शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

साधक-संजीवनी सप्ताह। लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। पन्ना २ (पृष्ठ २ और ३)।

॥श्रीहरिः॥


गीता साधक-संजीवनी सप्ताह 

(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) 

प्रिय भक्तजनों ! 

परम पिता परमेश्वर के मड़्गलमय विधान एवं सन्त-महात्माओं की असीम अनुकम्पा से संत श्रीडूँगरदासजी महाराज का ग्राम मण्डावरा, जिला सीकर (राजस्थान,भारत) में "गीता साधक-संजीवनी सप्ताह" (४ से ५ बजे) का आयोजन होने जा रहा है। 

अत: इस आयोजन में सपरिवार एवं इष्ट मित्रों सहित पधार कर सत्संग का लाभ उठावें।

------------नित्य कार्यक्रम ---------------

नित्य-स्तुति व सत्संग-प्रवचन 

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की वाणी द्वारा)  :- 

प्रात:५.०० बजे से लगभग ६.०० बजे।

गीता साधक-संजीवनी 

(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)  

सत्संग समय :-

 दोपहर ३.०० बजे से लगभग ५.०० बजे।

विशेष-

 1. कार्यक्रम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की सूचना सत्संग के समय दे दी जायेगी।

2. बाहर से पधारने वाले सत्संगियों के लिये आवास एवं भोजन की यथासाध्य व्यवस्था रहेगी।

-: अनुरोध :-  

कृपया (इस के आगे वाले दूसरे पन्ने पर) श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लिखे "मेरे विचार" अवश्य पढ़ें तथा दूसरों को भी पढावें। 

-

★-: मेरे विचार :-★

( श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक त्तत्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा त्तत्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी) ही साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी । गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ ।

६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने,जय-जयकार करने,माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ ।

७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ ।

८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ ।

९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।

१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्व देता हूँ ।

११. रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।

१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है ।

१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ ।

१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।

----श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

ये (मेरे विचार) ''एक संतकी वसीयत'' (प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२,१३ ) में भी छपे हुए  हैं।
__________________________
इस "मेरे विचार" वाले पन्ने को अलग करके (काटकर) जीवन भर अपने पास रख सकते हैं। 

------------------------------------------------------------------
पता-
सत्संग-संतवाणी. 
श्रध्देय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

 

साधक-संजीवनी सप्ताह। लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। पन्ना १ (पृष्ठ १ और ४)।

॥श्रीहरिः॥


गीता साधक-संजीवनी सप्ताह 

(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) 

प्रिय भक्तजनों ! 

परम पिता परमेश्वर के मड़्गलमय विधान एवं सन्त-महात्माओं की असीम अनुकम्पा से संत श्रीडूँगरदासजी महाराज का ग्राम मण्डावरा, जिला सीकर (राजस्थान,भारत) में "गीता साधक-संजीवनी सप्ताह" (४ से ५ बजे) का आयोजन होने जा रहा है। 

अत: इस आयोजन में सपरिवार एवं इष्ट मित्रों सहित पधार कर सत्संग का लाभ उठावें।

------------नित्य कार्यक्रम ---------------

नित्य-स्तुति व सत्संग-प्रवचन (श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की वाणी द्वारा)  :- प्रात:५.०० बजे से लगभग ६.०० बजे।

गीता साधक-संजीवनी

 (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)  

सत्संग समय :- 

दोपहर ३.०० बजे से लगभग ५.०० बजे।

विशेष- 

1. कार्यक्रम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की सूचना सत्संग के समय दे दी जायेगी।

2. बाहर से पधारने वाले सत्संगियों के लिये आवास एवं भोजन की यथासाध्य व्यवस्था रहेगी।

-: अनुरोध :-  

कृपया (इस के आगे वाले दूसरे पन्ने पर) श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लिखे "मेरे विचार" अवश्य पढ़ें तथा दूसरों को भी पढावें। 

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★-: मेरे विचार :-★

( श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक त्तत्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा त्तत्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी) ही साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी । गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ ।

६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने,जय-जयकार करने,माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ ।

७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ ।

८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ ।

९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।

१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्व देता हूँ ।

११. रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।

१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है ।

१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ ।

१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।

----श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

ये (मेरे विचार) ''एक संतकी वसीयत'' (प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२,१३ ) में भी छपे हुए  हैं।
__________________________
इस "मेरे विचार" वाले पन्ने को अलग करके (काटकर) जीवन भर अपने पास रख सकते हैं। 

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पता-
सत्संग-संतवाणी. 
श्रध्देय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

 

[बेनर-] साधक-संजीवनी सप्ताह (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) ।

॥श्रीहरिः॥

 गीता साधक-संजीवनी सप्ताह 

(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) 

प्रिय भक्तजनों ! 

परम पिता परमेश्वर के मड़्गलमय विधान एवं सन्त-महात्माओं की असीम अनुकम्पा से संत श्रीडूँगरदासजी महाराज का ग्राम मण्डावरा, जिला सीकर (राजस्थान,भारत) में "गीता साधक-संजीवनी सप्ताह" (४ से ५ बजे) का आयोजन होने जा रहा है। 

अत: इस आयोजन में सपरिवार एवं इष्ट मित्रों सहित पधार कर सत्संग का लाभ उठावें।

------------नित्य कार्यक्रम ---------------

नित्य-स्तुति व सत्संग-प्रवचन (श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की वाणी द्वारा)  :- प्रात:५.०० बजे से लगभग ६.०० बजे।

गीता साधक-संजीवनी (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)  सत्संग समय :- दोपहर ३.०० बजे से लगभग ५.०० बजे।

विशेष-

 1. कार्यक्रम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की सूचना सत्संग के समय दे दी जायेगी।

2. बाहर से पधारने वाले सत्संगियों के लिये आवास एवं भोजन की यथासाध्य व्यवस्था रहेगी।

-: अनुरोध :-  

कृपया (इस के आगे वाले दूसरे पन्ने पर) श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लिखे "मेरे विचार" अवश्य पढ़ें तथा दूसरों को भी पढावें। 

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★-: मेरे विचार :-★

( श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक त्तत्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा त्तत्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी) ही साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी । गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ ।

६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने,जय-जयकार करने,माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ ।

७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ ।

८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ ।

९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।

१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्व देता हूँ ।

११. रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।

१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है ।

१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ ।

१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।

----श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

ये (मेरे विचार) ''एक संतकी वसीयत'' (प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२,१३ ) में भी छपे हुए  हैं।
__________________________
इस "मेरे विचार" वाले पन्ने को अलग करके (काटकर) जीवन भर अपने पास रख सकते हैं। 

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पता-
सत्संग-संतवाणी. 
श्रध्देय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

 

गीता साधक-संजीवनी सप्ताह (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                           ॥श्रीहरिः॥

गीता साधक-संजीवनी सप्ताह

(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)

प्रिय भक्तजनों !

परम पिता परमेश्वर के मड़्गलमय विधान एवं सन्त-महात्माओं की असीम अनुकम्पा से संत श्रीडूँगरदासजी महाराज का ग्राम मण्डावरा, जिला सीकर (राजस्थान,भारत) में "गीता साधक-संजीवनी सप्ताह" (४ से ५ बजे) का आयोजन होने जा रहा है।

अत: इस आयोजन में सपरिवार एवं इष्ट मित्रों सहित पधार कर सत्संग का लाभ उठावें।

------------नित्य कार्यक्रम ---------------

नित्य-स्तुति व सत्संग-प्रवचन

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की वाणी द्वारा)  :-

प्रात:५.०० बजे से लगभग ६.०० बजे।

गीता साधक-संजीवनी

(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) 

सत्संग समय :-

दोपहर ३.०० बजे से लगभग ५.०० बजे।

विशेष-

1. कार्यक्रम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की सूचना सत्संग के समय दे दी जायेगी।

2. बाहर से पधारने वाले सत्संगियों के लिये आवास एवं भोजन की यथासाध्य व्यवस्था रहेगी।

-: अनुरोध :- 

कृपया (इस के आगे वाले दूसरे पन्ने पर) श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के लिखे "मेरे विचार" अवश्य पढ़ें तथा दूसरों को भी पढावें।

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★-: मेरे विचार :-★

( श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक त्तत्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा त्तत्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी) ही साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी । गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ ।

६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने,जय-जयकार करने,माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ ।

७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ ।

८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ ।

९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।

१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्व देता हूँ ।

११. रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।

१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है ।

१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ ।

१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।

----श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

ये (मेरे विचार) ''एक संतकी वसीयत'' (प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२,१३ ) में भी छपे हुए  हैं।
__________________________
इस "मेरे विचार" वाले पन्ने को अलग करके (काटकर) जीवन भर अपने पास रख सकते हैं।

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पता-
सत्संग-संतवाणी. 
श्रध्देय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

 

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

बिगड़े वाक्य और चित्र इस श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के सत्संग वाले समूहमें कृपया न भेजें।

                    ॥श्रीहरिः॥

बिगड़े वाक्य और चित्र  इस (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के) सत्संग वाले समूहमें कृपया न भेजें।

ये जो चित्रों पर श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के नाम से किसी ने कलाकारी और रंग देकर वाक्य बना कर अनधिकार चेष्टा की है - यह ठीक नहीं है।

इनमें श्री स्वामीजी महाराज की भाषा के अनुसार वाक्य भी नहीं है, बिगड़ गये हैं और अधूरे हैं।

  जिन चित्रों पर ये काँट छाँट की गई है, वे चित्र भी असली नहीं रहे-बिगड़ गये हैं।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के जिन लेखों और बातों में किसी पुस्तक या प्रवचन आदि का प्रमाण लिखा हुआ नहीं हो, तो वो हमें स्वीकार नहीं है। 

विश्वास करने लायक बात वही है जो किसी पुस्तक या प्रवचन से लेकर लिखी गयी हो और वो ही हमें स्वीकार है ; अन्य नहीं।

इसलिये  इन वाक्यों वाले चित्र कृपया इस श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के सत्संग वाले समूहमें न भेजें। 

{कोटेशन, सत्संग वाक्य बनाने वाले जो हैं,उन्होंने क्या पता कि किसी पुस्तक से लेकर लिखा है या अपने अनुमान से लिखा है?
आजकल ऐसी प्रवृत्ति देखने में आती है कि वाणी तो हो किसी और की तथा उसपर नाम लिख देते हैं किसी और का।
ऐसे ही कोई अपने मनसे गढ़कर लिख देते हैं और उसपर नाम किसी ग्रंथ या संत का लिख देते हैं। ऐसे कोई भी कुछ लिखदे,क्या पता लगे?
जिस वाणी का पता ठिकाना नहीं, उसका और ऐसी रिवाज का प्रचार करना उचित नहीं लगता।

वाट्स एप्प पर भेजे गये ओडियो- प्रवचनों की ऊपर लिखी तारीख और प्रवचन का विषय मिट जाता है। इसलिये ओडियो भेजने पर तारीख लिखना लाभदायक रहता है। उसको देखकर लोग अपने पास संग्रहीत प्रवचनों में से सुन लेते हैं या उस प्रवचन का विषय देखकर उनको यह तै करने में सहायता मिलती है कि यह हमारे सुना हुआ है या नहीं? अथवा यह सुनें या नहीं।
कई लोग वाट्स एप्प पर भेजे गये प्रवचनों को डाउनलोड नहीं करते हैं।
उनको तारीख और विषय देखने पर प्रवचन को डाउनलोड करने और सुनने की प्रेरणा मिलती है}। 

अधिक जानने के लिए कृपया इस पते (ठिकाने) पर देखें -

महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें -

http://dungrdasram.blogspot.in/2014/01/blog-post_17.html?m=1

संत-वाणी यथावत रहने दें,संशोधन न करें|

('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की वाणी और लेख यथावत रहने दें,संशोधन न करें)।

http://dungrdasram.blogspot.com/2014/12/blog-post_30.html?m=1

बुधवार, 21 सितंबर 2016

भगवान के दर्शन की बात।(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                       ॥श्रीहरिः॥

भगवान के दर्शन की बात।

(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

एक बालक ने श्रध्देश्रद्धेय  स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज से पूछा कि आपको भगवान के दर्शन हुए हैं क्या?

जवाब देते हुए तर्क की मुद्रा में श्री स्वामीजी महाराज बोले कि तुम अपना खजाना बताते हो क्या?

बालक समझ भी नहीं पाया और बोल भी नहीं पाया कि अब क्या कहना चाहिये। फिर किसीने बालक को वहीं रोक दिया।

श्री स्वामीजी महाराज का कहना है कि 'जब लोग अपने लौकिक धन को भी (हरेक को) बताना नहीं चाहते, बताने योग्य नहीं समझते, तो फिर अलौकिक धन, पारमार्थिक खजाना (भगवान् के दर्शन आदि ) बताने योग्य है! अर्थात् हरेक को बताने योग्य नहीं है।' 

लोगों को अगर कह दिया जाय कि हाँ मेरे को भगवान के दर्शन हुए हैं तो लोगों के जँचेगी नहीं, उलटे तर्क पैदा होगा। दोषदृष्टि करेंगे। (इससे उनका नुक्सान होगा)।

(लोगों को बताने से विघ्न बाधाएँ भी आती है-)।

सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ने कहा है कि भक्त प्रह्लाद की भक्ति में इतनी बाधाएँ इसलिये आयीं कि उन्होंने भक्ति को (लोगों के सामने) प्रकट कर दिया था। (अगर प्रकट न करते तो इतनी बाधाएँ नहीं आतीं)।

श्री सेठजी ने भी गुप्त रीति से ही साधन किया है और सिद्धि पायी है।

चूरू की हवेली के ऊपर कमरे में उनको चतुर्भुज भगवान विष्णु के दर्शन हुए थे।

श्री स्वामीजी महाराज ने वहाँ पधार कर वो जगह बताई थी कि यहाँ श्री सेठजी को भगवान के दर्शन हुए थे।

श्री सेठजी मुँह पर चद्दर ओढ़े सो रहे थे उस समय भगवान् ने दर्शन दिये। कह, ऊपर चद्दर ओढ़ी होने पर भी भगवान दिखलायी कैसे पड़ रहे हैं?

उन्होंने चद्दर हटा कर देखा तो भगवान वैसे ही दिखाई दिये , जैसे चद्दर के भीतर से (साफ) दीख रहे थे। बीच में चद्दर की आड़ होने पर भी भगवान के दीखने में कोई फर्क नहीं पड़ा।

श्री सेठजी कहते हैं कि ऐसे चाहे बीच में पहाड़ भी आ जाय तो भी भगवान के दीखने में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

यह बात प्रसिद्ध है कि श्री सेठजी ने कई लोगों की मौजूदगी में भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार को भगवान् के दर्शन करवाये थे।

भाईजी से जब कहा गया कि भगवान के चरण पकड़ो। तब उन्होंने चरण पकड़ने के लिये हाथ बढ़ाये , तो वो हाथ श्री सेठजी के चरणों में गये।

(कई लोगों के मन में जिज्ञासा रहती है कि ऐसे ही श्री स्वामीजी महाराज को भी भगवान् के दर्शन हुए थे क्या?

उनके लिये ये बातें काम की है) ।

आज ही एक पुराने सत्संगी सज्जन बोले कि श्री स्वामीजी महाराज ने मेरे सामने बताया है कि श्री सेठजी ने स्वामीजी महाराज से कहा कि आप अपनी भगवत्प्राप्ति (वाली सिद्धि) लोगों में प्रकट न करें तो अच्छा रहेगा ; क्योंकि (अयोग्य) लोग पीछे पड़ जाते हैं कि मेरे को भी करवादो, हमारे को भी भगवान के दर्शन करवादो आदि आदि।

(मेरे को जो भगवान के दर्शन हुए थे उसको) मैंने प्रकट कर दिया था जिसके कारण मेरे को भी मुश्किल का सामना करना पड़ा। अस्तु।

अपने को साधक मानने में हानि नहीं  है , हानि तो सिद्ध मानने में है। अपने को सिद्ध मानने में बहम भी हो सकता है पर साधक मानने में क्या बहम होगा।

जो अपने को साधक मानता है वह उन्नति करता ही चला जाता है (सिद्ध मानकर रुकता नहीं कि अब मेरे को क्या करना है,जो करना था सो तो कर लिया)। 

श्री सेठजी ने कहा है (इतने महान होकर भी) स्वामीजी अपने को साधक ही मानते हैं। (यह इनकी विशेषता है)।

इस प्रकार पारमार्थिक लाभ गोपनीय रखने में ही फायदा है। ऐसे अधिकारी मिलने दुर्लभ हैं जिनको ऐसी रहस्य की बातें बतायी जायँ।

अधिकारी को तो महापुरुष अत्यन्त गोपनीय रहस्य भी बता देते हैं-

श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।

रामचरितमा.७। ६९(ख)।।

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बुधवार, 24 अगस्त 2016

दुख सहने से मुक्ति (-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                       ॥श्रीहरिः॥

दुख सहने से मुक्ति

(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

दुख आवे, तो दुख की खोज करनी (चाहिये) कि दुख क्यों आया-हमरेको दुख क्यों हुआ? 'सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता'(अध्यात्म रामायण, लक्ष्मण गीता २।६।६)। सुख दुख देने वाला है नहीं (दूसरा कोई- ) दूजा तो  है नहीं कोई। - नहिं कोई (-काहु न कोउ) सुख दुख कर दाता।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥
(रामचरितमा.२।९२)।
सुख देने वाला (और दुख देने वाला कोई नहीं है। तो)  दुख क्यों आया? तो कहीं र कहीं अपनी भूल होगी।दुसरे को मत मानो कि इसने दुःख दे दिया...

(मेरे को दुख क्यों हुआ?- इस प्रकार खोज करेंगे तो कहीं न कहीं अपनी भूल निकलेगी,अपनी भूल का पता लगेगा कि दुख देने वाला दूसरा कोई नहीं है। मैं जो दुखी हुआ-यह मेरी भूल थी)।
...
(कोई गाली दे, तो लो मत-बदले में गाली दो मत,सहन करलो-)

निकलत गाली एक है उथलत गाल (गाली) अनेक। और
जे गाली उथलै नहीं  (तो) रहै एक की एक॥ एक ही रहेगी।

तो कितनी बढ़िया बात है। 'तांस्तितिक्षस्व' (गीता २।१४,१५; में ) भगवान कहते हैं (कि) तुम सहलो। 'आगमापायिनोऽनित्याः' ये 'मात्रास्पर्श' है आने जाने वाले अर (और) अनित्य है। इनको सहलो।

तो क्या होगा सहने से? (कह,) 'सोऽमृतत्वाय कल्पते॥' महाराज! मुक्ति हो जायेगी। अर (और) नहीं सहोगे तो दुख पाओगे अर मुक्ति भी नहीं होगी। अर सहलो तो उसमें ई (भी) खटपट नहीं होगी,कल्याण हो जायेगा।

इस वास्ते पहले अपणे (अपने) घर से ही ये शुरु करो - प्रेम करना,काम-धन्धा करना, सेवा करना - घर से शुरु करदो।

घर में माता पिता है, भाई भौजाई है, स्त्री पुत्र है - सब का पालन पोषण करो। अच्छी तरह से आदर करो। ...

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के
"19970731_2000_Aapsi Khatpat Kaise Mite" नाम वाले प्रवचन के अंश से यथावत् )।

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