।।श्रीहरिः।।
धन और भोगोंकी तरफ मन बुद्धिका खिंचाव क्यों होता है?
(-श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदासजी महाराज)।
...तो हमारा चित्त द्रव्य(धन)की तरफ खिंचता है। तो हमने भीतर द्रव्यमें (द्रव्यको) महत्त्वबुद्धि दी है ,हमने ही (दी है) वो, इस वास्ते वो (महत्त्व) दी हुई बुद्धि उधर खिंचती है। हम अगर उसको महत्त्व न दें तो बुद्धि नहीं खिंचेगी ।
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परन्तु अगर अपना कोई उद्धार चाहता है तो भीतरसे ये पहले महत्त्वबुद्धि दी है इसको न रखे तो फिर हमारा मन नहीं खिंचेगा । ये इती(इतनी) बात, पक्की बात है।
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भीतरसे वैराग्य हो, तो उसमें बुद्धि नहीं खिंचेगी । कह, कैसे नहीं खिंचेगी? पदार्थ है जो (तो) पदार्थमें तो मन खिंचता ही है ! भोगोंकी तरफ, रुपयोंकी तरफ मन खिंचता है।
तो मैं आपलोगोंसे एक प्रश्न कर सकता हूँ कि आपका हमारा जो वास्तवमें सत्संग है , वैष्णव है, भजन-ध्यान करते हैं । क्या उनका मन कभी मांसकी तरफ खिंचता है? अण्डोंकी तरफ खिंचता है? मछली की तरफ मन जाता है क्या? -मछली बिक रही है।
कह,ये कैसी बात है! मुर्दा छू जाय तो स्नान करें हम। मुर्दा है मुर्दा।प्राण चले गये ,ऐसे जो पशु है। वे तो मुर्दा है। उनको तो छूनेसे भी स्नान करना पड़ता है। तो फिर आपका मन जाता है? कह, कैसे जावे उसमें?
अच्छा ! आपका मन नहीं जाता , ऐसे किसीका भी मन न जाय तो क्या मांसकी दुकान चलेगी ?...
(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के "19930726_0800_Sansar Ka Khichaav Kaise Mite "
नाम वाले प्रवचनके अंश)।
(इसलिये मन उसीकी तरफ खिंचता है जिसको हमने महत्त्व दिया है, जिसको हमने अच्छा समझा है। अगर महत्त्व न दें तो मन खिंचेगा नहीं)।
अधिक जाननेके लिये कृपया यह प्रवचन पूरा सुनें।
गीता साधक-संजीवनी (लेखक -श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) ६ ।३६ की व्याख्या भी पढ़ें)।
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