शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

भगवत्प्राप्तिका सीधा,सरल रास्ता।

सूक्ति-
१७३-

रब्बदा कि पाणाँ ?
इतै पट्टणा, अर इतै लाणाँ |

शब्दार्थ-
रब्ब (ईश्वर) ।

घटना-
एक पंजाबी संत (बुल्लेशाह) खेतमें क्यारीका काम कर रहे थे ,पहली क्यारीको रोककर दूसरी क्यारीमें जल ला रहे थे।
उस समय किसीने पूछा कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये कौनसा उपाय करना चाहिये?
तब वो संत क्यारी और जलका ही उदाहरण देते हुए बोले कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये कौनसी कठिनता है ! उनकी प्राप्तिके लिये अपनेको इधर(संसार) से  तो रोकना है और इधर(परमात्माकी तरफ)  लगाना है।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

कई लोग संतोंसे भी अपना स्वार्थ सिध्द करना चाहते हैं।

(सूक्ति-
१६५-

आप मरौ र ठरौ (पण) म्हारे जीवरो तो भलौ करो |

(आप चाहे मरौ या ठरौ , पर हमारे जीवका तो भला करो(कल्याण करो)-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के 26/10/1993.3.00 बजेके सत्संगसे।

कथा-

एक खेती करनेवाली जाटनी थी । वो एक साहूकार (सेठ) के यहाँ काम करती थी ।
एक बार उसने देखा कि सेठके यहाँ सँत आये हैं। उनका बड़ा आदर किया गया है। गायका गौबर-गौमूत्र जलमें डालकर और उस पतले-पतले लेपसे मसौता लेकर सारा आँगन लीपा गया है।
सत्कार, पूजा आदि करके बड़े आदरसे भोजन परौसा गया है और घरवाले हवा कर रहे हैं।
यह देखकर जाटनीने पूछा कि आपलोग ये सब क्या कर रहे हैं?
तो घरवाले बोले कि हम अपने जीवका भला कर रहे हैं, संतोंकी सेवा करनेसे, संतोंका संग करनेसे-सत्संग करनेसे अपना(जीवात्माका) कल्याण होता है, मुक्ति होती है।
संत-महात्मा भी गीतीजीके पन्द्रहवें अध्यायका पाठ कर रहे हैं-

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

*अथ पञ्चदशोऽध्यायः*

श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥१५- १॥

आदि पाठ पूरा करके (ब्रह्मार्पणम्…पत्रं पुष्पं फलं तोयम्…गीता(४/२४;९/२६;) आदि बोलकर भगवानके भोग लगा रहे हैं और प्रसाद पा रहे हैं)
प्रसाद पाकर 'जटाकटाह0'(श्री शिव ताण्डवस्तोत्रम्) आदि बोलकर, (आचमन आदि करके) संत-महात्मा वापस पधार गये।
वो जाटनी भी अपने घर आ गई।

एक दिन शीतकालमें उसके घरपर भी संत पधारे। तब उसने भी गौबर-गौमूत्रसे गाढा-गाढा आँगन लीपा (जिससे ठण्डी भी बढ गयी और संतोंको शीत लगने लग गई)।
बाकी काम करके जाटनी संतोंके हवा करने लगी (जिससे संतोंको ठण्ड ज्यादा लगने लग गई)।
संत बोले कि हमको ठण्डी लग रही है, ठण्डसे मर रहे हैं-शीयाँ मराँ हाँ । तो जाटनी बोली कि आप चाहे मरौ या ठरौ , पर हमारे जीवका तो भला करो(कल्याण करो)-थे मरौ र ठरौ, पण म्हारे जीवरो तो भलौ करो ।

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के

दि.19931026/3.00 बजेके सत्संग-प्रवचनके आधार पर

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

ब्रजरजकी महिमा (कीमत)।


सूक्ति-
१४४-

वृन्दावनकी गूदड़ी दैन लगै लख दोय।
रज्जब कौडी नाँ बटी जब रज डारी धोय।।

शब्दार्थ-
रज (वृन्दावनकी धूलि , ब्रजरज) |

कथा-

एक राजाने देखा कि एक बाबाजी वृन्दावनसे आये हैं  और उनके पास ब्रजरजसे सनी हुई गूदड़ी है | राजाने सोचा कि गूदड़ी खरीदलें | बाबाजीके ना करनेपर ज्यादा रुपये देनेके लिये कहा ; फिर भी इन्कार करते गये और राजा मौल बढाते गये | अन्तमें दौ लाख रुपये देनेके लिये तैयार हो गये | बाबाजीने सोचा कि गूदड़ी धूलसे भरी है ; अगर इसको धो लेंगे तो कीमत ज्यादा मिलेगी | बाबाजीने गूदड़ी धोकर राजासे कहा कि अब कितने रुपयोंमें खरीदेंगे ? राजाने खरीदनेसे इनकार कर दिया कि मैं तो ब्रजरजके कारण ही खरीद रहा था ; वो नहीं है तो चाहे गूदड़ी कितनी ही बढिया और धुली हुई है तो क्या हुआ ? |
महिमा तो ब्रजरजकी है -
वृन्दावनकी गूदड़ी दैन लगै लख दोय।
रज्जब कौडी नाँ बटी जब रज डारी धोय।।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

भगवानने कर्णकी दाहक्रिया अपने हाथपर क्यों की?

सूक्ति-
१२२-

हरि भजरे हरिदासिया ! हरिका नाम रतन।
पाँचूँ पाण्डू तारिया कर दागियौ करण।।

शब्दार्थ-
कर दागियौ (हाथ पर दाह क्रिया की ) , करण (कर्ण , कुन्तिपुत्र ) |

कथा-

अन्त समयमें कर्णनें भगवान् श्री कृष्णसे यह वरदान माँगा था कि मेरी अन्त्येष्टि (दाह क्रिया) अदग्ध-भूमिमें हो अर्थात् मेरे को वहाँ जलाया जाय , जहाँ पहले किसीको भी न जलाया गया हो | उसके अनुसार भगवानने जहाँ भी अदग्ध-भूमि देखकर दाहक्रिया करनी चाही , वहाँ [धरतीके कहनेसे] पता लगा कि यह अदग्ध नहीं है | यहाँ तो सौ वार भीष्म जल चूके हैं , तीनसौ वार द्रोणाचार्य जल चूके और हजार वार दुर्योधन जल चूका तथा कर्णके जलनेकी तो गिनती ही नहीं थी |
अब भगवान विचार करने लगे कि इनको कहाँ जलावें ? पृथ्वी पर तो कोई जगह बिना जली हुई मिली नहीं मेरा दाहिना हाथभी राजा बलीसे दान लेनेके कारण जला हुआ है |
( जैसे-
जिह्वा दग्धा परान्नेन हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात् |
परस्त्रीभिर्मनो दग्धं कथं सिध्दिर्वरानने ! ||
अर्थात्  पराये अन्नसे  जीभ जल गयी और प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ जल गये तथा परायी स्त्रीमें मन लगानेसे मन जल गया | अब हे पार्वती !  सिध्दि कैसे हो ! अर्थात् इसलिये मनोरथसिध्दि नहीं होती , (कोई अनुष्ठान किया जाता है तो मन लगाकर , जीभके द्वारा जपकरके या बोल करके तथा हाथोंके द्वारा ही तो किया जाता है ! और ये तीनों ही जले हुए हैं तो कार्यसिध्दि कैसे हों? नहीं होती) |

इससे लगता है कि पार्वतीजीने भगवान शंकरसे पूछा है कि महाराज ! अपने मनकी चाहना पूरी करनेके लिये , मनोरथ पूरा करनेके लिये लोग मन लगाकर जप करते हैं , शुभकाम करते हैं ; परन्तु उनका मनोरथ पूरा क्यों  नहीं होता , उनको सिध्दि क्यो नहीं मिलती ? |
तब शंकर भगवानने जवाब दिया कि
पराये अन्नसे (उनकी) जीभ जल गयी और प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ जल गये तथा परायी स्त्रीमें मन लगानेसे मन जल गया | इसलिये हे पार्वती ! अब सिध्दि कैसे हो ! मन, वाणी और हाथ जल जानेके कारण उनके मनचाही पूरी नहीं होती) |
तब भगवानने अपने बायें हाथ पर कर्णकी दाह क्रिया की |
इस प्रकार भगवानने जो काम पाण्डवोंके लिये  भी नहीं किया , वो कर्णके लिये किया | पाण्डवोको भवसागरसे पार कर दिया , पर कर्णको तो अपनी हथैलीमें दागा | इसलिये कोई भी रतनस्वरूप  भगवानका नाम लेता है , भगवानको भजता है , तो भगवान उनको वो सौभाग्य दे-देते हैं जो पाणडव जैसे भक्तोंको भी नहीं मिला )|

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

धन और धनवानकी दशा।

…इसलिये कहा गया कि माया को जो यह गाड़ना है वह उसको गमाना ही है-
…गाडी जिकी गमाणी |
बीस करौड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी ||

सूक्ति-६५.

खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||

सूक्ति-६६.

खादो सोई ऊबर्यो दीधो सोई साथ |
'जसवँत' धर पौढाणियाँ माल बिराणै हाथ ||

शब्दार्थ-

खादो (जो खा लिया ).ऊबर्यो (उबर गया,बच गया ).दीधो (जो दै दिया ).

कथा-

एक राजाने सोचा कि मेरे इतने प्रेमी लोग है,इतनी धन-माया है ; अगर मैं मर गया तो पीछे क्या होगा ? यह देखनेके लिये राजाने [विद्याके प्रभावसे] श्वासकी गति रोकली और निश्चेष्ट हो गये ; लोगोंने समझा कि राजा मर गये और उन्होने राजाको जलानेसे पहले धन-मायाकी व्यवस्था करली,कीमती गहन खोल लिये,कपड़े उतार लिये,एक सोनेका धागा गलेमेंसे निकालना बाकी रह गया था,तो उसको तोड़ डालनेके लिये पकड़कर खींचा,तो वो धागा चमड़ीको काटता हुआ गर्दनमें धँस गया गया,तो भी राजा चुप रहे; फिर पूछा गया कि कोई चीज बाकी तो नहीं रह गयी ? इतनेमें दिखायी पड़ा कि राजाके दाँतोंमें कीमती नग (हीरे आदि) जड़े हुए हैं और वो निकालने बाकी है,औजारसे निकाल लेना चाहिये; कोई बोला कि अब मृत शरीरमें पीड़ा थोड़े ही होती है,पत्थरसे तोड़कर निकाल लो ; राजाकी डोरा (सोनेका धागा ) तोड़नेके प्रयासमें कुछ गर्दन तो कट ही गयी थी ,अब राजाने देखा कि दाँत भी टूटनेवाले है; तब राजाने श्वास लेना शुरु कर दिया; लोगोंने देखा कि राजाके तो श्वास चल रहे हैं,हमने तो इनको मरा मान कर क्या-क्या कर दिया ; कह, घणी खमा, घणी खमा (क्षमा कीजिये,बहुत क्षमा कीजिये). | अब राजा देख चूके थे कि मेरे प्रेमी कैसे हैं और क्या करते हैं तथा धनकी क्या गति होती है | उन्होने आदेश और उपदेश दिया कि धन संग्रह मत करो, काममें लो और दूसरोंकी भलाई करो; दान,पुण्य आदि करना हो तो स्वयं अपने हाथसे करलो (तो अपना है); नहीं तो बिना दिये ये सोना,चाँदी आदि  मरनेपर साथमें नहीं जाते;ऐसा नहीं देखा गया है कि बिना दिये सोना चाँदी साथमें चले गये हों ; इसलिये कहा गया कि - खादो सोई …माल बिराणै हाथ || (कोई कहते हैं कि ये जसवँतसिंहजी जोधपुर नरेश स्वयं थे,जो कवि भी थे)|

सूक्ति-६७.

दीया जगमें चानणा दिया करो सब कोय |
घरमें धरा न पाइये जौ कर दिया न होय ||

शब्दार्थ-

दीया (दीपक,दिया हुआ,दान).कर दिया न…(हाथसे दिया न हो,हाथमें दीपक न हो… तो घरमें रखी हुई चीज भी नहीं मिलती,न यहाँ मिलती है, न परलोकमें मिलती है )।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

धन सम्पत्तिकी क्या दशा होती है

सूक्ति-६४.

…[माया] गाडी जिकी गमाणी |
बीस करौड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी || …
खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||

कथा-

अजमेरके राजाजीके भाईका नाम बीसळदेव था | दौनों भाई परोपकारी थे | राजाजी रोजाना एक आनेकी सरोवरसे मिट्टी बाहर निकलवाते थे (सरोवर खुदानेका,उसमें पड़ी मिट्टी बाहर निकालनेका बड़ा पुण्य होता है ).ऐसे रोजाना खुदाते-खुदाते वो 'आनासागर'(बड़ा भारी तालाब) बन गया,जो अभी तक भी है | बीसळदेवजीने विचार किया कि मैं तो एक साथ ही  बड़ा भारी दान, पुण्य करुँगा (एक-एक आना कितनीक चीज है ) और धन-संचय करने लगे | करते-करते बीस करोड़से ज्यादा हो गया;किसी महात्माने उनको एक ऐसी जड़ी-बूंटी दी थी कि उसको साथमें लेकर कोई पानीमें भी चलै तो पानी उसे रास्ता दे-देता था;उस जड़ीकी सहायतासे बीसळदेवजीने वो बीस करोड़वाला धन गहरे पानीमें लै जाकर सुरक्षित रखा | संयोगवश उनकी रानी मर गई; तब दूसरा विवाह किया (कुछ खर्चा उसमें हो गया ); जब दूसरी रानी आई तो उसने देखा कि राजा पहलेवाली रानीके पसलीवाली हड्डीकी पूजा कर रहे हैं (वो जड़ी ही पसलीकी हड्डी जैसी मालुम पड़ रही थी ) ; रानीने सोचा कि पहलेवाली रानीमें राजाका मोह रह गया | इसलिये जब तक यह हड्डी रहेगी,तब तक राजाका प्रेम मेरेमें नहीं होगा ; ऐसा सोचकर रानीने उस हड्डीके समान दीखनेवाली बूंटीको पीसकर उड़ा दिया | राजाने पूछा कि यहाँ मेरी बूंटी थी न ! क्या हुआ ? तब रानी बोली कि वो बूंटी थी क्या ? मैंने तो उसको पीसकर उड़ा दिया | अब राजा क्या करे , उस बूंटीकी सहायताके बिना वो उस गहरे पानीके अन्दर जा नहीं सकते थे; इसलिये बीस करोड़की सम्पति उस गहरे पानीमें ही रह गयी ; इसलिये कहा गया कि माया को जो यह गाड़ना है वह उसको गमाना ही है-
…गाडी जिकी गमाणी |
बीस करौड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी ||

सूक्ति-६५.

खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||

सूक्ति-६६.

खादो सोई ऊबर्यो दीधो सोई साथ |
'जसवँत' धर पौढाणियाँ माल बिराणै हाथ ||

शब्दार्थ-

खादो (जो खा लिया ).ऊबर्यो (उबर गया,बच गया ).दीधो (जो दै दिया ).

कथा-

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

सुख किसमें है?

सूक्ति-५८.

चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह |
जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह ||

शब्दार्थ-

शाहनपति(बादशाह).शाहनपति शाह (बादशाहोंका भी बादशाह).'बेपरवाह'माने दूसरी वस्तुओंके बिना तो काम चल सकता है;परन्तु अन्न,जल वस्त्र,औषध आदि तो चाहिये ही !- इसको 'परवाह' कहते हैं इस चिन्ताका भी त्याग कहलाता है- 'बेपरवाह' |

सूक्ति-५९.

ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह |
सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ||

(तृष्णारूपी आगका वर्णन आगेकी सूक्तिमें पढें )|

सूक्ति-६०.

जौं दस बीस पचास भयै सत होइ हजार तौ लाख मँगैगी |
कोटि अरब्ब खरब्ब भयै पृथ्वीपति होनकी चाह जगैगी ||
स्वर्ग पतालको राज मिलै तृष्णा अधिकी अति आग लगैगी |
'सुन्दर'एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगैगी ||

सूक्ति-६१.

तनकी भूख इतनी बड़ी आध सेर या सेर |
मनकी भूख इतनी बड़ी निगल जाय गिरि मेर ||

शब्दार्थ-

निगल जाय (गिट जाय,मुखमें समालेना, बिना चबाये पेटमें लै जाना ).गिरि मेर (सुमेरु पर्वत ).

७५१ सूक्तियोंका पता-
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श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
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(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html