शनिवार, 7 अगस्त 2021

@ महापुरुषोंके सत्संग की बातें @ ('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के सत्संग की कुछ बातें )।

                 ।।श्रीहरि:।।


@ महापुरुषोंके सत्संगकी बातें @

 ('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के सत्संग की कुछ बातें )। 

           (संशोधित)
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                  ■ पंचामृत ■  

१. हम (जैसे भी हैं) भगवान् के हैं।
२. हम भगवान् के दरबार (घर) में रहते हैं।
३. हम भगवान् का काम (कर्तव्य-कर्म) करते हैं।
४. हम भगवान् का प्रसाद (शुद्ध, सात्त्विक भोजन) पाते हैं।
५. हम भगवान् के दिये प्रसाद (कमाई) से भगवान् के जनों (कुटुम्बियों आदि) की सेवा करते हैं।
- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के 07 अगस्त 1982, (08:18 बजे वाले) प्रवचन से। 
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संग्रहकर्ता और लेखक - 
संत डुँगरदास राम 

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                 ।।श्रीहरिः।। 

● नये संस्करण का नम्र निवेदन ● 
                     (१)

   एक बार श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने बताया कि वे किस प्रकार (पहली बार) परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका से मिले।  
   दोनों महापुरुषों के मिलन की बात सुनकर हमें बहुत प्रिय लगी और दूसरों को भी यह बात बताने की मन में आने लगी। ऐसी बातें श्री स्वामीजी महाराज अपने प्रवचनों में कभी-कभी ही कहते है। इस बारे में कम लोग ही जानते हैं।    दोनों महापुरुषों के मिलन का यह प्रसंग जब मैंने लोगों को सुनाया तो उनको भी बहुत अच्छा लगा। 
   ऐसी बातें सुनाते हुए हमें सन्तोष नहीं हो रहा था कि कैसे ये बातें अधिक लोगों को जनावें। ऐसी बढ़िया बातें दूसरे लोग भी जानें, उनको भी संत-मिलन का आनन्द प्राप्त हो। लोग ऐसे महापुरुषों की वास्तविक बातें समझें, उनके ग्रंथ पढ़ें आदि कई विचार मन में आते रहे। 
   श्री स्वामीजी महाराज के बारे में जानने की लोगों के मन में उत्कण्ठा रहती है, लेकिन सही बातें मिलती नहीं।  
   आजकल तो लोग कल्पित और झूठीबातें * कहने लग गये और सुननेवाले उन बातों को (बिना विचार किये) दूसरों को भी आगे सुनाने लग गये। 
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   [टिप्पणी– * कुछ लोग झूठीबातें लिखने भी लग गये हैं। कुछ ऐसी पुस्तकें भी छपने लग गई जिनमें झूठ साँच का पता नहीं।] 
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   लोगों का ऐसा ढंग देखकर मन में आया कि ऐसे तो यह गलत-प्रचार हो जायेगा। सही बातें जानना मुश्किल हो जायेगा। श्री स्वामीजी महाराज की महानता को समझना कठिन हो जायेगा।  
  लोग तो अपनी सांसारिक बुद्धि के अनुसार महापुरुषों को भी वैसे ही समझ रहे हैं। सच्चाई की खोज ही नहीं करते। इससे तो लोगों के मन में महापुरुषों के प्रति महत्त्व बहुत ही कम रह जायेगा। श्रद्धा नहीं बनेगी। लोग असली लाभ से वञ्चित रह जायेंगे, आदि आदि।  
   फिर ऐसा प्रयास हुआ कि श्री स्वामीजी महाराज के श्रीमुख से सुनी हुई कुछ सही-सही बातें लिखदी गयी और (इण्टरनेट पर, अपने ब्लॉग– "सत्संग- सन्तवाणी" में) प्रकाशित भी कर दी गयीं। 
   ऐसी बातों को पढ़कर कुछ सज्जनों के मन में आया कि इन बातों की एक पुस्तक छपवायी जाय। उन्होंने प्रयास किया और भगवत्कृपा से इन बातों की एक पुस्तक ("महापुरुषोंके सत्संगकी बातें") छप गयी। साथ में कुछ उपयोगी लेख और भी जोङे गये। 
××× 
विनीत —  डुँगरदास राम ।
दीपावली, संवत २०७४ 
                          (२) 
    इस पुस्तक को लोगों ने बहुत पसन्द किया और इसको फिर से छपवाने की आवश्यकता हो गयी। तब इसमें कुछ संशोधन करके फिर से छापने की तैयारी की गयी। पुस्तक बङी होनेके कारण इसको दो खण्डोंमें छपवानेका विचार किया था। उनमें से एक (पहला) खण्ड छपवाया गया और वो जल्दी ही समाप्त हो गया। फिर विचार आया कि दोनों खण्ड एक साथ ही छपवा दिये जायँ, जिससे लोगोंको प्राप्त करनेमें सुगमता रहेगी। तब इसको दुबारा संशोधन करके परिवर्धित किया गया। कुछ उपयोगी सामग्री और जोङदी गई। इससे पहले जो "श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत वाणी" नामक पुस्तक छपी थी, उसके यथावत-लेखनवाले प्रवचनोंको परिष्कृत, सरल करके इस पुस्तक में जोङ दिया गया और अत्यन्त उपयोगी यथावत-लेखनवाले कुछ प्रवचन और (नये) जोङे गये। श्री स्वामी जी महाराज ने समय-समय पर जो दोहे, कहावतें आदि सूक्तियाँ बोली थी, उनको भी इस पुस्तक में जोङा गया है। दोनों खण्डोंकी अब एकही पुस्तक हो गयी। इस प्रकार बहुत सी उपयोगी सामग्रियाँ एक साथ ही इस पुस्तक में आ गई है। 
  आशा है कि लोग इससे अधिक लाभ उठायेंगे। इसमें लेखन आदि की जो त्रुटियाँ हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं तथा जो अच्छाई और उपयोगिताएँ हैं, वो उन महापुरुषों की हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाइयों की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।
निवेदक- डुँगरदास राम (दि. ३ अप्रैल २०२३)। 
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@ महापुरुषोंके सत्संग की बातें @


(१) महापुरुषोंको याद करनेसे महान लाभ 

"श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज" कहते हैं कि संत - महात्माओं को याद करने से महान पवित्रता आ जाती है। उनकी कथाओं से, उनके चरित्र-गानसे हृदय शुद्ध, निर्मल हो जाता है। यथा- 
जो संत ईश्वर भक्त जीवनमुक्त पहले हो गये।
उनकी कथायें गा सदा मन शुद्ध करनेके लिये।। 
    श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि उन संतों का स्मरण करनेसे जल्दी ही घरके घर पवित्र जाते हैं, उनको याद करने से एक घर ही नहीं अनेक घर सुधर जाते हैं, वहाँका मोहल्ला का मोहल्ला पवित्र हो जात है। 
  श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक "गीता- दर्पण" में लिखा है कि– 
अहंता-ममतासे रहित सन्त-महापुरुषोंको याद करनेसे घर पवित्र हो जाता है‒ 'येषां संस्मरणात् पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः' (श्रीमद्भा॰ १ । १९ । ३३) । परन्तु अहंता-ममतावाले मनुष्योंको याद करनेसे मलिनता आती है, जिससे अहंता-ममताको छोड़ना कठिन मालूम देता है । 
   जिनमें अहंता-ममता नहीं है, उनमें भगवान्‌ विशेषतासे प्रकट हो जाते हैं। उनके शरीरका स्पर्श करनेवाली वायुसे, उनके वचनोंसे, उनके सम्पर्कमें आनेसे जीवमात्रमें पवित्रता आ जाती है। परन्तु उस पवित्रताको स्वीकार नहीं करनेसे अर्थात् उनमें दोषारोपण करनेसे उस पवित्रताके आनेमें आड़ लग जाती है । 
( "गीता-दर्पण" के 'गीतामें अहंता-ममताका त्याग' नामक लेखसे)। 
   जहाँ भगवान् की कथा होती है, उसको तो सुनते हैं भक्त और जहाँ भक्तोंकी कथा होती है, उसको सुनते हैं भगवान्। भक्तमाल के श्रोता भगवान् हैं। 
(संतनि मिलि निरणै कियो मथि पुराण इतिहास–) 
संतन निरणै कियौ मथि श्रुति पुराण इतिहास। 
भजिबै को दोई सुघर कै हरि कै हरिदास।। 
(भक्तमाल, मंगलाचरण ३)। 
रे जनि हरि से प्रीति कर हरिजन से कर हेत। 
हरि रीझै जग देत है हरिजन हरिहि देत।। 
{अरे! तूँ भगवान् से प्रीति मत कर, भगवान् के भक्त से प्रीति कर। क्योंकि भगवान् रीझते हैं, तो संसार देते हैं; किन्तु भक्त तो  भगवान् को ही दे देते हैं अर्थात् भगवान् राजी होते हैं तो जीवको मनुष्य शरीर देते हैं और मनुष्य शरीर से जीव नरकोंकों में भी जा सकता है; परन्तु भक्त के दिये हुए भाव (शरीर) से जीव नरक में नहीं जा सकता। भक्त तो जीव को भगवान् की प्राप्ति करा देते हैं}।
हरि दुरलभ नहिं जगत में हरिजन दुरलभ होय। 
हरि हेर्याँ सगळे मिले हरिजन कहिंयक होय।। 
(संसार में भगवान् दुर्लभ नहीं है; किन्तु  भगवान् का भक्त दुर्लभ है; क्योंकि खोजनेपर भगवान् तो सब जगह मिल जाते हैं; परन्तु  भगवान् का भक्त तो कहीं एक ही होता है)। 
   इस प्रकार और भी अनेक लाभ हैं। इतने लाभ हैं कि कोई कह नहीं सकता। संतोंके स्मरणका बङा महत्त्व है। संत- महात्माओं की यहाँ कुछ बातें लिखी जा रही है। संत-महात्माओं के विषय में बातें यथार्थ (सही-सही) होनी चाहिये। अपने मन से ही गढ़कर या तथ्यहीन बातें नहीं करनी चाहिये। 

(२) मनगढ़न्त, भ्रामक -बातोंका निराकरण 

   वास्तविक बातें न जानने के कारण आजकल लोगों में कई मनगढ़न्त, भ्रमकी बातें फेल गई है। उनका निराकरण करके वास्तविक बातोंका प्रचार करना चाहिये। 
   आज कल 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के विषयमें कई लोग मनगढ़न्त बातें करने लग गये हैं। जो बातें हुई ही नहीं, जो बातें कल्पित और झूठी है, जिनका कोई प्रमाण ही नहीं है– ऐसी सुनी-सुनायी बातें भी लोग बिना विचार किये आगे कहने लग गये, बिना सबूत की बातें करने लग गये हैं। जो कि सर्वथा अनुचित है 

  जैसे आजकल कई लोगोंमें यह बात फैली हुई है कि श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके गलेमें कैंसर था। 

   इसके जवाबमें निश्चयपूर्वक निवेदन है कि उनके उम्रभरमें कभी कैंसर नहीं हुआ था

    यह बात खुद श्रीस्वामीजी महाराजके सामने भी आई थी कि लोग ऐसा कहते हैं (कि स्वामीजी महाराजके गलेमें कैंसर है)। तब श्रीस्वामीजी महाराज हँसते हुए बोले कि एक जगह सत्संग का प्रोग्राम होनेवाला था और वो किसी कारणसे नहीं हो पाया। तब किसीने पूछा कि स्वामीजी आये नहीं? उनके आनेका प्रोग्राम था न? 

   तब किसीने जवाब दिया कि वो तो कैंसल हो गया। तो सुननेवाला बोला कि अच्छा ! कैंसर हो गया क्या? कैंसर हो गया तब कैसे आते?

{उसने कैंसल (निरस्त) की जगह कैंसर सुन लिया था}।

   कई लोग बिना विचारे ही, बिना हुई बातको ले दोङते हैं। जो घटना कभी घटी ही नहीं,* ऐसी-ऐसी बातें कहते-सुनते रहते हैं और वो बातें आगे चलती भी रहती है। सही बातका पता लगानेवाले और कहने-सुनने वाले बहुत कम लोग होते हैं। 

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  (टिप्पणी– * आज ही फेसबुक पर किसीने एक अखबार की फोटो प्रकाशित की है जिसमें गलेके कैंसरकी बात कही गई है। ऐसे बिना सोचे-समझे ही लोग आगे प्रचार भी कर देते हैं।

    कैंसर के भ्रमवाली एक घटना तो मेरे सामनेकी ही है– 

एक बार मैं श्री स्वामी जी महाराज की रिकोर्ड-वाणी(प्रवचन) लोगोंको सुना रहा था। प्रवचनकी आवाज कुछ लोगोंको साफ सुनाई नहीं दी। (श्रीस्वामीजी महाराज जब सभामें बोलते थे तो उन प्रवचनोंकी रिकोर्डिंग होती थी। उस समय गलती के कारण कभी-कभी आवाज साफ रिकोर्ड नहीं हो पाती थी। वैसे तो साफ आवाजमें उनके बहुत-सारे प्रवचन है, पर कुछ प्रवचनोंकी रिकोर्डिंग अस्पष्ट है)। इसलिये समाप्ति पर उन लोगोंमेंसे किसीने पूछा कि आवाज साफ नहीं थी (इसका क्या कारण है?)

   उस समय मेरे जवाब देनेसे पहले ही एक भाई उठकर खङा हो गया और लोगोंकी तरफ मुँह करके, उनको सुनाते हुए बोला कि सुनो-सुनो! (फिर वो बोला-) स्वामीजीके गलेमें कैंसर था, इसलिये आवाज साफ नहीं थी।

   मैंने आक्रोश करते हुए उनसे पूछा कि आपको क्या पता? तब उसने जवाब दिया कि आपलोगोंसे ही सुना है?– ऋषिकेशके संतनिवास में से ही किसीने ऐसा कहा था(मैं उनको जानता नहीं)।}

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   लोग सुनी-सुनाई बातें कहते-सुनते रहते हैं और आगे चलाते भी रहते हैं जो कि बिल्कुल झूठी है।

   साधारण लोगोंकी तो बात ही क्या है जाने-माने उत्तराखण्ड के एक डाॅक्टर ने भी ऐसी बात कहदी। 

श्रीस्वामीजी महाराजके सिरपर एक फोङा हो गया था और उसका ईलाज कई जने नहीं कर पाये थे। उस समय उस डाॅक्टर और कई जनोंने उसको कैंसर कह दिया था जबकि वो कैंसर था नहीं। 

    फिर एक कम्पाउण्डरने साधारण इलाजसे ही उसको ठीक कर दिया(वो विधि आगे लिखी गई है)।अगर कैंसर होता तो साधारणसे इलाजसे ठीक कैसे हो जाता? परन्तु बिना सोचे-समझे ही लोग कुछका कुछ कह देते हैं। अपनेको तो चाहिए कि जो बात प्रामाणिक हो, वही मानें। 

    लोगोंने तो ऐसी झूठी खबर भी फैलादी कि श्री स्वामी जी महाराज ने शरीर छोङ दिया। ऐसे एक बार * ही नहीं, अनेक बार हो चुका। 

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   (टिप्पणी *  एक बार मैं अपने गाँव जाकर आया था और श्री स्वामी जी महाराज को वहाँकी बातें सुना रहा था। श्री स्वामी जी महाराज बोले कि वहाँ और कोई नई बात हुई क्या? सुनते ही मेरेको वहाँ घटित हुई एक घटना याद आ गई। मैंने कहा– हाँ, एक नई बात हुई थी। फिर मैंने वो घटना सुनादी। श्री स्वामी जी महाराज के सामने ऐसी बातें पहले भी कई बार आती रही थी। उनके लिये यह कोई नई बात नहीं थी। 

   वो घटना इस प्रकार थी— मैं गाँव में एक वृद्ध माता जी से मिलने गया। वो माताजी घूँघट निकाल कर दूसरी तरफ मुँह किये हुए बैठ गई। वैसे तो पुरानी माताएँ बालक को देखकर भी घूँघट निकाल लेती है, पर बालक से बात कर लेती है।। श्री स्वामी जी महाराज ने भी एक वृद्ध माताजी की बात बताई कि मेरे सामने उन्होंनेे घूँघट निकाल लिया। मैंने कहा कि माजी! मैं तो आपके पौते के समान हूँ। ऐसे ही एक बार एक वृद्ध माताजी श्री स्वामी जी महाराज से कोई बात पूछ रही थी, उनके घूँघट निकाला हुआ देखकर श्री स्वामी जी महाराज ने आदरपूर्वक मेरे को भी बताया कि देख! (माँजी ने घूँघट निकाल रखा है)। ऐसे कई माताएँ दादी, परदादी बन जानेपर भी घूँघट निकालना जारी रखती है। यह उनके स्वभाव में होता है। हमारे यहाँ की एक यह आदरणीय रीत है, मर्यादा है। ऐसी हमारे भारतवर्ष की यह पुरातन रिवाज रही है। 

   जब वो माताजी बोली नहीं तब मैंने पूछा कि क्या बात हुई माजी! तो वो शोक जनाती हुई बोली कि क्या करें, श्री स्वामी जी महाराज ने तो समाधि ले ली अर्थात् शरीर छोङ दिया। तब मैं समझ में गया कि इनके पास कोई झूठी खबर पहुँच गई है। मैंने कहा कि ( नहीं माजी! ऐसी बात नहीं है), श्री स्वामी जी महाराज ने शरीर नहीं छोङा है, मैं वहीं से आया हूँ , वे राजीखुशी हैं। तब उन माताजी ने शोक छोङा, नहीं तो वो झूठी बात को सच्ची बात मानकर शोक पालने लग गई थी। ऐसी और भी कई बातें हैं जो विस्तारभयके कारण लिखी नहीं जा रही है।

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 फोङेके घावको ठीक इस प्रकार किया गया– 

   कम्पाउण्डरजीने पट्टी बाँधनेवाला कपङा(गोज) मँगवाया और उसके कैंचीसे छोटे-छोटे कई टुकङे करवा लिये। फिर वे उबाले हुए पानीमें डाल दिये; बादमें उनको निकालकर निचौङा और थोङी देर हवामें रख दिये गये। 

   उसके बाद फोङेको धो कर उसके ऊपरका भाग(खरूँट) हटा दिया। फिर फोङेको साफ करके उसपर वे गोजके टुकङे रख दिये। उस कपङेकी कतरनने फोङेके भीतरकी खराबी (दूषित पानी आदि) सोखकर बाहर निकाल दी। फिर वे गोज हटाकर दूसरे गोज रखे गये। इस प्रकार कई बार करनेपर जब अन्दरकी खराबी बाहर आ गयी तब फोङेपर दूसरे स्वच्छ गोज रखकर उसपर पट्टी बाँधदी गयी। 

   शामको जब पट्टी खोली गयी तो वे गोजके कपङे भीगे हुए मिले; कपङेने अन्दरकी खराबीको सोखकर खींच लिया था, इसलिये वे गीले हो गये थे। 

   तत्पश्चात उन सबको हटाकर फिरसे नई पट्टी बाँधी गई जिस प्रकार कि सुबह बाँधी थी।

दूसरे दिन सुबह भी उसी विधिसे पट्टी की गई। 

   बीच-बीच में यह भी ध्यान रखा जाता था कि घावका मुँह बन्द न हो जाय। अगर कभी हो भी जाता तो उसको वापस खोला जाता था जिससे कि दूषित पानी आदि पूरा बाहर आ जाय।

   इस प्रकार सोखते-सोखते कुछ दिनोंके बाद वो गोज(कपङेकी कतरनें) भीगने बन्द हो गये, फोङेके भीतरकी खराबी बाहर आ गयी तथा महीनेभर बादमें वो फोङा ठीक हो गया। उस जगह साफ नई चमङी आ गयी।

   इसके बाद ऐसी ही विधि दूसरे लोगोंके घाव आदि ठीक करनेके लिये की गई और उन सबके घाव भी ठीक हुए।

   इससे एक बात समझमें आयी कि ऊपरसे दवा लगानेकी अपेक्षा भीतरकी खराबी बाहर निकालना ज्यादा ठीक रहता है।

   डाॅक्टर आदि कई लोगोंने ऊपरसे दवा लगा-लगा कर ही इलाज किया था, भीतरसे विकृति निकालनेका, ऐसा उपाय उन्होंने नहीं किया था। तभी तो उनको सफलता नहीं मिली।

(कफका इलाज इस प्रकार किया गया–)

   सेवाकी कमी आदिके कारण कई बार श्री स्वामी जी महाराज के सर्दी जुकाम आदि हो जाता था,  जिससे गलेमें कफ हो जानेसे सत्संग सुननेमें दिक्कत आती थी।

   सत्संग सुननेमें बाधा न हो- इसके लिये कभी-कभी गलेके कपङेकी पट्टी भी लपेटी जाती थी और कफ डालनेके लिये एक दौनेमें मिट्टी भी रखी जाती थी; लेकिन इसका भी इलाज कम्पाउण्डरजीने साधारणसे उपाय द्वारा कर दिया।

वे बोले कि स्वामीजी महाराजके सामनेसे यह (कफदानी वाला) बर्तन हटाना है और उसका उपाय यह बताया कि लोटा भर पानीमें एक दो चिमटी(चुटकी) नमक डालकर उबाललो तथा चौथाई भाग जल रह जाय तब अग्निसे नीचे उतारलो। ठण्डा होनेपर इनको पिलादो।

   उनके कहनेपर ऐसा ही किया गया और कुछ ही दिनोंमें उनका गला ठीक हो गया और कफ चला गया तथा कफ डालनेके लिये रखा गया मिट्टीका दौना भी हट गया। नहीं तो वर्षों तक यह कफकी समस्या बनी रही थी।

   किसीने गलेकी उस कपङेवाली पट्टी को  देखकर कैंसर समझ लिया अथवा, कैंसरवाली गलतफहमीकी पुष्टि की होगी तो वो भी बिना जाने, अज्ञानता के कारण की थी। 

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   वास्तवमें उनके कैंसर न तो कभी गलेमें हुआ था और न कभी सिरपर हुआ था। किसी भी अंग में कैंसर नहीं हुआ था। 

   उनके साथमें रहनेवाले, सत्संग करनेवाले अनेक जने ऐसे हैं, जो इस बातको जानते हैं। उनके कभी कैंसर नहीं हुआ था। 

तथा मैंने भी वर्षोंतक श्री स्वामी जी महाराज के पासमें रहकर देखा है और बहुत नजदीक से देखा है– उम्रभर में उनके किसी भी अंग में, कैंसर कभी हुआ ही नहीं था। बहुत से लोगों को वास्तविक बात का पता * नहीं है। 

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(टिप्पणी– * लोगोंमें एक बात यह भी कही सुनी जाती है कि एक डॉक्टर ने (यन्त्र के द्वारा) श्री स्वामी जी महाराज के गलेकी जाँच की, तो उसको वहाँ भगवान् के दर्शन हो गये। कोई कहते हैं उसमें डाॅक्टर को ब्रह्माण्ड दिखायी दे गया। 

    ऐसे ही लोगोंमें कुछ ये कल्पित बातें भी फैली हुई है– कोई कहते हैं कि श्री स्वामी जी महाराज धर्म के अवतार थे, कोई सञ्जय का और कोई विदुर जी का अवतार बता देते हैं। कोई तो कह देते हैं कि ये स्वयं जीयाराम जी महाराज ही थे। परन्तु श्री स्वामी जी महाराज ने इन बातों को स्वीकार नहीं किया है। 
   बीकानेर धोरेपर "भृगुसंहिता" के एक फलादेशका पन्ना लाया गया और श्री स्वामी जी महाराज के सामने ही कुछ लोगोंको सुनाया गया। उस पन्ने में श्री स्वामी जी महाराज के लिये लिखा था कि यह जीव द्वापरयुग की समाप्ति के समय का है ••• और गीता का प्रचार करेगा। कई लोग इसका प्रमाण देकर श्री स्वामी जी महाराज को "अवतार" बता देते हैं। लेकिन उसमें भी किसी अवतारी का नाम नहीं लिखा है (कि ये अमुकके अवतार हैं ) और ना ही किसी महात्मा का नाम लिखा है (कि ये अमुक महात्मा हैं)। लोग बिना सोचे-समझे, सुनी-सुनाई बात फैला देते हैं। इसलिये समझना चाहिये कि वास्तव में बात क्या है। ये महात्मा तो थे ; परन्तु कौन महात्मा थे– इसका पता नहीं है। बिना जाने इनको किन्हीका अवतार या किसी नामवाले महात्मा बता देना उचित नहीं है। 
   बिना समझे किसीको अवतार मानने में लाभ नहीं है। श्री स्वामी जी महाराज भी अवतार न बताने में लाभ मानते हैं। क्योंकि अवतार न मानने से तो कोई हिम्मत भी कर सकता है कि ऐसा मैं भी बन सकता हूँ, ऐसे मैं भी कर सकता हूँ, आदि और अवतार मानने से वैसी हिम्मत नहीं होती– कह, वो तो अवतार थे, इसलिये उन्होंनेे ऐसा कर लिया, हम थोङे ही कर सकते हैं। हम अवतार थोङे ही हैं जो ऐसा कर सकें। हम तो साधारण जीव हैं आदि आदि। इसलिये हमें ऐसी कल्पनावाली बातों की तरफ ध्यान न देकर, स्वयं उन महापुरुषों द्वारा कही हुुई वास्तविक बातों की तरफ ही ध्यान देना चाहिये और उनसे लाभ लेना चाहिये। 
   एक बार की बात है कि श्री स्वामी जी महाराज को किसी लेखक की 'महासती सावित्री' नामक एक पुस्तक दिखाई गई, जिसमें सावित्री को अवतार के समान बताया गया था। तब श्री स्वामी जी महाराज ने पूछा कि श्री सेठजी ने (संक्षिप्त महाभारत में) क्या लिखा है? महाभारत देखने से पता लगा कि सावित्री को इस प्रकार अवतार नहीं बताया गया है। तब श्री स्वामी जी महाराज ने बताया कि श्री सेठजी के द्वारा बनाये गये ग्रंथों में सच्चाई है। [ऐसी सच्चाई हरेक लेखक की पुस्तक में नहीं मिलती]। फिर श्री स्वामी जी महाराज ने ऐसे महापुरुषों की कृत्ति की महिमा कही और बताया कि इससे लोगों का कल्याण होगा। फिर निर्देश दिया कि श्री सेठजी के द्वारा संक्षिप्त किये गये ऐसे पद्मपुराण आदि कल्याण के विशेषांकों में जो कथाएँ आयी है, उनको अलग से पुस्तक रूप में छपवायी जायँ। (इससे लोगों को बङा लाभ होगा)। उसके बाद ऐसी कई पुस्तकें छापी गई, जिनमें प्रमुख हैं–रामाश्वमेध (लवकुश चरित्र), नल-दमयन्ती, सावित्री-सत्यवान आदि। इस प्रकार यह समझाया गया कि बिना जाने किसी महात्मा या सती आदि को अवतार मानना लाभदायक नहीं है। 
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      कल्पित बातें न तो महापुरुषोंको पसन्द है और न ही कोई सच्चे आदमी को पसन्द है। 
      महापुरुष तो सत्य, यथार्थ और प्रमाणित बातें करते हैं और कहते हैं तथा लाभ भी सच्ची बातों से ही होता है। बहुत से लोग ऐसे हैं जो श्री स्वामी जी महाराज की वास्तविक बातें नहीं जानते। उनके साथ* में  रहे हुए लोगों में भी वास्तविक बातें जाननेवाले बहुत कम हैं। 
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{ टिप्पणी– * एक संत, जो श्री स्वामी जी महाराज के साथ में वर्षोंतक रहे हुए हैं। वो सभा में बोल रहे थे और उनका वो प्रवचन दूर देश में भी [यूट्यूब लाइव, चैनल द्वारा] लोग सुन रहे थे। उनका वो वीडियो आज भी यूट्यूब पर मौजूद है। (उन्होंने कई ऐसी कल्पित बातें बोली जो यहाँ लिखना उचित नहीं है।) वो प्रवचन करते हुए कह रहे थे कि श्री स्वामी जी महाराज की माताजी के कोई सन्तान नहीं होती थी। जियाराम जी महाराजके आशीर्वाद से श्री स्वामी जी महाराज का जन्म हुआ, आदि आदि। •••  जबकि बात यह नहीं थी। श्री स्वामी जी महाराज की माताजी के सन्तानें होती थी और श्री स्वामी जी महाराज से पहले भी अनेक सन्तानें हुई थी। यह बात स्वयं श्री स्वामी जी महाराज ने सभा में कई बार कही है कि श्री कृष्ण भगवान् अपनी माँ के आठवीं सन्तान थे। मेरी माँ के मैं छठी सन्तान हूँ– इतना तो मेरे को याद है। सम्भावना तो छः से भी अधिक की है।}
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लोग बिना सोचे-समझे श्री स्वामी जी महाराज के विषय में कहने-सुनने लग गये। इसलिये यह आवश्यक हो गया कि श्री स्वामी जी महाराज की कुछ ऐसी बातें यहाँ लिखी जायँ, जो सत्य हों, प्रामाणिक हों और जिनसे लोगोको सही मार्गदर्शन मिल सके। लोग सही बातोंको जान सकें। 
   वास्तव में प्रामाणिक बातें वे हैं जो श्री स्वामी जी महाराज ने स्वयं कही हो; क्योंकि स्वयं की बातें स्वयं से अधिक और कौन जान सकता है? इसलिये स्वयं श्री स्वामी जी महाराज से सुनी हुई बातों के ही कुछ भाव यहाँ लिखे जा रहे हैं—     

  (३) भगवान् की कृपा 
श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज अट्ठाइस नवम्बर उन्नीस सौ पंचानबे के साढे आठ बजेवाले प्रवचन {19951128_0830_Chet Karo (-चेत करो)} में कहते हैं कि भगवान् किस ढंगसे कृपा करते हैं, कोई जानता नहीं। (36 मिनिटसे आगे) ●•• किस तरह से करते हैं, इसका कोई ठिकाणा नहीं है। उनके प्रकार को कोई जानते नहीं हैं। वो भगवान् की कृपा करणे का, सहायता करणे का बङा अजब ढ़ंग है। ऐसी केई (कई) घटनाएँ सुणी (है)। ••● (वाणीका यथावत् लेखन)। 
... [अधिक जाननके लिये उपरोक्त प्रवचन पूरा सुनें]। 
 प्रश्न- क्या जियाराम जी महाराज ने श्री स्वामी जी महाराज की माता जी को आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारे दो पुत्र होंगे। उनमें से एक को तो तुम रख लेना और दूसरा संतों को दे देना? 
उत्तर- नहीं, ऐसा आशीर्वाद नहीं दिया था और यह भी नहीं कहा था कि तुम्हारे दो पुत्र होंगे। 
   ऐसा ही प्रश्न किसीने स्वयं श्री स्वामी जी महाराज से भी किया था कि क्या यह बात सही है? जवाब में श्री स्वामी जी महाराज ने हाँ नहीं कहा * और बताया कि महाराज ने तो (समाधान करते हुए) कहा था– कि रामजी और (दूसरा) देंगे। 
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{टिप्पणी – * वो घटना इस प्रकार है– 
   दासोङी गाँव (बीकानेर) में "लाछाँबाई" नामक एक सत्संगी बहन थी, जो श्री स्वामी जी महाराज में बहुत भाव रखती थी। वो सत्संग करती थी और दूसरों को भी करवाती थी तथा साधक- संजीवनी गीता आदि भी सुनाती थी। 
   एक बार वो कई सत्संगी बहनों को साथ में लेकर श्री स्वामी जी महाराज के यहाँ, सत्संग में आई। उन्होंनेे श्री स्वामी जी महाराज को लोगों की कही हुई कई बातें सुनाई कि आपके लिये लोग अमुक अमुक बातें कह रहे हैं। लोग तो कहते हैं कि आपका जन्म भी जियाराम जी महाराज के आशीर्वाद से हुआ है। ऐसी बातें सुनकर श्री स्वामी जी महाराज कुछ बोले नहीं, संकोच के कारण चुप रहे। तब किसी ने पूछा कि महाराज जी! क्या यह बात सही है? जियाराम जी महाराज ने आशीर्वाद दिया था?। तब श्री स्वामी जी महाराज ने बताया कि नहीं, उन्होंनेे तो यह कहा था कि रामजी और (दूसरा) देंगे। }
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(४) माताजीकी बातें 
   फिर अधिक खुलासा करते हुए श्री स्वामी जी महाराज ने अपने माताजी की बातें सुनाई, जो इस प्रकार है— 
   माता जी के बालक होते थे, पर अधिक जीते नहीं थे। बालक जन्म लेते और कुछ दिनों या वर्षो के बाद चले जाते। कई बच्चों ने जन्म लिया, परन्तु एक भी अधिक वर्षोंतक जिवित नहीं रहा। 
   एक बार जब आपके बालकका शरीर शान्त हो गया था, उन दिनों पूज्य श्री जियारामजी महाराज पधारे। (जब वो पधारते थे तब उनके सामने भजन,हरियश आदि गाये जाते थे)। उस समय सखियों द्वारा आप (माताजी)को कहा गया कि हरियश गाओ, तो आपने गाया नहीं। तब किसीने पूज्य श्री महाराजजीसे कह दिया कि ये भजन नहीं गा रही है, तब कोई दूसरी सखी बोली कि ये कैसे गावे, इनका तो लड़का चला हुआ है (लड़का शान्त हो गया है)। तब श्री जियारामजी महाराज बोले कि रामजी और देंगे अर्थात् बालक शान्त हो गया तो कोई बात नहीं, भगवान् दूसरा देंगे, आप तो भजन गाओ। (तब आपने भजन गाया)। अस्तु। 
प्रश्न– संत श्री जियारामजी महाराज कौन थे? 
उत्तर– जीयारामजी महाराज हमारे देश(राजस्थान) के एक बड़े भजनानन्दी संत हुए हैं। करणूँ (नागौर) में आपकी बहन रहती थी। बहनके स्नेहके कारण आप करणूँ जाया आया करते और भजन करते थे। वे बाहर– जंगलमें, अरणों(अरणीके वृक्षों)में चले जाते और कई दिनोंतक बिना भोजन किये ही भजन करते रहते। वहाँ दूसरे लोग भी आ जाते थे। कभी उनको लगता कि मेरे कारण यहाँ किसीको तकलीफ हो रही है, तो वे (उस जगह को छोड़कर) कहीं दूसरी जगह जाकर भजन करने लगते थे। 
   आपके सिर पर एक खड्डा (चोटका निशान) था। उसका कारण पूछने पर आपने बताया कि (यह युद्ध में लगी हुई चोटका निशान है-) त्रेतायुगमें जब श्रीरामचन्द्रजी और रावणका युद्ध हुआ था, उस समय मैं भी उनके साथमें था। कोई प्रसिद्ध वानर नहीं, एक साधारण वानर था। (राक्षसों से युद्ध करते समय) राक्षसोंने यह चोट लगा दी थी (जो इस जन्ममें भी उसकी पहचान बनी हुई है)। 
(संत श्री दादूजी महाराजने भी ऐसी बात कही है कि-) 
दादू तो आदू भया आज कालका नाहिं।
रामचन्द्र लंका चढ्या दादू था दल माहिं।। 
संत श्री जियारामजी महाराजकी कथन की हुई वाणी भी मिलती है। 
    श्री स्वामी जी महाराज की माताजी पर आप (जियारामजी महाराज) की बहुत दया थी; क्योंकि बचपनमें ही उनकी माँका शरीर शान्त हो गया था। जब वो बड़ी हो गयी, उनका विवाह हो गया और अपने ससुराल (माडपुरा, जिला - नागौर) गयी तो घूँघट में भी राम राम राम राम राम राम राम करती रहती थी। लोगोंको यह राम राम करना एक आश्चर्य सहित नयी और अच्छी बात लगती थी कि यह बहू तो बहुत विलक्षण आयी (जो ससुरालमें भी राम राम करती है, भजन करती है)। 
   आपको संतोंकी वाणी बहुत आती थी, बहुत संतोंकी वाणी याद थी। अच्छे-अच्छे जानकार संत-महात्माओंको भी सभय संकोच था कि माँजी कुछ पूछ लेंगे और जवाब नहीं आया तो? (क्या होगा?)। 
   आप संतोंमें श्रद्धाभाव रखती थी, सेवा करती थी। घरमें संतोंके लिये शुद्ध, अपरस जल अलगसे भरकर रखती थी। पवित्र बर्तनमें [शुद्ध कपड़ेसे छान कर] जल भरती थी और उस बर्तनके मुँह पर कपड़ा बाँध देती थी तथा उसको शुद्ध मिट्टी- गोबर से लीपकर बन्द कर देती थी। उसको अबोट रखती थी। उसमेंसे जल अपने काम में नहीं लेती थी और दूसरे– घरवाले भी नहीं लेते थे। 
   जब कोई संत-महात्मा पधारते तो उनसे आप कहती कि महाराज! उस बर्तनमें जल आपलोगों (संत-महात्माओं) के लिये ही है, हमलोगोंने नहीं छुआ है। आप (और सखियाँ) भजन गाया करती थी। आप भगवद्भजन, भक्तिसे ही मानव जीवनकी सफलता मानती थी। आप पर महापुरुषों और भगवानकी बड़ी दया थी। 
   भगवत्कृपासे जब आपके बालक हुआ (रामजीने और बालक दिया) तो आपने लाकर श्री जियाराम जी महाराजके अर्पण कर दिया। जियारामजी महाराज बोले कि इस बालकको तो आप रखो और अबकी बार बालक हो तब दे देना। तब उस('आनन्द' नामक) बालकको माताजीने अपने पास रखा। 
    इसके बाद (विक्रम संवत १९५८ में) श्री जियारामजी महाराजका शरीर शान्त हो गया। (भेळू, जिला - बीकानेर में आपका समाधिस्थल है)। 
   दो वर्षोंके बाद (विक्रम संवत १९६० में) भगवानकी कृपा से माताजीके दूसरा बालक हुआ, जिनका, जन्मका नाम था सुखदेव*। 
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 (टिप्पणी– * इन्हीका नाम आगे चल कर हुआ 'स्वामी रामसुखदास' और जिनको लोग कहते हैं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज')। 
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(५) अनेक ग्रंथोंकी रचना 
     इन्होनें ही गीताजी पर 'साधक-संजीवनी' नामक अद्वितीय टीका लिखी और गीता-दर्पण, गीता-माधुर्य, गीता-ज्ञान-प्रवेशिका आदि अनेक ग्रंथोंकी रचना की। आपके लेख और प्रवचनोंकी अनेक पुस्तकें* छपी हुई है। "साधन-सुधा-सिन्धु" नामक ग्रंथ में ४२- ४३ पुस्तकोंके लेख एक साथमें ही उपलब्ध है। ऐसे ही "साधन- सुधा- निधि" नामक ग्रंथ में २१ पुस्तकोंके लेख संग्रहीत है। आपने सरल भाषामें प्रवचन करते हुए सरल, श्रेष्ठ और तत्काल भगवत्प्राप्ति करानेवाले अनेक साधन बताये हैं। आपने नये-नये साधनोंका आविष्कार किया और पुराने साधनों को भी सरल रीतिसे समझाया। नये आविष्कार की कुछ बातें सात अगस्त उन्नीस सौ नब्बे, प्रातः पाँचबजे वाले प्रवचन में सुनी जा सकती है— ७ |८|१९९० _ ०५१८– 19900807_0518_Naya aavishkar hai (नया आविष्कार है)। इससे पीछे और इससे आगेवाले प्रवचनों में भी ऐसी बातें सुनी जा सकती है। आपके बारह हजार से अधिक प्रवचनोंकी रिकोर्डिंग उपलब्ध है। इनके अलावा पुराने प्रवचनोंवाली रिकोर्डिंग की सुलभता का प्रयास किया जा रही है।
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    {टिप्पणी– * 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' की कई (७८-अठहत्तर)) पुस्तकों के नाम इस प्रकार है– 
१. {गीता –) साधक - संजीवनी
२. गीता - प्रबोधनी
३. गीता - दर्पण
४. गीता - ज्ञान प्रवेशिका
५. गीता - माधुर्य
६. साधन - सुधा - सिन्धु
७. जीवनका कर्तव्य
८. भगवत्तत्त्व 
९. एकै साधै सब सधै
१०. जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग
११. सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन
१२. जीवन का सत्य
१३. कल्याणकारी प्रवचन
१४. तात्त्विक प्रवचन
१५. भगवान से अपनापन
१६. कल्याणकारी प्रवचन (भाग 2)
१७. शरणागति
१८. भगवन्नाम
१९. जीवनोपयोगी प्रवचन
२०. सुन्दर समाज का निर्माण
२१. मानसमें नाम-वन्दना
२२. सत्संगकी विलक्षणता
२३. साधकों के प्रति
२४. भगवत्प्राप्ति सहज है
२५. अच्छे बनो
२६. भगवत्प्राप्तिकी सुगमता
२७. वास्तविक सुख
२८. स्वाधीन कैसे बनें?
२९. कर्म रहस्य
३०. गृहस्थमें कैसे रहें?
३१. सत्संगका प्रसाद
३२. महापापसे बचो
३३. सच्चा गुरु कौन?
३४. आवश्यक शिक्षा(सन्तानका कर्तव्य एवं आहार-शुद्धि)
३५. मूर्तिपूजा एवं नाम-जपकी महिमा
३६. दुर्गतिसे बचो
३७. सच्चा- आश्रय
३८. सहज- साधना
३९. नित्ययोगकी प्राप्ति
४०. हम ईश्वर को क्यों मानें?
४१. नित्य-स्तुति और प्रार्थना
४२. वासुदेव: सर्वम्
४३. साधन और साध्य
४४. कल्याण -पथ
४५. मातृशक्तिका घोर अपमान
४६. जिन खोजा तिन पाइया
४७. किसान और गाय
४८. तत्त्वज्ञान कैसे हो?
४९. भगवान् और उनकी भक्ति
५०. जित देखूँ तित तू
५१. देशकी वर्तमान दशा और उसका परिणाम
५२. सब जग ईश्वररूप है
५३. आवश्यक चेतावनी
५४. मनुष्यका कर्तव्य
५५. अमरताकी ओर
५६. सार-संग्रह एवं सत्संगके अमृत-कण
५७. अमृत- बिन्दु
५८. सत्संग-मुक्ताहार
५९. सत्य की खोज
६०. क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?
६१. आदर्श कहानियाँ
६२. प्रेरक कहानियाँ
६३. प्रश्नोत्तरमणिमाला
६४. शिखा (चोटी)- धारण की आवश्यकता
६५. मेरे तो गिरधर गोपाल
६६. कल्याणके तीन सुगम- मार्ग
६७. सत्यकी- स्वीकृति से कल्याण
६८. तू- ही- तू
६९. एक नयी- बात
७०. संसार का असर कैसे छूटे?
७१. मानवमात्र् के कल्याणके लिए
७२. परमपिता से प्रार्थना
७३. साधनके दो प्रधान- सूत्र
७४. ज्ञानके दीप जले
७५. सत्संगके फूल
७६. सागर के मोती
७७. सन्त-समागम
७८. एक सन्तकी वसीयत, आदि आदि। 
 ये पुस्तकें गीताप्रेस, गोरखपुरसे प्रकाशित हुई है।} 
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आपकी पुस्तकों और प्रवचनों से दुनियाँ को बङा भारी लाभ हो रहा है। इस प्रकार आपने सारे जगतका बङा भारी हित किया। दुनियाँ सदा-सदाके लिये आपकी ऋणी रहेगी। 

(६) बालक अवस्थाके समयकी बातें   

    श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि बचपन के समय एक बार मैं भगवान् की कथा सुन रहा था। श्री कृष्णलीला का वर्णन हो रहा था। उस समय एक जगह जाना था। कह, जाओ (जरूरी है)। तो जाना पङा, आँसु आ गये अर्थात् भगवान् की लीला बहुत प्रिय लग रही थी, उसको छोङना पङा, तो रोना आ गया। 
     ऐसे ही एक बार की बात मेरेको याद है कि मैं (ध्यान लगाकर) भगवान् का नाम ले रहा था, मेरेको वहाँसे उठा दिया गया। मेरी रुचि भगवान् में थी, भजन- साधन में थी। अस्तु। 
   बचपनमें ही आपकी विलक्षणता दिखायी देती थी। श्री स्वामी जी महाराज ने बताया कि [शिशु अवस्थाके समय में] मैं जब बैठता था तो जलछानना खींचकर बैठता था (जल छाननेके पवित्र कपड़ेको देखकर उसको अपनी तरफ खींचता और बिछाता फिर उसपर बैठता था)। यह देखकर लोग आपस में कहते कि कोई महात्मा * आये हैं। अस्तु। 
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(टिप्पणी– * अर्थात् पिछले जन्ममें ये कोई संत-महात्मा थे, सो आये हैं। तभी तो महात्मा की तरह आसनपर बैठते हैं, नीचे नहीं। बैठते समय वहाँ कुछ बिछा हुआ नहीं है तो स्वयं बिछाकर बैठते हैं, बिना बिछाये– नीचे नहीं बैठते। जैसे भजन करनेवाले संत- महात्मा शुद्ध आसन बिछाकर बैठते हैं, ऐसे ही ये बैठते हैं। जैसे संत- महात्मा पवित्रता रखते हैं, हर कैसी ही जगह पर नहीं बैठ जाते, ऐसे ये भी पवित्रता रखते हैं। इनका ऐसा स्वभाव पहलेसे ही है। स्वभाव से, पहलेके संस्कारों से पूर्व जन्म का अनुमान हो जाता है कि ये कौन और कैसे हैं)। 
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    इस जन्म से पहलेके संस्कारों की बात बताते हुए श्री स्वामी जी महाराज एक प्रवचन (19951205_0830_Sant Mahima Sethji Ki Sansmaran) 
 में कहते हैं कि श्री सेठजीके और हमारे जल्दी ही प्रेम हो गया, कोई पूर्व के संस्कार रहे होंगे। इस कथनसे श्री स्वामी जी महाराज और श्री सेठ जी के पूर्वजन्म की बातें सिद्ध होती है। श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि बचपन में लोग मुझसे पूछते कि सुखु! तू क्यों आया है? तो मैं उत्तर देता कि भजन करानेके * लिये आया हूँ। उस समय मेरेको यह भी पता नहीं था कि भजन करना अलग (पृथक) होता है और भजन करवाना अलग होता है। अस्तु।
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   (टिप्पणी– * स्वामी जी महाराज की यह बात आगे जाकर सिद्ध हो गई कि वे भजन करवानेके लिये ही आये थे। मानो भगवान् ने ही उनके मुखसे यह बात कहलवा दी। वैसे भी देखा जाय तो समझ में आयेगा कि उन्होंने कितने जनोंको भगवान् में लगाया है। कितने जने उनके कारण भजन कर रहे हैं और करेंगे। उनके सत्संग से, वाणीसे, रिकोर्ड किये हुए प्रवचनोंसे और पुस्तकोंसे दुनियाँ को कितना बङा लाभ हुआ है। दुनियाँ का कितना बङा उपकार हुआ है, हो रहा है और होगा। यह सब उनका भजन करवाना ही तो है। इसीलिये वे आये थे। भगवान् की कृपा से हम भी उनके भजन करवाने में शामिल हैं)। 
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(७) प्राचीन कालके 'तीन महात्मा' 

   श्री स्वामी जी महाराज की इन बातों से सिद्ध होता है कि वे इस जन्म से पहले भी कोई महात्मा थे। 
   इसी प्रकार श्री सेठजी भी पूर्वजन्म में कोई महात्मा– साधू थे। उन्होंनेे अपने पूर्वजन्म की बात कुछ इस प्रकार बताई है– मेरा साथी हनुमानबक्स गोयन्दका और मैं, पूर्वजन्म में राजा तथा मन्त्री थे– यह राजा था और मैं इनका मन्त्री। फिर मैं साधू हो गया। इनको भी मैंने कहा कि साधू बन जाओ। मेरे कहनेसे यह भी साधू बन गया; परन्तु राजसी स्वभाव के कारण इन्होंने भोगोंका सर्वथा त्याग नहीं किया। मरनेपर यह तो गया नीचेके लोकोंमें और मैं गया ऊपर के लोकोमें। मैं देखता रहा कि इसको मनुष्यजन्म मिलेगा, तब उद्धार करूँगा; क्योंकि मेरे कहनेसे ही यह साधू बना था (कहना करनेवालेके कल्याण की जिम्मेवारी कहनेवालेपर आ जाती है)। 
  उस समय राजा विक्रमादित्य का राज्य चल रहा था– ऐसा अनुमान है। अब से लगभग दो हजार वर्ष पहले की बात है यह। तबसे मैं प्रतीक्षा करता रहा, इसके मनुष्यजन्म की बारी नहीं आयी (इसको दूसरी- दूसरी योनियाँ मिलती रही)। जब बारी आयी, इसको मनुष्य शरीर मिला [तब मैं भी आ गया]। अस्तु। 
   इस प्रकार यह बात बताई गई कि श्री सेठजी हनुमानबक्सजीके कल्याण के लिये आये थे। समय समय पर श्री सेठजी उनको चेताते भी थे कि स्वाद-शौकिनी मत करो आदि। 
   एक बार हनुमान- बक्सजीके यहाँ मकान बन रहा था, श्री सेठजी वहाँ गये हुए थे। लोगोंने श्री सेठजी से कहा कि आप इस आदमी से इतना क्यों रखते हो, यह तो ऐसा है, ऐसा है आदि। तब श्री सेठजी ने कहा कि आप इसपर दोषदृष्टि मत करो, इसके कारण ही आप को सत्संग मिला है। (हनुमानबक्सजीकी कुछ बातें आगे लिखी गई है)।
    इस प्रकार ये तीनों, पूर्वजन्म में कोई संत- महात्मा थे— १. परमश्रद्धेय सेठ जी श्री जयदयाल जी गोयन्दका, २. श्री हनुमानबक्स जी गोयन्दका और ३. श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज। 
    भगवान् की जब विशेष कृपा होती है तब जगत में ऐसे अलौकिक संत-महात्मा पधारते हैं और दुनियाँ का हित करते हैं। 
   ऐसे महापुरुषोंका मिलना बहुत दुर्लभ है। मिल जानेपर भी उनको पहचाना कठिन है। न पहचानने पर भी उनसे लाभ हुए बिना नहीं रहता, उनका मिलना कभी व्यर्थ नहीं जाता, कल्याण करता ही है।    
   श्री स्वामी जी महाराज वास्तव में कौन थे, इस बात को या तो भगवान् जानते हैं या वे स्वयं जानते हैं। दूसरे लोग तो अपनी-अपनी बुद्धि का परिचय देते हैं।

(९) संतोंमें श्रद्धा भक्तिकी बातें  

   माताजीकी जियारामजी महाराजके प्रति बड़ी श्रद्धा भक्ति थी। श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि जिस देश- गाँवमें महाराज विराजते थे, उधरकी जब हवा आती तो झटपट, उसी समय बड़े आदरसे अपना घूँघट उठाकर वो हवा लेने लगती कि बापजी महाराजकी तरफसे हवा आ रही है। 
   जब वृद्ध हो गयी और पेटमें जलोदर रोग हो गया, तो जियारामजी महाराजकी समाधि पर जाकर पेट पर वहाँ की रज लगाली कि हे जियारामजी बापजी! मेरे बिमारी हो गयी। इससे उनकी बिमारी मिट गयी, जलोदर रोग ठीक हो गया।  
  जब माताजी ने मुझे संतोंको दे दिया था और मैं वहाँ रहता था, तब माताजी आते और बैठ कर आदर से मेरेको नमस्कार करते कि राम राम संताँ!। मैं मटूलेकी तरह बैठा रहता। 
   जब माताजीने सुना कि मैं पढ़ाई कर रहा हूँ, तो वो बोले कि पढ़ाई करके कौनसी हुण्डी कमानी है, मैंने तो भजन करनेके लिये साधू बनाया है। 
   जब मैं बहुत छोटा था, तब माता पिता खेतमें काम करनेके लिये जाते। साथमें जल ले जाते और मेरेको भी(गोदीमें उठाकर) ले जाते। खेत गाँवसे काफी दूर था। वे बोले कि साथ में तेरेको ले जावें या जलको? मैंने कहा कि जलको ले जाओ, मैं यहीं (घर पर) रह जाऊँगा। मैंने यह नहीं कहा कि साथ में मेरेको ले जाओ। मैं घर पर रह जाता। वो पड़ौसिनको मेरी देखभाल तथा भोजनके लिये कहकर चले जाते। जब मुझे भूख लगती, तब वो रोटी बनाकर भोजन करा देती। 
    रातमें अकेलेको जब मुझे डर लगता, तो माँ की ओढ़नीमें प्रविष्ट हो जाता, माँ की ओढ़नी ओढ़ लेता (माँ की ओढ़नी ओढ़नेसे डर मिट जाता)। 
   जब मैं चार वर्षका था, तभी माताजीने मुझे संतों को दे दिया। जब ऊँट पर बिठाकर संत मुझे ले जाने लगे तो माँ के आँखों में आँसू आ गये और मेरे भी आ गये; पर मैंने यह नहीं कहा कि मैं जाऊँगा नहीं। अस्तु। 
  {संत श्री सदारामजी महाराज और उनकी धर्म पत्नि श्री हरियाँबाईजी– दोनों ही साधू बन गये थे इन्हीको माताजीने अपना दूसरा बालक (सुखदेव) दिया था}। 
          ×           ×           × 
श्री स्वामी जी महाराज ने बताया कि कोई माताजीसे कुशल पूछते कि माजी! सुखी हो न? तो माताजी कहती कि सुख तो संतोंको दे दिया। फिर वो पूछते कि तब आपके क्या रहा? तो माताजी बोलती कि हमारे तो आनन्द है। 'सुख तो संतोंको दे दिया' अर्थात् 'सुखदेव बेटा' (मैं) तो संतोंको दे दिया गया। अब हमारे तो आनन्द है अर्थात् हमारे पास तो 'आनन्द बेटा' (बड़ा बेटा) रहा है। 
   माताजी (श्री श्री कुनणाँबाईजी) और श्री हरियाँबाईजी– दोनों सम्बन्धमें नणद भौजाई थी। नणद-भौजाईके आपसमें बड़ा प्रेम था। अस्तु। 
   (श्री हरियाँबाईजीने बड़े प्यारसे आपका पालन-पोषण किया)।                                           ×    ×   × 

(९) परमधाम गमनकी बातें  

 ••• जगन्माता विविधरूपोंमें सबका पालन- पोषण करती है। श्रीसीताजी जगतकी माँ भी है और गुरु भी है। यह जीवोंका पालन-पोषण भी करती है और ज्ञान भी देती है। ये जीवों को भगवान् का प्रेम (रामस्नेह) सिखाती है और प्रेम प्रदान भी करती है।  
    श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि रामस्नेह- सम्प्रदायकी मूल आचार्या जगज्जननी श्री सीताजी है। 
   आपके "दीक्षागुरु" 'श्री श्री कन्हीरामजी महाराज'(दासौड़ी, जिला-बीकानेर) इसी सम्प्रदाय के संत थे। वे विक्रम संमत १९८६ में, मिगसर बदी तीज, मंगलवार को ब्रह्मलीन हुए। चाखू (जोधपुर) में उनका समाधि-स्थल है। उसके शिलालेख पर श्री स्वामी जी महाराज ने उनके निर्वाण- दिवसका यह दोहा रच करके लिखवाया है— 
संवत नवससि षडवसु बद मिगसर कुज तीज।
कन्हीराम तनु त्यागकर भये आपु निर्बीज।। 
    'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' विक्रम संवत २०६२ में, आषाढ़ बदी एकादशी की रात्रि और द्वादशीकी सुबह, रविवारको ब्राह्ममूहूर्त के समय, लगभग ३।। (साढे तीन) बजे के बाद, गंगातट पर ब्रह्मलीन हुए। 
तदनुसार यह दोहा लिखा गया– 
संवत नभ चख षड नयन रवि आषाढ़ बद भाण।
स्वामि रामसुखदासजी तनु तजि भए निर्वाण।। 
   अन्तिम समयमें आपके पास संतलोग भगवन्नामका कीर्तन कर रहे थे। अन्तिम समय की हलचलमें जब आपको गंगाजल दिया गया, तब आपने अन्तिम श्वासोंके बीच में, प्राणान्त- कष्टकी परवाह न करते हुए गंगाजलका आदरपूर्वक घूँट लिया और स्थिर होकर, कोशिश करके उसको निगला भी। फिर उसी समय आपने शरीर त्यागकर भगवद्धाम प्राप्त किया। (गीता साधक-संजीवनी ८/ ५, ६ और २५ वें श्लोकोंकी व्याख्या के अनुसार भगवद्धाम को प्राप्त हुए)। 
   आपने विद्यागुरु संत श्री श्री दिगम्बरानन्दजी महाराज (निमाज, जिला – पाली) से संस्कृत आदि विद्याएँ पढ़ी थी। 
   आपने विद्यागुरु जी का नाम और प्रभाव बताते हुए इस रहस्यमय दोहेकी रचना की– 
आसाबासीके चरन आसाबासी जाय। 
आसाबासी मिलत है आसाबासी नाँय।। 
इसी प्रकार आपने अपने नाम का दोहा भी लिखा– 
रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत।
दास होइ जपु रात दिन साधु सभा सौभंत।।
इस प्रकार आपने और भी रचनाएँ की है। कुछ रचनाएँ इस प्रकार है–

 (१०) 'श्री स्वामी जी महाराज' 

                    की 
            रचित- 'वाणी' 

(परमश्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज द्वारा रचे हुए कुछ दोहे आदि–)। 
                    वन्दना 
सत-चित-सुखमय अचल सम रहत सकल थित राम। 
अलख अगुन अरु गुन सहित, नित प्रति करउँ प्रनाम॥१॥ 
जनम-करम-अघहर अमल श्रवन-सुखद गुनगाथ। 
मम तन मन जन बचन सब तव अरपन जदुनाथ॥२॥ 
सुर नर मुनिबर चर अचर, सब कर हित करनार। 
तिन कर गुन गन कछु कहत लघु जन मति अनुसार॥३॥ 
गुन तव मन तव, बचन तव, तन तव, सब तव, ईस। 
सरन सुखद तव पद कमल इक रति करु बखसीस॥४॥ 
— स्वामी रामसुखदास 
(-"जीवनका कर्तव्य" नामक पुस्तक से )। 
[ वन्दना–  (भावार्थ–) 
श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज की एक बहुत पहले की पुस्तक है- "जीवन का कर्तव्य"। उसके शुरुआत में श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि- ] 
   सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान् राम अचल और समरूप से सबमें स्थित रहते हैं। जो अलक्ष्य, निर्गुण और सगुण हैं, सत्त्वादि गुणों से परे,गुणों से रहित और गुणों के सहित हैं। उनको मैं नित्य प्रति प्रणाम करता हूँ।।१।। 
   हे यदुकुलनाथ ! आपके जन्म (अवतार) और कर्म पापों का नाश करनेवाले तथा निर्मल हैं। आपके गुणों की कथा कानों को सुख देनेवाली है। मेरा शरीर, मेरा मन और इस दास के वचन– सब आपको अर्पण है।।२।। 
   जो प्रभु देवता, मनुष्य, मुनिश्रेष्ठ, चेतन, जङ आदि सभी का हित करनेवाले हैं, उनके कुछ गुणसमुदाय अपनी बुद्धि के अनुसार यह लघुसेवक कह रहा है।।३।। 
   हे नाथ! गुण आपका, मन आपका, वचन आपका, शरीर आपका, सभी आपके हैं। हे शरणागत को सुख देनेवाले! मुझे तो आप अपने चरणकमलों की एक प्रीति दे दीजिये।।४।। — श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज। 
रामनाम संसार में सुखदायी कह संत। 
दास होइ जपु रातदिन साधुसभाँ सौभंत।।५।। 
  संसार में राम नाम को संत सुख देनेवाला कहते हैं। साधुसभा में सुशोभित उस राम नाम को उनका दास होकर रात दिन जप।।५।।
   (इस दोहे में श्री स्वामी जी महाराज का नाम लिखा गया है)। 
–{ राम²नाम संसार में सुख³दायी कह संत। 
दास⁴ होइ जपु रातदिन साधु¹सभाँ सौभंत।। 
2-रामनाम संसारमें 3-सुखदायी कह संत।
4-दास होइ जपु रातदिन 1-साधुसभाँ सोभंत॥अर्थात् 'साधू रामसुखदास' }। 
   (दीक्षागुरु श्रीकन्हीरामजी महाराजपर बनाया गया दोहा-) 
संवत नवससि षड्वसु, बद मिगसर कुज तीज।
कन्हीराम तनु त्याग कर, भये आपु निर्बीज॥६।। 
   कन्हीरामजी महाराज मिगसर बदी ३, संवत् १९८६, मंगलवारको शरीरका छोङकर ब्रह्मलीन हुए।।६।। 
   (विद्यागुरु श्रीदिगम्बरानन्दजी महाराजपर बनाया गया दोहा-)
आसाबासी के चरन, आसाबासी जाय ।
आसाबासी मिलत है, आसाबासी नाय।।७।।  
   'आशावासी' अर्थात् दिगम्बरानन्द जी महाराज या दिशाएँ (आसा) जिनका वस्त्र (वासी) हैं, उन शिवजी के चरणोंमें जिसकी आशा जाकर बस गयी है (आसा बासी जाय), उसको यह शाबाशी मिलती है (आ-साबासी मिलत है) कि उसकी कोई आशा बासी नहीं रहती (आसा-बासी नाय), देरी के कारण आशा पङी- पङी बासी नहीं होती। अर्थात् सब आशाएँ तत्काल पूर्ण होती हैं, देरी नहीं लगती।।७।। 
मानुष देही जब मिली, पंच कोस रह्यो पन्त (पंथ)
लख चौरासी जूण में (फिर) अन्तर परे अनन्त॥८।। 
   जब से मानव शरीर मिला है तब से (परमधाम पहुँचने का) पाँच कोस मार्ग ही बाकी बचा है, बीच में पाँच कोस का ही अन्तर है। (अब वहाँ नहीं पहुँचे तो) चौरासी लाख योनियों में अनन्त (कोसों का) अन्तर पङ जायेगा।।८।  
{पाँच कोश (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमयकोश) की व्याख्या साधक- संजीवनी गीता के तेरहवें अध्याय के पहले श्लोक की व्याख्या में देखें}। 
जोरि जोरि धन कृपनजन, मान रहे मन मोद। 
मधुमाखी ज्यूँ मूढ मन, गिरत काल की गोद।।९॥ 
   कञ्जूस मनुष्य धन जोङ-जोङकर इकट्ठा करते हैं और मन में हर्ष मान रहे हैं। वे मूढ मनवाले मनुष्य मधुमक्खी की तरह मृत्यु की गोद में गिर रहे हैं।।९।।  
जीर्ण तन कीन्हो जरा, केस भये सिर सेत। 
केस नहीं जम के जरूँ, चावल आ गये चेत।।१०॥ 
   जरा= वृद्धावस्था। सेत= श्वेत, सफेद। जम के जरूँ= यमराज के दूत। यमराज के घर का बुलावा। 
   वृद्धावस्था ने शरीर को जीर्ण-शीर्ण, कमज़ोर कर दिया और सिर के केश सफेद हो गये। ये केश नहीं, ये यमराज के दूत हैं। यमराज के चावल आ गये। चेत जा।।१०।। 
   {जैसे, पीले चावल भेजकर विवाह में आनेका बुलावा (निमन्त्रण) भेजा जाता है और पानेवाला चावलों को पीले रँगे हुए देखकर समझ जाता है कि यह विवाह का बुलावा आया है। इसी प्रकार सफेद बाल आ गये, तो समझ लेना चाहिये कि मौत के देवता यमराज का बुलावा आ गया। ये सफेद चावल मौत का बुलावा है। कह, बुलावे के चावल तो पीले होते हैं और ये तो सफेद हैं? कह, पीले चावल तो विवाह के होते हैं, मौत के तो सफेद ही होते हैं}। 
तो अरु मोहन देह मोहनसे मोहन कहे। 
मोहनसे करु नेह मोहन मोहन कीजिये।।११।। 
   तो= तेरा। मो= मेरा। हन= मारदें, मिटादें। 
   तेरा और मेरा मिटादें ( तो अरु मो हन देह)। भगवानका नाम लेने से, मोहन मोहन कहनेसे मोह नष्ट हो जाता है (मोह नसे, मोहन कहै), इसलिये भगवान से प्रेम करो (मोहन से करु नेह) और उनका नाम लो (मोहन मोहन कीजिये)।।११।। 
 (कवि शालिग्राम जी की बेटीका नाम मोहनी था। श्री स्वामी जी महाराज मानो उनके माध्यम से सबको शिक्षा दे रहे हैं कि भगवान् का नाम लेने से, उनको पुकारने से, बेटा- बेटी तथा धन- सम्पत्ति आदि का मोह मिट जाता है और भगवान् में प्रेमहो जाता है। इसलिये भगवान् का नाम लो)। 
[सम्भव है कि ऐसे और भी कितने ही दोहे आदि होंगे जो श्री स्वामी जी महाराज के रचे हुए हैं; क्योंकि उनके द्वारा बोले गये कितने ही दोहे आदि ऐसे हैं जो दूसरी जगह (संग्रह आदि में ) मिलते नहीं]। 
(११) 'विद्याध्ययन' के समयकी बातें  
   श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि गीताजीसे परिचय हमारे पहलेसे ही है। विक्रम संमत १९७२ में गुरुजनोंने सबसे पहले गीताजीका श्लोक ही सिखाया। गुरुजनोंने परीक्षाके लिये कि इस बालकको संस्कृत विद्या पढ़ावें, (तो) इसकी बुद्धि कैसी है, इसलिये पहले गीताजी का यह श्लोक कण्ठस्थ करवाया– 
न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
                                                    ( गीता  १५|६ )
     उस समय मेरेको यह पता नहीं था कि यह श्लोक किस ग्रंथका और कहाँका है। पीछे पता लगा कि यह गीताजीका श्लोक है। 
   विक्रम संवत १९८४ में(ध्यान देने पर) मेरेको गीताजी कण्ठस्थ मिली (कण्ठस्थ करनी नहीं पड़ी, कण्ठस्थ मिली), पाठ करते-करते कण्ठस्थ हो गई थी, थोड़ीसी भूलें थीं, उनको सुधार लिया गया। 
    जब मैं पढ़ता था, तभी मैंने गुरुजीसे कह दिया कि महाराज! मेरेको तो गीता पढ़ादो, व्याकरणमें मन नहीं लगता है। गुरुजी बोले कि अरे यार! अभी पढ़ले। तू खुद पढ़ लेगा (पहले व्याकरण पढ़ले, फिर गीता अपने-आप पढ़ लेगा)। 
   उन्होने कहा कि मैंने बूढ़े-बूढ़े संतोंको देखा है कि वेदान्तके ग्रंथ पढ़ते-पढ़ते जब 'तत्त्वानुसंधान' पढ़ते हैं तो उसमें संस्कृतकी पंक्तियाँ मिलती है। वो समझमें नहीं आती। तब [संस्कृत समझनेके लिये] व्याकरण पढ़ना शुरु करते हैं (और वो वृद्धावस्था में कठिन होता है। तू अभी व्याकरण पढ़ लेगा तो तेरे वो कठिनता नहीं आयेगी)। किस विषयमें किस आचार्यने क्या कहा है और किस आचार्यका क्या मत है आदि आदि तेरे सन्देह नहीं रहेंगे, स्वयं देख लेगा, पढ़ लेगा, समझ लेगा। जब महाराजने कह दिया, तब पढ़ाई की। [नहीं तो पढ़नेकी इच्छा नहीं थी]। 
    हमारे (श्री) गुरुजी मेरेको शुकदेव कहते थे। मेरे गुरुजीका भाव था कि मैं बहुत बड़ा, श्रेष्ठ बनूँ, ऊँचा बनूँ। (बड़े बड़े संत समाजमें कोई बात अटकी हो और उसका निर्णय नहीं हो पा रहा हो, तो वहाँ, उसका निर्णय करनेवाला मेरा शुकदेव हों अर्थात् उस बातको सुलझानेवाला शुकदेव बनें, ऐसा योग्य बनें। इस प्रकार शुकदेव संत-मण्डलियोंमें सुशोभित हों, आदि)। 
   उन्होनें कहा कि तू महन्त बनजा या मण्डलेश्वर बनजा। (तू चाहे तो) तेरेको मण्डलेश्वर बनादूँ। ( या तू और कुछ बनना चाहे तो वो बनादूँ। मण्डलेश्वर बन जानेपर, फिर तू जहाँ जायेगा, वहाँ आगे जाकर) मैं तुम्हारा प्रचार करूँगा (कि ऐसे ऐसे ये विलक्षण संत आये हैं, आदि)। मेरेको प्रचार करना बहुत आता है। मैंने (नम्रतापूर्वक) कहा कि महाराज! मेरा मन नहीं करता। तब वो बोले– अरे यार, तो फिर तू विरक्त बनजा। मैंने कहा– हाँ, यह ठीक है। 
  लोगोंने मेरेसे कहा कि तुम आयुर्वेद पढ़लो (वैद्य बन जाओ)। आजकल साधूको कोई पूछता नहीं है (बिना कमाईके * जीवन निर्वाह कैसे होगा?)। मैंने गुरुजीको यह बात बताई। गुरुजी बोले कि तेरा मन क्या कहता है?-तेरा मन क्या चाहता है? अर्थात् वैद्य बननेके लिये तेरा मन करता है क्या? मैंने कहा कि महाराज! मेरा मन तो नहीं करता। सुबह-सुबह कौन टट्टी- पेशाब देखे। तब वो बोले कि अच्छा!, तेरी मर्जी अर्थात् तुम्हारी मर्जी हो तो आयुर्वेद पढ़ो और मर्जी नहीं है तो मत पढ़ो– स्वतन्त्रता देदी। (मेरी मर्जी तो थी नहीं, लोगोंके कहनेसे पूछ लिया था, नहीं तो) अगर गुरुजी कह देते तो आयुर्वेद ही पढ़ता मैं तो। (लेकिन उन्होनें छूट देदी, तब वैद्यगी नहीं पढ़ी)। अस्तु। 
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   [टिप्पणी– * जीविकाके लिये भी साधूको नौकरी नहीं करनी चाहिये और न ही कोई धन्धा अपनाना चाहिये, भगवान् ने सब प्रबन्ध पहलेसे ही कर रखा है–
प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर। 
तुलसी चिन्ता क्यों करे भजले श्री रघुबीर।।
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    श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि एक बार मैंने गीताजीमें एक नया अर्थ निकाला। हमारे साथी कहने लगे कि गीताजीकी टीकाओंमें ऐसा अर्थ किसी टीकाकारने लिखा नहीं है। मैंने कहा कि लिखा तो नहीं है, पर ऐसा अर्थ बनता है कि नहीं? कह, बनता तो है (लेकिन किसी टीकामें लिखा हुआ होता तब प्रमाणित माना जाता)। 
   ऐसे करते-करते हमलोग गुरुजीके पास आ गये और यह बात उनसे पूछी कि सही है या नहीं? तब गुरुजीने बताया कि यह अर्थ सही है, ऐसा अर्थ बनता है। तब हमारे साथी बोले कि बनता तो है, पर ऐसा अर्थ कहीं लिखा नहीं है। तब गुरुजी बोले कि अब लिखदो, लिखा हुआ हो जायेगा। (अर्थ तो यह सही है, जो शुकदेवने किया है)। 
    गुरुजीके पढ़ा देनेके बाद हमलोग बैठकर आपसमें चर्चा करते कि आज क्या पढ़ाया*।   
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(टिप्पणी– * जैसे, अमुक सूत्रका क्या भाव है, अमुककी संगति कैसे और कहाँ लगेगी, अमुकका क्या अर्थ बताया, अमुक सूत्रके लिये कौनसी बात बतायी थी आदि आदि। एकको याद न होती तो दूसरा बता देता, उसको भी याद नहीं आती तो तीसरा बता देता, आदि।) 
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   जब कोई बात किसीको भी याद नहीं आती तब गुरुजीके पास जाते पूछनेके लिये। वहाँ जानेपर गुरुजी पूछते कि कैसे आये हो? तो हमलोग कहते कि एक बात पूछनी है। गुरुजी कहते कि बोलो। “बोलो” कहते ही, पूछनेसे पहले ही वो बात समझमें आ जाती, याद आ जाती। 
   कभी-कभी तो उनके पासमें जाते और बिना बोले ही समाधान हो जाता। वापस जाते देखकर पूछते कि कैसे आये थे? तो हमलोग कहते कि एक बात पूछनेके लिये आये थे। कह, पूछा नहीं? कह, उसका तो यहाँ आते ही, पूछनेसे पहले ही समाधान हो गया। 
   जिस बातको हम कई जने मिलकर भी याद नहीं कर पाते, समझ नहीं पाते, वही बात उनके सामने जाते ही याद आ जाती है, समझमें आ जाती है, तब मेरे पर असर पड़ा कि इन (ज्ञानीजनों) के पास-पासमें एक ज्ञानका घेरा रहता है (जो उस घेरेके अन्दर जाते ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है)। 
    पढ़ाई ऐसी (समझ-समझकर) करनी चाहिये कि वो हम दूसरोंको भी पढ़ा सकें। जो बात मेरी समझमें आ जाती, वो मैं दूसरोंको भी समझा देता था। एक प्रकारसे समझमें नहीं आती तो दूसरे प्रकारसे समझा देता। उससे भी नहीं आती तो तीसरे, चौथे ढंगसे समझा देता। गुरुजी कहते थे कि यह शुकदेव (समझानेके लिये) जिसके पीछे पड़ जाता है, उसको समझाकर ही छोड़ता है, समझा ही देता है।
   मैंने गीता पाठशाला खोल रखी थी, उसमें मैं गीता पढ़ाता था। 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' पढ़नेके बादमें 'सिद्धान्तकौमुदी' को मैं अपने- आप पढ़ गया, अपने- आप उसकी संगतियाँ लगाली। 
    मैंने विद्यार्थियोंको संस्कृत व्याकरण आदि पढ़ाया है। पढ़ाता हुआ ही आया था पाठशाला छोड़कर (श्री सेठजीके पास में)। 
   श्रीमद्भागवतकी कथा सबसे पहले मैंने विक्रम संमत १९७९ में की थी। मैं रामायण आदिकी कथा भी करता था। गाना बजाना भी खूब किये हैं। (अकेले) हारमोनियम आदि पर भजन गाते हुए रात भर जागरण किये हैं। मैंने वेदान्त की पढ़ाई की है और आचार्य तककी परीक्षा दी है। मेरी रुचि तो भजन साधन करनेमें थी। पढ़ाई तो गुरुजनोंके कहनेसे करली। कहना मानना मेरा स्वभाव था। 
   हमारे गुरुजी कहते थे कि हमारे पास विद्यार्थी टिकता नहीं है और अगर टिक जाय, तो विद्वान बन जाता है; क्योंकि सुबह चार बजेसे लेकर रात्रि दस बजे तक वो पढ़ाईमें ही लगाये रखते थे। बीचमें कोई आधे घंटेका विश्राम होता था। 
   वो कहते थे कि [पढ़ाईके अलावा आपस में दूसरी] बातें मत करो, सो जाओ भलेही, पर बातें मत करो; क्योंकि सो जानेसे (नींद ले लेनेसे) ताजगी आयेगी (और बातें करोगे तो भीतर कचरा भरेगा, समय नष्ट होगा, शिथिलता रहेगी)। 
   [पढ़ाईमें ही लगे रहनेके कारण] हमारे सोनेकी मनमें ही रही। जब रविवार का दिन आता, तब हमलोग बिस्तर लगा लेते पहले दिन ही, कि कल सोयेंगे। 
   बड़ी तंगीसे पढ़ाई की है कि कपड़े भी फट गये तो दूसरे लायेंगे कहाँसे।  
    उन दिनों चार रुपयोंमें कल्याण आता था। मैं और (मेरे सहपाठी) चिमनरामजी– दोनों मिलकर कल्याणके ग्राहक बने। हमने (कल्याण वालोंको) कहा कि हम विद्यार्थी हैं(हमारे लिये रियायत की जाय, पैसोंकी तंगी है)। तो हमारे लिये तीन रुपयोंमें कल्याण आता था, एक रुपयेकी छूट की गई। 
   मैं पढ़ता था, उन दिनोंमें जीवनरामजी हर्ष(ब्राह्मण) ने एक प्रेस बनाया– हर्षप्रेस। मेरे मनमें आया कि (मेरा वश चले तो) मैं भी एक प्रेस खोलूँ– गीताप्रेस। 
उस समय गीताप्रेसका नामोनिशान भी नहीं था (गीताप्रेस बादमें खुला)। 
    मेरे श्री सेठजीसे परिचय नहीं था। श्री सेठजीको तो मैं एक कल्याणमें लेख लिखनेवाले– लेखक समझता था। इनके लेख पढ़कर मेरे पर बड़ा असर पड़ा कि ऐसे लेख विद्याके जोरसे तो नहीं लिखे जा सकते हैं, लिखनेवाले कोई अनुभवी हैं, ये लेख अनुभवसे लिखे गये हैं। इनसे मिलना चाहिये। 
   उस समय मैंने एक न कहनेवाली बात कहदी जो लोगोंको बुरी लगती है। मैंने कहा कि गीताके जितने गहरे भाव गोयन्दकाजी समझते हैं, इतने गहरे भाव समझनेवाले गीताजीके टीकाकारोंमें मेरेको कोई नहीं दीखता है। इतना ही नहीं, ज्ञानयोग कर्मयोग आदिके गहरे भावोंके विवेचन करनेवाले भी बहुत कम हैं। (श्री सेठजीके समान दूसरा कोई दीखता नहीं है)। 
   मधुसूदनाचार्यजी महाराजकी लिखी हुई गीताजीकी टीका– 'गूढ़ार्थ-दीपिका' मेरेको बड़ी प्रिय लगी। मैं उसको अपने पासमें रखता था। विद्वत्तामें तो वो इतने बड़े लगे कि उनके समान कोई दीखता नहीं, पर गीताजीके गहरे भावोंको जितने गोयन्दकाजी समझते हैं, उतने ये (मधुसूदनाचार्यजी) भी नहीं समझते। उस समय मैं मिला दोनोंसे ही नहीं था। न तो श्री सेठजीसे मिला था और न उनसे। उनसे तो मिलता ही कैसे, वो तो पहले ही हो गये थे। 
   एक और बात बता दें। मेरे मनमें आया कि गीताप्रेस खोला है, पर गीताजी मैं सुनाऊँ तब पता चले कि गीताजी क्या होती है। (अपनेको गीताका जानकार, पण्डित समझता था)। अस्तु। 
(१२) कुछ सिद्धान्तोंकी बातें  
आपके सिद्धान्तों ('मेरे विचार') में लिखा है कि- 
   १. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।
   २. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक तत्त्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है। किसीसे कुछ माँगना नहीं है। रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है। अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा। इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया। वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे। मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा। 
   ३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं।  
   ४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें। व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ। 
   ५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है। मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य, प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है। मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकोर्ड की हुई वाणी ही) साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी। गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ। 
    ६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने, जय-जयकार करने, माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ।  
   ७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता। मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ। 
   ८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ। 
   ९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ।  
   १०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्त्व देता हूँ। 
   ११. रुपये और स्त्री– इन दो के स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है। 
    १२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ। इसी तरह अपनी दुकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ। गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है । 
    १३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें। मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें। पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें। किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं। 
   १४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग– तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ। 
   १५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है। उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है। 
[ ऐसे सिद्धान्त (मेरे विचार) ''एक संतकी वसीयत'' नामक पुस्तक (पृष्ठ १२, १३) में भी छपे हुए हैं (प्रकाशक– गीताप्रेस गोरखपुर)]। 
 (१३) दो महापुरुषोंके मिलनकी बातें 
('परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' और  'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के मिलनकी बातें)।    
   {अब 'श्री सेठजी' और 'श्री स्वामी जी महाराज' के मिलनका वर्णन किया जायेगा, जिसका काफी वर्णन तारीख एक अप्रैल उन्नीस सौ इकरानवें (दि.19910401/900 – goo.gl/ub5Pjy) के दिन नौ बजेवाले प्रवचनमें स्वयं 'श्री स्वामी जी महाराज'ने गीताप्रेस, गोरखपुरमें किया है और दूसरी जगह (दि. 19951205/830 बजे, goo.gl/cLtjIi आदि के सत्संगमें) भी किया है}। 
    श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि  मेरे मनमें रही कि उनसे (श्रीसेठजी) कैसे मिलें? पैसा मैं पासमें रखता नहीं, (किसीके देने पर भी) न लेता हूँ। (कहीं जानेके लिये) टिकटके लिये भी किसीसे कहता नहीं। पैदल चलकर जाऊँ तो वहाँ पहुँच नहीं पाऊँ; क्योंकि मैं पहुँचूँ उससे तो पहले ही वो प्रोग्राम पूरा करके आगे चलदे। वो गाड़ीसे चलते हैं, मैं पैदल। कैसे पहुँचता। फिर गम्भीरचन्दजी दुजारी (संत श्री चिमनरामजीके मित्र) बोले कि वार्षिकोत्सव पर श्री सेठजी (ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम) चूरू आनेवाले हैं, आपको मैं ले जाऊँगा, चलो। मैंने उनसे कहा नहीं था। वो अपने मनसे ही बोले। तब मौका समझकर कर मैं और चिमनरामजी चूरू आये। 
   श्री सेठजी उस समय चूरू पहुँचे नहीं थे। कोई पंचायतीके कारण देरी हो गई थी, आये नहीं थे। मैं वहीं रहने लगा। गाँवमेंसे भिक्षा ले आना, पा लेना और वहीं रहना। मौन रखता था। 
    फिर सुबहकी गाड़ीसे श्री सेठजी आये।(किसीने उनको बताया कि ऐसे-ऐसे यहाँ संत आये हुए हैं तो श्री) सेठजी खुद आये हमारी कुटिया पर, तो मैं भी गया उनके सामने। उस समय थोड़ी देर मौन रखता था मैं। बोलता नहीं था। तो श्री सेठजी मिले बड़े प्रेमसे। 
   श्री सेठजीने कहा कि हमतो आपलोगोंके (सन्तों के) सेवक हैं। मेरे मनमें आया कि सेवा लेनेके लिये ही आये हैं, सेवा करो, सेवा लेंगे। हमारी सेवा और तरहकी है। मनमें भाव ही आये थे, बोला नहीं था। बड़े प्रेमसे मिले। फिर वहाँ ठहरे (और सत्संग करने लग गये)। संत मिलनके प्रसंग में श्री स्वामी जी महाराज कभी- कभी यह दोहा बोलते थे–
(चार मिले चौंसठ खिले बीस रहे कर जोङ। 
संतनि से संतन मिले पुलके सात करोङ।। 
 (चार मिले और चौंसठ खिल गये तथा बीस हाथ जोङने लगे। जब संतोंसे संत मिले तो सात करौङ पुलकित हो गये अर्थात् आपस में जब एक संत दूसरे संत से मिले तो बङे प्रसन्न हुए। दोनोंकी दो-दो–चार आँखे मिली और दोनोंके मुखवाले (बत्तीस और बत्तीस–) चौंसठ दाँत खिल गये। (दो-दो हाथोंकी) बीस अंगुलियों से  दोनों संतों ने (प्रणाम करते हुए) हाथ जोङ लिये और (प्रसन्नता से) दोनोंके सात करौङ रोम पुलकित हो गये, हर्षित हो गये। (एक शरीर में साढ़ेतीन करौङ रोम होते हैं। दो शरीरोंके सात करौङ हुए)। 
  यह घटना लगभग विक्रम संवत १९८९– १९९१ की है। 
    हमारी पोल भी बतादें– श्री सेठजीने सत्संग करवाया। मैंने सुना। तो कोई नयी बात मालुम नहीं दी। ये गीताजीका अर्थ करेंगे शायद, तो अर्थ तो मैं बढ़िया करदूँ इनसे। वो पदोंका अर्थ करते, उनका अर्थ करते; तो मनमें आती कि क्यों तकलीफ देखते हैं। मेरे मनमें अभिमान था कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ। मैंने विद्यार्थियोंको संस्कृत व्याकरण आदि पढ़ाया है। पढ़ाता हुआ ही आया था पाठशाला छोड़कर। यह अभिमान एक बड़ा भारी रोग है। श्री सेठजी बात करते, तो बातें तो उनकी मेरेको अच्छी लगती; परन्तु श्लोकोंका अर्थ करते, ये करते, तो मेरे बैठती नहीं थी बात। 
    पढ़ना-पढ़ाना कर लिया, गाना-बजाना कर लिया। लोगोंको सिखा दिया। लोगोंको सुना दिया। सुनाता था। सुनने-सुनानेसे अरुचि हो गई। अब तो भाई! साधनमें लगना है अच्छी तरहसे– यह मनमें थी। तो दृष्टि पसार कर देखा तो गोयन्दकाजीके समान कोई नहीं दीखा मेरेको। दीखा किससे? कि लेखोंसे।  
    गीताके विषयमें ये लेख लिखते थे, वो लेख देते थे कल्याणमें। केवल इनके लेख देखकर इतने जोरोंसे जँच गई कि मैंने न कहनेवाली बात भी कहदी। मैंने कहा कि गीताजीके गहरे अर्थको जितना गोयन्दकाजी जानते हैं, उतना टीकाकारोंमें कोई नहीं दीखता है हमें। 
(१४) 'सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका' को भगवान् के दर्शन  
    'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' भारतके राजस्थान राज्यके चूरू शहरमें रहनेवाले थे। इनके पिताका नाम खूबचन्दजी गोयन्दका था और माताजीका नाम था श्री शिवाबाईजी। चूरूवाली हवेलीमें एक बार ये चद्दर ओढ़कर लेटे हुए थे। नींद आयी हुई नहीं थी। उस समय इनको भगवान् विष्णुके दर्शन हुए। (इन्होनें सोचा कि सिर पर चद्दर ओढ़ी हुई है, फिर भी भगवान्  दीख कैसे रहे हैं?) इन्होने चद्दर हटाकर देखा, तो भी भगवान् वैसे ही दिखायी दिये। भगवान् और आँखोंके बीचमें चद्दर थी। फिर भी भगवान् वैसे ही दीख रहे थे। चद्दरकी आड़ (औट) से भगवानके दीखनेमें कोई फर्क नहीं आया। 
   श्री सेठजीने बताया कि ऐसे अगर बीचमें पहाड़ भी आ जाय, तो भी भगवानके दीखनेको वो रोक नहीं सकेगा। उसकी आड़में भगवानका दीखना बन्द नहीं होगा। (फिर चद्दर ओढ़े-ओढ़े ही दर्शन होते रहे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है)। 
(१५) भगवान् द्वारा 'सेठजी' को 'निष्कामभाव' के प्रचारकी प्रेरणा 
   जब इनको भगवान ने दर्शन दिये, तब इनको प्रेरणा हुई कि निष्काम भावका प्रचार किया जाय। (निष्काम भाव की बात सबसे अधिक गीताजी में आई है) इसलिये इन्होंने गीताजी का प्रचार किया। 
   भगवान् ने कहा है कि गीता का प्रचार करनेवाले के समान मेरा और कोई प्रिय नहीं होगा और वो नि:सन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा। (गीता १८|६८, ६९)। श्री सेठजी कहते हैं कि मेरे ये दो श्लोक लग गये, जैसे किसीके चोट लग जाय, ऐसे लग गये। इसीलिये इन्होंने गीताप्रेस खोला। गीताप्रेस कोई कमाई के लिये नहीं खोला गया। केवल दुनियाँ का हित हो, निष्कामभाव का प्रचार हो, इसलिये खोला गया। (किस प्रकार खोला– यह आगे बताया है)। 
   आज गीताप्रेसको कौन नहीं जानता। उस गीताप्रेसकी स्थापना करनेवाले ये ही थे। ये ही गीताप्रेसके प्रवर्तक, उत्पादक, जन्मदाता, संरक्षक, संचालक आदि सबकुछ थे। अस्तु। 
    इन्होने ही चूरूमें ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम और कलकत्तामें गोबिन्दभवन बनवाया। इन्होंने ही ऋषिकेश में, गंगातट पर गीताभवन बनवाया और सत्संगका प्रचार किया। इन्होंने ही अद्वितीय गीताजीका प्रचार किया। (गीताजी पर "तत्त्वविवेचनी" नामक टीका लिखवाई और अनेक ग्रंथोंकी रचना की)। 
   आपकी ही कृपासे 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' जैसे महापुरुष सुलभ हुए। आपके द्वारा जगतका बड़ा भारी हित हुआ है। दुनियाँ सदा आपकी ऋणी रहेगी। 
    श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि ये गुप्तरीतिसे भजन करते थे। ऐसे इनकी निष्ठा थी कि मेरे भगवान् की तरफ चलनेको कोई जान न जाय, किसीको पता न लगे– इस रीतिसे भजन करते थे। 
   एक प्रसंग चला था। उसमें ऐसी बात चली थी कि प्रह्लादजी को बहुत कष्ट हुआ, बड़ी-बड़ी त्रास उनको मिली। ऐसी बात चलते-चलतेमें श्री सेठजीने कहा था कि प्रह्लादजीने अपनेको प्रकट कर दिया। इस वास्ते विघ्न आये। और वे (श्री सेठजी) कहते थे कि प्रकट नहीं होना चाहिये। गुप्तरीति से भजन होना चाहिये। 
   मनुष्य अपने साधारण धनको भी गुप्त रखते हैं, तो क्या भजन-स्मरण जैसी पूँजी (भी) कोई साधारण है, जो लोगोंमें प्रकट हो जाय! यह तो, गुप्तरीति से ही भजन करना चाहिये। ऐसा उनका ध्येय था, इसी तरहसे लोग कहते थे।
    ऐसी उनकी बड़ी, ऊँची अवस्था हो गई थी। सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार– इस विषयमें मेरी समझमें उनकी अच्छी, बढ़िया जानकारी थी। 
(१६) 'श्री मंगलनाथजी महाराज' से 'सेठजी' को प्रेरणा 
    श्री सेठजीके जीवन पर मंगलनाथजी महाराजका बड़ा असर पड़ा। ऐसा उन्होने स्वयं कहा है। वे संस्कृतके बड़े विद्वान भी थे और संत भी थे। उनके संतत्वकी छाप गोयन्दकाजी पर पड़ी (प्रभाव पड़ा) और विद्वत्ताकी छाप हमारे विद्यागुरुजी पर पड़ी। वे कहते थे कि बहुत बड़ा निर्णय मंगलनाथजी महाराज करते थे। वे साधूवेषमें थे। वे चूरू आये थे, तो उनकी मुद्रा*, उदासीनता, तटस्थता और विरक्ति बड़ी विलक्षण थी। सेठजीने कहा कि (वो देखकर) मेरेपर असर पड़ा। वे(सेठजी उनको) भावसे गुरु मानते थे, शिष्य-गुरुकी दीक्षा आदि नहीं (ली थी, उनसे दीक्षा नहीं ली थी, उनको मनसे गुरु मानते थे)। (श्री सेठजी कहते हैं कि) उनसे मेरे जीवनपर असर पड़ा। इस तरहसे श्री सेठजी बड़े विचित्र थे। 
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   {टिप्पणी– * मुख, हाथ, गर्दन, आदि की कोई विशेष भाव सूचक स्थिति को मुद्रा कहते हैं। (– बृहत हिन्दीकोश से)}। 
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(१७) 'सेठजी' के मित्र 'हनुमानदासजी गोयन्दका' 
    कुटम्बमें इनके एक मित्र थे। उनका नाम था हनुमानदासजी (हनुमानबख्सजी) गोयन्दका। ये हनुमान प्रसादजी पोद्दार (कल्याण- सम्पादक)– ये नहीं, दूसरे थे– हनुमानदासजी  'गोयन्दका'। (वो तो 'पोद्दार' थे और ये 'गोयन्दका' थे अर्थात् ये हनुमानदासजी दूसरे थे)। इनके (हनुमानदासजी और श्री सेठजी के) बालकपनमें बड़ी, घनिष्ठ मित्रता थी। कभी दोनों इस माँके पास रहते, कभी दोनों उस माँके पास रहते– ऐसे मित्रता थी।
वो लग गये थे व्यापारमें, कलकत्तामें और ये(श्री सेठजी) लग गये अपने (साधनमें)।
   साधनकी बात उनको (हनुमानदासजीको) भी नहीं बताई। उनसे भी गुप्त रहते थे और ये इतने थे कि इनके पिताजी पर भी असर था कि यह जैदा(जयदयाल) काम करेगा तो पक्का आदमी है, वो छोड़ेगा नहीं।
    जब इनको खूब अनुभव हो गया, बहुत विशेषतासे। तब विचार किया कि ये बातें मेरे साथ ही चली जायेगी, दूसरोंको पता ही नहीं लगेगा; तो क्या करें? कैसे करें भाई?
फिर विचार किया कि मेरी बात सुनेगा कौन? लोग तो कहेंगे– पागल है। इस वास्ते पागलकी बात कौन सुनता है। तो भाई! हनुमान सुनेगा मेरी बात। ये थे चूरूमें और वो थे कलकत्तामें। वे खेमकाजी (आत्मारामजी) के यहाँ मुनीम थे।
   ऐसी बात आयी मनमें तो इन्होंने उनको पत्र लिखा कि तुम आओ। तुमको खास बात कहनी है। मेरी बात किसीको कहनेका विचार था नहीं; पर अब विचार किया कि किसीको कहदूँ। वो मैं तेरेको कहूँगा। तुम आओ। मैं तुम्हारेसे बात करूँगा। तुम्हारे समान और कोई मेरा प्यारा है नहीं जिससे कि मैं अपनी बात कहूँ। तब वो आये। 
    उस समय चूरूमें रेल नहीं हुई थी(रेल्वे लाइन नहीं थी)। ऊँटों पर ही आये थे। सामने गये और मिले। (उन्होने पूछा कि) क्या बात है? तो फिर उनके सामने बातें कही। (कि) मैं तेरेको कहता हूँ, तू भी इसमें लगजा। भगवानमें लगजा, अच्छी बात है।
    बातें (ये) बताई कि देख! परमात्मतत्त्वका अनुभव आदमीको हो सकता है और तूँ और मैं बात कर रहे हैं, इस तरहसे भगवानसे भी बात हो सकती है। ऐसा हो सकता है। तो उनके बड़ा असर पड़ा कि ऐसा हो सकता है!? कह, हाँ। तो लगजा भजनमें। तू जप कर। भगवन्नामका जप कर। जपकी बात इनके विशेषतासे थी। 
  भगवन्नामका रामरामरामरामरामरामरामराम राम… यह जप भीतरसे करते थे, श्वाससे। अभी, वृद्धावस्था तक भी, देखा है– (श्री सेठजी) कोई काम करते, बोलते, बात करते, तो बोलनेके बादमें स्वत: जप शुरु हो जाता श्वाससे। वो निगाह रखते(उस जपका कोई ध्यान रखते) तो दूसरोंको मालुम हो जाता। रामरामरामरामराम रामरामरामराम-ऐसे। तो ऐसे भीतरसे जप होता था (उनके)। तो वो जप करना शुरु किया (हनुमानदासजीने)।
   जप करते-करते उनको कुछ वैराग्य हुआ, तो कह, मेरे मनमें आती है कि यहाँ बड़ा झंझट है, चलो साधू हो जावें।
   तो सेठजीने कहा- देख! साधू तो हो जावें; परन्तु तेरे तो बच्चा होनेवाला है, (तू) विवाह करेगा और तेरे बालक होगा, (इस प्रकार भविष्य की बात सेठजी बहुत कम कहते थे) तो तेरेको पीछा(वापस) आना पड़ेगा और मेरेको तू ले जायेगा तो मैं पीछे लौटकर आऊँगा नहीं। तो तेरा-मेरा सत्संग नहीं होगा। तो कहा– अच्छा, नहीं चलेंगे(साधू नहीं बनेंगे)।
   ऐसी कई-कई बातें इनके आपसमें हुई थी। मैंने बहुत-सी बातें तो हनुमानदासजीसे सुनी है। 
 (१८) 'सेठजी' के द्वारा 'सत्संग' का विस्तार 
इसके बाद वो भी भजनमें लग गये। ये फिर काम करते थे चक्रधरपुरमें। फिर बाँकुड़ा (बंगाल) आ गये। 
   श्री सेठजीने जो बातें बतायी थी हनुमानदासजीको, वो कुछ प्रसिद्ध हो गई थी। इसलिये कलकत्तामें सत्संग किया करते। ये भी दुकानदार, वो भी दुकानदार, समय मिलता नहीं, इसलिये कह, कल रविवार है (छुट्टी है), तो शनिवारको ही लोग खड़गपुर आ जाते। बाँकुडासे वो आ जाते, कलकत्तासे ये चले जाते और रात भर सत्संग होता। सत्संग करके रविवार शामको ही वापस चले जाते। इस तरह सत्संग चला। 
   सत्संग चलते-चलते कुछ प्रचार हुआ। लोग भी जानने लगे। प्रचार करनेकी इनके धुन थी भीतर। अब लोगोंमें प्रसिद्धि हो गई। धर्मशाला नामक गाँवमें दुकान की थी, तो वहाँकी विचित्र बात मैंने सुनी– 
   जितने दुकानदार थे, सेठजी उनके सामने ताश(पत्ते) खेलते और बाजीगरकी तरह कळा दिखाते। लोग इकट्ठे हो जाते तब सत्संग सुनाते। ऐसे ही सत्संगके लिये तो इकट्ठे होते नहीं लोग; तो ऐसे चमत्कार दिखाकर सत्संग सुनाते। ऐसी कई-कई बातें है। तो जब सत्संग शुरु हो गया तो कलकत्तेमें भी शुरु हो गया। सत्संग होने लगा। (ऐसे) कई वर्ष बीत गये। 
(१९) 'सेठजी' द्वारा "कल्याण"(-पत्र) शुरु 
    फिर वो चूरूसे जा रहे थे कलकत्ताकी तरफ; तो बीचमें बातें हुई। तो घनश्यामदासजी बिड़लाने इनको सूझ दी कि तुम सत्संग करते हो, (उन बातोंका) पत्र निकालो, तो कईयोंको लाभ हो जाय। तो जयदयालजीने कहा कि पत्र निकालना, करना आता नहीं। तो हनुमान प्रसादजी पोद्दारने कहा कि सम्पादन तो मैं कर दूँगा। तो श्री सेठजीने कहा कि लेख मैं लिखा दूँगा। तो ठीक है। कल्याण शुरु हुआ। तो कल्याण खूब चला और लोगोंने बहुत अपनाया और बहुत लाभ हुआ। वो कल्याण चलता आ रहा है आज तक। पहले बम्बईसे शुरु हुआ और फिर गीताप्रेसमें आ गया। 
(२०) 'सेठजी' के द्वारा 'गीताप्रेस' की स्थापना
   गीताप्रेस कैसे हुआ? 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' गीताजीके भाव कहने लगे। गहरा विवेचन करने लगे। तो कह, गीताजीकी टीका लिखो। तो गीताजीकी टीका लिखी गई- साधारण भाषा टीका। वो गोयन्दकाजीकी लिखी हुई है। उस पर लेखकका नाम नहीं है। वो छपाने लगे कलकत्ताके वणिकप्रेस में। छपनेके लिये मशीनपर फर्मा चढ़ गया, (छपने लगा), उस समय अशुद्धि देखकर कि भाई! मशीन बन्द करो, शुद्ध करेंगे। (मशीन बन्द करके शुद्धि की गई)। ऐसे (बार-बार करनेसे) वणिकप्रेस वाले तंग आ गये कि बीचमें बन्द करनेसे, ऐसे कैसे काम चलेगा? मशीन खोटी (विलम्बित) हो जाती है हमारी। ऐसी दिक्कत आयी छपानेमें। तब विचार किया कि अपना प्रेस खोलो। अपना ही प्रेस, जिसमें अपनी गीता छाप दें। तब गीताप्रेस खोला।
{विक्रम संवत १९८० में यह गीताप्रेस गोरखपुर (उत्तर-प्रदेश) में खोला गया}। 
(२१) 'सेठ श्री जयदयाल जी गोयन्दका का "सेठजी" नाम पङनेका कारण 
   (पहली बार मिलने के बाद) फिर हम (चूरूसे) गीताप्रेस गोरखपुर आये। वहाँ कई दिन रहे। सत्संग हुआ। फिर ऋषिकेशमें सत्संग हुआ और इस प्रकार श्री सेठजी और हमारे जल्दी ही भायला (मित्रता, अपनापन) हो गया, कोई पूर्व(जन्म)के संस्कार रहे होंगे(जिसके कारण जल्दी ही ऐसे मित्रपना हो गया)। 
    श्री सेठजीको मैं श्रेष्ठ मानता था। लोग पहले उनको आपजी-आपजी(नामसे) कहते थे। मैं उनको श्रेष्ठ कहता था। फिर लोग भी श्रेष्ठ-श्रेष्ठ कहते-कहते सेठजी कहने लग गये। 
   एक बार सेठजी बोले कि स्वामीजीने हमको सेठ(रुपयोंवाला) बना दिया। मैंने कहा कि मैं रुपयोंके कारण सेठ नहीं कहता हूँ, रुपयेवाले तो और भी कई बैठे हैं। मेरा सेठ कहनेका मतलब है– श्रेष्ठ। 
(२२) 'भाईजी' 'श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार'  
   सेठजीको तो मैं ऊँचा मानता था, श्रेष्ठ मानता था और भाईजी तो हमारे भाईकी तरह (बराबरके) लगते थे। साथमें रहते, विनोद करते थे ऐसे ही। 
   भाईजीका बड़ा कोमल भाव था। भाईजीका 'प्रेमका बर्ताव' विचित्र था- दूसरेका दुःख सह नहीं सकते थे (दूसरेका दुःख देखकर दुःखी हो जाते थे)। बड़े अच्छे विभूति थे। हमारा बड़ा प्रेम रहा, बड़ा स्नेह रहा, बड़ी कृपा रखते थे। 
    ये श्री सेठजीके मौसेरे भाई थे। पहले इनके(आपसमें) परिचय नहीं था। इनके परिचय हुआ शिमलापाल जेलके समय। 
    भाईजी पहले काँग्रेसमें थे और काँग्रेसमें भी गर्मदलमें थे। बड़ी करड़ी-करड़ी बातें थीं उनकी (गर्मदलके नियम बड़े कठोर होते थे)। भाईजी जब बंगालके शिमलापाल कैदमें थे, तब श्री सेठजीको पता लगा कि हनुमान जेलमें है। पीछे इनकी(भाईजीकी) माताजी थी, घरमें उनकी स्त्री(पत्नि) थी। उनका प्रबन्ध श्री सेठजीने किया। उस प्रबन्धका असर पड़ा भाईजी पर और वो इनके(श्री सेठजीके) शिष्य ही बन गये, अनुयायी ही बन गये। 

(२३) 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का साधन–  'सत्संग' 

   श्री सेठजीने मेरेसे कहा कि व्याख्यान(सत्संग) सुनाओ। तो मैंने कहा कि सेठजी! इन सबसे धापकर (तृप्त होकर) आया हूँ। कथायें करली, भेंट-पूजा कराली, रुपये रखकर देख लिये, बधावणा करवा लिये, चेला-चेली कर लिये, गाना-बजाना कर लिया, पेटी (हारमोनियम) सीखली, तबला, दुकड़ा बजाने सीख लिये। अकेले भजन गा-गाकर रातभर जागरण कर लिये, व्याख्यान सुना दिये,  आदि आदि सब कर लिये। इन सबको छोड़ दिया। इन सबसे अरुचि हो गई। 
   श्री सेठजीने कहा कि सुनाओ। तो मैंने कहा कि इन सबसे धापकर आया हूँ, अब सुनानेका मन नहीं है, अबतो साधन करना है। श्री सेठजीने कहा कि यही साधन है अर्थात सत्संग सुनाना ही साधन है। कह, यह साधन है! तो मैं सुनानेमें ऐसा लगा कि एक-एक दिनमें कई-कई घंटे सत्संग सुनाता (छ:छ:, आठ-आठ घंटोंसे भी ज्यादा सत्संग सुनाता)। 
   श्री सेठजीने कहा कि सुनाओ, सुनाओ; तो इतना भाव भर दिया कि सुनाता ही सुनाता हूँ, उनका शरीर जानेके बाद भी। अभी तक सुनाता हूँ, यह वेग उन्हींका भरा हुआ है। 
   लोगोंने प्रेरणा की कि स्वामीजीको कलकत्ता भेजो, यहाँ सत्संग करानेवाला कोई नहीं है। तो वे कलकत्ता ले गये। फिर वहाँ कई महीनों(सात-सात, आठ-आठ महीनों) तक सत्संग सुनाता था। लोग सुनते थे। सुबह आठ बजेसे दस, शामको आठ बजेसे दस और कभी-कभी दुपहरमें दो से चार बजे– ऐसे सत्संग करते थे। भिक्षा माँग कर पा लेना और सत्संग सुनाना। ऐसे कई वर्ष बीत गये। [पहले पुराने गोबिन्दभवनमें सत्संग होता था, फिर बादमें यह नया गोबिन्दभवन कार्यालय बनाया गया]।
ऋषिकेशमें सत्संग पहले गंगाके इस पार, काली कमलीवाली धर्मशालामें होता था, फिर बादमें उस पार होने लग गया। यह गीताभवन बादमें मेरे सामने बना है।
    गीताजीकी टीका "तत्त्वविवेचनी" (लेखक-'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका') हमारे सामने लिखी गई है। 
    श्री सेठजीने कहा कि स्वामीजी! गीताजीका प्रचार करो। मैं बोला कि कैसे करें? तो बोले कि म्हे कराँ ज्यूँ करो- जैसे हम करते हैं ऐसे करो अर्थात् जैसे हम व्याख्यान देकर करते हैं, गीताजीकी टीका लिखकर करते हैं, ऐसे करो। (इस प्रकार उनकी आज्ञासे हमने भी गीताजी पर टीका लिखी– "साधक-संजीवनी")। 
(२४) 'सत्संग' से बहुत ज्यादा लाभ 
(श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि) यह बात जरूर है कि संतोंसे लाभ बहुत होता है। संत-महात्माओंसे बहुत लाभ होता है। 
   मैं कहता हूँ कि (कोई) साधन करे एकान्तमें, खूब तत्परतासे, उससे भी लाभ होता है; पर सत्संगसे लाभ बहुत ज्यादा होता है। 
   साधन करके अच्छी, ऊँची स्थिति प्राप्त करना कमाकर धनी बनना है और सत्संगमें गोद चला जाय( गोद चले जाना है)। साधारण आदमी लखपतिकी गोद चला जाय तो लखपति हो जाता है, उसको क्या जोर आया। कमाया हुआ धन मिलता है। इस तरह सत्संगमें मार्मिक बातें बिना सोचे-समझे, बिना मेहनत किये मिलती है।
कोई उद्धार चाहे, तो मेरी दृष्टिमें सत्संग सबसे ऊँचा(साधन) है। 
   भजनसे, जप कीर्तनसे– सबसे लाभ होता है, पर सत्संगसे बहुत ज्यादा लाभ होता है। विशेष परिवर्तन होता है। बड़ी शान्ति मिलती है। भीतरकी, हृदयकी गाँठें खुल जाती है, एकदम साफ-साफ दीखने लगता है। तो सत्संगसे (बहुत)ज्यादा लाभ होता है। 
   सत्संग सुनानेका सेठजीको बहुत शौक था, वो सुनाते ही रहते, सुनाते ही (रहते)।
   सगुण का ध्यान कराते तो तीन घंटा (सुनाते), सगुण का ध्यान कराने में, मानसिक-पूजा करानेमें तीन घंटा। 
   निर्गुण-निराकार का (ध्यान) कराते तीन घंटा(सुनाते)। बस, आँख मीचकर बैठ जाते। अब कौन बैठा है, कौन ऊठ गया है, कौन नींद ले रहा है, कौन (जाग रहा है)। परवाह नहीं, वो तो कहते ही चले जाते थे। बड़ा विचित्र उनका स्वभाव था। बड़ा लाभ हुआ, हमें तो बहुत लाभ हुआ भाई। अभी(भी) हो रहा है। गीता पढ़ रहा हूँ, गीतामें भाव और आ रहे हैं, नये-नये भाव पैदा हो रहे हैं, अर्थ पैदा हो रहे हैं। बड़ा विचित्र ग्रंथ है भगवद् गीता। 
   साधारण पढ़ा हुआ आदमी भी लाभ ले लेता है बड़ेसे (बहुत पढ़े हुए– बड़े आदमीसे भी ज्यादा लाभ साधारण पढ़ा हुआ आदमी गीतासे ले लेता है)। गीता और रामायण- ये दो ग्रंथ बहुत विचित्र है। इनमें बहुत विचित्रता भरी है।
   —'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' द्वारा दिये गये दि. 19951205/ 830 बजेके सत्संग-प्रवचनका अंश।( goo.gl/cLtjIi )।
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सत्संग-संतवाणी. 
श्रद्धेय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराजका 
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/
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{ इस पुस्तक ("महापुरुषों के सत्संग की बातें") के बाकी लेख भी इसी ब्लॉग पर है और यह पुस्तक रूप में भी छप चुकी है}।       
                                                                                                                                    — डुँगरदास राम 

सीताराम सीताराम  



मंगलवार, 3 अगस्त 2021

नये संस्करण का नम्र निवेदन-

                   ।।श्रीहरिः।।


   नये संस्करण का नम्र निवेदन-

एक बार श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज ने बताया कि वे किस प्रकार (पहली बार) परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका से मिले। 

दोनों महापुरुषों के मिलने की बात सुनकर हमें बहुत प्रिय लगी। ऐसी बातें श्री स्वामीजी महाराज ने अपने प्रवचनों में कभी-कभार ही कही है। इस बारे में लोग भी कम ही जानते हैं।

दोनों महापुरुषों के मिलन का यह प्रसंग जब मैंने लोगों को सुनाया तो उनको भी बहुत अच्छा लगा।

ऐसी बातें सुनाते हुए हमें सन्तोष नहीं हो रहा  था कि कैसे ये बातें अधिक लोगों को जनावें। ऐसी बढ़िया बातें दूसरे लोग भी जानें, उनको भी संत-मिलन का आनन्द प्राप्त हो। लोग ऐसे महापुरुषों की वास्तविक बातें समझें, उनके ग्रंथ पढ़ें आदि कई विचार मन में आते रहे।


श्री स्वामीजी महाराज के बारे में जानने की लोगों के मन में उत्कण्ठा रहती है,लेकिन सही बातें मिलती नहीं।
आजकल तो लोग कल्पित और झूठी बातें कहने लग गये और सुननेवाले उन बातों को (बिना विचार किये) दूसरों को भी आगे सुनाने लग गये।

लोगों का ऐसा ढंग देखकर मन में आया कि ऐसे तो यह गलत-प्रचार हो जयेगा। सही बातें जानना मुश्किल हो जायेगा। श्री स्वामीजी महाराज की महानता को समझना कठिन हो जायेगा। लोग तो अपनी सांसारिक बुद्धि के अनुसार महापुरुषों को भी वैसे ही समझ रहे हैं। सच्चाई की खोज ही नहीं करते। इससे तो लोगों के मन में महापुरुषों के प्रति महत्त्व ही नहीं रह जायेगा।श्रद्धा बनेगी ही नहीं। लोग असली लाभ से वञ्चित रह जायेंगे आदि आदि। 

फिर ऐसा प्रयास हुआ कि श्री स्वामीजी महाराज के श्रीमुख से सुनी हुई कुछ सही-सही बातें लिखदी गयीं और (इण्टरनेट पर, अपने ब्लॉग, सत्संग- सन्तवाणी में) प्रकाशित कर दी गयीं।

ऐसी बातों को पढ़कर कुछ सज्जनों के मन में आयी कि इन बातों की एक पुस्तक छपवायी जाय। उन्होंने प्रयास किया और भगवत्कृपा से इन बातों की एक पुस्तक ("महापुरुषोंके सत्संगकी बातें") छप गयी। साथ में कुछ उपयोगी लेख भी जोङे गये।

  पुस्तक को लोगों ने बहुत पसन्द किया और उसको फिर से छपवाने की आवश्यकता हो गयी।

अबकी बार इसमें कुछ उपयोगी बातें और जोङदी गई हैं। आशा है कि लोग इनसे अधिक लाभ उठायेंगे।

निवेदक- डुँगरदास राम  
 (दि.३ अगस्त २०२१)।  

रविवार, 18 जुलाई 2021

त्याग और संकोच के उदाहरण



( त्याग और संकोच के उदाहरण-)

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज सब कामों में छाने हुए जल का ही उपयोग करते थे।
 
खान- पान, शौच- स्नान आदि करने में, कपङे और हाथ पाँव आदि धोने में तथा और भी कुछ करने में छना हुआ जल ही काम में लेते थे। अणछाणे (बिना छाने हुए) जलको काम में लेना जीवहिंसा मानते थे। जल भी गाढे कपङे को डबल (दो लङा) करके छानते थे। एक लङे कपङे के छिद्रों में से सूक्ष्म जीव पार निकल जाते हैं, अटकते नहीं,बचते नहीं। इसलिये डबल कपङे से छानकर उन सूक्ष्म जीवों को बचाते थे। फिर सावधानीपूर्वक जीवाणूँ करते थे अर्थात् चलते जलमें या पर्याप्त स्थिर जल में छोङते थे। कपङे के जिस तरफ सूक्ष्म जीव अटकते हैं,उस तरफ छाने हुए जलकी धारा गिराते हुए उन बारीक जीवों को जल में छोङते थे। छः घंटों के बाद में छने हुए जल में भी वापस जीव पैदा होने लगते हैं,इसलिये छने हुए जल को भी छः घंटों में दुबारा छानते थे। इस प्रकार सब कामों में छने हुआ जल का ही उपयोग करते थे। किसी कारण से अगर ऐसा नहीं हो पाता तो बिना शौच- स्नान किये और बिना खाये-पिये (भूखे- प्यासे) ही रह जाते थे।

श्री स्वामीजी महाराज अपने जीवन की एक घटना इस प्रकार सुनाते थे -

  मेरा जल छानने का कपङा फट गया। (किसीने पूछा नहीं कि आपके कपङे फट गये हैं , दूसरे ला देवें आदि। तो) उस फटे हुए जलछानने को दो से चार लङा करके कुछ दिन काम चलाया; पर वो भी इतना फट गया कि पानी को छाननेयोगय नहीं रहा। (फटे हुए स्थानों से जीव निकल जाते, बचते नहीं थे। इस प्रकार जब जल छन नहीं सका) तब मैं न तो शौच गया और न स्नान किया। (सत्संग का समय होनेपर) सत्संग में चला गया। सत्संग के बाद में सेठजी ने कहा कि भोजन (भिक्षा) करो। तब मैंने (सकुचाते हुए) कहा कि स्नान नहीं किया है। तब वो बोले क्यों? (स्नान क्यों नहीं किया?)  मैंने बताया कि जलछानना (पानी छानने का कपङा) फट गया था। तब श्री सेठजी (ध्यान न देनेके कारण लोगों को उपालम्भ सा देते हुए) बोले - अरे, स्वामीजी के कपङा लाओ। जब कपङा आया,तब जल छानने का काम किया। (शौच जाकर स्नान आदि किये और भिक्षा पाई।) 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज ने एक आवश्यक कपङे के लिये भी कहा नहीं किसीको। ऐसा संकोच रखते थे। संग्रह रखते नहीं थे। त्याग पूर्वक रहते थे।

श्री स्वामीजी महाराज जब (सन् १९७५,७६ में) "कल्याण" पत्रिका के सम्पादक थे। तब उन्होंने भाईजी (कल्याण के आदि-सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार) के नाम से ४९ वें वर्ष का हनुमान- अंक और सेठजी (गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक श्री जयदयाल जी गोयन्दका) के नाम से ५० वें वर्ष का भगवत्कृपा- अंक निकाला था (भगवत्=जय, कृपा=दयाल,जयदयाल जी गोयन्दका)।

उन दिनों लोगोंने श्री स्वामीजी महाराज को वहाँ से हटाने के बहुत प्रयास किये,दुर्व्यवहार किये,कोट- कचेङी आदि किये। कहने लगे कि स्वामीजी "कल्याण" को हङप लेंगे।

  (अनेक प्रयास करके भी जब लोग हटा नहीं सके, तब श्री स्वामीजी महाराज ने अपनी मर्जी से ही सम्पादक के काम को छोङ दिया।)

उस घटना पर अफसोस जताते हुए कभी-कभी श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि भविष्य में जब कोई खोज करेंगे और ऐसा (लिखित कार्रवाई आदि)रिकोर्ड देखेंगे, तो क्या सोचेंगे (और क्या कहेंगे)  कि स्वामीजी के साथ में लोगों ने ऐसा (बुरा) व्यवहार किया! (अफसोस है)।

उन दिनों गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर वाले महन्त जी बोले थे कि स्वामीजी दो चद्दर के सिवा तीसरी चद्दर अपने पास में नहीं रखते (एक चद्दर का भी संग्रह नहीं रखते) उनके लिये लोग कहते हैं कि ये "कल्याण" को हङप लेंगे, (कितनी बेसमझी की बात है, कितनी हैरानी की बात है)। इन लोगोंके क्या हो गया
(जो स्वामीजी के साथ ऐसा- ऐसा व्यवहार करते हैं,ऐसी- ऐसी बातें कहते हैं आदि)। 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज अपने पास आवश्यक वस्तु का भी संग्रह नहीं रखते थे। वस्तु के अभाव में कठिनता सह लेते थे; पर किसीको कहते नहीं थे। बङा संकोच रखते थे। त्याग रखते थे। बङी साधुता थीं उनमें।

श्री सेठजी ने (बिना माँगे ही, अपनी तरफ से) कह रखा था कि स्वामीजी! आपके कोई वस्तु आदि की जरुरत हो तो किसीसे कहकर मँगवा लिया करो, (उसके) पैसे हम दे देंगे।

एक बार श्री स्वामीजी महाराज के पेंसिल की जरुरत पङी। जब वे पुस्तक पढ़ा करते थे, तब कहीं कोई विशेष या नयी बात लगती, तो पेंसिल से वहाँ निसान लगा देते थे,रँग देते थे। ऐसा करने से वो पेंसिल घिसते-घिसते इतनी छोटी हो गयी कि काम करने लायक भी नहीं रही। तब उन्होने मोहनलाल जी पटवारी से कहकर दूसरी पेंसिल मँगवाई (शायद दो आने लगे थे उसके)। पटवारी जी ने लाकर दे दी। तब उनसे पूछा कि कितने पैसे लगे हैं पेंसिल के? कह, दो आने। तो बोले कि दो आने सेठजी से ले लेना, अर्थात् सेठजी से पेंसिल के पैसे ले लेना। पटवारी जी बोले कि महाराज जी! दो आने क्या चीज है! (जो सेठजी से लेवें? ये तो मैं ही दे दूँगा)।तो बोले कि नहीं, सेठजी से ले लेना;  क्योंकि जब हम स्वयं कोई वस्तु मँगवाते हैं तो उसके पैसे देते हैं।

पटवारी जी बङे उदार हृदय वाले सज्जन थे। दान में इतनी पूँजी लगा देते कि उतनी पूँजी खुद के, उनके पास में नहीं बचती थीं। जैसे,लाख रुपये का दान दे दिया और लाख रुपये की (जमीन आदि सारी) पूँजी भी खुद के पास में नहीं बची। श्री सेठजी ने उनको दानवीर कहा था। ऐसे उदार व्यक्ति से भी श्री स्वामीजी महाराज ने पैसे खर्च नहीं करवाये,उनको भी पैसे वापस दिलवाये।

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज दो आने की आवश्यक वस्तु माँगने में भी संकोच करते थे।

वो एक संत का उदाहरण बताते थे कि एक बार जगदीशानन्द जी महाराज बद्रीनारायण गये हुए थे। उन्होंने एक घटना सुनायी कि वहाँ एक साधू के अंगुली में पीङा हो गई थी, तो किसीने कहा कि यहाँ मलहम पट्टी करनेवाले हैं,आप मलहम पट्टी करवालें, उनसे कहदें कि मलहम पट्टी करदो। तो वो साधू बोले कि अंगुली की पीङा तो मैं सह लूँगा; पर उनको यह कहना कि "तुम मेरे मलहम पट्टी करदो" - यह पीङा मेरे से सही नहीं जायेगी।
मैंने साधू की जब यह बात सुनी तो वो मेरे चिपक गयी। (साधू की बात बहुत बढ़िया लगी, वे संत थे। ऐसे होते हैं संत। वे अंगुली की पीङा तो सहने को तो तैयार हो गये; पर किसीको परवश करने की पीङा सहने को तैयार नहीं हुए। किसीसे यह कहना कि तू ऐसा करदे, तो यह उनको परवश करना ही हुआ न। संतों के लिये किसीको इतनी सी पीङा भी देना नहीं चाहते। मलहम पट्टी करनेवाले के लिये यह कोई पीङा थोङे ही थी? यह तो उनका काम ही था,पीङा नहीं: फिर भी ऐसे संतों को संकोच होता है, माँगने में पीङा मालुम देती है।)

तो ऐसे थे श्री स्वामीजी महाराज, किसीसे कुछ कहते नहीं थे। कोई आवश्यकता होती और वो पूरी नहीं होती तो उस पीङा को सह लेते थे। किसीको कहते नहीं थे। किसीको कहना पीङा देनेके समान मानते थे। किसी वस्तु,मकान आदि को अपना और अपने लिये नहीं मानते थे तथा न अपने को उनका मालिक मानते थे।
श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि २-मेरा कुछ नहीं है,२-मुझे कुछ नहीं चाहिये और ३-मैं कुछ नहीं हूँ। उन्होंने "मानवमात्र् के कल्याणके लिये" नामक पुस्तक में इन बातों को समझाया है।  

बुधवार, 14 जुलाई 2021

महापुरुषों से सम्बन्धित किसी वस्तु को "स्मृतिरूप" में रखना उचित है या नहीं?, कह, नहीं है।

             ।। श्रीहरिः ।।


महापुरुषों से सम्बन्धित किसी वस्तु को "स्मृतिरूप" में रखना उचित है या नहीं?, कह, नहीं है।

अगर महापुरुषों ने मना किया है तो रखना उचित नहीं है।
महापुरुष जैसा कहें, वैसा करना चाहिये। उनके सिद्धान्त के अनुसार चलना चाहिये।
जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया है (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी नहीं करना चाहिये।  
           (१)
स्टेज प्रचार की घटना- 

(एक दिन (दि.14-4-2020 को) वाट्सऐप्प के समूह (ग्रुप) में जो बहस हुई थी , उसके विषय में कुछ लिखा जा रहा है । यद्यपि मैं उस ग्रुप में नहीं था ; परन्तु उनके कुछ लेखन आदि देखकर ऐसा लगा कि इस प्रकार के आपसी तर्क- वितर्क से कई लोगों के मन में विक्षेप हुआ है। 


आदरणीय सज्जनों और माता बहनों को जो विक्षेप हुआ, उसके लिये मैं क्षमा याचना करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि दुबारा ऐसा न हो।) 



बात क्या हुई कि श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग- मञ्चवाले तख्त ( स्टेज ) की फोटो एक सज्जन ने फेसबुक पर प्रकाशित करदी। बाद में उनको लगा कि मेरा यह काम अनुचित तो नहीं था ? उनको इस पर किसीने सलाह भी दी कि यह उचित नहीं है और मैंने सुना है कि श्री स्वामीजी महाराज जिसपर बैठते थे, वो वस्तु भी समाप्त करवा दी गई कि लोग उसको स्मृतिरूप में पूजना शुरु न करदें।
 
आप श्रेष्ठ महानुभावों से विचार विमर्श करके ही निर्णय लें (कि ऐसे प्रचार करना ठीक है या नहीं?)।

इस प्रकार और भी कुछ कारण बने होंगे। तब उन्होंने सन्देश भेजकर इसके लिये मेरेसे जानकारी चाही। मैंने संक्षेप में वो जानकारी लिखकर उनको व्यक्तिगतरूप से भेजदी। 

(वो जानकारी इस प्रकार थी-)

{ बैठने और सोने के लिये जो लोहे का बैड (तख्ता) था, उसके पुर्जे खुलवाकर, उन सबको गंगाजी में विसर्जित करवा दिया गया। बाकी सामग्री भी कुछ तो अग्नि के अर्पण कर दी गयी और कुछ गंगाजी में प्रवाहित करवा दी गयी। यह स्टेज (प्लास्टिक के शीशे आदि लगाकर बनाया गया कमरे जैसा स्थान और उसके भीतर रखा हुआ सत्संग-मञ्चवाला तख्ता) भी हटाया जानेवाला था,लेकिन हटाया नहीं जा सका। कुछ लोग इसको रखने के पक्ष में हो गये और यह सब चलने लगा (लोग स्मृतिरूप वस्तु की तरह इसको विशेषता से देखने लग गये और प्रचार भी करने लग गये), जो कि उचित नहीं है आदि।}

फिर उन्होंने वो बातें वाट्सऐप्प पर उस ग्रुप में (चलते हुए वाद विवाद के समय) भेजदी। इस के बाद बात और बढ़ गयी। 


ग्रुप में कई प्रकार के तर्क, कुतर्क, प्रतीकार आदि किये गये , मामला देर राततक चलता रहा। इससे ऐसा लगा कि लोगों के मन में काफ़ी विक्षेप हुआ है। अधूरी जानकारी के कारण लोगों के मन में असमञ्जस की स्थिति पैदा हो गई। लोगों के मन में नये प्रश्न पैदा हो गये और वास्तविक बात समझनी कठिन हो गयी । इसलिये मन में आया कि इस विषय पर कुछ और लिखा जाये , जिससे अगर कोई जानना चाहें तो उनको सही बात का पता लग सके।


[नीचे लिखी बातों में अनेक प्रकार के प्रश्नों के उत्तर हैं। सवालों के जवाब कहीं प्रकट और कहीं अप्रकटरूप से लिखे गये हैं। ध्यान से पढ़नेपर समझ में आते हैं। इसलिये कृपया ध्यान देकर पढ़ें।]
   
                 (२)
मतभेद हो जानेपर बुरा न मानें- 

(प्रश्न-)
किसी बात के विषय में अपने ही लोगों का मतभेद हो जाय, तो क्या करना चाहिये?

(उत्तर-)
मतभेद होनेपर बुरा नहीं मानना चाहिये।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि मतभेद तो गुरु और चेले में भी हो जाते हैं  (इसमें बुरा न मानें। नाराज न हों।)

परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका ने कहा है कि जो हमारे सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलते,उनके प्रति हमारी उदासीनता रहती है, पर हृदय में प्रेम कम नहीं होता, प्रेम में कमी नहीं आती।

महापुरुषों की इन बातों से हमें शिक्षा लेनी चाहिये।


•••  मतभेद हो जाने से वे कोई दूसरे नहीं हो जाते , पराये नहीं हो जाते। हमारे कहने का उद्देश्य न तो किसीकी निन्दा करना है और न किसी की प्रशंसा करना। हमारा उद्देश्य है कि महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी कार्य उनकी आज्ञा के अनुसार ही हो और सब लोगों का हित हो। 


प्रायः ऐसा देखा जाता है कि अपने घर में भी सब काम अपने मन के अनुसार नहीं होते। अपनी मर्ज़ी के अनुसार पूरे घरवालों को चलाना तो दूर , हम अपनी मरजी के अनुसार अपने शरीर को भी नहीं चला सकते। जब एक शरीर को भी नहीं चला सकते तो फिर सब को तो चला ही कैसे सकते हैं, नहीं चला सकते। 


नहीं चला सकने पर भी हम अपने शरीर अथवा घरवालों से पराये नहीं हो जाते , नाराज़ भी नहीं होते। उनके साथ में ही रहते हैं। घरवाले और हमसब एक ही रहते हैं। मतभेद होनेपर भी प्रेमभेद नहीं होता। अपनापन वही रहता है। ऐसा नहीं होता कि बेटे ने माँ की बात नहीं मानी तो अब वो माँ का बेटा नहीं रहा । बात न मानने पर भी बेटा तो बेटा ही रहता है, माँ भी माँ ही रहती है। माँ और बेटे का सम्बन्ध वही रहता है, मतभेद होने पर भी , एकमत न दीखने पर भी रहते सब एक ही हैं। ऐसे हमलोग मतभेद होनेपर भी हैं सब एक ही। अलग-अलग नहीं हैं। हम जो कह रहे हैं, वो अपने लोगों को ही कह रहे हैं। इस बात को समझना चाहिये। न समझने के कारण ही ऐसे तर्क कुतर्क पैदा होते हैं। अशान्ति, दुःख आदि होते हैं।


अपने- अपने घरों में भी हमें ऐसे एकतापूर्वक, प्रेम से रहना चाहिये। स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके सबके प्रति हित का भाव रखना चाहिये। 

परमात्मस्वरूप सारे संसार में जितने भी प्राणी हैं, वो और हम सब एक हैं। 

सबजग ईश्वररूप है भलो बुरो नहिं कोय। 
 जैसी जाकी भावना तैसो ही फल होय।। 

                 (३)
"पूजा" या "स्मृृतिरूप" में वस्तु रखने का निषेेध- 

क्या श्रीस्वामीजी महाराज के प्रवचनस्थल के तख्त को स्मृति के रूप में रखना उचित है? 

उत्तर -
उचित नहीं है। महापुरुषों से सम्बन्धित इस प्रकार की किसी वस्तु आदि को काम में लेना तो ठीक है , पर उनको स्मृति आदि के रूप में रखना उचित नहीं । 

श्रीस्वामीजी महाराज की "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या आठ पर लिखा है कि ••• अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि)- को पूजा में अथवा स्मृतिके रूप में बिलकुल नहीं रखनी चाहिये, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिये। 

                   (४)
 शीशे आदि से विशेष स्टेज बनवाने का कारण- 

प्रश्न-
तो ऐसा शीशेवाला विशेष स्टेज बनवाया ही क्यों? जिसके कारण लोगों के रखने की और देखने की मन में आवे? 


उत्तर -
यह सदा रखने के लिये नहीं बनवाया , यह तो आवश्यकता समझकर थोङे समय के लिये बनवाया था। क्यों बनवाया था? इसका कारण सुनो - 

श्री स्वामी जी महाराज से (उनके अन्तिम वर्षों में) यह प्रार्थना की गयी कि आप यहाँ, गंगातट पर ही रहें। आप यहाँ रहेंगे तो सत्संग भी हो जायेगा और लाभ भी अधिक लोगों को मिलेगा। लोगों के रहने आदि की सुविधा जितनी यहाँ है, उतनी दूसरी जगह मिलनी कठिन है (इसलिये आप यहीं रहें)। तब उन्होनें कृपा करके यह प्रार्थना स्वीकार करली और अन्तिम समय तक आप वहीं रहे। 

लोगों के सत्संग करना आसान हो गया। दूर- दूर से लोग वहाँ आकर रहने लग गये और सत्संग का लाभ लेने लगे। रोजाना सत्संग होता था , चाहे सर्दी हो या गर्मी, शरीर स्वस्थ हो या बिमार , सत्संग की कोशिश हमेशा रहती।
 
कोई पूछते कि महाराज जी ! आपकी तबियत कैसी है? तो कभी-कभी तो आप ऐसे कह देते कि आपका काम ( सत्संग प्रवचन करना, अलग से बातचीत आदि करना) तो हम कर देते हैं , फिर तब़ियत चाहे कैसी ही क्यों न हो ! अपनी अस्वस्थता , असुविधा, तकलीफ, कठिनता आदि बताने में भी संकोच करते थे। (अपने तो सत्संग होना चाहिये।)
 
अधिक वृद्धावस्था आदि के कारण आपके शरीर की शक्ति क्षीण हो गयी, अधिक सर्दी या गर्मी सहन करने की शरीर में शक्ति नहीं रही , अगर सर्दी गर्मी आदि सह लेते , स्वयं उनकी बेपरवाही कर देते , तो शरीर बिमार होने लगता और शरीर बिमार हो जाता तो वैद्य, डाक्टर या उनके हितैषी लोग बाहर, सत्संग में जाना बन्द करवा देते कि शरीर कुछ ठीक हो जाय तब जाना ठीक रहेगा। 
 
सत्संग बन्द होना श्रीस्वामीजी महाराज को पसन्द नहीं था। सत्संग को वो जरूरी और अत्यन्त लाभकारी मानते थे। आवश्यक सुविधा की व्यवस्था के कारण भले ही बाहर से हमारे त्याग में कुछ कमी ही दीखे ,पर सत्संग होना चाहिये । 

शरीर के हितैषी लोगों ने कुछ विशेष प्रबन्ध करवा दिये तो सहन कर लिये , सत्संग प्रवचन के समय जिस तख्ते पर आप विराजते थे , उसके इधर उधर प्लास्टिक आदि के शीशे लगवाकर, वहाँ के स्थान को पैक करवा दिया , तो (पसन्द न होते हुए ) भी आपने सहन कर लिया। 
 इनके अलावा और भी अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं को उन्होनें सहा था और उस समय भी सह रहे थे। कैसी- कैसी परिस्थितियाँ थीं , उनको तो वो ही जान सकते हैं , दूसरे क्या समझे? कभी- कभी तो आप ऐसे कह देते थे कि- 

कौन सुने कासौं कहौं सुने तो समुझे नाँय। 
कहना सुनना समुझना मन ही के मन माँय।। 


ये सब होते हुए भी आप तो अपनी ही मौज में रहते थे । दुःखदायी परिस्थिति में भी दुःखी नहीं होते थे। परिस्थिति को अपने अनुसार न बनाकर स्वयं परिस्थिति के अनुसार बन जाते थे। शारीरिक पीङा में भी हँसते थे। हर कोई तो उनकी स्थिति समझ ही नहीं पाता था ।  

शारीरिक कष्ट आदि के कारण उनमें प्रेम रखने वाले कभी- कभी कुछ दिन सत्संग बन्द करने के लिये कह देते तो वो भी मान लेते थे। बङा सुखदायी स्वभाव था आपका , बङा दयालु और सरल स्वभाव था। आप महाज्ञानी थे। किसी को किचिन्मात्र् भी कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते थे। अपनी बात को छोङकर दूसरे की बात रखते थे। बङे महान् थे। 

शरीर की अशक्तावस्था के समय भी लोगों का मन रहता कि महापुरुषों के दर्शन करें, उनकी बातें सुनें। कमजोरी के कारण व्याख्यान भले ही न दे सकें , पर दर्शन तो हो जाय, हमारी तरफ वो देख तो लें आदि आदि भाव थे लोगों के। वो लोगों के भावों का आदर करते थे, बाहर पधारते थे। लोग दर्शन करके ही अपने आपको धन्य समझ लेते और अगर वो कुछ बात बोल देते तो और भी आनन्द हो जाता। 

शीतकाल में जब कभी- कभी आपके शरीर पर ठण्डी का असर हो जाता। सर्दी जुकाम, कफ, बुखार आदि प्रबल हो जाते तब बाहर सत्संग में आना बन्द हो जाता। फिर जब परिस्थिति कुछ अनुकूल होती तब सत्संग में पधारना होता । 

यद्यपि कई बार आप अपने निवास स्थान पर बैठे बैठे ही सत्संग प्रवचन कर देते और यन्त्र (माइक) के द्वारा बाहर , पाण्डाल ( मण्डप ) में बैठे लोगों को सुनायी पङ जाता था । फिर भी लोगों का मन रहता कि सामने से, दर्शन करते हुए उनकी बातें सुनें। लेकिन बाहर आना तो फिर से ठण्डी आदि को निमन्त्रण देना था। 

ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिये प्लास्टिक के शीशे आदि लगवाकर यह विशेष स्टेज बनवाया गया । इससे ठण्डी हवा का डर कम हुआ और सत्संग में जाना सुगम हो गया। 

             (५)
 सत्संग का आनन्द - 

भगवान् की कृपा से बहुत बढ़िया सत्संग चला और वहाँ का वातावरण सत्संगमय हो गया । श्री सेठजी का प्रयास सफल हो गया। श्री स्वामीजी महाराज के वहाँ विराजने से गंगातट सजीव हो उठा । लोगों के मन में आने लगी कि हम रहें तो यहीं रहें और मरें तो भी यहीं मरें । उस समय की भगवत्कृपा का आनन्द तो वही जान सकता है कि जिन्होंने उस आनन्द का कुछ अनुभव किया है । 

संसार में सब दिन एक समान नहीं रहते। इसलिये एक दिन ऐसा आया कि सब कुछ बदल गया । सत्संग समाप्त हो गया। 

अब जब वो सब परिस्थितियाँ ही नहीं रही, समाप्त हो गयी, तब हमारा मानना है कि इस शीशेवाले स्टेज को भी नहीं रखना चाहिये;  क्योंकि लोग इसको "स्मृतिरूप वस्तु" की तरह देखने लग गये, जो कि उचित नहीं है। (कारण ऊपर बताया जा चूका।) 
 

                 (६)
श्री स्वामीजी महाराज के त्याग और संकोच के उदाहरण-


श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का त्यागमय जीवन अनुकरणीय है। वो सुख सुविधा , मान , बङाई , शरीर के आराम आदि को महत्त्व नहीं देते थे । गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के समय में भी, वे उनके साथ त्यागपूर्वक रहते थे और बाद में भी वे त्यागपूर्वक ही रहे। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज जरूरी वस्तु के लिये भी किसीको कहने में संकोच करते थे। कष्ट सह लेते, पर किसीसे आवश्यक वस्तु भी माँगते नहीं थे। एक बारकी बात है कि जल छाननेका कपङा न होनेके कारण आप बिना शौच-स्नान किये (और भूख-प्यासे) ही रह गये। वे सब कामों में छाने हुए जल का ही उपयोग करते थे
 
खान- पान, शौच- स्नान आदि करने में, कपङे और हाथ पाँव आदि धोने में तथा और भी कुछ करने में छना हुआ जल ही काम में लेते थे। अणछाणे (बिना छाने हुए) जलको काम में लेना जीवहिंसा मानते थे। जल भी गाढे कपङे को डबल (दो लङा) करके छानते थे। एक लङे कपङे के छिद्रों में से सूक्ष्म जीव पार निकल जाते हैं, अटकते नहीं,बचते नहीं। इसलिये डबल कपङे से छानकर उन सूक्ष्म जीवों को बचाते थे। फिर सावधानीपूर्वक जीवाणूँ करते थे अर्थात् चलते जलमें या पर्याप्त स्थिर जल में छोङते थे। कपङे के जिस तरफ सूक्ष्म जीव अटकते हैं,उस तरफ छाने हुए जलकी धारा गिराते हुए उन बारीक जीवों को जल में छोङते थे। छः घंटों के बाद में छने हुए जल में भी वापस जीव पैदा होने लगते हैं,इसलिये छने हुए जल को भी छः घंटों में दुबारा छानते थे। इस प्रकार सब कामों में छने हुए जल का ही उपयोग करते थे। किसी कारण से अगर ऐसा नहीं हो पाता तो बिना शौच- स्नान किये और बिना खाये-पिये (भूखे- प्यासे) ही रह जाते थे।

श्री स्वामीजी महाराज अपने जीवन की एक घटना इस प्रकार सुनाते थे -

  मेरा जल छानने का कपङा फट गया। (किसीने पूछा नहीं कि आपके कपङे फट गये हैं, दूसरे ला देवें आदि। तो) उस फटे हुए जलछानने को दो से चार लङा करके कुछ दिन काम चलाया; पर वो भी इतना फट गया कि पानी को छाननेयोगय नहीं रहा। (फटे हुए स्थानों से जीव निकल जाते, बचते नहीं थे। इस प्रकार जब जल छन नहीं सका) तब मैं न तो शौच गया और न स्नान किया। (सत्संग का समय होनेपर) सत्संग में चला गया। सत्संग के बाद में सेठजी ने कहा कि भोजन (भिक्षा) करो। तब मैंने (सकुचाते हुए) कहा कि स्नान नहीं किया है। तब वो बोले क्यों? (स्नान क्यों नहीं किया?)  मैंने बताया कि जलछानना (पानी छानने का कपङा) फट गया था। तब श्री सेठजी (ध्यान न देनेके कारण लोगों को उपालम्भ सा देते हुए) बोले - अरे, स्वामीजी के कपङा लाओ। जब कपङा आया,तब जल छानने का काम किया। (शौच जाकर स्नान आदि किये और भिक्षा पाई।) 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज ने एक आवश्यक कपङे के लिये भी कहा नहीं किसीको। ऐसा संकोच रखते थे। संग्रह रखते नहीं थे। त्याग पूर्वक रहते थे।

श्री स्वामीजी महाराज जब (सन् १९७५,७६ में) "कल्याण" पत्रिका के सम्पादक थे। तब उन्होंने भाईजी (कल्याण के आदि-सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार) के उद्देश्य से ४९ वें वर्ष का हनुमान- अंक और सेठजी (गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक  श्री जयदयाल जी गोयन्दका) के उद्देश्य से, ५० वें वर्ष का भगवत्कृपा- अंक निकाला था (भगवत्=जय, कृपा=दयाल,जयदयाल जी गोयन्दका)।

उन दिनों लोगोंने श्री स्वामीजी महाराज को वहाँ से हटाने के बहुत प्रयास किये,दुर्व्यवहार किये,कोट- कचेङी आदि किये। कहने लगे कि स्वामीजी "कल्याण" को हङप लेंगे।

  (अनेक प्रयास करके भी जब लोग हटा नहीं सके, तब श्री स्वामीजी महाराज ने अपनी मर्जी से ही सम्पादक के काम को छोङ दिया।)

उस घटना पर अफसोस जताते हुए कभी-कभी श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि भविष्य में जब कोई खोज करेंगे और ऐसा (लिखित कार्रवाई आदि)रिकोर्ड देखेंगे, तो क्या सोचेंगे (और क्या कहेंगे)  कि स्वामीजी के साथ लोगों ने ऐसा (बुरा) व्यवहार किया! (अफसोस है)।

उन दिनों गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर वाले महन्त जी बोले थे कि स्वामीजी दो चद्दर के सिवा तीसरी चद्दर अपने पास में नहीं रखते (एक चद्दर का भी संग्रह नहीं करते) उनके लिये लोग कहते हैं कि ये "कल्याण" को हङप लेंगे, (कितनी अनुचित बात है, कितनी बेसमझी की और कितनी हैरानी की बात है)। इन लोगोंके क्या हो गया
(जो स्वामीजी के साथ ऐसा- ऐसा व्यवहार करते हैं,ऐसी- ऐसी बातें कहते हैं आदि)। 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज अपने पास आवश्यक वस्तु का भी संग्रह नहीं रखते थे। वस्तु के अभाव में कठिनता सह लेते थे; पर किसीको कहते नहीं थे। बङा संकोच रखते थे। त्याग रखते थे। बङी साधुता थी उनमें।

श्री सेठजी ने (बिना माँग रखे ही, अपनी तरफ से) कह रखा था कि स्वामीजी! आपके कोई वस्तु आदि की जरुरत हो तो किसीसे कहकर मँगवा लिया करो, (उसके) पैसे हम दे देंगे।

एक बार श्री स्वामीजी महाराज के पेंसिल की जरुरत पङी। जब वे पुस्तक पढ़ा करते थे, तब कहीं कोई विशेष या नयी बात लगती, तो पेंसिल से वहाँ निसान लगा देते थे,रँग देते थे। ऐसा करने से वो पेंसिल घिसते-घिसते इतनी छोटी हो गयी कि काम करने लायक भी नहीं रही। तब उन्होने मोहनलाल जी पटवारी से कहकर दूसरी पेंसिल मँगवाई (शायद दो आने लगे थे उसके)। पटवारी जी ने लाकर दे दी। तब उनसे पूछा कि कितने पैसे लगे हैं पेंसिल के? कह, दो आने। तो बोले कि दो आने सेठजी से ले लेना, अर्थात् सेठजी से पेंसिल के पैसे ले लेना। पटवारी जी बोले कि महाराज जी! दो आने क्या चीज है! (जो सेठजी से लेवें? ये तो मैं ही दे दूँगा)।तो बोले कि नहीं, सेठजी से ले लेना;  क्योंकि जब हम स्वयं कोई वस्तु मँगवाते हैं तो उसके पैसे दिलवाते हैं।

पटवारी जी बङे उदार हृदय वाले सज्जन थे। दान में इतनी पूँजी लगा देते कि उतनी पूँजी खुद के, उनके पास में नहीं बचती थीं। जैसे,लाख रुपये का दान दे दिया और लाख रुपये की (जमीन आदि सारी) पूँजी भी खुद के पास में नहीं बची। श्री सेठजी ने उनको दानवीर कहा था। ऐसे उदार व्यक्ति से भी श्री स्वामीजी महाराज ने (दो आने के भी) पैसे खर्च नहीं करवाये,उनको भी पैसे वापस दिलवाये।

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज दो आने की आवश्यक वस्तु माँगने में भी संकोच करते थे

वो एक संत का उदाहरण बताते थे कि एक बार जगदीशानन्द जी महाराज बद्रीनारायण गये हुए थे। उन्होंने एक घटना सुनायी कि वहाँ एक साधू के अंगुली में पीङा हो गई थी, तो किसीने कहा कि यहाँ मलहम पट्टी करनेवाले हैं,आप मलहम पट्टी करवालें, उनसे कहदें कि मलहम पट्टी करदो। तो वो साधू बोले कि अंगुली की पीङा तो मैं सह लूँगा; पर उनको यह कहना कि "तुम मेरे मलहम पट्टी करदो" - यह पीङा मेरे से सही नहीं जायेगी।
मैंने साधू की जब यह बात सुनी तो वो मेरे चिपक गयी। (साधू की बात बहुत बढ़िया लगी, वे संत थे। ऐसे होते हैं संत।  

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि किसीसे चाहना करना है- यह बहुत ही नीचे दर्जे की (बात) है। माँगना बहुत नीचा दर्जा है। भगवान् भी माँगने के कारण छोटे हो गये- बावन अँगुल हो गयो छोटो। जरुरत की, आवश्यक चीज भी माँगनी नहीं चाहिये।  

(एक तो इच्छा होती है और एक आवश्यकता होती है।) इच्छा और आवश्यकता में बङा भारी भेद है। इन दोनों को समझना बहुत काम की चीज है। 
भूख लगी है तो भोजन की, अन्न की आवश्यकता है और मीठा चाहिये, चटपटा चाहिये आदि- यह इच्छा है। (दोनों में ऐसा भेद है।) 

आवश्यकता के पूर्ति की भी इच्छा नहीं करना। कोई पूछे तो ना कर देना। कोई पूछे कि भोजन करोगे? तो ना ही देना चाहिये, इनकार कर देना चाहिये। वो पूछता है तो उसका मन तो नहीं है न। (इसलिये ना कर देना चाहिये) 

एक साधू को मैंने कहा कि महाराज! भोजन करो,तो उन्होंने कर लिया। वो तीन दिन के भूखे थे। वो बोले कि आपने भोजन करने का कह दिया तो मैंने कर लिया, नहीं तो कोई पूछता है कि भोजन करोगे? तो मैं ना कह देता हूँ। साधुओं की बात जानते नहीं लोग।  

यह तो साधुओं की बात बतायी, अब गृहस्थों की बात बताता हूँ। 

 (ऋषिकेश) स्वर्गाश्रम में, बङ के पास, गंगाजी के किनारे वो गंगहरि की कुटिया है न। (वहाँ की घटना है)।  
तो कुछ दिन पहले (श्री सेठजी आदि ने) विचार किया कि सुबह की जो सत्संग है,वो बङनीचे करेंगे। तो सुबह आ जाते जल्दी ही और बङ नीचे ही सत्संग करते। 

सूर्योदय होनेपर सेठजी दूध लेते। सेठजी के संग्रहणी हो गयी थी। वो दूध ही देकर (ठीक की गयी)। एक पर्पटी थी, उससे ठीक हुआ। तो पाव डेढ़ पाव गाय का दूध उनको दवाई की तरह लेना पङता था, नहीं तो तकलीफ हो जाय शरीर में। एक दो उबाळ आ जाय, ज्यादा गर्म नहीं, ऐसा दूध सुबह, शाम और भोजन के लिये वो सदा लिया करते तथा साथ में तुलसी के पत्ता लिया करते। 

सेठजी की छोटी बहन थी नारायणी बाई। वो आयी दूध लेकर। साथ में तुलसी के पत्ता लायी। वो सेठजी से इतनी छोटी थी कि सेठजी के कन्या हो, इतनी छोटी। सेठजी इतने बङे थे। तो उन्होने सेठजी को दूध पिलाया। वो बोली कि तुलसी के पत्ता लोगे? तो सेठजी ने कहा- ना। सेठजी ने ना कह दिया। फिर लिया तो नहीं। दूध पीने के बाद में  एक बात बोले कि ऐसे नहीं पूछना कि लोगे? दे देना। (लेना होगा तो ले लेंगे,नहीं तो ना कह देंगे) पूछना नहीं। 

अपनी छोटी बहन, कन्या की तरह। बङे भाई का प्यार होता ही है, अपनी बच्ची है। जैसे कोई अपनी बेटी हो और वो कहती है कि तुलसीदल लोगे?(तो भी लिया नहीं)। 
गृहस्थी और अपनी छोटी लङकी की तरह,अब उससे ले ले तो क्या पाप लगे। (फिर भी लिया नहीं। इस प्रकार सज्जन लोग पूछनेपर आवश्यक वस्तु भी नहीं लेते। माँगना तो दूर, किसीके देनेपर भी नहीं लेते। हरेक इन बातों को जानते नहीं)। 

भगवान् के यहाँ आवश्यकता की पूर्ति का तो प्रबन्ध है,पर इच्छापूर्ति का प्रबन्ध नहीं है और होगा तो पूर्ति हो जायेगी। थोङी इच्छा पूरी तो सभी की होती है। पूरी इच्छा पूरी किसीकी नहीं होती। वास्तव में आवश्यकता है परमात्मा की और इच्छा है संसार की। इच्छा का तो त्याग ही करना है। 

अधिक जानने के लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का यह प्रवचन सुनें-
19950207_1500_Ishwar Ko Dekhe Sansar Ki Garaj Na Kare । 

 वे संत अंगुली की पीङा तो सहने को तो तैयार हो गये; पर किसीको परवश करने की पीङा सहने को तैयार नहीं हुए। किसीसे यह कहना कि तू ऐसा करदे, तो यह उनको परवश करना ही हुआ न।पीङा देना ही हुआ। संतों के लिये किसीको इतनी सी बात कहना भी पीङा मालुम देती है।वे किसीको थोङी सी भी पीङा देना नहीं चाहते। मलहम पट्टी करनेवाले के लिये यह कोई पीङा थोङे ही थी? यह तो उनका काम (कर्तव्य) ही था,पीङा नहीं: फिर भी ऐसे संतों को संकोच होता है, माँगने में पीङा मालुम देती है।)

तो ऐसे थे श्री स्वामीजी महाराज, किसीसे कुछ कहते नहीं थे। कोई आवश्यकता होती और वो पूरी नहीं होती तो उस पीङा को सह लेते थे। किसीको कहते नहीं थे। किसीको कहना पीङा देनेके समान मानते थे। किसी वस्तु,मकान आदि को अपना और अपने लिये नहीं मानते थे तथा न अपने को उनका मालिक मानते थे।
श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि १-मेरा कुछ नहीं है,२-मुझे कुछ नहीं चाहिये और ३-मैं कुछ नहीं हूँ। उन्होंने "मानवमात्र् के कल्याणके लिये" नामक पुस्तक में इन बातों को समझाया है।



ऐसे त्यागी महापुरुषों का सम्बन्ध एक ऐसे स्टेज से बताना , लोगों के द्वारा भी उसको पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाना , उसका प्रचार करने लग जाना आदि कोई बढ़िया बात नहीं है , यह तो एक प्रकार से उनके त्याग में कमी दिखाने जैसा है। वास्तविक बात को हर कोई तो नहीं समझता न ! इसलिये इसको नहीं रखना ही ठीक है ।

जो काम महापुरुषों की महिमा के अनुरूप न हो, तो वो काम अच्छा दीखने पर भी नहीं करना चाहिये। इससे लाभ नहीं होता। 

कोई कहे कि उनसे सम्बन्धित गंगातट पर और भी तो दूसरी वस्तुएँ हैं, उनके लिये न कहकर केवल इस प्लास्टिक और स्टेज के लिये ही क्यों कहते हो? 

तो इसका उत्तर यह है कि अनभिज्ञ लोग स्मृति आदि के रूप में इस स्टेज को ही महत्त्व देने लगे हैं, न कि दूसरी वस्तुओं को। इसलिये एक इस स्टेज के लिये ही कह रहें हैं। इस प्रकार की अगर कोई दूसरी वस्तु हो तो उसके विषय में भी यही समझना चाहिये। 

किसी के यह बात नहीं भी जँचे तो हम कोई आपत्ति नहीं करते। अपने कल्याण की बात ग्रहण करने और न करने में सब स्वतन्त्र हैं । हमने तो पूछनेपर यह हित की बात कही है , अब कोई माने तो ठीक और नहीं माने तो उनकी मरजी। अपने किसी से राग द्वेष नहीं करना है , समता में स्थित रहना है । 

••• 
                   (७)
आश्रम, गद्दी, स्थान आदि का निषेध-
 
श्री स्वामीजी महाराज तो देश , प्रदेश, विदेश आदि अनेक जगहों पर गये हैं और वहाँ रहे हैं तथा वहाँ उनके लिये स्टेज आदि भी बने हैं, लेकिन कहीं भी ऐसा देखने में नहीं आया कि कोई स्टेज को ऐसे अलग से रखे और लोग स्मृति आदि के रूप में उसको देखने लग जायँ।

इसके अलावा किसी दूसरी जगह भी अगर कोई ऐसा करते हैं अथवा मानते हैं कि यह स्थान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह स्टेज उनका है , यह गद्दी श्रीस्वामीजी महाराज की है , तो वो भूल में हैं ; क्योंकि श्रीस्वामीजी महाराज कहते हैं कि- 
 
३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं। 

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है। मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य , प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है। ••• 

("एक संत की वसीयत" ,'मेरे विचार' नामक लेख,पृष्ठ संख्या 12 से)। 

                 (८)
मकान आदि का निषेध-  
 
अगर कोई ऐसा कहे अथवा समझे कि यह मकान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह कुटिया उनकी है ,यह कमरा श्रीस्वामीजी महाराज का है , तो वो ऐसा समझनेवाला भी भूल में है ; क्योकिं मकान के विषय में श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी वसीयत में लिखवाया है कि 

••• अपने जीवनकालमें भी मैंने अपने लिये कभी कहीं किसी मकान आदिका निर्माण नहीं कराया है और इसके लिये किसीको प्रेरणा भी नहीं की है। यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदिको मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणासे निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिये। 
("एक संतकी वसीयत" पृष्ठ संख्या नौ।) 
 
अगर किसी स्थान पर कोई मकान आदि बनवाकर श्रीस्वामीजी महाराज के निमित्त करदे कि यह मैंने श्रीस्वामीजी महाराज को दिया, अब यह सब उनका है और लोग भी ऐसा समझने लग जायँ , तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि मकान आदि को वो स्वीकार नहीं करते थे और अपने लिये इसको उचित भी नहीं मानते थे। त्यागी थे। 
कोई कहे कि इस गाँव को अथवा इस मकान को तो श्रीस्वामीजी महाराज अपना कहते थे , इसलिये यह मकान तो उनका है। तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि वो "अपना कहना" केवल व्यवहार के लिये था , वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

"श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदासजी महाराज" कई बार सत्संग में बताते थे कि जैसे , आपलोग रेलगाड़ी में बैठकर कहीं जा रहे हैं, यात्रा कर रहे हैं और एक जगह गाङी रुकी। आप गाङी से नीचे उतरे। और भी कई लोग नीचे उतरे। इतने में ही आपको अपने कोई परिचित दिखायी पङ गये। आप राजी हुए और बोले कि अहो ! आप भी इसी गाङी में हैं, आपका डिब्बा कौन सा है ? तो वो भी राजी हुए और बोले कि हमारा डिब्बा वो है ( तथा आप से भी पूछा कि ) आपका डिब्बा कौन सा है ? तो आपने बताया कि वो देखो , हमारा डिब्बा वो है । कुछ देर बाद में फिर सब अपने अपने डिब्बों में चले गये। 

जबतक यात्रा रही तबतक आराम से आप अपने उस डिब्बे में रहे और उस डिब्बे को अपना कहते रहे ; परन्तु यात्रा समाप्त करके जब आप अपने घरपर आ जाते हैं तो उस डिब्बे को अपना मानते हैं क्या? , कभी डिब्बे की चिन्ता होती है क्या? कभी पत्र लिखकर भी पूछते हैं क्या कि हमारा डिब्बा कैसा है ? आजकल उसका क्या हाल है ? आदि। 

क्यों नहीं पूछते ? कारण कि वो अपना था ही नहीं, आपने उसको अपना माना ही नहीं। उसको तो आपने व्यवहार के लिये अपना कहा था। वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 
 
इसी प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज ने व्यवहार के लिये किसी मकान आदि को अपना कह दिया तो वो अपना बताने के लिये नहीं कहा। वास्तव में वो मकान आदि उनका अपना नहीं है । 

कोई कहे कि यहाँ तो श्रीस्वामीजी महाराज बार- बार आते थे और वर्षोंतक यहाँ रहे हैं , इसलिये यह जगह तो उनकी है , तो यह भी ठीक नहीं , क्योंकि यह सिद्धान्त है कि किसी जगह को अपनी माननेवाला तो थोड़ी देर में ही मान लेता है और नहीं माननेवाला वर्षोंतक रहने पर भी ( उस जगह को अपनी ) नहीं मानता। श्रीस्वामीजी महाराज ऐसे महापुरुष थे कि वर्षों तक एक जगह रहनेपर भी उस जगह को अपनी नहीं मानते थे।

इसलिये श्रीस्वामीजी महाराज के अधिक रहनेपर भी उस जगह को खास बताकर लोगों का ध्यान उधर नहीं लगाना चाहिये जिससे कि लोग उस जगह को पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जायँ। 
 (यद्यपि महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान और कार्य आदि विशेष होते हैं , आदरणीय,अच्छे और विलक्षण होते हैं; लेकिन जिस कार्य के लिये महापुरुष मना कर देते हैं, तो वो कार्य अच्छा होने पर भी नहीं करना चाहिये। )

जैसे, महापुरुषों के चरणरज की बङी भारी महिमा है; पर अपनी चरणरज लेने के लिये अगर महापुरुष मना कर देते हैं तो नहीं लेनी चाहिये। 

चरणरज लेना अच्छा काम है; परन्तु श्री स्वामीजी महाराज इसके लिये मना करते हैं , इसलिये यह काम अच्छा होने पर भी अच्छा नहीं है, इसलिये नहीं करना चाहिये। 
 
(ऐसे ही उनके चित्र आदि के विषय में समझ लेना चाहिये। उनका चित्र भी नहीं रखना चाहिये। अपनी फोटो खींचने और रखने का वो कङा विरोध करते थे। यह बात तो प्रसिद्ध ही है।)
 
                 (९)
बरसी आदि का निषेध- 

भगवान् के तो जन्म दिवस पर उत्सव मनाया जाता है और महात्माओं के निर्वाण दिवस पर उत्सव (बरसी) मनाया जाता है; क्योंकि इस दिन उन सन्तों का भगवान् से मिलन हुआ है।
  बरसी मनाना अच्छा काम है , परन्तु श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी बरसी आदि मनाने का निषेध ( मना) किया है, इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये।

(आजकल कई लोग गुप्त या प्रकटरूप से कुछ अंश में श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज की बरसी मनाने लग गये, जो कि उचित नहीं है। ) 

इस दिन कोई तो कीर्तन करते हैं और कोई  गीतापाठ आदि का प्रोग्राम रखते हैं। (मानो वो इस प्रकार बरसी मनाते हैं)।

लेकिन इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि  बरसी के लिये श्रीस्वामीजी महाराज ने मना किया है।  

"एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के दसवें पृष्ठ पर बरसी आदि का निषेध करते हुए लिखा है कि- 
 " जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये। "  
 इस में बरसी के लिये मना लिखा है, फिर भी लोग बरसी मनाते हैं, चाहे आंशिक रूप से ही हो। इससे लगता है कि या तो उनलोगों को पता नहीं है या वे परवाह नहीं करते अथवा यह भी हो सकता है कि लोगों ने ध्यान देकर इस पुस्तक को पढ़ा नहीं। 

 नहीं तो जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो, वो क्यों करते?  

इसलिये कुछ अंश में लोग जो बरसी मनाने लगे हैं, वो भूल में हैं। कीर्तन, गीतापाठ आदि करना तो अच्छा काम है,भले ही रोजाना करो; पर बरसी के उद्देश्य से कोई ये करते हैं तो उनको विचार करना चाहिये।

 इसी प्रकार अन्य कामों में भी समझना चाहिये। 
 
                  (१०) 
 निषेध काम करने से नुकसान- 

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि महापुरुष किसी विहित काम के लिये कहे और कोई उसको न करे , तो वो लाभ से वञ्चित रहता है (नुकसान नहीं होता), परन्तु जिस काम के लिये उन्होंने निषेध (मना) किया है , उस काम को करने से नुकसान होता है। 

इस प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज ने जिस वस्तु को पूजा अथवा स्मृतिरूप में रखने के लिये मना किया है , वो न रखें। किसी वस्तु , स्थान , कमरा , स्टेज आदि को इस प्रकार महत्त्व न दें जिससे लोगों को स्मृतिरूप में रखने आदि की प्रेरणा मिले। दूसरे लोग ऐसी भूल करे तो उनको भी प्रेम से समझाने की कोशिश करें। 
 
                 (११) 
आज्ञापालन से लाभ- 

ऐसे उन वर्जित कामों को न करके महापुरुषों के जो पसन्द है, वो काम करने चाहिये, उनको महत्त्व देना चाहिये,उनके ग्रंथों को, रिकोर्डिंग वाणी को महत्त्व देना चाहिये। उनको आदर पूर्वक रखना और पढ़ना चाहिये। महापुरुषों की रिकोर्डिंग वाणी सुनना और उसका प्रचार- प्रसार करना चाहिये। भगवान् की वाणी श्री मद् भगवद् गीता पर लिखी हुई टीका तत्त्वविवेचनी और साधक- संजीवनी का प्रचार-प्रसार करना चाहिये।

महापुरुषों के लेख , सत्संग प्रवचनों के ग्रंथ , तत्त्वचिन्तामणि , साधन- सुधा- सिन्धु आदि का अध्ययन करना और करवाना चाहिये । यह काम उन महापुरुषों को पसन्द है और यह सबका कल्याण करने वाला है। पंजाबी लोग अपने गुरु ग्रंथ साहिब को कितना आदर से रखते हैं, ऐसे हमलोगों को भी चाहिये कि महापुरुषों के साधक- संजीवनी गीता आदि ग्रंथों को आदर से रखें , उनको महत्त्व दें और पढें । 

साधक- संजीवनी गीता के सातवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक की व्याख्या में लिखा है कि - 

 [ सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है, वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है; परन्तु वे महात्मा आज्ञाके रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं, उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।] 


इस प्रकार और भी अनेक बातें हैं, हमलोगों को चाहिये कि मन लगाकर ऐसे ग्रंथों का अध्ययन करें, महापुरुषों के सिद्धान्तों को समझें और उनके अनुसार अपना जीवन बनावें। 
••• 
आजकल कई लोग श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में मनगढ़न्त , कल्पित और झूठी बातें करने लग गये। उन बातों को सुनकर लोग बिना सोचे समझे आगे दूसरों को भी कहने लग गये। इस प्रकार भ्रम की बातें फैलने लगी है। सही बातें मिलनी मुश्किल हो गयी। इसलिये सही और महापुरुषों की बढ़िया बातें बताने के लिये एक पुस्तक लिखी गयी है। उस पुस्तक का नाम है- "महापुरुषोंके सत्संगकी बातें"।

इसमें श्री स्वामी जी महाराज के विषय में उनके द्वारा ही सुनी हुई सही बातें लिखी है। इसमें श्रीसेठजी और स्वामीजी महाराज के पहली बार मिलने का भी वर्णन है तथा और भी कई बातें हैं। 

ऐसे ही दूसरी एक पुस्तक है - "श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत् वाणी"। इसमें श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग- प्रवचन में जैसे जैसे बोले थे , वैसे- वैसे ही लिखने का प्रयास किया गया है तथा इसमें ग्यारह चातुर्मासों (सन् 1990 से 2000 तक) के प्रवचनों की विषयसूची भी लिखी गयी है कि किस तारीख को , कितने बजे और किस विषय पर श्रीस्वामीजी महाराज बोले थे। इसमें और भी उपयोगी सत्संग- सामग्री है। इन दोनों पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिये। पुस्तकों का पता-

सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/?m=1

इन बातों में जो अच्छापन है वो उन महापुरुषों का है और जो त्रुटियाँ हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छेपन की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है। मेरी इन बातों से किसीको ठेस लगी हो तो मैं क्षमा याचना करता हूँ। 


निवेदक- 
डुँगरदास राम 

वैसाख कृष्ण ११ शनिवार , वि.सं.२०७७ । 

जय श्री राम 

 

शनिवार, 10 जुलाई 2021

एक डॉक्टर साहब को लिखा गया पत्र

                      ।।श्रीहरिः।।

एक डॉक्टर साहब को लिखा गया पत्र - 

डॉक्टर साहब !
सादर राम राम, सीताराम।


आपने 'स्वदेशी चिकित्सा सार' आदि पुस्तकें लिखीं और दुनियाँ का बङा हित किया। इसके लिये आपको बहुत-बहुत बधाई।

आपने स्वदेशी चिकित्सा सम्बन्धी बहुत अच्छी-अच्छी और अनेक जानकारियाँ लिखीं, अनेक उपचार बताये, जिससे लोगों को बङा लाभ हुआ। 

हमने आपकी पुस्तक (स्वदेशी चिकित्सा सार) देखी है। उपचार के लिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी लगी। आपने अकारादि वर्णानुक्रम से दूसरी विषयसूची जोङकर इसको और भी उपयोगी बना दिया है। कुछ उपयोगी बातों की चर्चा हमने श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के आगे भी की थी।

एक बार एक उपचार की श्री स्वामीजी महाराज ने प्रशंसा की और आपको पत्र लिखने के लिये फरमाया था। वो अब लिखा जा रहा है। देरी के लिये क्षमा चाहता हूँ। इतने दिनों से लिखने का उत्साह नहीं बन रहा था। अब विचार आया कि महापुरुषों ने फरमाया था और अभी तक वो काम बाकी पङा हुआ है, यह ठीक नहीं। इसलिये वो काम अब किया जा रहा है। उस समय आपके लिये हमने कापी में कुछ लिखा भी था, पर वो ऋषिकेश में ही रह गया। बात यह थी कि-

श्रीस्वामीजी महाराज के पौरुष ग्रंथि (प्रोस्टेट) के कारण बङी समस्या हो गई थी। लघुशंका खुलकर नहीं लगती थी।लघुशंका जाकर आनेपर भी बाकी रह जाती थी। जब लघुशंका जाने की आवश्यकता होती, तब वृद्धावस्था और शरीर की कमजोरी के कारण अपने स्थान पर से उठने में भी शक्ति लगानी पड़ती। चलते समय किसीका सहारा लेकर चलते। फिर लघुशंका जाकर जल से शुद्धि करते। फिर हाथ धोकर कई कुल्ले करते (तीन चार से अधिक बार आचमन करते)। मुख में पानी भरकर तथा चुलू में पानी भर- भर कर, उससे आँखोंपर खूब छींटे लगाते। फिर हाथ मुँह धोकर दोनों पैर धोते (टखनों तक)। इस प्रकार, ऐसा शौचाचार श्रीस्वामीजी महाराज पहले से ही करते आये थे अर्थात् इस समस्या के पहले भी ऐसा हर बार करते थे और अन्ततक भी करते रहे। फिर जब वापस आते तो आने में भी बङी कठिनता होती। ऐसे और भी कई बातें थीं।

वैद्य डॉक्टरों ने तरह-तरह के उपाय किये। इलाज के कई काम श्रीस्वामीजी महाराज की दिनचर्या के साथ जोङ दिये गये, जिससे दिन और रात में उनके और भी असुविधाएँ होने लगी। एक बार तो श्रीस्वामीजी महाराज के भी विचार पैदा हो गया ।

गोखरू के बीजों को उबाल कर उनका पानी पिलाने जैसे कई उपाय किये गये। वैद्य डॉक्टर आदि के कहे अनुसार, असुविधा होनेपर पर भी वे उनकी बात का पालन करते थे, बताये गये उपायों के अनुसार ही काम करते। दूसरे की बात का बङा आदर करते थे,उनकी बात रखते थे। इस प्रकार यह रोजाना ही चलने लग गया।

एक दिन हमने एक पुस्तक ("वनौषधि चन्द्रोदय" पृष्ठ १४, "बथुआ" प्रसंग) में पढ़ा कि बथुए के "पत्तों का उबाला हुआ पानी पीने से रुका हुआ पेशाब खुल जाता है।" तो यह बात श्रीस्वामीजी महाराज को बताकर,  उसके अनुसार वो पानी उनको पिलाया गया। इससे पेशाब खुलकर आया। तब श्रीस्वामीजी महाराज आश्चर्य सा करते हुए हँसकर बोले कि अरे, येह ठीक है,कामकरता है! फिर बोले कि उस डॉक्टर को (आपको) पत्र लिखकर बताना चाहिये कि इससे हमारे को लाभ हुआ है। फिर यह इलाज रोजाना करने लग गये।

कुछ दिन बाद उनको देहरादून हॉस्पीटल में चैक कराने के लिये ले जाया गया और वहाँ डॉक्टरों ने प्रोस्टेट का ऑपरेशन कर दिया। एक बार तो डॉक्टर आदि सबको को लगा कि बहुत सफल काम हो गया है (वहाँ से वापस आने की छुट्टी भी दे दी गयी और वापस गीताभवन, ऋषिकेश आ भी गये); लेकिन वो इलाज बिगड़ गया और अन्त में उन्होंने शरीर ही छोङ दिया।

ऑपरेशन के बाद इलाज कई दिनों तक चला था, फिर भी सफलता नहीं मिली। कलकत्ते के एक होम्योपैथिक, नामी डॉक्टर (जिनके यहाँ इलाज करवाने वालों की रात दिन लाइन लगी रहती थी, इलाज के लिये कई दिनों पहले नम्बर लगाना पड़ता था,वो) आये। उनको देखकर श्रीस्वामीजी महाराज ने उनसे कहा कि हमारे को कोई अशुद्ध और हिंसायुक्त दवाई मत देना, भले ही प्राण चले जायँ। हमें "प्राण चले जाना" स्वीकार है, पर ऐसी दवा लेना स्वीकार नहीं है। डॉक्टर साहब बोले कि नहीं, ऐसी नहीं है यह दवाई।

फिर वो दवा शुरु की गई। पहले जो दवाई चल रही थी, उसको बन्द कर दिया गया। यद्यपि डॉक्टर साहब ने तो कहा था कि पहले वाली दवाई भी भले ही चलने दो। लेकिन इस दवा पर विश्वास किया गया। हमलोग बन्द करने में सहमत हो गये। बहुत दिनों तक चलते रहने के कारण, पहले वाले इलाज से परेशान भी हो गये थे। उस दवा को चलाने का प्रयास न करके, इस दवा को शुरु कर दिया गया और वो दवा बन्द कर दी गयी। फिर तो एक दो दिनों में ही परिणाम भयंकर हो गया (प्राण चलेे गये)। 

इस इलाज से पहले श्रीस्वामीजी महाराज डॉक्टर की दवा आदि लेने का परित्याग करते हुए से बोले कि इनको छोङ दें क्या? लेकिन हमलोगों ने इसमें सहमति नहीं जतायी और तर्क पेश किया कि डॉक्टर के पास जाते ही नहीं तब तो ठीक था , पर जब हम डॉक्टर के पास चले गये तो उनके इलाज के अनुसार ही चलना पङेगा। सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज कुछ बोले नहीं, चुप हो गये और वो इलाज चलता रहा। यह (दूसरा) इलाज तो बाद में शुरु हुआ।

सन्तों के तो ऐसे भी आनन्द है और वैसे भी आनन्द।
श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग में बताते थे कि •••
सदा दिवाली सन्त के आठों पहर आनन्द।।
सब जग डरपे मरण से मेरे मरण आनन्द।
कब मरिहौं कब भेंटिहौं पूरण परमानन्द।।

[ आजतक तो मैं यही समझ रहा था कि अन्य लोगों की तरह श्रीस्वामीजी महाराज ने आपको अपना अनुभव बताने के लिये कहा है; लेकिन जब यह पत्र लिख दिया गया, तब मेरी समझ में आया कि बात इतनी ही नहीं थी, इसका अर्थ 'उनकी प्रेरणा' लेकर हम बथुए वाला यह उपाय "स्वदेशी चिकित्सा सार" नामक पुस्तक में जोङ सकते; क्योंकि यह इसमें मिला नहीं। पहले मेरे ध्यान में तो ऐसा था कि यह इसी में है, लेकिन खोजने पर मिला "वनौषधि चन्द्रोदय" नामक पुस्तक में (उन दिनों उस पुस्तक का भी हमने उपयोग किया था)। इससे भी स्पष्ट होता है कि इस उपचार को जोङना चाहिये ]
महापुरुषों की हर क्रिया में रहस्य भरा हुआ होता है।

श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग में बोलते थे कि

सन्तों की गति रामदास जग से लखी न जाय।
बाहर तो संसार सा भीतर उलटा थाय।।

ज्यों केले के पात में पात पात में पात।
त्यों चतुरनि की बात में बात बात में बात।।

सीताराम सीताराम

आषाढ़ कृष्ण ५, गुरुवार,
संवत् २०७७, सीकर।
डुँगरदास राम। 

https://dungrdasram.blogspot.com/2021/07/blog-post.html