बुधवार, 21 जनवरी 2015

दुष्टसंग क्या है? और उसका त्याग करें,अथवा नहीं?

                     ।।श्रीहरि:।।

दुष्टसंग क्या है? और उसका  त्याग करें,अथवा नहीं?

किसीने पूछा है कि-

…राम राम । बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देहि बिधाता ।।

  महाराज जी "दुष्ट संग" का क्या मतलब समझें?
खासकर आज के आधुनिक परिवेश में । राम

[3:27 PM 21-1-2015]

जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेहि ।।

विनय पत्रिका के इस पद से हम साधकों को आज के परिेवेष में क्या चेतावनी मिलती है ?

राम राम । उत्तर की प्रतीक्षा है ।

[6:54 PM 21-1-2015]

अच्छाजी।
सीताराम सीताराम

जवाब लिखा जा रहा है-

'दुष्टसंग' अर्थात् रावणके समान भगवानसे हटाकर भोग-संग्रहकी तरफ लै जानेवाला संग।

आजके परिवेशमें जिनकी प्रवृत्ति भगवानसे हटाकर संसारमें लगानेकी है,तो उसको भी हम इस गिनतीमें लै सकते हैं।

इसमें सिर्फ व्यक्ति ही नहीं;क्रिया,पदार्थ आदि भी आ जाते हैं।

अगर ऐसा परिवेश हमारे सामने है,तो 'तजिये ताहि कौटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही'।

(इनकी सेवा करें और इनसे कुछ चाहें नहीं।लेनेके लिये सम्बन्ध न रखें,देनेके लिये रखें)।

ऐसा करना अनुचित(अधर्म) नहीं है और नुक्सानदायक(दुष्परिणामवाला) भी नहीं है;क्योंकि ऐसा पहले सज्जनोंने किया है और उसका परिणाम(नतीजा) अच्छा निकला है।

जैसे-
प्रह्लादने पिताका त्याग किया।ऐसे ही विभीषणने भाईका,भरतने माताका,बलिने गुरुका और गोपियोंने पतियोंका त्याग कर दिया।

उसका परिणाम आनन्द,मंगल करनेवाला ही हुआ।।

सम्बन्ध और प्रेम रखना ही हो तो भगवानवाले सम्बन्धके कारण ही रखना चाहिये और उन्ही वस्तु,व्यक्ति आदिसे रखना चाहिये,जिनसे भगवानमें प्रेम हों,आदि आदि पूरा पद समझकर पढें।

जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी ।
बलिगुरु तज्यो कंत ब्रजबनितन्हि, भये मुद मंगलकारी ।।
नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं ।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।
तुलसी सो सब भाँति परमहित पूज्य प्रान ते प्यारो ।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ।।

(विनय पत्रिका १७४)।

अधिक समझनेके लिये कृपया साधक-संजीवनी(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) पढें।

(विशेष कर अठारहवें अध्यायके ५६से ६६वें श्लोक तकका प्रकरण पढें)।

------------------------------------------------------------------------------------------------

पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें