शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

ज्ञानगोष्ठीके सदस्योंसे चौथी बार निवेदन।

                         ॥श्रीहरि:॥

ज्ञानगोष्ठीके सदस्योंसे चौथी बार निवेदन। 

कृपया ज्ञानगोष्ठी वाले सदस्य ध्यान दें।
१.कई मैसेज एक साथ न भेजें।
२.लम्बे मैसेज न भेजें।
३.जो मैसेज आ चूके,वो बार-बार न भेजें।
४.फालतू मैसेज न भेजें।
५.मनगढंत,कल्पित,असत्य सामग्री न भेजें।
६.बिना प्रमाणकी निराधार सामग्री न भेजें।

आज कल यहाँ ऐसी अनावश्यक सामग्री भेजी जाने लगी है कि जिसको देखनेमें भी समयकी बर्बादी लगती है,पूरा पढना तो और भी दूरकी बात,पढ भी लें तो कुछ हाथ नहीं लगता, दिमागमें उलटे कचरा भरता है।
इसलिये आपलोगोंसे नम्र निवेदन है कि उपरोक्त बातोंपर ध्यान दें,नहीं तो हम सोच रहे हैं यह समूह किसी औरको सम्हलादें।
अथवा आपलोगोंको जैसा चल रहा है,वही ठीक लग रहा हो तो आपलोगोंमेंसे ही कोई इसको सम्हालनेके लिये नियुक्त हो जाइये,हमारे जँची तो हम उसको ही समूहका प्रशासक बना देंगे।

सीताराम सीताराम

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

जनकजी महाराजने सीता-स्वयंवरमें राजा दशरथजीको निमन्त्रण क्यों नहीं भेजा?

                        ॥श्रीहरि:॥

जनकजी महाराजने सीता-स्वयंवरमें राजा दशरथजीको निमन्त्रण क्यों नहीं भेजा?

किसीने पूछा है कि जनकजी महाराजने सीता-स्वयंवरमें राजा दशरथजीको निमन्त्रण क्यों नहीं भेजा?

(ऐसे प्रश्न लोग श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सत्संगके समय भी करते थे)।

उत्तरमें निवेदन है कि-

राजा जनकजीने सीता-स्वयंवरमें आनेके लिये किसीको भी निमन्त्रण नहीं भेजा था।

उन्होने तो यह प्रतिज्ञा बहुत पहले ही करली थी, जो तीनों लोकोमें प्रसिध्द हो गई थी।

जनकजी महाराजकी प्रतिज्ञा सुन-सुनकर ही सब आये थे।(स्वर्गसे देवता,पृथ्वीमण्डलसे राजागण और पाताल लोकसे राक्षस आदि मनुष्य शरीर धारण करके आये थे)।

जैसा कि रामायणके बालकाण्डके २५१ वें दोहेकी चौपाइयोंमें लिखा है-

दीप दीप के भूपति नाना।
आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा।
बिपुल बीर आए रनधीरा॥

इसके पीछे कारणस्वरूप,  मूर्खतायुक्त एक कल्पित कहानी प्रचलित है,जो कहीं लिखी हुई नहीं मिलती।पाठकोंसे निवेदन है कि उस पचड़ेके भ्रममें न पड़ें।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

मनसे एक बार रामनाम लेनेसे दसलाख रामनाम-जपका लाभ।

                       ॥श्रीहरि:॥

मनसे एक बार रामनाम लेनेसे
दसलाख रामनाम-जपका लाभ।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि साथमें चलनेवाली पूँजी है- 'भगवानका नाम लेना'।

रामनाम पूँजी पल्ले बाँधरे मन्ना।
ध्रुव बाँधी प्रह्लाद बाँधी बाँधी जाट धन्ना॥
रामनाम पूँजी पल्ले बाँधरे मना)।

अधिक जाननेके लिये कृपया यह लेख पढें-

स्त्रियोंके लिये ॐनाम लेना मना नहीं है,जप करना ही मना है। http://dungrdasram.blogspot.com/2015/10/blog-post.html


सहसनाम सम सुनि सिव बानी।
जपि जेईं पिय संग भवानी॥…

(रामचरितमा.१।१९;)।

इस प्रकार भगवानके दूसरे नामोंकी अपेक्षा रामनाम हजारगुणा ज्यादा लाभदायक हुआ।

{विधियज्ञसे जपयज्ञ दसगुणा जादा लाभदायक होता है और उपांशुजप(जो होठोंसे किया जाता है,बाहर सुनायी नहीं देता) सौगुणा तथा मानसिकजप हजारगुणा ज्यादा लाभदायक होता है-मनुस्मृति }

वो(१०००-हजारगुणा) रामनाम मुखसे एक बार उच्चारण किया जाय तो (यह जपयज्ञ होनेके कारण) दसगुणा (१००००-दसहजारगुणा) ज्यादा लाभदायक होता है।

उस रामनामका उपांशु जप किया जाय अर्थात् बाहर सुनायी न देनेवाला मुखसे रामरामका उपांशुजप किया जाय तो सौगुणा(१०००००-लाखगुणा) ज्यादा लाभदायक होता है और

मनसे(मानसिक) एक बार रामनाम लिया जाय तो हजारगुणा(१००००००-दस लाखगुणा) ज्यादा लाभदायक होता है।

इस प्रकार यह सिध्द हुआ कि कोई एक बार मनसे रामनाम ले ले तो भगवानके दसलाख रामनाम आ गये (जो कि एक-एक रामनाम हजार भगवन्नमोंके बराबर हैं), अर्थात् एक बार रामका नाम मनसे ले लिया,तो दसलाख रामनामके जप हो गये।

भगवानके दूसरे नामोंका दसलाख बार जप करना और मनसे एक बार रामनाम लेना-इन दोनोंमेंसे एकबार  रामनाम लेना अधिक लाभदायक हुआ।

चाहे दसलाख बार भगवानके दूसरे नाम लो अथवा चाहे एक बार मनसे रामनाम लो,ये दोनों एक ही बात नहीं,अधिक लाभदायक बात हुई।

इसलिये एक बार मनसे रामनाम ले लो, दसलाख जप हो गये,दसलाख रामनाम होगये।

अब हिसाब करो कि जब एक रामनाम हजार भगवन्नामोंके समान है और वो रामनाम मनसे लेनेपर हजारगुणा हो जाता है, तो कितने भगन्नाम हो गये?

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
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शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

स्त्रियोंके लिये ॐनाम लेना मना नहीं है,जप करना ही मना है।

                        ॥श्रीहरि:॥

स्त्रियोंके लिये ॐनाम लेना मना नहीं है,
जप करना ही मना है।

(किसीने लिखा है कि स्त्रियोंको ॐनाम नहिं लेना चाहिये,श्रीस्वामीजी महाराज मना करते थे;परन्तु)


श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने भगवानका ॐनाम लेनेके लिये मना नहीं किया है। 

कृपया बातको ठीक तरहसे समझें।

स्त्रियों और शूद्रोंको ॐनामका जप इसलिये मना किया गया है कि यह वैदिक-मन्त्र है।वेदका अधिकार जनऊ-संस्कार होनेके बाद ही होता है।

जनेऊ-संस्कारका अधिकार द्विजाती(ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य)मात्रको ही है।

अगर संस्कार नहीं हुआ है तो पण्डितजीका बेटाभी शूद्रतुल्य माना गया है,उनको भी वेदका अधिकार नहीं है।

यथा-

जन्मना जायते शूद्र संस्काराद्द्विज उच्यते.

इसलिये जैसे स्त्रियाँ पतिका नाम नहीं लेती,पतिका नाम अटकता है,ऐसे ॐका नाम अटकता नहीं है।

यह तो भगवानका नाम है,सभीको लेना चाहिये;पर जप उन्हीको करना चाहिये  जिन्होने संस्कार करा लिया है।

श्रध्दाभक्तिपूर्वक ॐनामके उच्चारणसे जो लाभ होता है,वही लाभ रामनामके उच्चारणसे भी हो जाता है।

एक बार रामनामका उच्चारण भगवानके दूसरे हजार नामोंके बराबर माना गया है।

एक बार श्रीशंकर भगवान बोले कि हे पार्वती! आओ, भोजन करलें।

तब श्रीपार्वतीजी बोली कि हे प्रभो! मेरे तो श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रंका पाठ करना बाकी है,(आप भोजन करलें,मैं पाठ करके बादमें भोजन कर लूंगी।वे नित्य श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रवाले भगवानके हजार नाम लेकर भोजन करती थीं)।

तब श्रीशंकर भगवान बोले कि
राम राम राम-इस प्रकार मैं तो इस मनोरम राममें ही रमण करता हूँ।
हे सुमुखी पार्वती! यह रामनाम हजार नामोंके समान है।

यथा-

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने॥
                                  (पद्मपुराण)

श्रीशंकर भगवानकी यह बात सुनकर श्रीपार्वतीजीने एक बार रामनाम लिया और शंकर भगवानके साथ ही भोजन कर लिया।

पार्वतीजीके हृदयमें रामनाम आदिके प्रेमको देखकर श्रीशंकरजीने उनको अर्ध्दांगमें (आधे अंगमें)धारण कर लिया। 

-
सहसनाम सम सुनि सिव बानी।
जपि जेईं पिय संग भवानी॥

हरषे हेतु हेरि हर हीको।
किय भूषन तिय भूषन तीको॥

(रामचरितमा.१।१९;)।

नारदजीको तो भगवानने माँगनेपर यह वरदान ही दे दिया कि रामनाम सबसे श्रेष्ठ होगा- 

राम सकल नामन्हते अधिका।
होउ नाथ अघ खगगन बधिका॥
+
एवमस्तु मुनि सन कहेउ…

(रामचरिमा.३।४२;) आदि।

इस प्रकार भगवानके दूसरे
नामोंकी अपेक्षा रामनाम सबसे बढकर है

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
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बुधवार, 23 सितंबर 2015

पति अगर सत्संगमें न जाने दें, तो क्या करें? (-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                          ॥श्रीहरि:॥

पति अगर सत्संगमें न जाने दें, तो क्या करें?

(-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

(प्रश्न-

पति अगर सत्संगमें आनेकी अनुमति न दें तो पत्निको क्या करना चाहिये?)

उत्तर-

पत्निको चाहिये कि(जिसमें) पतिका भला (हित) हो,(वो करे)

देखो! दो तरहकी सत्संग होती हैं-

एक- (१) जिसपर अपना विश्वास है,भरोसा है,ठीक तरहसे… तो वे (उस सत्)संगमें तो(जानेके लिये) हठ कर सकते हैं(उस सत्संगमें जा सकते हैं,जाना चाहिये);पर जिस {दूसरे- (२) सत्संग}में कुछ बहम हो, तो (उसमें) मत जाओ। ज्यादा (हो) तो मति(ही) जाओ आप (मत जाओ आप)।…

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके ५।१।१९९९.१६०० बजेवाले प्रवचनसे।

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सोमवार, 14 सितंबर 2015

'साधक-संजावनी'की कुछ बातें।(-लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                          ॥श्रीहरि:॥

'साधक-संजावनी'की कुछ बातें।

(-लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

भगवान्‌के सर्वथा शरण होनेवालेको भक्ति स्वतः प्राप्त होती है । (साधक-संजीवनी ४ । ११)

दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भावोंमें सबसे श्रेष्ठ शरणागतिका भाव है । (साधक-संजीवनी ४ । ११)

अपने-आपको भगवच्चरणोंमें समर्पित करनेके बाद भगवान्‌ भक्तकी पुरानी त्रुटियोंको यादतक नहीं करते । वे तो वर्तमानमें साधकके हृदयका दृढ़ भाव देखते हैं । (साधक-संजीवनी ४ । ११)

भगवान्‌के नित्य-सम्बन्धको पहचानना ही भगवान्‌के शरण होना है । (साधक-संजीवनी ४ । ११ विशेष बात)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

यदि साधक राग-द्वेषको दूर करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है, तो उसे सर्वसमर्थ परम सुहृद् प्रभुकी शरणमें चले जाना चाहिये । फिर प्रभुकी कृपासे उसके राग-द्वेष दूर हो जाते हैं (गीता ७ । १४) और परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती  (गीता १८ । ६२) । (साधक-संजीवनी ३ । ३४)

माने हुए ‘अहम्‌’-सहित शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण और सांसारिक पदार्थ सब-के-सब भगवान्‌के ही हैं‒ऐसा मानना ही भगवान्‌के शरण होना है । (साधक-संजीवनी ३ । ३४)

वह {जीव} सर्वथा भगवान्‌के शरण हो जाय तो भगवान्‌ अपनी शक्तिसे उसका अज्ञान भी मिटा सकते हैं और दर्शन भी दे सकते हैं । (साधक-संजीवनी ४ । ६)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

‘मैं भगवान्‌का हूँ और मेरी कहलानेवाली मात्र वस्तुएँ भगवानकी है’, इस प्रकार सब कुछ भगवान्‌के अर्पण कर देना चाहिये अर्थात् अपनी ममता उठा देनी चाहिये । ऐसा करनेके बाद फिर साधकको संसार या भगवान्‌से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता; क्योंकि जो उसे चाहिये, उसकी व्यवस्था भगवान्‌ स्वतः करते है । (साधक-संजीवनी ३ । ३०विशेष बात)

भगवान्‌की वस्तुको भगवान्‌की ही मानना वास्तविक अर्पण है । जो मनुष्य वस्तुओंको अपनी मानते हुए भगवान्‌के अर्पण करता है, उसके बदलेमें भगवान्‌ बहुत वस्तुएँ देते है; जैसे‒पृथ्वीमें जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलनेपर भी वह सीमित ही मिलता है । परन्तु जो वस्तुको अपनी न मानकर (भगवानकी ही मानते हुए) भगवान्‌के अर्पण करता है, भगवान्‌ उसे अपने-आपको देते है और ऋणी भी हो जाते है । (साधक-संजीवनी ३ । ३० विशेष बात)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेमके अधिकारी जीवन्मुक्त महापुरुष ही होते है । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ विशेष बात)

विपरीत-से-विपरीत अवस्थामें भी प्रेमी भक्तकी प्रसन्नता अधिक-से-अधिक बढ़ती रहती है; क्योंकि प्रेमका स्वरूप ही प्रतिक्षण वर्धमान है । (साधक-संजीवनी १८ । ६६ विशेष बात)

शरणागतिसे ही समग्रकी प्राप्ति होती है । (साधक-संजीवनी नम्र-निवेदन)

जो वचनमात्रसे भी भगवान्‌के शरण हो जाता है, भगवान्‌ उसको स्वीकार कर लेते हैं । (साधक-संजीवनी २ । १०)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों अभिन्न रहते हैं । वहाँ भिन्नता कभी हो ही नहीं सकती । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ विशेष बात)

भगवान्‌ पूर्ण है, उनका प्रेम भी पूर्ण है और परमात्माका अंश होनेसे जीव स्वयं भी पूर्ण है । अपूर्णता तो केवल संसारके सम्बन्धसे ही आती है । इसलिये भगवान्‌के साथ किसी भी रीतिसे रति हो जायगी तो वह पूर्ण हो जायगी, उसमें कोई कमी नहीं रहेगी । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ विशेष बात)

योग और वियोगमें प्रेम-रसकी वृद्धि होती है । यदि सदा योग ही रहे, वियोग न हो, तो प्रेम-रस बढ़ेगा नहीं, प्रत्युत अखण्ड और एकरस रहेगा । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ टिप्पणी)

प्रेम-रस अलौकिक है, चिन्मय है । इसका आस्वादन करनेवाले केवल भगवान्‌ ही है । प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों ही चिन्मय-तत्व होते है । कभी प्रेमी प्रेमास्पद बन जाता है और कभी प्रेमास्पद प्रेमी हो जाता है । अतः एक चिन्मय-तत्त्व ही प्रेमका आस्वादन करनेके लिये दो रूपोंमें हो जाता है । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ विशेष बात)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेमकी प्राप्ति विवेकसाध्य नहीं है, प्रत्युत विश्वाससाध्य है । विश्वासमें केवल भगवत्कृपाका ही भरोसा है । इसलिये जिसके भीतर भक्तिके संस्कार होते है, उसको भगवत्कृपा मुक्तिमें सन्तुष्ट नहीं होने देती, प्रत्युत मुक्तिके रस (अखण्डरस) को फीका करके प्रेमका रस (अनन्तरस) प्रदान कर देती है । (साधक-संजीवनी १८ । ५४ परिशिष्ट)

भगवान्‌में रति या प्रियता प्रकट होती है‒अपनेपनसे । परमात्माके साथ जीवका अनादिकालसे स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है । अपनी चीज स्वतः प्रिय लगती है । अतः अपनापन प्रकट होते ही भगवान्‌ स्वतः प्यारे लगते हैं । प्रियतामें कभी समाप्त न होनेवाला अलौकिक, विलक्षण आनन्द है । वह आनन्द प्राप्त होनेपर मनुष्यमें स्वतः निर्वकारता आ जाती है । फिर काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर आदि कोई भी विकार पैदा हो ही नहीं सकता । (साधक-संजीवनी १८ । ५५ टिप्पणी)

प्रेमकी दो अवस्थाएँ होती हैं‒(१) कभी भक्त प्रेममें डूब जाता है, तब प्रेमी और प्रेमास्पद दो नहीं रहते, एक हो जाते है और (२) कभी भक्तमें प्रेमका उछाल आता है, तब प्रेमी और प्रेमास्पद एक होते हुए भी लीलाके लिये दो हो जाते हैं । (साधक-संजीवनी १८ । ५५ परिशिष्ट)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

परमात्माको अपना माननेके सिवाय प्रेम-प्राप्तिका और कोई उपाय है ही नहीं । प्रेम यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि बड़े-बड़े पुण्यकर्मोंसे नहीं मिलता, प्रत्युत भगवान्‌को अपना माननेसे मिलता है । (साधक-संजीवनी १५ । २० अध्यायका सार)

जब साधक भक्तका भगवान्‌में प्रेम हो जाता है, तब उसको भगवान्‌ प्राणोंसे भी प्यारे लगते है । प्राणोंका मोह न रहनेसे उसके प्राणोंका आधार केवल भगवान्‌ हो जाते है । (साधक-संजीवनी १६ । ३)

विवेकपूर्वक जड़ताका त्याग करनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार शेष रह सकता है, जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं । परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार नहीं रहता; क्योंकि भक्त त्याग नहीं करता, प्रत्युत सबको भगवान्‌का स्वरूप मानता है‒‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९ । १९ ) (साधक-संजीवनी १८ । ५४ परिशिष्ट)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेम मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी चीज है ! (साधक-संजीवनी १२ । २ परिशिष्ट)

मुक्त होनेपर संसारकी कामना तो मिट जाती है, पर प्रेमकी भूख नहीं मिटती । (साधक-संजीवनी १५ । ४ परिशिष्ट)

जो मुक्तिमें नहीं अटकता, उसमें सन्तोष नहीं करता, उसको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति होती है‒‘मद्‌भक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८ । ५४) (साधक-संजीवनी १५ । ४ परिशिष्ट)

मात्र जीव परमात्माके अंश हैं, इसलिये मात्र जीवोंकी अन्तिम इच्छा प्रेमकी ही है । प्रेमकी इच्छा सार्वभौम इच्छा है । प्रेमकी प्राप्ति होनेपर मनुष्यजन्म पूर्ण हो जाता है, फिर कुछ बाकी नहीं रहता । (साधक-संजीवनी १५ । ७ परिशिष्ट)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है । उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग--इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है । उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी है‒इसका खयाल नहीं रहता । वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं । (साधक-संजीवनी अध्याय ७ । १८)

प्रेमी भक्तकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही, प्रत्युत केवल भगवान्‌ ही रहे अर्थात् प्रेमीके रूपमें साक्षात् भगवान्‌ ही हैं‒‘तस्मिंतज्जने भेदाभावात्’ (नारद॰ ४१) । (साधक-संजीवनी ७ ।१८, परिशिष्ट भाव)

उस {महात्मा भक्त} का भगवान्‌के साथ आत्मीय सम्बन्ध हो जाता है, जिससे प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति (जागृति) हो जाती है । इस प्रेमकी जागृतिमें ही मनुष्यजन्मकी पूर्णता है । (साधक-संजीवनी ७ ।३०, अध्यायका सार)

भगवान्‌ ही मेरे हैं ओर मेरे लिये हैं‒इस प्रकार भगवान्‌में अपनापन होनेसे स्वतः भगवान्‌में प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता है, उसका स्मरण अपने-आप और नित्य-निरन्तर होता है । (साधक-संजीवनी ८ ।१४ परिशिष्ट भाव)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

सन्तोंकी वाणीमें आता है कि प्रेम तो केवल भगवान्‌ ही करते है, भक्त केवल भगवान्‌में अपनापन करता है । कारण कि प्रेम वही करता है, जिसे कभी किसीसे कुछ भी लेना नहीं है । भगवान्‌ने जीवमात्रके प्रति अपने-आपको सर्वथा अर्पित कर रखा है और जीवसे कभी कुछ भी प्राप्त करनेकी इच्छाकी कोई सम्भावना ही नहीं रखी है । इसलिये भगवान्‌ ही वास्तवमें प्रेम करते हैं । जीवको भगवान्‌की आवश्यकता है, इसलिये जीव भगवान्‌से अपनापन ही करता (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १६)

जब भक्त सर्वथा निष्काम हो जाता है अर्थात् उसमें लौकिक-पारलौकिक किसी तरहकी भी इच्छा नहीं रहती, तब उसमें स्वतःसिद्ध प्रेम पूर्णरूपसे जाग्रत् हो जाता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १६)

प्रेम कभी समाप्त भी नहीं होता; क्योंकि वह अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है । प्रतिक्षण वर्धमानका तात्पर्य है कि प्रेममें प्रतिक्षण अलौकिक विलक्षणताका अनुभव होता रहता है अर्थात् इधर पहले दृष्टि गयी ही नहीं, इधर हमारा खयाल गया ही नहीं, अभी दृष्टि गयी—इस तरह प्रतिक्षण भाव और अनुभव होता रहता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ ।१७)

'वासुदेव: सर्वम्' का अनुभव होनेपर फिर भक्त और भगवान्‌—दोनोंमें परस्पर प्रेम-ही-प्रेम शेष रहता है । इसीको शास्त्रोंमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम, अनन्तरस आदि नामोंसे कहा गया है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १७, परिशिष्ट भाव)

प्रेममें प्रेमी अपने-आपको प्रेमास्पदपर न्योछावर कर देता है अर्थात् प्रेमी अपनी अलग सत्ता नहीं मानता । ऐसे ही प्रेमास्पद भी स्वयं प्रेमीपर न्योछावर हो जाते है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १८)

ज्ञानमार्गका जो अद्वैतभाव है, वह नित्य-निरन्तर अखण्डरूपसे शान्त, सम रहता है । परन्तु प्रेमका जो अद्वैतभाव है, वह एक-दूसरेकी अभिन्नताका अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है । प्रेमका अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो है और दो होते हुए भी एक है । इसलिये प्रेम-तत्त्व अनिर्वचनीय है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १८)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वत: एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है, जिसको 'प्रेम' कहते है । जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह 'प्रेम' दब जाता है और 'काम' उत्पन्न हो जाता है । जबतक 'काम' रहता है, तबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता । जबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता, तबतक 'काम' का सर्वथा नाश नहीं होता । (साधक-संजीवनी, अध्याय ३ । ४२ मार्मिक बात)

अहंकार-रहित होकर निःस्वार्थभावसे कहीं भी प्रेम किया जाय, तो वह प्रेम स्वत: प्रेममय भगवानकी तरफ चला जाता है । कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेममें बाधा लगाता है । इन दोनोंके कारण मनुष्यका प्रेमभाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करनेपर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ४ । ११ विशेष बात)

जो अन्तरात्मासे भगवान्‌में लग जाता है, भगवान्‌के साथ ही अपनापन कर लेता है, उसमें भगवत्प्रेम प्रकट हो जाता है । वह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है तथा सापेक्ष वृद्धि, क्षति और पूर्तिसे रहित है । (साधक-संजीवनी, अध्याय६ । ४७)

एकमात्र प्रेम ही ऐसी चीज है, जिसमें कोई भेद नहीं रहता । प्रेमका भेद नहीं कर सकते । प्रेममें सब एक हो जाते है । ज्ञानमें तत्वभेद तो नहीं रहता, पर मतभेद रहता है । प्रेममें मतभेद भी नहीं रहता । अतः प्रेमसे आगे कुछ भी नहीं है । प्रेमसे त्रिलोकीनाथ भगवान्‌ भी वशमें हो जाते हैं । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १० परिशिष्ट भाव, टिप्पणी)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

भगवान्‌ विद्या, बुद्धि, योग्यता, सामर्थ आदिसे जाननेमें नहीं आते, प्रत्युत जिज्ञासुके श्रद्धा-विश्वाससे एवं भगवत्कृपासे ही जाननेमें आते हैं । (साधक-संजीवनी, अध्याय १० । २ परिशिष्ट भाव)

भगवान्‌को अपनी शक्तिसे कोई नहीं जान सकता, प्रत्युत भगवान्‌की कृपासे ही जान सकता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय १० । १४ परिशिष्ट भाव)

साधक जिसको अपना मान लेता है, उसमें उसकी प्रियता स्वत: हो जाती है । परन्तु वास्तविक अपनापन उस वस्तुमें होता है, जिसमें ये चार बातें हों‒
1) जिससे हमारी सधर्मता अर्थात् स्वरूपगत एकता हो ।
2) जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नित्य रहनेवाला हो ।
3) जिससे हम कभी कुछ न चाहें ।
4) हमारे पास जो कुछ है, वह सब जिसको समर्पित कर दें । ये चारों बातें भगवान्‌में ही लग सकती हें । (साधक-संजीवनी, अध्याय २ । ३० परिशिष्ट भाव)

संसारके किसी एक विषयमें 'राग' होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है, पर भगवान्‌में 'प्रेम' होनेसे संसारसे वैराग्य होता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ३ । ३४)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

भगवान्‌ने मनुष्यको (अपना उद्धार करनेकी) बहुत स्वतन्त्रता दी है, छूट दी है कि किसी तरहसे उसका कल्याण हो जाय । यह भगवान्‌की मनुष्यपर बहुत विशेष कृपा है ! (साधक-संजीवनी, अध्याय ८ । ५ परिशिष्ट भाव)

भगवान्‌के सभी न्याय कानून दयासे परिपूर्ण होते हैं । (साधक-संजीवनी, अध्याय ८ । ६)

जब उसके (भक्तके) सामने अनुकूल परिस्थिति आती है, तब वह उसमें भगवान्‌की ‘दया’ को मानता है और जब प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तब वह उसमें भगवान्‌की ‘कृपा’ को मानता है । दया और कृपामें भेद यह है कि कभी भगवान्‌ प्यार, स्नेह करके जीवको कर्मबन्धनसे मुक्त करते है‒यह ‘दया’ है और कभी शासन करके, ताड़ना करके उसके पापोंका नाश करते है‒यह ‘कृपा’ है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ९ । २८ विशेष बात)

भगवान्‌ सब प्राणियोंमें समानरूपसे व्यापक हैं, परिपूर्ण हैं । परन्तु जो प्राणी भगवान्‌के सम्मुख हो जाते हैं, भगवान्‌का और भगवान्‌की कृपाका प्राकट्य उनमें विशेषतासे हो जाता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ९ । २९)

मेरा (भगवान्‌का) किया हुआ विधान चाहे शरीरके अनुकूल हो, चाहे प्रतिकूल हो, मेरे विधानसे कैसी ही घटना घटे, उसको मेरा दिया हुआ प्रसाद मानकर परम प्रसन्न रहना चाहिये । अगर मनके प्रतिकूल-से-प्रतिकूल घटना घटती है, तो उसमें मेरी विशेष कृपा माननी चाहिये; क्योंकि उस घटनामें उसकी सम्मति नहीं है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ९ । ३४)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

भगवान्‌के समग्ररूपको भगवान्‌की कृपासे ही जाना जा सकता है, विचारसे नहीं (गीता १० । ११) ।.......जैसे दूध पिलाते समय गाय अपने बछड़ेको स्नेहपूर्वक चाटती है तो उससे बछड़ेकी जो पुष्टि होती है, वह केवल दूध पीनेसे नहीं होती । ऐसे ही भगवान्‌की कृपासे जो ज्ञान होता है, वह अपने विचारसे नहीं होता; क्योंकि विचार करनेमें स्वयंकी सत्ता रहती है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । ३ परिशिष्ट भाव)

भगवान्‌ प्राणिमात्रके लिये सम हैं । उनका किसी भी प्राणीमें राग-द्वेष नहीं होता (गीता ९ । २९) । दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवान्‌के द्वेषका विषय नहीं है । सब प्राणियोंपर भगवान्‌का प्यार और कृपा समान ही है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १५ विशेष बात)

मनुष्यजन्ममें सत्संग मिल जाय, गीता-जैसे ग्रन्थसे परिचय हो जाय, भगवन्नामसे परिचय हो जाय तो साधकको यह समझना चाहिये कि भगवान्‌ने बहुत विशेषतासे कृपा कर दी है अतः अब तो हमारा उद्धार होगा ही....परन्तु ‘भगवान्‌की कृपासे उद्धार होगा ही’‒इसके भरोसे साधन नहीं छोड़ना चाहिये, प्रत्युत तत्परता और उत्साहपूर्वक साधनमें लगे रहना चाहिये । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १९ )

सर्वथा भगवत्तत्त्वका बोध तो भगवान्‌की कृपासे ही हो सकता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । २५)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

मानवशरीरका मिलना, साधनमें रुचि होना, साधनमें लगना, साधनका सिद्ध होना‒ये सभी भगवान्‌की कृपापर ही निर्भर हैं । परन्तु अभिमानके कारण मनुष्यका इस तरफ ध्यान कम जाता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय २ । ६१)

साधुओंका परित्राण करनेमें भगवान्‌की जितनी कृपा है, उतनी ही कृपा दुष्टोंका विनाश करनेमें भी है ! विनाश करके भगवान्‌ उन्हें शुद्ध, पवित्र बनाते हैं । (साधक-संजीवनी, अध्याय ४ । ८)

भगवान्‌का  आस्तिक-से-आस्तिक व्यक्तिके प्रति जो स्नेह है, कृपा है, वैसा ही स्नेह, कृपा नास्तिक-से-नास्तिक व्यक्तिके प्रति भी है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ४ । ११ परिशिष्ट भाव)

भगवान्‌के स्वभावमें ‘यथा-तथा’ होते हुए भी जीवपर उनकी बड़ी भारी कृपा है; क्योंकि कहाँ जीव और कहाँ भगवान्‌ !.......फिर भी वे जीवको अपना मित्र बनाते हैं, उसको अपने समान दर्जा देते हैं ! भगवान्‌ अपनेमें बड़प्पनका भाव नहीं रखते‒यह उनकी महत्ता है । (साधक-संजीवनी, अध्यान ४ । ११ परिशिष्ट भाव)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

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