सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

अपना स्वरूप अहंकारसे रहित है-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

                         ।।श्रीहरि।।

अपना स्वरूप अहंकारसे रहित है-

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। 

अपना स्वरूप अहंकारसे रहित है-यह अनुभव करनेके लिये कृपया

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके 

दि.19930901_0518 (1-9-1993/5) बजेवाला प्रवचन सुनें। 

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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

कृपया यहाँ आदर-सत्कार आदिमें समय खर्च न करें।

                           ।।श्रीहरि:।।

कृपया यहाँ  आदर-सत्कार आदि में समय खर्च न करें।

इस सत्संगवाले समूहमें कोई पुष्प अर्पण करते हैं,कोई प्रणाम भेजते हैं,कोई जुङे हुए हाथ बताते हैं, कोई चित्र आदि भेजते हैं,  कोई अपनी पसन्दगी जाहिर करते हैं, कोई त्योंहार आदि पर शुभकामनायें भेजते हैं तथा कोई और भी कुछ करते हैं आदि आदि।

सज्जनोंसे प्रार्थना है कि ऐसी बातोंकी यहाँ (इस ग्रुप में) आवश्यकता नहीं है,उलटे इनसे लोगोंको विक्षेप होता है।इसलिये ये सब न करें।

आपकी भावनाओंका हम आदर करते हैं,ये सब बिना भेजे ही हम मान लेंगे।

आप तो श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजका सत्संग करते रहें,इसमें सब बातें आ जायेगी।

सीताराम सीताराम

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शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

प्रत्येक प्रवचनमें तारीख श्रीस्वामीजी महाराजके कहनेसे जोङी गई है।

                       ।।श्रीहरिः।।

प्रत्येक प्रवचनमें तारीख श्रीस्वामीजी महाराजके कहनेसे जोङी गई है।

...जी महाराज ! आपने नित्य-स्तुति,गीता-पाठ और सत्संग आदिके लिए जो प्रयास किया है वो सराहनीय है;परन्तु इसमें तीन बङी-बङी गलतियाँ है।

वो गलतियाँ यह है कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके प्रवचन के शुरुमें या आखिरमें उस प्रवचनकी तारीख बोली गई है,वो हटादी गई और उसमें जो श्री स्वामीजी महाराजका नाम बोला गया है वो महाराजजीका नाम भी हटा दिया गया है।

ये दो गलतियाँ तो है ही और तीसरी गलती यह है कि इससे महाराजजीकी बातकी भी बेपरवाही हुई है।

क्योंकि प्रत्येक प्रवचनकी रिकोर्डमें तारीख श्रीस्वामीजी महाराजने ही जुङवाई है।यह मेरे सामनेकी बात है।

एक बार श्रीस्वामीजी महाराजसे एक समस्याके बारेमें पूछा गया कि ओडियो रिकोर्डकी कैसेटके ऊपर जो तारीख लिखी जाती है,वो कभी-कभी मिट जाती है और लोगोंको देनेके लिये उसकी जो कोपी (नकल) की जाती है, उस समय उसपर तारीख लिखते समय भी गलतीसे दूसरी तारीख लिख दी जाती है।

तब समस्या हो जाती है कि इस प्रवचनकी तारीख क्या है?, यह कौनसी तारीखका प्रवचन है?

(और उस तारीखका प्रवचन कोई सुनना चाहे तो तारीख सही न होनेसे कैसे सुन पायेगा? ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिए?)

तब श्रीस्वामीजी महाराजने उपाय बताया कि कैसेटके भीतर तारीख बोलकर जोङदो,प्रवचनके साथमें बोलकर रिकोर्ड जोङदो कि यह प्रवचन अमुक तारीखका है।कैसैटके ऊपर तारीख लिखनेमें अगर गलती हो जायेगी तो भीतर सुननेसे पता लग जायेगा।(इस प्रकार उस प्रवचनकी सुरक्षा हो जायेगी)।

फिर ऐसा ही किया जाने लगा और आखिर तक चलता रहा।

अब (इस 365 दिन वाले सेटमें) वो तारीख प्रवचनसे हटादी गई है और परम श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजका नाम भी उसमेंसे हटा दिया गया है।यह बङी भारी गलती हुई है।

अब यह गलतीवाली सामग्री आप इतने लोगों तक पहुँचाओगे तो हमारी प्रार्थना है कि कृपया वो गलतियाँ सुधार कर पहुँचावें।आपका भाव हरेकके समझमें नहीं आता है।

धृष्टताके लिये हाथ जोड़कर क्षमा प्रार्थना।

विनीत- डुँगरदास राम।

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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

केवल श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके सत्संगका ही आग्रह क्यों? कारण जानें-

                     ।।श्रीहरि:।।

केवल श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके सत्संगका ही आग्रह क्यों? कारण जानें-

जैसे श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की पुस्तकोंमें उनके ही लेख होते हैं,दूसरों के नहीं।इसी प्रकार इस(श्रीस्वामीजी महाराजके सत्संग वाले) समूहमें भी उनके ही सत्संगकी बातें होनी चाहिये,दूसरोंकी नहीं।

दूसरोंके लेख चाहे  कितने ही अच्छे हों,पर श्रीस्वामीजी महाराज की  पुस्तकोंमें में नहीं दिये जाते और अगर दे दिये जायँ तो फिर सत्यता नहीं रहेगी।

ऊपर नाम तो हो श्रीस्वामीजी महाराज का और भीतर सामग्री हो दूसरी,तो वहाँ सत्यता नहीं है,झूठ है और जहाँ झूठ-कपट हो, तो वहाँ धोखा होता है,वहाँ विश्वास नहीं रहता।

विश्वास वहाँ होता है, जहाँ झूठ-कपट न हो,जैसा ऊपर लिखा हो,वैसा ही भीतर मौजूद हो।यही सत्यता है।सत्यताको पसन्द करना,सत्यमें प्रेम करना ही सत्संग है।

इस समूहका उध्देश्य ही यह है कि इसमें सिर्फ श्रीस्वामीजी महाराजके सत्संगकी ही बातें हों।

मेरी सब सज्जनों से विनम्र प्रार्थना है कि इस समूहको इसके नामके अनुसार ही रहनें दें।किसी भी प्रकारकी दूसरी सामग्री न भेजें।

विनीत- डुँगरदास राम
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...महाराज ! एक श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजका दि. 19990301_2230 बजेका प्रवचन भेज रहा हूँ,कृपया सुनें।

इससे यह बात समझनेमें सहायता मिलेगी कि सिर्फ श्रीस्वामीजी महाराजके प्रवचन सुननेका ही आग्रह क्यों किया जाता है।

इस प्रवचनमें साधुओंको भी चेताया है कि आप कर क्या रहे हो ! क्या करोगे रूपयोंका और भोगोंका? रुपये जैसी रद्दी चीज कोई (दूसरी) चीज नहीं है आदि आदि।

ऐसी बातें कितनेक जने  कहते हैं और कितनेक जने ऐसे हैं जो करते हैं?

आजके जमानेमें श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज जैसे कहने और करनेवाले महापुरुष अत्यन्त दुर्लभ है।

भगवानकी बङी भारी हमलोगों पर कृपा है जो ऐसे महापुरुषोंका सत्संग हमें मिल रहा है।

अगर कोई अपना सुगमता-पूर्वक और जल्दी ही कल्याण चाहें तो यह सत्संग करें।

जो साधन सुगम हो और श्रेष्ठ हो तथा  जल्दी ही कल्याण करने वाला हो,वही सबसे बढिया रहता है और ऐसे अनेक साधन श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजने बताये हैं,जो उनकी वाणीमें मिलते हैं।

इसलिये हमारेको चाहिए कि विशेषतासे एक श्रीस्वामीजी महाराजकी वाणी ही सुनें।

उनकी वाणीमें सब संतोंकी वाणीका सार आ जायेगा,वेद,पुराण और सब शास्त्रोंका सार आ जायेगा,इन सबका रहस्य समझमें आ जायेगा।हमारा सुगमता-पूर्वक और जल्दी ही कल्याण हो जायेगा।

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सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

क्या गलेमें कैंसर था स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके? कह,नहीं।ऊमर भरमें कभी कैंसर हुआ ही नहीं था उनके।

                      ।।श्रीहरि:।।

क्या गलेमें कैंसर था स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके?

कह,नहीं।ऊमर भरमें कभी कैंसर हुआ ही नहीं था उनके।

आजकल कई लोगोंमें यह बात फैली हुई है कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके गलेमें कैंसर था।

उसके जवाबमें निश्चयपूर्वक निवेदन है कि उनके ऊमर भरमें कभी कैंसर हुआ ही नहीं था।

यह बात खुद श्रीस्वामीजी महाराजके सामने आई थी कि लोग ऐसा कहते हैं कि स्वामीजी महाराजके गलेमें कैंसर है।तब श्रीस्वामीजी महाराजने हँसते हुए उत्तर दिया था कि एक जगह सत्संग का प्रोग्राम होनेवाला था और वो किसी कारणसे नहीं हो पाया।तब किसीने पूछा कि यहाँ स्वामीजी महाराज आये नहीं?उनका आनेका प्रोग्राम था न?

तब किसीने जवाब दिया कि वो तो कैंसल हो गया।तो सुननेवाला बोला कि अच्छा ! कैंसर हो गया क्या? कैंसर हो गया तब कैसे आते ?

(उसने कैंसल-निरस्त की जगह कैंसर सुन लिया था)।

इस प्रकार कई लोग बिना विचारे ही, बिना हुई बातको लै दौङते हैं, जो घटना घटी ही नहीं, ऐसी-ऐसी घटनाएँ कहते-सुनते रहते हैं और वो बातें आगे चलती रहती है।सही बातका पता लगानेवाले और कहने-सुनने वाले बहुत कम लोग होते हैं।

आज ही फेसबुक पर किसीने एक अखबार की फोटो प्रकाशित की है जिसमें गलेके कैंसरकी बात कही गई है।ऐसे बिना सोचे-समझे ही लोग आगे प्रचार भी कर देते हैं।

एक घटना तो मेरे सामनेकी ही है-

(श्रीस्वामीजी महाराज जब सभामें बोलते थे तो उन प्रवचनोंकी रिकोर्डिंग होती थी।उस समय रिकोर्डिंगमें कभी-कभी गलती हो जानेके कारण आवाज साफ रिकोर्ड नहीं हो पाती थी।वैसे तो साफ आवाजमें आपके बहुत-सारे प्रवचन है,पर कभी-कभी ऐसी रिकोर्डिंग भी हो जाती थी जो साफ-साफ सुनायी नहीं देती)।

एक बार मैं श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजकी रिकोर्ड-वाणी(प्रवचन) लोगोंको सुना रहा था।प्रवचनकी आवाज कुछ लोगोंको साफ सुनाई नहीं दी।इसलिये समाप्ति पर उन लोगोंमेंसे किसीने पूछा कि आवाज साफ नहीं थी,इसका क्या कारण है?

उस समय मेरे जवाब देनेसे पहले ही एक भाई उठकर खङा हो गया और लोगोंकी तरफ मुँह करके उनको सुनाते हुए बोला कि सुनो-सुनो!(मेरी बात सुनो;फिर वो बोला-) स्वामीजीके गलेमें कैंसर था इसलिये आवाज साफ नहीं आती थी।

मैंने आक्रोश करते हुए उनसे पूछा कि आपको क्या पता? तब उसने जवाब दिया कि आपलोगोंसे ही सुना है?-ऋषिकेशके संतनिवासमेंसे ही किसीने ऐसा कहा था(मैं उनको जानता नहीं)।

इस प्रकार लोग सुनी-सुनाई बातें कहते-सुनते रहते हैं और आगे चलाते भी रहते हैं जो कि बिल्कुल झूठी है।

साधारण लोगोंकी तो बात ही क्या है जाने-माने डाॅक्टरलोग भी ऐसी बातें कर चूके।

श्रीस्वामीजी महाराजके सिरपर एक फौङा हो गया था और उसका इलाज कई जने नहीं कर पाये थे।उस समय भी डाॅक्टर आदि कई जनोंने उसको कैंसर कह दिया था।

फिर एक कम्पाउण्डरने साधारण इलाजसे ही उसको ठीक कर दिया(वो विधि आगे लिखी गई है)।अगर कैंसर होता तो साधारणसे इलाजसे ठीक कैसे हो जाता? परन्तु बिना सोचे-समझे ही कोई कुछका कुछ कह देते हैं।अपनेको तो चाहिए कि जो बात प्रमाणिक हो, वही मानें।

ऐसी और भी कई बातें हैं जो विस्तारभयके कारण लिखी नहीं जा रही है।
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फौङेके घावको ठीक इस प्रकार किया गया-

कम्पाउण्डरजीने पट्टी बाँधनेवाला कपङा(गौज) मँगवाया और उसके कैंचीसे छौटे-छौटे कई टुकङे करवाये।फिर वे उबाले हुए पानीमें डाल दिये गये;बादमें उनको निकालकर निचौङा गया और थोङी देर हवामें रख दिये गये।उसके बाद फौङेको धौ कर उसके ऊपरका भाग(खरूँट) हटा दिया।फिर फौङेको साफ करके ऊसपर वो गोजके टुकङे रख दिये।उस कपङेकी कतरनने फौङेके भीतरकी खराबी-दूषित पानी आदि सौखकर बाहर निकाली।फिर वो गोज हटाकर दूसरे गोज रखे गये।इस प्रकार कई बार करनेपर जब अन्दरकी खराबी बाहर आ गयी तब फौङेपर स्वच्छ गोज रखकर उसपर पट्टी बाँधदी गयी।

शामको जब पट्टी खोली गयी तो वो गौजके कपङे भीगे हुए मिले;कपङेने अन्दरकी खराबीको खींचकर सौख लिया था,इसलिये वो गीले हो गये थे।

तत्पश्चात उन सबको हटाकर नई पट्टी बाँधी गई जिस प्रकार कि सुबह बाँधी थी।

दूसरे दिन सुबह भी उसी विधिसे पट्टी की गई।

बीच-बीच में यह भी ध्यान रखा जाता था कि घावका मुँह बन्द न हो जाय।अगर कभी हो भी जाता तो उसको वापस बनाया जाता था जिससे कि दूषित पानी आदि पूरा बाहर आ जाय।

इस प्रकार सौखते-सौखते कुछ दिनोंके बाद वो गौज(कपङेकी कतरन) भीगने बन्द हो गये,फौङेके भीतरकी खराबी बाहर आ गयी तथा महीनेभर बादमें वो फौङा ठीक हो गया।उस जगह साफ नई चमङी आ गयी।

इसके बाद ऐसी ही विधि दूसरे लोगोंके घाव आदि ठीक करनेके लिये की गई और उन सबके घाव भी ठीक हुए।

इससे एक बात समझमें आयी कि ऊपरसे दवा लगानेकी अपेक्षा भीतरकी खराबी बाहर निकालना ज्यादा ठीक रहता है।

डाॅक्टर आदि कई लोगोंने ऊपरसे दवा लगा-लगा कर ही इलाज किया था भीतरसे विकृति निकालनेका ऐसा उपाय उन्होंने नहीं किया था।तभी तो उनको सफलता नहीं मिली।

(कफका इलाज इस प्रकार किया गया-)

सेवाकी कमी आदिके कारण कई बार उनके सर्दी जुकाम आदि हो जाता था जिससे गलेमें कफ आदि हो जानेसे सत्संग सुनानेमें दिक्कत आती थी।

सत्संग सुनानेमें बाधा न हो- इसके लिये कभी-कभी गलेके कपङेकी पट्टी भी लपेटी जाती थी और कफ डालनेके लिये एक दौनेमें मिट्टी भी रखी जाती थी;लेकिन इसका भी इलाज कम्पाउण्डरजीने साधारणसे उपाय द्वारा कर दिया।

वो बोले कि स्वामीजी महाराजके सामनेसे यह (कफदानी वाला) बर्तन हटाना है और उसका उपाय यह बताया कि लौटा भर पानीमें एक दो चिमटी(चुटकी) नमक डालकर उबाललो तथा चौथाई भाग जल रह जाय तब अग्निसे नीचे उतारलो।ठण्डा होनेपर इनको पिलादो।

उनके कहनेपर ऐसा ही किया गया और कुछ ही दिनोंमें उनका गला ठीक हो गया और कफ चला गया तथा मिट्टीका दौना भी हट गया।नहीं तो वर्षों तक यह कफकी समस्या बनी रही थी।

इसलिये किसीने कभी गलेकी पट्टी आदि देखकर गलतफहमीकी पुष्टि भी की होगी तो वो भी अज्ञानतासे थी।

वास्तवमें उनके न तो कभी गलेमें कैंसर हुआ था और न कभी सिरपर हुआ था।लोग झूठी-झूठी कल्पना कर लेते हैं।

बातुल भूत बिबस मतवारे।
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।
तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।।

(रामचरितमानस 1।115)

उनके साथमें रहनेवाले,सत्संग करनेवाले अनेक जने हैं,वो भी इस बातको जानते हैं।

तथा मैंने भी वर्षों तक पासमें रहकर देखा है और बहुत नजदीक से देखा है।उनके कभी कैंसर नहीं हुआ था।
जय श्री राम।।

विनीत- डुँगरदास राम

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रविवार, 7 फ़रवरी 2016

इकहत्तर दिनोंका "सत्संग-समूह"(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजका सत्संग)।

                       ।।श्रीहरि:।।


इकहत्तर दिनोंका "सत्संग-समूह"

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजका सत्संग)।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज प्रतिदिन प्रातः 
पाँच बजेके बाद सत्संग करवाते थे।

पाँच बजते ही गीताजीके चुने हुए कुछ श्लोकों द्वारा नित्य-स्तुति,प्रार्थना शुरू हो जाती थी,फिर गीताजीके(प्रतिदिन क्रमशः) दस-दस श्लोकोंका पाठ और हरि:शरणम् हरि:शरणम् ... आदिका संकीर्तन होता था।
ये तीनों करीब सतरह मिनटोंमें हो जाते थे।

इसके बाद(0518) श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज सत्संग सुनाते थे,जो बङा विलक्षण और अत्यन्त प्रभावशाली था।
उससे बङा भारी लाभ होता था।

प्रतिदिन गीताजीके करीब दस-दस श्लोकोंका पाठ करते-करते लगभग सत्तर-इकहत्तर दिनोंमें पूरी गीताजीका पाठ हो जाता था।

इस प्रकार इकहत्तर दिनोंमें नित्य-स्तुति और गीताजी सहित सत्संग-प्रवचनोंका एक सत्संग-समुदाय हो जाता था।
जिस प्रकार श्रीस्वामीजी महाराजके समय वो सत्संग होता था,वैसा सत्संग हम आज भी कर सकते हैं-

-इस बातको ध्यानमें रखते हुए एक इकहत्तर दिनोंके सत्संगका सेट(प्रवचन-समूह) तैयार किया गया है जिसमें ये चारों है(1-नित्य-स्तुति,2-गीताजीके दस-दस श्लोकोंका पाठ,3-हरि:शरणम्... संकीर्तन तथा 4-सत्संग-प्रवचन-ये चारों है)।

चारों एक नम्बर पर ही जोङे गये हैं;इसलिये एक बार चालू कर देनेपर चारों अपने-आप सुनायी दे-देंगे,बार-बार चालू नहीं करने पङेंगे।

इसमें विशेषता यह है कि ये चारों
श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की  ही आवाज (स्वर)में है।

महापुरुषोंकी आवाजमें अत्यन्त विलक्षणता होती है,बङा प्रभाव होता है,उससे बङा भारी लाभ होता है। इसलिये कृपया इसके द्वारा वो लाभ स्वयं लें और दूसरोंको भी लाभ लेनेके लिये प्रेरित करें।।

कई अनजान लोग साधक-संजीवनी और गीताजीको अलग-अलग मान लेते हैं,उनको समझानेके लिये कि गीताजी साधक-संजीवनीसे अलग नहीं है,दोनों एक ही हैं,दो नहीं है-इस दृष्टिसे इसमें साधक-संजीवनीका नाम भी जोङा गया है, इससे साधक-संजीवनीका प्रचार भी होगा।

इसमें सुविधा के लिए प्रत्येक फाइल पर गीताजीके अध्याय और श्लोकोंकी संख्या लिखी गई है तथा 71 दिनोंकी संख्या भी लिखी गई है और बोली भी गई है।

यह (इकहत्तर दिनोंका "सत्संग-समूह") मोबाइलमें आसानीसे देखा और सुना जा सकता है तथा दूसरे यन्त्रों द्वारा भी सुना जा सकता है और मेमोरी कार्ड, पेन ड्राइव,सीडी प्लेयर,स्पीकर या टी.वी.के द्वारा भी सुना जा सकता है।

इस प्रकार हम घर बैठे या चलते-फिरते भी महापुरुषोंकी सत्संगका लाभ लै सकते हैं।

वो सत्संग नीचे दिये गये लिंक,पते द्वारा कोई भी सुन सकते हैं और डाउनलोड भी कर सकते हैं -
नं १ - goo.gl/DMq0Dc (ड्रॉपबॉक्स)
नं २ - goo.gl/U4Rz43 (गूगल ड्राइव)

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रविवार, 24 जनवरी 2016

गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका थे।

                        ।।श्री हरि:।।

गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका थे।

कृपया ध्यान दें-

गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका थे,वो गीताप्रेसके उत्पादक,जन्मदाता,संस्थापक,संरक्षक आदि सब कुछ थे।यह बात श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजने बार-बार कही है।

कईलोग इस वास्तविक बातको जानते नहीं हैं।कईलोग तो संस्थापक भाईजीको मानने लग गये हैं तथा कई लेखक तो ऐसे लेख लिखकर प्रकाशित भी करा चूके हैं,जिससे लोगोंमें झूठा प्रचार हो रहा है।सच्चीबात जाननेके लिये कृपया यह लेख पढें-

महापुरुषोंके कामका,नामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें।

(रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें - )

एक बारकी बात है कि श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज गीताप्रेस गोरखपुरमें विराजमान थे |

उन दिनोंमें एक शोधकर्ता अंग्रेज-भाई गीताप्रेस गोरखपुरमें आये | उन्होने सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दारके विषयमें कई बातें पूछीं , जिनके उत्तर श्रीस्वामीजी महाराजने दे दिये |

श्री महाराजजीकी बातोंसे उस अंग्रेज-भाईके समझमें आया कि गीताप्रसके संस्थापक तो सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका है (उन्होने संस्थापक भाईजीको समझ रखा था ) | अंग्रेज-भाईने बताया कि गीताप्रेसके संस्थापक भाईजी थे |

उनसे पूछा गया कि कौन कहता है? अर्थात् यह बात किस आधार पर कहते हो?

तब उस अंग्रेज-भाईने गीतावाटिकामें जानेकी, वहाँ पूछनेकी और उत्तर पानेकी बात बताते हुए अखबारकी कई कटिंगें दिखायी कि ये देखो अखबारमें भी यह बातें लिखि है( कि गीताप्रसके संस्थापक भाईजी थे;उन्होने और भी ऐसे लिखे हुए कई कागज बताये )|

ये सब देख-सुनकर श्री महाराजजीको लगा कि ऐसे तो ये श्रीसेठजीका नाम ही उठा दैंगे | (श्री महाराजजीने अंग्रेजको समझा दिया कि गीताप्रेसके संस्थापक श्री सेठजी ही थे) |

तबसे श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज अपने सत्संग-प्रवचनोंमें भी यह बात बताने लग गये कि गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ही थे |

प्रवचनोंमें जब-जब श्री सेठजीका नाम लेते , तो नाममें गीताप्रेसके संस्थापक,संरक्षक,संचालक,उत्पादक,सबकुछ आदि शब्द जोड़कर बोलते थे और सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका  गीताप्रेसके संस्थापक,संचालक,संरक्षक,उत्पादक,पिता,जन्मदाता आदि सबकुछ थे - ऐसा बताते थे |

श्रीमहाराजजीकी यह चेष्टा थी कि सब लोग ऐसा ही समझें और दूसरोंको भी समझायें।

उन्होने कल्याण-पत्रिकामें भी यह लिखवाना शुरु करवा दिया कि गीताप्रेसके संस्थापक,संरक्षक आदि सबकुछ सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका है |

इस घटनासे पहले ऐसा नहीं होता था। श्री सेठजी अपना प्रचार नहीं करते थे , उनके अनुयायी भी नहीं करते थे; इसलिये श्रीसेठजीका नाम तो छिपा रहा और लोगोंने उस जगह भाईजीका नाम प्रकट कर दिया , जो बिल्कुल असत्य बात थी |

अगर श्री स्वामीजी महाराज ऐसा नहीं करते , तो श्री सेठजीका नाम और भी छिपा रह जाता और असत्यका प्रचार होता |

ऐसे महापुरुषोंका नाम छिप जाता कि जिनको याद करनेसे ही कल्याण हो जाय |

वो खुद तो अपना नाम चाहते नहीं थे, वो तो स्वयंकी लिखि पुस्तकों पर भी अपना नाम लिखना नहीं चाहते थे
[गीताप्रेससे अर्थसहित गीताजी(साधारण भाषा टीका) छपी है,परन्तु  श्री सेठजीने उसमें अपना नाम नहीं दिया है। आज भी उसमें नाम नहीं लिखा जा रहा है ]।

श्रीसेठजीसे पुस्तकों पर स्वयंका नाम लिखनेकी प्रार्थना की गई कि आपका नाम लिखा होगा , तो लोग पढेंगे; तब उन्होने स्वीकार किया और उनकी पुस्तकों पर उनका नाम दिया जाने लगा |

इस प्रकार श्रीसेठजी अपना नाम नहीं चाहते थे और उनके अनुयायी भी इसमें साथ देते थे ; जिसका परिणाम यह हुआ कि सत्य छिप गया और झूठका प्रचार होने लग गया।

अगर श्रीसेठजीका नाम छिपा रहता तो हालात कुछ और ही हुई होती ; परन्तु श्रीस्वामीजी महाराजने यह कमी समझली और श्रीसेठजीका नाम सामने लै आये , जिससे जगतका महान उपकार हो गया |

यह उन महापुरुषोंकी हमलोगों पर भारी दया है ; यह हमलोगोंको क्रियात्मक उपदेश है कि महापुरुष अपना प्रचार स्वयं नहीं करते;यह तो हम लोगोंका कर्तव्य है कि उनका प्रचार हमलोग करें |

श्रीस्वामीजी महाराज बताते थे कि एक बार जब 'कर्णवास' नामक स्थानमें श्रीसेठजीका सत्संग चल रहा था, तो भाईजी गीताप्रेस,कल्याण आदिका काम छोड़कर , बींटा(बिस्तर) बाँधकर वहाँ आ गये कि मैं तो भजन करुँगा ; भगवानका प्रचार मनुष्य क्या कर सकता है |

तब श्री सेठजीने कहा कि भगवानका प्रचार करना खुद भगवानका काम नहीं है,यह तो भक्तों(हमलोगों)का काम है (वापस जाकर भगवानका काम करो,प्रचार करो)|तब वो वापस जाकर काम करने ले।

इसी प्रकार महापुरुषोंका और उनकी वाणीका प्रचार करना स्वयं महापुरुषोंका काम नहीं है , यह तो उनके अनुयायियोंका काम है,भक्तोंका काम है | अगर वे भी नहीं करेंगे तो कौन करेगा? उनका नाम वे नहीं लेंगे तो कौन लेगा?

इसलिये यह भक्तोंका(-हमारा ) कर्तव्य है कि महापुरुषोंका,उनकी वाणीका और उनकी पुस्तकोंका दुनियाँमें प्रचार करें |

हाँ,उनके प्रचारकी औटमें अपना स्वार्थ सिध्द न करें |

जैसे-

अपनी कथा-प्रचारमें,पत्रिकामें,व्यापारमें या दुकान आदिमें
उन महापुरुषोंका नाम लिखावादें; (तो) इससे हमारा प्रचार होगा,हमारी दुकानका प्रचार होगा, बिक्री बढेगी,लोग हमें उनका अनुयायी समझकर हमारा आदर करेंगे,विश्वास करेंगे,ग्राहक ज्यादा हो जायेंगे,हमारे आमदनी बढेगी,हमारे श्रोता ज्यादा आयेंगे,हमारी बात भी कीमती हो जायेगी,हमारी मान-बड़ाई होगी,
लोग हमारेको उनका विशेष आदमी मानेंगे आदि आदि ।

ऐसी स्वार्थकी भावनासे , इस प्रकार स्वार्थ सिध्द करनेके लिये महापुरुषोंके नामका दुरुपयोग न करें और कोई करता हो तो उसको भी यथासाध्य रोकें।

सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका और श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजको सत्संग बड़ा प्रिय था ; उनकी कोशीश थी कि ऐसा सत्संग आगे भी चलता रहे|

इसलिये उनकी पुस्तकों द्वारा सत्संग करें ,दुकानपर पुस्तकें रखें और लोगोंको कोशीश करके बतावें तथा देवें।

पुस्तकें पढनेके लिये देवें और पढलेनेपर वो पुस्तक वापस लेकर दूसरी देवें।

पुस्तक पढकर लोगोंको सुनावें,उनकी रिकोर्ड की हुई -वाणी द्वारा सत्संग करें,सभा करके उनकी रिकोर्ड-वाणी लोगोंको सुनावें।

अपने सत्संग,कथा-प्रवचनोंमें भी महापुरुषोंकी रिकोर्ड-वाणी लोगोंको सुनावें,भागवत-सप्ताहके समान उनकी गीता 'तत्त्व-विवेचनी' गीता 'साधक-संजीवनी' आदि ग्रंथोंका आयोजन करके लोगोंको सुनावें |

जैसे कथाकी सूचना लिखवाते हैं और सूचना देते हैं कि अमुक दिन भागवत-कथा होगी,आप पधारें; इसी प्रकार महापुरुषोंकी वाणीकी, पुस्तकोंकी सुचना लिखवायें और सूचना देवें तथा समयपर वाणी और पुस्तक ईमानदारीसे सुनावें |

जिस प्रकार श्रीस्वामीजी महाराजके समय प्रातः प्रार्थना,गीता-पाठ (गीताजीके करीब दस श्लोकोंका पाठ) और सत्संग होता था; वैसे ही आज भी प्रार्थना,गीता-पाठ करें और उनकी रिकोर्डिंगवाणी द्वारा सत्संग अवश्य सुनें।

वहाँ महापुरुषोंका नि:स्वार्थभावसे नाम अवश्य लिखवावें कि अमुक महापुरुषोंकी वाणी या पुस्तक सुनायी जायेगी,इसी प्रकार नाम लेकर सूचना देनी चाहिये |

ऐसा न हो कि हम उन संतोंका नाम नहीं लिखेंगे और दूसरा कोई लिखेगा , तो हम मना करेंगे; क्योकि वो संत मना करते थे।

इसमें थोड़ी-सी बात यह समझनेकी है कि वो मना किनको करते थे? कि जो निजी स्वार्थके कारण महापुरुषोंके नामका दुरुपयोग करते हैं (जैसा कि ऊपर बताया जा चूका है) , उनको मना करते थे |

इसके अलावा नाम लिखवाना मना नहीं था |अगर मनाही होती तो श्रीस्वामीजी महाराज श्रीसेठजीका नाम क्यों लेते ? और क्यों लिखवाते? (जैसा कि ऊपर प्रसंग लिखा जा चूका है ) |

अगर हम संसारको न तो महपुरुषोंके विषयमें कुछ बतायेंगे और न उनकी पुस्तकें बतायेंगे,तथा न उनकी रिकोर्ड-वाणीके विषयमें बतायेंगे और दूसरोंको मना करेंगे तो हम बड़े दोषी हो जायेंगे,महापुरुषोंका नाम उठा देनेवालों जैसे हो जायेंगे; क्योंकि इससे संसारमें महापुरुषोंका नाम छिप जायेगा।

लोग न तो महापुरुषोंको जान पायेंगे और न उनकी पुसतकें पढ पायेंगे,न उनकी रिकोर्ड-वाणी सुन पायेंगे और बेचारे लोग दूसरी जगह भटकेंगे।

महापुरुषोंने दुनियाँके लिये जो प्रयास किया था वो सिमिटकर कहीं पड़ा रह जायेगा।

इस प्रकार हम महापुरुषोंके प्रयासमें सहयोगी न होकर उलटे बाधा देनेवाले हो जायेंगे,जो न तो भगवानको पसन्द है और न  संत-महात्माको ही पसन्द है।
हम सत्यको छिपानेमें सहयोगी होंगे तथा झूठके प्रचारमें सहयोगी बनेंगे जैसा कि ऊपर लिखा जा चूका - गीताप्रेसके संसथापक श्री सेठजी थे यह सत्य छिप गया और ...झूठका प्रचार हो गया।

इसलिये संसारमें और घरमें स्वयं अगर कोई जल्दी तथा सुगमता-पूर्वक सुख-शान्ति चाहे, कल्याण चाहे तो उपर्युक्त प्रकारसे महापुरुषोंकी पुस्तकें पढें और पढावें,सुनें और सुनावें।

उनकी रिकोर्डिंग-वाणी सुनें और सुनावें तथा महापुरुषोंके,संतोंके चरित्र सुनें और सुनावें,पढें और पढावें ||

सीताराम सीताराम
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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी
श्रीरामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/