वर्णसंकरके विषयमें 'साधक-संजीवनी (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) गीता'के इन श्लोकोंकी व्याख्या पढनेका परिश्रम करावें-1/41'42: 3/24; ।
पापमुक्तिकी बात 18/66 में देखें और भक्तकी बात 4/3;18/58,59 में देखें।
सीताराम
इस जगतमें अगर संत-महात्मा नहीं होते, तो मैं समझता हूँ कि बिलकुल अन्धेरा रहता अन्धेरा(अज्ञान)। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजीमहाराज की वाणी (06- "Bhakt aur Bhagwan-1" नामक प्रवचन) से...
सोमवार, 24 मार्च 2014
वर्णसंकरका विषय
शनिवार, 1 मार्च 2014
सत्संग - स्वामी रामसुखदासजी महाराज
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका सत्संग ( SATSANG GITA AADI -S.S.S.RAMSUKHDASJI MAHARAJ ) और गीता-पाठ, गीता-गान(सामूहिक आवृत्ति,साफ आवाज वाली रिकार्डिंग ), गीता-माधुर्य(उन्हीकी आवाजमें), गीता-व्याख्या(करीब पैंतीस कैसेटोंका सेट), 'कल्याणके तीन सुगम मार्ग'[नामक पुस्तककी उन्हीके द्वारा व्याख्या], नानीबाईका माहेरा, भजन, कीर्तन, पाँच श्लोक(गीता ४/६-१०), तथा नित्य-स्तुति, गीता, सत्संग(-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके 71 दिनोंका सत्संग-प्रवचनोंका सेट), मानसमें नाम-वन्दना, राम-कथामें सत्संग आदि तथा इनके सिवाय और भी सामग्री आप यहाँ(के इन पते-ठिकानों ) से मुफ्तमें-निशुल्क प्राप्त करें-
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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014
आश्चर्ययुक्त भगवानकी चेष्टा।
(श्री मद्भागवत-)
अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितं
घ्नन्तं जनोऽयं हि मिषन्न पश्यति ।
ध्यायन्नसद्यर्हि विकर्म सेवितुं
निर्हृत्य पुत्रं पितरं जिजीविषति ॥ ५-१८-३ ॥
वदन्ति विश्वं कवयः स्म नश्वरं
पश्यन्ति चाध्यात्मविदो विपश्चितः ।
तथापि मुह्यन्ति तवाज मायया
सुविस्मितं कृत्यमजं नतोऽस्मि तम् ॥ ५-१८-४ ॥
सोमवार, 20 जनवरी 2014
÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ७०-८० तक.
||श्री हरिः||
÷सूक्ति-प्रकाश÷
(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि).
सूक्ति-संख्या ७०-८० तक.
सूक्ति-७१.
पाणी पीजै छाणियो,गुरु कीजै जाणियो.
शब्दार्थ-
जाणियो(जाना-पहचाना हुआ ).
सूक्ति-७२.
गुरु लोभी सिख लालची दौनों खेले दाँव |
दौनों डूबा परसराम बैठि पथरकी नाव ||
- ÷ -
.आँधे केरी डाँगड़ी आँधे झेली आय |
दौनों डूबा … ?… …काळकूपके माँय ||
सूक्ति-७३.
जाणकारको जायकै मारग पूछ्यो नाँय |
जन 'हरिया' जाण्याँ बिना आँधा ऊजड़ जाय ||
शब्दार्थ-
ऊजड़ (बिना रास्ते,जंगलमें ).
सूक्ति-७४.
कह,गुरुजी ! बिल्ली आगी (घरमें ).
कह, आडो बन्द* करदे .
शब्दार्थ-
आडो बन्द करदे ( किंवाड़ बन्द करदे - यहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं और दूसरी जगह जा सकेगी नहीं;)
*आजकल भी जो आकर चेला बन जाते हैं ,उनको गुरुजी आज्ञा दे-देते हैं कि दूसरी जगह सुनने मत जाना,तो उस शिष्यकी भी दशा उस बिल्लीकी तरह होती है कि वहाँ तो कुछ (परमात्म-तत्त्व )मिलता नहीं और दूसरी जगह जा सकते नहीं |
सूक्ति-७५.
आकोळाई ढाकोळाई,पाँचूँ रूंखाँ एक तळाई.
दै रे चेला धौक, कह रुपयो धरदे रोक.
सूक्ति-७६.
कान्यो-मान्यो कुर्र्र्र्र् , कह तूँ चेलो अर हूँ (मैं) गुर्र्र्र्र .
शब्दार्थ-
हूँ (मैं,स्वयं ).
सूक्ति-७७.
(कोई) मिलै हमारा देसी,गुरुगमरी बाताँ केहसी .
शब्दार्थ-
केहसी (कहेगा ).
सूक्ति-७८.
कह,मिल्यो कोनि कोई काकीरो जायो .
सूक्ति-७९.
कह,ओ तो म्हारे खुणींरो हाड है .
शब्दार्थ-
खुणीं (कोहनी,कोहनीकी हड्डी मजबूत,बड़े कामकी और प्रिय होती है ; अपने भाई आदि नजदीक-सम्बन्धीके लिये कहा जाता है कि 'यह तो मेरे कोहनीकी हड्डी है').
सूक्ति-८०.
कह, किणरी माँ सूंठ खाई है ! .
(सूंठ खानेवाली माँ का दूध तेज होता है; ऐसे ही धनियाँके लड्डू खानेवाली माँ के दूध बढ जाता है और जिस मनुष्यके गला बड़ा होता है,कोई चीज आसानीसे निगल ली जाती है , तो उसकी माँके दूध ज्यादा , पर्याप्त आता था (यह पहचान मानी जातीहै ).|
रविवार, 19 जनवरी 2014
÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ६१-७० तक.
||श्री हरिः||
÷सूक्ति-प्रकाश÷
(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ६१-७० तक.
सूक्ति-६१.
तनकी भूख इतनी बड़ी आध सेर या सेर |
मनकी भूख इतनी बड़ी निगल जाय गिरि मेर ||
शब्दार्थ-
निगल जाय (गिट जाय,मुखमें समालेना, बिना चबाये पेटमें लै जाना ).गिरि मेर (सुमेरु पर्वत ).
सूक्ति-६२.
मृग मच्छी सज्जन पुरुष रत तृन जल संतोष |
ब्याधरु धीवर पिसुनजन करहिं अकारन रोष ||
शब्दार्थ-
रत (लगे रहते हैं ) ब्याध (मृग मारनेवाला,शिकारी ).धीवर (मच्छली पकड़नेवाला ).पिसुनजन (चुगली करनेवाले,निन्दा करनेवाले ).
सूक्ति-६३.
जो जाके शरणै बसै ताकी ता कहँ लाज |
उलटे जल मछली चढै बह्यो जात गजराज ||
शब्दार्थ-
उलटे जल… (ऊपरसे परनाल आदिकी गिरती हुई धाराके सामने चढ जाना,उसीके सहारे ऊपर चढ जाना ).
सूक्ति-६४.
…[माया] गाडी जिकी गमाणी |
बीस करोड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी ||
खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||
कथा-
अजमेरके राजाजीके भाईका नाम बीसळदेव था | दौनों भाई परोपकारी थे | राजाजी रोजाना एक आनेकी सरोवरसे मिट्टी बाहर निकलवाते थे (सरोवर खुदानेका,उसमें पड़ी मिट्टी बाहर निकालनेका बड़ा पुण्य होता है ).ऐसे रोजाना खुदाते-खुदाते वो 'आनासागर'(बड़ा भारी तालाब) बन गया,जो अभी तक भी है | बीसळदेवजीने विचार किया कि मैं तो एक साथ ही बड़ा भारी दान, पुण्य करुँगा (एक-एक आना कितनीक चीज है ) और धन-संचय करने लगे | करते-करते बीस करोड़से ज्यादा हो गया;किसी महात्माने उनको एक ऐसी जड़ी-बूंटी दी थी कि उसको साथमें लेकर कोई पानीमें भी चलै तो पानी उसे रास्ता दे-देता था;उस जड़ीकी सहायतासे बीसळदेवजीने वो बीस करोड़वाला धन गहरे पानीमें लै जाकर सुरक्षित रखा | संयोगवश उनकी रानी मर गई; तब दूसरा विवाह किया (कुछ खर्चा उसमें हो गया ); जब दूसरी रानी आई तो उसने देखा कि राजा पहलेवाली रानीके पसलीवाली हड्डीकी पूजा कर रहे हैं (वो जड़ी ही पसलीकी हड्डी जैसी मालुम पड़ रही थी ) ; रानीने सोचा कि पहलेवाली रानीमें राजाका मोह रह गया | इसलिये जब तक यह हड्डी रहेगी,तब तक राजाका प्रेम मेरेमें नहीं होगा ; ऐसा सोचकर रानीने उस हड्डीके समान दीखनेवाली बूंटीको पीसकर उड़ा दिया | राजाने पूछा कि यहाँ मेरी बूंटी थी न ! क्या हुआ ? तब रानी बोली कि वो बूंटी थी क्या ? मैंने तो उसको पीसकर उड़ा दिया | अब राजा क्या करे , उस बूंटीकी सहायताके बिना वो उस गहरे पानीके अन्दर जा नहीं सकते थे; इसलिये बीस करोड़की सम्पति उस गहरे पानीमें ही रह गयी ; इसलिये कहा गया कि माया को जो यह गाड़ना है वह उसको गमाना ही है-
…गाडी जिकी गमाणी |
बीस करोड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी ||
सूक्ति-६५.
खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||
सूक्ति-६६.
खादो सोई ऊबर्यो दीधो सोई साथ |
'जसवँत' धर पौढाणियाँ माल बिराणै हाथ ||
शब्दार्थ-
खादो (जो खा लिया ).ऊबर्यो (उबर गया,बच गया ).दीधो (जो दै दिया ).
कथा-
एक राजाने सोचा कि मेरे इतने प्रेमी लोग है,इतनी धन-माया है ; अगर मैं मर गया तो पीछे क्या होगा ? यह देखनेके लिये राजाने [विद्याके प्रभावसे] श्वासकी गति रोकली और निश्चेष्ट हो गये ; लोगोंने समझा कि राजा मर गये और उन्होने राजाको जलानेसे पहले धन-मायाकी व्यवस्था करली,कीमती गहन खोल लिये,कपड़े उतार लिये,एक सोनेका धागा गलेमेंसे निकालना बाकी रह गया था,तो उसको तोड़ डालनेके लिये पकड़कर खींचा,तो वो धागा चमड़ीको काटता हुआ गर्दनमें धँस गया गया,तो भी राजा चुप रहे; फिर पूछा गया कि कोई चीज बाकी तो नहीं रह गयी ? इतनेमें दिखायी पड़ा कि राजाके दाँतोंमें कीमती नग (हीरे आदि) जड़े हुए हैं और वो निकालने बाकी है,औजारसे निकाल लेना चाहिये; कोई बोला कि अब मृत शरीरमें पीड़ा थोड़े ही होती है,पत्थरसे तोड़कर निकाल लो ; राजाकी डोरा (सोनेका धागा ) तोड़नेके प्रयासमें कुछ गर्दन तो कट ही गयी थी ,अब राजाने देखा कि दाँत भी टूटनेवाले है; तब राजाने श्वास लेना शुरु कर दिया; लोगोंने देखा कि राजाके तो श्वास चल रहे हैं,हमने तो इनको मरा मान कर क्या-क्या कर दिया ; कह, घणी खमा, घणी खमा (क्षमा कीजिये,बहुत क्षमा कीजिये). | अब राजा देख चूके थे कि मेरे प्रेमी कैसे हैं और क्या करते हैं तथा धनकी क्या गति होती है | उन्होने आदेश और उपदेश दिया कि धन संग्रह मत करो, काममें लो और दूसरोंकी भलाई करो; दान,पुण्य आदि करना हो तो स्वयं अपने हाथसे करलो (तो अपना है); नहीं तो बिना दिये ये सोना,चाँदी आदि मरनेपर साथमें नहीं जाते;ऐसा नहीं देखा गया है कि बिना दिये सोना चाँदी साथमें चले गये हों ; इसलिये कहा गया कि - खादो सोई …माल बिराणै हाथ || (कोई कहते हैं कि ये जसवँतसिंहजी जोधपुर नरेश स्वयं थे,जो कवि भी थे )|
सूक्ति-६७.
दीया जगमें चानणा दिया करो सब कोय |
घरमें धरा न पाइये जौ कर दिया न होय ||
शब्दार्थ-
दीया (दीपक,दिया हुआ,दान).कर दिया न…(हाथसे दिया न हो,हाथमें दीपक न हो… तो घरमें रखी हुई चीज भी नहीं मिलती,न यहाँ मिलती है, न परलोकमें मिलती है ).
सूक्ति-६८.
माँगन गये सो मर चुके(मर गये) मरै सो माँगन जाय |
उनसे पहले वो मरे जो होताँ [थकाँ] ही नट जाय ,
उनसे पहल वो मरे होत करत जे नाहिं ||
सूक्ति-६९.
आँधे आगे रोवो, अर नैण गमाओ .
सूक्ति-७०.
जठे पड़े मूसळ ,बठे ही खेम कुसळ.
शनिवार, 18 जनवरी 2014
÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ५१-६० तक
||श्री हरिः||
÷सूक्ति-प्रकाश÷
(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ५१-६० तक.
सूक्ति-५१.
आखी गुञ्ज न आखिये होइ जो मित्र सुप्यार |
दूधाँ सेती पित्त पड़े आधी आधी बार ||
भावार्थ-
अगर अपना अच्छा,प्यारा मित्र हो तो भी अपनी रहस्यकी सारी गुप्त बातें तो उनसे भी नहीं कहनी चाहिये ; (क्योंकि उन शत(सौ)-प्रतिशत बातोंमें से पचास प्रतिशत हानि हो जाती है | जैसे,किसीको भरपेट दूध पिलाया जाता है तो) दूधसे भी आधी आधी बार(सौ बारमेंसे आधी-पचास बार) पित्त पड़ जाता है .
सूक्ति-५२.
आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय |
देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||
भावार्थ-
अपनोंको छोड़ कर परायोंमें बसनेसे और स्त्रीको गुप्त रहस्य बतानेसे पुँडरीक नागको देखो कि वह (गरुड़जीके) पैरोंमें बुरी तरहसे लूंबता,लटकता जा रहा है .
शब्दार्थ-
बिड़ बसण (परायोंमें बसना).गुञ्ज (रहस्यकी बात).
कथा-
एक 'पुँडरीक' नामका नाग गरुड़जीके डरसे (दूसरा रूप धारण करके) कहीं जाकर रहने लग गया (वहाँ विवाह भी कर लिया,परन्तु यह रहस्य किसको भी नहीं बताया था)| एक बार नागपञ्चमीके दिन उस नागकी पत्नि नागदेवताकी पूजा करनेके लिये कहीं जाने लगी तो पुँडरीक नागके पूछने पर उसने बताया कि नागदेवताकी पूजा करने जा रही हूँ | तब
उसने हँसकर बताया कि वो तो मैं ही हूँ , जब मैं साक्षात नाग तुम्हारा पति हूँ और यहाँ मौजूद हूँ तो किसकी पूजा करने जा रही हो? यह सुनकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ | नागने कहा कि यह बात किसीको भी बताना मत; परन्तु उसकी पत्निके यह बात खटी नहीं और अपनी पड़ोसिनको बतीदी तथा मना कर दिया कि वो किसीको न बतावे; उसके भी वो बात खटी नहीं और उसने आगे बतादी | इस प्रकार चलते-चलते यह बात गरुड़जीके पास पहुँच गयी और गरुड़जी तो उसको खोज ही रहे थे | तब गरुड़जी वहाँ आये और पुँडरीक नागको पकड़ कर लै गये (पंजोंसे उसको पकड़ कर उड़ गये)| इसलिये कहा गया कि-
आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय |
देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||
सूक्ति-५३.
पत्र देणों परदेसमें मित्रसे होय मिलाप |
देरी होय दिन दोयकी तो करणो पड़े कलाप ||
सूक्ति-५४.
*नासत दूर निवारज्यो आसत राखो अंग |
कलि झोला बहु बाजसी रहज्यो एकण रंग ||
शब्दार्थ-
नासत (नास्तिकता-ईश्वरको न मानना).आसत (आस्तिकता-ईश्वरको मानना).झोला (एक प्रकारकी हवा,जिससे खेती जल जाती है).
(*यह दोहा श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके गुरुजीने किसीको पत्र लिखवाते समय पत्रमें लिखवाया था ).
सूक्ति-५५.
राम(२) नाम संसारमें सुख(३)दाई कह संत |
दास(४) होइ जपु रात दिन साधु(१)सभा सौभन्त ||
खुलासा-
(इस दोहेकी रचना स्वयं श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने की है,इसमें महाराजजीने परोक्षमें अपना नाम-(१)साधू (२)राम(३)सुख(४)दास लिखा है |
सूक्ति-५६.
आसाबासीके चरन आसाबासी जाय |
आशाबाशी मिलत है आशाबाशी नाँय ||
इस दोहेकी रचना करके श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने इस दोहेमें (रहस्ययुक्त) अपने विद्यागुरु श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजका नाम लिखा है और उनका प्रभाव बताया है |
शब्दार्थ-
आसा (दिग,दिसाएँ).बासी (वास,वस्त्र,अम्बर).आसाबासी (बसी हुई आशा).आशाबाशी (आ-यह,शाबाशी-प्रशंसायुक्त वाह वाही).आशाबाशी (बाशी आशा अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं रहती,तुरन्त मिटती है ,बाकी नहीं रहती).
भावार्थ-
विद्यागुरु १००८ श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजके चरणोंकी शरण ले-लेनेसे से मनमें बसी हुई आशा चली जाती है और यह शाबाशी मिलती है (कि वाह वा आप आशारहित हो गये -चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह | जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह -बादशाहोंका भी बादशाह हो जाता है,वो आप होगये,शाबाश | ) आशा बाशी नहीं रहती , अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं हो जाती,गुरुचरण कमलोंके प्रभावसे तुरन्त मिटती है,बाकी नहीं रहती ,दु:खोंकी कारण आशाके मिट जानेसे फिर आनन्द रहता है-ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह| सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ).|
विद्यागुरु श्री दिग्(आशा)+अम्बर(बासी,वास)+आनन्द(आ शाबाशी,आशाबाशी नाँय)-दिगम्बरानन्दजी महाराज |
शिष्य श्री साधू रामसुखदासजी महाराज-
रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत |
दास होइ जपु रात दिन साधु सभा सौभंत ||
इसके अलावा श्री स्वामीजी महाराजने एक दोहा कवि शालगरामजी सुनारके विषयमें बनाया था,(उनकी पुत्रीका नाम मोहनी था)जो इस प्रकार है-
सूक्ति-५६.
तो अरु मोहन देह मोहनसे मोहन कहे |
मोहनसे करु नेह मोहन मोहन कीजिये ||
भावार्थ-
तेरा(तो) और मेरा (मो+) मिटादो(+हन देह), भगवानका नाम मोहन मोहन कहनेसे (भगवान्नाम लेनेसे) मोह नष्ट हो जाता है (मोह नसे),भगवान (मोहन) से प्रेम करो और उनको पुकारो (मोहन मोहन कीजिये).
सूक्ति-५७.
राम भगति भूषण रच्यो साळग सुबरनकार |
हरिजन अरिजन दोउ मिलि मानेंगे हियँ हार ||
भावार्थ-
कवि शाळगरामजी सुनारने 'रामभक्ति भूषण'नामक ग्रंथकी है,जिसके कारण हरिजन (रामभक्त) और अरिजन (रामविमुख,शत्रु) - दौनों मिल कर हृदयमें हार मानेंगे (रामभक्त तो इसको कीमती हारके समान मानेंगे और रामविमुख हृदयसे हार मान लेंगे,हार जायेंगे ).
सूक्ति-५८.
चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह |
जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह ||
शब्दार्थ-
शाहनपति(बादशाह).शाहनपति शाह (बादशाहोंका भी बादशाह ).'बेपरवाह'माने दूसरी वस्तुओंके बिना तो काम चल सकता है;परन्तु अन्न,जल वस्त्र,औषध आदि तो चाहिये ही !- इसको 'परवाह' कहते हैं इस चिन्ताका भी त्याग कहलाता है- 'बेपरवाह' |
सूक्ति-५९.
ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह |
सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ||
(तृष्णारूपी आगका वर्णन आगेकी सूक्तिमें पढें )|
सूक्ति-६०.
जौं दस बीस पचास भयै सत होइ हजार तौ लाख मँगैगी |
कोटि अरब्ब खरब्ब भयै पृथ्वीपति होनकी चाह जगैगी ||
स्वर्ग पतालको राज मिलै तृष्णा अधिकी अति आग लगैगी |
'सुन्दर'एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगैगी ||
÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ४१-५० तक.
||श्री हरिः||
÷सूक्ति-प्रकाश÷
(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ४१-५० तक.
सूक्ति-४१.
पीर तीर चकरी पथर और फकीर अमीर |
जोय-जोय राखो पुरुष ये गुण देखि सरीर ||
भावार्थ-
काम करनेवाले (नौकर अथवा सेवक) छः प्रकारके होते हैं -
१)पीर -इसे कोई काम कहें तो यह उस बातको काट देता है, २)तीर -इसे कोई काम कहें तो तीरकी तरह भाग जाता है,फिर लौटकर नहीं आता,३)चकरी-यहचक्रकी तरह चट काम करता है,फिर लौटकर आता है,फिर काम करता है|यह उत्तम नौकर होताहै,४)पथर-यह पत्थरकी तरह पड़ा रहता है,कोई काम नहीं करता,५)फकीर-यह मनमें आये तो काम करता है अथवा नहीं करता,६)अमीर-इसे कोई काम कहें तो खुद न करके दूसरेको कह देता है|
(इसलिये मनुष्यको सेवकमें ये गुण देखकर रखना चाहिये)|
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी पुस्तक 'अनन्तकी ओर'से (इसका यह अर्थ लिखा गया).
सूक्ति-४२.
बहुत पसारा मत करो कर थोड़ेकी आस |
बहुत पसारा जिन किया तेई गये निरास ||
शब्दार्थ- पसारा(विस्तार).
सूक्ति-४३.
साधू होय संग्रह करै दूजै दिनको नीर |
तिरै न तारै औरको यूँ कहै दास कबीर ||
सूक्ति-४४.
जोरि-जोरि धन कृपनजन मान रहै मन मोद |
मधुमाखी ज्यूँ मूढ मन गिरत कालकी गोद ||
शब्दार्थ- कृपनजन(कंजूस व्यक्ति).मोद (हर्ष).
सूक्ति-४५.
कबिरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय |
यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखौ आय ||
शब्दार्थ- पट्टन( .नगर).
सूक्ति-४६.
सब जग डरपै मरणसे मेरे मरण आनन्द |
कब मरियै कब भेटियै पूरण परमानन्द ||
शब्दार्थ- कब मरियै (कब मरें !). भेटियै (मिलें,प्राप्त करें ).
सूक्ति-४७.
जहाँमें जब तू आया सभी हँसते तू रोता था |
बसल कर जिन्दगी ऐसी सभी रोवै तू हँसता जा ||
शब्दार्थ- जहाँमें (जगतमें).
सूक्ति-४८.
बैठोड़ैरे ऊभोड़ो पावणों
सूक्ति-४९.
कपटी मित्र न कीजिये पेट पैठि बुधि लेत |
आगै राह दिखायकै पीछै धक्का देत ||
शब्दार्थ- पैठि (प्रवेश करके).
सूक्ति-५०.
तब लगि सबही मित्र है जब लगि पड़्यो न काम |
हेम अगिनि सुध्द होत है पीतल होत है स्याम ||
शब्दार्थ- हेम (सोना).स्याम (काला).