शनिवार, 16 अप्रैल 2016

( निरन्तर साधन कैसे हो?- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                         ।।श्रीहरि।।

 
( निरन्तर साधन कैसे हो?-

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

विवाहिता स्त्रीकी तरह,भगवानके रहकर शुभ काम करो तो हर काम भगवानका काम(साधन) हो जायेगा,निरन्तर साधन होगा

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसखदासजी महाराजके दि.१९९४०५०७/५.१८/बजेके प्रवचनसे )-

जैसे स्त्री,विवाहित होने पर, वो पतिकी बनी रहने पर ही काम करती है सब पतिका काम करती है…घरका काम करती है,पतिकी रहते हुए ही करती है सब पतिकी होकर के ही(करती है) ;ऐसा नहीं भाई ! कि कुँआरी बन गयी;पीहर जाय तो कुँवारी बन गयी-ऐसा नहीं(हो जाता).पीहरमें रहती है(तो) पतिकी होकर(रहती है),ससुरालमें रहती है (तो)पतिकी होकर,कहीं जावे मुसाफिरिमें तो पतिकी होकर के ही(पतिकी रहती हुई ही जाती है) .

ऐसे भगवानके साथ सम्बन्ध अपना जोड़ लिया-भगवान मेरे हैं और मैं भगवानका हूँ-मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, जो कुछ करे भगवानके लिये करे बस,

कितनी मस्तीकी,कितनी आनन्द की, कितनी शान्तिकी, कितनी  सुखकी, कितनी कीमती बात है !

तो सब समय हमारा सार्थक हो जाय|
मनुष्य जीवनका समय परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है और इसमें जो करते हैं वो साधन-सामग्री है,सभी साधन-सामग्री है|

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके ७-५-१९९४;५:१८ बजेके प्रवचनका अंश)|

(जैसे स्त्री जो कुछ करती है वो सब काम पतिका(उनके घरका) ही होता है,वो कभी(एक क्षण भी) कुँआँरी नहीं हो जाती;ऐसे हम भी भगवानके ही रहते हुए ही जो कुछ शुभ काम करें,तो वो सब काम भगवानके हो जायेंगे,हमारा हर काम(खाना-पीना,सोना-जागना,चलना-फिरना,रसोई बनाना,साफ-सफाई करना,व्यापार करना,शौच-स्नान,भजन-ध्यान,सत्संग आदि सब काम) साधन हो जायेगा और हम एक क्षण भी बिना भगवानके, पराये (कुँआरेकी तरह) नहीं होंगे,हरदम भगवानके ही रहेंगे;हमारा साधन निरन्तर होगा)|

http://dungrdasram.blogspot.com/

( निरन्तर साधन कैसे हो?- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                         ।।श्रीहरि।।

  ( निरन्तर साधन कैसे हो?-

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

विवाहिता स्त्रीकी तरह,भगवानके रहकर शुभ काम करो तो हर काम भगवानका काम(साधन) हो जायेगा,निरन्तर साधन होगा

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसखदासजी महाराजके दि.१९९४०५०७/५.१८/बजेके प्रवचनसे )-

जैसे स्त्री,विवाहित होने पर, वो पतिकी बनी रहने पर ही काम करती है सब पतिका काम करती है…घरका काम करती है,पतिकी रहते हुए ही करती है सब पतिकी होकर के ही(करती है) ;ऐसा नहीं भाई ! कि कुँआरी बन गयी;पीहर जाय तो कुँवारी बन गयी-ऐसा नहीं(हो जाता).पीहरमें रहती है(तो) पतिकी होकर(रहती है),ससुरालमें रहती है (तो)पतिकी होकर,कहीं जावे मुसाफिरिमें तो पतिकी होकर के ही(पतिकी रहती हुई ही जाती है) .

ऐसे भगवानके साथ सम्बन्ध अपना जोड़ लिया-भगवान मेरे हैं और मैं भगवानका हूँ-मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, जो कुछ करे भगवानके लिये करे बस,

कितनी मस्तीकी,कितनी आनन्द की, कितनी शान्तिकी, कितनी  सुखकी, कितनी कीमती बात है !

तो सब समय हमारा सार्थक हो जाय|
मनुष्य जीवनका समय परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है और इसमें जो करते हैं वो साधन-सामग्री है,सभी साधन-सामग्री है|

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके ७-५-१९९४;५:१८ बजेके प्रवचनका अंश)|

(जैसे स्त्री जो कुछ करती है वो सब काम पतिका(उनके घरका) ही होता है,वो कभी(एक क्षण भी) कुँआँरी नहीं हो जाती;ऐसे हम भी भगवानके ही रहते हुए ही जो कुछ शुभ काम करें,तो वो सब काम भगवानके हो जायेंगे,हमारा हर काम(खाना-पीना,सोना-जागना,चलना-फिरना,रसोई बनाना,साफ-सफाई करना,व्यापार करना,शौच-स्नान,भजन-ध्यान,सत्संग आदि सब काम) साधन हो जायेगा और हम एक क्षण भी बिना भगवानके, पराये (कुँआरेकी तरह) नहीं होंगे,हरदम भगवानके ही रहेंगे;हमारा साधन निरन्तर होगा)|

स्मार्त और वैष्णव किसको कहते हैं?

                      ।।श्रीहरि।।

स्मार्त और वैष्णव किसको कहते हैं?

एक सज्जन पूछते हैं कि स्मार्त और वैष्णव किसको कहते हैं?

उत्तरमें निवेदन है कि-

स्मार्त एकादशी,स्मार्त जन्माष्टमी आदि वो होती है जो स्मार्त अर्थात् स्मृति आदि धर्म ग्रंथोंको माननेवालोंके अनुसार हो और वैष्णव एकादशी,वैष्णव जन्माष्टमी आदि वो होती है जो वैष्णव अर्थात् विष्णु भगवान और उनके भक्तोंको,संतोंको माननेवालोंके अनुसार हो।

( यह स्मार्त और वैष्णववाली बात श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई है)।

रमश्रद्धेय  सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज वैष्णव एकादशी,वैष्णव जन्माष्टमी आदि मानते और करते थे।

एकादशी आदि व्रतोंके माननेमें दो धर्म है-एक वैदिक धर्म और एक वैष्णव धर्म।

(एक एकादशी स्मार्तोंकी होती है और एक एकादशी वैष्णवोंकी होती है।स्मार्त वे होते हैं) जो वेद और स्मृतियोंको खास मानते हैं,वे भगवानको खास नहीं मानते।वेदोंमें,स्मृतियोंमें भगवानका नाम आता है इसलिये वे भगवाको मानते हैं (परन्तु खास वेदोंको मानते हैं) और वैष्णव वे होते हैं जो भगवानको खास मानते हैं,वे वेदोंको,पुराणोंको इतना खास नहीं मानते जितना भगवानको खास मानते हैं।

( वैष्णव और स्मार्तका रहस्य समझनेके लिये परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका यह प्रवचन 19990809/1630 सुनें)।

(पता:-
https://docs.google.com/file/d/0B3xCgsI4fuUPTENQejk2dFE2RWs/edit?usp=docslist_api)।

वेदमत,पुराणमत आदिके समान एक संत मत भी होता है,जिसको वेदोंसे भी बढकर माना गया है।

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका ।
भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू ।
सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥

ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें ।
द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ॥

कलि केवल मल मूल मलीना ।
पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥

नाम कामतरु काल कराला ।
सुमिरत समन सकल जग जाला ॥

राम नाम कलि अभिमत दाता ।
हित परलोक लोक पितु माता ॥

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू ।
राम नाम अवलंबन एकू ॥

कालनेमि कलि कपट निधानू ।
नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥

दोहा

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।

जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥२७॥

(रामचरितमा.१/२७)।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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अनुभवका उपाय-व्याकुलता -परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सत्संग-प्रवचन(१९९५०५२९/८.३०बजे) से

                      ।।श्रीहरि।।

अनुभवका उपाय-व्याकुलता -परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सत्संग-प्रवचन(१९९५०५२९/८.३०बजे) से

अर्थात्  दि.२९/५/१९९५;८.३०बजे के सत्संगसे।

अनुभव(कि मैं शरीर नहीं हूँ) न हो जाय, तब तक मैं दूसरा काम (खाना,पीना सोना आदि)नहीं करूंगा

(तो अनुभव चट हो जायेगा)|

खाना,पीना नींद छोड़नेसे कुछ नहीं होगा; आप समझे कि नहीं?

- परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके 29-5-1995.0830 बजेके सत्संग-प्रवचन(१९९५०५२९/८.३०बजे) से

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पाप-कर्म सबसे पहले छोड़ना आवश्यक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके विशेष प्रवचनसे |

                          ।।श्रीहरि।।

पाप-कर्म सबसे पहले छोड़ना आवश्यक

- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके विशेष प्रवचनसे |

मुक्तिका क्रम-
1.निषिध्द(पाप)का त्याग 2.न्याय(अच्छा व्यवहार,आपसमॅ प्रेम हों आदि) 3.धर्म(शास्त्रविहित दान,पुण्य आदि)और 4.पारमार्थिक-बातें(जिससे जीवकी मुक्ति हो जाय)।

[इसलिये सबसे पहले पाप-कर्म तो छोङने ही चाहिये नहीं तो मुक्तिकी तरफ चलना शुरु ही नहीं हुआ]

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके विशेष प्रवचनसे |

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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

निन्दा,चुगली करना बड़ा भारी पाप है।

                        ।।श्रीहरि।।

निन्दा,चुगली करना बड़ा भारी पाप है।

(किसीने कहा है कि आजकल लोग निन्दा,चुगली करनेका पाप बहुत करने लग गये हैं, उनके लिये कुछ कहा जाय।

इसके लिये निवेदन है कि -)

सन्तोंने निन्दा, चुगलीको बडा़ भारी पाप बताया है-

परम धरम श्रुति बिदित अहिंसा।
पर निन्दा सम अघ न गरीसा।।

(रामचरितमा.७/१२१)।

अघ कि पिसुनता सम कछु आना।
धरम कि दया सरिस हरिजाना।।

(रामचरितमा.७/११२) ।

कौन कुकर्म किये नहिं मैंने जौ गये भूलि सो लिये उधारे।
ऐसी खेप भरी रचि पचिकै चकित भये लखिकै बनिजारे।।

कुकर्म (पाप) उधार कैसे लिये जाते हैं?

इसका उत्तर श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि जो पाप हमने किया नहीं; दूसरेने किया है।परन्तु अगर हम उनकी निन्दा करते हैं , तो यह पाप उधारा लेना हो गया।
अब हमको भी वही दण्ड मिलेगा जो पाप करनेवालेको मिलता है।

(प्रश्न -
चुगली किसको कहते हैं?

उत्तर-)

किसीके दोषको दूसरेके आगे प्रकट करके दूसरोंमें उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता (चुगली) है।

(साधक-संजीवनीके १६/२ की व्याख्या)।

उसमें अपैशुनम् की व्याख्या पढें।

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गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

क्या सुमित्रा माताके एक ही बेटा था? कह, नहीं; दो बेटे थे।

                          ।।श्रीहरि।।

क्या सुमित्रा माताके एक ही बेटा था? कह, नहीं; दो बेटे थे।

किसीने पूछा है कि रामजीने यह क्यों कहा कि सुमित्रा  माताके एक ही बेटा था; क्योंकि उनके तो बेटे दो थे- लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी।

उत्तरमें निवेदन है-

लक्ष्मणमूर्छाके अवसर पर रामजी विलाप करते हुए कहते हैं कि

निज जननीके एक कुमारा।
तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।।

अर्थात् अपनी माँ के तुम एक ही पुत्र हो और उनके एक तुम ही प्राणोंके आधार हो।

इसके कई कारण और कई अर्थ बताये जाते हैं ।

जैसे-

1.एक अर्थात्‌ अद्वितीय।

2.बेटा अगर भगवानका भक्त है तो वही माँ उस एक बेटेके कारण माँ है।वही बेटा बेटा है , दूसरे बेटोंकी गिनतीमें बेटोंमें नहीं है-

पुत्रवती जुबती जग सोई।
रघुबर भगत जासु सुत होई।।
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी।
राम बिमुख सुत ते हित जानी।।

3.हे लक्ष्मण ! मेरी माँ(कौसल्या)के मैं एक ही बेटा हूँ और उसके अर्थात् मेरे एक तुम ही प्राणोंके आधार हो, आदि आदि अनेक समाधान किये जाते हैं।

परन्तु वास्तविक  समाधान श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज बताते हैं  कि यह भगवानकी प्रलाप लीला है-

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।
(लंकाकाण्ड 61)

प्रलाप उसको कहते हैं कि जिसमें बोलनेवाला बिना समझे ही कुछ बोल दे।

जब मनुष्य प्रेममें ज्यादा व्याकुल हो जाता है तब कुछका कुछ बोल देता है,प्रलाप करने लग जाता है।हौस(ज्ञान) भूल जाता है।

प्रलापके कारण प्रेमका भी पता चलता है।उस समय अगर (प्रलाप न होकर) हौस रहता है,बोलने आदिमें सावधानी रहती है तो प्रेममें कमी समझी जाती है और जितनी सावधानीकी भूली होती है,उतना प्रेम अधिक माना जाता है।

यहाँ रामजी भी लक्ष्मणमें प्रेम अधिक होनेसे प्रलाप करते हैं।

इस प्रसंगमें रामजीने और भी ऐसी कई बेमेल बातें कहीं  है।

अगर रामजी हौसमें बोलते तो प्रेममें कमी समझी जाती।इस अवसर पर हौस भूलकर प्रलाप करना ही प्रेमकी अधिकता है।

इसलिये रामजीने यहाँ प्रलाप लीला की है।

संगति बैठानेके लिये इधर-उधरसे ज्यादा खींचतानकी जरूरत नहीं है।माता सुमित्राके बेटे दो ही थे।

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