शनिवार, 16 अप्रैल 2016

अनुभवका उपाय-व्याकुलता -परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सत्संग-प्रवचन(१९९५०५२९/८.३०बजे) से

                      ।।श्रीहरि।।

अनुभवका उपाय-व्याकुलता -परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सत्संग-प्रवचन(१९९५०५२९/८.३०बजे) से

अर्थात्  दि.२९/५/१९९५;८.३०बजे के सत्संगसे।

अनुभव(कि मैं शरीर नहीं हूँ) न हो जाय, तब तक मैं दूसरा काम (खाना,पीना सोना आदि)नहीं करूंगा

(तो अनुभव चट हो जायेगा)|

खाना,पीना नींद छोड़नेसे कुछ नहीं होगा; आप समझे कि नहीं?

- परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके 29-5-1995.0830 बजेके सत्संग-प्रवचन(१९९५०५२९/८.३०बजे) से

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पाप-कर्म सबसे पहले छोड़ना आवश्यक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके विशेष प्रवचनसे |

                          ।।श्रीहरि।।

पाप-कर्म सबसे पहले छोड़ना आवश्यक

- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके विशेष प्रवचनसे |

मुक्तिका क्रम-
1.निषिध्द(पाप)का त्याग 2.न्याय(अच्छा व्यवहार,आपसमॅ प्रेम हों आदि) 3.धर्म(शास्त्रविहित दान,पुण्य आदि)और 4.पारमार्थिक-बातें(जिससे जीवकी मुक्ति हो जाय)।

[इसलिये सबसे पहले पाप-कर्म तो छोङने ही चाहिये नहीं तो मुक्तिकी तरफ चलना शुरु ही नहीं हुआ]

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके विशेष प्रवचनसे |

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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

निन्दा,चुगली करना बड़ा भारी पाप है।

                        ।।श्रीहरि।।

निन्दा,चुगली करना बड़ा भारी पाप है।

(किसीने कहा है कि आजकल लोग निन्दा,चुगली करनेका पाप बहुत करने लग गये हैं, उनके लिये कुछ कहा जाय।

इसके लिये निवेदन है कि -)

सन्तोंने निन्दा, चुगलीको बडा़ भारी पाप बताया है-

परम धरम श्रुति बिदित अहिंसा।
पर निन्दा सम अघ न गरीसा।।

(रामचरितमा.७/१२१)।

अघ कि पिसुनता सम कछु आना।
धरम कि दया सरिस हरिजाना।।

(रामचरितमा.७/११२) ।

कौन कुकर्म किये नहिं मैंने जौ गये भूलि सो लिये उधारे।
ऐसी खेप भरी रचि पचिकै चकित भये लखिकै बनिजारे।।

कुकर्म (पाप) उधार कैसे लिये जाते हैं?

इसका उत्तर श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि जो पाप हमने किया नहीं; दूसरेने किया है।परन्तु अगर हम उनकी निन्दा करते हैं , तो यह पाप उधारा लेना हो गया।
अब हमको भी वही दण्ड मिलेगा जो पाप करनेवालेको मिलता है।

(प्रश्न -
चुगली किसको कहते हैं?

उत्तर-)

किसीके दोषको दूसरेके आगे प्रकट करके दूसरोंमें उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता (चुगली) है।

(साधक-संजीवनीके १६/२ की व्याख्या)।

उसमें अपैशुनम् की व्याख्या पढें।

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गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

क्या सुमित्रा माताके एक ही बेटा था? कह, नहीं; दो बेटे थे।

                          ।।श्रीहरि।।

क्या सुमित्रा माताके एक ही बेटा था? कह, नहीं; दो बेटे थे।

किसीने पूछा है कि रामजीने यह क्यों कहा कि सुमित्रा  माताके एक ही बेटा था; क्योंकि उनके तो बेटे दो थे- लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी।

उत्तरमें निवेदन है-

लक्ष्मणमूर्छाके अवसर पर रामजी विलाप करते हुए कहते हैं कि

निज जननीके एक कुमारा।
तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।।

अर्थात् अपनी माँ के तुम एक ही पुत्र हो और उनके एक तुम ही प्राणोंके आधार हो।

इसके कई कारण और कई अर्थ बताये जाते हैं ।

जैसे-

1.एक अर्थात्‌ अद्वितीय।

2.बेटा अगर भगवानका भक्त है तो वही माँ उस एक बेटेके कारण माँ है।वही बेटा बेटा है , दूसरे बेटोंकी गिनतीमें बेटोंमें नहीं है-

पुत्रवती जुबती जग सोई।
रघुबर भगत जासु सुत होई।।
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी।
राम बिमुख सुत ते हित जानी।।

3.हे लक्ष्मण ! मेरी माँ(कौसल्या)के मैं एक ही बेटा हूँ और उसके अर्थात् मेरे एक तुम ही प्राणोंके आधार हो, आदि आदि अनेक समाधान किये जाते हैं।

परन्तु वास्तविक  समाधान श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज बताते हैं  कि यह भगवानकी प्रलाप लीला है-

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।
(लंकाकाण्ड 61)

प्रलाप उसको कहते हैं कि जिसमें बोलनेवाला बिना समझे ही कुछ बोल दे।

जब मनुष्य प्रेममें ज्यादा व्याकुल हो जाता है तब कुछका कुछ बोल देता है,प्रलाप करने लग जाता है।हौस(ज्ञान) भूल जाता है।

प्रलापके कारण प्रेमका भी पता चलता है।उस समय अगर (प्रलाप न होकर) हौस रहता है,बोलने आदिमें सावधानी रहती है तो प्रेममें कमी समझी जाती है और जितनी सावधानीकी भूली होती है,उतना प्रेम अधिक माना जाता है।

यहाँ रामजी भी लक्ष्मणमें प्रेम अधिक होनेसे प्रलाप करते हैं।

इस प्रसंगमें रामजीने और भी ऐसी कई बेमेल बातें कहीं  है।

अगर रामजी हौसमें बोलते तो प्रेममें कमी समझी जाती।इस अवसर पर हौस भूलकर प्रलाप करना ही प्रेमकी अधिकता है।

इसलिये रामजीने यहाँ प्रलाप लीला की है।

संगति बैठानेके लिये इधर-उधरसे ज्यादा खींचतानकी जरूरत नहीं है।माता सुमित्राके बेटे दो ही थे।

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सोमवार, 7 मार्च 2016

पण ये असर पङता रहे,तबतक सीखी हुई बातें है,बोध नहीं है-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

                         ।।श्रीहरि।।

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पण ये असर पङता रहे,तबतक सीखी हुई बातें है,बोध नहीं  है-

- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

जिनको सीखे हुए ज्ञान  और वास्तविक  ज्ञानका अन्तर जानना हो,ज्ञान और प्रेम (भक्ति) का अन्तर जानना हो,मुक्ति और बन्धनका भेद जानना हो,मनुष्यजन्मका उध्देश्य जानना हो और साधू और वास्तविक साधू (अपनेको साधू,संत,ज्ञानी माननेवाले और असली सन्त)का अन्तर जानना हो तो उनको चाहिये कि

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजका 19940825_0518 (25-8-1994 प्रातः 5 बजे) वाला प्रवचन ध्यानसे सुनें।

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रविवार, 6 मार्च 2016

(दुखके समय क्या करें?)-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

                    ।।श्रीहरि।।

(दुखके समय क्या  करें?)

-श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

...
जब प्राणी कुछ गलती करता है,भगवद्भजनमें प्रमाद करता है,नींद आलस्य बढ जाता है,तो घबराहट होती है और मनमें समझता है (कि) अब क्या करूँ,कैसे करूँ,रस्ता सूझता नहीं।ठीक बात दीखती नहीं।

ऐसी अवस्थामें भी आप जबरदस्ती भजनमें लग जाओ।जल्दी उठकरके भजनमें लग जाओ।जल्दी ऊठकरके।याद रखो,जल्दी ऊठ ज्यावो और भजनमें लग जाओ और भगवानसे प्रार्थना करो।

"सच्चे हृदयसे प्रार्थना जो भक्त सच्चा गाय है। तो
भक्तवत्सल कानमें वह पहुँच झठ ही जाय है।।"

'सच्चे हृदयसे प्रार्थना जो भक्त सच्चा' , भक्त सच्चा हो और सच्चे हृदयसे करता है तो भगवानके यहाँ सुनाई जल्दी हो जाती है...।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके दिनांक 20000318_1530 (18-3-2000_1530 बजे) वाले प्रवचनका अंश (यथावत्)।

विस्तारसे जाननेके लिये कृपया यह प्रवचन सुनें।

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शनिवार, 5 मार्च 2016

साधक-संजीवनी गीता के अंश-(1) लेखक - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

                   ।।श्रीहरि:।।   


साधक-संजीवनी गीता के अंश-(1) लेखक - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।  ●

संसारमें कोई भी नौकरको अपना मालिक नहीं बनाता;परन्तु भगवान् शरणागत भक्तको अपना मलिक बना लेते हैं।ऐसी उदारता केवल प्रभुमें ही है।

गीता साधक-संजीवनी (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) 18।12 से।

जैसा प्रारब्ध है,उसीके अनुसार उसकी बुद्धि बन गयी,फिर दोष किस बातका ?

बुद्धि में जो द्वेष है, उसके वशमें हो गया - यह दोष है।उसे चाहिये कि वह उसके वशमें न होकर विवेकका आदर करे।गीता भी कहती है कि बुद्धि में जो राग-द्वेष रहते हैं (तीसरे अध्यायका चालीसवाँ श्लोक), उनके वशमें न हो - 'तयोर्न वशमागच्छेत्' (३|३४)।

गीता साधक-संजीवनी (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) १८|१२ से। 

••• उनके साथ मन न रहे तो किसी भी विषयका ज्ञान नहीं होता। अत: इन्द्रियोंकी ज्योति (प्रकाशक) 'मन’ है। मनसे विषयोंका ज्ञान होनेपर भी जबतक बुद्धि उसमें नहीं लगती, बुद्धि मनके साथ नहीं रहती, तबतक उस विषयका स्पष्ट और स्थायी ज्ञान नहीं होता। बुद्धिके साथ रहनेसे ही उस विषयका स्पष्ट और स्थायी ज्ञान होता है। अत: मनकी ज्योति (प्रकाशक) 'बुद्धि’ है। बुद्धिसे कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्-असत्, नित्य-अनित्यका ज्ञान होनेपर भी अगर स्वयं (कर्ता) उसको धारण नहीं करता, तो वह बौद्धिक ज्ञान ही

रह जाता है; वह ज्ञान जीवनमें, आचरणमें नहीं आता। वह बात स्वयंमें नहीं बैठती। जो बात स्वयंमें बैठ जाती है, वह फिर कभी नहीं जाती। अत: बुद्धिकी ज्योति (प्रकाशक) 'स्वयं’ है। स्वयं भी परमात्माका अंश है और परमात्मा अंशी है। स्वयंमें ज्ञान, प्रकाश परमात्मासे ही आता है। अत: स्वयंकी ज्योति (प्रकाशक) 'परमात्मा’ है। उस स्वयंप्रकाश परमात्माको कोई भी प्रकाशित नहीं कर सकता।

 तात्पर्य यह हुआ कि परमात्माका प्रकाश (ज्ञान) स्वयंमें आता है। स्वयंका प्रकाश बुद्धिमें, बुद्धिका प्रकाश मनमें, मनका प्रकाश इन्द्रियोंमें और इन्द्रियोंका प्रकाश विषयोंमें आता है। मूलमें इन सबमें प्रकाश परमात्मासे ही आता है। अत: इन सब ज्योतियोंका ज्योति, प्रकाशकोंका प्रकाशक परमात्मा ही है। जैसे एक-एकके पीछे बैठे हुए परीक्षार्थी अपनेसे आगे बैठे हुएको तो देख सकते हैं, पर अपनेसे पीछे बैठे हुएको नहीं, ऐसे ही अहम्, बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ आदि भी अपनेसे आगेवालेको तो देख (जान) सकते हैं, पर •••

(गीता साधक- संजीवनी, १३|१७)।  

● 

शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिसे जो कुछ शास्त्रविहित सांसारिक या पारमार्थिक क्रियाएँ होती हैं, वे सब भगवान्की मरजीसे ही होती हैं। मनुष्य तो केवल अहंकारके कारण उनको अपनी मान लेता है। उन क्रियाओंमें जो अपनापन है, उसे भी भगवान्के अर्पण कर देना है; क्योंकि वह अपनापन केवल मूर्खतासे माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं। इसलिये उनमें अपनेपनका भाव बिलकुल उठा देना चाहिये और उन सबपर भगवान्की मुहर लगा देनी चाहिये। (साधक- संजीवनी गीता १८|५७)।

● 


'यं हि  व्यथयन्त्येते पुरुषम्—धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श अर्थात् प्रकृतिके मात्र पदार्थ व्यथा नहीं पहुँचाते। प्राकृत पदार्थोंके संयोगसे जो सुख होता है, वह भी व्यथा है और उन पदार्थोंके वियोगसे जो दु:ख होता है, वह भी व्यथा है। परन्तु जिसकी दृष्टि समताकी तरफ है, उसको ये प्राकृत पदार्थ सुखी-दु:खी नहीं कर सकते। समताकी तरफ दृष्टि रहनेसे अनुकूलताको लेकर उस सुखका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्त:करणमें उस सुखका स्थायी रूपसे संस्कार नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रतिकूलता आनेपर उस दु:खका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्त:करणमें उस दु:खका स्थायीरूपसे संस्कार नहीं पड़ता। इस प्रकार सुख-दु:खके संस्कार न पडऩेसे वह व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि अन्त:करणमें सुख-दु:खका ज्ञान होनेसे वह स्वयं सुखी-दु:खी नहीं होता। 

(साधक- संजीवनी गीता २|१५;)


(बाकी बाद में ■)