शनिवार, 12 सितंबर 2015

'साधक-संजीवनी' की विषयसूची (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                  ।।श्रीहरिः।।

{'साधक-संजीवनी'

(लेखक-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)}।

                            विषय-सूची

श्लोक-संख्या           विषय            पृष्ठ-संख्या

प्राक्कथन ...................................... ढ-प

                         पहला अध्याय

१-११ पाण्डव और कौरव-सेनाके मुख्य-मुख्य महारथियोंके नामोंका वर्णन (विशेष बात ११) ........................................... १-१२

१२-१९ दोनों पक्षोंकी सेनाओंके शंखवादनका वर्णन ........................................ १३-१८

२०-२७ अर्जुनके द्वारा सेना-निरीक्षण ...१९-२४

२८-४७ अर्जुनके द्वारा कायरता, शोक और पश्चात्तापयुक्त  वचन कहना तथा सञ्जयद्वारा शोकाविष्ट अर्जुनकी अवस्थाका वर्णन ... २४-३९
(विशेष बात ३१, ३७)

पहले अध्याय पद, अक्षर और उवाच ....... ४०
पहले अध्यायमें प्रयुक्त छंद .................... ४०

                         दूसरा अध्याय

१-१० अर्जुनकी कायरताके विषयमें सञ्जयद्वारा भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादका वर्णन ........................................ ४१-५२
(विशेष बात ४६)

११-३० सांख्ययोगका वर्णन .......... ५२-८७

(विशेष बात ५६, ६३; मार्मिक बात ६५, विशेष बात ६९, ६९, ७५, ७८; प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात ८५)

३१-३८  क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्ध करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन ........... ८७-९३

(प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात ९२)

३९-५३ कर्मयोगका वर्णन ......... ९३-११६

(समता-सम्बन्धी विशेष बात ९६; विशेष बात १००; मार्मिक बात १०४; बुद्धि और समता-सम्बन्धी विशेष बात १०८)

५४-७२ स्थितप्रज्ञके लक्षणों आदिका वर्णन ................................. ११६-१४२

(मार्मिक बात १२९; अहंता-ममतासे रहित होनेका उपाय १३७ ; विशेष बात १४०)

दूसरे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... १४२
दूसरे अध्यायमें प्रयुक्त छंद .................. १४२

                          तीसरा अध्याय

१-८ सांख्ययोग और कर्मयोगकी दृष्टिसे कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण ..................................... १४३-१५८

(मार्मिक बात १४७, १४९; विशेष बात १५१; साधन-सम्बन्धी मार्मिक बात १५७)

९-१९ यज्ञ और सृष्टिचक्रकी परम्परा सुरक्षित रखनेके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण ........ १५८-१८४

(मार्मिक बात १६०; कर्तव्य और अधिकार-सम्बन्धी मार्मिक बात १६४; कर्तव्य-सम्बन्धी विशेष बात १६७; मार्मिक बात १७७; विशेष बात १७८, १८१; मार्मिक बात १८४)

२०-२९ लोकसंग्रहके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण .......१८४-२०४

(परमात्मप्राप्ति-सम्बन्धी मार्मिक बात १८५; विशेष बात १८९, १९४, १९५, १९८, १९९; गुण-कर्मविभागको तत्वसे जाननेका उपाय २०१; प्रकृति-पुरुष-सम्बन्धी मार्मिक बात २०२; विशेष बात २०३)

३०-३५ राग-द्वेषरहित होकर स्वधर्मके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा ...... २०५-२२७

(अर्पण-सम्बन्धी विशेष बात २०५; कामना-सम्बन्धी विशेष बात २०६; विशेष बात २०८; राग-द्वेषपर विजय पानेके उपाय २१६; सेवा-सम्बन्धी मार्मिक बात २१९; मार्मिक बात २२४; स्वधर्म और परधर्म-सम्बन्धी मार्मिक बात २२६)

३६-४३ पापोंके कारणभूत 'काम' को मारनेकी प्रेरणा ..............................२२७-२४७

(कामना-सम्बन्धी विशेष बात २२९; विशेष बात २३२, २३५, २३८; मार्मिक बात २४३, २४५)

तीसरे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... २४७
तीसरे अध्यायमें प्रयुक्त छंद ................२४७

                           चौथा अध्याय

१-१५ कर्मयोगकी परम्परा और भगवानके जन्मों तथा कर्मोंकी दिव्यताका वर्णन ....... २५०-२८६

( विशेष बात २५२; मार्मिक बात २५७; विशेष बात २७३; अवतार-सम्बन्धी विशेष बात २६५; मार्मिक बात २७४; विशेष बात २८०)

१६-३२ कर्मोंके तत्वका और तदनुसार यज्ञोंका वर्णन .............................. २८६-३१२

( विशेष बात २८८; मार्मिक बात २८८; विशेष बात ३०२; मार्मिक बात ३०४; विशेष बात ३०९)

३३-४२ ज्ञानयोग और कर्मयोगकी प्रशंसा तथा प्रेरणा ............................ ३१२-३२८

(ज्ञान-प्राप्तिकी प्रचलित प्रक्रिया ३१३, विशेष बात ३२१, ३२३, ३२४)

चौथे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ३२८
चौथे अध्यायमें प्रयुक्त छंद ................. ३२८

                          पाँचवाँ अध्याय

१-६ सांख्ययोग तथा कर्मयोगकी एकताका प्रतिपादन और कर्मयोगकी प्रशंसा ..................................... ३२९-३४२

(मार्मिक बात ३३५; विशेष बात ३३९)

७-१२ सांख्ययोग और कर्मयोगके साधनका प्रकार ................................ ३४२-३५६

(विशेष बात ३४३, ३४८; मार्मिक बात ३५४)

१३-२६ फलसहित सांख्ययोगका विषय ...................................... ३४६-३८०

(समता-सम्बन्धी विशेष बात ३६५)

२७-२९ ध्यान और भक्तिका वर्णन ... ३८०-३८५

पाँचवे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ३८५
पाँचवे अध्यायमें प्रयुक्त छंद ................... ३८५

                        छठा अध्याय

१-६ कर्मयोगका विषय और योगारूढ़ मनुष्यके लक्षण .................................. ३८७-३९६

(विशेष बात ३८९)

५-९ आत्मोद्धारके लिये प्रेरणा और सिद्ध कर्मयोगीके लक्षण .............. ३९३-४०७

(उद्धार-सम्बन्धी विशेष बात ३९७; विशेष बात ४०५)

१०-१५ आसनकी विधि और फलसहित सगुण-साकारके ध्यानका वर्णन ....... ४०७-४१४

(विशेष बात ४०८)

१६-२३ नियमोंका और फलसहित स्वरूपके ध्यानका वर्णन ........................ ४१४-४२६

(विशेष बात ४१६, ४१८, ४२०)

२४-२८ फलसहित निर्गुण-निराकारके ध्यानका वर्णन ................................... ४२६-४३५

(ध्यान-सम्बन्धी मार्मिक बात ४२८; परमात्मामें मन लगानेकी युक्तियाँ ४३२)

२९-३२ सगुण और निर्गुणके ध्यान-योगियोंका अनुभव ............................. ४३५-४४१

३३-३६ मनके निग्रहका विषय ..... ४४१-४४७

(मार्मिक बात ४४६)

३७-४७ योगभ्रष्टकी गतिका वर्णन और भक्त-योगीकी महिमा ...................... ४४७-४६४

(विशेष बात ४४९, ४५५, ४५७; मार्मिक बात ४५९; विशेष बात ४६३)

छठे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच .... ४६४
छठे अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ................ ४६४

                          सातवाँ अध्याय

१-७ भगवानके द्वारा समग्ररूपके वर्णनकी प्रतिज्ञा करना तथा परा-अपरा प्रकृतियोंके संयोगसे प्राणियोंकी उत्पत्ति बताकर अपनेको सबका मूल कारण बताना ..... ४६५-४८६

(विशेष बात ४६७; शरणागतिके पर्याय ५६७; ज्ञान और विज्ञान-सम्बन्धी विशेष बात ४७०; विशेष बात ४७९)

८-१२ कारणरूपसे भगवानकी विभूतियोंका वर्णन ............................ ४८६-४९६

(विशेष बात ४८९, ४९४)

१३-१९ भगवानके शरण होनेवालोंका और शरण न होनेवालोंका वर्णन ....... ४९६-५२४

(विशेष बात ५०२, ५०७; मार्मिक बात ५०८, ५१६; महात्माओंकी महिमा ५२०)

२०-२३ अन्य देवताओंकी उपासनाओंका फलसहित वर्णन .....................५२४-५३०

(विशेष बात ५२९)

२४-३० भगवानके प्रभावको न जाननेवालोंकी निन्दा और जाननेवालोंकी प्रशंसा तथा भगवानके समग्ररूपका वर्णन ............ ५३०-५५३

(विशेष बात ५३१, ५४०; भगवानके समग्ररूप-सम्बन्धी विशेष बात ५४४; अध्याय-सम्बन्धी विशेष बात ५४६)

सातवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ५५२
सातवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ........... ५५२
सातवें अध्यायका सार ............५५२-५५३

                         आठवाँ अध्याय

१-७ अर्जुनके सात प्रश्न और भगवानके द्वारा उनका उत्तर देते हुए सब समयमें अपना स्मरण करनेकी आज्ञा देना ............ ५५५-५६९

(विशेष बात ५५९; मार्मिक बात ५६३; विशेष बात ५६५; स्मरण-सम्बन्धी विशेष बात ५६८)

८-१६ सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकारकी उपासनाका फलसहित वर्णन .................................... ५६९-५८१

(विशेष बात ५७८, ५८०, ५८०)

१६-२२ ब्रह्मलोकतककी अवधिका और भगवानकी महत्ता तथा भक्तिका वर्णन ....................................... ५८१-५८९

(विशेष बात ५८८)

२३-२८ शुक्ल और कृष्ण-गतिका वर्णन और उसको जाननेवाले योगीकी महिमा ... ५८९-५९७

(विशेष बात ५९२)

आठवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ५९७
आठवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .................५९७

                             नवाँ अध्याय

१-६ प्रभावसहित विज्ञानका वर्णन ... ५९९-६१२

(ज्ञान और विज्ञान-सम्बन्धी विशेष बात ६००; विशेष बात ६०४; मार्मिक बात ६०९; विशेष बात ६११)

७-१० महासर्ग और महाप्रलयका वर्णन ............................. ६१२-६१८

११-१५ भगवानका तिरस्कार करनेवाले एवं आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्राकृतिका आश्रय लेनेवालोंका कथन तथा दैवी प्राकृतिका आश्रय लेनेवाले भक्तोंके भजनका वर्णन .................................. ६१८-६२५

१६-१९ कार्य-कारणरूपसे भगवत्स्वरूप विभूतियोंका वर्णन .................... ६२५-६३०

२०-२५ सकाम और निष्काम उपासनाका फलसहित वर्णन .................... ६३०-६३९

२६-३४ पदार्थों और क्रियाओंको भगवदर्पण करनेका फल बताकर भक्तिके अधिकारियोंका और भक्तिका वर्णन .............. ६३९-६६६

(विशेष बात ६४०, ६४२, ६४४; मार्मिक बात ६५३; विशेष बात ६४७; मार्मिक बात ६५८, ६६०; विशेष बात ६६४; सातवें और नवें अध्यायके विषयकी एकता ६६४)

नवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ६६६
नवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .................६६६
नवें अध्यायका सार .........................६६६

                          दसवाँ अध्याय

१-७ भगवानकी विभूति और योगक कथन तथा उनको जाननेकी महिमा ...... ६६९-६८०

(विशेष बात ६७५, ६७८)

८-११ फलसहित भगवद्भक्ति और भगवत्कृपाका प्रभाव ............................ ६८०-६८७

(विशेष बात ६८१, ६८६)

१२-१८ अर्जुनके द्वारा भगवानकी स्तुति और योग तथा विभूतियोंको कहनेके लिये प्रार्थना ................................... ६८८-६९४

१९-४२ भगवानके द्वारा अपनी विभूतियोंका और योगका वर्णन ............ ६९४-७१८

(विशेष बात ७११, ७१५)

दसवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच .... ७२८
दसवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ................. ७२८

                         ग्यारहवाँ अध्याय

१-८ विराटरूप दिखानेके लिये अर्जुनकी प्रार्थना और भगवानके द्वारा अर्जुनको दिव्यचक्षु प्रदान करना ...................... ७१९-७२८

(विशेष बात ७२३, ७२७)

९-१४ सञ्जयद्वारा धृतराष्ट्रके प्रति विराट-रूपका वर्णन ................ ७२८-७३२

१५-३१ अर्जुनके द्वारा विराटरूपको देखना और उसकी स्तुति करना ........... ७३२-७४७

(विशेष बात ७३२; ७३८)

३२-३५ भगवानके द्वारा अपने अत्युग्र विराटरूपका परिचय और युद्धकी आज्ञा ................................... ७४७-७५२

(विशेष बात ७५१)

३६-४६ अर्जुनके द्वारा विराटरूप भगवानकी स्तुति-प्रार्थना ........................ ७५२-७६४

(ग्यारहवें अध्यायमें ग्यारह रसोंका वर्णन ७६१, विशेष बात ७६२)

४७-५० भगवानके द्वारा विराटरूपके दर्शनकी दुर्लभता बताना और भयभीत अर्जुनको आश्वासन देना ........................ ७६४-७७१

(विशेष बात ७६५; सञ्जय और अर्जुनकी दिव्यदृष्टि कबतक रही? ७६८)

५१-५५ भगवानके द्वारा चतुर्भुजरूपकी महत्ता और उसके दर्शनका उपाय बताना ..................................... ७७१-७७८

(विशेष बात ७७६, ७७७)

ग्यारहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ...७७८
ग्यारहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ........... ७७८

                         बारहवाँ अध्याय

१-१२ सगुण और निर्गुण-उपासकोंकी श्रेष्ठताका निर्णय और भगवत्प्राप्तिके चार साधनोंका वर्णन ........................... ७७९-८१२

(विशेष बात ७८७; विशेष बात - सगुण-उपासनाकी सुगमताएँ और निर्गुण-उपासनाकी कठिनताएँ ७९२; विशेष बात ७९९; भगवत्प्राप्ति-सम्बन्धी विशेष बात ८०१; कर्मफल-त्याग-सम्बन्धी विशेष बात ८०९; साधन-सम्बन्धी विशेष बात ८११)

१३-२० सिद्ध-भक्तों उन्तालीस लक्षणोंका वर्णन ............................ ८१२-८२९

(मार्मिक बात ८२७ ; प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात ८२८)

बारहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ८३३
बारहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .......... ८३३

                         तेरहवाँ अध्याय

१-१८ क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) का भक्ति-सहित विवेचन .............................. ८६५-८६८

(मार्मिक बात ८६७ ; विशेष बात ८४४, ८४५, ८४८, ८४६)

१९-३४ ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुषका विवेचन ................................. ८६८-८९०

(मार्मिक बात ८८०)

तेरहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ८९०
तेरहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .................८९०

                          चौदहवाँ अध्याय

१-४ ज्ञानकी महिमा और प्रकृति-पुरुषसे जगतकी उत्पत्ति ................... ८९१-८९५

५-१८ सत्व, रज और तम - इन तीनों गुणोंका विवेचन ..........................८९५-८१५

(विशेष बात ८९६, ९०२; मार्मिक बात ९०७; विशेष बात ९१२, ९१४)

१९-२७ भगवत्प्राप्तिका उपाय एवं गुणातीत पुरुषके लक्षण ................... ९१५-९२६

(विशेष बात ९१९)

चौदहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ७७८
चौदहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .............७७८

                         पन्द्रहवाँ अध्याय

१-६ संसार-वृक्षका तथा उसका छेदन करके भगवानके शरण होनेका और भगवद्धामका वर्णन ......................... ९२७-९४७

(विशेष बात ९३५; वैराग्य सम्बन्धी विशेष बात ९३६; संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदके कुछ सुगम उपाय ९३७; विशेष बात ९४३, ९४४)

७-११ जीवात्माका स्वरूप तथा उसे जाननेवाले और न जाननेवालेका वर्णन ..... ९४८-९६६

(विशेष बात ९५०, ९५७, ९५८; मार्मिक बात ९६०, ९६३)

१२-१५ भगवानके प्रभावका वर्णन ............................ ९६६-९७५

(परमात्मप्राप्ति-सम्बन्धी विशेष बात ९७१; प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात ९७३; मार्मिक बात ९७५)

१६-२० क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तमका वर्णन तथा अध्यायका उपसंहार ......... ९७५-९८५

(मार्मिक बात ९७८; विशेष बात ९८०)

पंद्रहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ९८५
पंद्रहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .......... ९८५
पंद्रहवें अध्यायका सार ............. ९८५-९८६

                          सोलहवाँ अध्याय

१-५ फलसहित दैवी और आसुरी सम्पत्तिका वर्णन ................... ९८७-१०१०

(मार्मिक बात १००४, १००६)

६-८ सत्कर्मोंसे विमुख हुए आसुरी-सम्पत्तिवाले मनुष्योंकी मान्यताओंका कथन ............................... १०११-१०१७

(विशेष बात १०१५)

९-१६ आसुरी-सम्पत्तिवाले मनुष्योंके दुराचारों और मनोरथोंका फलसहित वर्णन ................................... १०१७-१०२५

१७-२० आसुरी-सम्पत्तिके मूलभूत दोष - काम, क्रोध और लोभसे रहित होकर शास्त्रविधिके अनुसार कर्म करनेकी प्रेरणा ..... १०३१-१०३६

सोलहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच .............................. १०३६
सोलहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ......... १०३६

                          सत्रहवाँ अध्याय

१-६ तीन प्रकारकी श्रद्धाका और आसुर निश्चयवाले मनुष्योंका वर्णन ..... १०३७-१०४५

(मार्मिक बात १०४०; विशेष बात १०४५)

७-१० सात्विक, राजस और तामस आहारिकी रूचिका वर्णन ......................१०४५-१०५१

(प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात १०४९; भोजनके लिये आवश्यक विचार १०५०)

११-२२ यज्ञ, तप और दानके तीन-तीन भेदोंका वर्णन .......................... १०५२-१०६८

(सात्विकताका तात्पर्य १०५२; मनकी प्रसन्नता प्राप्त करनेके उपाय १०५९; दान-सम्बन्धी विशेष बात १०६७; कर्मफल-सम्बन्धी विशेष बात १०६७)

२३-२८ 'ॐ तत्सत्' के प्रयोगकी व्याख्या और असत्-कर्मका वर्णन ............१०६९-१०७५

सत्रहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ................................ १०७५
सत्रहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ............. १०७५

                         अठारहवाँ अध्याय

१-१२ संन्यास और त्यागके विषयमें मतान्तर और कर्मयोगका वर्णन ..... १०७७-११०८

(मार्मिक बात १०९२; कर्म-सम्बन्धी विशेष बात १०९५)

१३-४० सांख्ययोगका वर्णन .... ११०८-११४७

(मार्मिक बात १११९; विशेष बात ११२८, ११३६, ११४३, ११४४)

४१-४८ कर्मयोगका भक्तिसहित वर्णन ............................ ११४७-११६८

(विशेष बात ११४८; गोरक्षा-सम्बन्धी विशेष बात ११५२; स्वाभाविक-कर्मोंका तात्पर्य ११५४; जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ११५४; विशेष बात ११६०, ११६३, ११६६)

४९-५५ सांख्ययोगका वर्णन ...... ११६९-११७८

(विशेष बात ११७६)

५६-६६ भगवद्भक्तिका वर्णन .... ११७८-१२१९

(प्रेम-सम्बन्धी विशेष बात ११८२; विशेष बात ११८६, ११८९, ११९२; शरणागति-सम्बन्धी विशेष बात १२०४; शरणागतिका रहस्य १२१२)

६७-७८ श्रीमद्भगवद्गीताकी महिमा ................................... १२१९-१२३९
(मार्मिक बात १२३१)

अठारहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ............................... १२३९
अठारहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ............................... १२३९
आरती ...................................... १२४०

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

द्वेषके साथ सम्बन्ध पापसे भी भयंकर है- (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                     ॥श्रीहरि:॥

द्वेषके साथ सम्बन्ध पापसे भी भयंकर है- 

{काम्य-कर्म (सकामकर्म) और पापकर्म अकुशलकर्म है अर्थात् संसारबन्धनसे मुक्त करनेमें समर्थ नहीं है, कुशल नहीं है}

साधक ऐसे अकुशल कर्मोंका त्याग तो करता है,पर द्वेषपूर्वक नहीं।कारण कि द्वेषपूर्वक त्याग करनेसे कर्मोंसे तो सम्बन्ध छूट जाता है,पर द्वेषके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है, जो शास्त्रविहित काम्य-कर्मोंसे तथा शास्त्र-निषिध्द पाप-कर्मोंसे भी भयंकर है।

साधक-संजीवनी
(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) १८।१० से।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

जन्मदिनपर उत्सव मनाना उचित है या अनुचित?

                        ।।श्रीहरि:।।

जन्मदिनपर उत्सव मनाना उचित है या अनुचित?

किसीने पूछा है कि जन्मदिन मनाना गलत है क्या?

उत्तरमें निवेदन है कि नहीं।
यह अपनी-अपनी मर्जी है।

जन्मदिन मनाना उचित है या अनुचित-इसपर थोड़ासा विचार करलें।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी  महाराज इधर ख्याल करवाते हुए कहते हैं कि लोग जन्मदिनपर खुशी मनाते हैं (कि इतने वर्ष आ गये,इतने वर्ष जी गये) अरे खुशी काहेकी? इतने वर्ष आ गये नहीं,चले गये,इतने वर्ष जी गये नहीं,इतने वर्ष मर गये।

यह खुशीका दिन नहीं है,यह तो रोनेका दिन है।

(हम इतने वर्ष मर गये और अभी तक असली काम(भगवत्प्राप्ति) बना नहीं,यह जानकर रोना आना चाहिये)।

इस प्रकार हमको हौस आना चाहिये।

हमको चेतानेके लिये ऐसा कहते हैं,जन्मदिन मनानेकी मनाहीका उध्देश्य नहीं है।

अगर कोई केवल  जन्मदिन मनाना छोड़दे और चेत नहीं करे तो कोई बड़ी बात थोड़े ही है!इसी प्रकार  कोई जन्मदिन मनाता है और चेत कर लेता है तो कोई मामूली(छोटी) बात थोड़े ही है।

इसलिये जरूरी बात तो है चेत करना,न कि जन्मदिन मनाना-न मनाना।

जन्मदिन मनाना या न मनाना कोई खास बात नहीं है।खास बात है हौस(चेत) होना।

वास्तवमें तो जन्मदिन मनाना चाहिये भगवानका।

जिस दिन भगवानका जन्म(अवतार) होता है,उस दिन आनन्द मंगल हो जाते हैं।लोग उस दिन उत्सव मनाते हैं।

मनुष्यके जन्मदिनका कोई महत्त्व नहीं है अगर वो भगवद्भक्ति करके  मरणदिनसे मुक्त नहीं हो गया हो तो।

जो भगवद्भक्ति करके भगवानको प्राप्त कर लेते हैं, जन्म-मरणसे छूट जाते हैं,वे महात्मा हो जाते हैं।उनके

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया कि महात्मा जिसदिन शरीर छोड़ते हैं तो उनका निर्वाणदिवस(शरीरका मरणदिन)  मनाया जाता है कि आजके दिन वो भगवानसे मिले (आजके दिन परमात्माको प्राप्त हुए)।

शरीर छोड़नेपर महात्मा विभु हो जाते हैं अर्थात् सर्वव्यापक हो जाते हैं।जैसे भगवान सर्वव्यापक हैं,ऐसे ही महात्मा भी सर्वव्यापक हो जाते हैं।सर्वव्यापी(विभु) भगवानमें मिलकर महात्माभी सर्वव्यापी हो जाते हैं।

महात्माओंकी समाधीपर भगवानके चरणचिह्न और शंख,चक्र आदिके निशान होते हैं।जिसका अर्थ है कि वो (शंख चक्र गदा और पद्म धारण करनेवाले) भगवानके चरणोंमें मिल गये।

(संत-महात्माओंका भगवानसे अलग अपना अस्तित्व (स्थान,चरणचिह्न आदि) नहीं होता)।

महात्मा जिस दिन शरीर छोड़कर भगवानसे मिले,वो दिन आनन्दका दिन हो जाता है।उस दिन लोग उत्सव मनाते हैं।

जो महात्मा उत्सव मनवाना आदि चाहते नहीं हों तो उनके निर्वाण-दिवसपर उत्सव आदि नहीं करने चाहिये।

(श्री स्वामीजी महाराजके लिये भी ऐसी ही बात समझनी चाहिये)।

एक बारकी बात है कि श्री स्वामीजी महाराज गीताभवन (ऋषिकेश) में विराजमान थे। उस समय एक सज्जन कोई विशेष-सामग्री लाये।

उनसे पूछा गया कि यह सामग्री क्यों लाये हो?तब वो सज्जन संकोचपूर्वक धीरेसे बोले कि आज महाराजजीका जन्मदिन है,इसलिये लाये हैं।

यह देखकर श्री महाराजजीने पूछ लिया कि क्या बात है? तब बात बतादी गयी कि आज आपका जन्मदिन है। यह सामग्री आपके जन्मदिनपर लाये हैं।

सुनकर श्री महाराजजी झुँझलाते हुएसे और अरुचि जताते हुए बोले कि क्यों करते हैं ऐसा?(यह नयी रीति क्यों शुरु करते हैं!)।

ज्यादा जोरसे तो श्री महाराजजी इसलिये नहीं बोले कि कहीं वो अपना अपमान समझकर दुखी न हो जायँ(वो सज्जन प्रतिष्ठित और श्रध्दावाले थे)।

वो सज्जन समझगये कि श्री स्वामीजी महाराजको जन्मदिनपर ऐसा कुछ विशेष करके महत्त्व देना पसन्द नहीं है।

वो सज्जन कुछ भी नहीं बोल पाये और चुपचाप चले गये।

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज जन्म-दिवसपर तो उत्सवको महत्त्व देते ही नहीं थे,निर्वाण-दिवसपर भी उत्सवको महत्त्व नहीं देते थे।

अगर महत्त्व देते तो सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दकाके निर्वाण-दिवसपर उत्सव क्यों नहीं मनवाते?।

इस प्रकार इन बातोंसे हमलोगोंको भी शिक्षा लेनी चाहिये और हौसमें आना चाहिये।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

क्या गुरुका नाम लेना वर्जित है?

क्या गुरुका नाम लेना वर्जित है? http://dungrdasram.blogspot.com/2015/08/blog-post_25.html

क्या गुरुका नाम लेना वर्जित है?

                          ।।श्रीहरि:।।

क्या गुरुका नाम लेना वर्जित है?

प्रश्न-

आप श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके नामका उच्चारण क्यों करते हो? (गुरुका नाम लेना तो वर्जित है)
और महाराजजीके नामके पहले 'परम' शब्द भी क्यों जोड़ते हो ?

उत्तर-

भाव भक्ति और अपने सन्तोषके लिये।

भक्त और भगवानका नाम लेनेसे वाणी पवित्र हो  जाती है।आनन्द मंगल हो जाते हैं।

इसलिये महापुरुषोंका नाम तो लेना चाहिये।

हाँ,नामका दुरुपयो न करें।

अधिक जाननेके लिये यह लेख पढें- 

( महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें -  http://dungrdasram.blogspot.com/2014/01/blog-post_17.html )

परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज कई बार बताते थे कि-

आत्मनाम गुरोर्नाम
नामातिकृपणस्य च।
श्रेयष्कामो न गृह्णीयात्
ज्येष्ठापत्यकलत्रयौ:।।

अर्थात् अपनी भलाई (कल्याण) चाहनेवालेको अपना और गुरुके नामका उच्चारण नहीं करना चहिये तथा अत्यन्त कृपण (कञ्जूस)का,बड़े पुत्रका और पत्निका नाम भी नहीं लेना चाहिये।

यह बात सही है।

एक बार परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने यह बात सत्संग-प्रवचनमें लोगोंसे कही।

सत्संगके बादमें मैंने पूछा कि अगर कोई गुरुजीका नाम पूछे और बताना आवश्यक हो तो कैसे बतावें?

तब श्रीमहाराजजीने बताया कि गुरुजीके नामके पहले आदरसूचक विशेषण (जैसे 1008,आदरणीय,प्रात:स्मरणीय, पूज्य आदि या और कोई) जोड़कर नाम लेलें-नाम बतादें।

(इस प्रकार गुरुजीका नाम भी लिया जा सकता है) ।

महाराजजी किसीके गुरु नहीं बनते थे।कोई आपको मनसे गुरु मानलें, तो आपकी मनाही भी नहीं थी,परन्तु आप गुरु-शिष्यका सम्बन्ध नहीं जोड़ते थे और न ही इसका समर्थन करते थे।

आजके जमानेमें तो वो इसका कड़ा विरोध करते थे,निषेध करते थे।

गुरु बनाकर कोई गुरुकी बात नहीं मानें तो वो नरकोंमें जाता है।

महाराजजीने बताया कि उसको नरकोंमें जानेसे भगवान भी नहीं रोक सकते।

जिन संत महापुरुषोंपर श्रध्दा है,उनको गुरु बनाये बिना ही कोई उनकी बात मानता है तो कल्याण हो जाता है और नहीं मान सके तो लाभसे वंचित रहता है,(परन्तु नरकोंमें नहीं जाना पड़ता)।

कई जने आपको मनसे गुरु मानते हैं। वैसे भी संत-महात्मा तो स्वत: ही गुरु हैं।

महाराजजी अपने नामके साथमें आदर सूचक ज्यादा विशेषण लगाकर लिखवानेमें संकोच करते थे।

एक बार परम श्रध्देय स्वामीजी श्री…लिखा जाता हुआ देखकर 'परम' शब्द हटवाकर संशोधन करवाया।

फिर आपसे पूछा गया कि कुछ जोड़े बिना तो कैसे लिखा जाय? (पता नहीं लोगोंके भी यह बात जँचेगी या नहीं) तब श्रीमहाराजजीने बताया कि श्रध्देय… लगाकर लिखदो।

महाराजजीकी पुस्तकों पर तो 'स्वामी रामसुखदास' ही लिखवाया हुआ है।यह तो महापुरुषोंकी महान कृपा है जो इतनी(श्रध्देय जोड़नेकी) छूट देदी।

श्रीमहाराजजीके नामके साथ 'परम' शब्द पहलेसे ही जुड़ता आया है और इस घटनाके बादमें भी जुड़ता रहा है।कभी किसीको मना किया हो , ऐसा देखने-सुननेमें नहीं आया।

जैसे आपकी फोटो लेने,चरण छूने आदिके लिये सख्त मनाही थी,ऐसी 'परम' शब्दके लिये मनाही नहीं थी।

इस प्रकार सत्संगी,सज्जन लोग आपके नामके पहले 'परम' शब्द लगाते आये हैं और लगाते जा रहे हैं। 'भगवानका प्रचार करना' खुद भगवानका काम नहीं,भक्तोंका काम है।

ऐसे महारुरुषोंके नामके साथ परम, श्रध्देय…आदि जितने भी विशेषण जोड़े जायँ, कम है, अति अल्प है।फिर भी भावुकजन विशेषण आदिके द्वारा प्रयास करते हैं।

जैसे-

छं० निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।

दो०
रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ।।९२ क ।।

सो०
भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।।९२ ख ।।

(रामचरितमानस ७/९२) ।

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सोमवार, 24 अगस्त 2015

{गुरुका गुर(विद्या,रहस्य) क्या है?कि}तुम कहते हो 'मैं' 'हूँ',और 'मैं' निकालदो,'हूँ'-यह परमात्माका स्वरूप है(यह गुर बता दिया) -श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज।

                          ।।श्रीहरि:।।


गुरुका गुर क्या है?

{गुरुका गुर(विद्या,रहस्य) क्या है?

कि}
तुम कहते हो 'मैं' 'हूँ',और 'मैं' निकालदो,'हूँ'-यह परमात्माका स्वरूप है(यह गुर बता दिया)।

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज 


गुरु कुछ नहीं देता है,बड़े-बड़े महात्मा गुरु है वो कुछ नहीं देते हैं,केवल ख्याल कराते हैं-देखो,इधर देखो इधर।इतनी ही(बात है)।

देते क्या हैं वो, और देई(दी) हुई चीज कितनाक दिन ठहरेगी?।

आपके घरकी चीज है उसको बता देते हैं,यह आपके घरकी,खुदके घरकी,ख्याल कर लिया;
तो अपने स्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है।

… (गुरु) कहते हैं हमने दिया क्या,बताओ।आप बताओ भाई!
कोई गुरुने काड र (निकाल कर) दे दी कि यह लै,यह चीज है।

गुरुने तो गुर बता दिया,बस।

तुम कहते हो (कि) 'मैं' 'हूँ',और(इसमेंसे) 'मैं' ( को) निकालदो, (तो 'हूँ' रह जायेगा,तो) 'हूँ'-यह परमात्माका स्वरूप है (यह गुर बता दिया)।

तो (परमात्माका स्वरूप) मैंने दिया (है) यह?।

मैं अरु मोर तोर तैं माया।

(रामचरितमानस,३।१५।२)।

माया है यह।मायाको छौड़ा और आप(और हम) परमात्माका स्वरूप हैं।

बहुत सुगमतासे(परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है)।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के दिनांक ७/१०/१९९४.१५०० बजेके प्रवचनका अंश)।

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सोमवार, 17 अगस्त 2015

सूवा-सूतकमें भगवानकी पूजा करें अथवा नहीं?कह,करें।श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि करें (बिना प्राण-प्रतिष्ठावाली मूर्तिकी करें)।

                                 ।।श्रीहरि:।।

सूवा-सूतकमें भगवानकी पूजा करें अथवा नहीं?  कह,करें।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि करें (बिना प्राण-प्रतिष्ठावाली मूर्तिकी करें)।

(एक सज्जनने लिखा है कि-)
प्रश्न - जन्मके आशौच या मरणके आशौच में भोजन करने से पहले भगवान् के अर्पण करें अथवा नहीं? -

उत्तर-
(अपने भगवानके अर्पण करें।)

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि
भगवानकी जिस मूर्तिकी प्राण-प्रतिष्ठा करवाई गई है,(वो मूर्ति प्राणधारी है ,इसलिये) उस मूर्तिकी तो जैसे एक प्राणधारी मनुष्यकी सेवा होती है,वैसे ही भगवानकी उस मूर्तिकी भी  सेवा होनी चाहिये (उनके भोजन,वस्त्र,ठण्डी गर्मी,आराम आदिका ध्यान रखना चाहिये)।

सूवा-सूतकमें भगवानकी उस मूर्तिकी सेवा-पूजा तो ब्राह्मण आदिसे करवावें;अथवा ब्याही हुई कन्या हो तो उससे करवावें;

परन्तु जिस मूर्तिकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं करवाई गई है , वे ठाकुरजी तो  अपने घरके सदस्यकी तरह ही हैं।

उन अपने भगवानके सूवा-सूतक हमारे साथमें ही लगते हैं और हमारे  साथमें ही उतरते हैं।

(इसलिये सूवा-सूतकमें भी भगवानकी पूजा-अर्चा न छोड़ें,जैसे हम स्नान,भोजन आदि सूवा-सूतकमें भी नहीं  छोड़ते;करते हैं;ऐसे ही भगवानके भी करने  चाहिये)।

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