शनिवार, 15 अप्रैल 2017

"सुहागिन स्त्री" को "एकादशी व्रत" करना चाहिये या नहीं ? कह, करना चाहिये।

                         ॥श्रीहरिः॥

"सुहागिन स्त्री" को "एकादशी व्रत" करना चाहिये या नहीं ?  कह, करना चाहिये।   

एक बहन "श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज"के
दिनांक 13-12-1995/,0830 बजेका सत्संग पढकर पूछतीं है कि क्या "स्त्री"को "व्रत "नहीं करना चाहिए?

उसके उत्तरमें निवेदन इस प्रकार है -

"शास्त्र"का कहना है कि

पत्यौ जीवति या तु स्त्री उपवासं व्रतं चरेत् ।
आयुष्यं हरते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति ।।

(अर्थ-)

जो स्त्री पति के जीवित रहते उपवास- व्रत का आचरण करती है वह पति की आयु क्षीण करती है और अन्त में नरक में पड़ती है।

(गीताप्रेस के संस्थापक - श्रध्देय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका द्वारा लिखित 
तत्त्व चिन्तामणि, भाग 3, 
नारीधर्म, पृष्ठ 291 से)।

पत्यौ जिवति या योषिदुपवासव्रतं चरेत् ।
आयुः सा हरते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति ॥

विष्णुस्मृति 25 ।

(इस भाव के वचन पाराशर स्मृति 4/17; अत्रि संहिता 136; शिवपुराण,रुद्र.पार्वती.54/29,44; और स्कन्दपुराण ब्रह्म. धर्मा. 7/37; काशी उ.  82/139; में भी आये हैं। "क्या करें क्या न करें " नामक पुस्तक से)। 

इस 'शास्त्र वचन'की बात सुनकर जब कोई बहन पूछती थीं तो

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते थे कि
"सुहागके व्रत" (करवा चौथ आदि) कर सकती हैं (इसके लिये मनाही नहीं है)।

कोई पूछतीं कि "एकादशी व्रत" भी नहीं करना चाहिए क्या?

तब उत्तर देते थे कि

एकादशी (आदि) "व्रत" करना हो तो पतिसे आज्ञा लेकर कर सकती है।

कुछ और उपयोगी बातें ये हैं- 

प्याज और लहसुन का तो कई जने सेवन नहीं करते,पर कई लोग गाजरका भक्षण कर लेते हैं।

लेकिन यह भी ठीक नहीं है;क्योंकि 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' बिना एकादशी के भी "गाजरका भक्षण" निषेध करते थे।

श्री सेठजी एकादशीके दिन "साबूदाना" खानेका भी निषेध करते थे कि इसमें "चावलका अंश" मिलाया हुआ होता है।

(आजकल 'साबूदाने' भी नकली आने लग गये )।

एकादशी के दिन 'चावल' खाना वर्जित है  ; क्योंकि "ब्रह्महत्या" आदि बड़े-बड़े "पाप" एकादशी के दिन चावलों में निवास करते हैं, चावलों में रहते हैं । ऐसा "ब्रह्मवैवर्त पुराण" में लिखा है।

जो एकादशी के दिन 'व्रत' नहीं रखते,'अन्न' खाते हैं, उनके लिये भी एकादशी के 'दिन' "चावल खाना" "वर्जित" है।

स्मृति आदि ग्रंथों को मुख्य मानने वाले "स्मार्त एकादशी" का 'व्रत' करते हैं और भगवानको, "वैष्णवों" (संन्तो-भक्तों) को मुख्य मानने वाले "वैष्णव एकादशी" का "व्रत" करते हैं ।

"एकादशी" चाहे "वैष्णव" हो अथवा "स्मार्त" हो; "चावल खाने का निषेध" दोनों में है।

"सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका" और "श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज" "वैष्णव एकादशी व्रत","वैष्णव जन्माष्टमी व्रत" आदि करते थे और मानते थे ।

एकादशी आदि व्रतोंके माननेमें "दो धर्म" है-

एक "वैदिक धर्म" और एक "वैष्णव धर्म"।

(एक "एकादशी" "स्मार्तों " की होती है और एक "एकादशी" "वैष्णवों " की होती है।

"स्मार्त" वे होते हैं) जो 'वेद' और 'स्मृतियों ' को खास मानते हैं,वे 'भगवान' को "खास"(-विशेष) नहीं मानते।

"वेदों" में,"स्मृतियों " में भगवान् का "नाम" आता है इसलिये वे भगवान् को मानते हैं (परन्तु "खास"  "वेदों" को मानते हैं) और

"वैष्णव" वे होते हैं जो भगवानको "खास" मानते हैं, वे "वेदों" को,"पुराणों" को इतना "खास" नहीं मानते जितना "भगवान्" को "खास" मानते हैं।

( "वैष्णव" और "स्मार्त" का रहस्य "परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज" ने 19990809/1630 बजे वाले "प्रवचन" में  भी बताया है ।

कृपया  वो प्रवचन इस पते पर जाकर  सुनें -)।

(पता:-
"https://docs.google.com/file/d/0B3xCgsI4fuUPTENQejk2dFE2RWs/edit?usp=docslist_api " )।

"वेदमत","पुराणमत" आदिके समान एक "संत मत" भी है,(जिसको "वेदों" से भी "बढकर" माना गया है)।

...
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । 
भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू । 
सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥

(रामचरितमा.1/27)।
...

एकादशीको "हल्दी"का प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योकि "हल्दी"की गिनती "अन्न" में आयी है (हल्दीको "अन्न" माना गया है)।

साँभरके "नमक" का प्रयोग भी एकादशी आदि "व्रतों"में नहीं करना चाहिये ;क्योंकि

"साँभर झील" (जिसमें नमक बनता है,उस) में कोई 'जानवर' गिर जाता है तो वो भी 'नमक' के साथ 'नमक' बन जाता है (इसलिये यह "अशुध्द" माना गया है)।

"सैंधा नमक" काममें लेना ठीक रहता है। "सैंधा नमक"  "पत्थर"से बनता है,इसलिये "अशुध्द" नहीं माना गया।

एकादशीके अलावा भी "फूलगोभी" नहीं खानी चाहिये।'फूलगोभी' में "जन्तु" बहुत होते हैं।

["बैंगन" भी नहीं खाने चाहिये।शास्त्र कहता है कि जो "बैंगन"  खाता है,भगवान उससे दूर रहते हैं]।

"उड़द" और "मसूर"की "दाळ" भी "वर्जित" है।

'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'ने बताया है कि जिस वस्तुमें नमक और जलका प्रयोग हुआ हो,ऐसी कोई भी वस्तु बाजारसे न लें;क्योंकि नमक "जल" है ('नमक' को जल माना गया है) और 'जल' के "छूत" लगती है।

(अस्पृश्यके स्पर्श हो गया तो स्पर्श दोष लगता है।

इसके अलावा 'पता नहीं' कि वो किस 'घर'का बना हुआ है और 'किसने' , 'कैसे' बनाया है)।

"हींग" भी काममें न लें;क्योंकि वो "चमड़े"में डपट कर रखी जाती है,नहीं तो उसकी "सुगन्धी" चली जाय अथवा  कम हो जाय ।

"हींग" की जगह "हींगड़ा" काममें लाया जा सकता है।

सोने चाँदी के "वर्क" लगी हुई "मिठाई" नहीं खानी चाहिये;क्योंकि यह ("गाय" या) "बैल"की "आँत"में रखकर बनाये जाते हैं,'बैल'की 'आँत' में छौटासा सोने या चाँदीका "टुकड़ा" रखकर, उसको 'हथौड़े' से पीट-पीटकर फैलाया जाता है और इस प्रकार ये सोने तथा चाँदीके "वर्क" बनते हैं।

इसलिये न तो "वर्क" लगी हुई मिठाई खावें और न मिठाईके "वर्क" लगावें।

इस प्रकार अपना "कल्याण" चाहने वालों को और भी "अभक्ष्य खान-पान" आदि से बचना चाहिये और लोगों को भी ये बातें बताकर बचाना चाहिये ।

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(पन्द्रह मिनट का साधन-) *यह तो केवल समझ लेने की, मान लेने की चीज है -* *श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।*

                        ॥श्रीहरि:॥

(पन्द्रह मिनट का साधन-)*यह तो केवल समझ लेने की, मान लेने की चीज है -*
*श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।*

×××

इससे भी एक बारीक बात है। मेरा निवेदन है, आप ध्यान देकर सुनें। शरीर-संसारका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है- ऐसा निश्चय करके बैठ जायँ। कुछ भी चिन्तन न करें। फिर चिन्तन हो तो वह भी मिट रहा है। मिटनेके प्रवाहका नाम ही चिन्तन है। मिटनेवालेके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं। यह सब नित्य-निरन्तर मिट रहा है, और हम इसे जाननेवाले हैं, इससे अलग हैं। ऐसे अपने स्वरूपको देखें। दिनमें पाँच-छः बार पन्द्रह-पन्द्रह मिनट ऐसा कर लें। फिर इस बातको बिलकुल छोड़ दें। फिर याद करें ही नहीं। याद नहीं करनेसे बात भीतर जम जाएगी। इतनी विलक्षण बात है यह! इसे हरदम याद रखनेकी जरूरत नहीं है। याद करो तो पूरी कर लो और छोड़ दो तो पूरी छोड़ दो, फिर याद करो ही नहीं। जैसा रोजाना काम करते हैं, वैसा-का-वैसा ही करते जायँ फिर बात एकदम दृढ़ हो जायगी। यह याद करनेकी चीज ही नहीं है।
यह तो केवल समझ लेनेकी, मान लेनेकी चीज है। जैसे यह बीकानेर है-इसे क्या आप याद किया करते हैं? याद करनेसे तो और फँस जाओगे; क्योंकि याद करनेसे इसे सत्ता मिलती है। मिटानेसे सत्ता मिलती है। हम इसे मिटाना चाहते हैं, तो इसकी सत्ता मानी तभी तो मिटाना चाहते हैं! जब हम सत्ता मानते ही नहीं, तो क्या मिटावें? तो इसकी सत्ता ही स्वीकार न करें ।

*-परम श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज* की पुस्तक
*"साधन-सुधा-सिन्धु"* के *"संयोगमें वियोगका अनुभव"* नामक लेख से।
(पृष्ठ संख्या ५९१)।

शनिवार, 18 मार्च 2017

गीताजी की टीकाओं का नाश न करें और न करने दें।

                       ॥श्रीहरि:॥

गीताजी की टीकाओं का नाश न करें और न करने दें। 

आज दिनांक १८-३-२०१७ को  गीताजी की दोनों टीकाएँ - साधक-संजीवनी (लेखक - श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)  और तत्त्वविवेचनी (लेखक - परम श्रध्देय सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका - इन दोनों टीकाओं) को 'एण्ड्रोइड सिस्टम' में देखकर बहुत बहुत खुशी हुई।

{उनके पते ठिकाने ये हैं-
१- (साधक-संजीवनी-)
https://play.google.com/store/apps/details?id=sadhaksanjeevani_hindi.com.spiritualseekerrsk

२-
(तत्त्वविवेचनी-) https://play.google.com/store/apps/details?id=tv.org.spiritualseeker}

इनको डाउनलोड करके मैं देखने लगा तो वहाँ 'पद छेद' शब्द देखकर मनमें आया कि इस शब्द की जगह 'पदच्छेद' शब्द लिख दिया जाता तो अच्छा होता (जबकि मूल में न होने के कारण अनुचित है)। 

खैर, शुरुआत में भूलें होना स्वाभाविक है, ('लिखनेवाला' ईमानदार होना चाहिए  और बेपरवाही न करनेवाला भी होना चाहिए। 'लिखने वाले' का प्रयास उपयोगी और सराहनीय है

अगर 'लेखन' में  अशुध्दि रह भी गयी होगी तो भी सामग्री तो पूरी ही लिखी होगी -ऐसी उम्मीद थीं)।

इसलिए मेरे को सबसे बढ़िया लगने वाले भगवान के "समग्र रूप" के वर्णन वाले  प्रसंग को (जिसमें श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने चार्ट बनाकर इस रहस्य को समझाया है,वो चार्ट) खोज कर देखने लगा जो कि आठवें अध्यायके चौथे श्लोक की व्याख्या में आया था

(और जिसको देखने से मेरे को नया प्रकाश मिला और एक साथ ही अनेक शंड़्काओं का समाधान हो गया था तथा भगवान का समग्र रूप सरलता पूर्वक समझ में आया था) ।

लेकिन उस चार्ट को तो 'इन लेखक' ने छोड़ ही दिया था, लिखा ही नहीं।

छोड़ दिया - जानकर 'खुशी' 'चिन्ता' में बदल गयी कि ऐसे तो न जाने इन्होंने क्या-क्या छोड़ दिया होगा?

ऐसे तो ये लोग इन ग्रंथों का ●● कर देंगे,"सन्तों की वाणी" का ●● कर देंगे आदि आदि।

(एण्ड्रोइड सिस्टम में 'लिखने वाले' की ईमानदारी ●●●)।

ऐसा न तो करना चाहिये और न करने देना चाहिये।

अब कहें किससे और सुने भी कौन?

हे नाथ! हे मेरे नाथ !! मैं आपको भूलूँ नहीं।

- डुँगरदास राम

अधिक जानने के लिये कृपया यह लेख पढ़े-

संत-वाणी यथावत रहने दें,संशोधन न करें|('श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की वाणी और लेख यथावत रहने दें,संशोधन न करें)।
http://dungrdasram.blogspot.in/2014/12/blog-post_30.html?m=1

http://dungrdasram.blogspot.com/

अब वो गलती सुधार दी गयी- यह बहुत खुशीकी बात है और आगे भी उम्मीद है कि इसमें जो अनेक त्रुटियाँ रह गई है वो भी सुधारी जायेगी। लेखक को बहुत बहुत साधुवाद।

■ कृपया कोई भी टिप्पणियाँ (८।४ और ५ आदि की तरह) छोड़ें नहीं।

■ "साधक-संजीवनी" में जैसा लिखा है , उसका मिलान करके वैसा का- वैसा ही लिखना चाहिये। कोई भी अंश छूट न जाय। (और न अपने मन से ही कुछ जोड़ें)।

■शब्द, हलन्त, मात्रा, कौमा, अल्प विराम, पूर्ण विराम, अनुस्वार, चन्द्रबिन्दू, डैस, कोष्ठक आदि जैसे "साधक-संजीवनी: में दिये गये हैं, यहाँ भी वैसे के- वैसे ही होने चाहिये।

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

अभेद-भक्ति और अभिन्नता आदि का रहस्य। (-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

॥श्रीहरिः॥

अभेद-भक्ति और अभिन्नता आदि का रहस्य।
(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

अभेद भक्ति आदि का रहस्य जानने के लिये कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का यह (19931130_0518_prem aur bhakti) प्रवचन सुनें।

इस प्रवचन को मन लगाकर बार-बार सुनने से और भी रहस्य की कई उपयोगी बातें समझमें आयेंगी।

जैसे-
ज्ञानयोग और कर्मयोग तो साधक की स्थिति  (निष्ठा) है पर भक्ति भक्त की निष्ठा नहीं, वो तो भगवान की निष्ठा- स्थिति (भगवान्निष्ठ) है।

साधन-भक्ति और साध्य-भक्ति, नौ प्रकार की साधन-भक्ति और उससे आगे साध्य-भक्ति,परा-भक्ति, प्रेमा-भक्ति, भेद-भक्ति, अभेद-भक्ति, (साधन-भेद-भक्ति, साध्य-भेद-भक्ति, साधन-अभेद-भक्ति, साध्य-अभेद-भक्ति।

श्रीराधाकृष्णकी अभिन्नता और भिन्नता; कृष्ण,राधा,भक्त,जीव और संसार आदि- सभी की अभिन्नता और भिन्नता तथा जीव की विमुखता।

करने का अहंकार भक्ति में बाधक।करना,होना और है की बात।

गीता में 'मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु' (९।३४; १८।६५) वाली भक्ति का क्रम- यूँ बताया (१) पहले मेरे को नमस्कार कर  फिर (२) मेरा पूजन करने वाला हो तथा (३) मेरे में मन लगाने वाला हो और चौथी बात कि (४) मेरा भक्त हो आदि आदि।

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बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

गीता ! गीता !!' उच्चारण करनेमात्रसे कल्याण हो जायगा। (श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                ॥श्रीहरिः॥

'गीता ! गीता !!' उच्चारण करनेमात्रसे कल्याण हो जायगा।

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

इस गीता- दर्पण के माध्यम से गीता का अध्ययन करनेपर साधक को गीताका मनन करनेकी, उसको समझनेकी एक नयी दिशा मिलेगी, नयी विधियाँ मिलेंगी, जिससे साधक स्वयं भी गीतापर स्वतन्त्रतरूपसे विचार कर सकेगा और नये-नये विलक्षण भाव प्राप्त कर सकेगा। उन भावों से उसकी गीता-वक्ता - (भगवान) के प्रति एक विशेष श्रद्धा जाग्रत् होगी कि इस छोटे-से ग्रंथ में भगवान ने कितने विलक्षण भाव भर दिये हैं। ऐसा श्रद्धा- भाव जाग्रत् होनेपर 'गीता! गीता!!' उच्चारण करनेमात्रसे उसका कल्याण हो जायेगा । 

"गीता- दर्पण" (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) के प्राक्कथन से।

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गीता साधक-संजीवनी के लिये  भविष्य-वाणियाँ श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा। 

                      ॥श्रीहरिः॥



गीता 'साधक-संजीवनी ' के लिये  भविष्य-वाणियाँ 

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा। 

यद्यपि श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज अपने को भविष्य-वक्ता नहीं बताते थे और न ही आगे, भविष्य में होने वाली बातें बताने में रुचि रखते थे। फिर भी कभी-कभी उनकी बातों​से पता लग जाता था कि आगे, भविष्य में क्या होने वाला है। ऐसी ही गीता 'साधक-संजीवनी' के विषय में कुछ बातें यहाँ लिखी जा रही हैं-

(उन्होंने गीता साधक-संजीवनी के विषय में  भविष्य के लिये  क्या-क्या कहा? उनमें से कुछ ये हैं-) 

(१-)  साधकों को चाहिये कि वे अपना कोई आग्रह न रखकर इस टीका को पढ़ें और इसपर गहरा विचार करें तो वास्तविक तत्त्व उनकी समझमें आ जायगा और जो बात टीका में नहीं आयी है, वह भी समझमें आ जायगी।

विनीत- स्वामी रामसुखदास

(साधक- संजीवनी परिशिष्ट नम्र निवेदन से)।

(२-) इस गीता- दर्पण के माध्यम से गीता का अध्ययन करनेपर साधक को गीताका मनन करनेकी, उसको समझनेकी एक नयी दिशा मिलेगी, नयी विधियाँ मिलेंगी, जिससे साधक स्वयं भी गीतापर स्वतन्त्रतरूपसे विचार कर सकेगा और नये-नये विलक्षण भाव प्राप्त कर सकेगा। उन भावों से उसकी गीता-वक्ता - (भगवान) के प्रति एक विशेष श्रद्धा जाग्रत् होगी कि इस छोटे-से ग्रंथ में भगवान ने कितने विलक्षण भाव भर दिये हैं। ऐसा श्रद्धा- भाव जाग्रत् होनेपर 'गीता! गीता!!' उच्चारण करनेमात्रसे उसका कल्याण हो जायगा । 

"गीता- दर्पण" (लेखक- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) के प्राक्कथन से। 

(३-) श्रीस्वामीजी महाराज कहते थे कि जैसे गोस्वामी श्री तुलसीदासजी महाराज के समय उनकी रामायण का अधिक प्रचार नहीं था,पर अब घर-घर उनकी रामायण पढ़ी जाती है, ऐसे ही चार-साढ़े चार सौ वर्षों के बाद 'साधक-संजीवनी' का प्रचार होगा ! 

- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की गीता 'साधक- संजीवनी' पर आधारित 'संजीवनी- सुधा' नामक पुस्तक के प्राक्कथन से)।

(४-) 'साधक- संजीवनी' लिखते समय श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि इसे इस तरह लिखनी है कि पढ़नेवाले को तत्त्वज्ञान हो जाय, वह मुक्त हो जाय ! उन्होंने 'साधक-संजीवनी' के प्राक्कथन में लिखा भी है कि 'साधकों का शीघ्रता से और सुगमतापूर्वक कल्याण कैसे हो- इस बात को सामने रखते हुए ही यह टीका लिखी गयी है।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की गीता 'साधक- संजीवनी' पर आधारित 'संजीवनी- सुधा' नामक पुस्तक के प्राक्कथन से)।

(५-) श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के श्रीमुखसे मैंने (डुँगरदास राम ने)  यह भी सुना है कि भविष्य में (सैकड़ों वर्षों के बाद) जब किसी बात का निर्णय लेना होगा तो सही निर्णय गीता 'साधक- संजीवनी' के द्वारा होगा।

(जैसे, किसीके तरह-तरह की बातों तथा मतभेदों के कारण सही निर्णय लेने में कठिनता हो जायेगी। यह बात सही है या वो बात सही है ? इस टीका की बात सही है या उस टीकाकार की बात सही है? गीताजी का यह अर्थ सही है अथवा वो अर्थ सही है? धर्म के निर्णय में यह बात सही है या वो बात सही है? व्यवहार में यह करना सही है अथवा वो करना सही है? इस ग्रंथ की बात मानें या उस ग्रंथ की बात मानें? इस जानकार की बात मानें या उस जानकार की बात मानें? आदि आदि; 

इस प्रकार जब असमञ्जस की स्थिति हो जायेगी, किसी एक निर्णय पर पहुँचना कठिन हो जायेगा। कोई कहेंगे कि अमुक टीका में यह लिखा है, अमुक ने यह अर्थ किया है। अमुक स्थान पर यह लिखा है, अमुक ग्रंथ में यह लिखा है और अमुक अमुक यह कहते हैं  आदि आदि)

तब कोई कहेंगे कि (गीता 'साधक- संजीवनी' लाओ) स्वामी रामसुखदास (जी) ने क्या कहा है? (तब कोई लायेंगे और पढ़कर  कहेंगे  कि उन्होंने तो गीता की टीका 'साधक-संजीवनी' में यह लिखा है। तब उनके जँचेगी कि हाँ, यह बात सही है)। तब उसी बातसे सही निर्णय होगा (और 'साधक- संजीवनी' द्वारा दिया गया वही निर्णय सबको मान्य होगा आदि आदि)। 

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मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

गीता साधक-संजीवनी* सप्ताह (*लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज),और सूचना-पत्र।

                            ॥श्रीहरिः॥


 गीता साधक-संजीवनी* सप्ताह (*लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज),और सूचना-पत्र।


गीताजी का प्रचार हो और जीवन्मुक्त महापुरुषों की वाणी जन-जन तक पहुँचे तथा लोगों का सुगमतासे जल्दी कल्याण हो - ऐसी प्रेरणा के लिये यहाँ कुछ उपयोगी सामग्री प्रस्तुत की जा रही है।


श्रीस्वामीजी महाराज कहते थे कि जैसे गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के समय उनकी रामायण का अधिक प्रचार नहीं था,पर अब घर-घर उनकी रामायण पढ़ी जाती है, ऐसे ही चार-साढ़े चार सौ वर्षों के बाद 'साधक-संजीवनी' का प्रचार होगा !  


(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की गीता 'साधक संजीवनी' पर आधारित 

'संजीवनी-सुधा' नामक पुस्तक के प्राक्कथन से)।


श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के श्रीमुखसे मैंने यह भी सुना है कि भविष्य में (सैकड़ों वर्षों के बाद) जब किसी बात का निर्णय लेना होगा तो सही निर्णय गीता 'साधक- संजीवनी' के द्वारा होगा। 


जैसे, किसीके तरह-तरह की बातों तथा मतभेदों के कारण सही निर्णय लेने में कठिनता हो जायेगी। यह बात सही है या वो बात सही है ? इस टीका की बात सही है या उस टीकाकार की बात सही है? गीताजी का यह अर्थ सही है अथवा वो अर्थ सही है? धर्म के निर्णय में यह बात सही है या वो बात सही है? व्यवहार में यह करना सही है अथवा वो करना सही है?  इस ग्रंथ की बात मानें या उस ग्रंथ की बात मानें? इस जानकार की बात मानें या उस जानकार की बात मानें? आदि आदि;  


इस प्रकार जब असमञ्जस की स्थिति हो जायेगी, किसी एक निर्णय पर पहुँचना कठिन हो जायेगा। कोई कहेंगे कि अमुक टीका में यह लिखा है, अमुक ने यह अर्थ किया है। अमुक स्थान पर यह लिखा है, अमुक ग्रंथ में यह लिखा है और अमुक अमुक यह कहते हैं  आदि आदि। 


तब कोई कहेंगे कि (गीता 'साधक- संजीवनी' लाओ) स्वामी रामसुखदास जी ने क्या कहा है? तब कोई कहेंगे  कि उन्होंने तो गीता की टीका 'साधक-संजीवनी' में यह लिखा है। तब उनके जँचेगी कि हाँ, यह बात सही है। तब उसी बातसे सही निर्णय होगा और 'साधक- संजीवनी' द्वारा दिया गया वही निर्णय सबको मान्य होगा।

 (गीता 'साधक-संजीवनी' के लिये  भविष्य-वाणियाँ 

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा।

http://dungrdasram.blogspot.in/2017/02/blog-post_22.html?m=1 नामक लेखसे)।

जैसे भागवत-सप्ताह किया जाता है,ऐसे गीता साधक-संजीवनी सप्ताह भी किया जा सकता है और करना चाहिये।

जैसे श्रीमद्भागवत के अठारह हजार श्लोकों की कथा सात दिन में सुनायी जाती है, ऐसे साधक-संजीवनी गीता के सात सौ श्लोकों की कथा भी सात दिनों में सुनायी जा सकती है।

जिस प्रकार श्रीमद्भागवत सप्ताह-कथा के प्रतिदिन विश्राम-स्थल नियत किये गये हैं, ऐसे गीता साधक संजीवनी सप्ताह-कथा के भी प्रतिदिन विश्राम-स्थल नियत किये जा सकते हैं।

यथा-

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा लिखित  साधक संजीवनी (सप्ताह के लिये सुझाव-)

१- प्रथम दिन का विश्राम-स्थल माहात्म्य  आदि करने के बाद, पहले अध्यायके पहले श्लोक से शुरु करके दूसरे अध्यायके तिरपनवें श्लोक पर करना चाहिये -)

(१-पहले दिन)- १।१- २।५३

 इसी प्रकार- 

 (२-दूसरे दिन)- २।५४-४।३८;


(३-तीसरे दिन)- ४।३९-७।२०;


(४-चौथे दिन)- ७।२१-१०।२८;


(५-पाँचवें दिन)- १०।२९-१३।११;


(६-छठे दिन)- १३।१२-१७।६;


(७-सातवें दिन)- १७।७-१८।७८;


इसमें विश्राम स्थल अपनी सुविधा के अनुसार आगे या पीछे भी किये जा सकते हैं। ये तो अगर प्रतिदिन १००-१०० श्लोकों की कथा करनी हों तो उसके अनुसार बताये गये हैं।


 कथा की सूचना देनेके लिये, अपने सम्बन्धियों या श्रोताओं को निमन्त्रण भेजने के लिये अथवा सर्व साधारण लोगों को बाँटने के लिये, जिनको सूचना-पत्र छपवाने हों तो उनकी सुविधा के लिए नीचे सूचना-पत्र और बेनर के नमूने-चित्र दिये गये हैं। इनको देखकर नाम, ठिकाना,तारीख और नम्बर आदि अपने खुदके दिये जा सकते हैं। 


अधिक जानने के लिये कृपया यह लेख पढ़े-

महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें -

 http://dungrdasram.blogspot.in/2014/01/blog-post_17.html?m=1


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