बुधवार, 29 अप्रैल 2020

जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी न करें।

             ।। श्रीहरिः ।।



जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी न करें।  



● [ पूर्वार्ध- ] ●

एक दिन (दि.14-4-2020 को) वाट्सऐप्प के ग्रुप में जो बहस हुई थी , उसके विषय में कुछ लिखा जा रहा है । यद्यपि मैं उस ग्रुप में नहीं था ; परन्तु उनके कुछ लेखन आदि देखकर ऐसा लगा कि इस प्रकार के आपसी तर्क- वितर्क से कई लोगों के मन में विक्षेप हुआ है। 

आदरणीय सज्जनों और माता बहनों को जो विक्षेप हुआ, उसके लिये मैं क्षमा याचना करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि दुबारा ऐसा न हो। 

बात क्या हुई कि एक सज्जन ने गीताभवन के सत्संग- मञ्च ( स्टेज ) की फोटो फेसबुक पर प्रकाशित करदी। बाद में उनको लगा कि मेरा यह काम अनुचित तो नहीं था ? ( उनको इस पर किसीने सलाह भी दी ) , तब उन्होंने अलग से सन्देश भेजकर इसके लिये मेरेसे जानकारी चाही । मैंने सन्देश में वो जानकारी लिखकर (उनको अलग से ही) भेजदी। 

फिर उन्होंने वो बातें वाट्सऐप्प पर ग्रुप में (चलते हुए वाद विवाद के समय) भेजदी। उस के बाद बात और बढ़ गयी । 

ग्रुप में कई प्रकार के तर्क, कुतर्क, प्रतीकार आदि किये गये , मामला देर राततक चलता रहा। इससे ऐसा लगा कि लोगों के मन में काफ़ी विक्षेप हुआ है । अधूरी जानकारी के कारण लोगों के मन में असमञ्जस की स्थिति पैदा हो गई। लोगों के मन में नये प्रश्न पैदा हो गये और वास्तविक बात समझनी कठिन हो गयी । इसलिये मन में आया कि इस विषय पर कुछ और लिखा जाय , जिससे अगर कोई जानना चाहें तो उनको सही बात का पता लग सके । 

जिन सज्जन ने मेरे से जो पूछा और मेरे द्वारा लिखा गया उनका जवाब जो उन्होंने ग्रुप में भेजा , वो कुछ इस प्रकार था- 

[ ••• 
[14/4, 9:28 PM] 
(प्रश्नकर्त्ता- ) 
राम राम भैया जी🙏

जहां तक मुझे ज्ञात है स्वामी जी महाराज ने जिस कुर्सी पर वो बैठा करते थे उसे भी नष्ट करवा गए थे ताकि उनकी स्मृति चिन्ह के रूप में लोग पूजना शुरू ना कर दें। (ऐसा मैंने कुछ श्रेष्ठ महानुभावों द्वारा सुना है... 

••• 

आप सभी श्रेष्ठ महानुभावों से विचार विमर्श कर ही निर्णय करें।

राम राम राम 🙏🙏
: राम महराज जी सादर विनम्र निवेदन है कि इस पर भी प्रकाश डालियेगा। 

[14/4, 10:12 PM] 
(जवाब-) 
: हाँ रामजी, लोहेका बैड था जो हमने गीताभवन ••• से समाप्त करने को कहा और उन्होंने उसके पुर्जे खुलवाकर गंगाजी में विसर्जित करवाया। 
हमलोगों ने तो इस काँचवाले स्टेज को भी हटाने के लिये ••• कह दिया था , लेकिन हमारे कहने के अनुसार यह कार्य हुआ नहीं । उन दिनों ••• भी वहाँ थे और गीताभवन के ••• सामने ही हमने फिर निवेदन किया कि यह हटा दिया जाय। वो ••• की तरफ देखकर संकोच पूर्वक बोले कि ये हटा देंगे, हमको विश्वास है। ( फिर भी नहीं हटा ) ।

यह स्टेज हमलोगों ने ही ठण्ड से रक्षा के लिये लगवाया था। ठण्डी हवा नहीं आवे , वो ठण्डी हवा श्री स्वामी जी महाराज के वृद्ध शरीर में कोई विकृति उत्पन्न न करें, सर्दी जुकाम आदि न करें, जिसके कारण सत्संग बन्द करना पड़े। ऐसा न हो, इसलिए हम लोगों ने स्टेज को शीशे आदि के द्वारा पैक करवाया था। 

जब श्री स्वामी जी महाराज के शरीर के साथ ही यहाँ का यह सब प्रोग्राम समाप्त हो गया तो हमलोगों ने उनके शरीर के काम आनेवाली कई चीजों को भी समाप्त करवा दिया । कुछेक बाकी भी रह गई, जिनमें से एक चीज यह काँच वाला स्टेज है ( गीता भवन नम्बर तीन में ) । हमने इनको भी समाप्त करने के लिए कहा, लेकिन यह नहीं हो पाया । जो वस्तुएँ हमारे हाथ में थी , जिसको हम करवा सकते थे , उनको तो समाप्त कर दिया गया और यह रह गया और बाद में तो लोग इसको रखने के पक्ष में हो गये। 

इस प्रकार यह ऐसे ही रह गया और यह सब चलने लगा जो कि ऐसे महापुरुषों के पीछे कोई अच्छी बात नहीं है । अधिक जानकारी के लिये उनकी वसीयत देखो। 
अस्तु। 

इसके बाद जो हुआ, वो ग्रुप के सदस्य जानते ही होंगे , हम उसको यहाँ लिखना उचित नहीं समझते। 

कुछ प्रश्नों के जवाब हम नीचे लिखी बातों में दे रहे हैं, जिनके मन में जो प्रश्न हो, वो इन बातों को ध्यान से पढ़कर समझलें। फिर भी कोई बात समझनी बाकी रह जाय तो मेरे से बात करके समझ सकते हैं। 

किसी सज्जन को स्टेज समाप्त करने जैसी बातें जँची नहीं और उनके द्वारा कई प्रकार के सवाल खड़े किये गये कि इस प्रकार कहने वाला मैं कौन होता हूँ । ( उनके सब सवाल यहाँ लिखने उचित नहीं लगे , आगे लिखी गई बातों को ठीक तरह से पढ़कर ही सवाल जवाब समझ लेने चाहिये )। 

••• सबसे पहले तो यह समझलें कि हम और गीताभवन एक ही हैं। मैं गीताभवन का ही हूँ और उस समय उस काम में सामिल भी था अर्थात् गीताभवन , गीताभवन के लोग , संत महात्मा और हमलोग - ये कोई अलग-अलग नहीं हैं , सब एक ही हैं । कुछ मतभेद हो जाने से कोई दो नहीं हो जाते , पराये नहीं हो जाते। यह तो हमारे ही आपस की बात है। इसका उद्देश्य न तो किसीकी निन्दा करना है और न किसी की प्रशंसा । इसका उद्देश्य यह समझना चाहिये कि महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी कार्य उनकी आज्ञा के अनुसार ही हो तथा सब लोगों का हित हो । 

प्रायः ऐसा देखा जाता है कि अपने घर में भी सब काम अपने मन के अनुसार नहीं होते। अपनी मर्ज़ी के अनुसार पूरे घरवालों को चलाना तो दूर , हम अपनी मरजी के अनुसार अपने शरीर को भी नहीं चला सकते। जब एक शरीर को भी नहीं चला सकते तो फिर सब को तो चला ही कैसे सकते हैं , नहीं चला सकते। 

नहीं चला सकने पर भी हम अपने शरीर अथवा घरवालों से पराये नहीं हो जाते , नाराज़ भी नहीं होते । उनके साथ में ही रहते हैं। घरवाले और हमसब एक ही रहते हैं। मतभेद होनेपर भी प्रेमभेद नहीं होता। अपनापन वही रहता है। ऐसा नहीं होता कि बेटे ने माँ की बात नहीं मानी तो अब वो माँ का बेटा नहीं रहा । बात न मानने पर भी बेटा तो बेटा ही रहता है, माँ भी माँ ही रहती है । माँ और बेटे का सम्बन्ध वही रहता है, मतभेद होने पर भी , एकमत न दीखने पर भी रहते सब एक ही हैं। ऐसे हमलोग मतभेद होनेपर भी हैं सब एक ही। अलग-अलग नहीं हैं। हम जो कह रहे हैं, वो अपने लोगों को ही कह रहे हैं। इस बात को समझना चाहिये । न समझने के कारण ही ऐसे तर्क कुतर्क पैदा होते हैं। 

अपने- अपने घरों में भी हमें ऐसे एकतापूर्वक प्रेम से रहना चाहिये। स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके सबके प्रति हित का भाव रखना चाहिये। 
परमात्मस्वरूप सारे संसार में जितने भी प्राणी हैं, वो और हम सब एक हैं। 
सबजग ईश्वररूप है भलो बुरो नहिं कोय। 
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय।। 


● [ उत्तरार्द्ध- ] ●


••• 
प्रश्न- 
क्या श्रीस्वामीजी महाराज के स्टेज ( प्रवचनस्थल के तख्त ) को स्मृति के रूप में रखना उचित है? 

उत्तर - उचित नहीं है ।

महापुरुषों से सम्बन्धित इस प्रकार की किसी वस्तु आदि को काम में लेना तो ठीक है , पर उनको स्मृति आदि के रूप में रखना ठीक नहीं । 

श्रीस्वामीजी महाराज की "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या आठ पर लिखा है कि ••• अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि)- को पूजा में अथवा स्मृतिके रूप में बिलकुल नहीं रखनी चाहिये, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिये। 

प्रश्न- तो ऐसा काँचवाला विशेष स्टेज बनवाया ही क्यों? जिसके कारण रखने की और देखने की मन में आवे? 

उत्तर - यह सदा रखने के लिये नहीं बनवाया , यह तो आवश्यकता समझकर थोङे समय के लिये बनवाया था । क्यों बनवाया था इसका कारण सुनो - 

श्री स्वामी जी महाराज से उनके अन्तिम वर्षों में यह प्रार्थना की गयी कि आप गीताभवन ऋषिकेश में ही रहें । आप यहाँ रहेंगे तो सत्संग भी हो जायेगा और लाभ भी अधिक लोगों को मिलेगा । लोगों के रहने आदि की सुविधा जितनी यहाँ है, उतनी दूसरी जगह मिलनी मुश्किल है। इसलिये आप यहीं रहें। तब आपने कृपा करके यह प्रार्थना स्वीकार करली और अन्तिम समय तक वहीं रहे। 

लोगों के सत्संग करना आसान हो गया। दूर- दूर से लोग वहाँ आकर रहने लग गये और सत्संग का लाभ लेने लगे । रोजाना सत्संग होता था , चाहे सर्दी हो या गर्मी, शरीर स्वस्थ हो या बिमार , सत्संग की कोशिश हमेशा रहती। 

कोई पूछते कि महाराज जी ! आपकी तबियत कैसी है? तो कभी-कभी तो आप ऐसे कह देते कि आपका काम (अलग से बातचीत करना , सत्संग प्रवचन करना आदि) तो हम कर देते हैं , फिर तब़ियत चाहे कैसी ही क्यों न हो ! अपनी अस्वस्थता , असुविधा, तकलीफ, कठिनता आदि बताने में भी संकोच करते थे। अपने तो सत्संग चलना चाहिये। 

अधिक वृद्धावस्था आदि के कारण आपके शरीर की शक्ति क्षीण हो गयी, अधिक सर्दी या गर्मी सहन करने की शरीर में शक्ति नहीं रही , अगर सर्दी गर्मी आदि सह लेते , स्वयं उनकी बेपरवाही कर देते , तो शरीर बिमार होने लगता और शरीर बिमार हो जाता तो वैद्य, डाक्टर या उनके हितैषी लोग बाहर सत्संग में जाना बन्द करवा देते कि शरीर कुछ ठीक हो जाय तब जाना ठीक रहेगा। 

सत्संग बन्द होना श्रीस्वामीजी महाराज को पसन्द नहीं था। सत्संग को वो जरूरी और अत्यन्त लाभकारी मानते थे।आवश्यक सुविधा की व्यवस्था के कारण भले ही बाहर से हमारे त्याग में कुछ कमी ही दीखे ,पर सत्संग होना चाहिये । 

शरीर के हितैषी लोगों ने कुछ विशेष प्रबन्ध करवा दिये तो सहन कर लिये , सत्संग प्रवचन के समय जिस तख्ते पर आप विराजते थे , उसके इधर उधर प्लास्टिक आदि के शीशे लगवाकर वहाँ के स्थान को पैक करवा दिया , तो (पसन्द न होते हुए ) भी आपने सहन कर लिया। 

इनके अलावा और भी अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं को सह लेते थे। कैसी- कैसी परिस्थितियाँ थीं , उनको तो वो ही जान सकते हैं , दूसरे क्या समझे ? कभी- कभी तो आप ऐसे कह देते थे कि- 
कौन सुने कासौं कहौं सुने तो समुझे नाँय। 
कहना सुनना समुझना मन ही के मन माँय।। 

ये सब होते हुए भी आप तो अपनी ही मौज में रहते थे । दुःखदायी परिस्थिति में भी दुःखी नहीं होते थे। परिस्थिति को अपने अनुसार न बनाकर स्वयं परिस्थिति के अनुसार बन जाते थे। शारीरिक पीङा में भी हँसते थे । हर कोई तो उनकी स्थिति समझ ही नहीं पाता था ।  

शारीरिक कष्ट आदि के कारण उनमें प्रेम रखने वाले कभी- कभी कुछ दिन सत्संग बन्द करने के लिये कह देते तो वो भी मान लेते थे। बङा सुखदायी स्वभाव था आपका , बङा दयालु और सरल स्वभाव था। आप महाज्ञानी थे। किसी को किचिन्मात्र् भी कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते थे। अपनी बात को छोङकर दूसरे की बात रखते थे । बङे महान् थे। 

शरीर की अशक्तावस्था के समय भी लोगों का मन रहता कि महापुरुषों के दर्शन करें, उनकी बातें सुनें। कमजोरी के कारण व्याख्यान भले ही न दे सकें , पर दर्शन तो हो जाय, हमारी तरफ वो देख तो लें आदि ऐसे भाव थे लोगों के । वो लोगों के भावों का आदर करते थे, बाहर पधारते थे। लोग दर्शन करके ही अपने आपको धन्य समझ लेते और अगर वो कुछ बात बोल देते तो और भी आनन्द हो जाता। 

शीतकाल में जब कभी- कभी आपके शरीर पर ठण्डी का असर हो जाता। सर्दी जुकाम, कफ, बुखार आदि प्रबल हो जाते तब बाहर सत्संग में आना बन्द हो जाता। फिर जब परिस्थिति कुछ अनुकूल होती तब सत्संग में पधारना होता । 

यद्यपि कई बार आप अपने निवास स्थान पर बैठे बैठे ही सत्संग प्रवचन कर देते और यन्त्र (माइक) के द्वारा बाहर , पाण्डाल ( मण्डप ) में बैठे लोगों को सुनायी पङ जाता था । फिर भी लोगों का मन रहता कि सामने से , दर्शन करते हुए उनकी बातें सुनें। लेकिन बाहर आना तो फिर से ठण्डी को निमन्त्रण देना था । 

ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिये शीशे आदि लगवाकर यह विशेष स्टेज बनवाया गया । इससे ठण्डी हवा का डर कम हुआ और सत्संग में जाना सुगम हो गया। 

भगवान् की कृपा से बहुत बढ़िया सत्संग चला और वहाँ का वातावरण सत्संगमय हो गया । श्री सेठजी का गीताभवन बनाना सफल हो गया। श्री स्वामीजी महाराज के वहाँ विराजने से गीताभवन सजीव हो उठा । लोगों के मन में आने लगी कि हम रहें तो यहीं रहें और मरें तो भी यहीं मरें । उस समय की भगवत्कृपा का आनन्द तो वही जान सकता है कि जिन्होंने उस आनन्द का कुछ अनुभव किया है । 

संसार में सब दिन एक समान नहीं रहते। इसलिये एक दिन ऐसा आया कि सब कुछ बदल गया । सत्संग समाप्त हो गया। 

अब जब वो सब परिस्थितियाँ ही नहीं रही, समाप्त हो गयी, तब हमारा मानना है कि इस शीशेवाले स्टेज को भी नहीं रखना चाहिये । 

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का त्यागमय जीवन अनुकरणीय है । वो सुख सुविधा , मान , बङाई , शरीर के आराम आदि को महत्त्व नहीं देते थे । गीताभवन और गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के समय में भी वे उनके साथ त्यागपूर्वक रहते थे और बाद में भी वे त्यागपूर्वक ही रहे। 

ऐसे त्यागी महापुरुषों का सम्बन्ध एक ऐसे स्टेज से बताना , लोगों के द्वारा भी उसको पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाना , उसका प्रचार करने लग जाना आदि कोई बढ़िया बात नहीं है , यह तो एक प्रकार से उनके त्याग में कमी दिखाने जैसा है । वास्तविक बात को हर कोई तो नहीं समझता न ! इसलिये इसको नहीं रखना ही ठीक है । 

जो काम महापुरुषों की महिमा के अनुरूप न हो तो वो काम अच्छा दीखने पर भी नहीं करना चाहिये । इससे लाभ नहीं होता। 

कोई कहे कि उनसे सम्बन्धित गीताभवन आदि और भी तो वस्तुएँ हैं, उनके लिये न कहकर केवल इस काँचवाले स्टेज के लिये ही क्यों कहते हो? 

तो इसका उत्तर यह है कि अनभिज्ञ लोग स्मृति आदि के रूप में इस स्टेज को ही महत्त्व देने लगे हैं, न कि गीताभवन आदि को। इसलिये एक इस स्टेज के लिये ही कह रहें हैं । इस प्रकार की अगर कोई दूसरी वस्तु हो तो उसके विषय में भी यही समझना चाहिये। 

किसी के यह बात नहीं भी जँचे तो हम कोई आपत्ति नहीं करते। अपने कल्याण की बात ग्रहण करने और न करने में सब स्वतन्त्र हैं । हमने तो पूछनेपर यह हित की बात कही है , अब कोई माने तो ठीक और नहीं माने तो उनकी मरजी। अपने किसी से राग द्वेष नहीं करना है , समता में स्थित रहना है । 
••• 
श्री स्वामीजी महाराज तो देश , प्रदेश, विदेश आदि अनेक जगहों पर गये हैं और वहाँ रहे हैं तथा वहाँ उनके लिये स्टेज आदि भी बने हैं, लेकिन कहीं भी ऐसा देखने में नहीं आया कि कोई स्टेज को ऐसे अलग से रखे और लोग स्मृति आदि के रूप में उसको देखने लग जायँ । 

इसके अलावा किसी दूसरी जगह भी अगर कोई ऐसा करते हैं अथवा मानते हैं कि यह स्थान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह स्टेज उनका है , यह गद्दी श्रीस्वामीजी महाराज की है , तो वो भूल में हैं ; क्योंकि श्रीस्वामीजी महाराज कहते हैं कि - 

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं । 
४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य , प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है ।••• 

( "एक संत की वसीयत" ,'मेरे विचार', पृष्ठ संख्या 12 से )। 

अगर कोई ऐसा कहे अथवा समझे कि यह मकान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह कुटिया उनकी है ,यह कमरा श्रीस्वामीजी महाराज का है , तो वो ऐसा समझनेवाला भी भूल में है ; क्योकिं मकान के विषय में श्रीस्वामीजी महाराज की वसीयत में लिखा है कि 
••• अपने जीवनकालमें भी मैंने अपने लिये कभी कहीं किसी मकान आदिका निर्माण नहीं कराया है और इसके लिये किसीको प्रेरणा भी नहीं की है । यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदिको मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणासे निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिये। 
( "एक संतकी वसीयत" पृष्ठ संख्या नौ ) । 

अगर किसी स्थान पर कोई मकान आदि बनवाकर श्रीस्वामीजी महाराज के निमित्त करदे कि यह मैंने श्रीस्वामीजी महाराज को दिया, अब यह सब उनका है और लोग भी ऐसा समझने लग जायँ , तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि मकान आदि को वो स्वीकार नहीं करते थे और अपने लिये इसको उचित भी नहीं मानते थे। । 

कोई कहे कि इस गाँव को अथवा इस मकान को तो श्रीस्वामीजी महाराज अपना कहते थे , इसलिये यह मकान तो उनका है। तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि वो "अपना कहना" केवल व्यवहार के लिये था , वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदासजी महाराज कई बार सत्संग में बताते थे कि जैसे , आपलोग रेलगाड़ी में बैठकर कहीं की यात्रा कर रहे हैं और एक जगह गाङी रुकी । आप गाङी से नीचे उतरे । और भी कई लोग नीचे उतरे । इतने में ही आपको अपने कोई परिचित दिखायी पङ गये । आप राजी हुए और बोले कि अहो ! आप भी इसी गाङी में हैं, आपका डिब्बा कौन सा है ? तो वो भी राजी हुए और बोले कि हमारा डिब्बा वो है ( तथा आप से भी पूछा कि ) आपका डिब्बा कौन सा है ? तो आपने बताया कि वो देखो , हमारा डिब्बा वो है । कुछ देर बाद में फिर सब अपने अपने डिब्बों में चले गये।  जबतक यात्रा रही तबतक आराम से आप अपने उस डिब्बे में रहे और उस डिब्बे को अपना कहते रहे ; परन्तु यात्रा समाप्त करके जब आप अपने घरपर आ जाते हैं तो उस डिब्बे को अपना मानते हैं क्या? , कभी डिब्बे की चिन्ता होती है क्या? कभी पत्र लिखकर भी पूछते हैं क्या कि हमारा डिब्बा कैसा है ? आजकल उसका क्या हाल है ? आदि। 

क्यों नहीं पूछते ? कारण कि वो अपना था ही नहीं, आपने उसको अपना माना ही नहीं। उसको तो आपने व्यवहार के लिये अपना कहा था। वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

इसी प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज ने व्यवहार के लिये किसी मकान आदि को अपना कह दिया तो भी वास्तव में वो मकान उनका अपना नहीं है । 

कोई कहे कि यहाँ तो श्रीस्वामीजी महाराज बार- बार आते थे और वर्षोंतक यहाँ रहे हैं , इसलिये यह जगह तो उनकी है , तो यह भी ठीक नहीं , क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जगह को अपनी माननेवाला तो थोड़ी देर में ही मान लेता है और नहीं माननेवाला वर्षोंतक रहने पर भी ( उस जगह को अपनी ) नहीं मानता। श्रीस्वामीजी महाराज ऐसे महापुरुष थे कि वर्षों तक एक जगह रहनेपर भी उस जगह को अपनी नहीं मानते । इसलिये श्रीस्वामीजी महाराज के अधिक रहनेपर भी उस जगह को खास बताकर लोगों का ध्यान उधर नहीं लगाना चाहिये जिससे कि लोग उस जगह को पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाय। 

महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान और कार्य आदि विशेष होते हैं , आदरणीय , अच्छे और विलक्षण होते हैं; लेकिन जिस काम के लिये महापुरुष मना कर देते हैं, तो वो काम अच्छा होने पर भी नहीं करना चाहिये। 

महापुरुषों के चरणरज की बङी भारी महिमा है; पर चरणरज लेने के लिये अगर महापुरुष मना कर देते हैं तो नहीं लेनी चाहिये। 

चरणरज लेना अच्छा काम है; परन्तु श्री स्वामीजी महाराज मना करते हैं , इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। 

भगवान् के तो जन्म दिवस पर उत्सव मनाया जाता है और महात्माओं के निर्वाण दिवस पर उत्सव (बरसी) मनाया जाता है; क्योंकि इस इस दिन उन सन्तों का भगवान् से मिलन हुआ है।  बरसी मनाना अच्छा काम है , परन्तु श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी बरसी आदि मनाने का निषेध ( मना) किया है, इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। (आजकल कुछ अंश में लोग जो बरसी मनाने लगे हैं, वो भूल में हैं) "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के दसवें पृष्ठ पर बरसी आदि का निषेध करते हुए लिखा है कि
  "जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये।" 
 इसी प्रकार अन्य कामों में भी समझना चाहिये। 

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि महापुरुष किसी विहित काम के लिये कहे और कोई उसको न करे , तो वो लाभ से वञ्चित रहता है (नुकसान नहीं होता), परन्तु जिस काम के लिये उन्होंने निषेध किया है , उस काम को करने से नुकसान होता है। 

इस प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज ने जिस वस्तु को पूजा अथवा स्मृतिरूप में रखने के लिये मना किया है , वो न रखें। किसी वस्तु , स्थान , कमरा , स्टेज आदि को इस प्रकार महत्त्व न दें जिससे लोगों को स्मृतिरूप में रखने आदि की प्रेरणा मिले । दूसरे लोग ऐसी भूल करे तो उनको भी प्रेम से समझाने की कोशिश करें । 

ऐसे उन वर्जित कामों को न करके 
महापुरुषों के ग्रंथों को महत्त्व देना चाहिये। उनको आदर पूर्वक रखना और पढ़ना चाहिये । महापुरुषों की रिकॉर्डिंग वाणी सुनना और उसका प्रचार- प्रसार करना चाहिये। भगवान् की वाणी श्री मद् भगवद् गीता पर लिखी हुई टीका तत्त्वविवेचनी और साधक- संजीवनी का प्रचार-प्रसार करना चाहिये। महापुरुषों के लेख , सत्संग प्रवचनों के ग्रंथ , तत्त्वचिन्तामणि , साधन- सुधा- सिन्धु आदि का अध्ययन करना और करवाना चाहिये । यह काम उन महापुरुषों को भी पसन्द है और यह सबका कल्याण करने वाला है। पंजाबी लोग अपने गुरु ग्रंथ साहिब को कितना आदर से रखते हैं, ऐसे हमलोगों को भी चाहिये कि महापुरुषों के साधक- संजीवनी गीता आदि ग्रंथों को आदर से रखें , उनको महत्त्व दें और पढें । 

साधक- संजीवनी गीता के सातवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक की व्याख्या में लिखा है कि - 

 [ सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है, वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है; परन्तु वे महात्मा आज्ञाके रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं, उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।] 

इस प्रकार और भी अनेक बातें हैं, हमलोगों को चाहिये कि मन लगाकर ऐसे ग्रंथों का अध्ययन करें, महापुरुषों के सिद्धान्तों को समझें और उनके अनुसार अपना जीवन बनावें। 
••• 
आजकल कई लोग श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में मनगढ़न्त , कल्पित और झूठी बातें करने लग गये। उन बातों को सुनकर लोग बिना सोचे समझे आगे दूसरों को भी कहने लग गये। भ्रम की बातें फैलने लगी । सही बातें मिलनी मुश्किल हो गयी। इसलिये सही और महापुरुषों की बढ़िया बातें बताने के लिये एक पुस्तक लिखी गयी है। उस पुस्तक का नाम है- "महापुरुषोंके सत्संगकी कुछ बातें " । इसमें श्री स्वामी जी महाराज के विषय में उनके द्वारा ही सुनी हुई सही बातें लिखी है। इसमें श्रीसेठजी और स्वामीजी महाराज के पहली बार मिलने का भी वर्णन है तथा और भी कई बातें हैं। 

ऐसे ही दूसरी एक पुस्तक है - "श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत् वाणी " । इसमें श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग- प्रवचन में जैसे जैसे बोले थे , वैसे- वैसे ही लिखने का प्रयास किया गया है तथा इसमें ग्यारह चातुर्मासों (सन् 1990 से 2000 तक) के प्रवचनों की विषयसूची भी लिखी गयी है कि किस तारीख को , कितने बजे और किस विषय पर श्रीस्वामीजी महाराज बोले थे। इसमें और भी उपयोगी सत्संग- सामग्री है। इन दोनों पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिये। पुस्तकों का पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/?m=1

इन बातों में जो अच्छापन है वो उन महापुरुषों का है और जो त्रुटियाँ हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छेपन की तरफ ध्यान देंगे,  ऐसी आशा है। मेरी इन बातों से किसीको ठेस लगी हो तो मैं क्षमा याचना करता हूँ। 

निवेदक- 
डुँगरदास राम 
वैसाख कृष्ण ११ शनिवार , वि.सं.२०७७ । 
जय श्री राम 
 

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

" महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " नामक पुस्तक क्यों लिखी गई ? इसका जवाब, कारण -

                      ।। श्रीहरिः ।।


" महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " नामक पुस्तक क्यों लिखी गई? इसका जवाब और कारण -   


प्रश्न-
क्या श्री स्वामीजी महाराज की जीवनी लिखनी उचित है ?
उत्तर -
नहीं, उचित नहीं है; 
प्रश्न-
तो आपने जो "महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " नामक पुस्तक लिखी है क्या वो उनकी जीवनी नहीं है ?
उत्तर-
नहीं, वो जीवनी नहीं है, वो तो महापुरुषों के विषय में गलत बातें रोकने का एक प्रयास है, महापुरुषोंके विषय में सही बातें समझने के लिये, आवश्यकबातों का एक संग्रह है ,जो सत्संगियों के लिये बङे काम का है। क्या हमारे को इतना भी पता नहीं कि श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी जीवनी लिखने का निषेध किया है ? फिर हम निषेध वाला काम क्यों करते ? इससे कौन सा लाभ होता ?

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के द्वारा कही गयी जो बातें हमने इस पुस्तक में लिखी हैं , उन बातों को लिखने के लिये उन्होंने मना नहीं किया था , ये बातें तो लोगों के सामने उन्होंने स्वयं भी कही थी। लोगों की सुविधा के लिये एक लेख में ये बातें एक जगह और क्रमवार लिख देने से भले ही ये जीवनी की तरह दीख जाय , पर वास्तव में ये जीवनी के उद्देश्य से नहीं लिखी है।
 
ये बातें लोगों की गलतफहमियाँ मिटाने के लिये लिखी गई हैं। गलत जानकारी को अथवा अधूरी जानकारी को सही करने के लिये लिखी गई हैं। इसके शिवाय समझाने का दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं था। महापुरुषों के जीवन से सम्बन्धित किसी घटना को कोई गलत ढंग से पेश करे, तो उसको सही ढंग से बताने के लिये उस सच्ची घटना का वर्णन तो करना पङेगा न ! इसलिये झूठी बातों को रोकने लिये सच्ची बातों का वर्णन किया गया। 

अगर कहो कि यह तो जीवनी ही हो गयी , ये काम ठीक नहीं है। तो सुनो ! आपका यह आरोप लगाना ठीक नहीं है ; क्योंकि इससे लोगों को जो महापुरुषोंकी सच्ची बातें मिलनेवाली हैं उनमें बाधा लगेगी। 
 जैसे गीता का प्रचार करनेवाला भगवान् का प्यारा होता है, उससे भगवान् खुश होते हैं और गीता- प्रचार में, भगवद् भक्ति में बाधा लगानेवाले पर भगवान् खुश नहीं होते । ऐसे आप सत्पुरुषों की बातों में बाधा लगाओगे तो क्या भगवान् आप पर खुश होंगे? भगवान् ने आपको विवेक दिया है, उसका सदुपयोग करोगे तो फ़ायदे में रहोगे।

इसके लिखने का मुुख्य कारण यह था कि स्वामीजी महाराज शुुुरु मेें श्रीसेठजी से किस प्रकार मिले , ऐसी महापुरुषों की बढ़िया बातें दूसरे लोगों को भी मिले।

 ऐसी बातें सुनने का अवसर सत्संग करने वालों को भी कभी-कभी ही मिलता था। इसलिये इन बातों का ज्ञान हर किसी को  नहीं है। भगवान् की कृपा से ही ये कुछ बातें मिली और लिखी गई है। मेरा विश्वास है कि श्रीस्वामीजी महाराज के सत्संग प्रेमियों को ये बातें प्रिय लगेंगी।

स्वामीजी महाराज श्रीसेठजी के जीवन की ऐसी अनेक घटनाओं का वर्णन करते थे, उनकी बातें बताते थे। परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ने अपनी जीवनी लिखने का निषेध किया है, पर ऐसी बातों के लिये निषेध नहीं किया है, अगर निषेध कर देते तो श्रीस्वामीजी महाराज उनकी बातें कभी नहीं बताते।

स्वामीजी महाराज ने बङे चाव से श्रीसेठजी की बातें बतायी हैं, जो इस पुस्तक ( " महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " ) में लिखी है। उनकी ओडियो रिकोर्डिंग की तारीख भी इस पुस्तक में लिखी है , वो रिकोर्डिंग आज कोई भी सुन सकता है। 

 जैसे श्रीसेठजी की ऐसी बातें बताना मना नहीं है , ऐसे श्रीस्वामीजी महाराज की बातें बताना भी मना नहीं है।

श्रीस्वामीजी महाराज की कई पुस्तकों में उनकी बातों का वर्णन है। वे पुस्तकें उनकी जीवनी नहीं कही जा सकती, ऐसे ही यह पुस्तक भी उनकी जीवनी नहीं कही जा सकती।

इस प्रकार इस पुस्तक में श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में बातें लिखने का जो काम किया गया है , वो ठीक है। इसके लिये मनाही नहीं थी ।

अगर हम ऐसे, सत्य बातों को बतायेंगे नहीं तो सत्य बातें छिप जायेंगी और असत्य बातों का प्रचार होगा, लोग उन असत्य बातों को ही कहते-सुनते रहेंगे, जिससे लोगों के कल्याण में बङी भारी हानि होगी। महापुरुषों का महान् प्रयास छिपा रह जायेगा।

आजकल कई लोग श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में मनगढ़न्त , कल्पित और झूठी बातें करने लग गये हैं। उन बातों को सुनकर लोग बिना सोचे समझे आगे दूसरों को भी कहने लग गये। इस प्रकार भ्रम की बातें फैलने लगी है।

कोई कहते हैं कि वो अमुक के अवतार हैं, कोई कहते हैं कि अमुक महात्मा ही ये श्रीस्वामीजी महाराज हैं, कोई कहते हैं कि अमुक महात्मा के आशीर्वाद से इनका जन्म हुआ है, आदि आदि लोग कितनी भ्रान्तियाँ फेला रहे हैैं, शायद आपको पता नहीं है। मेरे सामने आयी हैैं ऐसी बातें। 

 जन साधारण के मन में कई ऐसे प्रश्न स्वाभाविक ही आते रहते हैं और वो किसी से पूछते भी हैं। इन बातों के जवाब भी लोग अपने हिसाब से देते रहते हैं ; परन्तु सही जवाब मिलना प्रायः कठिन रहता है। लोग मनगढ़न्त जवाब दे देते हैं और सुननेवाले उसको ही सही मान लेते हैं। सच्ची बात जानने के लिये कोशिश करनेवाले भी कम ही लोग होते हैं। कई लोगों को तो सही बातों का पता ही नहीं होता। कई लोग तो ऐसे होते हैं कि वो असत्य से भी परहेज़ नहीं करते , अपने मन से गढ़कर झूठी बात कह देते हैं और वो बात आगे चल पङती है।

इनके शिवाय और भी झूठी झूठी बातें लोग करने लग गये। ऐसी बातें यहाँ लिखना हम उचित नहीं समझते। कई झूठी बातें तो ऐसी हैं कि उनका जिक्र करना भी यहाँ उचित नहीं। 

इस प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज के बारें में झूठी बातों को रोकना हमारा और आप सबका कर्तव्य है। तरह तरह की ऐसी बातें फैलने के कारण सही बातों का निर्णय करना बङा कठिन हो जाता है। अब मनुष्य क्या करे ? किनकी बातों को सही मानें?  

कोई कहे कि अमुक महात्मा की बात सही मानो ; क्योंकि वो बङे जानकार हैं, कोई कहे कि ये तो श्रीस्वामीजी महाराज के पुराने सत्संगी हैं, कोई कहे कि ये तो उनके साथ में रहे हुए हैं, (इनकी बात सही है) आदि आदि।  
अब ऐसी स्थिति में किनकी बात सही मानी जाय ? निर्णय करना कठिन हो जाता है।

अब ऐसी स्थिति में क्या करें लोग? किनकी बात को सही मानें? 

इसका उत्तर यह है कि स्वयं श्रीस्वामीजी महाराज की बात को सही मानें; क्योंकि अपनी बात को अपने से अधिक और कौन जान सकता है।  इसलिये उनके ही श्रीमुख से सुनी हुई, उनकी कुछ बातें इस पुस्तक में लिखी है जिससे बातों की सत्यता में सन्देह न रहे।

श्रीस्वामीजी महाराज से सम्बन्धित किसी विषय को लेकर कोई कुछ कहे , कोई कुछ कहे, इस प्रकार भ्रम की स्थिति हो जाय तो इस पुस्तक में लिखी बातें पढकर निर्णय करना चाहिये कि सही बात यह है। अगर पहले से ही ये बातें कोई पढकर समझ लेगा, तो तरह- तरह की बातें सुनकर उसके भ्रम पैदा ही नहीं होगा और वो दूसरों का भ्रम भी दूर कर देगा।  

इस प्रकार भ्रम की, सन्देह की और गलत गलत बातें मिटाने के लिये तथा सही बातें बाताने के लिये ही यह पुस्तक लिखी गयी है। इसका नाम है- "महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " ।  
(इसमें श्री स्वामी जी महाराज के विषय में उनके द्वारा ही सुनी हुई कुछ सही बातें लिखी है। )
 इसमें श्रीसेठजी और स्वामीजी महाराज के पहली बार मिलने का भी वर्णन है तथा और भी कई बातें हैं। इसको यहाँ से प्राप्त किया जा सकता है-
सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
 bit.ly/1satsang

मेरी बातों से किन्ही को कोई कष्ट पहुँचा हो तो मैं हाथ जोड़कर क्षमायाचना करता हूँ।  

विनीत - डुँगरदास राम 


गुरुवार, 23 जनवरी 2020

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की सत्संग-सामग्री ( 16 GB मेमोरी कार्ड में) ।


                      ॥ श्रीहरिः ॥


 श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
                            की
                      सत्संग-सामग्री
               ( 16 GB मेमोरी-कार्ड में )।


श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की सत्संग- सामग्री हर किसी को सुगमतापूर्वक प्राप्त हो और यन्त्र के द्वारा हर कोई सुगमतापूर्वक सुन सके- इसके लिये एक 16 जी.बी. वाला मेमोरी-कार्ड बनाया गया है।

इस मेमोरी-कार्ड में श्रीस्वामीजी महाराजके विशेष प्रवचन, नित्य-स्तुति गीता-पाठ सत्संग (इकहत्तर दिनों वाला), ग्यारह चातुर्मासों के प्रवचन (तारीख और विषय सहित ), भजन, कीर्तन, गीता-पाठ, गीता-व्याख्या, गीता-माधुर्य, कल्याणके तीन सुगम-मार्ग, मानसमें नाम वन्दना, नरसीजीका माहेरा, सत्संग की बातें, अनेक प्रश्नोत्तर आदि महत्वपूर्ण सत्संग- सामग्री भरी गई है।

अपना कल्याण चाहने वाले हरेक भाई-बहनों को इससे लाभ लेना चाहिये और दूसरोंको भी बताना चाहिये तथा "श्रीस्वामीजी महाराज की यथावत्- वाणी" (नामवाली) पुस्तक पढ़नी चाहिये।

इस सत्संग-सामग्री की क्रमसंख्या इस प्रकार है-
क्रमांक-
----- 01 से नित्य-स्तुति,गीतापाठ,हरिःशरणम्,सत्संग(71दिनोंका)। ,,72 से सन् १९९०, बीकानेर- चातुर्मास के 183 प्रवचन।
,,255 से सन् १९९१, जयपुर- चातुर्मास के 169 प्रवचन।
,,424 से सन् १९९२- मथानिया- चातुर्मास के 129 प्रवचन।
,,553 से सन् १९९३, बीकानेर- चातुर्मास के 221 प्रवचन।
,, 774 से सन् १९९४, बीकानेर- चातुर्मास के 127 प्रवचन ॥
,, 901 से सन् १९९५, जयपुर- चातुर्मास के 147 प्रवचन।
,,1048 से सन् १९९६, भीनासर- चातुर्मास के 151 प्रवचन।
,, l199 से सन् १९९७, सीकर- चातुर्मास के 166 प्रवचन।
,, 1365 से सन् १९९८, जोधपुर- चातुर्मास के 146 प्रवचन॥
,,1511 से सन् १९९९, नोखा- चातुर्मास के 180 प्रवचन।
,,1691 से सन् २०००, रतनगढ़- चातुर्मास के 178 प्रवचन।

,,1869 से अन्य प्रवचन {"श्रीस्वामीजी महाराज की यथावत्- वाणी" (नामवाली) पुस्तकमें यथावत् लिखे हुए 4 प्रवचन}

,,1873 से भजन (संग्रहीत 40 भजन)
,, 1913 से मायरा (नरसीजीके माहेरे के 48 विभाग)
,,1961 से गीताजी के पाँच श्लोक (2 प्रकार के)
,, 1963 से संकीर्तन (21 प्रकार में)
,,1984 से चुनी कैसेटें (नं० 01 से 97 तक )
,,2081 से गीता-पाठ (नं० 01 से 19)
,,2100 से श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् (नं० 01) ।
,,2101 से गीता सीखो (नं० 01 से 21)
,,2122 से गीता-व्याख्या (नं० 01 से 124)।
,,2246 से गीता-माधुर्य (पुस्तक- पठन नं० 01 से 18 )।
,,2264 से कल्याणके तीन सुगम-मार्ग (पुस्तक- व्याख्या नं० 01 से 11)।
,,2275 से मानसमें नाम-वन्दना (पुस्तक- प्रवचन 01 से 08)
,,2283 से विशेष-प्रवचन (नं० 01 से 71)।
,, 2354 से प्रश्नोत्तर और चुनी बातें तथा खास- प्रवचन (नं. 01 से 937)
,, 3290 (-मेमोरी-कार्ड में सत्संग-सामग्री की संख्या 1- 3290 है)

इस सत्संग-सामग्री में दिये गये क्रमांक (संख्या ), नम्बरों के अनुसार अपने मनचाहा सत्संग तुरन्त सुना जा सकता है।

नित्य-स्तुति गीता-पाठ सत्संग आदि और ग्यारह चातुमर्मासों के एक-एक प्रवचनों की विषय-सूची "श्रीस्वामीजी महाराज की यथावत्- वाणी" (नामवाली ) पुस्तक में लिखी हुई है (तारीख और विषय सहित, अंग्रेज़ी तथा हिंदी में भी)।

(ऊपर लिखी गयी सत्संग-सामग्री वाली मेमोरी कार्ड लेनेवाले को यह पुस्तक मुफ्त में दी जाती है और अलग से भी मिलती है।)

तथा इस 16 जी.बी. वाली मेमोरी-कार्ड में ये पुस्तकें ( PDF में) भी है-
"महापुरुषों के सत्संग की बातें", "श्रीस्वामीजी महाराज की यथावत्- वाणी" और "गीता साधक- संजीवनी"।

मिलने का पता-
(इंटरनेट पर) bit.ly/1satsang और bit.ly/1casett
गुलाबसिंहजी आदि +917014431915,
+919413647174, +919460239129,
+919166275174, +919414722389












मंगलवार, 21 जनवरी 2020

सम्पूर्ण गीतापाठ- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ।

 ●सम्पूर्ण गीतापाठ- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ●
■ ( साफ आवाज़ में )।■    
  
   ।। श्रीहरिः ।।


सम्पूर्ण गीतापाठ- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ( साफ आवाज़ में)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी आवाजमें दो प्रकारके
रिकोर्ड किये हुए गीता-पाठ उपलब्ध है। 




पहले गीता-पाठमें आगे श्री स्वामीजी
महाराज बोलते हैं और पीछे दूसरे लोग दोहराते हैं। (पता- https://drive.google.com/folderview?id=1EYTZPO4JUG2mr2rX-UJsDIVQmX1qqBdP  )

दूसरे प्रकारके गीता-पाठमें सिर्फ श्री स्वामीजी महाराज बोलते(पाठ करते) हैं।

यहाँ, यह दूसरी प्रकार वाला गीता पाठ है। कई दिनों से लोगों के मन में थी कि यह गीता-पाठ साफ आवाज़ में हो।

भगवत्कृपा से अब ऐसा संयोग बन गया और इसका कुुछ कार्य हो गया , अब आवाज़ पहले की अपेक्षा अधिक साफ़ हो गयी । 

एक सज्जन ने बताया था कि (किसी) एक संत ने श्री स्वामी जी महाराज के इस गीता- पाठ को सिंगापुर (विदेेश) भेजकर आवाज़ साफ करवायी है । तब हमने उनसे वो गीतापाठ  माँगा और उन्होंने वो उपलब्ध भी करवा दिया। उस गीतापाठ को परिष्कृत करके पहले से और अधिक उपयोगी बना दिया गया है । इसमें गीताजी के अङ्गन्यास आदि, आरती और गीतामाहात्म्य भी है। तथा श्री स्वामीजी महाराज के द्वारा किया हुआ श्री विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रम् भी है। 

 वो इस पते पर उपलब्ध है- bit.ly/SampoornaGitapathSRAMSUKHDASJIM

अर्थात् श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ।

इस प्रकार श्री स्वामी जी महाराज की आवाज़ में दो प्रकार के पाठ तो पहले से ही थे, अब यह तीसरी प्रकार का पाठ हो गया । इस पाठ के माहात्म्य, आरती और अङ्गन्यास आदि सहित सम्पूर्ण अठारहों अध्याय एक ही फाइल में, एक- साथ उपलब्ध है तथा ये अलग- अलग , न्यारे- न्यारे भी उपलब्ध है ।

[इसके आवाज की गति को बढ़ाकर, चौथे प्रकार का एक गीतापाठ और बनाया गया है। यह सम्पूर्ण गीतापाठ लगभग सवा दो घंटे में ही पूरा हो जाता है। कई लोगों के मन में थी कि कम समय में श्री स्वामीजी महाराज द्वारा किया हुआ गीताजी का पूरा पाठ हो। भगवत्कृपा से अब यह पाठ भी तैयार हो गया है। जो लोग थोङे समय में ही गीताजी के अठारह-अध्यायों का पूरा पाठ करना चाहते हैं, उनके लिये श्री स्वामीजी महाराज द्वारा किया गया यह गीतापाठ बहुत उपयोगी होगा। यह भी इसी  ( http://bit.ly/SampoornaGitapathSRAMSUKHDASJIM ) पते पर उपलब्ध है।]

हमलोगों को चाहिये कि इनका अधिक से अधिक लाभ लें और दूसरों को भी दें , महापुरुषों की वाणी के साथ- साथ स्वयं पाठ करें और दूसरों को भी प्रेरणा दें । ऐसे संत - महापुरुषों के साथ- साथ पाठ करनेसे बङा भारी लाभ होता है। 

गीताजी का अर्थ और रहस्य समझने के लिये श्री स्वामीजी महाराज की गीता साधक- संजीवनी ग्रंथ को ध्यान से , मन लगाकर पढें ।

सीताराम सीताराम

http://dungrdasram.blogspot.com/2020/01/blog-post.html 
 

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

प्रार्थना [हस्तलिखित फोटो] (- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के हाथ से लिखी हुई , साधक की तरफ से प्रभु- प्रार्थना)।

                  ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ 


                       ●  प्रार्थना  ●

  ( परमश्रद्धेय स्वामीजी
 श्रीरामसुखदासजी महाराज 

 के हाथ से लिखी हुई ,  साधक की तरफ से प्रभु- प्रार्थना- )

                ।। श्री रामाय नमः।।  

हे नाथ ! आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप हमें प्यारे लगें , केवल यही
मेरी माँग है, और कोई अभिलाषा नहीं। 
हे नाथ ! अगर मैं स्वर्ग चाहूँ तो मुझे नरकमें डाल दें , सुख चाहूँ तो
अनन्त दुःखोंमें डाल दें , पर आप हमें  प्यारे लगें।
हे नाथ ! आपके बिना मैं रह न सकूँ , ऐसी व्याकुलता आप दे दें।
हे नाथ ! आप मेरे ऐसी आग लगा दें कि आपकी प्रीतिके बिना जी न सकूँ । 

हे नाथ ! आपके बिना मेरा कौन है ? मैं किससे कहूँ और कौन सुने ?
हे मेरे शरण्य ! मैं कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ? कोई मेरा नहीं ।
मैं भूला हुआ कइयोंको अपना मानता रहा , धोका (धोखा) खाया , फिर भी धोका खा सकता हूँ। आप बचावें ! 

हे मेरे प्यारे ! हे अनाथनाथ ! हे अशरणशरण ! हे पतितपावन ! हे दीनबन्धो ! हे अरक्षितरक्षक ! हे आर्त्तत्राणपरायण ! हे निराधारके आधार ! अकारण- करुणावरुणालय ! हे साधनहीनके एकमात्र साधन ! हे असहायकके सहायक ! क्या आप मेरेको जानते नहीं ? मैं कैसा भङ्गप्रतिज्ञ , कैसा कृतघ्न , कैसा अपराधी , मैं कैसा विपरीतगामी , मैं कैसा अकरणकरणपरायण , 
अनन्त दुःखोंके कारणस्वरूप भोगोंको भोगकर , जानकर भी आसक्त रहनेवाला , अहितको हितकर माननेवाला , बार- बार ठोकरें खाकर भी नहीं चेतनेवाला , आपसे विमुख होकर बार- बार दुःख पानेवाला , चेतकर भी न चेतनेवाला , ऐसा जानकर भी न जाननेवाला  मेरे सिवा आपको ऐसा कौन मिलेगा ?  
 प्रभो ! त्राहि मां त्राहि मां पाहि मां पाहि माम् !  
 हे प्रभो ! हे विभो ! मैं आँख पसारकर देखता हूँ तो मन , बुद्धि , प्राण , इन्द्रियाँ और शरीर भी मेरे नहीं , तो वस्तु , वस्त्रादि [ व्यक्ति आदि ] मेरे कैसे हो सकते हैं ? ऐसा मैं जानता हूँ , कहता हूँ, पर वास्तविकतासे नहीं मानता ।  मेरी यह दशा क्या आपसे किंचिन्मात्र भी कभी छिपी है ? फिर हे प्यारे , क्या कहूँ ?
हे नाथ ! हे नाथ !! हे मेरे नाथ !!! हे दीनबन्धो ! हे प्रभो ! आप अपनी
तरफसे शरण ले लें। बस , केवल आप प्यारे लगें।  ●

मेर मन में तो आई थी कि आप सुबह, शाम, मध्याह्न - तीनों समय कर ,  खूब अच्छे भावपूर्वक करें तो प्रभुकृपा से कुछ भी असम्भव नहीं है 
ता•१९|३|७६
चैत्र कृष्णा चतुर्थी, शुक्रवार
- रामसुखदास 

 (- यथावत् लेखन •••● , । () ! ? | - ) ■  
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
 इस हस्तलिखित प्रार्थना की फोटो भी  नीचे दी जा रही है ।  

यह प्रार्थना कई पुस्तकों में यथावत् लिखकर नहीं छापी गई है, अयथावत् छपी हुई मिलती है। इसके नीचे यह वाक्य और जोङ दिया गया है -- 
[ भक्त-चरित्र पढ़कर खूब अच्छा भाव बनाकर सुबह, शाम व मध्याह्न-तीनों
समय यह प्रार्थना करनी चाहिये। ] 

इसके सिवाय भक्त-चरित्र पढ़े बिना भी , सीधे ही यह प्रार्थना की जा सकती है तथा एक बार या अनेक बार की जा सकती है और उसको भगवान् सुन लेते हैं ।
  यह प्रार्थना किसी भी समय की जा सकती है और किसी भी प्रकार से की जा सकती है ।  इस प्रार्थना को कोई भी कर सकता है चाहे वो कैसा ही क्यों न हो और भगवान् उसको स्वीकार कर लते हैं ।  
इस प्रार्थना के नीचे श्री स्वामी जी महाराज के द्वारा लिखे हुए इतने अंश पर और ध्यान दें।  
 वो लिखते हैं-   
 मेर मन में तो आई थी कि आप सुबह, शाम, मध्याह्न - तीनों समय कर , खूब अच्छे भावपूर्वक करें तो प्रभुकृपा से कुछ भी असम्भव नहीं है 
ता•१९|३|७६ 
चैत्र कृष्णा चतुर्थी, शुक्रवार 
- रामसुखदास 
  (अर्थात् ऐसे प्रार्थना की जाय तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है, ऐसा कोई भी काम नहीं है जो इस प्रार्थना से न हो सके, सबकुछ हो सकता है। 
 इस में भक्त- चरित्र पढ़ना भी जरूरी नहीं बताया गया है अर्थात् यह प्रार्थना किसी भी प्रकार से की जा सकती है और इससे असम्भव भी सम्भव हो सकता है।  भाव पूर्वक की जाय तो और भी बढ़िया है आदि आदि ।  )।
   ■

http://dungrdasram.blogspot.com/?m=1 


रविवार, 10 नवंबर 2019

परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की ओरसे एक प्रार्थना

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
   परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
की ओरसे एक प्रार्थना
अपने निजस्वरूप प्यारे मुसलमान भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि आप अपने आदरणीय
पूर्वजोंकी गलतीको स्थायी रूपसे नहीं रखना चाहते हैं तथा अपनी गलत परम्पराको मिटाना चाहते हैं तो
जिनकी जो चीज है, उनको उनकी चीज सत्कारपूर्वक समर्पण कर दें और अपनी गलत परम्पराको,
बुराईको मिटाकर सदाके लिये भला रहना स्वीकार कर लें ।
आपलोगोंने मन्दिरोंको तोड़नेकी जो गलत
परम्परा अपनायी है, इसमें आपका ज्यादा नुकसान है, हिन्दुओंका थोड़ा। यह आपके लिये बड़े
कलंकका, अपयशका काम है।
आपके पूर्वजोंने मन्दिरोंको तोड़कर जो मस्जिदें खड़ी की हैं, वे इस
बातका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मुसलमानोंके राज्यमें क्या हुआ ? अतः वे आपके लिये कलंककी,
अपयशकी निशानी हैं।
अब भी आप उसी परम्परापर चल रहे हैं तो यह उस कलंकको स्थायी रखना
है।
आप विचार करें,
सभी लोगोंको अपने- अपने धर्म, सम्प्रदाय आदिका पालन करनेका अधिकार है ।
यदि हिन्दू अपने धर्मके अनुसार मन्दिरोंमें मूर्तिपूजा ( मूर्तिमें भगवान् की पूजा ) करते हैं तो इससे आपको
क्या नुकसान पहुँचाते हैं ? इसमें आपका क्या नुकसान होता है ? क्या हिन्दुओंने अपने राज्यमें मस्जिदोंको
तोड़ा है ? तलवारके जोरपर हिन्दूधर्मका प्रचार किया है ? उलटे हिन्दुओंने अपने यहाँ सभी
मतावलम्बियोंको अपने-अपने मत, सम्प्रदायका पालन करने, उसका प्रचार करनेका पूरा मौका दिया है।
इसलिये यदि आप सुख-शान्ति चाहते हैं, लोक-परलोकमें यश चाहते हैं, अपना और दुनियाका भला
चाहते हैं तो अपने पूर्वजोंकी गलतीको न दुहरायें और गम्भीरतापूर्वक विचार करके अपने कलंकको
धो डालें।
सरकारसे भी आदरपूर्वक प्रार्थना है कि आप थोड़े समयके अपने राज्यको रखनेके लिये ऐसा कोई
काम न करें, जिससे आपपर सदाके लिये लाञ्छन लग जाय और लोग सदा आपकी निन्दा करते रहें ।
आज प्रत्यक्षमें राम भी नहीं हैं और रावण भी नहीं है, युधिष्ठिर भी नहीं हैं और दुर्योधन भी नहीं है; परंतु
राम और युधिष्ठिरका यश तथा रावण और दुर्योधनका अपयश अब भी कायम है। राम और युधिष्ठिर
अब भी लोगोंके हृदयमें राज्य कर रहे हैं तथा रावण और दुर्योधन तिरस्कृत हो रहे हैं।
आप ज्यादा वोट
पानेके लोभसे अन्याय करेंगे तो आपका राज्य तो सदा रहेगा नहीं, पर आपकी अपकीर्ति सदा रहेगी।
यदि आप एक समुदायका अनुचित पक्ष लेंगे तो दूसरे समुदायमें स्वतः विद्रोहकी भावना पैदा होगी, जिससे
समाजमें संघर्ष होगा।
इसलिये आपको वोटोंके लिये पक्षपातपूर्ण नीति न अपनाकर सबके साथ समान
न्याय करना चाहिये और निल्लोभ तथा निर्भीक होकर सत्यका पालन करना चाहिये।
अन्तमें अपने निजस्वरूप प्यारे हिन्दू भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि मुसलमान भाइयोंकी
कोई क्रिया आपको अनुचित दीखे तो उस क्रियाका विरोध तो करें, पर उनसे वैर न करें।
गलत क्रिया
या नीतिका विरोध करना अनुचित नहीं है, पर व्यक्तिसे द्वेष करना अनुचित है। जैसे, अपने ही भाईको
संक्रामक रोग हो जाय तो उस रोगका प्रतिरोध करते हैं, भाईका नहीं। कारण कि भाई हमारा है, रोग
हमारा नहीं है। रोग आगन्तुक दोष है, इसलिये रोग द्वेष्य है, रोगी किसीके लिये भी द्वेष्य नहीं है।
अतः
आप द्वेषभावको छोड़कर आपसमें एकता रखें और अपने धर्मका ठीक तरहसे पालन करें, सच्चे हृदयसे
भगवान् में लग जायेँ तो इससे आपके धर्मका ठोस प्रचार होगा और शान्तिकी स्थापना भी होगी। 

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)। 

- 'कल्याण'वर्ष 67, अंक3 (मार्च 1993)।


http://dungrdasram.blogspot.com/2019/11/blog-post_10.html

अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशी में शिव- मन्दिर की बारी

                      ।।श्रीहरिः।।
अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशी में शिव- मन्दिर की बारी  
कल (कार्तिक शुक्ला द्वादशी शनिवार , विक्रम संवत् २०७६ को) सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार अयोध्या में राम- मन्दिर बनना तै हो गया । भगवान् की कृपा से यह रामभक्तों और सारे संसार के लिये भी एक बङा हितकारी काम हुआ है । इससे हिन्दुओं का, ईसाईयों आदि का और मुसलमानों का भी बङा हित होगा।
कई लोगों को इससे बङी भारी प्रसन्नता हुई है । कई लोग तो इससे अपने को धन्य और कृतकृत्य (सब काम कर चूके) मानने लग गये ; लेकिन अपने को इतने से ही सन्तोष नहीं करना चाहिये ; क्योंकि अभी हमारे कई मन्दिरों का काम बाकी पङा है ।
इसलिये अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशीवाले शिव- मन्दिर के लिये काम शुरु करना चाहिये और मथुरा में श्रीकृष्ण- मन्दिर की तैयारी करनी चाहिये ।
जैसे, एक दिन अयोध्या राम- मन्दिर की थोङी- सी शुरुआत की गई थी, तो वो होते- होते कल निर्णय आ ही गया। अब राम- मन्दिर बनने की तैयारी है और राम मन्दिर बन जायेगा । ऐसे ही हमलोग अगर काशी में शिव- मन्दिर की थोड़ी- सी भी शुरुआत करदें, तो एक दिन यह मन्दिर भी बन जायेगा ।
विचार करके देखें तो शुरुआत में एक व्यक्ति के मनमें बात आती है, उसके बाद अनेकों के मनमें आ जाती है और अनेक लोग साथ में हो जाते हैं तथा अनेकों की शक्ति से वो काम हो जाता है । वो काम हुआ तो अनेकों की शक्ति से है; पर शुरुआत में उस काम को एक व्यक्ति ने ही शुरु किया था। ऐसे अगर हम अकेले ही (अयोध्या राम- मन्दिर की तरह एक व्यक्ति ही) यह काम शुरु करदें, तो हमारे साथ अनेक लोग हो जायेंगे और काशी में शिव- मन्दिर भी बन जायेगा।
वास्तव में यह होगा तो महापुरुषों और भगवान् की कृपा से ही, परन्तु निमित्त हमको बनना है। भगवान् और महापुरुष तो तैयार ही रहते हैं, अब हमको तैयार होना है।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने कहा था कि सीधी -सी बात है कि हिन्दुओं की जगह (राम- मन्दिर) हिन्दुओं को दे दी जाय । कह, फिर तो काशी और मथुरा वाले स्थान भी माँग लेंगे । अरे माँग लेंगे तो इससे तुम्हारा क्या हर्ज हुआ?
श्री स्वामीजी महाराज के सामने बार- बार अयोध्या राम मन्दिर का विषय आया था और उन्होंने समाधान किया था । उनके ऐसे कई प्रवचनों की रिकॉर्डिंग मौजूद है।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने मुस्लिम भाइयों को, सरकार को और हिन्दू भाइयों को बङी आत्मीयतापूर्वक पत्र लिखवाकर कल्याण पत्रिका में प्रकाशित करवाया था ।( कल्याण वर्ष ६७ वाँ , अंक तीसरा, (3 मार्च 1993 ) ।
( पत्र और पत्र की फोटो नीचे दी जा रही है  )।
मुस्लिम भाइयों को सादर समझाया कि आपलोग अपने बङेरों का कलंक धो लो।
( अर्थात् अयोध्या का राम- मन्दिर तुङवाङकर उस जगह मुसलमानों के बङेरे बाबर ने मस्जिद बनवायी थी। मुसलमानों के बङेरे ऐसे अन्यायी, जबरदस्ती पूर्वक दूसरों की सम्पत्ति छीनने वाले, दुःख देनेवाले थे। मस्जिद इस बात की निशानी है । आपलोगों ने भी यही परम्परा अपना रखी है। यह आपलोगों के लिये कलंक है। अब आपलोग यह हिन्दुओं की जगह हिन्दुओं देकर अपने बङेरों का कलंक धो डालो। नहीं तो यह कलंक मिटेगा नहीं । अबतक जैसे मस्जिद के रूप में वो कलंक खङा था, कायम था, ऐसे ही आगे भी यह कलंक पङा रहेगा)।
सरकार को भी आदरपूर्वक समझाया कि आपलोग ज्यादा वोट के लोभ से अन्याय, पक्षपात मत करो।
हिन्दू भाइयों को अपने धर्म का ठीक तरह से पालन करने का और सच्चे हृदय से भगवान् में लग जाने के लिये आदरपूर्वक कहा। 
( http://dungrdasram.blogspot.com/2019/11/blog-post_0.html )
इस प्रकार महापुरुष हमारे साथ में हैं और महापुरुषों के साथ भगवान् हैं । भगवान् उनकी रुचि के अनुसार काम करते आये हैं-
राम सदा सेवक रुचि राखी।
बेद पुरान साधु सुर साखी।।
(रामचरितमा॰ २|२१९|७)

अब काम बाकी हमारा है। हम अगर तैयार हो जायँ,  इस काम को शुरु करदें, मन बनालें कि यह काम होना चाहिये, तो यह काम हो जाय, मन्दिर बन जाय।  

( काशीजी के ज्ञानवापी वाले शिव- मन्दिर की कैसी दुर्दशा की हुई है, यह तो आज भी समझी और देखी जा सकती है)।
जय श्री राम 
●●●●●●●●●●●●●
                    ( पत्र -)
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
  परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
की ओरसे एक प्रार्थना
अपने निजस्वरूप प्यारे मुसलमान भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि आप अपने आदरणीय
पूर्वजोंकी गलतीको स्थायी रूपसे नहीं रखना चाहते हैं तथा अपनी गलत परम्पराको मिटाना चाहते हैं तो
जिनकी जो चीज है, उनको उनकी चीज सत्कारपूर्वक समर्पण कर दें और अपनी गलत परम्पराको,
बुराईको मिटाकर सदाके लिये भला रहना स्वीकार कर लें ।
आपलोगोंने मन्दिरोंको तोड़नेकी जो गलत
परम्परा अपनायी है, इसमें आपका ज्यादा नुकसान है, हिन्दुओंका थोड़ा। यह आपके लिये बड़े
कलंकका, अपयशका काम है।
आपके पूर्वजोंने मन्दिरोंको तोड़कर जो मस्जिदें खड़ी की हैं, वे इस
बातका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मुसलमानोंके राज्यमें क्या हुआ ? अतः वे आपके लिये कलंककी,
अपयशकी निशानी हैं।
अब भी आप उसी परम्परापर चल रहे हैं तो यह उस कलंकको स्थायी रखना
है।
आप विचार करें,
सभी लोगोंको अपने- अपने धर्म, सम्प्रदाय आदिका पालन करनेका अधिकार है ।
यदि हिन्दू अपने धर्मके अनुसार मन्दिरोंमें मूर्तिपूजा ( मूर्तिमें भगवान् की पूजा ) करते हैं तो इससे आपको
क्या नुकसान पहुँचाते हैं ? इसमें आपका क्या नुकसान होता है ? क्या हिन्दुओंने अपने राज्यमें मस्जिदोंको
तोड़ा है ? तलवारके जोरपर हिन्दूधर्मका प्रचार किया है ? उलटे हिन्दुओंने अपने यहाँ सभी
मतावलम्बियोंको अपने-अपने मत, सम्प्रदायका पालन करने, उसका प्रचार करनेका पूरा मौका दिया है।
इसलिये यदि आप सुख-शान्ति चाहते हैं, लोक-परलोकमें यश चाहते हैं, अपना और दुनियाका भला
चाहते हैं तो अपने पूर्वजोंकी गलतीको न दुहरायें और गम्भीरतापूर्वक विचार करके अपने कलंकको
धो डालें।
सरकारसे भी आदरपूर्वक प्रार्थना है कि आप थोड़े समयके अपने राज्यको रखनेके लिये ऐसा कोई
काम न करें, जिससे आपपर सदाके लिये लाञ्छन लग जाय और लोग सदा आपकी निन्दा करते रहें ।
आज प्रत्यक्षमें राम भी नहीं हैं और रावण भी नहीं है, युधिष्ठिर भी नहीं हैं और दुर्योधन भी नहीं है; परंतु
राम और युधिष्ठिरका यश तथा रावण और दुर्योधनका अपयश अब भी कायम है। राम और युधिष्ठिर
अब भी लोगोंके हृदयमें राज्य कर रहे हैं तथा रावण और दुर्योधन तिरस्कृत हो रहे हैं।
आप ज्यादा वोट
पानेके लोभसे अन्याय करेंगे तो आपका राज्य तो सदा रहेगा नहीं, पर आपकी अपकीर्ति सदा रहेगी।
यदि आप एक समुदायका अनुचित पक्ष लेंगे तो दूसरे समुदायमें स्वतः विद्रोहकी भावना पैदा होगी, जिससे
समाजमें संघर्ष होगा।
इसलिये आपको वोटोंके लिये पक्षपातपूर्ण नीति न अपनाकर सबके साथ समान
न्याय करना चाहिये और निल्लोभ तथा निर्भीक होकर सत्यका पालन करना चाहिये।
अन्तमें अपने निजस्वरूप प्यारे हिन्दू भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि मुसलमान भाइयोंकी
कोई क्रिया आपको अनुचित दीखे तो उस क्रियाका विरोध तो करें, पर उनसे वैर न करें।
गलत क्रिया
या नीतिका विरोध करना अनुचित नहीं है, पर व्यक्तिसे द्वेष करना अनुचित है। जैसे, अपने ही भाईको
संक्रामक रोग हो जाय तो उस रोगका प्रतिरोध करते हैं, भाईका नहीं। कारण कि भाई हमारा है, रोग
हमारा नहीं है। रोग आगन्तुक दोष है, इसलिये रोग द्वेष्य है, रोगी किसीके लिये भी द्वेष्य नहीं है।
अतः
आप द्वेषभावको छोड़कर आपसमें एकता रखें और अपने धर्मका ठीक तरहसे पालन करें, सच्चे हृदयसे
भगवान् में लग जायेँ तो इससे आपके धर्मका ठोस प्रचार होगा और शान्तिकी स्थापना भी होगी। 
( - श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज )
- 'कल्याण'वर्ष 67, अंक3 (मार्च 1993)।

 
आपलोगों ने कोशिश करके जैसे यह राम- मन्दिर का काम करवा दिया, ऐसे ही आपलोगों से प्रार्थना है कि अब जल्दी ही गौ- हत्या बन्द करवा दें । आपका बहुत- बहुत आभार । 

जय श्री राम 

http://dungrdasram.blogspot.com/2019/11/blog-post_10.html