिटानेवाला, राग-द्वेष मिटानेवाला, समता लानेवाला, शोकनाशक, चिन्ता मिटानेवाला और पश्चात्ताप हरनेवाला है। 


५.यह उन्माद, डिप्रेशन, टेंशन मिटानेवाला, स्वास्थ्य ठीक करनेवाला, संसार का मोह मिटानेवाला, संसार की निःसारता बतानेवाला, चेतानेवाला, तीनों तापों का नाश करनेवाला और व्यवहार में परमार्थ की कला सिखानेवाला है। 


६.यह गर्भपात आदि बङे-बङे महापापों से बचानेवाला, मृत्यु से बचानेवाला, आत्महत्या से बचानेवाला, दुर्घटनानाशक, बुराई रहित करनेवाला और संसारमात्र् की असीम सेवा का रहस्य बतानेवाला है। 


७.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग परिवार में प्रेम से रहने की विद्या सिखानेवाला, आपसी मतभेद मिटानेवाला, खटपट मिटानेवाला, लङाई- झगङे का समाधान करनेवाला और सुख शान्ति लानेवाला है। 

८.यह गऊ, ब्राह्मण, हिन्दू और हिन्दु संस्कृति की रक्षा करनेवाला, साधकों को सही रास्ता बतानेवाला, साधू और गृहस्थों को सही मार्ग बतानेवाला और साधुता सिखानेवाला है, सज्जनता सिखानेवाला है। 


९.यह अहंता ममता मिटानेवाला, भय, आशा, तृष्णा, आसक्ति आदि मिटानेवाला, काम क्रोध आदि विकारों से छुङानेवाला और त्याग वैराग्य सिखानेवाला है। 


१०.श्री स्वामी जी महाराज का सत्संग परमात्मा का परमप्रेम प्रदान करनेवाला,भगवान् की लीला समझानेवाला, भक्ति का रहस्य बतानेवाला, भगवान् से अपनापन करानेवाला और परम प्रभुसे नित्य-सम्बन्ध जोङनेवाला है। 


११.यह भगवत्कृपा का रहस्य बतानेवाला, सगुण- निर्गुण, साकार- निराकार का रहस्य समझानेवाला,वासुदेवः सर्वम् ,  समग्ररूप भगवान् का ज्ञान करानेवाला, सबका समन्वय करनेवाला, संसार और परमात्मा का भेद मिटानेवाला है। 


१२.यह तर्कयुक्त (तर्कसहित), तात्त्विक और सत्य परमात्मा का महत्त्व बतानेवाला है।


 १३.यह गुरुज्ञान, तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान तथा कर्म का रहस्य बतानेवाला, अर्थयुक्त, सारगर्भित, सर्वहितकारी, मानवमात्र् का कल्याण करनेवाला, बङा विलक्षण और अत्यन्त प्रभावशाली है। 


१४.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग अपने प्रियजन की मृत्यु का शोक हरनेवाला, सम्पत्तिनाश से होनेवाला दुःख मिटानेवाला, दरिद्रतानाशक और व्यापार की कला सिखानेवाला है। 


१५.यह फिज़ूलखर्च मिटानेवाला, आमदनी बढानेवाला, बरकत करनेवाला, सिखानेवाला, कञ्जूसी मिटानेवाला, सदुपयोग सिखानेवाला, लक्ष्मी लानेवाला और सौभाग्य बढ़ानेवाला है। 


१६.यह मनोमालिन्य मिटानेवाला, सास-बहू में प्रेम बढ़ानेवाला, दाम्पत्य जीवन सुखमय करनेवाला, वंशवृद्धि करनेवाला, बाल बच्चों को मृत्यु से बचानेवाला और बहन बेटी की रक्षा करनेवाला है। 


१७.श्री स्वामी जी महाराज का सत्संग माता- पिता, सास- ससुर आदि की सेवा करवानेवाला, शारीरिक कष्ट मिटानेवाला, जादू-टोना, देवी-देवता, प्रेत-पितर, भूत-पिशाच आदि का भय मिटानेवाला, बहम का दुःख मिटानेवाला और मिथ्या भ्रम का निवारण करनेवाला है। 


१८.यह दोषदृष्टिनाशक, स्वभाव सुधारनेवाला, लोक- परलोक सुधारनेवाला, पापी का भी कल्याण करनेवाला और जीवन्मुक्ति प्रदान करनेवाला है। 


१९.यह भगवान् में प्रेम बढानेवाला, भगवद्धाम की प्राप्ति करानेवाला, नित्यप्राप्त की प्राप्ति करवानेवाला और आनन्द- मङ्गल करनेवाला है। 


२०.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग खान-पान शुद्ध करनेवाला, शुद्ध आचार-विचार सिखानेवाला, नियम व्रत सिखानेवाला, उत्साह बढ़ानेवाला और निराशा का दुःख मिटानेवाला है। 


२१.यह सत्संग असहाय को सहायता देनेवाला, दुःखों से व्यथित की व्यथा मिटानेवाला, भीतर का दुःख मिटानेवाला और हारेहुए को सहारा देनेवाला है। 


२२.यह सत्संग "जिसका कोई नहीं", उसको सहारा देनेवाला, गरीबों को अपनापन देनेवाला, अपनानेवाला, उदारता सिखानेवाला, कुरीति मिटानेवाला और गिरेहुए को ऊपर उठानेवाला है। 


२३.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग सुख की नींद देनेवाला, आपस का मनमुटाव मिटानेवाला, प्रेम करानेवाला, बुराई करनेवाले की भी भलाई करनेवाला, दोष मिटानेवाला, निर्वाह की चिन्ता मिटानेवाला, और आनन्द करनेवाला है। 

 

२४.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का सत्संग सद्गुण सदाचार लानेवाला, शौचाचार और सदाचार सिखाने वाला है। 

२५. यह चुप-साधन बतानेवाला, अपने स्वरूप से अहंता (मैं-पन,अहंकार) को अलग करके बतानेवाला, अपने अहंरहित स्वरूप का अनुभव करानेवाला और परमात्मतत्त्व में तत्काल स्थिति करानेवाला है। ■

 
● इस प्रकार यह सत्संग और भी अनेक प्रकार से लाभ देनेवाला है, यह तो कुछ दिग्दर्शन है। 

 इसमें और भी कई विलक्षणताएँ भरी हुई है। इससे बङा भारी लाभ होता है। यह भगवान् की बङी कृपा है जो हमलोग उस समय के सत्संग से आज भी वैसा ही लाभ ले सकते हैं। ■


:-- अधिक जानकारी के लिये यह लेख पढ़ें-

"नित्य स्तुति ( प्रार्थना ), गीतापाठ और सत्संग (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के इकहत्तर दिनों वाले सत्संग- समुदाय का प्रबन्ध )"  -
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