शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

बेळाँरा बायौड़ा मोती नीपजे(सूक्ति-प्रकाश,श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि)।

                 ।।श्रीहरि।।

बेळाँरा बायौड़ा मोती नीपजे।

(सूक्ति-प्रकाश,श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि)।

सूक्ति-०२.

बेळाँरा बायोड़ा मोती नीपजे|

शब्दार्थ-

बेळाँ(समय).

अर्थ-

समय (अवसर) पर बोया हुआ मोती उत्पन्न होता है|

भावार्थ-

समय पर जो काम किया जाता है,वो बहुुत कीमती होता है| जब वर्षा होती है तब खेती करनेवाले जल्दी ही बीज बोनेकी कोशीश करते हैं और कहते हैं कि देर मत करो;गीली,भीगी हुई धरतीमें बीज बो दोगे तो मोतीके के समान कीमती और बढिया फसल होगी|
अगर एक-दो दिनकी भी देरी करदी जाय,तो वैसी फसल नहीं होती;ज्यों-ज्यों देरी होती है,त्यों-त्यों कम होती जाती है|

इसी प्रकार भगवद्भजन,सत्संग आदि शुभ कामोंमें भी देरी नहीं करनी चाहिये|समय पर करनेसे बहुत बड़ा लाभ (परमात्मप्राप्तिका अनुभव) हो जायेगा|

सूक्ति-३.

घेरा घाल्या नींदड़ी, अर भागण लागा अंग|
साधराम अब सो ज्यावो राँड बिगाड़्यो रंग||

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

बुधवार, 28 जनवरी 2015

[रातमें] दूजा सोवे,अर साधू पोवे(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि)।

                  ।।श्रीहरि:।।

 2
 
                       ÷सूक्ति-प्रकाश÷

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

     •संग्रह-कर्ता और भावार्थ-कर्ता-
  
                          डुँगरदास राम•

……………………………………………………………………

सूक्ति-०१.

[रातमें] दूजा सोवे,अर साधू पोवे |
अर्थ-

[रात्रिमें]दूसरे सोते हैं और साधू पोते हैं
भावार्थ-

रातमें दूसरे तो सोते हैं और साधू-संत,गृहस्थी संत,साधक आदि पोते हैं अर्थात् भगवद्भजन आदि करते हैं और जिससे दूसरोंका हित हो,कल्याण हो,वो उपाय करते हैं|

सूक्ति-०२.

बेळाँरा बायोड़ा मोती नीपजे|

शब्दार्थ-

बेळाँ(समय).

अर्थ-

समय (अवसर) पर बोया हुआ मोती उत्पन्न होता है|

भावार्थ-

समय पर जो काम किया जाता है,वो बहुुत कीमती होता है| जब वर्षा होती है तब खेती करनेवाले जल्दी ही बीज बोनेकी कोशीश करते हैं और कहते हैं कि देर मत करो;गीली,भीगी हुई धरतीमें बीज बो दोगे तो मोतीके के समान कीमती और बढिया फसल होगी|
अगर एक-दो दिनकी भी देरी करदी जाय,तो वैसी फसल नहीं होती;ज्यों-ज्यों देरी होती है,त्यों-त्यों कम होती जाती है|

इसी प्रकार भगवद्भजन,सत्संग आदि शुभ कामोंमें भी देरी नहीं करनी चाहिये|समय पर करनेसे बहुत बड़ा लाभ (परमात्मप्राप्तिका अनुभव) हो जायेगा|

सूक्ति-३.

घेरा घाल्या नींदड़ी, अर भागण लागा अंग|
साधराम अब सो ज्यावो राँड बिगाड़्यो रंग||
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पता-
सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

बुधवार, 21 जनवरी 2015

दुष्टसंग क्या है? और उसका त्याग करें,अथवा नहीं?

                     ।।श्रीहरि:।।

दुष्टसंग क्या है? और उसका  त्याग करें,अथवा नहीं?

किसीने पूछा है कि-

…राम राम । बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देहि बिधाता ।।

  महाराज जी "दुष्ट संग" का क्या मतलब समझें?
खासकर आज के आधुनिक परिवेश में । राम

[3:27 PM 21-1-2015]

जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेहि ।।

विनय पत्रिका के इस पद से हम साधकों को आज के परिेवेष में क्या चेतावनी मिलती है ?

राम राम । उत्तर की प्रतीक्षा है ।

[6:54 PM 21-1-2015]

अच्छाजी।
सीताराम सीताराम

जवाब लिखा जा रहा है-

'दुष्टसंग' अर्थात् रावणके समान भगवानसे हटाकर भोग-संग्रहकी तरफ लै जानेवाला संग।

आजके परिवेशमें जिनकी प्रवृत्ति भगवानसे हटाकर संसारमें लगानेकी है,तो उसको भी हम इस गिनतीमें लै सकते हैं।

इसमें सिर्फ व्यक्ति ही नहीं;क्रिया,पदार्थ आदि भी आ जाते हैं।

अगर ऐसा परिवेश हमारे सामने है,तो 'तजिये ताहि कौटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही'।

(इनकी सेवा करें और इनसे कुछ चाहें नहीं।लेनेके लिये सम्बन्ध न रखें,देनेके लिये रखें)।

ऐसा करना अनुचित(अधर्म) नहीं है और नुक्सानदायक(दुष्परिणामवाला) भी नहीं है;क्योंकि ऐसा पहले सज्जनोंने किया है और उसका परिणाम(नतीजा) अच्छा निकला है।

जैसे-
प्रह्लादने पिताका त्याग किया।ऐसे ही विभीषणने भाईका,भरतने माताका,बलिने गुरुका और गोपियोंने पतियोंका त्याग कर दिया।

उसका परिणाम आनन्द,मंगल करनेवाला ही हुआ।।

सम्बन्ध और प्रेम रखना ही हो तो भगवानवाले सम्बन्धके कारण ही रखना चाहिये और उन्ही वस्तु,व्यक्ति आदिसे रखना चाहिये,जिनसे भगवानमें प्रेम हों,आदि आदि पूरा पद समझकर पढें।

जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी ।
बलिगुरु तज्यो कंत ब्रजबनितन्हि, भये मुद मंगलकारी ।।
नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं ।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।
तुलसी सो सब भाँति परमहित पूज्य प्रान ते प्यारो ।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ।।

(विनय पत्रिका १७४)।

अधिक समझनेके लिये कृपया साधक-संजीवनी(लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) पढें।

(विशेष कर अठारहवें अध्यायके ५६से ६६वें श्लोक तकका प्रकरण पढें)।

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शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

प्रवचनोंकी तारीखें लिखनेका क्रम समझलें।(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके 'प्रवचन-समूह'के दिनांक समझलें)।

                     ।।श्रीहरि:।।

प्रवचनोंकी तारीखें लिखनेका क्रम समझलें।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके 'प्रवचन-समूह'के दिनांक समझलें)।

[4:36 PM 16-1-2015]

… जी महाराज! क्या पूछ रहे हैं,समझमें नहीं आया।तारीखें तो ऊपर लिखी ही है।
सीताराम सीताराम

[6:01 PM 16-1-2015]
…जीसंत:

Tarikh saf saf Nhi lag rhi thi pahile date ho gir mahina fir Sal to Jyada conga hoga. (16/1/2015) Fir jaisa aapko uchit lge.  Narayan Narayan

[6:04 PM 16-1-2015]

  श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सोलह वर्षोंवाले 'प्रवचन-समूह'में  पहले वर्षकी संख्या लिखी गई है,फिर महीना और बादमें तारीख तथा उसके बाद समय लिखा गया है(उसके बाद प्रवचनका विषय लिखा गया है)।

हजारों प्रवचन होनेके कारण यही क्रम ठीक बैठा और स्वीकार किया गया।

जिन्होने उन प्रवचनोंकी सूची देखी है और उनमें कुछ खोज आदिका काम किया है,वो जानते हैं।जो जानना चाहते हैं,वो भी जान सकते हैं।

जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठि।
मैं बपुरा डूबन डरा रहा किनारै बैठि।।

सीताराम सीताराम

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रविवार, 11 जनवरी 2015

क्या क्रियाके द्वारा भगवत्प्राप्ति नहीं होती?-(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                     ।।श्रीहरि:।।

क्या क्रियाके द्वारा भगवत्प्राप्ति नहीं होती?

(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)। 

(कई जने श्री स्वामीजी महाराज का सत्संग ध्यानसे नहीं सुनते हैं  और ठीकसे विचार भी नहीं करते हैं।

इसलिये अधूरी बात पकड़ कर कहने लग जाते हैं कि श्री स्वामीजी महाराज तो पाठ,पूजा,जप,ध्यान,दान,पुण्य आदिके लिये मना करते है। वे कहते हैं कि  क्रियाओंसे भगवत्प्राप्ति नहीं होती।

क्रिया तो जड़ है, जड़-शरीरकी सहायतासे होती है और भगवान चेतन है। जड़के द्वारा चेतनकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। जड़ कर्मोंके  द्वारा चेतन परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती,आदि आदि।। 

तो क्या क्रियाके द्वारा भगवत्प्राप्ति नहीं होती? क्या कर्मोंसे भगवान नहीं मिलते?

इस बातको समझनेनेके लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका यह (दिनांक 19940512/1630 बजेका) प्रवचन सुनें-)

(किसी के द्वारा एसा प्रश्न पूछे जाने पर श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बोले-)

स्वामीजी-

नहीं,मैं येह नहीं कहता हूँ।जप,ध्यान,कीर्तन,सत्संग,स्वाध्याय- (ये) भगवानको लेकर किये जायँ,उसको मैं कर्म और क्रिया नहीं कहता हूँ। उसको उपासना(भक्ति) कहता हूँ।

संसारके दान,पुण्य,तीर्थ,व्रत आदि- इनको तो मैं क्रिया कहता हूँ और भगवानको लेकरके जो जप-ध्यान आदि किया जाता हैं,वो कर्म नहीं है,वो उपासना है। उससे परमात्माकी प्राप्ति होती है।

क्रियाओंसे भी (भगवत्प्राप्ति) होती है,निष्काम भाव हो और उध्देश्य परमात्मप्राप्ति हो,तो मात्र क्रिया परमात्मप्राप्तिकी कारण हो जायेगी।

भोजन करना भी भगवानकी प्राप्तिका कारण,झाडू देना भी भगवत्प्राप्तिका कारण,चरखा चलाना भी भगवत्प्राप्तिका कारण…

…क्रियाओंसे (भगवत्प्राप्ति) नहीं होती है,भावसे होती है। क्रियाओंके द्वारा भगवानको पकड़ले-यह बात नहीं है…भावग्राही जनार्दन।

…निरर्थक काम किया जाय,फूस,कचरा बुहार कर फेंका जाय कि इस कर्मसे भगवान राजी हों,तो भक्ति हो गई वो।निकम्मा काम बिल्कुल ही।…

भगवानका जहाँ उध्देश्य हो जाता है,वो [क्रिया] कर्म नहीं रहता है,अग्निमें रखी हुई चीज सब(सब चीजें) चमकने लगती है। चाहे वो लोहा हो और चाहे पत्थर हो और चाहे ठीकरी हो और चाहे कोयला हो-सब चमकने लग जाता हैं।

ऐसे भगवानके अर्पण करनेसे सबके-सब कर्म,कर्म नहीं रहते हैं।वो सब चमकने लग जाते हैं।

इस वास्ते ऐसा मेरा [भाव] नहीं है कि जप,ध्यान [आदि क्रिया] करनेसे भगवत्प्राप्ति नहीं होती। प्रेमसे होती है,निष्काम भावसे होती है। संसारकी कामना न हो और भगवानमें प्रेम हो,तो कुछ भी करो काम,गाळी दो भले ही भगवानको(अपनापनसे)।भगवान मिल जायेंगे अपनापनसे।

- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दिये गये (दिनांक 19940512/1630 बजेके) प्रवचनके कुछ अंश।

अधिक जाननेके लिये यह(ऊपर दिया गया) प्रवचन सुनें,या उसका यह अंश सुनें।

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कहीं भी जाओ,भगवानका नाम ले करके जाओ-नारायण नारायण०,घटना.(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                       ।।श्रीहरि:।।

कहीं भी जाओ,भगवानका नाम ले करके जाओ-नारायण नारायण नारायण नारायण करके जाओ ,घटना. ।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

श्रध्देय सेेठजी श्री श्री जयदयालजी गोयन्दका द्वारा स्थापित ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम चूरूमें हर साल वार्षिकोत्सव होता है।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया कि (वो उत्सव करके) एक बार हमलोग चूरूसे लक्ष्मणगढ जा रहे थे।

जब गाड़ीमें बैठे और लाॅरी(गाड़ी) रवाना हुई तो भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार बोले कि- नारायण नारायण,नारायण नारायण।

फिर भाईजी बोले कि यह बात मेरेको मालवीयजीसे मिली है।

पण्डितमदनमोहन मालवीयजीकी मेरेपर बड़ी कृपा थी।(वो अवस्थामें भाईजीसे बड़े थे)।

एक बार वो बोले कि हनुमान! मैं तेरेको एक बहुत बढिया बात बताता हूँ।

भाईजी बोले कि बताओ महाराज।

मालवीयजी कहने ले कि बहुत बढिया बात है।

भाईजी बोले कि बताओ।

मालवीयजी बोले कि बहुत बढिया है।

भाईजी बोले कि बताओ।

मालवीयजी बोले कि (वो बात) मेरी माँ की बतायी हुई है।

भाईजी बोले कि महाराज! बताइये।

मालवीयजी बोले कि बहुत ही बढिया बात है।

ऐसे कहते-कहते, इस बातकी महिमामें उन्होने काफी समय लगा दिया।(यह घटना बताते हुए भाईजीने लिखा है कि करीब आधा घंटा लगा दिया)।

(मालवीयके इस प्रकार बार-बार कहनेसे सुननेकी उत्सुकता और बढ गयी कि ऐसी कौनसी विलक्षण बात बतायेंगे)।

फिर उन्होने यह बात बतायी कि देख हनुमान! कहीं भी जाओ,नारायण नारायण नारायण नारायण करके जाओ। (तीन या चार बार नारायण-नारायणका उच्चारण करके जाओ)।

मैंने काशीजीका विश्वविद्यालय बनवाया,(तथा और भी कई परोपरके काम किये)।तब धनकी आवश्यकता पड़ी,तो मैं कई राजा-महाराजाओंके पास गया।

उस समय मैं नारायण नारायण-भगवन्नामोच्चारण करके गया,तो मेरा काम सिध्द हुआ(धन मिल गया)।

और किसी कारणवश भूल गया-नारायण नारायण करके नहीं गया,तो मेरा काम सिध्द नहीं हुआ।

इसलिये कहीं भी जाओ,नारायण नारायण०करके जाओ-यह उन्होने अपना अनुभवकी बात बतायी।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज भी सत्संग-कार्यक्रम आदिके लिये कहीं जाते, तो ज्यों ही गाड़ी रवाना होती,(त्यों ही-रवाना होते ही) करते,नारायण नारायण,नारायण नारायण।

यह उनके बिना याद किये,स्वाभाविक ही हो जाता था।

उनके साथमें रहनेवाले और कई सत्संग-प्रेमियोंके भी ऐसा हो जाता-रवाना होते कि नारायण नारायण०।

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शनिवार, 10 जनवरी 2015

निवेदन('साधक-संजीवनी विचार' नामक समूहके लिये)।

                    ।।श्रीहरि:।।

'साधक-संजीवनी विचार' नामक समूहके सदस्योंसे नम्र निवेदन-

श्री मनमोहनजी महाराजने जो बार-बार आपलोगोंसे अनुरोध किया है कि सामग्री सीधे इस समूहमें न भेजें,इस पर हमलोगोंको ध्यान देना चाहिये।

इन्होने लोगोंका समय बचानेके लिये और समूहको उपयोगी बनानेके लिये, अपना समय देकर आप सबलोगोंकी सामग्रीमेंसे छाँटकर, समूहमें उपयोगी सामग्री भेजनेका काम सम्हाला है।

इसलिये आपलोगोंको 'श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'के प्रवचनों और ग्रंथोंमेंसे जो सामग्री 'साधक-संजीवनी विचार' नामक समूहमें भेजना हो,तो कृपया वो सीधे इनके नाम पर भेजदें।

आपका समय तो उतना ही लगेगा और लोगोंका समय बच जायेगा।

आप जो सामग्री भेजं,उसके नीचे अपना नाम लिखदें,जिससे पता चले कि यह किसने लिखा अथवा किसने भेजा है।(कृपया,आपने जहाँसे वो सामग्री ली है,वहाँका नाम पता जरूर लिखें)।

श्री मनमोहनजी महाराजसे निवेदन है कि आपको उचित लगे,उनका नाम सामग्रीके साथमें रहने दें।

जो नाम नहीं चाहते हों तो वो निवेदन करदें कि हमारा नाम साथमें न रखें,बिना नामके ही समूहमें प्रकाशित करेदें।

निवेदक-डुँगरदास राम