सोमवार, 15 दिसंबर 2014

फोटो वर्जित है।सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका अपनी फोटो नहीं खिंचवाते थे और न खींचने देते थे।

                     ।।श्रीहरि:।।

फोटो वर्जित है।

'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'अपनी फोटो नहीं खिंचवाते थे और न खींचने देते थे।

'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'की तरह उनकी भी फोटोके लिये मनाही थी।

उनकी जो फोटो देखनेमें आती है,इसमें उनकी सहमति नहीं है।लगता है कि किसीने यह काम सेठजीको बिना बताये, छाने किया है और जो लोग अब भी उनकी फोटो लोगोंको भेजते हैं और दिखाते हैं;वे भी श्री सेठजीकी मर्जीके बिना ही करते हैं,उनके सिद्धान्तों के विरुद्ध काम करते हैं।महापुरुषोंके खिलाफ चलनेवाला न तो भगवानको अच्छा लगता है और न महापुरुषोंको ही अच्छा लगता है।

एक बार 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'से किसीने कहा कि आपकी फोटो खींचें।तो श्री सेठजी बोले कि पहले मेरे सिर पर जूती बाँधदो (और बादमें वो बँधी हुई जूती समेत फोटो खींचलो।फिर उन्होने फोटो खींची नहीं)।उनके यह बात समझमें आ गई कि श्री सेठजीको अपनी फोटो लेना कितना बुरा लगता है।

'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'ने बताया कि श्री सेठजीने एक प्रसिद्ध संत(……) से कहा कि आप अपनी फोटो (शिष्य आदि) लोगोंको देते हो,इससे आपका भला होता है या दुनियाँका भला होता है(वो संत जवाब नहीं दे पाये)।

इसलिये जो काम महापुरुषोंको पसन्द नहीं है,उसको न करें।जिनको इस बातका पता नहीं है,कृपया उनको भी ये बातें बतावें।

अधिक जाननेके लिये इस पते पर देखें-

फोटोका निषेध क्यों है?
(श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराज
फोटोका निषेध करते थे)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/08/blog-post_7.html 

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

सुभाषित राममचरितमानसमें|

                          ||श्रीहरि:||

@कलियुगमें नामकी महिमा विशेष@

चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ । 
कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ||

(रामचरितमा.१/२२)|

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा ।
गावत नर पावहिं भव थाहा ॥

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना ।
एक अधार राम गुन गाना ॥

सब भरोस तजि जो भज रामहि ।
प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ॥

सोइ भव तर कछु संसय नाहीं ।
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ॥

कलि कर एक पुनीत प्रतापा ।
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ॥

दोहा

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ।

गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ॥१०३ -क

(रामचरिमा.उत्तर० १०३)

@भजन करनेवाले पर कलियुगका प्रभाव नहीं पड़ता@

तामस बहुत रजोगुन थोरा । कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥

बुध जुग धर्म जानि मन माहीं । तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ॥

काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही । रघुपति चरन प्रीति अति जाही ॥

नट कृत बिकट कपट खगराया । नट सेवकहि न ब्यापइ माया ॥

दोहा

हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं ।

भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ॥१०४ -क

(रामचरितमा.७/१०४)| 

@अन्त समयमें समझानेका प्रभाव@

प्रान कंठगत भयउ भुआलू । मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू ॥
इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी । जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी ॥
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना । रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना।
उर धरि धीर राम महतारी । बोली बचन समय अनुसारी ॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू । राम बियोग पयोधि अपारू ॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू । चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू ॥
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू । नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू ॥
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी । रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी ॥
दोहा

प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि ॥१५४॥

चौपाला

धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू । कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू ॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही । कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही ॥

(रामचरितमा.२/१५४)|

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

सुभाषित हिन्दीमें।


सबही कहावत रामके सबहि रामकी आस।
राम कहै जेहि आपनौ तेहि भजु तुलसीदास।।
×××

मन में है बसी बस चाह यही,
प्रिय नाम तुम्हारा उचारा करूँ ।
बिठला के तुम्हें मन मंदिर में,
मन मोहिनी रूप निहारा करूँ ॥
भरके दॄग-पात्र में प्रेम का जल,
पद पंकज नाथ पखारा करूँ ।
बन प्रेम पुजारी तुम्हारा प्रभु,
नित आरती भव्य उतारा करूँ ॥

हरिवासर

एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है।

एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्यान के बाद पारण करना चाहिए।

Drik Pachang(पोष कृ.११)से

सत्संग-स्वामी रामसुखदासजी महाराज(के सत्संगके पते-ठिकाने आदि)।

                    ।।श्री हरि:।।

सत्संग-स्वामी रामसुखदासजी महाराज 

(के सत्संगके पते-ठिकाने आदि)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी  महाराजका सत्संग ( SATSANG GITA AADI -S.S.S.RAMSUKHDASJI MAHARAJ ) तथा उन्हीकी आवाजमें गीता-पाठ, गीता-गान(सामूहिक आवृत्ति,साफ आवाज वाली  रिकार्डिंग ), 卐●गीता-पाठ●卐(स्वामी श्रीरामसुखदासजी म)सिंगापुर (में आवाज़ साफ करवायी हुई), गीता-माधुर्य, गीता-व्याख्या(करीब पैंतीस कैसेटोंका सेट), 'कल्याणके तीन सुगम मार्ग'[नामक पुस्तककी उन्हीके द्वारा व्याख्या], नानीबाईका माहेरा, भजन, कीर्तन, पाँच श्लोक(गीता ४/६-१०), तथा नित्य-स्तुति, गीता, सत्संग(-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके 71 दिनोंका सत्संग-प्रवचनोंका सेट), मानसमें नाम-वन्दना, राम-कथामें सत्संग आदि तथा इनके सिवाय और भी सामग्री आप यहाँ(के इन पते-ठिकानों ) से मुफ्तमें-निशुल्क प्राप्त करें- 

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श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

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पता-
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श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

संक्षिप्त रामायण (काकभुसुण्डी रामायण)।

                  ।।श्रीहरि:।।

संक्षिप्त रामायण।

(काकभुसुण्डी रामायण)।

गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा।
मति अकुंठ हरि भगति अखंडा॥

देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ।
माया मोह सोच सब गयऊ॥

करि तड़ाग मज्जन जलपाना।
बट तर गयउ हृदयँ हरषाना॥

बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए।
सुनै राम के चरित सुहाए॥

कथा अरंभ करै सोइ चाहा।
तेही समय गयउ खगनाहा॥

आवत देखि सकल खगराजा।
हरषेउ बायस सहित समाजा॥

अति आदर खगपति कर कीन्हा।
स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥

करि पूजा समेत अनुरागा।
मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥

दो०-नाथ कृतारथ भयउँ मैं
तव दरसन खगराज।

आयसु देहु सो करौं अब
प्रभु आयहु केहि काज॥६३-क॥

सदा कृतारथ रूप तुम्ह
कह मृदु बचन खगेस।

जेहि कै अस्तुति सादर
निज मुख कीन्हि महेस॥६३-।।

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ।
सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥

देखि परम पावन तव आश्रम।
गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥

अब श्रीराम कथा अति पावनि।
सदा सुखद दुख पुंज नसावनि॥

सादर तात सुनावहु मोही।
बार बार बिनवउँ प्रभु तोही॥

सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता।
सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता॥

भयउ तासु मन परम उछाहा।
लाग कहै रघुपति गुन गाहा॥

प्रथमहिं अति अनुराग भवानी।
रामचरित सर कहेसि बखानी॥

पुनि नारद कर मोह अपारा।
कहेसि बहुरि रावन अवतारा॥

प्रभु अवतार कथा पुनि गाई।
तब सिसु चरित कहेसि मन लाई॥

दो०-बालचरित कहि बिबिध बिधि
मन महँ परम उछाह।

रिषि आगवन कहेसि पुनि
श्री रघुबीर बिबाह ॥६४॥

बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा।
पुनि नृप बचन राज रस भंगा॥

पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा।
कहेसि राम लछिमन संबादा॥

बिपिन गवन केवट अनुरागा।
सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥

बालमीक प्रभु मिलन बखाना।
चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥

सचिवागवन नगर नृप मरना।
भरतागवन प्रेम बहु बरना॥

करि नृप क्रिया संग पुरबासी।
भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी॥

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए।
लै पादुका अवधपुर आए॥

भरत रहनि सुरपति सुत करनी।
प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥

दो०-कहि बिराध बध जेहि बिधि
देह तजी सरभंग॥

बरनि सुतीछन प्रीति पुनि
प्रभु अगस्ति सतसंग॥६५॥

कहि दंडक बन पावनताई।
गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई॥

पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा।
भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा॥

पुनि लछिमन उपदेस अनूपा।
सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा॥

खर दूषन बध बहुरि बखाना।
जिमि सब मरमु दसानन जाना॥

दसकंधर मारीच बतकही।
जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥

पुनि माया सीता कर हरना।
श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥

पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही।
बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥

बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा।
जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥

दो०-प्रभु नारद संबाद कहि
मारुति मिलन प्रसंग।

पुनि सुग्रीव मिताई
बालि प्रान कर भंग॥६६-क॥

कपिहि तिलक करि प्रभु कृत
सैल प्रबरषन बास।

बरनन बर्षा सरद अरु
राम रोष कपि त्रास॥६६-ख॥

जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए।
सीता खोज सकल दिसि धाए॥

बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती।
कपिन्ह बहोरि मिला संपाती॥

सुनि सब कथा समीरकुमारा।
नाघत भयउ पयोधि अपारा॥

लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा।
पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा॥

बन उजारि रावनहि प्रबोधी।
पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥

आए कपि सब जहँ रघुराई।
बैदेही कि कुसल सुनाई॥

सेन समेति जथा रघुबीरा।
उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥

मिला बिभीषन जेहि बिधि आई।
सागर निग्रह कथा सुनाई॥

दो०-सेतु बाँधि कपि सेन जिमि
उतरी सागर पार

गयउ बसीठी बीरबर
जेहि बिधि बालिकुमार॥६७-क॥

निसिचर कीस लराई
बरनिसि बिबिध प्रकार

कुंभकरन घननाद कर
बल पौरुष संघार॥६७-ख॥

निसिचर निकर मरन बिधि नाना
रघुपति रावन समर बखाना

रावन बध मंदोदरि सोका
राज बिभीषण देव असोका

सीता रघुपति मिलन बहोरी
सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी

पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता
अवध चले प्रभु कृपा निकेता

जेहि बिधि राम नगर निज आए
बायस बिसद चरित सब गाए

कहेसि बहोरि राम अभिषैका
पुर बरनत नृपनीति अनेका

कथा समस्त भुसुंड बखानी
जो मैं तुम्ह सन कही भवानी

सुनि सब राम कथा खगनाहा
कहत बचन मन परम उछाहा

सो०-गयउ मोर संदेह
सुनेउँ सकल रघुपति चरित

भयउ राम पद नेह
तव प्रसाद बायस तिलक॥६८-क॥

मोहि भयउ अति मोह
प्रभु बंधन रन महुँ निरखि

चिदानंद संदोह
राम बिकल कारन कवन।।६८-ख॥

देखि चरित अति नर अनुसारी
भयउ हृदयँ मम संसय भारी

सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना
कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना

जो अति आतप ब्याकुल होई
तरु छाया सुख जानइ सोई

जौं नहिं होत मोह अति मोही
मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही

सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई
अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई

निगमागम पुरान मत एहा
कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही
चितवहिं राम कृपा करि जेही

राम कृपाँ तव दरसन भयऊ
तव प्रसाद सब संसय गयऊ

दो०-सुनि बिहंगपति बानी
सहित बिनय अनुराग

पुलक गात लोचन सजल
मन हरषेउ अति काग॥६९-क॥

श्रोता सुमति सुसील सुचि
कथा रसिक हरि दास

पाइ उमा अति गोप्यमपि
सज्जन करहिं प्रकास॥६९-ख॥

(रामचरितमानस,उत्तरकाण्ड ६३-६९)।।

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गीता "साधक-संजीवनी परिशिष्ट"।लेखक-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'।

                         ।।श्रीहरि:।।

गीता

"साधक-संजीवनी परिशिष्ट"।

लेखक-

श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराज'।

'श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'ने   गीता पर टीका-'साधक-संजीवनी' लिख दी और वो पुस्तकरूपमें प्रकाशित भी हो गयी।

उसके बादमें भी महाराजजीके मनमें गीताजीके बड़े विलक्षण और नये-नये भाव आते रहे।

तब गीताजीके सातवें अध्याय पर नये भावोंकी व्याख्या लिखकर पुस्तकरूपमें प्रकाशित की गयी।लेकिन नये-नये भाव तो और भी आने लग गये।

तब गीताजीके अठारहों अध्यायों पर गीताजीकी नयी व्याख्या लिखकर प्रकाशित की गयी,जिसका नाम था-"साधक-संजीवनी परिशिष्ट"।इसमें गीताजीका अर्थ पदच्छेद और अन्वय सहित दिया गया है।

इसमें ऐसे-ऐसे भाव थे कि जो 'साधक-संजीवनी'में नहीं आये।

तब आवश्यक समझकर वो भाव ('साधक-संजीवनी परिशिष्ट') 'साधक-संजीवनी'में जोड़ दिये गये।इसके बाद 'साधक-संजीवनी' पर यह लिखा जाने लगा-साधक-संजीवनी (परिशिष्ट सहित)।

{जिनके पास पुरानी साधक-है,उनको चाहिये कि यह नयी वाली साधक-संजीवनी (परिशिष्ट सहित) वाली भी लेकर पढें}।

इसके बाद भी गीताजीके और नये भाव आये,वो "गीता-प्रबोधनी"में लिखे गये।फिर भी नये-नये भाव तो आते ही रहे।…

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२.गीताजी कण्ठस्थ,याद करनेका उपाय।

                          ||श्रीहरि:||

गीताजी कण्ठस्थ,याद करनेका उपाय।

एक सज्जनने पूछा है कि हम गीताजी कण्ठस्थ करना चाहते हैं,गीताजी कण्ठस्थ होनेका उपाय बतायें।

उत्तरमें निवेदन है कि

गीताजी कण्ठस्थ करना हो तो पहले गीता साधक-संजीवनी,गीता तत्त्वविवेचनी,[गीता पदच्छेद अन्वय सहित] आदिसे गीताजीके श्लोकोंका अर्थ समझलें और फिर रटकर कण्ठस्थ करलें।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि छौटी अवस्थामें तो पहले श्लोक रटा जाता है और पीछे उसका अर्थ समझा जाता है तथा बड़ी अवस्थामें पहले अर्थ समझा जाता है और पीछे श्लोक रटा जाता है।

(जो श्लोक कण्ठस्थ हो चूके हों, उनकी आवृत्ति रोजाना बिना देखे करते रहें)।

जो श्लोक दिनमें कण्ठस्थ किये गये हैं,रात्रिमें सोनेसे पहले कठिनता-पूर्वक बिना देखे उनकी आवृत्ति करलें,इससे सुबह उठते ही (वापस बिना देखे आवृत्ति करोगे तो) धड़ा-धड़ आ जायेंगे।

महाराजजी बताते हैं कि
अगर कोई यह पूछे कि हम गीताजीका कण्ठस्थ पाठ भूलना चाहते हैं,कोई उपाय बताओ।तो भूलनेका उपाय यह है कि गीताजीका कण्ठस्थ पाठ गीताजीको देखकर करते रहो,भूल जाओगे अर्थात् कण्ठस्थ-पाठ भी गीताजीको देख-देखकर करोगे तो भूल जाओगे| इसलिये जिनको पूरी गीताजी याद (कण्ठस्थ) हो अथवा दो-चार अध्याय ही याद हो, उनको चहिये कि कण्ठस्थ-पाठ गीताजी देख-देखकर न करें।कण्ठस्थ-पाठ बिना देखे करें।

विशेष-

जो सज्जन गीताजीको याद करना चाहते हैं,उनके लिये 'गीता-ज्ञान-प्रवेशिका' (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) नामक पुस्तक बड़ी सहायक होगी।इसमें गीता-अध्ययन सम्बन्धी और भी अनेक बातें बताई गई है।

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श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
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