बुधवार, 31 दिसंबर 2014

भगवानकी भक्तपर विशेष दया।

                       ।।श्रीहरि:।।

भगवानकी भक्तपर विशेष दया।

भगवान अपने भक्तके अवगुण,अयोग्यता आदिकी तरफ न देखकर स्वयं,अपनी तरफ दखते हैं और भक्तका पालन-पोषण करते हैं।

हृदयमें नियत अच्छी होनी चाहिये।

दीखनेमें तो चाहे भक्तकी भूल-चूक ही क्यों न दीखते हों,परन्तु वो तो भक्तके हृदयकी अच्छाई देखकर रीझ जाते हैं,खुश होजाते हैं और भक्तके गुण गाने लगते हैं।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि भगवानका हृदय विलक्षण है।उसमें अवगुण नहीं छपते अर्थात् भगवान भक्तके गुणोंको तो याद रखते हैं,पर अवगुणोंको याद नहीं रखते।अवगुण भूल जाते हैं,भक्तकी भूल(चूक)को भूल जाते हैं।

भूलनेका स्वभाव होनेसे भगवान अपने भक्तके हृदयकी अच्छाईको सौ बार याद करते हैं कि मैं भूल न जाऊँ।

किसीका अगर भूलनेका स्वभाव है;जैसे,कोई गीताजीका श्लोक याद करना चाहता है,याद कर भी लेता है पर भूल जाता है।तो वो अगर एक श्लोकको सौ बार रट ले,सौ बार उस श्लोककी आवृत्ति कर ले तो फिर भूलेगा नहीं,याद हो जायेगा।

ऐसे भगवान भी अपने भक्तके हृदयकी अच्छाईको सौ बार याद करते हैं कि मैं भूल न जाऊँ।मेरा भक्तकी चूक भूल जानेका स्वभाव है,इस कारण भक्तकी अच्छाईको भी भूल न जाऊँ।

इसलिये भगवान भक्तके हृदयकी बातको सौ बार याद करतेहैं।

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भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा।
करउँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती।
जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो।
निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो॥

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं।
बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥

गनी गरीब ग्रामनर नागर।
पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी।
नृपहि सराहत सब नर नारी॥

साधु सुजान सुसील नृपाला।
ईस अंस भव परम कृपाला॥

सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी।
भनिति भगति नति गति पहिचानी॥

यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ।
जान सिरोमनि कोसलराऊ॥

रीझत राम सनेह निसोतें।
को जग मंद मलिनमति मोतें॥

दोहा

सठ सेवक की प्रीति रुचि
रखिहहिं राम कृपालु ।

उपल किए जलजान जेहिं
सचिव सुमति कपि भालु ॥२८ (क )॥

हौहु कहावत सबु कहत
राम सहत उपहास ।

साहिब सीतानाथ सो
सेवक तुलसीदास ॥२८ (ख )॥

चौपाला

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी।
सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें।
सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥

सुनि अवलोकि सुचित चख चाही।
भगति मोरि मति स्वामि सराही॥

कहत नसाइ होइ हियँ नीकी।
रीझत राम जानि जन जी की॥

रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करत सुरति सय बार हिए की॥

जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली।
फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥

सोइ करतूति बिभीषन केरी।
सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥

ते भरतहि भेंटत सनमाने।
राजसभाँ रघुबीर बखाने॥

दोहा

प्रभु तरु तर कपि डार पर
ते किए आपु समान ।

तुलसी कहूँ न राम से
साहिब सीलनिधान ॥२९ (क )॥

राम निकाईं रावरी
है सबही को नीक ।

जों यह साँची है सदा
तौ नीको तुलसीक ॥२९ (ख )॥

एहि बिधि निज गुन दोष कहि
सबहि बहुरि सिरु नाइ ।

बरनउँ रघुबर बिसद जसु
सुनि कलि कलुष नसाइ ॥२९ (ग )॥

(रामचरितमा.१।२९)।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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