रविवार, 24 जनवरी 2016

गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका थे।

                        ।।श्री हरि:।।

गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका थे।

कृपया ध्यान दें-

गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका थे,वो गीताप्रेसके उत्पादक,जन्मदाता,संस्थापक,संरक्षक आदि सब कुछ थे।यह बात श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजने बार-बार कही है।

कईलोग इस वास्तविक बातको जानते नहीं हैं।कईलोग तो संस्थापक भाईजीको मानने लग गये हैं तथा कई लेखक तो ऐसे लेख लिखकर प्रकाशित भी करा चूके हैं,जिससे लोगोंमें झूठा प्रचार हो रहा है।सच्चीबात जाननेके लिये कृपया यह लेख पढें-

महापुरुषोंके कामका,नामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें।

(रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें - )

एक बारकी बात है कि श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज गीताप्रेस गोरखपुरमें विराजमान थे |

उन दिनोंमें एक शोधकर्ता अंग्रेज-भाई गीताप्रेस गोरखपुरमें आये | उन्होने सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दारके विषयमें कई बातें पूछीं , जिनके उत्तर श्रीस्वामीजी महाराजने दे दिये |

श्री महाराजजीकी बातोंसे उस अंग्रेज-भाईके समझमें आया कि गीताप्रसके संस्थापक तो सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका है (उन्होने संस्थापक भाईजीको समझ रखा था ) | अंग्रेज-भाईने बताया कि गीताप्रेसके संस्थापक भाईजी थे |

उनसे पूछा गया कि कौन कहता है? अर्थात् यह बात किस आधार पर कहते हो?

तब उस अंग्रेज-भाईने गीतावाटिकामें जानेकी, वहाँ पूछनेकी और उत्तर पानेकी बात बताते हुए अखबारकी कई कटिंगें दिखायी कि ये देखो अखबारमें भी यह बातें लिखि है( कि गीताप्रसके संस्थापक भाईजी थे;उन्होने और भी ऐसे लिखे हुए कई कागज बताये )|

ये सब देख-सुनकर श्री महाराजजीको लगा कि ऐसे तो ये श्रीसेठजीका नाम ही उठा दैंगे | (श्री महाराजजीने अंग्रेजको समझा दिया कि गीताप्रेसके संस्थापक श्री सेठजी ही थे) |

तबसे श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज अपने सत्संग-प्रवचनोंमें भी यह बात बताने लग गये कि गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ही थे |

प्रवचनोंमें जब-जब श्री सेठजीका नाम लेते , तो नाममें गीताप्रेसके संस्थापक,संरक्षक,संचालक,उत्पादक,सबकुछ आदि शब्द जोड़कर बोलते थे और सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका  गीताप्रेसके संस्थापक,संचालक,संरक्षक,उत्पादक,पिता,जन्मदाता आदि सबकुछ थे - ऐसा बताते थे |

श्रीमहाराजजीकी यह चेष्टा थी कि सब लोग ऐसा ही समझें और दूसरोंको भी समझायें।

उन्होने कल्याण-पत्रिकामें भी यह लिखवाना शुरु करवा दिया कि गीताप्रेसके संस्थापक,संरक्षक आदि सबकुछ सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका है |

इस घटनासे पहले ऐसा नहीं होता था। श्री सेठजी अपना प्रचार नहीं करते थे , उनके अनुयायी भी नहीं करते थे; इसलिये श्रीसेठजीका नाम तो छिपा रहा और लोगोंने उस जगह भाईजीका नाम प्रकट कर दिया , जो बिल्कुल असत्य बात थी |

अगर श्री स्वामीजी महाराज ऐसा नहीं करते , तो श्री सेठजीका नाम और भी छिपा रह जाता और असत्यका प्रचार होता |

ऐसे महापुरुषोंका नाम छिप जाता कि जिनको याद करनेसे ही कल्याण हो जाय |

वो खुद तो अपना नाम चाहते नहीं थे, वो तो स्वयंकी लिखि पुस्तकों पर भी अपना नाम लिखना नहीं चाहते थे
[गीताप्रेससे अर्थसहित गीताजी(साधारण भाषा टीका) छपी है,परन्तु  श्री सेठजीने उसमें अपना नाम नहीं दिया है। आज भी उसमें नाम नहीं लिखा जा रहा है ]।

श्रीसेठजीसे पुस्तकों पर स्वयंका नाम लिखनेकी प्रार्थना की गई कि आपका नाम लिखा होगा , तो लोग पढेंगे; तब उन्होने स्वीकार किया और उनकी पुस्तकों पर उनका नाम दिया जाने लगा |

इस प्रकार श्रीसेठजी अपना नाम नहीं चाहते थे और उनके अनुयायी भी इसमें साथ देते थे ; जिसका परिणाम यह हुआ कि सत्य छिप गया और झूठका प्रचार होने लग गया।

अगर श्रीसेठजीका नाम छिपा रहता तो हालात कुछ और ही हुई होती ; परन्तु श्रीस्वामीजी महाराजने यह कमी समझली और श्रीसेठजीका नाम सामने लै आये , जिससे जगतका महान उपकार हो गया |

यह उन महापुरुषोंकी हमलोगों पर भारी दया है ; यह हमलोगोंको क्रियात्मक उपदेश है कि महापुरुष अपना प्रचार स्वयं नहीं करते;यह तो हम लोगोंका कर्तव्य है कि उनका प्रचार हमलोग करें |

श्रीस्वामीजी महाराज बताते थे कि एक बार जब 'कर्णवास' नामक स्थानमें श्रीसेठजीका सत्संग चल रहा था, तो भाईजी गीताप्रेस,कल्याण आदिका काम छोड़कर , बींटा(बिस्तर) बाँधकर वहाँ आ गये कि मैं तो भजन करुँगा ; भगवानका प्रचार मनुष्य क्या कर सकता है |

तब श्री सेठजीने कहा कि भगवानका प्रचार करना खुद भगवानका काम नहीं है,यह तो भक्तों(हमलोगों)का काम है (वापस जाकर भगवानका काम करो,प्रचार करो)|तब वो वापस जाकर काम करने ले।

इसी प्रकार महापुरुषोंका और उनकी वाणीका प्रचार करना स्वयं महापुरुषोंका काम नहीं है , यह तो उनके अनुयायियोंका काम है,भक्तोंका काम है | अगर वे भी नहीं करेंगे तो कौन करेगा? उनका नाम वे नहीं लेंगे तो कौन लेगा?

इसलिये यह भक्तोंका(-हमारा ) कर्तव्य है कि महापुरुषोंका,उनकी वाणीका और उनकी पुस्तकोंका दुनियाँमें प्रचार करें |

हाँ,उनके प्रचारकी औटमें अपना स्वार्थ सिध्द न करें |

जैसे-

अपनी कथा-प्रचारमें,पत्रिकामें,व्यापारमें या दुकान आदिमें
उन महापुरुषोंका नाम लिखावादें; (तो) इससे हमारा प्रचार होगा,हमारी दुकानका प्रचार होगा, बिक्री बढेगी,लोग हमें उनका अनुयायी समझकर हमारा आदर करेंगे,विश्वास करेंगे,ग्राहक ज्यादा हो जायेंगे,हमारे आमदनी बढेगी,हमारे श्रोता ज्यादा आयेंगे,हमारी बात भी कीमती हो जायेगी,हमारी मान-बड़ाई होगी,
लोग हमारेको उनका विशेष आदमी मानेंगे आदि आदि ।

ऐसी स्वार्थकी भावनासे , इस प्रकार स्वार्थ सिध्द करनेके लिये महापुरुषोंके नामका दुरुपयोग न करें और कोई करता हो तो उसको भी यथासाध्य रोकें।

सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका और श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजको सत्संग बड़ा प्रिय था ; उनकी कोशीश थी कि ऐसा सत्संग आगे भी चलता रहे|

इसलिये उनकी पुस्तकों द्वारा सत्संग करें ,दुकानपर पुस्तकें रखें और लोगोंको कोशीश करके बतावें तथा देवें।

पुस्तकें पढनेके लिये देवें और पढलेनेपर वो पुस्तक वापस लेकर दूसरी देवें।

पुस्तक पढकर लोगोंको सुनावें,उनकी रिकोर्ड की हुई -वाणी द्वारा सत्संग करें,सभा करके उनकी रिकोर्ड-वाणी लोगोंको सुनावें।

अपने सत्संग,कथा-प्रवचनोंमें भी महापुरुषोंकी रिकोर्ड-वाणी लोगोंको सुनावें,भागवत-सप्ताहके समान उनकी गीता 'तत्त्व-विवेचनी' गीता 'साधक-संजीवनी' आदि ग्रंथोंका आयोजन करके लोगोंको सुनावें |

जैसे कथाकी सूचना लिखवाते हैं और सूचना देते हैं कि अमुक दिन भागवत-कथा होगी,आप पधारें; इसी प्रकार महापुरुषोंकी वाणीकी, पुस्तकोंकी सुचना लिखवायें और सूचना देवें तथा समयपर वाणी और पुस्तक ईमानदारीसे सुनावें |

जिस प्रकार श्रीस्वामीजी महाराजके समय प्रातः प्रार्थना,गीता-पाठ (गीताजीके करीब दस श्लोकोंका पाठ) और सत्संग होता था; वैसे ही आज भी प्रार्थना,गीता-पाठ करें और उनकी रिकोर्डिंगवाणी द्वारा सत्संग अवश्य सुनें।

वहाँ महापुरुषोंका नि:स्वार्थभावसे नाम अवश्य लिखवावें कि अमुक महापुरुषोंकी वाणी या पुस्तक सुनायी जायेगी,इसी प्रकार नाम लेकर सूचना देनी चाहिये |

ऐसा न हो कि हम उन संतोंका नाम नहीं लिखेंगे और दूसरा कोई लिखेगा , तो हम मना करेंगे; क्योकि वो संत मना करते थे।

इसमें थोड़ी-सी बात यह समझनेकी है कि वो मना किनको करते थे? कि जो निजी स्वार्थके कारण महापुरुषोंके नामका दुरुपयोग करते हैं (जैसा कि ऊपर बताया जा चूका है) , उनको मना करते थे |

इसके अलावा नाम लिखवाना मना नहीं था |अगर मनाही होती तो श्रीस्वामीजी महाराज श्रीसेठजीका नाम क्यों लेते ? और क्यों लिखवाते? (जैसा कि ऊपर प्रसंग लिखा जा चूका है ) |

अगर हम संसारको न तो महपुरुषोंके विषयमें कुछ बतायेंगे और न उनकी पुस्तकें बतायेंगे,तथा न उनकी रिकोर्ड-वाणीके विषयमें बतायेंगे और दूसरोंको मना करेंगे तो हम बड़े दोषी हो जायेंगे,महापुरुषोंका नाम उठा देनेवालों जैसे हो जायेंगे; क्योंकि इससे संसारमें महापुरुषोंका नाम छिप जायेगा।

लोग न तो महापुरुषोंको जान पायेंगे और न उनकी पुसतकें पढ पायेंगे,न उनकी रिकोर्ड-वाणी सुन पायेंगे और बेचारे लोग दूसरी जगह भटकेंगे।

महापुरुषोंने दुनियाँके लिये जो प्रयास किया था वो सिमिटकर कहीं पड़ा रह जायेगा।

इस प्रकार हम महापुरुषोंके प्रयासमें सहयोगी न होकर उलटे बाधा देनेवाले हो जायेंगे,जो न तो भगवानको पसन्द है और न  संत-महात्माको ही पसन्द है।
हम सत्यको छिपानेमें सहयोगी होंगे तथा झूठके प्रचारमें सहयोगी बनेंगे जैसा कि ऊपर लिखा जा चूका - गीताप्रेसके संसथापक श्री सेठजी थे यह सत्य छिप गया और ...झूठका प्रचार हो गया।

इसलिये संसारमें और घरमें स्वयं अगर कोई जल्दी तथा सुगमता-पूर्वक सुख-शान्ति चाहे, कल्याण चाहे तो उपर्युक्त प्रकारसे महापुरुषोंकी पुस्तकें पढें और पढावें,सुनें और सुनावें।

उनकी रिकोर्डिंग-वाणी सुनें और सुनावें तथा महापुरुषोंके,संतोंके चरित्र सुनें और सुनावें,पढें और पढावें ||

सीताराम सीताराम
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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी
श्रीरामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

सुख चाहते हो तो भगवानको याद करो... -श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

                      ।।श्रीहरि:।।

सुख चाहते हो तो भगवानको याद करो...
-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

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सुख चाहते हो तो भगवानको याद करो,भगवानका नाम लो,भगवानमें तल्लीन होकर लग जाओ। सुख सबही-रिध्दि और सिध्दि जाके हाजर खड़ी है आगे. रिध्दि और सिध्दि आपकी गर्ज करेगी,चीजें आपकी गर्ज करैगी।आप चीजेंकी (चीजोंकी) गर्ज करते हो तो चीजें अगाड़ी भागेगी,आप दूर रहोगे,आपको मिलेगी नहीं,पूरी मिलेगी नहीं अर(और) निश्चिन्त हो जाओ और भगवान में लग जाओ तो सब-भगवान भी मिलेंगे अर संसार भी मिलेगा अर सगली चीजें मिलेगी अर सब चीज मिलेगी।मौज हो जायेगी।... -श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके दि.19980801_0518 बजेवाले प्रवचन का अंश (यथावत)।
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बुधवार, 13 जनवरी 2016

श्रीरामेश्वरम्-स्थापनाके समय वहाँ श्रीसीताजी कैसे आयीं? (जानें-)

                      ।।श्रीहरि:।।

प्रश्न-

श्रीरामेश्वरम्-स्थापनाके समय वहाँ श्रीसीताजी कैसे आयीं?

उत्तर-

श्री रामचरितमानस में लिखा है कि भगवान श्री रामचन्द्रजीने सागरपर सेतू बँधवाया और भगवान श्री रामेश्वरम् (शिवलिङ्ग)की स्थापना की।

फिर लंका जाकर,रावणको मारकर पुष्पकविमान द्वारा अयोध्या पधारे।

आकाशमार्गसे चलते-चलते श्री रामचन्द्रजी ने सीताजीको रणभूमि दिखाते हुए सेतुबन्ध रामेश्वरम् के दर्शन भी करवाये,जिसका संकेत वाल्मीकि रामायणमें भी है।

लंकासे लौटते समय श्री रामजीने रामेश्वरम् में दो शिवलिंगोंकी स्थापना करवायी थीं।

श्री हुमामानजी महाराज काशीजी जाकर दो शिवलिंग लाये थे;परन्तु मूहूर्तका समय न निकल जाय- इस कारण श्री रामजीने श्रीसीताजीके हाथोंसे बनाया हुआ बालूरेतका शिवलिंग स्थापित कर दिया।

जब श्रीहनुमानजी महाराज काशीजीसे शिवलिंग लेकर लौटे तो देखा कि शिवलिंग की स्थापना पहले ही हो चूकी है,तब वो बोले कि अब मैं इन शिवलिंगोंका क्या करूँ,(आपने तो पहले ही बालुकामय शिवलिंग की स्थापना करवादी)।

मैं तो आपकी आज्ञासे ही काशीजी जाकर और तपस्या करके तथा शिवजीके कृपा करनेपर ये शिवलिंग लाया हूँ - एक तो आपके लिये और दूसरा अपने-स्वयं पूजा करनेके लिये।

तब श्री रामजी ने कहा कि यह  रेतसे बना हुआ-बालुकामय शिवलिंग आप हटादें,तो उसकी जगह आपके द्वारा लाया गया शिवलिंग स्थापित कर देंगे।

तब हनुमानजी ने उसको हटानेकी कोशीश की;लेकिन हटा नहीं सके।

हनुमानजी महाराजने अपनी शक्तिशालिनी पूँछ लपेटकर उस पूँछसे शिवलिंगको बाँधा और उससे खींच कर हटाना चाहा तो भी (आदिशक्ति सीताजीके कर-कमलों द्वारा स्थापित) वो शिवलिंग हटा नहीं सके, उलटे हनुमानजी की पूँछ टूट गई और वो गिर गये,तथा मूर्छित हो गये।

तब श्रीरामजीने (लक्ष्मण-मूर्छाके अवसरके समान) बङा विलाप किया।

मूर्छा दूर होनेपर हनुमानजी महाराज के द्वारा लाया गया शिवलिंग अलगसे स्थापित किया गया,जिसका नाम है-हनुमदीश्वर।

रामेश्वरम् के दर्शन कर लेने पर भी जबतक हनुमदीश्वरके दर्शन न किये जायँ तबतक रामेश्वरम्-दर्शनका फल नहीं मिलता।  ...

पूरी कथा पढनी हो तो कृपया आनन्द रामायण और पद्मपुराण में पढें।

ऐसा एक चित्र भी प्रचलित है जिसमें शिवलिंग के पासमें राम-लक्ष्मणके सहित सीताजी भी मौजूद है।

इस प्रसंगको लेकर (और चित्र को देखकर) लगता है कि किसीने कल्पना करली कि यहाँ सीताजी कहाँसे आ गई? उनको तो रावण ले गया था।अभी तो रामजी लंकामें पहुँचे ही नहीं।सीताजी कैसे आयी?

तब अनुमान लगा लिया गया कि उनको लंकासे यहाँ रावण लेकर आया है।

बहुतसे लोगों को तो यह भी पता नहीं है कि श्री रामचन्द्रजीने सीतासहित लंकासे लौटते समय भी शिवलिंग की स्थापना की थी।

इसलिये (चित्रमें सीताजीको राम-लक्ष्मणके साथमें देखकर) उस कल्पित-कथाको ही सही मानकर समाधान कर लेते हैं।

उनको समझना चाहिये कि यह प्रसंग लंकासे लौटते वक्तका है,लंका जाते समयका नहीं।

(इस कल्पनामें रावणको भी महिमान्वित करते हुए पण्डित बताया गया है।

परन्तु यह शिष्टजनानुमोदित नहीं है और न ही रामायण और रामजीके स्वभावके अनुकूल है।

चाहे कोई कवि भी कल्पना करके क्यों न लिखदें; परन्तु इसको सही नहीं माना जा सकता।

बात वही सही मानी जायेगी जो आर्षग्रंथोंमें कही गयी हो और जिनका सन्त-महात्माओंने अनुमोदन किया हो)।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजने कल्याण के दो विशेषांक निकाले हैं-भगवत्कृपा-अंक और हनुमान-अंक।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजने (विशेषतासे) दो वर्ष कल्याणके सम्पादन का काम किया था।

उस समय भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दारके नामानुसार  हनुमान-अंक और सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दकाके नामानुसार भगवत्कृपा-अंक निकाला था।

(जय दयालमें)'दया' शब्द का अर्थ होता है 'कृपा' और उस कृपाके अनुसार नाम रखा गया 'भगवत्कृपा-अंक'।

ये दोनों ग्रंथ गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित हुए हैं।

हनुमान-अंक में हनुमानजी महाराज का चरित्र विस्तारसे वर्णित है।उसमें और भी कई बातें हैं।जिज्ञासु को एक बार जरूर देखना चाहिये।

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भजन कैसे बढे?(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                       ।।श्रीहरि।।

भजन कैसे बढे?

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजने दि.
19980604/1600
बजेके प्रवचनमें बताया कि आप सच्चे हृदयसे भगवानके भजनमें लग जाओ तो आपके लोक-परलोक सुधर जायेंगे।आपको सुख होगा और लोगोंको भी सुख होगा।आप मुक्त हो जाओगे, आप बन्धनसे छूट जाओगे तो संत-महात्मा राजी हो जायेंगे,प्रसन्न हो जायेंगे और उन (संत-महात्माओं)की खुशी आपका भजन बढायेगी।उनकी प्रसन्नता आपका कल्याण करेगी।

इस प्रवचनमें ऐसी और भी कई बातें बताईं हैं।
जाननेके लिये कृपया यह प्रवचन सुनें।

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शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

भजनके लिए प्रेरणा- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके 19980311/1600 बजेवाले प्रवचनसे।।

                      ।।श्रीहरि।।

भजनके लिए प्रेरणा

(- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

के 19980311/1600 बजेवाले प्रवचनसे)।।

सज्जनों!मानवजीवन मिल गया है भगवानकी कृपासे,मनुष्यशरीर मिल गया,भाई हो चाहे बहन हो,अगाङी चलो फिर,पीछे पैर नहीं रखना है

(जैसे,सामनेसे तेज हवा आती है तो धूँआ पीछे आता है-लौटता है,पर अग्नि तो अगाङी ही चलती है) ।
...
दावानल बन दहत तब वायु सखा बन जात।
सोई दीप कृश देखिकै बैरी होत बिख्यात।।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके
19980311/1600 बजेवाले प्रवचनसे।।

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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

'संतवेषमें ज्ञानदाता'(समूह)।

                       ।।श्रीहरि।।

'संतवेषमें ज्ञानदाता'(समूह)।

इस समूहमें उन्हीके नम्बर सम्मिलित किये गये हैं जो संतवेषमें संत हैं।

जो गृहस्थवेषमें संत हैं,उनके नं.इस समूहमें सम्मिलित नहीं है('गृहस्थवेषमें ज्ञानदाता' समूह बनाना हो तो विचार किया जा सकता है)।

इस समूह('संतवेषमें ज्ञानदाता')का उध्देश्य यह है कि संत-महात्मा भी ज्ञानका आदान-प्रदान करें और एक-दूसरेको समझते रहें तथा इसमें जो सामग्री संत-महात्मा भेजें,उनमेंसे चुनकर अन्य लोगोंको भेजी जाय।

भेजी जानेवाली सामग्री में भेजनेवाले संतोंका नाम सामिल किया जा सकता है (कि यह सामग्री अमुक संत द्वारा भेजी हुई आयी है)।

मेरे पास जिन-जिन संतोंके नं.थे,उन्हीको इस समूहमें सामिल किया है।अगर किन्ही संतोंके नं.इसमें और जोङने हों तो कृपया परिचय सहित उन संतोंके नम्बर भेजनेका परिश्रम करावें।

सब संतोंको सादर प्रणाम।
सप्रेम हरिस्मरण और नमन।

डुँगरदास राम
सीताराम सीताराम

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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

डुँगरदासके ब्लॉगका पता- http://dungrdasram.blogspot.com/

डुँगरदासके ब्लॉगका पता-

■ सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
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